राजनीतिक इतिहास में रूसों के योगदान का वर्णन करें ।

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प्रश्न – राजनीतिक इतिहास में रूसों के योगदान का वर्णन करें ।

उत्तर – राजनीतिक विचारों के इतिहास में रूसों का नाम अमर है । वह आम आदमी का भावुक दार्शनिक था; उसे क्रान्ति का अग्रदूत तथा प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र का आवारा मसीहा कहा जाता है । डनिंग के शब्दों में, “रूसों का दर्शन निश्चयमूलक (Conclusive) की अपेक्षा व्यंजनात्मक (Speculative) अधिक है, परन्तु रूसों की कल्पनाओं व मिथ्या उक्तियों ने जनता को जितना अधिक प्रभावित किया उतना माण्टेस्क्यू की सन्तुलित तर्कना तथा गम्भीर पर्यवेक्षण तक ने नहीं।” जी. डी. एच. कोल ने रूसों का राजदर्शन का पिता कहा है। उसके अनुसार ‘सोशल कान्ट्रेक्ट राजदर्शन की दृष्टि से महानतम् ग्रन्थ है ।’ “यह कहना भूल कि राजनीतिक विचारों पर रूसों का प्रभाव मृतप्राय है, उसके विपरीत वह बढ़ता जा रहा है ।” राजनीतिक दर्शन को रूसों का योगदान इस प्रकार है –

  1. सामान्य इच्छा का सिद्धान्त-रूसों के राजदर्शन का सबसे महत्वपूर्ण योगदान है उसके सामान्य इच्छा सम्बन्धी विचार । सामान्य इच्छा सिद्धान्तं ने राजनीतिक जीवन में ‘समुदाय’ के महत्व की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट किया। डनिंग के अनुसार- “इन्हीं विचारों के द्वारा रूसो ने राष्ट्र-राज्य सम्बन्धी विचारों को बल दिया।”
  2. लोकप्रिय सम्प्रभुता की धारणा – सामान्य इच्छा के सिद्धान्त से भी अधिक महत्वपूर्ण देन रूसों की ‘लोकप्रिय सम्प्रभुता’ की धारणा है। रूसो ने बताया कि राजनीतिक संस्था का स्वरूप कुछ भी हो उसमें जनता की सम्प्रभुता एक तथ्य है। उसने कहा प्रभुसत्ता जनता की सामान्य इच्छा में निहित है, सरकार सर्वोच्च सत्ता रखने वाली जनता की सेवक मात्र है । जनवाणी देव वाणी है शासन का आधार जनता की सहमति है ।
  3. राष्ट्रवाद का उद्घोषक – रूसों यद्यपि राष्ट्रवाद का समर्थक नहीं था, किन्तु समूह की एकता और दृढ़ता की भावनाओं पर बल देकर उसने राष्ट्रभक्ति को एक आदर्श रूप दिया । रूसों ने सामान्य इच्छा के अपने सिद्धान्त द्वारा राष्ट्रवाद के नैतिक पक्ष को पुष्ट किया । रूसों की सामान्य इच्छा को राष्ट्र की आत्मा के रूप में मानकर हीगल ने एक ऐसे आदर्शवाद का प्रतिपादन किया जो उग्र राष्ट्रवाद में परिणत हुआ ।

संक्षेप में, रूसों स्वतन्त्रता तथा समानता का पुजारी था, मगर व्यक्ति को राज्य के खिलाफ अधिकार न दे सका । वह सामान्य हित तथा सामान्य इच्छा का असाधारण दार्शनिक था । उसने लौकिक प्रभुत्व का सिद्धान्त दिया, सामान्य हित को व्यक्तिगत हिम में महत्वपूर्ण बताया, प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र का समर्थन किया, जनता द्वारा कानून बनाने और राजनीति में हिस्सा लेने को उचित ठहराया, राज्य का हित सामान्य हित, राज्य का आधार सामान्य इच्छा बताया और यही उसके प्रगतिशील विचार थे । सम्पत्ति के बुरे प्रभाव को रूसो ने अच्छी तरह देखा, समाज को गरीब-अमीर में बंटे देखा, मनुष्य के शोषण को बुरा ठहराया, मगर वह वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अभाव में 18वीं शताब्दी के उभरते हुए पूंजीवादी युग में वर्गसंघर्ष न देख सकता और एक प्रकार वह समाज में एकता का थोथा आधार दे चला ।

रूसो के प्रभाव की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसके दर्शन में आधुनिक काल की सभी प्रमुख विचारधाराओं–समाजवाद, अधिनायकवाद तथा व्यक्तिवाद के बीज मिलते हैं । बार्कर ने उसे व्यक्विाद का प्राण माना है । जर्मन और ब्रिटिश आदर्शवाद का तो वह अग्रदूत ही है । फ्रांस की राज्य क्रान्ति का सेहरा भी रूसों के क्रान्तिकारी विचारों को हैं । फ्रेंच क्रान्तिकारियों के बारे में बर्क ने लिखा है, “रूसों ही उनकी बाईबिल है, उसे ही वे पढ़ते हैं, मनन करते हैं ।” अमरीकन तथा अन्य संविधानों में आरम्भ के शब्द “हम ‘(We the People) रूसो की आवाज है । कोल ने ठीक ही लिखा है कि “रूसो की रचना ‘सोशल कन्ट्रेक्ट’ राजनीतिशास्त्र की एक सर्वोत्तम पाठ्य पुस्तक है ।” लैन्सन के इस कथन में कोई अतिशयोक्ति नहीं कि आधुनिक युग को लाने वाले समस्त मार्गों पर हम उसे खड़ा हुआ पाते हैं । ”

रूसो का उद्देश्य सत्ता और स्वतंत्रता का तालमेल स्थापित करना था । व्यावहारिकता में वह सत्ता की गोद में स्वतन्त्रता को बिलखता छोड़ गया । रूसो के बाद आने वाले तानाशाहों ने रूसो का दुरुपयोग किया, जिन्होंने जनता के हित की दुहाई देते हुए, अनुशासन, शान्तिव्यवस्था आदि के नाम पर अपनी इच्छा को सामान्य इच्छा बताते हुए नागरिकों के अधिकारों को समेट कर अपनी शक्ति की भूख मिटाई ।

रूसो के राजदर्शन में व्यक्तिवाद, निरंकुशतावाद, समाजवाद और लोकतन्त्र (Elements of Individualism, Absolutism, Socialism and Democracy in Rousseau’s Political Philosophy) – रूसो के राजदर्शन में समाजवाद, निरंकुशतावाद और लोकतन्त्र की विचारधाराओं का अपूर्व सम्मिश्रण मिलता है, जो इस प्रकार है-

रूसो के दर्शन में व्यक्तिवाद – रूसो के दर्शन में व्यक्तिवाद के बीज दिखलायी देते हैं । वेपर के अनुसार, वह अति व्यक्तिवादी है, समस्त व्यक्तिवादियों में आधुनिक और महानतम् व्यक्तिवादी है ।’ उसने स्वतन्त्रता और समानता को मनुष्य का स्वाभाविक सद्गुण माना और उसके सिद्धान्त में व्यक्ति की स्वतन्त्रता लॉक से भी अधिक महत्वपूर्ण है ।

रूसो के राजदर्शन में निरंकुशतावाद – रूसो के दर्शन में निरंकुशतावाद के तत्व भी मौजूद हैं। रूसो के अनुसार सम्प्रभुता सामान्य इच्छा की कार्यान्विति है । सामान्य इच्छा को सम्प्रभु मानने का आधार सामाजिक समझौता है। सामान्य इच्छा पर दैवी और प्राकृतिक नियमों का प्रतिबन्ध नहीं होता । यही कानून का निर्माण करती है, धर्म का निरूपण करती है, नैतिक और सामाजिक जीवन को संचालित करती है । इसकी कोई अवहेलना नहीं कर सकता । जो इसकी अवज्ञा करता है, उसे इसका पालन करने के लिए बाध्य किया जा सकता है । रूसो की सामान्य इच्छा उन सभी लक्षणों- सर्वोच्चता, अखण्डता, निरंकुशता आदि से पूर्ण है जो निरंकुशता के आधार समझे जाते हैं और इसी आधार पर डाइड ने लिखा है कि ‘रूसो सामान्य इच्छा की आड़ में बहुमत की निरंकुशता का प्रतिपादन तथा समर्थन करता है।’

रूसो के सामाजिक समझौते में निरंकुशतावाद का एक प्रमुख तत्व यह है कि समझौते में व्यक्ति अपनी समस्त शक्तियों का समर्पण कर देता है और समझौते के परिणामस्वरूप उत्पन्न सामान्य इच्छा पूर्ण तथा निरंकुश है |

रूसो के समझौते सिद्धान्त के आधार पर जिस राजनीतिक समाज की रचना होती है वह पृथक् व्यक्तियों का समूह मात्र है जिसका उद्देश्य उन व्यक्तियों के हितों का साधन करना मात्र हो, अपितु समाज एक सावयद है और व्यक्ति उसके अभिन्न अंग हैं । सामान्य इच्छा इस सावयव को विशिष्ट व्यक्तित्व प्रदान करती है और समाज रूपी इस सावयव को अपने अंगों (व्यक्तियों) पर निरंकुश राज्य का समर्थन करने की प्रेरणा रूसो से मिली । रसेल के अनुसार रोबोस्पियर का आतंत राज्य और बोल्शेविक रूस तथा नाजी जर्मनी के अधिनायकवाद भी रूसो की शिक्षाओं का परिणाम है ।

रूसो लोकातन्त्र का अग्रदूत-रूसो को लोकतन्त्र का पुजारी कहा जाता है । उसने ‘जनता की प्रभुसत्ता’ के विचार को फ्रेन्च राज्य क्रान्ति के माध्यम से आधुनिक काल का सबसे प्रभावशाली विचार बनाया । उसके मतानुसार सर्वोच्च शक्ति जनता में निहित रहती है, सामान्य इच्छा. जनता की इच्छा की अभिव्यक्ति है और यह इच्छा सदैव जनता के सामान्य हित के पोषण और वृद्धि के लिए प्रत्यत्नशील रहती है । रूसो प्रत्यक्ष लोकतन्त्र का समर्थक है । रूसो के सामाजिक अनुबन्ध से व्यक्तियों को स्वतन्त्रता और समानता के वे महत्वपूर्ण अधिकार प्राप्त होते हैं जो लोकतन्त्र का आवश्यक तत्व समझे जाते हैं। उसकी स्वतन्त्रता पर लगाए गए कानूनी बन्धन वस्तुतः बन्धन नहीं हैं क्योंकि कानून सामान्य इच्छा द्वारा बनाया जाता है और सामान्य इच्छा में उसकी अपनी इच्छा सम्मिलित होती है, अतः यदि उसकी स्वतन्त्रता पर कोई प्रतिबन्ध लगा दिए जाते तो वे उसकी अपनी इच्छा से प्रादुर्भूत होने के कारण प्रतिबन्ध नहीं रहते है और उसकी स्वतन्त्रता में बाधा नहीं बनते हैं। रूसो की व्यवस्था में व्यक्तियों को समानता का अधिकार भी प्राप्त होता है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति अन्य व्यक्तियों के समान सर्वोच्च अधिकार और कर्तव्य रखता है । लोकतन्त्र का एक महत्वपूर्ण तत्व शासन के कार्य में जनता की सहमति और सहयोग तथा भागीदारी है। रूसो सामान्य इच्छा के सिद्धान्त द्वारा शासन में जनता के सहयोग और भागीदारी पर बहुत बल देता है । इस तरह वह लोकतन्त्र के सभी आधारभूत तत्वों और मौलिक विचारों का प्रबल पोषक है।

रूसो के दर्शन में समाजवाद – रूसो के विचारों में समाजवाद के कई तत्व दिखलायी देते हैं । समाजवाद व्यक्ति की अपेक्षा समाज को अधिक महत्व देता है। रूसो की सामान्य इच्छा भी व्यक्ति के हित की अपेक्षा समाज के हित को अधिक महत्व देती है । रूसो ने समानता पर काफी जोर दिया । उसकी यह दृढ़ मान्यता है कि समानता के अभाव में स्वतन्त्रता नहीं टिक सकती । वह आर्थिक विषमता को समाप्त करना चाहता है। उसने निजी सम्पत्ति पर प्रबल प्रहार किए हैं। उसके अनुसार राज्य को विलासिता सम्बन्धी वस्तुओं पर भारी कर लगाना चाहिए । समस्त भौतिक सम्पत्ति का स्वामी राज्य है । रूसो ने वस्तुतः समाज में आर्थिक विषमता को ही सभी बुराइयों की जड़ माना है ।

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