राष्ट्रवाद को परिभाषित कीजिए। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसे किस प्रकार परिभाषित किया?

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प्रश्न – राष्ट्रवाद को परिभाषित कीजिए। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसे किस प्रकार परिभाषित किया?
उत्तर : राष्ट्रवाद एक जटिल, बहुआयामी अवधारणा है, जिसमें अपने राष्ट्र से एक साझी सांस्कृतिक पहचान समावेशित है। राष्ट्रवाद एक ऐसी अवधारणा है, जिसमें राष्ट्र सर्वोपरि होता है अर्थात् राष्ट्र को सबसे अधिक प्राथमिकता दी जाती है। यह एक ऐसी विचारधारा है जो किसी भी देश के नागरिकों के साझा पहचान को बढ़ावा देती है। किसी भी राष्ट्र की उन्नति एवं संपन्नता के लिए नागरिकों में सांस्कृतिक, धार्मिक और भाषाई विविधता से ऊपर उठकर राष्ट्र के प्रति गौरव की भावना को मजबूती प्रदान करना आवश्यक है और इसमें राष्ट्रवाद एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। भारत समेत ऐसे कई देश है: जो सांस्कृतिक, धार्मिक और भाषाई विविधता से सम्पन्न हैं और इन देशों में राष्ट्रवाद की भावना जनता के बीच आम सहमति बनाने में मदद करती है। देश के विकास के लिए प्रत्येक नागरिक को एकजुट होकर कार्य करना पड़ता है और उन्हें एक सूत्र में पिरोने का कार्य राष्ट्रवाद की भावना ही करती है। 19वीं शताब्दी में प्रथम विश्व युद्ध के बाद यूरोप की तरह भारत में भी राष्ट्रवाद की भावना तेजी से प्रसारित हुई।

राष्ट्रवाद के प्रति रवीन्द्र नाथ टैगोर का मत :

  • रवीन्द्रनाथ टैगोर राष्ट्रवादी संकल्पना को संकीर्णता के बजाय व्यापकता में देखते थे। उन्होंने राष्ट्रीय गीत की रचना की। उन्होंने तीन देशों, भारत, बांग्लादेश और श्रीलंका के राष्ट्रीय गीतों की रचना की। बंगाल विभाजन का बांटो और राजकरो की नीति का उन्होंने तीव्र विरोध किया। स्वदेशी पर बल देते हुए उन्होंने राष्टप्रेम पर कविताएं लिखीं।रवीन्द्रनाथ टैगोर ने एक ऐसे समाज की संकल्पना की जिसमें राजनीतिक समानता के साथ-साथ आर्थिक समानताएं भी मौजूद हों। उन्होनें निर्धनता को राष्ट्र की व्यापक समस्या के रूप में परिभाषित किया। उनके अनुसार समाज में आर्थिक एवं सामाजिक रूप से पिछड़े हुए वर्ग को बिना साथ लिए न कोई समाज और न कोई देश तरक्की कर सकता है। उन्होंने सहयोग के आधार पर राष्ट्र की निर्धनता दूर करने की संकल्पना प्रस्तुत की। उनके अनुसार सामाजिक समानता पर आधारित लोकतांत्रिक राष्ट्र का गठन परमावश्यक है।

    रवीन्द्रनाथ टैगोर ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की संकल्पना भी प्रस्तुत थी। उसके अनुसार किसी भी राष्ट्र की स्वतंत्रता न केवल राजनीतिक स्तर पर होनी चाहिए बल्कि सांस्कृतिक स्तर पर भी होना अनिवार्य है। उनके अनुसार किसी भी राष्ट्र के विकास के लिए आवश्यक है कि वह राष्ट्र शिक्षित हो। उन्होंने इसका प्रारूप भी प्रस्तुत किया। उनके द्वारा स्थापित की गई शांति निकेतन और विश्वभारती संस्थाएं शिक्षा की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दे रही हैं। शिक्षा के साथ-साथ महिलाओं के सम्मान की भी बात की। क्योंकि किसी भी आदर्श राष्ट्र की संकल्पना बिना महिलाओं के सुसंस्कृत, शिक्षित एवं आत्म निर्भर हुए पूरी नहीं होती है ।

    रवीन्द्रनाथ टैगोर ने राष्ट्रवाद को संकीर्णता के दायरे में न देखकर उसे विस्तृत दायरे में देखा। उन्होंने विश्व बंधुत्व पर बल देते हुए अंतर्राष्ट्रीयवाद के विस्तार की बात की। संभवतः इसी कारण उन्होंने गांधी जी के बहिष्कार आंदोलन की आलोचना की।

    रवीन्द्रनाथ टैगोर मानवता को राष्ट्रवाद से ऊपर रखते थे। उन्होंने कहा था, जब तक मैं जिंदा हूं, मानवता के ऊपर देश भक्ति की जीत नहीं होने दूंगा। उन्होंने तात्कालीन औपनिवेशिकवादी नीतियों का विरोध किया। हर विषय में टैगोर का दृष्टिकोण परंपरावादी कम और तर्कसंगत ज्यादा हुआ करता था, जिसका संबंध विश्व कल्याण से होता था।

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