मूल्यांकन कार्यक्रम की विशेषताओं का वर्णन करें ।

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प्रश्न – मूल्यांकन कार्यक्रम की विशेषताओं का वर्णन करें ।  
उत्तर – मूल्यांकन कार्य में मापन एवं परीक्षण सम्मिलित होता है। अतः एक अच्छे मूल्यांकन कार्यक्रम की विशेषताओं में मापन एवं परीक्षण की विशेषताएँ अन्तर्निहित होनी चाहिए | इस प्रकार मूल्यांकन कार्यक्रम की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं –
(i) क्रमबद्धता (Orderliness)
(ii) वस्तुनिष्ठता (Objectivity)
(iii) विश्वसनीयता (Reliability)
(iv) वैधता (Validity)
(v) व्यावहारिकता (Usability)
(vi) व्यापकता. (Broadness)
(vii) शिक्षार्थो की सहभागिता (Participation of Learner) ।
  1. क्रमबद्धता (Orderliness ) – यदि किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए किये जा रहे प्रयासों या कार्य के एक सोपान (निश्चित पद) के पश्चात् उसकी जाँच या परीक्षण कर लिया जाये तो प्राप्त निष्कर्षों का उपयोग उद्देश्यों में सुधार लाने तथा आगामी सोपान या पद के निर्णय लेने के लिए किया जा सकता है । इससे सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि किये जा रहे कार्य की प्रत्येक स्तर पर पुष्टि होती रहती है । अतः प्रत्येक सोपान के बाद मूल्यांकन अथवा जाँच का कार्य अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति तक क्रमबद्ध ढंग से चलता रहना चाहिए । इस प्रकार मूल्यांकन कार्यक्रम में क्रमिकता या क्रमबद्ध का विशेष महत्त्व है ।
    मूल्यांकन में क्रमिकता न होने पर शिक्षार्थी या कार्यकर्ता को अपनी प्रगति के बारे में अन्त तक कोई सूचना नहीं मिल पाती है । अतः इसके अभाव में शिक्षार्थी में कार्य के प्रति त्रुटि अभिवृत्ति विकसित हो सकती है वह त्रुटिपूर्ण कार्य – विधि अपना सकता है तथा गलत निष्कर्ष निकाल सकता है।
    मूल्यांकन कार्य के क्रम में निश्चितता का होना भी आवश्यक है। जिस प्रकार पाठ्यक्रम के उद्देश्यों में पूर्व सम्बन्ध होता है तथा जिस प्रकार उन्हें महत्त्व के क्रम में व्यवस्थित किया जाता है, उसी प्रकार का क्रम उनकी जाँच में भी रहना चाहिए । उदाहरणार्थ, यदि संकल्पनाओं को तथ्यों से अधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है, तो मूल्यांकन कार्य में भी महत्त्व के उसी क्रम को बनाये रखना चाहिए ।
  2. वस्तुनिष्ठता (Objectivity) – एक उत्तम परीक्षा का वस्तुनिष्ठ होना अति आवश्यक है। वस्तुनिष्ठ का अर्थ यह है कि मूल्यांकन में व्यक्तिगत पक्षों का प्रभाव नहीं होना चाहिए । स्पष्ट है कि ज्ञानात्मक क्षेत्र में मूल्यांकन में वस्तुनिष्ठता भावात्मक क्षेत्र की तुलना में अधिक होगी । ज्ञानात्मक क्षेत्र में यह उच्च स्तर की अपेक्षा निम्न स्तर पर अधिक वस्तुनिष्ठ होगा
    इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि जटिल अधिगम – प्रक्रिया के मापन के लिए जब तक संतोषजनक परिभाषाएँ विकसित नहीं हो पाती तब तक पर्याप्त सीमा तक हमें विशेषज्ञों द्वारा किये गये मूल्यांकन पर ही निर्भर रहना होगा । यहाँ पर यह बात भी महत्त्वपूर्ण है कि आत्मनिष्ठता (Subjectivity) और वस्तुनिष्ठता में परस्पर उतना विरोध नहीं है जितना प्राय: समझा जाता है | ये दोनों वास्तव में एक ही सीढ़ी के दो पद (Steps ) हैं । अतः लक्ष्य यह होना चाहिए कि मूल्यांकन के उपकरणों को यथासम्भव अधिक-से-अधिक वस्तुनिष्ठ बनाया जाये । इसके साथ ही इस बात पर भी ध्यान रखने की आवश्यकता होती है कि किसी मूल्यांकन कार्य को उससे अधिक वस्तुनिष्ठ न मान लिया जाये जितना कि वह वास्तव में है।
  3. विश्वसनीयता (Reliability) – एक अच्छा मूल्यांकन विश्वसनीय भी होना चाहिए । इसका तात्पर्य यह है कि बार-बार तथा अनेक लोगों द्वारा मूल्यांकन किये जाने पर भी उसके निष्कर्षों में कोई विशेष अंतर नहीं आये । अतः स्पष्ट है कि विश्वसनीयता के लिए वस्तुनिष्ठता एक पूर्व आवयश्कता है । इसीलिए निबन्धात्मक परीक्षा की अपेक्षा वस्तुनिष्ठ परीक्षा अधिक विश्वसनीय होती है ।
  4. वैधता (Validity) – एक उत्तम परीक्षण का वैध होना भी आवश्यक है । वैधता से तात्पर्य परीक्षण की सार्थकता से है अर्थात् परीक्षण जिस मापन के लिए बनाया गया है, उसे उसका ही मापन करना चाहिए । इसीलिए कोई मूल्यांकन प्रक्रिया तभी वैध कहलाती है जब वह उसी गुण, पक्ष, विशेषता आदि का मापन करती है जिसका मापन करना अभीष्ट होता है | अत: पाठ्यक्रम के मूल्यांकन में उन्हीं पक्षों पर ध्यान केन्द्रित होना चाहिए जिन पक्षों पर वह पाठ्यक्रम आधारित है।
  5. व्यावहारिता (Usability) – एक अच्छी परीक्षा की प्रमुख विशेषता यह होती है कि उसका प्रयोग, अंकन एवं प्राप्त प्रदत्तों का अर्थापन (Interpretation) करना सरल होता है । किसी भी परीक्षण की रचना शिक्षार्थियों की अधिगम उपलब्धियों के मूल्यांकन के लिए की जाती है। अतः परीक्षण का व्यावहारिक होना अति आवश्यक होता है । इसलिए मूल्यांकन कार्यक्रम इस प्रकार निर्धारित किया जाना चाहिए जो व्यावहारिक भी हो ।
  6. व्यापकता (Broadness) किसी मूल्यांकन कार्यक्रम में सभी पक्षों एवं सभी शैक्षिक उद्देश्यों की जाँच की जानी चाहिए । कुछ क्षेत्रों में जाँच कार्य कठिन अवश्य होता है, किन्तु इसके लिए भी कोई न कोई उपाय निकालने का प्रयास करना चाहिए । परीक्षण-उपकरणों के रूप में मानकीकृत (Standard) परीक्षाओं के अतिरिक्त शिक्षक निर्मित परीक्षाओं, विधिवत् पर्यवेक्षण, अभिलेख, स्तरमापी, प्रश्नावली, समाजमिति आदि अनेक विधियों-प्रविधियों को भी मूल्यांकन हेतु काम में लाया जा सकता है । इस प्रकार शिक्षार्थियों के व्यवहार में ज्ञानात्मक, भावात्मक तथा क्रियात्मक सभी क्षेत्रों में हुए परिवर्तनों की जाँच करके मूल्यांकन को व्यापक रूप प्रदान किया जाना चाहिए । पाठ्यक्रम के मूल्यांकन में तो व्यापकता का होना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है ।
  7. शिक्षार्थी की सहभागिता (Participation of Learners) – परम्परागत दृष्टि में शिक्षार्थी का मूल्यांकन प्रक्रिया में कोई स्थान नहीं होता है । इसके अनुसार छात्र ज्ञान प्राप्त करते हैं तथा शिक्षक, प्रधानाध्यापक एवं विशेष रूप से नियुक्त परीक्षक, उनके कार्यों का मूल्यांकन करते हैं । इस प्रकार शिक्षार्थी और परीक्षक दो पृथक् वर्गों में विभक्त होते आये हैं, किन्तु शिक्षार्थी मूल्यांकन प्रक्रिया में भाग लेते हैं । वास्तविकता तो यह है कि प्रत्येक छात्र स्वयं तथा अपने साथियों के व्यवहार में होने वाले परिवर्तनों का निरंतर मापन एवं मूल्यांकन करता रहता है ।नवीन दृष्टिकोण के विकास के परिणामस्वरूप अब यह अनुभव किया जाने लगा है कि शिक्षकों तथा अन्य बाह्य-परीक्षकों द्वारा किये जाने वाले मूल्यांकन की अपनी सीमाएँ हैं। चूँकि अधिगम एक क्रियाशील प्रक्रिया है, अतः इसमें परिणाम के साथ-साथ अधिगम- अनुभवों का भी अपना विशेष महत्त्व है । इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि परिणामों के साथ-साथ अधिगम-अनुभवों का भी मूल्यांकन किया जाता रहे । मूल्यांकन को पूर्ण रूप से शिक्षकों एवं बाह्य परीक्षकों को सौंप देने पर अधिगम- अनुभवों की उपेक्षा होने की अधिक सम्भावना रहती है | इससे मूल्यांकन कार्य अपूर्ण रह जाता है तथा अधिगम-प्रक्रिया को आवश्यक पृष्ठ-पोषण (Feed-back) नहीं मिल पाता । विद्यालयों का एक प्रमुख कार्य बालकों को अधिगम- प्रक्रिया से परिचित कराना तथा उनमें समस्याओं का समाधान करने की प्रभावी विधियाँ अपनाने की प्रवृत्ति भी विकसित करना है। यदि विद्यार्थी अपने कार्य का स्वयं मूल्यांकन करते चलें तो विद्यालयों का यह कार्य अधिक सफलता के साथ सम्पन्न हो सकता है। दूसरों द्वारा मूल्यांकन किये जाने पर शिक्षार्थी अपने अधिगम कार्य को व्यवस्थित करना सीख नहीं पाते हैं ।

    मनोवैज्ञानिक एवं शैक्षिक अनुसंधान के अन्तर्गत अधिगम के क्षेत्र में किये गये शोध कार्यों से यह निष्कर्ष निकलता है कि परिणाम की तुरंत जानकारी तथा उसकी पुष्टि प्रभावी पुनर्बलन प्रदान करता है तथा इससे अधिगम-प्रक्रिया पूर्ण सफलता के साथ चलती है । इसके लिए मूल्यांकन कार्य में निरंतरता बनाये रखना आवश्यक है तथा शिक्षार्थी ही इस कार्य को सुविधा प्रदान कर सकता है । मूल्यांकन कार्य को बाह्य परीक्षकों के हाथों में छोड़ देने पर निरंतरता निश्चित नहीं की जा सकती है । लक्ष्यों की प्राप्ति की दृष्टि से, शिक्षक का ध्यान दूरगामी लक्ष्यों पर ही केन्द्रित रहता है, जबकि शिक्षार्थी की दृष्टि तात्कालिक लक्ष्यों पर अधिक होती है । अतः मूल्यांकन की निरन्तरता से प्राप्त पुनर्बलन अधिगम-प्रक्रिया में अधिक प्रभावी भूमिका निभाता है । इसलिए मूल्यांकन कार्य में छात्रों की सहभागिता को विशेष महत्त्व दिया जाना चाहिए ।

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