भाषा के आधारभूत कौशलों ( सुनना, बोलना, पढ़ना तथा लिखना) के शिक्षण की प्रक्रिया तथा तकनीक समझाइये ।

प्रश्न 3- भाषा के आधारभूत कौशलों ( सुनना, बोलना, पढ़ना तथा लिखना) के शिक्षण की प्रक्रिया तथा तकनीक समझाइये ।
उत्तर- शिक्षण की प्रक्रिया तथा तकनीक
भाषा सीखने का स्वाभाविक क्रम है— सुनना, बोलना, पढ़ना, लिखना । पाँच वर्ष का बालक विद्यालय में आता है, तब उसका उच्चारण कुछ दोषपूर्ण हो सकता है। यह दोष कुछ ध्वनियों या संयुक्त ध्वनियों से सम्बन्धित हो सकता है। प्राथमिक कक्षाओं में ही उच्चारण सम्बन्धी दोषों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए | वाचन शिक्षण को प्राथमिकता देते हुए लेखन की ओर अग्रसर होना चाहिए।
द्वितीय भाषा-शिक्षण के समय भी सुनना – बोलना, पढ़ना-लिखना यही क्रम अपनाना चाहिए। आमतौर पर द्वितीय भाषा की शिक्षा देते समय श्रवण और उच्चारण पक्ष की उपेक्षा कर दी जाती है। केवल वाचन और लेखन पर ही अधिक बल दिया जाता है। इसीलिए भाषा के बोलने पर अधिकार नहीं हो पाता।
अन्य विषयों के अध्यापन के समान भाषा – शिक्षण के समय भी अध्यापकों को इन सूत्रों का पालन करना चाहिए –
(i) ज्ञात से अज्ञात की ओर,
(ii) सरल से जटिल की ओर,
(iii) स्थूल से सूक्ष्म की ओर,
(iv) विशेष से सामान्य की ओर,
(v) आगमन से निगमन की ओर,
(vi) पूर्ण से अंश की ओर।
इसी पुस्तक में, अन्यत्र विस्तार से इन पर विचार किया गया है। शिक्षण प्रक्रिया से सम्बन्धित अन्य महत्त्वपूर्ण बातें ये हैं —
1. अभ्यास करना – भाषा – अध्यापक को इस प्रकार की परिस्थितियाँ उत्पन्न करनी चाहिए जिनसे विद्यार्थी विद्यालय तथा घर पर, निरन्तर अभ्यास करता रहे।
2. आदत होना — भाषा को अर्जित करना तथा भाषा-शिक्षण को आदत-निर्माण की प्रक्रिया भी कह सकते हैं। कोई भी अशिक्षित भाषा आदि के नियमों से अनभिज्ञ होते हुए भी, जीवनभर अपनी भाषा का व्यवहार करता रहता है। अभ्यास और आदत हो जाने पर, व्यक्ति इन दुविधाओं से मुक्त हो जाता है —
(क) कण्ठाग्र करने की प्रक्रिया,
(ख) नियमों को याद करना,
(ग) अशुद्धि की आशंका ।
3. रुचि बनाए रखने के लिए प्रेरणा – भाषा के अध्यापक को (विशेष रूप से द्वितीय भाषा – शिक्षण में) विद्यार्थी में रुचि बनाए रखने के लिए, उसे निरन्तर प्रेरित करते रहना चाहिए।
4. व्यक्तिगत भेदों का ज्ञान होना — भाषा – अध्यापक को विद्यार्थियों के व्यक्तिगत भेदों का ज्ञान होना चाहिए। कोई भी दो व्यक्ति एक समान नहीं होते। उनमें कई प्रकार के व्यक्तिगत भेद पाए जाते हैं; यथा
(i) दैहिक भेद, (ii) मानसिक तथा बुद्धि सम्बन्धी भेद, (iii) पारिवारिक भेद आदि। इन व्यक्तिगत भेदों का ध्यान रखते हुए, विद्यार्थियों की भाषागत समस्याओं (यथाउच्चारण, वाचन, स्तर का आरोह-अवरोह, विषय-वस्तु का बोध) का समाधान करते हुए उन्हें प्रोत्साहित करते रहना चाहिए ।
5. मौखिक कार्य पर अधिक बल– प्रायः यह देखा गया है कि चाहे प्रथम भाषा हो या द्वितीय भाषा, कक्षा में विद्यार्थी की अपेक्षा अध्यापक ही अधिक सक्रिय होता है और विद्यार्थी निष्क्रिय श्रोता बनकर रह जाता है। विद्यार्थियों की सक्रियता सस्वर वाचन तथा कठिन शब्दों के अर्थ पूछने तक सीमित रहती है। भाषा को अर्जित करने की दृष्टि से यह आवश्यक हो जाता है कि विद्यार्थियों को मौखिक अभिव्यक्ति के अधिक से अधिक अवसर प्रदान किये जाएँ।
शिक्षण-तकनीक–सामान्य रूप से उच्च कक्षाओं में प्रथम भाषा या द्वितीय भाषा के शिक्षण की तकनीक में कोई विशेष अन्तर नहीं होता परन्तु प्राथमिक स्तर में तकनीक सम्बन्धी अन्तर अवश्य रहता है। अतएव भाषा-अध्यापक को तकनीक की दृष्टि से ये बातें ध्यान में रखनी चाहिए
(i) विद्यार्थी का शिक्षा – स्तर क्या है प्राथमिक या उच्च ?
(ii) अध्ययन करने वाला प्रथम या मातृभाषा भाषी अथवा द्वितीय भाषा-भाषी अध्ययन करने वाले वक्त के अनुरूप ही, अध्यापक को अपनी तकनीक में आवश्यक परिवर्तन करना चाहिए। तकनीक की दृष्टि से शिक्षक को इन बातों का पालन करना चाहिए –
(क) अध्ययन करने वाले के पूर्व ज्ञान को जानकर उपर्युक्त वातावरण का निर्माण करना।
(ख) पाठ के विकास के समय
(i) विद्यार्थी का सक्रिय सहयोग लेना,
(ii) विषय-वस्तु को दैनिक जीवन में जोड़ना ।
(ग) विविध तरीकों से भाषा कार्य सरस बनाना।
(घ) अध्येता में सीखने के प्रति उत्सुकता बनाए रखना ।
(ङ) पाठ्य सामग्री को सरल ढंग से प्रस्तुत करना ।
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