मिस्र में फातिमी ( The Fatimids in Egypt)
मिस्र में फातिमी ( The Fatimids in Egypt)
इस्लाम के इतिहास में फातिमी समुदाय का बड़ा महत्व रहा है। फातिमी खलीफाई समुदाय का उदय अफ्रीका में हुआ था । जिस समय मिस्र में तुलनीद सत्ता का पतन हो रहा था, उसी दौरान उत्तरी अफ्रीका में फातमी (फातिमी) अपना प्रभाव बढ़ा रहे थे। वे अब्बासियों की भाँति धर्म-सुधार की आड़ में अपनी स्वार्थसिद्धि में लगे हुए थे और मिस्र पर अधिकार करने का उपयुक्त अवसर ढूँढ़ रहे थे । ये शिया सम्प्रदाय के थे और स्वयं को मुहम्मद की पुत्री फातिमा और खलीफा अली का वंशज बतलाते थे। इस प्रकार वे स्वयं को खलीफाई का वास्तविक अधिकारी बतलाते थे। अतः इस मुस्लिम समुदाय का मूल उद्देश्य धर्म व वंश के नाम पर उत्तरी अफ्रीका के मुसलमानों का सहयोग लेना था क्योंकि इसी में उनका राजनीतिक हित भी छिपा था। दसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ये अपने उद्देश्य की प्राप्ति में सफल हो गये। मिस्र पर फातिमियों का प्रभुत्व स्थापित हो गया और मिस्र में फातिमा राजवंश की एक नई सत्ता प्रारम्भ हुई।
फातिमी खलीफाई का संस्थापक सईद इब्न हुसैन को माना जाता है। इन्होंने इसकी स्थापना सन् 909 में ट्यूनिशिया में की थी। कालान्तर में उसके उत्तराधिकारियों ने सम्पूर्ण मिस्र पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। मिस्र की फातिमी खलीफाई बगदाद के अब्बासी शासन को जल्द ही शक्ति, सम्पन्नता, विशालता और सांस्कृतिक प्रगति की दृष्टि से चुनौती देने लगी। फातिमी वंश की उत्पत्ति की वैधता के सन्दर्भ में विद्वानों में मतभेद है। आदि इतिहासकारों ने फातिमी वंश की उत्पति की वैधता को स्वीकार किया है। इब्बन-अल-आतिर, इब्न खालदून तथा अल-मुकरीजी के नाम उल्लेखनीय हैं। परन्तु इब्न-खालिकान, इब्न इदरी, अल-सुयुती तथा इब्न-तग्री – बीरदी आदि अरब इतिहासकारों ने इसे नकारते हुए सईद को ढोंगी मानते हैं और उसके वंश की वैधता को स्वीकार नहीं करते। किन्तु इस संदर्भ में इस तथ्य का बड़ा ही महत्व है कि 1011 ई. पूर्व फातिमी वंश की वैधता को लेकर चुनौती नहीं दी गयी। इसी वर्ष अब्बासी खलीफा अल-कादिर ने बगदाद में घोषणा पत्र जारी किया जिसमें इस बात का उल्लेख किया गया था कि उसका समकालिक फातिमी खलीफा अल हमीम फातिमा का वंशज न होकर देयसन नामक काफिर का वंशज था। इस घोषणा पत्र पर अनेक प्रतिष्ठित सुन्नी तथा शिया व्यक्तियों के हस्ताक्षर थे । वस्तुतः इस घोषणा पत्र के जारी किए जाने के बाद ही फातिमा वंश की वैधता को लेकर इतिहासकार विवाद में उलझ गये ।
फातिमा खलीफाई वंश ने राजनीतिक व सांस्कृतिक रूप से मिस्र के इतिहास में अपना महत्वपूर्ण स्थान बना लिया है। फातिमी खलीफाओं ने साम्राज्य विस्तार, संगठन कार्य और सांस्कृतिक प्रगति के द्वारा मिस्र के इतिहास में एक नये युग का सृजन किया। सम्पूर्ण मिस्र फराऊ काल के बाद पहली बार एकता सुदृढ़ता सामाजिक व सांस्कृतिक विकास आदि देखने को मिला ।
सईद इब्न- हुसैन (909-934 ई.) (Sayeed-Ibn-Hussain (909-934 AD)
सईद इब्न- हुसैन का एक अन्य नाम उबैदुल्लाह अल महदी भी था, इन्होंने जो सफलता प्राप्त की, उसमें इस्माइली संप्रदाय के प्रमुख प्रचारक अबू अल्दुल्ला अल-हुसैन अल-शी का सराहनीय योगदान रहा है। आरंभ में इस्लाम समुदाय के प्रचार-प्रसार के लिए सईद सलामिया में रहता था। किन्तु उत्तरी अफ्रीका में अल-शी के धर्म प्रचार की सफलता को देखकर वह भी एक व्यापारी के रूप में उत्तरी-पश्चिमी अफ्रीका पहुँच गया । किन्तु अखलब वंश के शासक जियानतुल्ला (903-909 ई.) के आदेश पर उसे कैद कर लिया गया। बाद में अल-शी के प्रयत्नों से उसे मुक्ति मिली । अल-शी ने ही 909 ई. में जियानतुल्ला को परास्त कर उसे मिस्र से भगा दिया तथा अघलब वंश की समाप्ति कर दी। यह अफ्रीका में सुन्नियों का अन्तिम शक्तिशाली वंश था। अघलब राजवंश की समाप्ति के पश्चात् उबैदुल्ला अल-महदी को विरुद् (यशोगन, प्रशस्ति) प्रदान कर सईद इब्न- हुसैन को ट्यूनिशिया का शासक घोषित किया गया ।
उबैदल्लाह ने शासक बनने के बाद दो वर्ष के भीतर ही अल-शी की हत्या करवा दी और मोरक्को से लेकर मिस्र तक के सभी अफ्रीकी क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया। जल्द ही लगभग सम्पूर्ण अफ्रीका पर उसने अपनी विजय पताका फहरा दी। 914 ई. में सिकन्दरिया और उसके दो वर्ष बाद डेल्टा क्षेत्र पर उसका अधिकार हो गया। सिसली पर भी उसने अपने प्रभुत्व की स्थापना कर ली और कितमा कबीले के एक व्यक्ति को उसने सिसली का प्रान्तपति नियुक्त किया । वह एक सफल कूटनीतिज्ञ भी था। उसने इब्न हफसून स्पेन के दुश्मन अघलबों द्वारा उबैदल्ला को नौ सेना प्रदान की गई थी जिसने उसे साम्राज्य विस्तार के दौरान काफी सहायता पहुँचाई थी। उसकी नौ शक्ति से भयभीत होकर माल्टा, सरडीनिया, कोर्सिका, बालीयेरिक आदि द्वीपों के शासकों ने बिना युद्ध किये ही खुद को उनके हवाले कर दिया। इस प्रकार प्रथम फातिमी खलीफा उबैदुल्ला ने लगभग 902 ई. में कैखान से लगभग सोलह मील दक्षिण-पूर्व में ट्यूनीशिया के तटवर्ती क्षेत्र में अपनी नयी राजधानी अल महदिया को स्थापित किया, जो उसके शासन का केन्द्र बन चुका था । 934 ई. में उसकी मृत्यु हो गयी। इस बीच उसने फातिमी साम्राज्य का भी प्रसार किया। उससे मित्र्ता कर ली और सम्पन्न व सुदृढ़ बनाने हेतु आवश्यक कदम उठाया ।
उबैदुल्ला ने एक शक्तिशाली राजवंश की स्थापना कर अपनी महत्वाकांक्षा दूरदर्शिता व योग्यता का परिचय दिया। उसके द्वारा सम्पादित साम्राज्य विस्तार का कार्य उसकी सैनिक योग्यता का प्रमाण देता है। वह शासन और संगठन करना अच्छी तरह जानता था । प्रजाहित और सांस्कृतिक प्रगति में उसकी गहरी अभिरुचि थी। मिस्र के फातिमी शासकों में इसे सम्मानीय स्थान दिया जाता है।
अब्दुल्ला कासिम मुहम्मद अल कईम (934-946 ई.) : यह उबैदुल्ला का पुत्र था, जो अपने पिता की ही नीतियों का अनुसरण किया। फ्रांस के दक्षिणी तटवर्ती क्षेत्रों पर कब्जा करने के लिये अलकईम ने 934 या 935 ई. में अपनी नौसेना को भेजा। इस सेना ने न केवल फ्रांस के दक्षिणी तटवर्ती क्षेत्रों का सफाया किया, साथ ही साथ उसने जेनोवा और केलाब्रिया पर भी कब्जा कर लिया और इन क्षेत्रों से लूट में अतुल सम्पत्ति एवं दास प्राप्त किए । खलीफा धन- अर्जित करने में भी काफी सफल हुए थे। किन्तु इन क्षेत्रों पर फातिमी प्रभुत्व को स्थायी तौर पर स्थापित नहीं किया जा सका। अल कईम जल्द ही मौत की नींद सो गया। उसके पुत्र और उत्तराधिकारी अल-मंसूर (946-952 ई.) का शासनकाल राजनीतिक दृष्टि से अधिक प्रगतिशील नहीं माना जाता है। परन्तु मंसूर का पुत्र मुईज बड़ा ही महत्त्वाकांक्षी साम्राज्यवादी तथा योग्य शासक साबित हुआ। उसने भी अपने पूर्वजों की नीतियों का अनुसरण किया ।
अबू- तमीम – माद-मुईज (952-975 ई.) (Abu Tameem Mad-Muiz (952-975AD )
मुईज साम्राज्यवादी नीति का समर्थक था। उसने मिस्त्र की सेना का गठन कर फातिमी साम्राज्य का व्यापक विस्तार किया। स्पेन के प्रतापी उमैयद खलीफा अल-नासिर की शक्ति का 955 ई. में सामना किया। स्पेन के तटवर्ती क्षेत्रों पर फातिमी नौ-सैनिकों ने हमला कर दिया । इस घटना के तीन वर्ष बाद फातिमी सेना पश्चिम की ओर बढ़ती हुई अटलांटिक महासागर की तरफ मुड़ गई । यहाँ से फातिमी सेनापति ने अपने स्वामी की सेवा में जारों में भर कर जीवित मछलियाँ भेजकर अपनी स्वामिभक्ति का प्रमाण दिया। मिस्र के इख्शीदी शासकों, फलतः उनका सम्पूर्ण क्षेत्र इसके अधिकार में आ गया।
सेनापति जौहर : मुईज के विजय अभियानों में इसका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। सेनापति जौहर अल-सिकीली अथवा अल-रूमी जन्म से एक ईसाई और बैजेन्टाइन क्षेत्र ( सम्भवतः सिसली) का वासी था । उसे कैखान में दास के रूप में नियुक्त करने के लिए लाया गया था । उसकी सैनिक योग्यता और बहादुरी से प्रभावित होकर खलीफा ने उसे अपना सेनापति नियुक्त किया और अपने महत्त्वाकांक्षी अभियानों का दायित्व उस पर सौंपा। जौहर उन सभी गुणों से परिपूर्ण थे, जो इन अभियानों के दौरान एक कुशल सेनानायक के लिए आवश्यक थे ।
जौहर बहुत ही प्रतिभावान व वीर सेनानायक थे । उसने अपनी विजयों के उपरांत 969 ई. के अल काहिर (कैरो) का निर्माण करवाया। 973 ई. में यही काहिरा फातिमी खलीफाओं की प्रसिद्ध राजधानी बना। आज भी यह मिस्र की राजधानी है। 972 ई. में जौहर ने काहिरा में सुविख्यात अल-अजहर मस्जिद का निर्माण करवाया, जो जल्द ही खलीफा अल अजीज के शासनकाल में एक शैक्षिक संस्थान के रूप में विकसित हो गया। जौहर को वास्तविक रूप में मिस्र की फातिमी खलीफाई का दूसरा संस्थापक माना गया है। अब तक सम्पूर्ण उत्तरी अफ्रीका पर फातिमी प्रभुत्व की स्थापना हो चुकी थी। उसने इख्शीदी शासकों को पराजित कर पश्चिमी अरब पर भी अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था। मिस्र में फातिमी शक्ति को मजबूती प्रदान करने के लिए जौहर ने अपने एक अधीनस्थ सेनापति को सीरिया पर आक्रमण करने का आदेश दिया जिसने 989 ई. में दमिश्क पहुँचकर अस्थायी रूप से उस पर अपना आधिपत्य जमा लिया था। उसने संगठन और अपने निर्माण कार्यों के द्वारा भी फातिमी खलीफाई को स्थायित्व प्रदान किया और फातिमी वंश का साम्राज्य विस्तृत व मजबूत होता चला गया।
अबू मंसूर निजार अल अजीज (975-996 ई.) (Abu Mansoor Nizar al Aziz (9754 966AD)
अल मुईज के पश्चात अल-अजीज ने सत्ता सम्भाली। यह बहुत ही योग्य शासक साबित हुआ। इसके शासनकाल को मिस्र के इतिहासकारों में स्वर्णयुग की संज्ञा दी जाती है। उसे फातिमी वंश का पाँचवा खलीफा कहा जाता है। उसके शासनकाल में मिस्र में शान्ति सुव्यवस्था का साम्राज्य स्थापित हुआ था। अतः देश में आर्थिक प्रगति हुई और शिक्षा – साहित्य, ज्ञान-विज्ञान तथा कला-कौशल का व्यापक प्रचार हुआ। अटलांटिक से लेकर लाल-सागर के सभी क्षेत्रों में और यहाँ तक कि यमन, मक्का, दमिश्क और एक बार माबसील में भी शुक्रवार की नमाज में खलीफा के नाम पर खुतबे पढ़े जाने लगे। इस विस्तृत क्षेत्र पर फातिमी खलीफाई का प्रभुत्व स्थापित हो गया। अल-अजीज के शासनकाल में मिस्र की फातिमा खलीफाई न केवल बगदाद के अब्बासी खलीफाई को सभी दृष्टि से चुनौती देने लगी, बल्कि उसने अब्बासी खलीफाई को ग्रस भी लिया और अब पूर्वी भूमध्य सागरीय क्षेत्र का यह सबसे महान मुस्लिम साम्राज्य बन गया। बगदाद पर आज नहीं तो कल फातिमी खलीफा का आधिपत्य स्थापित हो जाएगा। ऐसा अल-अजीज का दृढ़ विश्वास था। इतना ही नहीं, उसने कैरो में बीस लाख दीनार खर्च कर एक विशाल महल का निर्माण भी करवाया, जहाँ बगदाद पर कब्जा करने के बाद विरोधी अब्बासी कैदियों को रखने की व्यवस्था की गयी। अजीज एक महत्त्वाकांक्षी साम्राज्यवादी खलीफा था, वह स्पेन पर अधिकार करने का इच्छुक था।
अल अजीज पराक्रमी व विजेता होने के साथ-साथ शान्तिप्रेमी थी। उसने युद्धकाल के दौरान ही नहीं, शान्तिकाल में भी सराहनीय कार्य किया। खलीफा ने कैरो और उसके आस-पास कई भवनों, मस्जिदों, पुलों तथा नहरों का निर्माण करवाया। मिस्र की ईसाई प्रजा के प्रति उसके द्वारा अपनायी गयी सहिष्णुता की नीति अद्वितीय मानी जाती है। उसके शासनकाल में साम्राज्य के ईसाइयों को सभी तरह की सुविधाएँ प्राप्त थीं और प्रशासन एवं सेना में भी उन्हें महत्वपूर्ण पद प्राप्त थे । खलीफा की सहिष्णुता और उदारता में उसकी रूसी पत्नी (उसके उत्तराधिकारी पुत्र अल-हकीम की माता) तथा ईसाई वजीर इब्न नस्तुर का उल्लेखनीय सहयोग रहा है।
मिस्त्र के इतिहास में भले ही अल अजीज का शासनकाल स्वर्णयुग कहा गया है, पर फातिमी शक्ति के पतन व साम्राज्य के विघटन के बीच उसी के शासनकाल में अंकुरित हो चुके थे । वह पहला फातिमी खलीफा था, जिसने अब्बासियों की भाँति अपनी सेना में बड़ी संख्या में तुर्की तथा नीग्रों सैनिकों की नियुक्ति प्रारम्भ की, जो भविष्य में साम्राज्य के लिए एक घातक नीति सिद्ध हुई। इन विदेशी सैनिकों में अनुशासन की नितान्त कमी थी। अपने सेनापति की अवज्ञा करने में इन्हें हिचकिचाहट नहीं होती थी। ये खुद भी आपस में लड़ते रहते थे और बर्बर (बरबर) शरीर रक्षा सैनिकों के साथ भी इनकी नहीं पटती थी । अजीज के काल में तुर्की, बर्बर तथा गुलामों में परस्पर संघर्ष शुरु हो गये जिससे फातिमी साम्राज्य की नींव कमजोर होने लगी।
अल-अजीज के उत्तराधिकारी और फातिमी साम्राज्य का अवसान (Successors of Al-Aziz and End of Fatimid Empire)
जिस समय अल अजीज की मृत्यु हुई, उसके पुत्र अबू अली मंसूर अल हकीम की उम्र मात्र 11 वर्ष थी कोई और विकल्प न देख उसी का राज्याभिषेक कर दिया गया। अपने शासनकाल (996 से 1012 ई.) के बीच आतंक का शासन स्थापित किया। उसने अपने बहुत सारे वजीरों की हत्या करवा दी, ईसाई तथा यहूदी प्रजा की समस्त सुविधाओं का अपहरण किया, अनेक चर्च (हाली चेपलचर के अलावा) विध्वंस कर दिए गए तथा ईसाइयों एवं यहूदियों पर भाँति-भाँति के प्रतिबन्धं आरोपित किये। उन्हें काले वस्त्र धारण करने को बाध्य किया। वे केवल गधों की सवारी कर सकते थे। ईसाइयों को रस्सी के टुकड़े और यहूदियों को गले में घंटी लटकाकर स्नान करना होता था। समस्त इस्लाम के इतिहास में खलीफा अल-मुंतावक्किल तथा अल-उमर द्वितीय के बाद अल-हकीम ही एक ऐसा खलीफा हुआ जिसने गैर मुसलमानों पर ऐसें कठोर प्रतिबंध आरोपित किये, अन्यथा फांतिमी खिलाफत प्रशंसनीय रूप में जिम्मियों के लिए संतोषजनक रहा। उसके.ईसाई सचिव इब्न अब्दुल ने होली चेपलचर को ध्वंस करने के आज्ञा पत्र पर दस्तखत किए और यह घटना ईसाइयों तथा मुसलमानों के बीच होने वाले लंबे धर्म-युद्ध (क्रूसेड) का महत्वपूर्ण कारण बना ।
खलीफा की महत्त्वाकांक्षा की अभिव्यक्ति इससे भी स्पष्ट हो जाती है कि उसने इस्माइली सिद्धान्तों के व्यापक प्रचार हेतु दुजेज नामक एक नये सम्प्रदाय की स्थापना की और स्वयं को देवता स्वरूप घोषित किया। ऐसे नृशंस एवं असहिष्णु शासक का अंत भी अशोभनीय ढंग से हुआ। 13 फरवरी, 1021 को षड्यन्त्र के द्वारा उसकी हत्या कर दी गयी । इस षडयंत्र के पीछे उसी की बहन सीत अल-मुलुक का हाथ माना जाता है, चूँकि खलीफा ने उस पर चरित्रहीन होने का आरोप लगाया था ।
विघटन का प्रारम्भ : जिस समय अल हकीम की मृत्यु हुई, उसके अनेक उत्तराधिकारी नाबालिग थे। सभी उत्तराधिकारी खलीफा दुर्बल, विलासप्रिय और अयोग्य साबित हुये । अतः इस काल में फातिमी खलीफाओं की शक्ति और योग्यता का नाश हुआ और साम्राज्य का गौरव एवं प्रतिष्ठा जाती रही । खलीफाओं की दुर्बलता तथा अयोग्यता का लाभ वजीरों ने उठाया और अब प्रशासन पर उन्होंने अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। इस काल में वजीरों का प्रभुत्व काफी बढ़ गया और अब वे ‘मलिक’ का शाही खिताब भी धारण करने लगे। 1021-1035 ई. में खलीफा की गद्दी पर अल हकीम का पुत्र अल-जहीर सोलह वर्ष की आयु में बैठा और चौदह वर्ष शासनारूढ़ रहा। इसके शासनकाल में सम्राट कौंसेन्टाइन अष्टम ने अपने साम्राज्य में शुक्रवार की नमाज में खलीफा के नाम से खुतबा पढ़े जाने की इजाजत दी और बदले में खलीफा ने उसे होली चेपलचर के पुनर्निर्माण की सहूलियत दी। इस काल में कोई अन्य महत्वपूर्ण घटना नहीं घटी।
उसके मर्णोपरांत उसके पुत्र अल मुन्तनसीर का राज्याभिषेक हुआ। राज्यारोहण के दौरान वह मात्र 11 वर्ष का था । इसने 60 वर्ष तक शासन किया। यह पहला खलीफा था जिसने मुस्लिम इतिहास में इतने लम्बे समय तक शासन किया। उसके शासनकाल के प्रारम्भिक वर्षों में उसकी सूडानी यहूदी माता का शासन में बोलबाला रहा। इस समय तक साम्राज्य काफी संकुचित हो गया था और उसका विस्तार केवल मिस्र तथा कुछ अन्य क्षेत्रों तक सीमित रह गया। 1043 ई. के पश्चात् सीरिया फातिमी साम्राज्य धीरे-धीरे स्वतंत्र होता गया। फिलस्तीन में विद्रोह शुरु हो गये। पूरब से प्रबल सलजुक तुर्की आक्रमण पश्चिमी एशिया पर होने लगा। इन्हीं दिनों अफ्रीका के फातिमी प्रान्तो ने खलीफा की अधीनता को त्याग कर अपने प्रान्तों को स्वतंत्र घोषित कर दिया अथवा वे पुनः अब्बासी शासकों के अधीन होते चले गये। 1052 ई. में हिलाल तथा सुलेम की अरब जातियों ने ट्रिपोली और ट्यूनिशिया पर हमला कर उनका दमन कर दिया। 1072 ई. में नार्मनों ने सिसली पर अधिकार कर लिया।
अल-वसागीरी नामक एक सेनापति ने लोगों में आशा की किरण जगाई। उसने कई विजय अभियान चलाए पर वे स्थाई नहीं रह सके। उसके प्रयत्नों के फलस्वरूप बगदाद की प्रधान । मस्जिद में फातिमी खलीफा के नाम से खुतबा पढ़ा जाने लगा। वासीत और बसरा की मस्जिदों में भी उसके नाम से खुतबा पढ़े गये। अब्बासी खलीफा को वसागीरी ने परास्त कर दिया था। परन्तु इस घटना को छोड़कर वसागीरी को असफलता ही हाथ लगी । मिस्र में तुर्की, बर्बर और सूडानी सैन्य दलों के बीच संघर्ष होने लगा था जिससे साम्राज्य की शक्ति क्षीण होती गयी ।
ऐसा मालूम होता है कि फातिमियों से विधाता भी अप्रसन्न हो गया था । साम्राज्य में भयंकर अकाल पड़ा, जो सात वर्षों तक चलता रहा। इस दौरान राज्य पर आर्थिक बोझ बढ़ गया। परिस्थितियों से तंग आकर खलीफा ने अक्का के आरमेनियन सैनिक गवर्नर बदर अल-जमालो को अपना वजीर और प्रधान सेनापति नियुक्त किया । नये सेनापति अमी अल-जुयूस ने शक्तिशाली हाथों से विद्रोह का दमन किया, साम्राज्य में शान्ति सुव्यवस्था की स्थापना की तथा मिस्र के फातिमी खलीफाई में नवजीवन का संचार किया। परन्तु यह अधिक दिन तक स्थाई न रह सका और उनका अल-मलिक – अल-फजल अथक प्रयासों के करने बाद भी साम्राज्य के पतन को रोक नहीं सका। कालांतर में वजीर भी आपस में संघर्षरत हो गए।
वजीर अल-अफलन ने अल-मुन्तनसीर की मृत्यु के बाद खलीफा के कनिष्ठ पुत्र अल-मुस्ताली ) (1094-1101 ई.) को नया खलीफा घोषित किया । यह सिर्फ नाम का ही शासक था। प्रशासन की बागडोर वजीर के अधीन रही। जल्द ही मुस्ताली की मृत्यु हो गयी और अब उनका पाँच वर्षीय पुत्र अल-अमीर (1101-1130 ई.) गद्दी पर बैठाया गया। अब तक फातिमी साम्राज्य गृह युद्ध की अग्नि में झुलसने लगा था। लगभग अठारह वर्षों तक अल-अमीर के पुत्र अल-हाफिज (1030-1149 ई.) ने शासन किया। परन्तु वैमनस्य कम नहीं हुआ और हाफिज का देहान्त होने तक खलीफा का प्रभुत्व सिमटकर काहिरा के राजमहल तक सीमित हो गया था । उसके पुत्र तथा उत्तराधिकारी अल-जाफिर (1149-1154 ई.) के शासनकाल में उसके कुर्दीश वजीर इब्न अल-अल्लार ने खलीफा के अधिकारों का प्रयोग करके स्वयं को समृद्धशाली बनाया। उसने अल-मलिक अल-आदिल का गौरवपूर्ण विरुद धारण किया ।
इस प्रकार फातिमी साम्राज्य की स्थिति बहुत ही चिंताजनक हो गई थी। एक समकालिक । इतिहासकार उसमाह ने, जो लगभग दस वर्ष (1144-1154 ई.) तक फातिमी दरबार में रह चुका था, अपनी आत्मकथा में फातिमी दरबार की दुर्दशा पर प्रकाश डाला है कि दरबार में षड़यन्त्र, संघर्ष एवं द्वेष का बोलबाला था और साम्राज्य अत्यन्त दुर्बल हो गया था। खलीफा के प्रोत्साहन पर वजीर इब्न-अल-अल्लार के पोते नसर इब्न-अब्बास ने अपने दादा और अपने पिता अब्बास को जान से मार डाला तथा खलीफा ने उसे अपना वजीर नियुक्त किया किन्तु यह उसके भाग्य की विडम्बना ही थी कि इस महत्त्वाकांक्षी खलीफा को भी मौत के घाट उतार दिया।
फातिमी साम्राज्य का अवसान इब्न अब्बास ने खलीफा को मारकर उसके चार वर्षीय पुत्र अल फैस (1154-1160 ई.) को गद्दी पर बैठा दिया। इन ग्यारह वर्ष जैसी छोटी उम्र में नाबालिग खलीफा की मौत ही हो गयी। अब फैज का नौ वर्षीय चचेरा भाई अल-अजीज खलीफा बना। वह खलीफा वंश का आखिरी तथा चौदहवां फातिमी था। उसके शासनकाल में दैवी प्रकोप हुए और राज्य अकाल तथा प्लेग रोग ग्रस्त था। जब प्रजा इन दैवी आपदाओं से पीड़ित थी, उस पर खलीफा द्वारा कर जैसे बोझ और बढ़ा दिये गये । उसे ढ़ेर सारे कष्टों का सामना करना पड़ा था। खलीफाओं की शक्ति कमजोर होने लगी थी। इस समय मुजाहिदों द्वारा फातिमी राज्य पर लगातार आक्रमण किये जाने से स्थिति और भी गंभीर हो गयी। इतना ही नहीं, 1167 ई. में जेरूसलेम के शासक अमालरिक ने भी फातिमी राज्य पर हमला बोल दिया और राजधानी काहिरा को अपने कब्जे में ले लिया। अन्ततोगत्वा 1171 ई. में सल्लाहदीन ने खलीफा को गद्दी से हटाकर सत्ता पर आधिकार कर लिया। इस प्रकार मिस्र से खलीफा वंश का अन्त हो गया ।
फातिमी खलीफाई के पतन के कारण फातिमी खलीफाओं का मिस्र पर लगभग शासनकाल ढ़ाई सौ वर्षों तक था। इस्लाम के इतिहास में इसे सर्वशक्तिशाली और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण शिया खलीफाई की संज्ञा जाती है। इसके पतन के लिए निम्नलिखित कारण जिम्मेदार माने जाते हैं—
1. जैसा कि पहले ही बतलाया गया है, खलीफा अल-अजीज ने भाड़े के विदेशी सैनिकों की नियुक्ति करने की नीति अपनाई। यह नीति आगे चलकर साम्राज्य के लिए धावक सिद्ध हुई। उसने साम्राज्य विस्तार और संगठन के उद्देश्य से ऐसा कदम उठाया था। कशी सैनिकों के बीच प्रभुत्व के लिए होने वाले आपसी संघर्षों ने साम्राज्य का अस्तित्व ही समाप्त कर दिया।
2. जहाँ एक तरफ बर्बर, तुर्की तथा सूडानी सैनिक आपसी संघर्ष में उलझे हुए थे वहीं दूसरी तरफ वजीर अपने प्रभुत्व एवं शक्ति के विस्तार में व्यस्त थे। अपनी महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति हेतु वे सैनिकों का उपयोग कर रहे थे। इस प्रकार साम्राज्य में भयंकर गृह-युद्ध की शुरुआत हुई, जिसके चलते शासन की शक्ति और प्रभुत्व का अवसान होता चला गया।
3. अन्तिम शताब्दी में फातिमी खलीफा की हत्या, पदच्युति और गद्दी के अपहरण के निन्दनीय कार्य-कलापों से साम्राज्य की रही-सही ताकत और गौरव का भी अंत हो गया। फिर भी प्रजा के कष्टों का किसी प्रकार अंत नहीं हुआ और खलीफाई की लोकप्रियता जाती रही । इस काल के शासकों ने जनकल्याण के कार्यों से पूरी तरह मुँह मोड़ लिए।
4. फातिमी साम्राज्य के पतन में प्रकृति के प्रलोप का भी बड़ा योगदान था। साम्राज्य भयंकर अकाल और प्लेग का शिकार बन गया। हजारों लोग मारे गये और प्रजा के कष्ट बढ़ते चले गये। प्रजा के कष्टों को दूर करने की जगह पर इस काल के शासकों ने उन पर कर लगा दिये। फातिमी सम्पन्नता में अब तक साम्राज्य के किसानों तथा शिल्पियों ने काफी योगदान दिया था। लेकिन करों की भरमार से उनके उत्साह ठंडे पड़ गये। साम्राज्य में कृषि, उद्योग-धन्धे तथा वाणिज्य व्यवस्था का ह्रास हो गया था। राज्य की आर्थिक स्थिति दयनीय हो गयी और राज्यकोष रिक्त हो गया। वित्त व्यवस्था शासन की आधारशिला होती है। इसकी कमी से शासन के स्थायित्व पर बुरा असर
पड़ता है।
5. फातिमी राजवंश को विदेशी सैनिकों ने हमेशा के लिए मिटा दिया था । अन्तिम फातिमी शासक युवक कुर्दीश ने सल्लाहदीन इब्न- अयूब को अपना वजीर नियुक्त कर सही निर्णय नहीं लिया । सल्लाहदीन एक अत्यन्त महत्त्वाकांक्षी युवक था । मुजाहिदों के विरुद्ध अपनी सफलता से प्रसन्न होकर उसने अन्तिम फातिमी खलीफा को पदच्युत कर मिस्र में पुनः सुन्नी सत्ता का बीज बो दिया ।
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