लिंग की अवधारणा का वर्णन करें ।
प्रश्न – लिंग की अवधारणा का वर्णन करें ।
उत्तर – हमारे जीवन दर्शन में एक ही लिंग है । लिंग भेद नहीं किया गया है और अखण्ड सृष्टिकर्ता का ध्यान करते हुए एक लिंग की पूजा की जाती है । सम्पूर्ण सृष्टि में साकार तत्त्व ‘सालीग्राम’ की मूर्ति पूजा के रूप में रखी जाती है । आदि सृष्टिकर्त्ता शंकर का स्वरूप ही कंकड़- कंकड़ में विराजमान है । अतः स्त्री-पुरुष को अलग नहीं किया जा सकता । सृष्टिकर्त्ता जगतजननी जब विचार करती है, तब उनके दो स्वरूप दिखाई पड़ने लगते हैं – स्त्री व पुरुष के रूप में । ये दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं किन्तु नारी के बिना दुनिया का अस्तित्व ही नहीं है । ईश्वर ने नारी की शारीरिक रचना ही इस प्रकार की है कि संसार के भविष्य की वह स्वयं निर्मात्री हो गई । कई युग पुरुष हुए हैं जो नारी की किसी न किसी रूप में चाहे वह माँ, बहन, पत्नी, भाभी अथवा दाई रही हो, से प्रभावित होकर महान बने । अतः कहा जा सकता है कि युग चाहे जो भी रहा हो, संसार की तरक्की नारी के विकास पर ही आधारित है ।
नारी स्वयं सृष्टा है यह सार्वभौमिक सत्य है परन्तु मात्र सृष्टा होना ही उसका संपूर्ण परिचय नहीं । वह सृष्टि के स्वरूप को अपने गर्भ में आधार देती है व उसकी रचना के पश्चात् उसे पालन-पोषण का उत्तरदायित्व भी वहन करती है। यही नहीं उस सृष्टि रूप ‘जीव’ अथवा ‘कृति’ की रचना में राष्ट्र हित के संस्कारों का मूल बीजारोपण करने वाली भी यह जननी है । धर्म ग्रन्थों में इस तथ्य का स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि गर्भवती नारी की सोच सुगठित बुद्धिमान व संस्कारशील आदि गुणों से युक्त शिशु की कामना हेतु जननी की इस अवधि में विशेष देख-भाल की जाती है ।
सामाजिक लिंग का आशय (Meanig of Social Gender) — पुल्लिंग तथा स्त्रीलिंग के सांस्कृतिक तथा सामाजिक आधार पर लिंग की विचारधारा का तात्पर्य यह है कि सम्पूर्ण विश्व में महिलाएँ उत्पादन के मामले के सम्बन्ध में निरन्तर अलाभकारी स्थिति में रही है | उनको प्राणिशास्त्री सिद्धान्तों के आधार पर सन्तान को उत्पन्न करने का यंत्र अथवा उपकरण स्वीकार किया गया है। स्त्री और पुरुष में श्रम तथा साधनों के स्वामित्व, के विषय में न केवल मतभेद पाया जाता है, अपितु साथ ही साथ सेवाओं के प्रयोग करने के विषय में भी पर्याप्त विभेद देखने को मिलता है। लिंग विभेद वर्त्तमान समय में जीवन का सार्वभौमिक तत्त्व बन गया है । विश्व के अनेक समाजों में, विशेषकर विकाशील देशों में, महिलाओं के साथ समाज में प्रचलित विभिन्न कानूनों, रूढ़िगत नियमों के आधार पर विभेद किया जाता है तथा उनको पुरुषों के समान राजनीतिक तथा सामाजिक अधिकारों से वंचित किया जाता है ।
सामाजिक लिंग की परिभाषा एवं व्याख्या (Definition and Explanation of Social Gender)—फेमनिस्ट विद्वानों के अनुसार– “सामाजिक लिंग को स्त्री-पुरुष विभेद के सामाजिक संगठन अथवा स्त्री-पुरुष के मध्य असमान सम्बन्धों की व्यवस्था के रूप में परिभाषित किया जा सकता है । “
सुप्रसिद्ध विचारक पेपनेक के अनुसार “सामाजिक लिंग स्त्री तथा पुरुष से सम्बन्धित है जो स्त्री-पुरुष की भूमिकाओं को सांस्कृतिक आधार पर परिभाषित करने का प्रयास करता है एवं स्त्री-पुरुष के विशेषाधिकारों से सम्बन्धित है। सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक आधार पर “लिंग सामान्यतया शक्ति सम्बन्धों का कार्य तथा असमानता का सामाजिक संगठन है । “
मनुष्य की विशिष्ट स्थिति का निर्धारण करने में सामाजिक संरचना महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है । प्राणीशास्त्रीय स्थिति मनुष्य को ‘नर’ और ‘मादा’ के रूप में रूपायित करती है, किन्तु उसे पुरुष और स्त्री में विभाजित करने के कारक अन्य हैं । जैविक अर्थों में हम नर और मादा की तरह पैदा होते हैं, लेकिन हमें सामाजिक लिंग की मान्यता स्त्री और पुरुष के रूप में मिलती है ।
भारत में पितृसत्तात्मक एवं रूढ़िवादिता प्रचलित होने के कारण महिलाओं के साथ प्रत्येक क्षेत्र में असमानतापूर्ण व्यवहार किया जाता है । प्रायः सभी कार्यों के क्षेत्र में, जैसे-वेतन के क्षेत्र में, अध्ययन के क्षेत्र में एवं प्रस्थिति आदि के क्षेत्र में महिलाओं को निम्न स्थान ही प्राप्त है । समाज में महिलाओं के पास कोई शक्ति नहीं है। महिलाएँ जो देश की जनसंख्या का लगभग आधा भाग है, यदि इनका विकास अवरुद्ध होगा तो प्रत्यक्षतः देश का विकास भी अवरूद्ध होगा। महिलाएँ जन्मदात्री हैं, यदि वे ही पूरी तरह से विकसित नहीं होगी तो वे किस प्रकार का एक सुदृढ़ नई पीढ़ी को जन्म दे सकेंगी । अतः स्पष्ट है कि महिलाओं का विकास प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों रूपों में देश के विकास के लिए अति आवश्यक है ।
आधुनिक युग में लिंग सम्बन्धी विभिन्न अध्ययनों द्वारा समाज में व्याप्त असमानता को कम अथवा समाप्त करने का एक साहसिक प्रयास किया जा रहा है। जिसमें एक सन्तुलित समाज की स्थापना की जा सके तथा देश के सभी नागरिक (स्त्री-पुरुष दोनों) स्वतन्त्र रूप से देश के विकास में अपनी भांगीदारी निभा
सकें ।
लिंग बनाम जीव विज्ञान (Gender Versus Biology ) – परिवार एवं समाज में लिंगों ( पुरुषों अथवा स्त्रियों) के बीच स्थित शारीरिक एवं जैविक अन्तर सार्वभौमिक है। वस्तुत: इस अन्तर का आधार प्रमुख जननांगों की बनावट में निहित है। यही नहीं स्त्री पुरुष में लम्बाई-चौड़ाई, आकार-प्रकार वृक्ष स्थलों में अन्तर, शरीर में बालों की भिन्नता आदि अन्तर भी प्रत्यक्ष रूप में देखे जा सकते हैं। इससे दोनों में ये अन्तर प्रायः सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक माने गए हैं। समाज द्वारा इन्हीं सब अन्तरों का लाभ उठाकर एवं जोड़-तोड़ की प्रक्रिया अपनाकर नारी का शोषण किया जाता है, जिसकी परिणति स्त्रियों में असमानता की भावना, असुरक्षा की भावना एवं शक्ति को पुरुष तक ही केन्द्रित करने की वृत्तियों के रूप समाज में सर्वत्र दिखाई देती है ।
स्त्री की जैविक स्थिति पर विचार करते हुए हम पाते हैं कि स्त्री और पुरुष का शरीर लैंगिक अन्तर को सीमित करता है, किन्तु यह अन्तर उसके कार्य-कलापों को कितना और किस प्रकार से भिन्न करता है, निरन्तर शोध का विषय रहा है ।
लैंगिक गुणसूत्रों की भूमिका (Roles of Gender’s Chromosome) — स्त्री की जैविक संरचना दो आधारभूत कोशों से होती है, वहीं पुरुष की एक कोश से जिसके परिणाम रोजमर्रा की जिन्दगी में देखे जा सकते हैं। मनुष्य के शरीर की कोशिकाओं में तेईस जोड़े गुणसूत्रों के साथ ही एक जोड़ी XX” जो इनके जैसी ही दिखती है, लिंग का निर्धारण करती है, यह स्त्री लिंग को सुनिश्चित करती है । पुरुष के गुणों में ‘XY’ गुणसूत्रों की एक जोड़ी होती है, ‘Y’ गुणसूत्र की एक ऋणात्मक क्रिया है । जब ‘Y’ वाला शुक्राणु एक अंडाणु को निषेचित करता हो तो वह मादापन की उस मात्रा को कम कर देता है जिसके कारण मादा भ्रूण बनता है । अपने नरत्व के साथ तब भ्रूण को कोई ऐसी दुर्बलताएं उत्तराधिकार में मिलती हैं जो यौन सम्बद्ध कही जाती है, क्योंकि वे सिर्फ ‘Y’ गुणसूत्र पर मिलने वाले जीनों के कारण होती है । हाइपर ट्राई कॉसिस जैसे विचित्र विकार जिनमें बालों की बहुतायत और छाल जैसी चमड़ी होती है । वास्तव में ‘X’ गुणसूत्र के एक ऐसे परिवर्तनीय जीन का परिणाम है जिसे ‘Y’ गुणसूत्र दबा नहीं पाता । इसी कारण मनुष्य जाति के नरों में करीब 30 रोग ऐसे पाये जाते हैं जो स्त्री में शायद ही कभी मिलते हैं। महिलाओं में दोनों ‘X’ गुणसूत्र होने के कारण स्त्रियों के विकास के लिए एक ही तरह के जीन की दो प्रतियां हो जाती हैं जो रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाती हैं। पुरुषों का सेक्स हारमोन प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के बजाए उनके लिए रोग का खतरा बढ़ाता है । इसका कारण लन्दन स्थित इम्पीरियल कॉलेज, स्कूल ऑफ मेडीसीन के शोधकर्ता महिलाओं में संक्रमण से लड़ने वाली श्वेत रक्त कणिकाओं यानी टी-कोशिकाओं का उत्पादन अधिक होना मानते हैं । 1969 में अपराध शास्त्रियों ने “Y” गुणसूत्र के बारे में नई टिप्पणी की है। उन्होंने पाया कि हिंसक अपराधों के दोषी कैदियों में ‘XYY’ गुणसूत्र वाले पुरुषों का अनुपात बहुत ज्यादा था । इन लोगों में मिलने वाला एक फालतू ‘Y’ गुणसूत्र मानसिक क्षमता में कमी से जुड़ा लगता है ।
अन्तःस्रावी तन्त्र एवं हार्मोन की भूमिका – गुणसूत्रों के अतिरिक्त विभिन्न शारीरिक लक्षणों के विकास में पूरा अन्त: स्रावी तन्त्र व विभिन्न हार्मोन्न की अन्तः क्रिया भी शामिल होती है । लम्बे समय तक यह स्वीकार किया जाता रहा है कि टेस्टोस्टीरॉन और एंड्रोजेन पुरुष लैंगिक गुणों की वृद्धि करता है एव एस्ट्रोजन स्त्री लैंगिक गुणों की टेस्टोस्टीरॉन जहां पुरुषों में मेस्कुलाइन बॉडी मोटी आवाज, बालों का आधिक्य व शारीरिक कठोरता का कारक होता है, ऐस्ट्रोजन और प्रोजेस्ट्रोन स्त्री में चमकीली त्वचा मासिक धर्म और अंडाशय की सक्रियता ।
में सहायक होता है | स्त्रियों का सेक्स हारमोन एस्ट्रोजन धमनियों को कड़ा होने से रोकने वाला और दिल की बीमारियों की सम्भावना को कम करने वाला होता है । यह मस्तिष्क की भी रक्षा करता है ।
लैंगिक हार्मोन की शारीरिक व मानसिक क्षमता के व्यवहार के बीच सम्बन्ध अभी सिद्ध नहीं हो पाया है। महिलाओं के रक्त में शरीर की रक्षा प्रणालियों को मजबूत बनाने वाली इम्यूनोग्लोबिन की मात्रा ज्यादा होती है जबकि पुरुषों की रक्त में हीमोग्लोबिन की । यह सत्य है कि पुरुष का शरीर स्त्री की तुलना में अधिक गठीला होता है। वे 10 फिसदी अधिक लम्बे 20 फीसदी अधिक भारी व 30 प्रतिशत अधिक ताकतवर होते हैं। लेकिन स्त्री की शरीर की कुछ खूबियाँ इन विषमताओं को सन्तुलित करती है। स्त्रियों का शरीर थकान को ज्यादा बर्दाश्त कर पाता है । वे बिना थके लम्बे समय तक काम कर सकती हैं । विश्व में जी-तोड़ शारीरिक श्रम करने वाली स्त्रियाँ यह साबित करती हैं कि पुरुषों के मुकाबले मांसपेशियों की कमी उन्हें किसी तरह पुरुषों से कमतर नहीं बनाती । आदि मानव के सन्दर्भ में । पुरुष के शक्तिशाली होने के कारण शिकार करने का काम सम्भालना पड़ा परन्तु स्त्री भी जंगली जानवरों के भय से मुक्त कहाँ थी । यदि पुरुष का कार्य जोखिम भरा और वीरतापूर्ण था तो स्त्री भी निरापद कहाँ थी, वैसे ही जोखिम वह अपने बच्चों के साथ अकेले उठाती
थी ।
केश व हड्डियों की प्रकृति — स्त्री और पुरुष के भेद में स्त्री के छोटे आकार के हल्के ढांचे की बात की जाती है एवं माना जाता है कि उसकी हड्डियाँ पुरुषों की तुलना में बच्चों जैसी होती है । स्त्री के विकास में यह वर्णन किसी दोष को इंगित करने की अपेक्षा ज्यादा लचीलेपन और स्थिति के अनुरूप ढलने की क्षमता के रूप में विकासात्मक बढ़त को प्रदर्शित करता है। ।
मस्तिष्क का आकार – वैज्ञानिक खोजों ने सिद्ध किया है कि स्त्रियों का मस्तिष्क उनके शरीर के आकार के अनुरूप ही छोटा होता है लेकिन उनमें तन्त्रिकाओं का घनत्व पुरुषों की अपेक्षा कहीं ज्यादा होता है। 1966 में इलीनॅर मैक्बॅबी ने पचास वर्षों के परीक्षणों को अपनी पुस्तक ‘द डेवलपमेन्ट ऑफ़ सेक्स डिफरेन्सेज में लड़के और लड़कियों के सम्पूर्ण बुद्धि परीक्षणों में ग्यारह परिणाम समान पाए । तीन में लड़कियाँ और तीन में लड़के आगे थे बड़ी उम्र की लड़कियों के परीक्षणों में अधिक निडरता पाई गई। पुरुषों का स्त्री से ज्यादा बुद्धिमान होने के कारण अगर उसकी बेहतर शिक्षा है तो खुद को श्रेष्ठ मानना ऐसा ही है जैसे दोनों हाथ बँधे पुरुष को पीटकर साहसी होने का दावा करना। हम लिंगों की हीनता और श्रेष्ठता की बात नहीं कह सकते; सिर्फ अभिरुचियों और व्यक्तित्व में विशिष्ट अन्तरों की बात की जा सकती है। बहुत हद तक यह अन्तर- सांस्कृतिक और अनुभवात्मक घटकों का परिणाम है। सभी मनौवैज्ञानिक अभिलक्षणों में ऐसा परस्पर व्याप्त है कि हमें स्त्रियों और पुरुषों के बारे में समूह की रूढ़ छवियों के रूप में नहीं, व्यक्तियों के तौर पर सोचना होगा।
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