राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संघर्ष एवं झारखण्ड
राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संघर्ष एवं झारखण्ड
‘राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संघर्ष एवं झारखण्ड’ शीर्षक के अन्तर्गत झारखण्ड में कांगेस की स्थापना के बाद से आन्दोलन की शिथिलता की चर्चा की गयी है. झारखण्ड में राष्ट्रीय आन्दोलन में मुख्य भागीदारी उराँवों एवं उनके ताना भगतों की रही. जो महात्मा गांधी के सादगी एवं अहिंसात्मक विचारों से ज्यादा प्रभावित थे. इस अध्याय में ताना भगत आन्दोलन का राष्ट्रीय आन्दोलन से घुल-मिलना एवं इस जनजातीय धार्मिक एवं राजनीतिक आन्दोलन पर गांधीवादी विचारधारा के प्रभावों की विशेष तौर पर चर्चा की गयी है.
> राष्ट्रीय आन्दोलन में ताना भगतों के अलावा हजारीबाग के वीर सपूत राम नारायण सिंह ने 1942 के पूर्व आन्दोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया.
> राम नारायण सिंह ने 1940 के रामगढ़ कांग्रेस सम्मेलन के सफल आयोजन में बढ़-चढ़कर भाग लिया.
> डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, राम नारायण सिंह को इसी समय ‘छोटा नागपुर केसरी’ की उपाधि दी थी.
> राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संघर्ष एवं झारखण्ड
कांग्रेस की स्थापना (28 दिसम्बर, 1885) से राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संघर्ष को एक मंच मिला. इस मंच से समय-समय पर विदेशी शासन के खिलाफ अनेक आन्दोलनों की घोषणा की गई, जिसमें 1905 का स्वदेशी आन्दोलन को व्यापक तौर पर जनसमर्थन मिला, किन्तु राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संघर्ष का जनान्दोलन महात्मा गांधी के राष्ट्रीय आन्दोलन में प्रवेश करने से बना. झारखण्ड भी मुख्यतौर पर गांधीजी के नेतृत्व में ही 20वीं सदी के राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड़ा है. गांधीजी द्वारा 1920 में शुरू किया गया असहयोग आन्दोलन का प्रभाव झारखण्ड पर विशेष रूप से पड़ा.
> ताना भगत आन्दोलन
इस आन्दोलन में ताना भगतों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. ताना भगत का एक आन्दोलन था जो उराँवों के मध्य 1914 में शुरू हुआ था. जतरा उराँव द्वारा शुरू किया गया ये आन्दोलन व्यापक रूप ले चुका था और यह आन्दोलन राष्ट्रीय आन्दोलन का सहगामी रहा. प्रारम्भ में जतरा ताना भगत द्वारा अंग्रेजों एवं जमींदारों के शोषण के विरुद्ध तथा धार्मिक सुधार हेतु ये आन्दोलन चलाया गया, जो बाद में राष्ट्रीय आन्दोलन का एक हिस्सा बन गया. 1916 में जतरा ताना भगत का निधन हो गया, जिसके बाद इस आन्दोलन को उनकी पत्नी खेमनी उर्फ बंधनी ने न केवल जारी रखा वरन् इस आन्दोलन का विस्तार किया एवं इसे मजबूती प्रदान की.
ताना भगत आन्दोलन गांधीजी के स्वदेशी आन्दोलन से प्रभावित हुआ, क्योंकि ये भी गांधीजी की तरह सादगी, सत्य एवं अहिंसा में विश्वास रखते थे. गांधीजी द्वारा छेड़े गये असहयोग आन्दोलन में इन्होंने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. गांधीजी के आह्वान पर उन्होंने खादी वस्त्र पहनने एवं मदिरा त्याग करने का संकल्प लिया. ये स्वशासन की माँग से ज्यादा प्रभावित थे. ताना भगत इस आन्दोलन के बाद कांग्रेस द्वारा शुरू किए गए प्रत्येक राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लिया.
1921 के अहमदाबाद कांग्रेस सम्मेलन में ताना भगतों ने बड़ी संख्या में भाग लिया. कांग्रेस ने इस सम्मेलन में गांधीजी को सविनय अवज्ञा आन्दोलन सम्बन्धी नीति तय करने का पूरा अधिकार दिया. 1923 के नागपुर सत्याग्रह में भी इन्होंने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. सविनय अवज्ञा आन्दोलन के दौरान भी ये ताना भगतों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. ताना भगत राष्ट्रीय आन्दोलन से इतने घुल-मिल गये थे कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के 53 वर्षों के बाद भी ये तिरंगा झंडा की प्रत्येक सप्ताह सामूहिक पूजा करते हैं. 1940 में सम्पन्न रामगढ़ के राष्ट्रीय कांग्रेस सम्मेलन में ताना भगतों द्वारा गांधीजी को ₹400 की एक थैली भी प्रदान की गयी. भारत छोड़ो आन्दोलन में इन ताना भगतों ने गांधी को पूर्ण सहयोग दिया. मांडर के निकट बेडो थाना परिसर में इन्होंने तिरंगा फहराने का प्रयास किया, किन्तु वहाँ पहले से एवं भारत माता कीएजयघोष से वातावरण गुंजायमान होता रहा, मौजूद पुलिस ने इन पर जमकर लाठी प्रहार किया, किन्तु ये डटे रहे जिससे क्षुब्ध होकर अंग्रेज पुलिस ने भीड़ पर जीप चढ़ा दी, जिसमें एक गुमनाम व्यक्ति शहीद भी हुआ. कुछ घायल हुए. इतने में भी ये (ताना भगत) नहीं माने. अंग्रेजों की खिलाफत करते रहे जिससे क्षुब्ध होकर जमीनों को नीलाम करने लगे, किन्तु धुन के पक्के एवं स्वतन्त्रता के पुजारी ताना भगत अपने संघर्ष पथ से विचलित नहीं हुए.
भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के (1942 में) अनेक झारखण्डवासियों ने भाग लिया, जिसमें रामनारायण सिंह का नाम उल्लेखनीय है. हजारीबाग के तेतरीया गाँव में जन्मे रामनारायण सिंह अस्टिटेन्ट सेटलमेंट ऑफीसर के पद से इस्तीफा देकर 1921 में असहयोग आन्दोलन में कूद पड़े. 1927 में ये सेन्ट्रल लेजिस्लटिव एसेम्बली के लिए चुने गये. कांग्रेस एवं गांधीजी द्वारा संचालित अन्य आन्दोलन में भी इन्होंने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. भारत छोड़ो आन्दोलन के पूर्व ही इनकी राष्ट्रीय पहचान बन गयी थी. 1940 में रामगढ़ में कांग्रेस सम्मेलन आयोजित करवाने एवं उसकी सफलता में इनका योगदान सराहनीय रहा. इसकी चर्चा डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने अपनी आत्मकथा
में भी की है. डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने इन्हें इसी समय ‘छोटा नागपुर केसरी’ की भी उपाधि दी थी. भारत छोड़ो आन्दोलन में इन्होंने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. 8 अगस्त, 1944 को सत्याग्रह करने के कारण नजरबन्द कर दिया गया. 1946 में संविधान सभा के 36वें सदस्य के रूप में चुने गये बाद में ये सांसद भी बने.
1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन का प्रभाव झारखण्ड के अन्य क्षेत्रों पर भी पड़ा. 25 अगस्त, 1942 को श्री पी. सी. पटनायक तथा श्रीकृष्ण प्रसाद के नेतृत्व में खेरवार आन्दोलनकारियों ने आलूवेडा
तथा डुमर चीर स्थित डाक बंगला तथा फॉरेस्ट गार्ड के निवास को जला दिया गया. लाल हेम्ब्रम के नेतृत्व में खेरवार आन्दोलनकारियों ने 30 अगस्त को पुल तथा टेलीग्राफ लाइन को क्षतिग्रस्त कर दिया. 1 सितम्बर को पैका मांझी के नेतृत्व में धानमोरा ब्लॉक के कदमा गाँव में एक बैठक हुई जिसमें शराब दुकान, पुल टेलीग्राफ आदि को क्षतिग्रस्त करने का सिलसिला जारी रखने का निर्णय लिया गया.
इस दौरान अंग्रेजों की खिलाफत कमोवेशी सम्पूर्ण झारखण्ड में हुआ.
> मुख्य बातें
> झारखण्ड में राष्ट्रीय आन्दोलन का व्यापक विस्तार, असहयोग आन्दोलन के समय, महात्मा गांधी के नेतृत्व काल में हुआ.
> कांग्रेस की स्थापना वर्ष 1885 से 1905 तक का समय उदारवादी नेतृत्व का काल था, जिनका प्रभाव झारखण्ड – वासियों पर नहीं था.
> झारखण्ड में राष्ट्रीय जनान्दोलन का पथ प्रदर्शक ताना भगत आन्दोलन था.
> ताना भगत आन्दोलन अपने स्थापना वर्ष 1914 से ही स्वशासन की स्थापना हेतु अंग्रेजों एवं जमींदारों का खिलाफत करता आ रहा था.
> ताना-भगत आन्दोलनकारी महात्मा गांधी से ज्यादा प्रभावित था, क्योंकि दोनों का विश्वास सत्य, अहिंसा एवं सादगी में था.
> ताना भगतों ने महात्मा गांधी द्वारा छेड़े गये हर आन्दोलन में बढ़चढ़कर हिस्सा लिया.
> ये गांधीवादियों की तरह खादी वस्त्र, टोपी आदि धारण करते थे.
> राष्ट्रीयता ताना भगतों के जीवन में इस प्रकार घुल-मिल गई कि ये आज भी नित्य अपने आँगन में तिरंगे झण्डे की पूजा करते हैं.
> राष्ट्रीय आन्दोलन में ताना भगतों के अलावा हजारीबाग के वीर सपूत राम नारायण सिंह ने 1942 के पूर्व आन्दोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया.
> राम नारायण सिंह ने 1940 के रामगढ़ कांग्रेस सम्मेलन के सफल आयोजन में बढ़-चढ़कर भाग लिया.
> डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, राम नारायण सिंह को इसी समय छोटा नागपुर केसरी की उपाधि दी थी.
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