भारत में स्वतंत्रता के बाद की शिक्षानीति पर प्रकाश डालें ।

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प्रश्न – भारत में स्वतंत्रता के बाद की शिक्षानीति पर प्रकाश डालें । 
(Throw light on education Policy during Post Independence in India.)

उत्तर – राधाकृष्णन आयोग – स्वतन्त्रता प्राप्ति के तुरन्त पश्चात् भारत सरकार का ध्यान शिक्षा की तरफ गया । डॉ. राधाकृष्णन की अध्यक्षता में नवम्बर 1948 में एक कमीशन बहाल किया गया । इस आयोग को विश्वविद्यालय शिक्षा पर अपनी रिपोर्ट देनी थी, तथा आवश्यक सुझाव भी । आयोग ने अपना प्रतिवेदन अगस्त 1949 को प्रस्तुत किया । इसकी निम्नलिखित सिफारिशें थीं –

  1. प्रजातन्त्र की सफलता के लिए साधारण तथा व्यावसायिक शिक्षा का प्रसार करना ।
  2. विज्ञान का प्रसार कर देश को अभावों से बचाना ।
  3. विद्यार्थियों को अन्वेषण के लिए प्रोत्साहित  करना ।
  4. योग्य विद्यार्थियों को बिना किसी भेद-भाव के उच्च शिक्षा के लिए छात्रवृत्तियाँ देना ।
  5. अध्यापकों एवं विद्यार्थियों में निकट सम्बन्ध स्थापित करना ।
  6. शिक्षकों की विभिन्न श्रेणियाँ हों, जैसे— प्राध्यापक, प्रवाचक, व्याख्याता एवं शिक्षक । उनके वेतन में वृद्धि की जाये। उन्हें निवास, चिकित्सा एवं भविष्य निधि आदि की सुविधायें भी प्रदान की जायें। उनकी सेवा की शर्तों में सुधार किया जाये ।
  7. शिक्षा के स्तर को ऊँचा उठाया जाये । विश्वविद्यालयों में केवल योग्य छात्रों को ही प्रवेश दिया जाये । उत्तीर्णांक के प्रतिशत में वृद्धि की जाये। विद्यालयों में कम से कम 180 दिन पढ़ाई अवश्य हो । उत्तम पुस्तकालय तथा प्रयोगशालाओं की स्थापना की जाये ।
  8. सभी विश्वविद्यालयों का स्तर एक समान हो ।
  9. इण्टरमीडिएट समाप्त कर हायर सेकण्डरी और त्रिवर्षीय स्नातक शिक्षा पद्धति प्रारम्भ की जाये ।
  10. कृषि एवं पशुपालन शिक्षा, वाणिज्य शिक्षा, चिकित्सा, कानून की शिक्षा, इंजीनियरिंग एवं अध्यापकों की शिक्षा के स्तर में अवश्य सुधार किया जाये ।
  11. शिक्षा का माध्यम प्रादेशिक भाषाएँ हों। वैसे विद्यार्थियों को संघ भाषा एवं अंग्रेजी की शिक्षा प्राप्त करना भी आवश्यक हो ।
  12. शिक्षा के क्षेत्र में साम्प्रदायिक एवं संकीर्ण विचारों पर रोक लगायी जाये ।
  13. निबन्धात्मक परीक्षाओं में सुधार किया जाये । वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं को महत्त्व दिया जाये । कक्षा कार्य के लिए भी कुछ अंक निर्धारित किये जायें ।
  14. जो विद्यार्थी धार्मिक शिक्षा प्राप्त करना चाहें उनके लिए इस प्रकार की शिक्षा व्यवस्था की जा सकती है जिसका स्वरूप इस प्रकार होगा—
    1. अध्यापन कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व प्रार्थना एवं उपासना करना ।
    2. डिग्री कोर्स के प्रथम वर्ष में महापुरुषों तथा अशोक, बुद्ध, कन्फ्यूसियस, ईसा, मुहम्मद, कबीर, नानक एवं महात्मा गाँधी आदि की जीवनियाँ बतलाना ।
    3. द्वितीय वर्ष में प्रमुख धर्मों के आधारभूत सिद्धान्तों को बतलाने के लिए गीता, अवेस्ता, कुरान, ग्रन्थसाहिब आदि ग्रन्थों के विशेष अवतरणों को पढ़ाना ।
    4. तृतीय वर्ष में विभिन्न दर्शन की महत्त्वपूर्ण बातें बतलाना ।
  15. छात्रों को दलगत राजनीति से दूर रखा जाये । निर्धन तथा योग्य छात्रों को विशेष छात्रवृत्तियाँ दी जायें । छात्रों के स्वास्थ्य की निःशुल्क जाँच की जाये । स्कूल-कॉलेजों में एन.सी.सी. आदि की व्यवस्था की जाये ।
  16. स्त्रियों की शिक्षा की ओर भी ध्यान दिया जाये । उनके पाठ्यक्रम में ललित कलाओं, गृह-विज्ञान एवं पाकशास्त्र आदि को स्थान दिया जाये ।

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि इस आयोग ने शिक्षा सम्बन्धी बातों पर विस्तारपूर्वक विचार किया । अब तक जितने भी आयोग एवं समितियाँ नियुक्त की गयी थीं उनमें इसका स्थान सर्वोपरि है । इसके सुझाव बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं | इससे सच्चे अर्थों में शिक्षा को प्रभावशाली बनाया जा सकता है और बनाया जा रहा है । इसकी सिफारिशानुसार विश्वविद्यालय आयोग का गठन (1956) में किया जा चुका है, त्रिवर्षी कोर्स चालू कर दिया गया है, अध्यापकों के वेतन बढ़ाये गये हैं, तथा उन्हें अन्य सुविधाएँ भी दी गयी हैं, कक्षा कार्य के लिए कुछ अंक निर्धारित कर दिये गये हैं, अध्यापक – विद्यार्थी को निकट लाने हेतु शिक्षक-विद्यार्थी योजना लागू की गयी एवं अनेक अन्य कदम उठाये गये । राजेन्द्र प्रसाद जी ने ठीक ही कहा था— “आयोग की रिपोर्ट का विशेष महत्त्व इसलिए है कि यह उच्च शिक्षा-प्रणाली की आधारभूत बातों में परिवर्तन स्वीकार करता है, और इसी आधार पर उसने शिक्षा – समस्याओं को हल करने के सुझाव दिये हैं। रिपोर्ट अनेक . अतीत के सर्वोत्तम गुणों के संरक्षण पर भी जोर देती है । ”

मुदालियर आयोग – लक्ष्मीनारायण मुदालियर की अध्यक्षता में 23 सितम्बर, 1952 को एक आयोग की नियुक्ति हुयी जिसका कार्य माध्यमिक शिक्षा की समस्याओं पर विचार करना था और इसलिये इसे माध्यमिक शिक्षा आयोग भी कहते हैं । 29 अगस्त, 1953 को इसने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसने माध्यमिक शिक्षा के ये उद्देश्य बतलाये(i) लोकतन्त्र की सफलता के लिए यह भी आवश्यक है कि शिक्षा नागरिकों में नेतृत्व शक्ति का विकास करे, (ii) यह छात्रों के व्यक्तित्व के विकास में सहायक हो, (iii) यह छात्रों में व्यावसायिक योग्यता को भी बढ़ावा दे । इसने स्त्री शिक्षा टेकनिकल शिक्षा, चरित्र निर्माण शिक्षा, धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा, शारीरिक विकास की शिक्षा पर जोर दिया तथा यह भी सिफारिश की कि ग्रामीण स्कूलों में वैज्ञानिक ढंग से कृषि करने को प्रोत्साहन दिया जाये ।

कोठारी आयोग — 14 जुलाई, 1964 को कोठारी आयोग की नियुक्ति की गयी । इसकी नियुक्ति के सम्बन्ध में प्राय: यह प्रश्न किया जाता है कि जब राधाकृष्ण विश्वविद्यालय आयोग विश्वविद्यालय की शिक्षा के सम्बन्ध में तथा मुदालियर माध्यमिक शिक्षा आयोग माध्यमिक शिक्षा के सम्बन्ध में विचार कर चुका था तो एक नये आयोग को स्थापित करने की क्या आवश्यकता थी ? इस प्रश्न का यही उत्तर हो सकता है कि इस आयोग का उद्देश्य राष्ट्रीय शिक्षा का स्वरूप निर्धारित करना था। इसका एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य यह भी था कि प्राथमिक शिक्षा से लेकर विश्वविद्यालय तक की शिक्षा की समस्या पर विचार किया जाये । तथा—(i) समाजवादी ढंग के समाज की रचना, (ii) जनता की निर्धनता का अन्त, (iii) धर्म निरपेक्ष प्रजातन्त्र का दृढ़ीकरण, (iv) उद्योग-धन्धों का तेजी से विकास हेतु परम्परागत शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन किया जाये – यह भी एक उद्देश्य था इसके अलावा इसका यह भी उद्देश्य था कि शिक्षा में गुणात्मक विकास करवाया जाये ।

निष्कर्ष : यह कहा जा सकता है कि आज शिक्षा के क्षेत्र में गजब की उन्नति हो रही है। मेडिकल, औद्योगिक, विज्ञान, कृषि इन्जीनियरिंग, स्त्री तथा प्रौढ़ शिक्षा के क्षेत्र में प्रशंसनीय पग उठाये गये हैं। समय की माँग को देखते हुए Computer Course पर आज ज्यादा जोर दिया जा रहा है । कला संकाय में परिवर्तन हुए हैं । इतिहास का पुनर्लेखन हो रहा है । NCERT महत्त्वपूर्ण प्रकाशन निकाल रही है। आज Non-formal शिक्षा पर जोर दिया जा रहा है और 1 जुलाई, 1987 के फ्री प्रेस (इंदौर) में बैंजामिन खान ने LifeCentred Education की बात कही है ।

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