मुहम्मद अल-आमीन (809-913 ई.) : प्रशासनिक नीति एवं उपलब्धियाँ (Muhammad-al-Aameen (809-913AD): Administrative Policy and Achievements)

मुहम्मद अल-आमीन (809-913 ई.) : प्रशासनिक नीति एवं उपलब्धियाँ (Muhammad-al-Aameen (809-913AD): Administrative Policy and Achievements)

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मुहम्मद-अल-आमीन, जो खलीफा हारून का ज्येष्ठ पुत्र था, को उनकी मृत्यु के पश्चात् पूर्व मनोनयन के अनुरूप खलीफा नियुक्त किया गया। फिर बगदाद में उसी के नाम से नमाज का खुतबा पढ़ा गया। इस अवसर पर साम्राज्य के उपस्थित सैनिकों, राज पदाधिकारियों तथा प्रजा ने नये खलीफा के प्रति स्वाभिभक्ति एवं निष्ठा की कसम खायी। अपनी राज्य-भक्ति की भावना को प्रदर्शन आमीन के सभी भाइयों ने किया ।
चारित्रिक दोष एवं सूझ-बूझ का अभाव (Effect of Characterological Flaw and Instinct)
हारून का सबसे बड़ा पुत्र होने के नाते मुहम्मद अल-आमीन को उत्तराधिकारी घोषित करना स्वाभाविक था । वह शुरु से एक उदंड प्रवृत्ति का व्यक्ति तथा भोग-विलास के कार्यों में अधिक रुचि लेता था। उसने कोई खास सैन्य प्रशिक्षण ग्रहण नहीं किया था। दूसरी ओर उसका छोटा भाई मामून, जिसका राजनीति एवं प्रशासन सम्बन्धी प्रशिक्षण से काफी लगाव था और वह सभी क्षेत्रों में पूर्ण पारंगत हो गया। विधि एवं नियमों का अधिक ज्ञान होने के कारण मामून काफी प्रसिद्ध हो चुका था। आमीन अपने अनुज मामून की योग्यता और लोकप्रियता के कारण उससे ईर्ष्या एवं द्वेष की भावना रखता था । अतः खलीफा बनते ही उसने याजीद की सहायता से मामून का प्रभाव कम करने का प्रयास किया। हारून को पहले से ही इस बात की जानकारी थी कि आमीन अपने अनुज मामून के साथ उचित बर्ताव नहीं करेगा। अतः उसने मामून को भी आमीन का उत्तराधिकारी स्वयं घोषित कर दिया था। साथ ही, हारून के प्रसिद्ध खुरासानी सेना को मामून के अधिकार में दे दिया, जिसकी सहायता को मामून द्वारा अपने अधिकारों को सुरक्षित रखा जा सकता था ।
किन्तु मामून को आमीन फजल की सहायता से खुरासानी सेना तथा राजकोष से अलग कर दिया गया। फजल के कार्यों से प्रसन्न होकर आमीन ने उसे साम्राज्य का वजीर बना दिया। मामून को काफी संकटों का सामना करना पड़ा। अब न तो उसके पास सेना थी और न ही पैसे। इतना ही नहीं, खुरासानी सेना तथा प्रांत के अनेक जागीरदारों ने अब उसके विरुद्ध बगावत कर दिया था किन्तु अपनी दूरदर्शिता, योग्यता तथा कुछ सहयोगियों की मदद से मामून को प्रतिकूल स्थिति पर काबू पाने में सफलता मिली। इस प्रकार आमीन ने मामून को अपना प्रतिद्वन्द्वी एवं विरोधी घोषित कर दिया। मामून को अपना समर्थक तथा सहयोगी बनाकर आमीन का प्रशासनिक जीवन सफल हो जाता। लेकिन मामून को अपना विरोधी बनाकर आमीन ने खुद अपना ही नुकसान कर लिया। भविष्य में वह मामून के सहयोग से न केवल वंचित रहा, वरन् अब्बासी राजवंश में गृह युद्ध की स्थिति पैदा हो गयी जिसके कारण उसका चरित्र भी नष्ट हो गया, साथ ही जनता का विश्वास भी खत्म हो गया। उसने लोकहित कार्यों की अपेक्षा विलासिता, सेना, आमोद-प्रमोद आदि पर लाखों रूपये खर्च कर दिए। बगदाद में खलीफा का राजदरबार जादूगरों, विदूषकों, भविष्यवक्ताओं तथा ज्योतिषियों का क्रीड़ास्थल का रूप ले चुका था और इनके कार्यों से सम्मोहित होकर खलीफा उनको मुँहमाँगा इनाम देता रहा। साथ ही, अब दरबार में सुरा-सुंदरी पर अधिक ध्यान दिया जाता था ।
जनता के पसीने से अर्जित धन का आमीन ने नृत्य एवं संगीत पर काफी अपव्यय किया। वह बड़े-बड़े संगीत एवं नृत्य उत्सवों का आयोजन करने लगा। इसी प्रकार जल-विहार तथा आमोद-प्रमोद के ऊपर साम्राज्य का वजीर फजल बिस- रबी अब प्रशासन की देखभाल करने में लगा रहता था लेकिन खलीफा अपने पुराने ढर्रे पर ही भोग-विलास के कार्यों में लगा रहता। यही कारण था कि जनता के भीतर उसके प्रति घृणा उत्पन हो गई। जन-समर्थन के अभाव में शासक की सफलता असंभव हो जाती हैं। आमीन इसका अपवाद नहीं हो सकता था। खलीफा द्वारा प्रशासन तथा सेना की उपेक्षा का दुष्परिणाम यह यह भी हुआ कि साम्राज्य में खलीफा के विरोधियों तथा शत्रुओं की संख्या में बढ़ोत्तरी होती गयी और शत्रु पड़ोसी राज्यों के साम्राजय पर आक्रमण करना प्रारंभ कर दिया ।
साम्राज्य में विद्रोह तथा शत्रु देशों का हमला (Revolt in Empire and Attack of Enemy Countries)
आमीन के अपने चरित्र और अदूरदर्शितापूर्ण कार्यों से ही विद्रोह तथा बाहरी युद्धों की शुरुआत हुई। इस काल में सीरिया में उमैयद वंश के लोगों ने विद्रोह के झंडे गाड़ दिये। सीरिया के लोगों ने खलीफा के ख़राब चरित्र से नाराज होकर विद्रोहियों का काफी सहयोग किया। इस विद्रोह का नेतृत्व किया अली बिन अब्दुल्ला बिन खालिद बिन याजीद बिन – मुआविया ने, जो उमैयद वंश के संस्थापक मुआविया का एक वंशज था और जिसे लोग -सूफिमाया कह कर सम्बोधित किया करते थे। यद्यपि अब्बासी सेना ने जल्द ही इस विद्रोह का दमन कर दिया, परन्तु पूर्ण रूप से शांति की स्थापना करने में असम्भव रहा।
बैजेन्टाइनों का हमला- बैजेन्टाइनों द्वारा हारून रशीद के शासन का अन्त होने से पूर्व पुनः साम्राज्य पर हमला कर दिया गया। सम्राट निसेफोरस ने हारून के साथ की गयी शांति-संधि की शर्तों को अस्वीकार कर दिया था। यद्यपि इस काल में निसेफोरस की मृत्यु के बाद बैजेन्टाइन दरबार गृह कलह का केन्द्र बन गया था, फिर भी निसेफोरस के उत्तराधिकारी स्टारेसियस, माइकेल, लिमियों आदि की नीति अब्बासी साम्राज्य के विरुद्ध रही और उन्होंने बार-बार इस्लामी साम्राज्य के क्षेत्र पर हमला कर दिया। लिमियों ने अब्बासियों के विरुद्ध उग्र आक्रमण की नीति का पालन किया। उसने संधि की शर्तों का उल्लंघन करते हुये अब्बासी के राज्यों पर हमला करना प्रारम्भ कर दिया ।
इसी बीच आमीन गृह युद्ध में बुरी तरह से फँस चुका था। अतः बैजेन्टाइनों के विरुद्ध वह समुचित कदम नहीं उठा सके । परिणामस्वरूप रोमन सम्राट को इस्लामी साम्राज्य के निकटवर्ती क्षेत्रों को रौंदने और लूटने का अच्छा अवसर प्राप्त हो गया। इन क्षेत्रों के मुस्लिम निवासियों को रोमनों ने जी भर कर लूटा और उन्हें तरह-तरह की यातनाएँ दीं। खलीफा उनकी जान-माल की सुरक्षा नही कर पाया।
गृह युद्ध की शुरुआत – उत्तराधिकारी के लिए ही गृह युद्ध की शुरुआत हुई जिसमें पहले से ही हारून ने अपने पुत्रों को बाँट दिया था कि अल-आमीन के बाद उसका अनुज अल-मामून, अब्बासी खलीफा बनेगा, लेकिन आमीन ने खलीफा बनते ही अपनी स्वार्थपरता एवं अदूरदर्शिता का परिचय दियो। पहले तो उसने मामून के प्रभुत्व को अंत करने का काफी प्रयास किया और खुरासानी सेना तथा राजकोष पर अपना कब्जा जमा लिया। फिर भी मामून ने खुले रूप से आमीन की आलोचना नहीं की। उसने अपनी योग्यता के बल पर अपने प्रभुत्व को स्थापित रखा। किन्तु आमीन बड़ा ही स्वार्थी, हठी और अदूरदर्शी व्यक्ति था ।
मामून के स्थान पर वह अपने शिशु पुत्र मूसा को अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहता था। अतः फजल तथा अली बिना ईसा के परामर्श पर उसने मामून को उत्तराधिकार का अधिकार छीन लिया था। अपने एक अन्य भाई कासिम के साथ भी उसने इसी ढंग का बर्ताव किया। मामून को उत्तराधिकार से वंचित कर खलीफा ने अपने पुत्र मूसा को अपना उत्तराधिकारी मनोमीत किया। इस प्रकार की दशा को देखकर मामून को मजबूर होकर गृह युद्ध की शुरुआत करनी पड़ी। अल-मामून को उत्तराधिकार से अलग किये जाने से रुष्ट होकर उसने अपनी सेना को लेकर पश्चिमी प्रदेशों को घेर लिया, लेकिन इसका दमन करने के लिये खलीफा आमीन ने 50,000 सैनिकों से युक्त सेना के नेतृत्व में भेजा। मामून संघर्ष के लिए पहले से तैयार था । उसकी ओर से ताहिर बिन – हुसैन ने सेना का नेतृत्व किया। जल्द ही ताहिर के हाथों ईसा पराजित हो गया और अपने असंख्य सैनिकों के साथ मारा गया। पराजित सैनिकों में से बहुत से लोग ताहिर की सेना में शामिल हो गये। खलीफा की सेना के विरुद्ध मामून की सेना की सफलता स्वाभाविक एवं अब्बासी वंश हेतु हित में थी ।
युद्ध में जीत हासिल करते ही उसके द्वार काजवीन, होलवान आदि क्षेत्रों को अपने अधिकार में ले लिया गया। यद्यपि आमीन ने मामून की बढ़ती हुई शक्ति को अपनी सेना की मदद से दबाने का निरंतर प्रयास किया, परन्तु उसके सारे प्रयास बेकार साबित हुए और उसकी सेना को हार का सामना करना पड़ा। दूसरी ओर मामून ने अपनी सेना की टुकड़ी का आह्वान किया और हरसमा के नेतृत्व में दूसरी टुकड़ी को साम्राज्य की उत्तरी क्षेत्रों पर अधिकार करने के लिए भेज दिया और अपने को खलीफा घोषित कर दिया, जिसे ईरान की जनता ने स्वीकृति प्रदान कर दी। मामून ने अपने सहयोगी एवं परामर्शदाता फजल बिन सहल को साम्राज्य के समस्त क्षेत्रों का, जिसका प्रसार तिब्बत से हमदान तथा हिन्द महासागर से कैस्पियन तक था, गवर्नर नियुक्त कर दिया। साथ ही साथ फजल को युद्ध एवं वित्त मन्त्री का पद सौंप दिया गया। अली बिन हिशाम को युद्ध कार्यालय का प्रधान अध्यक्ष बनाया गया तथा नईम बिन खाजिम को राजस्व विभाग का। हसन बिन सहल खाजिम को सचिव नियुक्त किया गया। इस प्रकार मामून ने प्रशासन सम्बन्धी आवश्यक संगठनकार्य भी सम्पादित कर लिये। अब किसी भी दृष्टि से इस्लामी साम्राज्य की स्थिति को खलीफा अल-आमीन की तुलना में कमजोर नहीं कहा जा सकता था।
मामून ने आंतरिक संगठन का कार्य पूर्व हो जाने के बाद आमीन के साथ अन्तिम फैसला करने का निर्णय लिया। तब तक उसकी सेना ने यमामा, बहराईन तथा अमन के क्षेत्रों में भी अधिकार जमा लिया। कूफा का गवर्नर हादी का पुत्र अब्बास मामून के खलीफा पद ग्रहण को समर्थन दे चुका था। इसी प्रकार बसरा के गवर्नर मंसूर तथा मक्का-मदीना के गवर्नर दाउद ने भी मामून के समक्ष हार मान ली थी। मामून का प्रसिद्ध सेनापति ताहिर ने बड़ी तेजी से उत्तर की ओर बढ़ कर मदाइन क्षेत्र पर भी अपना अधिकार जमा लिया और अब बगदाद चला गया। उधर उत्तर से बढ़ता हुआ अरसाम तथा जुबैर भी बगदाद आ धमके। मामून के इन तीनों प्रतापी सेनापतियों ने एकजुट होकर बगदाद का घेरा डाल दिया। उनके द्वारा लगातार कई महीनों तक युद्ध होता रहा जिसके परिणाम में बगदाद की सारी सुंदरता उजड़ गयी और उसका आकर्षण पूरी तरह से समाप्त हो गया। वहाँ से सम्पन्न और गणमान्य लोग पलायन कर गये और पूरा बगदाद बर्बाद हो गया। अब बगदाद में खलीफा आमीन का अधिक दिन रहना संभव नहीं था। उसने अपने परिवार वालों के साथ भाग कर मदीना-अल-मंसूर में शरण ली। परन्तु यहाँ भी उसे काफी संकटों का सामना करना पड़ा। अंत में उसने मामून के सेनापति के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया। तत्पश्चात् उसने अपने परिधान एवं अन्य राज्य चिन्हों के सेनापति ताहिर के पास पहुंचा दिया।
खलीफा तथा उसके परिवार के अन्य सदस्यों के प्राणों की सुरक्षा प्रदान करने का आश्वासन सेनापति हरसमा द्वारा दिया गया था । वह उन्हें लेकर नदी-मार्ग से अपने पड़ाव की ओर चल पड़ा। हरसमा को इसकी जानकारी नहीं थी कि कुछ उग्र ईरानी सैनिक खलीफा की हत्या के लिए दृढ़ संकल्प लिए बैठे थे। हरसमा की नाव अभी थोड़ी ही आगे बढ़ पायी थी कि तट पर छिपे हुए ईरानी सैनिकों ने नाव पर हमला करना शुरू कर दिया। जल्द ही नाव नदी में डूब गयी। यद्यपि आमीन नदी में डूबने से बच गया, परन्तु ईरानी सैनिकों की नजर उस पर पड़ गयी। उन्होंने खलीफा को पकड़ कर एक मकान में कैद कर दिया और अन्त में उसे मौत के घाट उतार दिया। उसके सिर को हत्यारों ने काट कर बगदाद शहर की दीवारों पर लटका दिया। आमीन की इस नृशंस हत्या से अरब लोग अचंभित रह गए। मामून द्वारा हत्यारों को कठोर दण्ड दिया गया और उसने आमीन के पुत्रों को गोद ले लिया। इनका
लालन-पालन जुबैदा के द्वारा किया गया और युवावस्था में उनका निकाह जुबैद की बेटियों के साथ करा दिया गया। इस तरह 813 ई. में आमीन का शासनकाल समाप्त हो गया और अल-मामून खलीफा बना। आमीन का शासन असफलता की कहानी है। उसे गृह तथा विदेशी, दोनों क्षेत्रों में केवल असफलता मिली। गृह युद्ध शुरु करके उसने अपनी अयोग्यता का प्रमाण दे दिया, साथ ही अपनी मौत का रास्ता भी खोल दिया जिससे अब्बासी साम्राज्य का पतन हो गया।
अल-मामून का शासनकाल (Administration Period of Al-Mamoon)
अलभामून अपने खलीफा के पद पर खलीफा आमीन के शासनकाल में ही विराजमान हो चुका था। आगे चलकर आमीन को हराकर उसने अब्बासी साम्राज्य को अपने अधिकार में लिया और बाद में आमीन की हत्या करवा दी और खुद वहाँ का खलीफा बन गया। रशीद के शासन के बाद अब्बासी राजवंश के इतिहास में मामून का शासनकाल काफी उल्लेखनीय है। वस्तुतः मामून अपने पिता की भाँति ही एक योग्य, दूरदर्शी, उदार, न्याय-प्रिय, प्रजापालक शासक था एवं शिक्षा साहित्य तथा विभिन्न विद्वानों एवं कलाओं से काफी लगाव था। उसकी सैनिक योग्यता भी असीम थी ।
मामून ने अपने बाहु-बल से विद्रोह का दमन करके साम्राज्य का बचाव किया। उसकी प्रशासन एवं संगठन सम्बन्धी कार्यों में भी गहरी रुचि थी। उसके शासनकाल में इस्लामी सभ्यता संस्कृति के विभिन्न पहलुओं में व्यापक प्रगति आयी। मामून का शासनकाल इस्लामी इतिहास का स्वर्ण-युग कहा जाता है और आगस्टन के काल से इसकी तुलना की जा सकती है।
मामून की कठिनाइयाँ (Problems of Mamoon)
अब्बासी साम्राज्य की सारी व्यवस्था को आमीन के शासनकाल में होने वाले गृह युद्ध के कारण काफी क्षति पहुंची थी। यहाँ तक कि उसकी राजधानी में भी विद्रोह की स्थिति पैदा हो गयी थी। मेसोपोटामिया में उमैयद वंश के एक व्यक्ति नसर ने विद्रोह की आग भड़का दी। ईरान के बदुओं ने असन बिन सहल को अपना गवर्नर स्वीकार किया था। अली के समर्थक अब भी अब्बासियों के प्रतिरोधी बने हुए थे। खलीफा बनने की उसकी महत्वाकांक्षा अब भी बनी हुई थी । अतः गृह युद्ध का लाभ उठाकर अलींदियों ने भी कूफा के मध्य संघर्ष की शुरुआत कर दी थी । अलीदी विद्रोह का नेतृत्व किया अली के एक वंशज इब्न-तबा – तब ने कूफा के लोगों को अब्बासियों के विरुद्ध उभारा और कूफा के लोगों ने विद्रोह कर दिया ।
तबा को अबू सराया का भी समर्थन मिला, जो स्वयं अब्बासी राजवंश का विरोधी था। तबा को अबू सराया का भी सहयोग मिला, जो स्वयं अब्बासी राजवंश की आलोचना करता था । हैज्जाज के लोगों ने भी अब्बासी सत्ता के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था जिससे उसके साम्राज्य ईरान की सीमा तक विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी और पूरी शासन व्यवस्था भंग हो गयी। मामून का वजीर फजल भी अत्यन्त महत्वाकांक्षी हो गया था और अपने मन के अनुसार कार्य करने में
लगा था। बाह्य आक्रमण बढ़ता ही जा रहा था। बैजेन्टाइन का शासन निरंतर इस्लामी साम्राज्य की सीमाओं पर आक्रमण कर रहा था जिससे वहाँ की क्षेत्रीय जनता काफी डरने लगी थी।
मामून की देन (Givings of Mamoon)
शुरुआत में मामून बगदाद से दूर मारव में रहता था। वहाँ उसे साम्राज्य के वजीर फजल द्वारा पूर्ण सूचना (जानकारी) प्राप्त करने में कठिनाई होती थी। किन्तु जल्द ही बगदाद आकर मामून एक-एक कर अपनी समस्याओं का अंत करने में लग गया। साम्राज्य में विद्रोहों का अंत होने ल था । सर्वत्र शांति एवं सुव्यवस्था की स्थापना की गयी। बैजेन्टाइनी शासन को उचित पाठ पढ़ाया। प्रशासन को ठीक किया और उसे सुदृढ़ बनाया, साथ ही, साम्राज्य के बौद्धिक विकास और सांस्कृतिक उन्नति के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाए गये । वस्तुतः मामून का शासनकाल रोमन साम्राज्य आगस्टक के शासनकाल की भाँति इस्लाम के इतिहास का स्वर्ण युग कहा जा सकता है। इससे स्पष्ट होता है कि मामून की उपलब्धियाँ राजनीतिक, प्रशासनिक एवं सांस्कृतिक सभी दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण थीं।
विद्रोहों का अंत-इस्लामी साम्राज्य में विद्रोह का दमन करने सर्वप्रथम खलीफा मामून को शांति व्यवस्था कायम करने में सफलता मिली।
सराया का अंत – अबू सराया के नेतृत्व में ईरान में भयंकर विद्रोह उत्पन्न हो गया था। सराया प्रारंभ में एक डाकू था, परन्तु बाद में वह एक लोकप्रिय नेता बन गया था। उसने अब्बासियों के विरुद्ध कूफा में होने वाले विद्रोह में अलीदी नेता तबा का भी सहयोग किया था । दोनों ने मिलकर अब्बासी सेनापति हसन बिन सहल को हरा दिया था। इस प्रकार दक्षिणी इराक पर तबा तथा सराया का प्रभाव काफी बढ़ गया था। कुछ समय बाद सराया ने धोखे से जहर देकर तबा की हत्या करवा दी। लेकिन उसने अपनी लोकप्रियता का लाभ उठाते हुए दूसरे वंशज को नेता बना लिया। इसके द्वारा ही ईरानवासियों को अब्बासियों के खिलाफ विद्रोह करने का प्रोत्साहन दिया गया था। अब्बासी वजीर फजल ने सेनापति हरसमा को सराया के विद्रोह का दमन करने के लिए भेजा। हरसमा ने सराया को न केवल युद्ध में परास्त कर दिया, बल्कि उसको मौत के घाट भी उतार दिया। इस तरह ईरान में शांति को पुनः स्थापित किया गया ।
अन्य प्रांतों में अब्बासियों का कब्जा (Possession of Abbassis in other Provinces)
अब्बासी सेना द्वारा ईरान में शांति व्यवस्था व्याप्त करने के पश्चात् अन्य उपद्रवी प्रांतों को जीतने की प्रयास किया गया। यमन और खुरासान के विद्रोहों का दमन करते हुये दुबारा अपने अधिकार में ले लिया। इसी समय कुछ लोग मामून की हत्या का षड़यंत्र रच रहे थे। ये व्यक्ति खलीफा के स्वजातीय थे। इस षड़यंत्र का पता चलते ही आवश्यक सैनिक कार्यवाही की गयी। आतंकित होकर षड़यन्त्रकारियों के नेताओं ने मामून के पैर पकड़ लिए और अपनी गलतियों के लिए उससे क्षमा की प्रार्थना की। उदार हृदय खलीफा ने षड़यन्त्रकारियों को क्षमा प्रदान कर दिया। अब वे खलीफा के समर्थक बन गये। कूफा में भी विद्रोहियों को बुरी तरह हरा दिया था ।
अलीदी नेता अथवा युवक खलीफा को अब्बासी सेना ने खलीफा मामून के पास मारव भेज दिया। विद्रोही खलीफा ने मामून के समक्ष हार मान ली। अंत में मामून ने उसे भी क्षमा प्रदान कर दी। इस प्रकार सम्पूर्ण ईरान के क्षेत्रों में विद्रोहों का अंत कर दिया गया तथा यमन एवं खुरासान में पुनः अब्बासी प्रभुत्व को स्थापित कर दिया गया।
बाबेक का संघर्ष (Conflict of Babek)
बाबेक के विद्रोह का दमन करना मामून के शासनकाल की महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। बाबेक ने मजेनदरान के दरें को अपने कब्जे में ले लिया था। वह बड़ा ही निर्दयी एवं विधर्मी व्यक्ति था । ईसाई, यहूदी अथवा इस्लाम, किसी भी धर्म द्वारा प्रतिपादित नैतिक नियमों में उसका विश्वास नहीं था। उसने इस्लाम ही नहीं, किसी भी धर्म द्वारा प्रतिपादित नैतिक नियमों में उसकी रुचि नहीं थी। उसने मजेदन के आस-पास के पहाड़ी प्रदेशों को उजाड़ना शुरू किया। इस क्षेत्र के वाशिन्दों की निर्मम हत्या कर दी गयी अथवा कैद कर लिया गया।
अब्बासी सेना द्वारा शुरुआत में बाबेक के विरुद्ध नाममात्र की सफलता अर्जित की। इसी बीच बाबेक ने अब्बासियों के विरोधी बैजेन्टाइनी सम्राट के साथ भी साँठगाँठ कर ली और उसे अब्बासी साम्राज्य पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया। इस प्रकार बाबेक प्रारंभ में काफी सफल हुआ लेकिन इसके विरुद्ध बैजेन्टाइनी सम्राट ने शांति-संधि स्थापित करके बाबेक के विद्रोह का समापन कर दिया।
वजीर फजल की बढ़ती हुई महत्वाकांक्षा का पतन
जैसा कि हम पढ़ चुके हैं, प्रारंभ में मामून बगदाद से दूर मारव में निवास करता था। अतः इस बीच शासन पर वजीर फजल का प्रभाव काफी बढ़ गया और वह बहुत ही महत्वकांक्षी हो गया। उसने मनमानी करना प्रारंभ किया। मामून को वह आवश्यक सूचनाएँ भी नहीं भेजा करता था। वह स्वयं खलीफा बनने का स्वप्न देखने लगा। इसकी जानकारी सेनापति हरसमा को हो गयी । हरसमा शीघ्र मारव जा पहुँचा और उसने सारा षड़यन्त्र मामून को बता दिया। इसके बाद जब वह बगदाद वापस आया तो वजीर ने उसको मरवा दिया।
यद्यपि फजल ने अपनी इस करतूत को छिपाने का हर संभव प्रयास किया, किन्तु बगदाद के लोगों को इसकी भनक लग गयी और वजीर तथा बगदाद के गवर्नर हसन बिन-सहल के विरुद्ध, जो, फजल का भाई था, उन्होंने विद्रोह छेड़ दिया। हसन को हरा कर अब मंसूर बिन – महदी को बगदाद का गवर्नर बनाया गया तथा बगदाद में शांति व्यवस्था को पुनः बहाल किया गया । अब्बासी शासन की लोकप्रियता में वजीर फजल के कुप्रबन्धों से धीर-धीरे कमी आने लगी थी। इराक में पूर्ण शान्ति की स्थापना के उद्देश्य से खलीफा मामून ने 816 ई. में इमाम अली तृतीय को इमाम का पद सौंप दिया। उसके वंशजों को रिजवी कहा गया। अब मामून के आदेश से रिजवियों ने काली पोशाक की जगह पर लाल वस्त्र धारण करना शुरु किया । बगदाद के लोग इस्लाम अली तृतीय के स्थान पर इब्राहिम बिन-महदी को यह पद सौंपना चाहते थे। मामून के की निर्णय को देखते हुये बगदाद तथा उसके समीप के क्षेत्रों में अराजकता फैल गयी। फजल की अकर्मण्यता के चलते दिन-प्रतिदिन स्थिति खराब होती चली गयी। बगदाद की स्थिति इतनी गम्भीर हो गयी कि स्थानीय प्रतिष्ठित व्यक्तियों को शहर में जान-माल की सुरक्षा के लिए एक निगरानी समिति का गठन करना पड़ा।
शहर में शान्ति तथा सुव्यवस्था की स्थापना के लिए ऐसी अनेक समितियां बनाई गई। मामून बगदाद से दूर मारंव में पड़ा हुआ था। वजीर फजल जानबूझ कर उसे बगदाद की स्थिति की सूचना नहीं देना चाहता था। इस प्रकार बगदाद तथा उसके आस-पास के निवासी कष्ट सहने को मजबूर थे।
आखिर में इमाम अली तृतीय ने, जिसे मामून ने इराक का इमाम घोषित किया था, उसने मामून की शक्ति का भी परिचय कराया। फजल को जब इस बात की भनक लगी कि खलीफा को सारी स्थिति की जानकारी लग गयी है तो उसने क्रोध में आकर अनेक अब्बासियों को बंदी बना लिया और उसमें से कुछ को कठोर सजाएँ दीं। इमाम अली के पुत्र ने इन बातों की सूचना खलीफा को दी। उसकी हरकतों से तंग आकर रात में उसकी हत्या करवा दी और सारी योजनाएं स्वतः ही समाप्त हो गईं।
818 ई. में इसी दौरान इमाम अली की तूम में मृत्यु हो गयी। वजीर की महत्वकांक्षाओं के दमन में इमाम अली ने खलीफा को काफी सहायता की थी जिसके कारण इमाम की मृत्यु के बाद उसके पुत्र को उत्तराधिकारी बना दिया। मुहम्मद ने अब जावेद की उपाधि ग्रहण की। इमाम की स्मृति में मामून ने मसद का मकबरा बनवाया, जो शीघ्र ही समस्त विश्व शियाओं के में तीर्थ-स्थल के रूप में प्रसिद्ध हो गया ।
मामून का बगदाद आगमन
शुरुआत में खलीफा मामून अपनी राजधानी बगदाद से दूर मारव में रहता था। लेकिन वहाँ प्रशासनिक कार्यों की देख-रेख सही से नहीं हो पा रही थी, जिससे उसने बगदाद में रहने का निर्णय लिया। खलीफा के आने से बगदाद के लोगों के मध्य खुशी दौड़ गयी। अपने खलीफा के स्वागत के लिए बगदाद के निवासियों ने शहर की गलियों को खूब सजाया तथा रंग-बिरंगे वस्त्र धारण किये। खलीफा के आते ही शहर से अराजकता का नाश हो गया और लोगों ने चैन की सांस ली। अब निगरानी समितियों की आवश्यकता नहीं रह गयी। खलीफा घूम-घूम कर लोगों के कष्टों का निवारण में लग गया और उनको सुख सुविधाएं प्रदान करने के लिए शीघ्र ही जरूरी कार्य किए।
प्रशासनिक संगठन (Administrative Organisation)
खलीफा को यह बात महसूस हुई कि प्रजा के कष्टों का एकमात्र कारण प्रशासनिक अव्यवस्था थी। लोगों के हृदय में शासन का भय नहीं रह गया था। अतः साम्राज्य में विद्रोहों तथा षड्यत्रों की बाढ़-सी आ गयी थी । अतः मामून ने प्रशासनिक संगठन पर अधिक बल दिया। मक्का और मदीना के शासन के लिए मामून ने अली के एक वंशज को इस क्षेत्र का गवर्नर बनाया। खलीफा ने अपने दो भाइयों को कूफा तथा बसरा का शासक बनाया। पूर्वी राज्यों की शासन व्यवस्था चलाने के लिये खलीफा ने ताहिर को कार्यभार सौंप दिया। परन्तु जल्द ही ताहिर की मृत्यु हो गयी। इसके बाद ताहिर के पुत्र तलहा को इस क्षेत्र का गवर्नर बनाया गया। ताहिर के दूसरे पुत्र अब्दुल्ला को सीरिया और मिस्र का गवर्नर बनाया। अब्दुल्ला ने विद्रोही ओकली को पराजित कर मेसोपाटामिया में अमन-चैन स्थापित किया। मिस्र में भी उसने विरोधियों का नाश किया और शांति व्यवस्था की स्थापना की। अब्दुल्ला ने सिकन्दरिया के स्पेनिश मुसलमानों को, जो उस क्षेत्र में अराजकता फैलाए हुए थे, हराकर क्रीट की ओर भगा दिया।
कौंसिल ऑफ स्टेट’ की स्थापना करके समाज के विकास हेतु मामून द्वारा महत्वपूर्ण कदम उठाए गए। साथ ही सामाजिक एकता बनाये रखने का आश्वासन दिया। इसमें यहूदी, ईसाई, मुसलमान आदि सभी धर्म और जाति के लोग शामिल थे। यह मामून की महानता थी कि उसने गैर-मुसलमानों को भी विचारों की तथा धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान की। यह ठीक है कि यदा-कदा स्थानीय मुस्लिम गवर्नरों के द्वारा इनकी स्वतंत्रता पर लोक लगाई गयीं, परन्तु सामान्य रूप से लोगों के ये विचार यथावत् रहे। स्वाभाविक था कि गैर-मुस्लिम धर्मावलम्बियों तथा अन्य जाति के लोगों को, जो इस्लामी साम्राज्य में रह रहे थे, अपने कार्यों से मामून जनता में काफी लोकप्रिय हो गया था।
मामून इस्लाम धर्म का अनुयायी तथा बड़ा ही सहदय व्यक्ति था। उसने अन्य धर्मावलंबियों के ऊपर इस्लाम को लादने की कभी कोशिश नहीं की। उसने अपने शासनकाल में यथासंभव राज्य को धर्मनिरपेक्ष बनाने का प्रयास किया। खलीफा उन दिनों प्रचलित मुताजिलस संप्रदाय के सिद्धांतों ने उस पर काफी प्रभाव डाला था। इस सम्प्रदाय के अनुयायी यह मानते थे कि मनुष्य को अपनी इच्छानुसार कार्य करने की स्वतंत्रता है। उसे अच्छे अथवा बुरे का चुनाव करने का स्वयं अधिकार होना चाहिए । मृत्यु के पश्चात् अपने कार्यों के लिए परलोक में व्यक्ति को शारीरिक सुख की प्राप्ति होती है अथवा कष्ट इन बातों में मुताजिलस संप्रदाय के लोग विश्वास नहीं करते थे। इस संप्रदाय के लोगों को मामून से काफी बल मिला ।
खदीज़ा से शादी का महत्व (Importance to Marry Khadija)
खदीजा एक प्रतिभाशाली शिक्षित एवं आकर्षक व्यक्ति की महिला थी और मामून की पलियों में काफी लोकप्रिय भी थी । खलीफा पर उसका व्यापक प्रभाव था । अपने प्रभुत्व काल में खदीजा ने अब्बासी शासन को काफी प्रभावित किया । खदीजा से प्रभावित होकर राजधानी में महिला चिकित्सालय का निर्माण करवाया। मामून की मृत्यु के बहुत समय बाद खदीजा की मृत्यु हुई।
बैजेन्टाइन के साथ रिश्ता (Relation with Bejantine)
बैजेन्टाइनी सम्राट थियोफिलस मामून के समान ही था । बाबेक का समर्थन पाकर उसने इस्लामी सम्राट पर अनेकों बार हमला किया और सैकड़ों मुसलमानों को मौत के घाट उतार दिया। मामून के लिए थियोफिलस को परास्त करना अनिवार्य हो गया था। उसने एक बड़ी सेना का स्वयं नेतृत्व किया और बैजेन्टाइनों ने अन्त में खलीफा के साथ शान्ति सन्धि कर ली। फिर भी मामून ने बैजेन्टाइनों को विश्वसनीय न समझते हुए साम्राज्य की सुरक्षा व्यवस्था के लिये समुचित प्रयास किये। तनाया को चारों तरफ से घेर लिया गया तथा नयी सैनिक छावनियों की स्थापना की गयी। खलीफा के आदेश पर बैजेन्टाइनों के विरुद्ध सफलता के पश्चात् अब्बासी सेनापति अफशीन ने मिस्र पर भी सफल हमलों को अंजाम दिया और वहां फिर से अब्बासी प्रमुख को स्थापित किया।
मामून की मौत (Death of Mamoon)
असाध्य रोग से पीड़ित होकर तारसस नामक गांव में मामून की हत्या 9 अगस्त 888 ई. में हो गई थी। मामून की मृत्यु के साथ ही अब्बासी खलीफाई के स्वर्ण युग का अंत हो गया और धीरे-धीरे अब्बासी साम्राज्य की शक्ति का पतन होना प्रारंभ हो गया।
मामून की सांस्कृतिक देन (Cultural Givings of Mamoon)
मामून का शासनकाल करीब 20 वर्षों तक रहा। उसका शासनकाल अब्बासी प्रभुत्व के विस्तार तथा सांस्कृतिक विकास का काल था। उसके शासनकाल की तुलना प्रसिद्ध रोमन सम्राट ऑगस्टस के शासनकाल से की जाती है। निःसंदेह यह इस्लामी इतिहास का स्वर्ण युग कहा जा सकता है। मामून एक योग्य शासक होने के साथ ही कुशल सैनिक था, जिसके आधार पर उसने अब्बासी साम्राज्य का खूब विस्तार किया। साथ ही शांति व्यवस्था बनाये रखने में भी सफल रहा। वह एक सफ़ल शासक एवं संगठनकर्ता भी था। उसने प्रशासन संबंधी आवश्यक सुधार लाकर अब्बासी शासन को अत्यंत प्रभावशाली बनाया। परन्तु मामून की महानता का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण बौद्धिक क्षेत्र में उसके द्वारा लाया गया विकास कहा जाता है | साहित्य, विज्ञान तथा कला-कौशल के विभिन्न क्षेत्रों में जो काम अधूरा छोड़ दिया गया था, मामून ने उसे पूरा किया । विज्ञान एवं साहित्य की उन्नति के दृष्टिकोण से मामून के शासनकाल को मंसूर तथा हारून के काल से भी अधिक महत्व दिया जाता है। उसने विभिन्न विद्यालयों और कॉलेजों का निर्माण करवाया और उनके लिये एक स्थायी योजना बनायी। शैक्षिक संस्थाओं को खलीफा की ओर से पर्याप्त आर्थिक सहायता प्रदान की जाती थी। अपनी प्रजा हेतु मामून का शिक्षा एवं संस्कृति का विकास अत्यन्त महत्वपूर्ण था।
मामून के दरबार में साहित्यकारों, विद्वानों और कलाकारों की बहुलता थी। विश्व के अनेक देशों के साहित्यकार, विद्वान, कलाकार, वैज्ञानिक, चिकित्सक, दार्शनिक, इतिहासकार आदि को उसने अपने राजदरबार में संजो कर रखा। उसने इन सबों का हार्दिक सम्मान किया और कभी भी उसने उनकी जाति, धर्म, सम्प्रदाय, राष्ट्रीयता आदि को महत्व नहीं दिया। उसके शासनकाल में साहित्य, व्याकरण आदि का काफी विकास हुआ। अनेक दुर्लभ विदेशी साहित्यिक कृतियों का अरबी में रूपांतरण किया गया तथा मौलिक ग्रंथों की रचना की गयी। सिकन्दरिया लिपि का ज्ञान मामून ने विद्वानों से स्वयं प्राप्त किया। उसकी मदद से ही अनेक यूनानी दार्शनिक ग्रंथों का अनुवाद अरबी में संभव हो सका था। बगदाद में अनेकानेक ग्रंथों को अरबी विद्वानों ने अनूदित किया। यूनान, सीरिया और चाल्डाईया की कृतियों का अनुवाद कोस्ट्रा की देख-रेख में, फारसी ग्रंथों का अनुवाद यहिया बिन हारून के नेतृत्व में और संस्कृत कृतियों का अनुवाद एक ब्राह्मण विद्वान की देख-रेख में किया जाने लगा। ज्ञान वृद्धि के विशेष विषयों तथा शोध-कार्यों की उन्नति की ओर अधिक ध्यान दिया गया। प्राचीन ईरान की भाषा और साहित्य को भी प्रोत्साहित किया। खलीफा ने पुरातन ज्ञान को पुनर्जीवित किया और ईरानी भाषा का विकास किया। आधुनिक फारसी कविता का जनक कवि अब्बासी मरवानी मामून के शासनकाल में ही था।
विज्ञान तथा दर्शन के क्षेत्र में भी खलीफा मामून के शासनकाल में काफी उन्नति देखने को मिली। इस काल में मीमांसात्मक दर्शन का विकास विज्ञान की भाँति ही हुआ। यूनानी दार्शनिक ग्रंथों का बड़ी संख्या में अरबी में रूपांतरण किया गया। मामून ने स्वयं दर्शनशास्त्र का गहन अध्ययन किया। दर्शनशास्त्र के अतिरिक्त धर्मशास्त्र तथा इस्लामी विधिशास्त्र का भी अत्यधिक विकास हुआ। मामून ने विद्वानों की एक मंडली की स्थापना करके तर्क विद्या का प्रारम्भ किया। साम्राज्य के महान् पंड़ित तथा विद्वान प्रत्येक मंगलवार को राजभवन में एकत्र होते थे। जलपान आदि के बाद वाद-विवाद का कार्यक्रम शुरु होता था। खलीफा से सभी सभाओं में स्वयं उपस्थित रहकर सभा की अध्यक्षता करता था ।
गणित, खगोलशास्त्र, चिकित्साशास्त्र, रसायन, भौतिकी आदि सभी के विकास पर इस काल में विशेष रूप से गौर किया गया। इन सारी विद्याओं का विकास पहले स्पेन तथा कुस्तुनतुनिया में हुआ और इसके बाद यूरोप के अन्य देशों में मामून के शासनकाल में विद्वानों ने गणित तथा प्राकृतिक विज्ञान में अभूतपूर्व उन्नति की। बगदाद में गणित एवं ज्योतिष के अध्ययन में काफी लगाव था । यूकलिड तथा टोलेमी के ग्रंथों का मामून ने अब्ल हज्जाज इब्न युसुफ इब्न-मातमर द्वारा अरबी में अनुवाद करवाया । विषुवत रेखा, ग्रहण तथा भूगोल एवं खगोलशास्त्र सम्बन्धी महत्वपूर्ण अध्ययन किए गये। अरबी विद्वानों ने इस काल में पृथ्वी की परिधि का अनुमान, लगाया। अबुल हसन ने सर्वप्रथम टेलिस्कोप दूरदर्शन यंत्र का आविष्कार किया। बाद में मरघा तथा काहिरा की वेधशालाओं में दूरदर्शन यंत्रों का निर्माण किया गया। विभिन्न वैज्ञानिक विषयों के अध्ययन को लोकप्रिय बनाने का प्रयास किया गया। चिकित्साशास्त्र के अध्ययन एवं विकास की तरफ विशेष बल दिया गया। मामून के काल में ही शमसिया में इस्लामी साम्राज्य में प्रथम वेधशाला का निर्माण किया गया।
अतः स्पष्ट होता है कि शिक्षा, साहित्य, इतिहास, दर्शन, ज्ञान-विज्ञान आदि क्षेत्रों में मामून का शासनकाल महत्वपूर्ण रहा है।
मूल्यांकन (Evaluation)
समस्त अब्बासी खलीफाओं में मामून सर्वश्रेष्ठ शासन के रूप में सामने आया है। धर्मशास्त्र और चिकित्साशास्त्र का अपने युग का वह प्रकांड पंडित था । ऐसा माना जाता है कि इस काल के महान पंडित भी इन विषयों में उसकी बराबरी नहीं कर सकते थे। खलीफा को कुरान और इस्लामी विधि-शास्त्रों के बारे में काफी जानकारी थी। वह उस युग के महान् धर्माचार्य इमाम अर रिजा का शिष्य था और उसकी देश-रेख में मामून ने दर्शन एवं विज्ञान का महत्वपूर्ण ज्ञान प्राप्त किया था। मानवीय तर्कशास्त्र की शिक्षा उसे वसीम नामक विद्वान ने दी थी। उसने हसन अल-बसरी से अनेक धार्मिक सिद्धांतों का ज्ञान प्राप्त किया था। मामून एक वीर योद्धा, महान् सेनापति और सफल शासक भी था। उसने साम्राज्य के विकास के लिये विभिन्न कल्याणकारी योजनायें चलायीं।
खलीफा यह मानता था कि उसकी प्रजा का वास्तविक विकास शिक्षा और संस्कृति के विकास में ही संभव है। अतः उसने इस्लामी इतिहास में पहली बार दर्शन एवं विज्ञान का इस सीमा तक विकास किया कि लोगों ने उसके शासनकाल को सर्वाधिक गौरवपूर्ण स्वीकार किया। मामून श्रेष्ठ अब्बासी खलीफाओं के बीच की अंतिम महत्वपूर्ण कड़ी था। उसकी मृत्यु के साथ ही अब्बासियों की महानता एवं गौरव ने आसमान की ऊंचाइयों को छूना प्रारंभ किया।
खलीफा मुतासिम (833-842 ई.) (Khalifa Mutasim ( 833-842AD)
खलीफा मुतासिम खलीफा अल मामून का छोटा भाई था जिसको अपनी मृत्यु के पूर्व ही मामून ने अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। इससे पहले वह मिस्र का गवर्नर था। उसने खलीफां बनते ही अल-मुतासिम बिल्लाह की उपाधि धारण की और आगे चलकर वह इसी नाम से जाना गया। मामून के पुत्र अब्बास ने भी अपने चाचा के प्रति स्वामीभक्ति एवं निष्ठा की शपथ ली जिससे वह चरित्रवान खलीफा के रूप में सामने आया।
आंतरिक विद्रोहों का दमन (Oppression of Internal Revolt)
मामून का आंतरिक विद्रोह पर काफी अच्छा नियंत्रण था। लेकिन उसकी मृत्यु के बाद साम्राज्य में विद्रोह की स्थिति पैदा हो गयी। इस प्रकार मुतासिम को भी अन्य खलीफाओं की भाँति अपने शासनकाल के प्रारंभिक वर्षों में अनेक विद्रोहों का दमन करना पड़ा तथा इस्लामी साम्राज्य के परम्परागत शत्रु बैजेन्टाइनों के आक्रमण से साम्राज्य की रक्षा करनी पड़ी। मामून के शासनकाल में बाबेक ने मजेनदरान के दर्रे के आस-पास के पहाड़ी क्षेत्रों में भयंकर अराजकता की स्थिति उत्पन्न कर दी थी। उसने बैजेन्टाइनी शासन से मिलकर अपने प्रभुत्व को काफी प्रभावशाली बना लिया था। मुतासिम के शासनकाल के दौरान उसके समर्थकों ने पुनः लूटपाट करना प्रारंभ कर दिया। खलीफा ने बाबेक तथा उसके समर्थकों का दमन करने के लिए प्रसिद्ध तुर्की सेनापति आफशीन को भेजा जिसने बाबेक को पूरी तरह से हरा दिया। यद्यपि बाबेक तथा उसका भाई भागने में सफल हो गये। आफशीन ने उसके पुत्र तथा अनेक संबंधियों और समर्थकों को पकड़ लिया और उन्हें कैदी बनाकर बगदाद भेज दिया।
इसी बीच आरमेनिया में बाबेक भी अपने भाई के साथ आरमेनियनों के नेता ने उन्हें खलीफा को पास बगदाद भेज दिया। मुतासिम ने विद्रोही नेता आरमोनिया में बाबेक तथा उसके भाई के प्रति कठोर नीति का पालन किया। दोनों भाइयों को हाथी पर चढ़ा कर बगदाद की सड़कों पर घुमाया गया और अन्त में उनकी हत्या कर दी गयी। परन्तु उनके बंदी सगे-सम्बन्धियों के प्रति खलीफा ने उदारता का व्यवहार किया और उन्हें क्षमा प्रदान कर दी। इस तरह से मुतासिम ने बाबेक के विद्रोह को हमेशा के लिये शान्त कर दिया और .इस क्षेत्रों में शांति की स्थापना की।
भारतीय जाटों का दमन (Oppression of Indian Jats)
मुतासिम की ख्याति में वृद्धि उस समय हुई, जब उसके भारतीय जारों की शान्ति को नियंत्रण कर लिया। ऐसा विश्वास किया जाता है कि उसके शासनकाल में भारत से करीब सत्रह हजार जाट यहाँ आकर फरात टिग्रिस नदी के तटों पर बस गये। क्यों, कब और कैसे ये भारतीय जाट यहाँ आकर बस गये, वह आज भी एक पहेली बनी हुई है। विदेशों से आये इन जाटों को जब आजीविका का कोई साधन उपलब्ध नहीं हुआ तो इन लोगों ने लूट-पाट का पेशा अपना लिया जिसके चलते टिग्रिस नदी में अशांति की व्यवस्था फैल गयी जिसका दमन करने के लिये बगदाद से बड़ी सेना भेजी जिससे बड़ी संख्या में स्त्री-पुरुष जाटों को बन्दी बनाकर बगदाद में लाया गया। जाट स्त्रियों के विचित्र परिधानों से बगदाद वासियों ने काफी मनोरंजन किया। बहुत से जाट सिसली की सीमा क्षेत्र में जाकर रहने लगे। बाद में वे बैजेन्टाइनों का शिकार बने। बड़ी संख्या में जाटों की हत्या कर दी गयी। उनमें से कुछ भागकर थ्रेस जा पहुँचे। अनेक जाटों को बलात मुसलमान बना दिया गया । इस तरह से मुतासिम ने जाटों के विद्रोह को पूरी तरह से दबा दिया ।
तुर्की तथा तबरिस्तान की महत्त्वाकांक्षा का दमन (Oppression of Aspiration of Turki and Tabristam)
मुतासिम द्वारा अपने शासन के अन्तिम समय तबरिस्तान के शासक मजिआर तथा तुर्की के सेनापति अफशीन के विद्रोह का दमन करने का प्रमुख कारण था वह पूर्वी राज्यों का गवर्नर बनने का स्वप्न देख रहा था । उन दिनों इस क्षेत्र का अब्बासी गवर्नर अब्दुल्ला था । अफशीन अब्दुल्ला की शक्ति को क्षीण कर देना चाहता था । इसके द्वारा रची उद्देश्य से एक षड्यंत्र रचा गया। उसने मेजियन शासक मजिआर को 839 ई. में विद्रोह करने के लिए प्रोत्साहित किया। इस विद्रोह में सेनापति अफशीन ने अप्रत्यक्ष रूप से मजिआर को भी सहायता प्रदान की लेकिन इसके बाद भी अब्दुल्ला के हाथों मजिआर को पराजित होना पड़ा। उसे कैद कर बगदाद भेज दिया गया। अब्दुल्ला ने खलीफा मुतासिम के समक्ष सेनापति अफशीन के षड्यंत्रों का भंडाफोड़ भी कर दिया तथा मजिआर के नाम सेनापति द्वारा लिखे गये पत्र को प्रस्तुत किया। खलीफा के क्रोध की सीमा नहीं रह गयी। उसने तत्काल मजिआर की हत्या करवा दी और अफशीन को उसके निवास स्थान पर नजरबन्द कर काफी प्रताड़ित किया गया। आखिरी में उसकी मौत हो गई।
बैजेन्टाइनों से साथ संघर्ष (Conflict with Bejantine)
अब्बासी क्षेत्रों को बाबेक तथा बैजेन्टाइनों ने मिलकर अपना निशाना बनाना प्रारंभ कर दिया। वहाँ रहने वाली मुस्लिम जनता की बड़ी निर्दयता के साथ हत्या कर दी गयी । यहाँ तक कि उसके पैतृक गाँव जिबैत्रा को भी पूरी तरह नष्ट करने का प्रयास किया। इन सब घटनाओं की सूचना मिलने पर खलीफा मुतासिम ने गुस्से में आकर तुरन्त कठोरतम प्रतिशोध लेने का
निर्णय लिया और एक शक्तिशाली अब्बासी सेना को बैजेन्टाइनों को कुचल डालने के उद्देश्य से भेजा। बढ़ती हुई अब्बासी सेना ने अंकाइरस से आगे जाकर बैजेन्टाइन की सेना पर बाज की तरह हमला बोल दिया। सम्राट थियोफिलस की सेना की करारी हार हुई और उसके सैनिक भाग खडे हुए। मुतासिम की स्वयं अपनी सेना का नेतृत्व किया और थियोफिलस की जन्मभूमि अमोरियस को जा घेरा। जहाँ पचास दिनों तक संघर्ष हुआ, इसके बाद मुतासिम के सेना ने नगर में घुसकर लगभग वहाँ 30,000 जनता की हत्या कर दी और जो बचे उन्हें कैद करके बगदाद भेज दिया। बैजेन्टाइनों का प्रसिद्ध सेनापति बातीस भी इन कैदियों में शामिल था।
कुछ अन्य आवश्यक प्रशासनिक बदलाव भी खलीफा मुतासिम द्वारा किए गए। उसने एक स्थायी सेना का संगठन किया । इस सेना की विशेषता थी कि इसमें अरबों के स्थान पर तुर्की एवं अन्य विदेशी नस्ल के सैनिकों को अधिक महत्व दिया गया। टर्की के गुलामों, मामलूकों की इस सेना में अत्यधिक प्रधानता थी। इसमें मध्य एशिया, यमन और मिस्र के सैनिक भी शामिल थे। इस प्रकार का सैन्य संग्ठन करके खलीफा ने बहुत बड़ी गलती कर दी थी। आगे आने वाले समय में सैनिकों के बीच जातिवाद, धर्मभीरुता की धारणायें देखने को मिलीं जिसके कारण वे एक-दूसरे से ईर्ष्या करने लगे, जो अब्बासी शासन को पतन के द्वार तक वे गई। 5 जनवरी, 842 ई. को तेज ज्वर के चलते खलीफा मुतासिम की मृत्यु हो गयी तथा इस युग का समापन भी हो गया ।
अब्बासी वंश का पतन (Fall of Abbassi Ancestry)
मध्यकालीन साम्राज्यों का विकास एवं पतन विश्व इतिहास में एक मनोरंजनपूर्ण घटना के समान है। ये कोई चौंकने वाली बात नहीं है, क्योंकि उसके विकास में ही उसके पतन का कारण छिपा होता है। कोई भी साम्राज्य जनसमर्थन के अभाव में केवल शक्ति के बल पर स्थाई रूप से स्थापित नहीं रखा जा सकता है । राजतंत्र में एक प्रमुख कमजोरी यह देखने को मिली है कि प्रमुख निर्णय शासक द्वारा लिए जाने के कारण सफलता व असफलता उसकी योग्यता पर निर्भर रहती है। परन्तु, यह जरूरी नहीं है कि योग्य शासक का पुत्र अथवा उत्तराधिकारी भी योग्य ही होगा, अतः इस काल में विश्व में साम्राज्यों के उत्थान – पतन होते रहे। अब्बासी राजवंश की कहानी भी इससे कुछ समानता रखती है।
अपने शासनकाल में अब्बासी वंश के प्रारंभिक शासकों ने वीरता तथा श्रेष्ठाता के बल पर ही साम्राज्य के विकास में विशेष भूमिका निभायी। मंसूर, हारून तथा मामून जैसे योग्य अब्बासी खलीफाओं के शासनकाल में अब्बासी साम्राज्य फलता-फूलता रहा। परन्तु उनके उत्तराधिकारियों में चारित्रिक दृढ़ता, योग्यता, महत्त्वाकांक्षा और शक्ति की कमी थी जिसके कारण अब्बासी साम्राज्य पतन के मार्ग पर अग्रसर हो गया और पूर्व तथा पश्चिम के अनेक नये-नये तथा छोटे राजवंशों की स्थापना होती चली गई। अब्बासी खलीफा का महत्त्व घटता चला गया और साम्राज्य सिकुड़ कर छोटा होता गया जिससे धीर-धीरे उसका पतन होता गया।
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