भाषा और अस्मिता के सम्बन्ध को विभिन्न तथ्यों द्वारा स्पष्ट कीजिए।

प्रश्न – भाषा और अस्मिता के सम्बन्ध को विभिन्न तथ्यों द्वारा स्पष्ट कीजिए। 
उत्तर – भाषा और अस्मिता
किसी देश की भाषा उसकी संस्कृति की वाहिका होती है। बिना भाषा के संस्कृति का प्रकाशन सम्भव नहीं। फलतः भाषा और संस्कृति का सम्बन्ध अभिन्न है। संस्कृत होती है किसी राष्ट्र का प्राण, उसका हृदयस्पन्दन जिसके बिना राष्ट्र मत है। इसी कारण प्रत्येक स्वाभिमानी, स्वतन्त्र राष्ट्र अपनी भाषा को सर्वोच्च आसन पर प्रतिष्ठित करता है। राष्ट्रभाषा राष्ट्र एकता सूत्र में पिरोने वाली और उसमें अस्मिताबोध जगाने वाली संजीवनी है। विगत 800 वर्षों तक इस देश की राज- भाषाएँ विदेशी रहीं पहले फारसी, फिर अंग्रेजी । इन भाषाओं के साथ यहाँ मुसलमानी और पाश्चात्य संस्कृतियों का बोलबाला रहा, जो विदेशी भाषाओं के प्रचलन का स्वाभाविक परिणाम था। इस परिस्थिति में देशी भाषाओं को खुलकर पनपने का अवसर ही नहीं मिला, क्योंकि कोई भी भाषा प्रयोग से ही बढ़ती है। देशी भाषाएँ तो बस जनता-जनार्दन के आश्रय में किसी प्रकार जीवित भर रहीं, जिससे भारतीय संस्कृति को उन्होंने मरने नहीं दिया।
सन् 1947 में देश की स्वतन्त्रता के साथ ही यह आशा सर्वथा स्वाभाविक थी कि देश की अपनी भाषा ही राजभाषा बनकर राष्ट्र की एकता एवं सांस्कृतिक पुनर्जागरण का शंख फूँकेगी और 14 सितम्बर, 1949 को संविधान सभा के 324 सदस्यों में से 312 ने हिन्दी के पक्ष में मतदान करके इस आशा को चरितार्थ भी किया, किन्तु इससे बढ़कर देश का दुर्भाग्य और क्या होगा कि इस विशाल देश के कोने-कोने से आये विभिन्न भाषा-भाषी प्रतिनिधियों द्वारा इतने प्रचण्ड बहुमत से पारित प्रस्ताव ही क्रियान्वित न हुआ, क्योंकि इसका दायित्व जिन सत्ताधीशों पर था वे विदेशी भाषा और संस्कृति का विष पीकर बड़े हुए, इसलिए अपने देश की भाषा और संस्कृति से दूर का लगाव भी न रखते थे।
यह सांस्कृतिक पराधीनता 1947 से पूर्व की राजनीतिक पराधीनता से भी अधिक भयंकर है। राजनीतिक पराधीनता में तो राष्ट्र का तन ही बन्धन में रहता है, मन और आत्मा मुक्त रहते हैं, जिससे हम अपना खोया वर्चस्व पुनः प्राप्त कर सकते हैं। सांस्कृतिक दासता राष्ट्र के मन और प्राणों को जकड़कर उसे निष्प्राण कर देती है। विश्व की अनेक प्राचीन लुप्त संस्कृतियाँ इसका उदाहरण है ।
इससे मातृभाषा और राष्ट्रभाषा का महत्त्व भलीभाँति उजागर हो जाता है। मातृभाषा व्यक्ति को अपनी धरती से जोड़ती है तो राष्ट्रभाषा विभिन्न प्रदेशों को एकता के सूत्र में बाँधकर राष्ट्र को सुदृढ़ और ओजस्वी बनाती है।
इस सम्बन्ध में सेठ गोविन्द दास लिखते हैं –
“भाषा हमारी माँ है। वह हमारे सांस्कृतिक शरीर की रचना करती है, उसका पोषण करती है, उसे अनुप्राणित करती है। “
प्रत्येक राष्ट्र की अपनी राष्ट्रभाषा
भाषा – विज्ञान के प्रसिद्ध पण्डित स्वर्गीय डॉ. रघुवीर ने, भोपाल में होने वाले अखिल भारतीय जनसंघ के 10वें वार्षिक अधिवेशन के अवसर पर अध्यक्षीय पद से भाषण देते हुए 29 दिसम्बर, 1962 ई. को भाषा के सम्बन्ध में निम्नलिखित उद्गार प्रकट किए-
“प्रत्येक सभ्य राष्ट्र की अभिव्यक्ति का माध्यम, उसकी अपनी भाषा होती है। जनतन्त्र का माध्यम जनभाषा है। जनभाषा का विरोध – जनतन्त्र का विरोध है। यदि देश में अनेक जनभाषाएँ हैं तो देश में एक केन्द्रीय भाषा ‘हिन्दी’ भी है, जो समुद्रों के पार से नहीं बुलाई गई। यह देश से उपजी भाषा है, दूसरी भाषाओं से घुली – मिली हुई है । ऐतिहासिक और भौगोलिक दृष्टि से यह भारतीय भाषाओं की सखी और सहेली है। संस्कृत की पुत्री है। कश्मीरी, पंजाबी, नेपाली, सिन्धी, असमिया, बंगला, उड़िया, गुजराती और मराठी की सहोदरा भगिनी है। तमिल, तेलुगु, मलयालम और कन्नड़ की धात्रयी भगिनी है। केन्द्रीय भाषा भारत की एकता श्रृंखला है। जहाँ भी इसकी आवश्यकता होगी, वहाँ यह सदा विद्यमान रहेगी-चाहे उच्च शिक्षालय हों और चाहे अन्तः प्रान्तीय सम्बन्ध हों ।
‘स्वभाव के बिना जनता का विकास सम्भव नहीं। चीनियों ने पिछले 13 वर्षों में जो भी विकास किया है, उसका मूलमन्त्र चीनी भाषा का प्रयोग है। जापानियों ने जापानी भाषा का आश्रय लेकर 30 वर्ष में ही मध्य युग को पार कर वर्तमान युग में प्रेवश किया और इतनी शक्ति का निर्माण किया कि रूस भी परास्त हुआ। अंग्रेजी भाषा जानने वालों की संख्या 2 प्रतिशत से अधिक नहीं । इन जनों की भी मातृभाषा भारतीय है; अर्थात् इनके लिए भी मातृभाषा में ज्ञान प्राप्त करना अधिक सुलभ है। प्रजातन्त्र में शासक-वर्ग प्रजा से भिन्न भाषा का प्रयोग नहीं कर सकता। अतः यह प्रजातन्त्र की माँग है कि प्रान्त – प्रान्त में अपनी-अपनी भाषाएँ चलें और केन्द्र में केन्द्रीय भाषा चले।”
डॉ. रघुवीर के पूर्ववर्ती भाषाविदों ने भी इसका समर्थन किया है कि हिन्दी ही भारतवर्ष की केन्द्रीय राष्ट्रीय भाषा है। डॉ. सुनीति कुमार चाटुर्ज्या ने अपने एक ग्रन्थ में कहा है“यह निर्विवाद सत्य है कि अर्वाचीन भारतवर्ष की सभी भाषाओं में हिन्दी ही इनकी प्रतिभू है स्थानीय भाषा है। यह 25 करोड़ 70 लाख व्यक्तियों की सहज तथा स्वाभाविक अन्त: प्रान्तीय भाषा है। इन 25 करोड़ 70 लाख लोगों के अतिरिक्त लाखों अन्य लोग इस भाषा को समझ सकते हैं। हिन्दी का स्थान जनसंख्या की दृष्टि से विश्व की सभी भाषाओं में तृतीय है। उत्तरी चीनी आंग्ल के पश्चात् ही इसका स्थान है। “
डॉ. ग्रियर्सन महोदय ने भी भारतवर्ष के भाषा सम्बन्धी सर्वेक्षण में इसी मत का प्रतिपादन किया।
डॉ सुनीति कुमार चाटुर्ज्या द्वारा दिये गये आँकड़े अविभाजित भारतवर्ष के हैं। विभाजन के उपरान्त 1951 ई., 1961 ई., 1971 ई., 1981 ई. तथा 1991 ई. में, पाँच बार जनगणना हुई है। इन जनगणनाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि हिन्दी समझने वालों की संख्या लगभग 40 करोड़ के लगभग है ।
भाषा – विज्ञान के आचार्यों के समान ही समय-समय पर भारत – राष्ट्र के नेतओं ने भी इस बात का अनुभव किया कि हिन्दी भारत की केन्द्रीय राष्ट्रभाषा है। उन्होंने अपना समस्त कार्य जहाँ हिन्दी में किया, वहाँ देशवासियों को भी इस बात की प्रेरणा दी कि वे दैनिक जीवन में हिन्दी को अपनाएँ।
स्वामी दयानन्द और राष्ट्रभाषा
1863 ई. में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने वैदिक धर्म का प्रचार कार्य प्रारम्भ किया। वे गुजरात के रहने वाले थे और संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित थे। प्रारम्भ में वे अपने भाषण संस्कृत में ही दिया करते थे परन्तु भारतवर्ष का भ्रमण करते-करते उन्होंने यह अनुभव किया कि अपने सन्देश को जन-जन तक पहुँचाने के लिए जनभाषा का ही प्रयोग करना चाहिए। उन्होंने देखा कि हिन्दी ही एक ऐसी भाषा है, जो भारतवर्ष के अधिकांश भागों में समझी
जा सकती है। इसलिए उन्होंने हिन्दी को ही ‘आर्यभाषा’ का नाम देकर अपने समस्त कार्यों में अपनाया। अपने समस्त ग्रन्थ; जैसे — ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका’, ‘सत्यार्थ प्रकाश’ आदि उन्होंने हिन्दी में ही लिखे, ताकि भारतवर्ष का जन-समुदाय उनसे लाभ उठा सके।
1875 ई. में स्वामी दयानन्द जी ने आर्य समाज की स्थापना की। आर्य समाज का एक उद्देश्य-आर्यभाषा (हिन्दी) का प्रसार करना भी है। आर्य समाज ने गुरुकुलों तथा अन्य शिक्षण संस्थाओं द्वारा हिन्दी का क्षेत्र व्यापक किया है। लेखक अपने अनुभव के आधार पर कह सकता है कि पंजाब के निवासियों में हिन्दी – प्रसार का जो कार्य आर्य समाज ने किया है, वह शायद ही किसी अन्य संस्था ने किया हो।
बाबू हरिचन्द्र और राष्ट्रभाषा
हिन्दी भाषा के उन्नायकों और उसका प्रचार करने वालों में बाबू हरिश्चन्द्र का नाम आदर से लिया जाता है। उन्होंने अनेक नाटक, काव्य और फुटकार गद्य और (लगभग सभी विषयों पर) निबन्ध लिखकर माँ भारती की उपासना की है। इतना ही नहीं, अनेक सभाओं में भाषण दे-देकर लोगों को हिन्दी का महत्त्व समझाया और उसकी उन्नति के लिए प्रेरित किया। उनका कहना था—
निज भाषा उन्नति है सब उन्नति का मूल । 
एक बार हिन्दी वर्द्धिनी सभा में हिन्दी का महत्त्व समझाते हुए पद्य में एक भाषण दिया था। यह भाषण ‘हिन्दी प्रदीप’ पत्रिका और ‘हिन्दी भाषा’ नामक पुस्तक में भी प्रकाशित हुआ था। इस भाषण में उन्होंने भी भाषा की उन्नति चाहने वालों के कार्यों की सराहना की और उसके गौरव पर प्रकाश भी डाला था।
भारत में यह देस धनि जहाँ मिलत सबभात,
निज भाषा कहं कटि कसे हम कहं आज लखात ।  
वह कहते थे— संसार की कोई भी भाषा किसी से कम महत्त्व नहीं रखती, पर प्रश्न तो यह है कि कौन देश – कौन-सी भाष को अपनी कहने का अधिकारी है। हर भाषा के अपने क्षेत्र हैं, अपनी सीमाएँ हैं, अपनी गरिमा है। हर जगह का काम हर भाषा में नहीं चल सकता। किसी भी देश की उन्नति तभी सम्भव है, जब वहाँ की भाषा उन्नतिशील और सुगठित हो । उदाहरण के लिए संस्कृत को ही ले लीजिए –
पढ़े संस्कृत जतन करि पंडित भे विख्यात, 
पै निज भाषा ज्ञान बिनु कहि न सकत एक बात ।
वही हाल फारसी का भी है-
पढ़े फारसी बहुत विधि तौहु, भए खराब, 
पानी खटिया तरे रहे पूत मरे कहि आब ।
अंग्रेजी पढ़ना भी वैसा ही है-
अंग्रेजी पढ़ि के जदपि सब गुन होत प्रबीन, 
पै निज भाषा ज्ञान बिनु रहत हीन के हीन । 
इन सब पचड़ों से दूर रहकर भारत का कल्याण इसी में है कि वह अपनी हिन्दी भाषा को मुख्य भाषा माने और सबको गौण । भारत ही नहीं, संसार के प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह अन्य सभी भाषाओं का अध्ययन करके अपना ज्ञान बढ़ाए, पर लक्ष्य केवल अपनी भाषा पर रहे। अपनी भाषा की उन्नति पर विशेष ध्यान रहे। अपनी भाषा को भूलकर विदेशी भाषा की उपासना में ही जुटे रहना तो उसी तरह हुआ कि घर में तो अँधेरा पड़ा है और मन्दिर में दीपक जलाते फिरें। घर में अन्धकार रखने वाला व्यक्ति बाहर प्रकाश करने में कभी सफल नहीं हो सकता।
भारतेन्दु बाबू कहते हैं कि हम हिन्दी के बीच पलते हैं, हिन्दी में सोचते हैं, हिन्दी में विचार करते हैं, साथ ही अपने बच्चों को भी हिन्दी बोलना ही सिखलाते हैं। जो बात बचपन में सीखी है, वह सदा के लिए मन पर दृढ़ रूप से छाप छोड़ देती है। जिसके बीच पले, जिसके सहारे चिन्तन करते हैं, आपस में बातचीत करते हैं, उसी के लिए इतना निरादर क्यों, हम उसे पराया क्यों मानते हैं फिर हम पर विदेशी भाषाओं का भार क्यों डाला जाता है। विदेशी भाषाओं में विचार और वार्त्तालाप के लिए विवश होकर हम अपने विचारों को कुण्ठित करते हैं। विदेशी भाषा पढ़ लेने पर भी –
पढ़ो – लिखो कोउ लाख विधि भाषा बहुत प्रकार |
पै जब ही कछू सोचिबो निज भाषा अनुसार || 
बाबू हरिश्चन्द्र के अनुसार हमारी सवांगीण का एक ही उपाय है और वह है निज भाषा- उन्नति–
निज भाषा उन्नति बिना कबहुँ न ह्वै है सोए ।
लाख अनेक उपाय यों भले करहु किन कोए ॥ 
जल-कल्याण का आधार भाषा – उन्नति है— हिन्दी की उन्नति जनसाधारण की उन्नति है। लोगों में जब साक्षरता का विकास होगा, बुद्धि और ज्ञान बढ़ेंगे, तब राष्ट्र स्वतः उन्नति करेगा। अतः यदि हम अपने को भारत माता की – इस राष्ट्र की सन्तान समझते हैं और उसके प्रति अपना कुछ कर्त्तव्य समझते हैं; तो—
निज भाषा निज धरम निज मान करम ब्यौहार, 
सर्व बढ़ावह वेगि मिलि महत पुकारि पुकार । 
करहु विलम्ब न भ्रात अब उठह, मिटावह सूल, 
निज भाषा उन्नति करह, प्रथम जो सब को मूल ।
गांधीजी की राष्ट्रभाषा
लोकमान्य तिलक के देहान्त के बाद भारतवर्ष का नेतृत्व गांधीजी के हाथ में आया। गांधीजी को भी, स्वामी दयानन्द के समान, प्रचार कार्य के लिए ग्राम-ग्राम में जाना पड़ता था। उन्होंने भी इस बात को भली-भाँति परिलक्षित किया कि हिन्दी ही एक ऐसी भाषा है, जिसे देश का बहुमत समझता है; अतः यही भारत की राष्ट्रभाषा है। हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रारम्भिक कर्णधारों में गांधीजी का भी नाम लिया जा सकता है। शुरू-शुरू में वे हिन्दी – साहित्य सम्मेलन के वार्षिक अधिवेशनों में बड़े उत्साह भाग लिया करते थे।
‘दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार समिति’ की स्थापना गांधीजी की ही प्रेरणा से हुई। दक्षिण भारत में हिन्दी भाषा के प्रसार में इस संस्था ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।
गांधीजी कहा करते थे कि यह कितने शोक की बात है हम विदेशियों से स्वतन्त्रता की माँग तो करते हैं परन्तु विदेशी भाषा के माध्यम द्वारा।
डॉ. हेडगेवार और राष्ट्रभाषा
डॉ. केशवराम बलीराम हेडगोवार ने 1925 ई. में ‘राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ’ की स्थापना की। संघ का प्रमुख उद्देश्य ‘हिन्दू संगठन’ है। डॉक्टर साहब नागपुर के निवासी थे। प्रारम्भ में कुछ वर्षों में संघ की शाखाएँ मध्य प्रान्त के मराठी क्षेत्रों तक सीमित रहीं, परन्तु 1937 ई. में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने अखिल भारतीय स्वरूप धारण किया। संघ ने प्रारम्भ से ही अपने समस्त क्रियाकलाप में हिन्दी को ही अपनाया है। जो-जो व्यक्ति संघ के सम्पर्क में आता है, उसका हिन्दीकरण हो जाता है।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की सफलता का कारण भारतवर्ष में एक राष्ट्रभाषा का होना है और यह बात तो निर्विवाद ही है एक वह राष्ट्रभाषा हिन्दी है ।
बंगाल और राष्ट्रभाषा
बंगाल में हिन्दी को राष्ट्रभाषा के विरुद्ध से सम्मानित करने वाले प्रथम पुरुष केशव चन्द्र सेन ही थे। न तो अपनी भाषा बंगला के प्रति उनके मन में ममत्व की कमी थी और न अंग्रेजी भाषा की शक्ति से वे अपरिचित थे। हिन्दी को बहुमान देने के मूल में देश के प्रति उनकी शुभचिंता थी, यह उनके विवेक का फैसला था। केशवचन्द्र सेन के सुझाव-संकेत को स्वामी दयानन्द सरस्वती की जाग्रत प्रज्ञा ने तुरन्त स्वीकार कर लिया था कि प्रादेशिक इकाइयों में बिखरी जातीय शक्ति को श्रृंखलित कर विधायक दिशा में नियोजित करने की भूमिका हिन्दी द्वारा ही सम्पन्न करायी जा सकती है ।
इसी समझ से प्रेरित होकर राजा राममोहन राय ने हिन्दी में बंगदूत (सन् 1829) का प्रकाशन किया था। आधुनिक ज्ञान की ज्योति को देश के अधिकांश लोगों तक पहुँचाने का सशक्त माध्यम हिन्दी है । इस विवेक से ही ‘बंगदूत’ का प्रकाशन हुआ था। साम्राज्यशाही दैत्य का मुकाबला करने के लिए देश की समग्र बोध-ऊर्जा को जगाना और उसे देश की दुर्भाग्य – मुक्ति की दशा में नियोजित करना जरूरी था। इसके लिए जरूरी थी वह स्वदेशी भाषा जो देश की बड़ी जनसंख्या को सम्बोधित करने की क्षमता से सम्पन्न हो। आंग्ल भाषा-संस्कृति पर असाधारण अधिकार रखने वाले श्री अरविन्द ने समाधान की राह सुझाई थी, “जिस दिन हम अखंड मातृमूर्ति के दर्शन करेंगे, उसके रूप लावण्य से मुग्ध होकर उसके कार्य में जीवन में उत्सर्ग करने के लिए उन्मत हो जायेंगे, उस दिन यह बाधा तिरोहित हो जाएगी, भारत की एकता, स्वाधीनता और उन्नति सहज साध्य हो जाएगी। उस समय भाषा-भेद के कारण कोई उपस्थित नहीं होगी, सब लोग अपनी-अपनी मातृभाषा की रक्षा करते हुए साधारण भाषा के रूप में हिन्दी भाषा को ग्रहण करेंगे और वह बाधा दूर हो जाएगी।’
इस जातीय चिन्ता से प्रेरित होकर बांग्ला के महान गद्यशिल्पी, बंकिमचन्द्र चट्टोपध्याय ने अपनी पत्रिका ‘बंगदर्शन’ में यहाँ तक कहा था कि “हिन्दी भाषा के सहारे जो लोग विभिन्न प्रदेशों में एकता कायम कर सकेंगे, वही वास्तव में भारतबन्धु के नाम से पुकारे जायेंगे।” और सही अर्थ में ‘भारतबन्धु थे भूदेव मुखोपध्याय, न्यायपति शारदाचरण मित्र, अमृतलाल चक्रवर्ती, बाबू नवीन चन्द्र राय, महामना आशुतोष मुखोपाध्याय।
आपनी साधना से बंगला गद्य को समृद्ध करने वाले, प्रथम श्रेणी के निबन्धकार भूदेव मुखोपाध्याय ने अपने कठोर उद्योग से, उच्च सरकारी पद पर रहते सरकारी नीतियों से लड़ते बिहार में न केवल हिन्दी का अनेकमुखी प्रचार-प्रसार किया था, बल्कि उसे अपेक्षित सम्मान दिलाया था। भूदेव मुखोपध्याय की उस महत् भूमिका का उन्नसवीं शताब्दी के पत्रों ने यथेष्ट प्रशंसा के साथ रेखांकित किया था।
“हिन्दी बंगवासी” के सम्पादक अमृतलाल चक्रवर्ती की हिन्दी – निष्ठा अप्रतिम थी। उन्हें बड़ी से बड़ी विपत्ति विचलित नहीं कर सकी थी और न तो बड़े से बड़े प्रलोभन उनकी निष्ठा को शिथिल कर पाये। थोड़े लोगों को पीड़क प्रसंग ज्ञात है कि मथुरा हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष और अपने समय के अग्रणी पत्र – सम्पादक अमृतलाल चक्रवर्ती को अपनी हिन्दी-निष्ठा का भारी मूल्य चुकाना पड़ा था। सड़क पर बैठ साग बेचना पड़ा था, जेल जाना पड़ा था तथापि निष्ठा अक्षत रही।
स्नातकोत्तर स्तर पर हिन्दी – अध्यापन की व्यवस्था बंगला के साथ ही सन् 1919 में सबसे पहले कलकत्ता (कोलकाता) विश्वविद्यालय में महामना आशुतोष मुखोपाध्यया के उद्योग से हुई थी।
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