मदीना का राजनीतिक संगठन (Political Organization at Madina)

मदीना का राजनीतिक संगठन (Political Organization at Madina)

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मुहम्मद ने अपनी पलायन की योजना में जिस स्थान को महत्व दिया, वो मदीना के नाम से पुकारा जाता था। यह शहर याथ्रीब का शहर मक्का से दो सौ मील उत्तर पूर्व में स्थित था। यहाँ अनेक कबीले के लोग रहा करते थे जिसमें अवस, खजराज, नादिर, खुरेज, केनुका आदि उल्लेखनीय थे, किन्तु याथ्रीब का नेतृत्व अवस एवं खजराज कबीलों के हाथ में था। इस क्षेत्र में यहूदियों का प्रभाव था, इसलिए यहाँ इस्लाम धर्म का प्रचार-प्रसार करन बहुत मुश्किल था। अरबों द्वारा याथ्रीब पर अधिकार हो जाने के बाद यहूदियों के आर्थिक प्रभुत्व समाप्त हो गये और यहाँ की भूमि पर अरब-कबीलों का अधिकार हो गया। मदीना में अरब-कबीलों के लोग झोंपड़ी और घरों में निवास करते थे। कृषि उनका मुख्य पेशा था। कुछ व्यापार में भी लगे हुए थे। वे काफी हद तक एक संगठित व व्यवस्थित जीवन व्यतीत करना शुरु कर चुके थे। वे लोग अभी भी पूर्ण रूप से विकसित नहीं हुए थे । उनका सामाजिक एवं धार्मिक जीवन अनेक रूढ़िवादी मान्यताओं से ग्रसित था और उनके बीच निरन्तर संघर्ष हुआ करते थे । यहाँ कृषि योग्य भूमि का अभाव था, अतः उनके पारस्परिक कलह एवं झगड़े मुख्य तथा भूमि-अधिकार के प्रश्न को ही लेकर हुआ करते थे।
यहाँ यहूदी भी बड़ी संख्या में निवास करते थे, किन्तु अरब कबीलों के साथ उनके संबंध अच्छे नहीं थे। मुहम्मद द्वारा मदीना – पलायन की योजना काफी सोच-समझकर बनाई गयी। जब मदीना से खजराज कबीले के कुछ लोग तीर्थाटन के लिए मक्का आए हुए थे तो मुहम्मद ने उनसे मिलकर इस्लाम के संदर्भ में बातचीत की तथा मदीना में शरण पाने के प्रश्न को उठाया । इस मुद्दे पर दूसरी बार भी बातचीत की गई। कुछ याथ्रीबी धर्मयात्रियों ने 620 ई. में इस्लाम को इसका एक अंग बना लिया और मदीना वापस लौटकर उन्होंने यह समाचार लोगों को दिया कि अरब में एक मसीहे का जन्म हो चुका है, जो उनकी बुराइयों तथा कष्टों को दूर करने के लिए प्रयासरत है।
इसका परिणाम यह रहा कि प्रभावशाली लोगों के विरोध की वजह से मुहम्मद साहब के विचारों को और भी बल मिलता है। जल्द ही मदीना के प्रायः सभी कबीले के लोगों ने मुहम्मद को अपना मसीहा मान लिया और पैगम्बर एवं नए-धर्म की रक्षा करने का बीड़ा उठाया । इसे अरब जगत में एक जबर्दस्त सफल धार्मिक एवं सामाजिक क्रांति के रूप में देखा जाता है।
मदीना में मुहम्मद का आगमन (Arrival of Muhammad in Madina)
मुहम्मद साहब के मदीन जाने की पृष्ठभूकि उस समय तैयार हुई, जब सन् 622 के ग्रीष्मकाल में मदीना के पिचहत्तर व्यक्तियों के एक शिष्टमंडल ने मक्का का भ्रमण किया। इसके सदस्यों ने मुहम्मद साहब से याथ्रीब आने की प्रार्थना की। वहाँ इस्लाम धर्म के प्रचार व उनकी सुरक्षा का पूरा आश्वासन दिया गया। इस बात का मुहम्मद साहब को पूरा विश्वास भी था। ग्रीष्मकाल में मुहम्मद के समर्थक बड़ी शान्ति के साथ मक्का छोड़ कर मदीना को चल पड़े।
मक्का के लोग पलायन की योजना से और अधिक भड़क उठे और वे मुहम्मद तथा उनके निकट में सहयोगियों के कट्टर दुश्मन बन गये। मुहम्मद अबू बकर के साथ करीब के लोग एक गुफा में जा छिपे।
मुहम्मद साहब के दूसरे सहयोगी अली, जो बाद में इस्लाम के चौथे खलीफा बने, के साथ कुरैशों ने काफी दुर्व्यवहार किया। दो दिनों तक गुफा में छिपे रहने के पश्चात् मुहम्मद एवं अबू बकर तीसरे दो ऊँटों पर सवार होकर मदीना की ओर चल पड़े। शुक्रवार, 2 जुलाई, 622 ई. को मुहम्मद मदीना चले गये। बाद में मक्का में छिपे बचे हुए उनके अली जैसे अन्य सहयोगी और समर्थक भी मदीना चले आये। मुहम्मद द्वारा मदीना आगमन की तिथि को इस्लाम के इतिहास में हिजरत अथवा ‘हिजरा’ की संज्ञा दी जाती है। मुहम्मद साहब ने याथ्रीब का नाम बदलकर ‘मदीनात-अल-नबी’ रखा। मदीना के लोगों ने मुहम्मद, उनके सहयोगियों और समर्थकों का भव्य स्वागत किया। पाश्चात्य विद्वानों ने हिजरा की घटना को मुहम्मद साहब के पलायन के रूप में स्वीकार किया है, पर मुसलमान विद्वानों ने इसे स्थान परिवर्तन की संज्ञा दी है।
हिजरा का महत्व (Importance of Hijra)
हिजरी संवत की शुरुआत उस दिन से मानी जाती है, जिस दिन मुहम्मद साहब मक्का से मदीना आए थे। अपमानित व्यक्ति के रूप में मुहम्मद साहब ने अपनी जन्मभूमि मक्का का परित्याग किया था और एक प्रतिष्ठित नेता के रूप में अपनी माता की जन्म भूमि में प्रवेश किया। निःसंदेह, यह अरब जगत की दूसरी बड़ी घटना थी। इस काल में मुहम्मद साहब ने अपने अनुभवों । का प्रयोग कर वहाँ की राजनीति पर काफी प्रभाव डाला।
मदीना में मुहम्मद साहब के कार्य (Works of Muhammad Saheb in Madina)
मुहम्मद साहब ने मदीना में जो कार्य किए, उनसे उनके स्वभाव को जाना जा सकता है। इस मस्जिद का निर्माण काफी सादगी, सरल तरीके से किया गया था। जो नए धर्म की सादगी का प्रतिनिधित्व करती थी । इसकी दीवारें ईंट मिट्टी की बनी हुई थीं, जो इस धर्म की सादगी की जानकारी देती थीं और ताड़ के पत्तों से इसकी छत को छाया गया। इसके एक भाग में गृहविहीन लोगों के निवास की व्यवस्था थी। मदीना में इसी मस्जिद से पैगम्बर ने लोगों को अपने उपदेश देने शुरु किये ।
सामाजिक संगठन – मुहम्मद साहब ने अरब के कबीलों के महत्व को समझा और उन्हें संगठन करना शुरु किया। उन्होंने लोगों के कबीलों की व्यवस्था को उद्घाटित किया। वॉट के शब्दों में “प्रत्येक कबीले के स्वामियों के पास उनका प्रभुत्व बना रहा और केवल युद्धकाल की स्थिति को छोड़कर न्यायविषयक अर्थात् शान्ति की स्थापना से सम्बन्धित था। किन्तु मदीना में मुसलमानों की बस्ती स्थापित होने के पश्चात् एक नए संगठन, मुसलमानों के धार्मिक संघ अर्थात् ‘मिल्लतन’ की स्थापना होने लगी थी। मिल्लत ने कबीलों की शासकीय शक्ति तुरन्त समाप्त नहीं की, क्योंकि पैगम्बर के पास उनके स्थान पर कोई अन्य संगठन स्थापित करने का विकल्प नहीं था।
पैगंबर के विचारों पर भी तत्कालीन शासन वर्ग का सीमित प्रभाव पड़ा। ऐसे व्यक्ति तीन समूहों के थे-मुहाज्जरिन अथवा मक्का से आने वाले शरणार्थी, अंसारी अथवा मदीना मुख्य कबीलों के मुसलमान स्वामी तथा सैनिक एवं प्रशासनिक योग्यता वाले लोग तथा यही कबीलों के लोगों के कर्तव्य के स्वरूप का निर्धारण तथा पारस्परिक संबंधों को भी नए अधिका को समाप्त करने प्रयास किया गया।” यद्यपि मदीना के यहूदियों ने नए धर्म का विरोध ही किया तथा उन्होंने मक्का के कुरैशों के साथ अपने व्यावसायिक संबंधों को और भी मजबूत कर लिया पर मुहम्मद ने उसके साथ सद्व्यवहार ही किये और उन्होंने मदीना के यहूदियों को भी मुसलमान के समान अधिकार प्रदान किये।
यहूदियों पर इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ा और उन्होंने मुसलमानों व उनके शहर को सुरक्षा देने का आश्वासन दिया। मदीनावासियों पर मुहम्मद के विचारों का काफी प्रभाव पड़ा। पैगम्बर ने मदीना में सामाजिक संगठन एवं शहर की सुरक्षा का उचित प्रबन्ध करके न सिर्फ मदीनावासियों की आशा को मूर्त रूप दिया बल्कि यह भी प्रमाणित कर दिया कि वे एक महान मसीहा ही नहीं, अपितु उनमें एक आदर्श शासक के सभी गुण विद्यमान थे। मक्का का सामाजिक तथा राजनीतिक संगठन करने में पैगम्बर को असफलता मिली थी लेकिन मदीना के लोगों ने उन्हें अपने महान नेता, सामाजिक सुधारक तथा राजनीतिक शासक एवं धर्मगुरु के रूप में स्वीकार कर एक ऐसे नार्ग पर अग्रसर किया, जहाँ हर कदम पर सफलता मिलती गई ।
यहूदियों के साथ संबंध का निरूपण-मदीनों में मुहम्मद का महत्व एक धर्म प्रचारक के रूप में भी काफी रहा है। अब तक मदीनावासी मूर्तिपूजक एवं बहुदेववादी थे। मुहम्मद के प्रभाव में आकर उन्होंने अपने प्राचीन धार्मिक विधि-विधानों को त्याग दिया और इस्लाम के कट्टर समर्थक बन गये। यहूदियों के विचारों तथा मुहम्मद साहब की मान्यताओं में काफी विभिन्नता थी। हालांकि यहूदियों पर पैगम्बर का प्रारम्भ में ऐसा विश्वास था कि मदीना के यहूदी भी उनके धर्म को अपना लेंगे । किन्तु उनका यह विश्वास गलत साबित हो गया । यहूदियों ने मुहम्मद की धार्मिक शिक्षा और उपदेशों की खिल्ली उड़ाई और इस्लाम का विरोध किया। उन्होंने अपने धर्म एवं देवता की श्रेष्ठता स्वीकार की और उन्हें ही महत्व दिया। किन्तु मुहम्मद को अपने विचारों के कार्यों में एक प्रामाणिकता तथा सारता दिखाई देती थी; परिणामतः वे किसी भी दशा में यहूदियों को अपने प्रभाव में लाने के लिए प्रयासरत रहे। उन्होंने यहूदियों के धार्मिक विश्वासों एवं रीति-रिवाजों में से बहुत कुछ अपना लिया। यहूदियों को मुसलमानों के समान अधिकार सौंपे गये। अब्राहम के धर्म और मक्का की मस्जिदों में रहने वाले खुदा में विश्वास करके मुहम्मद ने अपने धर्म में बदलाव किया।
यहूदियों की भाँति मुसलमान भी जेरूसलेम की ओर मुँह करके इबादत करने लगे। मक्का में मुसलमान दिन में केवल दो बार इबादत करते थे, परंतु अपने धर्म को उच्च प्रमाणित करने के लिए वे यहूदियों के समान मध्याह्न की इबादत भी करने लगे तथा यहूदियों के उपवास के दिन उपवास भी करने लगे। शुक्रवार के दिन यहूदी विशेष इबादत करते थे। उनकी भाँति मुसलमानों ने भी शुक्रवार के दिन इबादत का खास दिन मुकर्रर किया। इसी समय जुम्मे के नमाज़ का प्रचलन शुरु हुआ, जो आज भी चल रहा है। मदीना में भले ही मुहम्मद ने अपना प्रभाव स्थापित कर लिया हो, पर यहूदियों पर खास प्रभाव नहीं डाल सके। यहूदियों ने मदीना में मुहम्मद के अधिकार पत्र की शर्तों का काफी विरोध किया और वे इस्लाम का प्रतिरोध करते रहे। इतना ही नहीं, उन्होंने इस्लाम धर्म विरोधी कुरैशों के साथ भी मेल-जोल बढ़ाकर और मदीना के दुश्मनों के पास अपने शिष्टमंडल भी भेजे। इस प्रकार मुहम्मद को भी अपनी यहूदी समर्थन की नीति में बदलाव लाने के लिए बाध्य होना पड़ा। इस धर्म प्रेरित परिणामों के कारण यहूदियों तथा इस्लामों में विद्वेष की भावना बढ़ती गई।
मक्का से शुरु इस्लाम धर्म की सफलता व प्रचार-प्रसार के लिए समस्त कार्य मदीना से ही किए गए। अपने सामाजिक संगठनों के कार्यों के द्वारा उन्होंने मदीना के लोगों का जीवन सुखमय बनाया। पैगम्बर ने मदीनावासियों को भ्रातृप्रेम एवं एकता की सीख दी तथा बच्चे, यतीमों, गरीबों एवं विधवाओं के प्रति संरक्षण और स्नेह की भावना का पाठ पढ़ाया । मुहम्मद साहब का विश्वास था कि सामाजिक प्रथाओं में परिवर्तन तीव्र विरोध का कारण बन सकता है। इसके लिए उन्होंने उस समय इसमें परिवर्तन न करने का निर्णय लिया, जो कि उनकी दृष्टि का ही परिणाम था। धार्मिक बन्धन की शुरुआत कर मुहम्मद ने प्रशासनिक एवं सैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति की और अरब को एक शक्तिशाली राष्ट्र बनाया। भविष्य में इस्लाम के एक विश्वव्यापी साम्राज्य की स्थापना की। इस्लामी सभ्यता ने जल्दी ही विश्व को अनुप्रेरित एवं उद्वेलित किया। आगे चलकर मुसलमानों का प्रभाव काफी बढ़ गया और वे विश्व अधिकांश भू-भाग के शासक बन गए।
इस्लाम का प्रचार (Propaganda of Islam)
मक्का में इस्लाम धर्म के प्रचार-प्रसार में मुहम्मद को यहूदियों से काफी उम्मीदें थीं, पर ऐसा न होने पर उन्होंने स्वयं इसके प्रचार-प्रसार का निर्णय लिया। उन्होंने मक्का में काबा के महत्व को अपना लिया, किन्तु इसे वे मूर्ति पूजा की बुराइयों से अलग रखना चाहते थे। इसी प्रकार उन्होंने अपनी विदेश नीति का पहला और महत्वपूर्ण लक्ष्य या सिद्धांत निरूपण किया। यह लक्ष्य था अपने स्वदेशी जनों को नवीनता प्रदान करना । किन्तु कुछ खास कारणों से मुहम्मद साहब मक्कावासियों के विरुद्ध जल्द और सुव्यवस्थित ढंग से कदम उठाने में असफल रहे।
प्रथम, मुहाज्जरिन अपने ही लोगों के साथ युद्ध करने के पक्षधर नहीं थे। द्वितीय, मदीना के लोग भी अपने शक्तिशाली पड़ोसी के साथ युद्ध करने के पक्ष में नहीं थे, किन्तु तत्कालीन दशाओं में यह नितांत अनिवार्य था । मक्का के लोग मदीनावासियों को अपना दुश्मन मानते थे क्योंकि उन्होंने मुहम्मद तथा इस्लाम को सुरक्षा प्रदान की थी। दूसरी तरफ मदीना के लोग किसी भी कीमत पर मुहम्मद और इस्लाम की रक्षा के लिए उत्सुक थे, ऐसी स्थिति में युद्ध को रोक पाना मुश्किल था।
बदर की परिस्थितियाँ (Circumstances of Badar)
मक्का व मदीना के बीच परिस्थिति काफी तनावपूर्ण हो गई। मक्का के व्यापारिक कारवां उत्तर में जब सीरिया की यात्रा पर आते-जाते, तब सशस्त्र मदीनावासी उन पर हमला करने लगे। इससे आपसी संबंध काफी बिगड़ने लगे थे। 623 ई. में मदीना के कुछ मुसलमानों ने मुहम्मद की अनुमति प्राप्त कर मक्का से ताईफ के बीच गुजरने वाले मक्का के व्यापारी कारवाँ पर हमला कर दिया। यह सिलसिला चलता रहा। इसी बीच एक कुरैश व्यापारी की कारवाँ पर, जिसका नेतृत्व अबू सूफयान कर रहा था, मुहम्मद साहब ने अपने सशस्त्र सैनिकों के साथ आक्रमण करने की योजना बनाई। यह कारवां सीरिया से वापस लौट रहा था । मुहम्मद साहब अपने 305 सैनिकों, 70 ऊँटों और दो घोड़ों को लेकर इस कारवाँ को लूटने की योजना बना चुके थे, किन्तु इसकी सूचना अबू सूफयान को मिल गयी थी । अतः वह सावधान हो गया। उसने मक्का से और सैनिक बुलाकर अपनी स्थिति मजबूत कर ली ।
– बदर का युद्ध – यह युद्ध मक्का के कुरैश व्यापारियों के करवाँ के नेता अबू सूफियान व पैगम्बर मुहम्मद साहब के बीच लड़ा गया था। सूफयान ने मुहम्मद तथा उनके समर्थकों को हमला नहीं करने की चेतावनी दी, किन्तु मुहम्मद उसाक मुकाबला करने के लिए पहले से ही बदर में आ चुके थे। अबू सूफयान ने अपने आठ-नौ सौ सैनिकों के साथ पहुँच कर मुसलमानों को ललकारा। ऐसी स्थिति में मुहम्मद साहब के प्रेरित करने पर मुसलमानों ने इस युद्ध में संघर्ष का निर्णय ले लिया। दोनों विरोधी दलों में भयंकर युद्ध हुआ। भाग्य एवं विधाता ने मुसलमानों का सहयोग किया। बदर का निर्णय उनके पक्ष में हुआ। इस युद्ध में केवल चौदह मुसलमान काम आये, किन्तु दूसरी ओर मक्का के पचास सैनिक मारे गये और पचास को बंदी बना लिया गया।
मक्कावालों की पराजय के पश्चात उनके चौदह घोड़े, डेढ़ सौ ऊँट, अस्त्र शस्त्र तथा युद्ध-सामग्री को मदीनाई मुसलमानों ने अपने कब्जे में ले लिया। इससे मक्का को काफी आर्थिक क्षति उठानी पड़ी । मुहम्मद ने युद्ध – बन्दियों के साथ सम्मानपूर्ण व्यवहार किये जाने का आदेश दिया। लूट से प्राप्त धन को मुहम्मद साहब ने समान रूप से अपने सैनिकों के बीच बाँट दिया तथा आगे इस विषय को लेकर मुस्लिम सैनिकों के बीच गड़बड़ी न हो, इस उद्देश्य से मुहम्मद ने एक नियम बनाया जिसके अनुसार युद्ध से प्राप्त धन का पाँचवें हिस्से पर राज्य का अधिकार होता था और शेष धनराशि को सैनिकों के बीच समान रूप से वितरित कर देने की प्रथा का अनुमोदन किया गया । इस युद्ध की सफलता से मुसलमानों को यह विश्वास हो गया कि अब किस्मत भी उनके साथ है।
बदर के युद्ध का परिणाम – इतिहासकार फिशर महोदय के अनुसार बदर का युद्ध निर्णायक साबित हुआ। मदीनावासियों के लिए बदर का युद्ध काफी लाभकारी सिद्ध हुआ। इस विजय को उन्होंने ईश्वर की कृपा मानी। साथ ही, उन्हें अपनी सीमित साधनों का ज्ञान भी हुआ। भविष्य में उन्होंने अपनी सेना तथा युद्ध-सामग्री में यथेष्ट वृद्धि की तथा मुस्लिम सेना को समुचित ढंग से एक जुट किया । इस युद्ध के बाद पैगम्बर साहब के विचारों में काफी राजनीतिक बदलाव आये। अभी तक मदीना के जिन लोगों ने नये धर्म को स्वीकार नहीं किया था, अब उन्होंने इसे अंगीकार कर लिया।
इस विजय का यहूदियों पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। अरब कबीले के लोगों ने उनकी शक्ति का लोहा माना और उन्हें पैगम्बर के रूप में स्वीकार किया। उन्हें यह विश्वास-सा हो गया कि पैगम्बर के साथ ईश्वरीय शक्ति है, तभी तो वे अपनी कम सेना के बल पर भी युद्ध में विजयी रहे । अरब के इतिहास में यह एक ऐसी घटना थी, जो कि विश्व में राजनीतिक व धार्मिक भागीदारी निभा रही थी। इस विजय ने मुसलमानों में एक नई चेतना और उत्साह का संचार किया और अब वे मूर्ति पूजक मक्का वालों पर हमला कर उन पर विजय पाने का मन बना चुके थे। इस्लाम के विस्तार के लिए मुहम्मद के नेतृत्व में मुसलमानों द्वारा लड़ी जाने वाली यह पहली लड़ाई थी । वस्तुतः बदर ने इस्लाम के विस्तार के लिए भविष्य में किये गये युद्धों की पृष्ठभूमि तैयार की। बीस वर्ष के अन्दर जब खलीफाओं ने इस्लामी साम्राज्य का विस्तार किया, तब इस युद्ध का महत्व और भी स्पष्ट हो जाता है।
मुहम्मद साहब चाहते थे कि पूरे अरबवासियों को एकता के सूत्र में बाँटा जाय। अरब में राष्ट्रीयता का प्रचार कर अरबों को एक सूत्र में पिरोना था । मक्का की विजय के कारण बदर की विजय भी सुनिश्चित हो गयी । हाँ, इस बात से नकारा नहीं जा सकता है कि बदर की हार का प्रतिशोध अबू सूफयान के नेतृत्व में मक्कावालों ने 624 ई. में अहूद के युद्ध में लेने की कोशिश की और पैगम्बर को रण क्षेत्र में घायल भी कर दिया, किन्तु उनकी यह विजय अनिवार्य हो गयी । परंतु यह निर्णायक नहीं था । इसे एक घटना ही माना गया । युद्ध में जीतकर भी वे हार चुक थे । इस्लाम के विस्तार की गति नहीं रोकी जा सकी। अब इस्लाम केवल एक धर्म न रहकर एक राज्य का रूप ले चुका था। अब यह आलम होने लगा था कि इस्लाम एक महाशक्ति के रूप में उभरने वाला है।
युद्धोतर घटनाएँ-बदर के युद्ध में पराजित होने के बाद भी मक्का वाले किसी भी दशा में अपने विचारों में परिवर्तन नहीं करना चाहते थे। वे मुहम्मद साहब के विचारों को बेहद प्रतिक्रियावादी मानते थे। वे तईफ के थाकीफ लोगों तथा कुछ अन्य बट्टू कबीले को एकजुट कर मुहम्मद से बदर के अपमान का बदला लेने का निरंतर प्रयास में लगे रहे। अहूद के युद्ध की विजय ने उनकी महत्त्वाकांक्षा को और भी बढ़ाया। अहूद के दो वर्ष बाद सूफयान ने मदीना पर पुनः आक्रमण किया। उसने पंद्रह दिनों तक मदीना को अपने कब्जे में रखा, किन्तु कोई परिणाम सामने नहीं आया। अतः उसे मक्का लौट जाना पड़ा । मदीना के लोग इस निरंतर होने वाले आक्रमण को रोकने में असफल रहे और मदीना की स्थिति बराबर बिगड़ती जा रही थी । अतः मुहम्मद ने सोचा कि मुसलमानों को अच्छे ढंग से संगठित किए बिना उन्हें मदीना पर होने वाले आक्रमणों से छुटकारा नहीं मिलेगा तथा उनकी मक्का-विजय का उद्देश्य भी पूरा नहीं होगा।
दूसरी ओर यहूदियों के बढ़ते प्रभाव के कारण मदीना में संघर्ष की स्थिति बन रही थी। मुसलमानों को उनसे किसी तरह से सहयोग की उम्मीद नहीं थी । ऐसी विसंगति में यहूदियों को बाहर निकालना मुहम्मद साहब ने अनिवार्य समझा। यहूदियों पर मुसलमानों ने हमला कर दिया । इस हमलों में मुसलमानों की बड़ी सफलता मिली। लगभग छह सौ यहूदी मार डाले गये और बचे हुए यहूदियों को मदीना से निकाल बाहर करने का निर्णय लिया। इससे एक वर्ष पूर्व नादिर कबीले के यहूदियों को मदीना से भगाया गया था। यहूदियों की सारी भूमि एवं सम्पत्ति पर कब्जा कर लिया गया। मदीना से निष्कासित अधिकांश यहूदी खैबर के क्षेत्र में जा बसे। इस समय उनकी सैकड़ों वर्षों की नींव हिल गई तथा वे किसी तरह से जीवन निर्वाह करने की स्थिति में पहुँच गए। प्रतिरोधी यहूदियों के हट जाने से मदीना के मुसलमानों के सामाजिक एवं धार्मिक संगठन की प्रक्रिया पूरी हो गयी। मदीना का यह संगठित समाज ‘अल-अहजाब’ कहलाया।
हुदैबिया की सन्धि (Treaty of Hudebiya)
मुहम्मद की प्रसिद्धि व प्रभाव दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा था। इससे मक्कावासी भी विचलित व निराश हो गए। इसी बीच मार्च, 628 ई. में पैगम्बर ने मक्का पर शान्तिमय आक्रमण करने का निश्चय कर लिया। उन्होंने कोई बारह या चौदह सौ अनुयायियों को अपने साथ लिया और तीर्थयात्रियों के वेश में मक्का की तरफ चले गये। हुदैबिया पहुँचने पर उन्हें सूचना मिली कि मक्का के नेतागण यद्यपि युद्ध की इच्छा रखते थे, किन्तु बैजेन्टाइन से होने वाले अपने व्यापार में क्षति के कारण वे मुहम्मद साहब के साथ निम्नवत शर्तों पर सन्धि करने को तैयार थे
तीर्थयात्रा अगले वर्ष की जाय; मुहम्मद साहब तथा कुरैशों के बीच एक दस वर्षीय संधि हो । इसके अंतर्गत दोनों में से कोई भी पक्ष एक-दूसरे की मित्र जनजातियों पर हमला न करे तथा कुरैशों का कोई व्यक्ति अगर अपने संरक्षकों की आज्ञा के बिना मुहम्मद साहब के पास आता है तो वे उसे वापस लौटा देंगे। कुरैशों के संदर्भ में अथवा इनके विपरीत ऐसी बातें न की जाँय।
हुदैबिया की संधि से मक्का के इस्लाम समर्थकों की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं हो सकी। इसी के परिणामस्वरूप पैगम्बर के अधिकांश परामर्शदाता तथा अनुयायी इस सन्धि के पक्षधर नहीं थे। किन्तु मुहम्मद साहब निश्चयपूर्वक यह सन्धि स्वीकार करना चाहते थे। अपने धर्म की प्रगतिशील शक्ति को वे पहचानते थे । वे इस बात को अच्छी तरह समझते थे कि कोई भी मुसलमान फिर से मूर्तिपूजक नहीं बनता। भविष्य में इस्लाम के स्वीकार की संभावना मात्र से उन्होंने संधि स्वीकार भी की। इस सन्धि का परिणाम यह हुआ कि अब मक्का के निवासी । मदीना में आकर रहने लगे। इनमें प्रसिद्ध सेनापति खालिद तथा मिस्र का भावी विजेता अम्र इब्नुल भी शामिल थे। लगभग 70 नव मुस्लिमों ने, जिन्हें सन्धि की शर्तों के अनुसार मदीना में प्रवेश की इजाजत नहीं मिली थी, एक स्वतन्त्र केन्द्र बनाकर मक्का के उत्तर में निवास करने लगे और 1 मक्का के कारखाने लूटना शुरु कर दिए। इस विषम स्थिति में कुरैशों ने मुहम्मद साहब से आग्रह किया कि वे उन्हें मदीना में बसने की अनुमति दे दें जिससे वे सन्धि की शर्तों को स्वीकार कर लें। इससे द्वेष-भाव काफी कम हो गया ।
मक्का की विजय (Victory of Makka)
मक्का पर मुहम्मद का अधिकार हो जाने के बाद इस्लाम के प्रमाण में काफी वृद्धि हुई। मुहम्मद ने अपने सहस्र समर्थकों के साथ मक्का का भ्रमण किया । मक्का के बहुत से लोगों ने उनका सहयोग किया । मक्का के दो प्रसिद्ध सेनापतियों- अमन इब्न अल-अस तथा खालिद इन अल-वालिद ने इस्लाम ग्रहण कर मुहम्मद को अपना नेता स्वीकार कर लिया । भविष्य में इस्लामी साम्राज्य के विस्तार में इन सेनापतियों ने काफी सहायता की थी। सबसे आश्चर्य की बात तो यह हुई कि मुहम्मद के कट्टर विरोधी अबू सूफयान ने भी इस्लाम को अपना लिया और मुहम्मद साहब का मित्र बन गया। मक्का में विजयोपरांत इस्लाम की प्रसिद्धि काफी बढ़ चुकी थी।
630 ई. के रमजान महीने में मुहम्मद अपने दस हजार समर्थकों के साथ मक्का की ओर बढ़े। उनके समर्थकों में मक्का के बदू लोगों की संख्या काफी अधिक थी। मक्का के लोगों ने रास्ते से ही उन्हें सम्मान देना शुरु कर दिया। इनमें उनके चाचा अब्बास भी थे। मक्का के थोड़े से लोग मुहम्मद को मार्ग में रोकने की पूरी तैयारी में थे। जब मुहम्मद मार अज जहराम में खेमा डाले पड़े थे, अबू सूफयान भी उनके दल में शामिल हो गया। उसने अपने समर्थकों को मुहम्मद का विरोध न करने का आदेश दिया। मक्का में प्रवेश के समय मुहम्मद साहब का विरोध केवल कुछ ही लोगों ने किया क्योंकि अब वे प्रभावी नहीं रह गए थे। नगर में प्रवेश करने पर मुहम्मद ने लोगों को उपहार प्रदान किए और लोगों से अपील की कि वे मूर्ति-पूजा त्याग दें और उन्हें समाप्त कर दें। काबा में प्रवेश कर मुहम्मद ने सात बार इसकी परिक्रमा की और ‘काले पत्थर’ के प्रति अपनी श्रद्धा एवं भक्ति भावना दिखाई। इन पुराने धर्म-विधानों को इस्लाम में स्वीकार किया गया। तब उन्होंने अपने समर्थकों को काबा की सारी मूर्तियों को नष्ट करने का आदेश दिया और स्वंय भी 360 मूर्तियों को तोड़ डाला। इस बार बिना किसी प्रतिवाद के उन्हें मक्का में पूरा सम्मान मिला। मक्का के अधिकांश लोगों ने इस्लाम को अपना लिया । मूर्तिपूजा के युग का अन्त होता गया और एकेश्वरवाद की स्थापना हुई। अरब कबीले ने एक राष्ट्र के रूप में उभरकर विश्व में अपनी पहचान बनाई।
तईफ के विरुद्ध सफलता (Success against Taif)
तईफ वासी इस्लाम धर्म के विरुद्ध थे। वे किसी भी कीमत पर मुहम्मद की नीतियों को स्वीकार करने के पक्ष में नहीं थे। तईफ की थकीफ जाति के लोग नेजद के हवाजीन कबीले के साथ सांठ-गांठ कर मुहम्मद के विरुद्ध सेशस्त्र आक्रमण करने की योजना बना रहे थे। अवतास में दुश्मनों की लगभग तीस सहस्र सम्मिलित सेना एकजुट हो गयी। जब मुहम्मद उनके विरुद्ध बढ़े तो इस सेना ने हुनायन के पास उन पर हमला कर दिया। भाग्य ने मुहम्मद का साथ दिया और तईफ पर उनकी विजय हुई। इस युद्ध में मुहम्मद को लूट से एक बड़ी धनराशि प्राप्त हुई जिनका प्रयोग उन्होंने संगठन के कार्यों पर किया तथा कुछ भाग अपने सैनिकों में वितरित किया। मुहम्मद ने खास तईफ पर भी आक्रमण किया, जिसमें असफलता ही मिली। तईफ के आक्रमण के बाद मुहम्मद पुनः मदीना लौट लाए। यहाँ आकर उन्होंने रिफ्यूजी, हेल्वस, हिप्पोक्रेट्स एवं यहूदियों के बीच पुनः एकता एवं संगठन स्थापित करने की कोशिश की। यहाँ आकर मुहम्मद अब केवल शिक्षा एवं धार्मिक नैतिक विश्वास के उपदेशक न होकर शान्ति संस्थापक भी बन गये। मक्का की विजय ने अरब में अंतिम निर्णय कर दिया था। यह प्रायः निश्चित हो गया कि सम्पूर्ण अरब पर इस्लाम का प्रभुत्व स्थापित होकर रहेगा। विरोधियों के हौसले पस्त हो गए थे। उनमें उत्साह और एकता की कमी के कारण इस्लाम का प्रभाव बढ़ता जा रहा था। ऐसी स्थिति में बदू कबीलों के लोगों ने इस्लाम में अपनी कृतज्ञता जताई। 630 ई. में तईफ ने भी आत्मसर्मण कर दिया। ट्रांसजोर्डन, बहराइन, अमन आदि पड़ोसी देशों में इस्लाम और मुहम्मद के संदेशों का प्रसार पहले ही हो चुका था। अब मुहम्मद को यह महसूस होने लगा कि इस्लाम सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ता ही जा रहा है।
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