लिंग विभेद के कारणों की विवेचना करें।

प्रश्न – लिंग विभेद के कारणों की विवेचना करें। 
उत्तर – लिंग विभेद के निम्नलिखित कारण हैं—
  1. मान्यताएँ तथा परम्पराएँ – लिंगीय विभेद का एक प्रमुख कारण भारतीय मान्यताओं तथा परम्पराओं का है। यहाँ जीवित पुत्र का मुख देखने से पुण्य एवं नरक से मुक्ति का वर्णन तथा श्राद्ध और पिण्डादि कार्य पुत्र के हाथ से सम्पन्न कराने की मान्यता रही है। स्त्रियों को चिता की अग्नि देने का अधिकार भी नहीं दिया गया है, जिसके कारण भी पुत्र दिया जाता है और वंश को चलाने में भी पुरुष को ही प्रधान माना गया है । इन मान्यताओं तथा परम्पराओं की बेड़ियों में हमारा भारतीय जनमानस चाहे वह शिक्षित हो या अशिक्षित, पूरी तरह से आबद्ध है, जिसके परिणामस्वरूप बालकों को महत्त्व दिया जाता है और कहीं-कहीं तो बालिकाओं की गर्भ में ही हत्या कर दी जाती है। अधिकांश बालिकाओं को बोझ समझकर ही उनका पालन-पोषण किया जाता है तथा सदैव इन्हें पुरुषों की छत्रछाया में जीवन व्यतीत करना पड़ता है। अथर्ववेद में वर्णन आया है कि स्त्री को बाल्यकाल में पिता के अधीन, युवावस्था में पति के अधीन तथा वृद्धावस्था में पुत्र के अधीन रहना चाहिए । इस प्रकार स्त्रियों को अस्तित्व, मान्यताओं, परम्पराओं और सुरक्षा की बलि चढ़ा दिया जाता है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में स्त्री-पुरुषों की ओर ताकती है तो निश्चित ही है कि पुरुष की प्रधानता स्थापित होगी । आश्चर्य तो तब होता है जब एक स्त्री स्वयं स्त्री होकर भी बालक-बालिकाओं में भेद करती है । इस प्रकार मान्यतायें तथा परम्परायें लिंगीय विभेद में वृद्धि करने का प्रमुख कारण है ।
  2. संकीर्ण विचारधारा – बालक बालिका में भेद का एक कारण लोगों की संकीर्ण विचारधारा है। लड़के माता-पिता के बुढ़ापे का सहारा बनेंगे, वंश चलायेंगे, उन्हें पढ़ाने – लिखाने से घर की उन्नति होगी, वहीं लड़की के पैदा होने पर शोक का माहौल होता है, क्योंकि उसके लिए दहेज देना होगा, विवाह के लिये वर ढूँढ़ना होगा और तब तक सुरक्षा प्रदान करनी होगी इस प्रकार पढ़ाने-लिखाने में पैसा खर्च करना लोग बर्बादी समझते हैं। वर्तमान में बालिकाओं ने उस संकीर्ण सोच और मिथकों को तोड़ने का कार्य किया है फिर भी बालिकाओं का कार्यक्षेत्र चूल्हे-चौके तक ही सीमित माना जाता है और उनकी भागीदारी को स्वीकार नहीं किये जाने के कारण बालकों की अपेक्षा बालिकाओं का महत्त्व कम आँका जाता है जिससे लिंगीय भेदभाव में वृद्धि होती है ।
  3. जागरूकता का अभाव-जागरूकता के अभाव के कारण भी लैंगिक भेदभाव उपजता है। समाज में अभी भी लैंगिक मुद्दों पर जागरूकता की कमी है, जिसके कारण बालक-बालिकाओं की देखरेख, शिक्षा तथा पोषणादि स्तरों पर भेदभाव किया जाता है। वहीं जागरूक समाज में ‘बेटा-बेटी एक समान’ के मन्त्र का अनुसरण करते हुए बेटियों का पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा बेटों की भाँति प्रदान की जाती है। जागरूकता के अभाव में माना जाता है कि स्त्रियों का कार्यक्षेत्र घर की चारदीवारी के भीतर तक ही सीमित है । अतः उनकी शिक्षा तथा पालन-पोषण पर व्यय नहीं किया जाना चाहिए और बौद्धिक रूप से भी वे लड़कों की अपेक्षा कमजोर होती हैं। लैंगिक भेदभाव के कारण बालिकाओं के विकास का उचित प्रबन्ध नहीं किया जाता है। परिणामतः आर्थिक क्षेत्र में उनकी भागीदारी सुनिश्चित नहीं होने से उनके प्रति लोगों के नजरिये में भी परिवर्तन नहीं होता और वे सदैव स्वयं को लड़कों से हीन मान बैठती है। अतः बालकों को बालिकाओं की अपेक्षा अधिक महत्व प्रदान किया जाता है।
  4. अशिक्षा – लैंगिक विभेद में अशिक्षा की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण है। अशिक्षित व्यक्ति, परिवार तथा समाज में चले आ रहे मिथकों और अन्धविश्वासों पर ही कायम रहते हैं तथा बिना सोचे-समझे उनका पालन करते रहते हैं। परिणामतः लड़के का महत्त्व लड़की की अपेक्षा सर्वोपरि मानते हैं। सभी वस्तुओं तथा सुविधाओं पर प्रथम अधिकार बालकों को प्रदान किया जाता है । शिक्षा के द्वारा व्यक्ति यह विचार-विमर्श करने लगा है कि लड़का की ही भाँति लड़कियाँ प्रत्येक क्षेत्र में अग्रणी भूमिका निभा रही हैं तथा लड़का-लड़की एक समान होते हैं | यदि लड़कियों को समुचित प्रोत्साहन और अवसर प्रदान किये जायें तो वे प्रत्येक क्षेत्र में अग्रणी भूमिका का निर्वहन कर सकती हैं ।
  5. आर्थिक तंगी – भारतवर्ष में आर्थिक तंगी से जूझ रहे परिवारों की संख्या अत्यधिक है। ऐसे में वे बालिकाओं की अपेक्षा बालकों को सन्तान के रूप में प्राथमिकता देते हैं जिससे वे उनके श्रम में हाथ बँटायें और आर्थिक जिम्मेदारियों का बोझ बाँटने का कार्य करें, परन्तु लड़कियाँ न तो श्रम में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करा पाती है और न ही अशिक्षित होने के कारण आर्थिक जिम्मेदारियों का वहन कर पाती है। लड़कियों को पराया धन समझकर माता-पिता रखते हैं तथा जीवन की कमाई का एक बड़ा भाग वे लड़की के विवाह में दहेज के रूप में व्यय करते हैं तथा लड़के के साथ ऐसा नहीं करना पड़ता है । इस प्रकार आर्थिक तंगी से जूझ रहे परिवारों में लड़कियों की अपेक्षा लड़कों की कामना की जाती है, जिससे लैंगिक विभेद पनपता है।
  6. सरकारी उदासीनता – लिंगीय विभेद बढ़ने में सरकारी उदासीनता भी एक कारक है। सरकार लिंग में भेदभाव करने वालों के साथ सख्त कार्यवाही नहीं करती है और चोरी-छुपं चिकित्सालयों और निजी क्लीनिक पर भ्रूण की जाँच तथा कन्या भ्रूणहत्या का कार्य अवाध रूप से चल रहा है। सार्वजनिक स्थलों तथा सरकारी ऑफिसों में भी महिलाओं को पुरुषों की अपेक्षा हेय दृष्टि से देखा जाता है और उनमें व्याप्त असुरक्षा के भाव को समाप्त करने की अपेक्षा उसमें वृद्धि करने का कार्य किया जाता है जिससे लैंगिक भेदभाव में वृद्धि होती है ।
  7. सांस्कृतिक कुप्रथाएँ – भारतीय संस्कृति प्राचीन काल से ही पुरुष प्रधान रही है। यद्यपि अपवादस्वरूप कुछ सशक्त स्त्रियों, विदुषियों के उदाहरण अवश्य प्राप्त होते हैं, परन्तु, इतिहास साक्षी है कि सीता और द्रोपदी जैसी स्त्रियों को भी स्त्री होने का परिणाम भुगतना पड़ा था। भारतीय संस्कृति में धार्मिक तथा यज्ञीय कार्यों में भी पुरुष की उपस्थिति अपरिहार्य है और कुछ कार्यों को तो स्त्रियों को करने का भी निषेध है। ऐसी स्थिति में पुरुष प्रधान हो जाता है और स्त्री का स्थान गौण। यह स्थिति किसी एक वर्ग या समुदाय के स्त्री-पुरुष की न होकर समग्र स्त्रियों की बनकर लिंगीय समस्या का रूप धारण कर लेती है।
  8. सामाजिक कुप्रथाएँ-भारतीय समाज सूचना और तकनीकी के इस युग में भी तमाम प्रकार की कुप्रथाओं और अन्धविश्वासों से भरा हुआ है। भारतीय समाज की कुछ कुप्रथाएँ निम्न प्रकार हैं-
    दहेज प्रथा – एक ऐसी कुप्रथा है जिसकी जड़ें भारतीय समाज में दिनोंदिन गहरी होती जा रही हैं। समाज में अगड़ी कहीं जाने वाली जातियों में यह प्रथा चरम सीमा पर है तो भोले-भाले आदिवासी समाज में भी यह कुरीति धीरे-धीरे अपने पैर पसार रही है। लड़की का जन्म होते ही माता-पिता और परिवार को उसके विवाह तथा दहेज की चिन्ता खाये जाती है । इस कुप्रथा के कारण भी लोग लड़कियों को नहीं चाहते कि वे जन्म लें।
    कन्या भ्रूणहत्या — जैसी कुरीति भारत में सभ्य और शिक्षित वर्गों के मध्य फैल रही है जिससे जन्म लेने से पूर्व ही बेटी को मार दिया जाता है तथा बेटे वाले लोग समाज में सीना तानकर चलते हैं, जिससे अन्य लोगों में भी बेटी के प्रति उदासीनता का भाव उपजता है ।
    बाल विवाह – भारत में यद्यपि लड़कियों के विवाह की आयु का निर्धारण 18 / वर्ष कर दिया गया है फिर भी कुछ समुदायों में कन्या, जो रजोधर्म युक्त न हुई हो, उसके कन्यादान को अच्छा माना जाता है । इधर लड़की की विदाई होती है और दूसरी ओर उसके विद्यालयी जीवन की विदाई भी हो जाती है और उनका कार्य केवल घर-गृहस्थी तक सीमित रह जाता है जो कोई उत्पादक कार्य नहीं माना जाता । अतः बालकों और पुरुषों को अधिक महत्त्व प्रदान किया जाता है, जिससे लैंगिक विभेद बढ़ता है ।
  9. दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली – भारतीय शिक्षा प्रणाली दोषपूर्ण है जिस कारण शिक्षा का सम्बन्ध व्यक्ति के व्यावहारिक जीवन से नहीं हो पाता है। विशेषतः बालिकाओं के सम्बन्ध में शिक्षा अव्यावहारिक होने से शिक्षा पर हुआ समय तथा पैसे का व्यय जिसकी भरपाई नहीं हो पाती है । अतः बालकों की शिक्षा की अपेक्षा बालिका शिक्षा ही नहीं, अपितु इस लिंग के प्रति ही लोगों में दुर्भावना व्याप्त हो जाती है । वर्तमान शिक्षा प्रणाली में व्याप्त दोष निम्न प्रकार हैं –
    (i) दोषपूर्ण पाठ्यक्रम ।
    (ii) अपूर्ण शिक्षण उद्देश्य ।
    (iii) दोषपूर्ण शिक्षण विधियाँ |
    (iv) अपव्यय तथा अवरोधन की समस्या ।
    (v) बालिका विद्यालयों का अभाव ।
    (vi) विद्यालयों का दूर होना ।
    (vii) व्यावसायिक पाठशालाओं का अभाव ।
    (viii) लैंगिक विभेद ।
    विद्यालयों में प्रचलित पाठ्यक्रम नितान्त सैद्धान्तिक और दोषपूर्ण है तथा बालिकाओं की अभिरुचियों का ध्यान भी पाठ्यक्रम में नहीं रखा जाता है जिससे बालिकाओं में पढ़ाई के प्रति अरुचि की भावना जाग्रत हो जाती है। शिक्षा के उद्देश्य भारतीय समाज तथा आवश्यकताओं के अनुरूप न होने के कारण भी बालिकाओं के लिए शिक्षा उद्देश्यविहीन मानी जाने लगी है । शिक्षण विधियाँ निष्क्रिय तथा एकपक्षीय हैं जिस कारण शिक्षा ग्रहण करने में बालिकाओं को रुचि नहीं होती है । अपव्यय तथा अवरोधन शिक्षण व्यवस्था में व्याप्त दोषों के कारण होता है ।

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