शक, कुषाण, सातवाहन एवं शुंग काल
शक, कुषाण, सातवाहन एवं शुंग काल
शककालीन सामाजिक अवस्था
शककाल में भी भारतीय वर्णव्यवस्था का स्वरूप परम्परागत ही रहा, लेकिन बाहर से आने वाली जातियों का इस समय भारतीय व्यवस्थाकारों ने उन्हें वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत स्थान देकर समाहित कर लिया.
महाभारत में शक द्वीप का वर्णन करते हुए कहा गया है कि “वहाँ के निवासी मिथ्याचार, लोभ एवं ईर्ष्या से मुक्त हैं.” महाभारत का यह विवरण उस समय का प्रतीत होता है। जब शकों का पूर्णतया भारतीयकरण हो गया था. टॉलेमी ने शक ब्राह्मणों का उल्लेख किया है, जिन्हें पुराणों में शाकद्वीपीय मग ब्राह्मण कहा गया है. इसी प्रकार से मनु ने शकों को वृषल, क्षत्रिय कोटि में रखा है. पतंजलि के अनुसार, शक यद्यपि शूद्र थे, परन्तु वे अस्पृश्य न थे, जिन पात्रों में वे भोजन करते थे, वे त्याज्य नहीं समझे जाते थे. यह कथन स्पष्ट करता है कि शकों को वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत ही रखा गया है.
आगे चलकर शकों के नाम भी भारतीय ही रखे जाने लगे; जैसे— रुद्रदामन, जीवदामन, रुद्रसेन आदि.
इसी के साथ ही शकों ने भारतीय धर्म को भी स्वीकार कर लिया. महाक्षत्रप सोडास के अमोहिनी अभिलेख में अमोहिनी नामक जैन गृहस्थ नारी का उल्लेख है. दूसरे अभिलेख में अर्हत् महावीर के प्रति श्रद्धा प्रकट की गई है. इन सब साक्ष्यों से प्रकट होता है कि तक्षशिला व मथुरा के क्षत्रप जैन धर्म के प्रति उदार थे.
पश्चिमी भारत के शक क्षत्रप बौद्ध और ब्राह्मण दोनों धर्मों में समान रूप से रुचि रखते थे. नहपान के दामाद ऋषभदत्त ने दोनों धर्मावलम्बियों को अनुगृहीत किया था. ब्राह्मण धर्म में इस काल में अनेक सम्प्रदाय थे. महाभारत के अनुसार शक द्वीप में भगवान् शिव की पूजा होती थी. रुद्रसेन, रुद्रदामन आदि नाम शिव उपासकों के ही हो सकते हैं. कुछ शक अभिलेखों में नागपूजा के भी दृष्टान्त मिलते हैं एक शक अभिलेख में सर्पराज ‘दीर्घ कर्ण’ का उल्लेख है, किन्तु अनेक विद्वानों का मत है कि शक क्षत्रप भागवत धर्म के विरोधी थे, परन्तु ऐसा सत्य प्रतीत नहीं होता.
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि शकों का पूर्णतया आगे चलकर भारतीयकरण हो गया और वे भारतीय वर्ण व्यवस्था में समाहित हो गए.
शककालीन आर्थिक अवस्था
शककाल भारतीय इतिहास में आर्थिक दृष्टि से उल्लेखनीय काल रहा है. इस समय प्रमुख रूप से तीन व्यापारिक मार्गों की स्थापना हुई—
1. पाटलिपुत्र से कौशाम्बी और उज्जैन होते हुए बैरीगाजा जाने वाला पथ.
2. पाटलिपुत्र से वैशाली और श्रावस्ती होते हुए नेपाल जाने वाला पथ.
3. पाटलिपुत्र से मथुरा और सिन्धु घाटी से होते हुए बैक्ट्रिया जाने वाला पथ.
इन तीनों मार्गों में से पहला व तीसरा मार्ग शक राज्य में से होकर गुजरते थे तथा रुद्रदामन ने सिन्धु सौवीर क्षेत्र पर अपना अधिकार कर पश्चिमोत्तर प्रदेशों की ओर जाने वाले मार्गों पर अधिकार कर लिया.
फ्लीट के अनुसार इस समय दक्षिण भारत में दो प्रमुख व्यापारिक मार्ग थे. प्रथम मछलीपट्टनम से प्रारम्भ होता था तथा द्वितीय विनुकोण्ड से कुछ दूर तक दोनों पृथक्-पृथक् चलने के बाद हैदराबाद के पास आपस में मिल जाते थे और यह वहाँ से कल्याण, पैठान तथा दौलताबाद होते हुए बैरीगाजा तक जाते थे.
शकों का देश के प्रमुख व्यापारिक बन्दरगाहों पर अधिकार होने के कारण शक राज्य की अत्यधिक आर्थिक उन्नति हुई.
देश के आन्तरिक भागों में उज्जैन, पैठान, टेगारा ( टैर) आदि बड़ी व्यापारिक मण्डियाँ थीं. ‘पेरिप्लस ऑफ द एरिथ्रियन सी’ के अनुसार भारतवर्ष में इस समय विदेशों से चाँदी, बहुमूल्य बर्तन, शराब, बहुमूल्य वस्त्र आदि आयात होते थे तथा यहाँ से मोती, मसाले, सूती वस्त्र, हाथीदाँत की वस्तुएँ आदि विदेशों को निर्यात की जाती थी.
इस काल में देश में अनेक व्यापारिक संघों का निर्माण हो चुका था. नासिक अभिलेख में जुलाहों के एक संघ का विवरण है. यह संघ बैंक का भी कार्य करते थे तथा लोगों को धन ब्याज पर उधार दिया करते थे. राज्य व्यापारिक कर लगाता था. रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख में शुल्क (Custom duty) का उल्लेख किया गया है.
अत्यधिक व्यापारिक गतिविधियों ने उपनिवेश स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया. सुवर्ण द्वीप (सुमात्रा) और जावा में उपनिवेश स्थापना के प्रयास इसी समय हुए. इसी समय भारतवर्ष, मध्य एशिया और चीन के मध्य घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्धों का सूत्रपात हुआ तथा पश्चिमोत्तर मार्गों से व्यापार के साथ सांस्कृतिक आदान-प्रदान प्रारम्भ हुआ.
क्या कनिष्क बौद्ध था ? विवेचना कीजिए
कनिष्क बौद्ध धर्म का अनुयायी था या नहीं इतिहासकारों में यह अत्यन्त विवाद का विषय है. एक तरफ समस्त बौद्ध धर्म का साहित्य उसे बौद्ध सिद्ध करता है, तो उसकी कुछ मुद्राओं पर सूर्य, शिव आदि देवताओं के चित्र उसे एक धर्म सहिष्णु शासक सिद्ध करते हैं. विभिन्न साक्ष्यों के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचने का प्रयास करेंगे कि कनिष्क वास्तव में किस धर्म का अनुयायी था.
1. बौद्ध ग्रन्थ सूत्रालंकार के अनुसार कनिष्क की अनुरक्ति एकमात्र बौद्ध धर्म में थी. धर्मपिटक निदान सूत्र भी उसे बौद्ध घोषित करता है.
2. समस्त बौद्ध ग्रंथ कनिष्क और प्रसिद्ध विद्वान् अश्वघोष में सम्बन्ध स्थापित करते हैं, जिसके प्रभाव से कनिष्क, जो पहले रक्त पिपासु था, अहिंसक बन गया.
3. राजतरंगिणी के अनुसार कनिष्क ने कश्मीर में बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार किया तथा वहाँ अनेक विहारों का निर्माण करवाया.
4. लामा तारानाथ (तिब्बती बौद्ध विद्वान्) भी कनिष्क को बौद्ध घोषित करता है.
5. ह्वेनसांग ने लिखा है कि महात्मा बुद्ध ने भविष्यवाणी की थी कि मेरी मृत्यु के 400 वर्ष बाद कनिष्क नामक एक राजा होगा, जो बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार करेगा.
6. कनिष्क के बौद्ध होने का प्रमाण उसके द्वारा बनवाया गया. पुरुषपुर का बौद्ध विहार था, जोकि 400 फुट ऊँचा और 13 मंजिला था. फाह्यान और ह्वेनसांग ने इसे देखा था. इसका उल्लेख अलबेरूनी ने भी किया है.
7. पेशावर का ‘कास्केट अभिलेख’ कनिष्क को बौद्ध सिद्ध करता है.
8. कनिष्क के बौद्ध होने का सर्वाधिक उल्लेखनीय प्रमाण उसके द्वारा कश्मीर कुण्डल वन में चतुर्थ बौद्ध संगीति का आयोजन करना था. उसकी अध्यक्षता प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् वसुमित्र ने की तथा उपाध्यक्ष अश्वघोष बने थे.
इस प्रकार उपर्युक्त साक्ष्यों का यदि विश्लेषण किया जाए तो कनिष्क निश्चित रूप से ही बौद्ध अनुयायी सिद्ध होता है चाहे वह पहले किसी भी धर्म को मानने वाला रहा हो.
कनिष्क कुषाण काल : साहित्यिक उन्नति
कनिष्क भारतीय इतिहास में एक महान् विद्या प्रेमी सम्राट के रूप में भी जाना जाता है, उसकी राजसभा में अनेक विद्वान् संरक्षण पाते थे, जिनमें सर्वाधिक उल्लेखनीय नाम अश्वघोष का था. कनिष्क ने इन्हें अपने दरबार में मगध पर आक्रमण करके वहाँ से लाया था. अश्वघोष महान् कवि, नाटककार एवं उपदेशक थे. ‘बुद्धचरित’ इनके द्वारा रचित संस्कृत साहित्य की अमूल्य निधि है. इनकी दूसरी काव्य रचना ‘सौन्दरानन्द’ है जिसमें महात्मा बुद्ध के चचेरे भाई नन्द का बौद्ध धर्म में दीक्षित होने का विवरण है. अश्वघोष द्वारा रचित नाटक ‘सारिपुत्रप्रकरण’ को नाट्यशास्त्र के अनुरूप भारत के प्रथम नाटक होने का गौरव प्राप्त है.
कनिष्क के समय में एक अन्य विद्वान् नागार्जुन हुए, जिन्होंने अपने ग्रंथ ‘प्रज्ञापारमितासूत्र’ में सापेक्षवाद (Theory of Relativity) का प्रतिपादन किया. इनके द्वारा ‘शून्यवाद का सिद्धान्त’ भी दिया गया.
इसी काल में वसुमित्र हुए जोकि प्रसिद्ध विद्वान् एवं दार्शनिक थे. इनके द्वारा ही चतुर्थ बौद्ध संगीति की अध्यक्षता की गई. इन्होंने बौद्धधर्म ग्रंथों पर अनेक टीकाएँ लिखीं जोकि ‘महाविभाषशास्त्र’ के रूप में संकलित हैं.
कनिष्क के समय के अन्य विद्वानों में पार्श्व, मातृचेट, संघरक्ष आदि के नाम भी उल्लेखनीय हैं. संघरक्ष कनिष्क के पुरोहित थे. कनिष्क के दरबार में आयुर्वेद के प्रख्यात विद्वान् ‘चरक’ निवास करते थे, जिन्होंने चरक संहिता की रचना की ये कनिष्क के राजवैद्य भी थे.
इस प्रकार् कहा जा सकता है कि कुषाण (कनिष्क) काल संस्कृत साहित्य के संवर्धन का काल और इस समय साहित्य की प्रत्येक विद्या में उल्लेखनीय प्रगति हुई.
कुषाणकालीन सामाजिक जीवन
कुषाण काल में भारतीय समाज का परम्परागत स्वरूप बना रहा तथा समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र ये ही चार प्रमुख वर्ण थे, परन्तु इनमें अनेक जातियों का विकास इस समय स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होने लगा था विदेशी आक्रमणकारियों ने परम्परागत व्यवस्था की जड़ें हिला दी थीं, अतः व्यवस्थाकारों ने उन्हें अपनी व्यवस्था के अन्दर स्थान देकर समाहित करने का प्रयास किया, इस समय तक वर्ण व्यवस्था कर्म के स्थान पर जन्म के रूप में पूर्णतया परिवर्तित हो गई थी और अनेक पेशेवर जातियाँ उत्पन्न हो गईं.
इस समय व्यापार एवं वाणिज्य में अत्यधिक प्रगति होने के कारण शूद्रों की दशा में काफी सुधार हो गया था तथा वे लोग वैश्यों के समकक्ष आ गए थे. विदेशी जातियों जैसे शक, कुषाण आदि जातियों को क्षत्रिय वर्ग में सम्मिलित कर लिया गया तथा व्यवस्थाकारों ने उन्हें ‘व्रात्य क्षत्रिय’ कहा.
इस प्रकार स्पष्ट है कि कुषाण काल में जाति व्यवस्था में कठोरता आई, लेकिन व्यापारिक उन्नति के कारण शूद्रों की स्थिति में काफी सुधार हुआ. इसी से स्पष्ट है कि कुषाण काल में आम जनता का जीवन सुखी था.
कुषाण काल आर्थिक समृद्धि का युग था : विवेचन
कुषाण काल में कनिष्क ने एक अन्तर्राष्ट्रीय साम्राज्य की स्थापना की, जिसके कारण भारत के मध्य एशिया और पाश्चात्य विश्व के साथ व्यापारिक सम्बन्धों की स्थापना हुई. कनिष्क के समय में ‘महान् रेशम मार्ग’ पर भारतीय व्यापारियों का नियन्त्रण स्थापित हुआ. उस काल में व्यापारिक गतिविधियों का सबसे बड़ा मार्ग यही था. कुषाण काल में इस मार्ग से होने वाले व्यापार में भारतीय व्यापारियों ने दलाली का कार्य किया. इस समय रोम के साम्राज्य का उदय हो रहा था. अतः चीन के साथ व्यापारिक सम्बन्ध रखने के लिए उसे कुषाणों पर निर्भर रहना पड़ रहा था, क्योंकि रोम के सम्बन्ध उस समय पार्शिया से अच्छे नहीं थे. भारतीय व्यापारी चीन से रेशम खरीदकर रोम को भेजते तथा रोम से उसके बराबर सोना प्राप्त करते थे. रेशम के साथ-साथ भारतीय रोम को अनेक प्रकार की विलासिता की सामग्री भेजा करते थे और बदले में ढेरों स्वर्ण मुद्राएँ प्राप्त करते थे. पेरिप्लस ऑफ एरिथ्रियन सी का लेखक हमें बताता है कि इस समय रोम को भारतीय व्यापारी मसाले, मोती, मलमल, हाथी दाँत की वस्तुएँ, औषधियाँ, चन्दन, इत्र आदि भेजते थे. रोमन युवतियों में मोती धारण करने की लालसा सदैव बनी रहती थी तथा महिलाओं का आकर्षण मलमल में था.
कुषाण काल में भारत में स्वर्ण की अधिकता होने के कारण व्यापार-वाणिज्य में सिक्कों का नियमित रूप से प्रचलन हुआ तथा ताँबे, चाँदी व सोने के सिक्के कुषाणों ने बड़ी मात्रा में चलाए. कुषाण काल के स्वर्ण सिक्के भारत में सभी कालों में जारी किए गए स्वर्ण सिक्कों की तुलना में सर्वाधिक शुद्ध हैं. कुषाणों के समय में बड़ी मात्रा में ताम्र सिक्के जारी किए गए जो सामान्य व्यवहार में प्रयोग में लाए जाते थे जबकि विशेष लेन-देन में इस काल में स्वर्ण सिक्कों का ही प्रयोग होता था.
इस प्रकार स्पष्ट है कि कनिष्क का काल आर्थिक समृद्धि एवं सम्पन्नता का काल था. बाह्य व्यापार के साथ-साथ आन्तरिक व्यापार में इस समय अत्यधिक वृद्धि हुई तथा विभिन्न प्रकार के शिल्पों का विकास. इसी कारण प्राचीन भारतीय इतिहास में इस काल को ‘स्वर्ण काल’ के नाम से पुकारते हैं.
कुषाण मुद्रा
कुषाणकालीन साम्राज्य एक छोटे से राज्य से प्रारम्भ होकर अन्तर्राष्ट्रीय साम्राज्य में परिवर्तित हो गया. इस साम्राज्य ने ‘महान् सिल्क मार्ग’ पर नियन्त्रण कायम कर लिया, फलस्वरूप रोम तथा चीन के व्यापार के मध्य बिचौलिए की भूमिका का निर्वाह इन्होंने किया जिसके कारण रोम का सोना बहुत अधिक मात्रा में इस समय भारत में आया जिसके कारण कुषाण शासकों ने अधिसंख्य स्वर्ण मुद्राएँ जारी कीं. इसके साथ ताम्र व रजत की मुद्राएँ चलाईं जो सामान्य व्यापार में प्रयोग में आती थीं. इनका विवरण निम्नलिखित हैं-
कुजुल कडफिसेस की मुद्राएँ-कुजुल कडफिसेस ने केवल ताँबे के ही सिक्के चलाए जो दो प्रकार के हैं. एक प्रकार के सिक्के में कुजुल तथा हर्मियस दोनों का नाम संयुक्त रूप से मिलता है तथा द्वितीय प्रकार के सिक्के में केवल कुजुल का नाम ही मिलता है जो इस बात का सूचक है कि कुजुल पहले हर्मियस के अधीन था और बाद में स्वतन्त्र होने पर उसने केवल अपने नाम से सिक्के जारी किए.
विम कडफिसेस की मुद्राएँ- भारत में सर्वप्रथम स्वर्ण मुद्राओं को प्रचलित करने का श्रेय विम को ही दिया जाता है. स्वर्ण सिक्कों के साथ-साथ इसमें रजत एवं ताम्र निर्मित सिक्के भी चलवाए. इनका विवरण निम्नलिखित है-
स्वर्ण सिक्कों के अग्र भाग पर टोपी पहने राजा, दाहिने हाथ में वज्र तथा कंधे के ऊपर से अग्नि की लपटें निकलती दिखाई गई हैं. इसी के नीचे विम की उपाधि लिखी गई है. पृष्ठ भाग में त्रिशूलधारी शिव के साथ नंदी का चित्रण है. इस सिक्के का वजन 242 ग्रेन है. इसके साथ ही विम की एक और स्वर्ण मुद्रा प्राप्त हुई है, जिसका वजन मात्र 20 ग्रेन है और इसमें आयत के भीतर राजा का शीश एवं पृष्ठ भाग में त्रिशूल अंकित है.
1. रजत मुद्रा – विम कडफिसेस की मुद्राओं में चाँदी की एकमात्र मुद्रा प्राप्त हुई है, जो कि वर्तमान में ब्रिटिश संग्रहालय में है. इसमें विम को कोट, पैजामा और टोपी पहने हुए दिखाया गया है. उसके दाहिने हाथ में गदा तथा बाएँ हाथ में एक पात्र है. सामने वेदी और त्रिशूल अंकित है.
2. ताम्र मुद्राएँ – इस प्रकार की मुद्राओं के अग्र भाग में खड़ा हुआ राजा, बायीं ओर त्रिशूल तथा यूनानी में विक उपाधि तथा पृष्ठ भाग में त्रिशूल, नंदी व शिव की आकृति है. इस प्रकार के सिक्कों का भार 270 ग्रेन है.
कनिष्क की मुद्राएँ-कनिष्क के सिक्के काफी अधिक संख्या में उत्तर प्रदेश, बंगाल, बिहार, उड़ीसा एवं पश्चिमोत्तर प्रदेशों से प्राप्त हुए हैं. इनका वजन 124 ग्रेन के लगभग है. इनका विवरण निम्नलिखित है-
1. स्वर्ण सिक्के – स्वर्ण सिक्कों के अग्र भाग पर राजा की खड़ी आकृति है. वह लम्बे कोट, पायजामा एवं नुकीली टोपी पहने हुए है. उसके बाएँ हाथ में माला है तथा दाएँ हाथ से वह हवन कुण्ड में आहुति दे रहा है. ईरानी उपाधि के साथ यूनानी लिपि में ‘शाओ नानो शाओ कनिष्की कोशानो’ मुद्रा लेख अंकित है.
कनिष्क के स्वर्ण सिक्कों के पृष्ठ भाग पर विभिन्न देवी-देवताओं की आकृतियाँ उत्कीर्ण मिलती हैं जिनका नाम यूनानी भाषा में लिखा गया है, जैसे–मिइरो (सूर्य), मेओ (चन्द्र), आरलेग्नो, नाना, आरदोक्षो (देवी), आइसो (शिव), बोडो (बुद्ध) आदि.
2. ताम्र सिक्के – ये सिक्के गोलाकार हैं. इनका विवरण निम्नलिखित है–
ताम्र सिक्कों के अग्र भाग पर राजा कनिष्क की आकृति तथा मुद्रा लेख ‘बेसिलियस बेसिलियेन’ उत्कीर्ण है. यह यूनानी उपाधि है तथा इसका अर्थ ‘राजाओं का राजा’ है.
कनिष्क के ताम्र सिक्कों के पृष्ठ भाग पर यूनानी, ईरानी या भारतीय देवी-देवताओं के चित्र तथा यूनानी भाषा में उनका नाम उत्कीर्ण मिलता है.
3. कांस्य सिक्के – इतिहासकार गार्डनर ने कनिष्क के कांस्य सिक्कों का भी उल्लेख किया है, जिसके अग्र भाग पर राजा की खड़ी आकृति तथा यूनानी भाषा में उसकी उपाधि तथा पृष्ठ भाग पर किसी देवता की आकृति तथा यूनानी में उसका नाम अंकित मिलता है.
कनिष्क के सिक्कों पर उत्कीर्ण विभिन्न देवी-देवताओं के चित्रों से उसकी धार्मिक सहिष्णुता का परिचय मिलता है, वहीं उनके प्रसार से उसके राज्य विस्तार के विषय में सूचना मिलती है. लगता है कि कनिष्क के विशाल साम्राज्य में अनेक प्रकार की जातियाँ निवास करती थीं तथा कनिष्क ने सभी लोगों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए अपने सिक्कों पर उनके आराध्य देवी-देवताओं के चित्र उत्कीर्ण करवाए.
सातवाहन काल : शासन व्यवस्था
सातवाहन काल में शासक का स्वरूप राजतन्त्रात्मक था तथा प्रशासन का सर्वेसर्वा सम्राट् ही था. राजा अपनी उत्पत्ति के दैवी अधिकार में विश्वास करता था तथा ‘राजन’, ‘राजराज’, ‘महाराज’ तथा ‘स्वामिन्’ जैसी उपाधि धारण करता था.
यद्यपि राजाओं के नाम मातृ प्रधान हैं तथापि शासन में पुरुषों की ही प्रधानता थी. सामान्यतया राजा के बाद उसका बड़ा पुत्र ही उसका उत्तराधिकारी होता था, लेकिन अवयस्क होने पर उसका छोटा भाई शासक बनता था. इस काल में दो रानियों यथा नागानिका एवं गौतमी बलश्री ने भी शासन संचालन किया था.
प्रशासन में राजा की सहायता के लिए ‘अमात्य’ नामक अधिकारियों का एक वर्ग होता था. गौतमी पुत्र और उसके पुत्र पुलुमावी ने ‘महासेनापति’ नामक एक अधिकारी की नियुक्ति की थी, परन्तु उसके कार्यों के विषय में जानकारी नहीं मिलती है. सम्भवतः कुछ सेनापति राज्य के बाहरी प्रदेशों की देखरेख करते थे तथा कुछ केन्द्रीय विभागों की. सातवाहन प्रशासन में सामन्त व्यवस्था विकसित थी सामन्त वंशानुगत होते थे तथा इनके अधिकार आमात्यों से अधिक थे.
प्रशासन की सुविधा के लिए साम्राज्य को अनेक विभागों में बाँटा गया था. जिन्हें ‘आहार’ कहा जाता था तथा आहार ‘निगमों’ में बँटे होते थे जिनके अन्दर अनेक गाँव सम्मिलित थे प्रत्येक आहार का प्रशासन एक आमात्य के अधीन था, जो आमात्य राजधानी में रहकर राजा की सहायता करते थे उन्हें ‘राजामात्य’ कहा जाता था. सातवाहन लेखों में कुछ अन्य पदाधिकारियों के नाम इस प्रकार मिलते हैं यथा; भण्डागारिक जो कोषाध्यक्ष था, रज्जुक राजस्व विभाग का प्रमुख था.
पनियघरक– नगरों में जल आपूर्ति का प्रबन्ध करने वाला.
कर्मान्तिक– भवनों के निर्माण की देखरेख करने वाला तथा सेनापति आदि.
आहार के नीचे ग्राम होते थे जिनका प्रशासन ‘ग्रामिक’ द्वारा चलाया जाता था. हाल की ‘गाथासप्तसती’ के अनुसार ग्रामिक के अधीन पाँच से सात तक गाँव होते थे. ग्रामणी से छोटा ‘गहपति’ होता था, जो सम्भवतः कुछ किसान परिवारों का मुखिया होता था.
सातवाहन युग में ‘निगम सभा’ द्वारा नगरों का प्रशासन चलाया जाता था. लेखों में सोपारा, भड़ौच, कल्याण, पैठान, गोवर्धन, धनकटक आदि नगरों के नाम मिलते हैं इनमें कुछ प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द्र थे. इस निगम सभा में स्थानीय सभा के कर्मचारी थे तथा इस काल में इनके माध्यम से नगरों तथा गाँवों में पर्याप्त स्वतन्त्रता थी.
सातवाहन शासकों ने ब्राह्मणों एवं श्रमणों को भूमि दान देने की प्रथा प्रारम्भ की. इस प्रकार की भूमि सभी प्रकार के करों से मुक्त थी और आगे चलकर यही सामन्तवाद के रूप में बदली.
इस प्रकार स्पष्ट है कि सातवाहन काल में शासन प्रजा के कल्याण के सिद्धान्त पर आधारित था. सातवाहन नरेश प्रजावत्सल थे तथा उनका शासन दया और उदारता से परिपूर्ण था.
सातवाहन काल : धार्मिक स्थिति
सातवाहन काल में वैदिक धर्म एवं बौद्ध धर्म दोनों की अभूतपूर्व उन्नति हुई. सातवाहन नरेश वैदिक धर्म के अनुयायी थे. सातकर्णी प्रथम द्वारा अनेक वैदिक यज्ञों का आयोजन किया गया था, जैसे अश्वमेध, राजसूय आदि. इस अवसर पर उसने गौ, हाथी, भूमि आदि की दक्षिणा प्रदान की. उसने अपने पुत्र का नाम वेदश्री रखा. उसने अपने वैदिक देवी-देवताओं की पूजा अर्चना की.
हाल की गाथासप्तसती का प्रारम्भ शिव पूजा से किया गया है तथा गौरी, इन्द्र, कृष्ण आदि की पूजा का इसमें उल्लेख मिलता है. नासिक प्रशस्ति में गौतमी पुत्र सातकर्णी को ‘वेदों का आश्रयदाता’ एवं ‘अद्वितीय ब्राह्मण’ कहा गया है. इसी से स्पष्ट है कि इस काल में ब्राह्मण धर्म अत्यधिक उन्नति कर रहा था. इस समय में विष्णु एवं शिव की अत्यधिक मान्यता थी.
सातवाहन नरेश स्वयं ब्राह्मण होते हुए भी अन्य धर्मों के प्रति विशेष रूप से सहिष्णु थे. उन्होंने बौद्ध धर्म को संरक्षण एवं प्रोत्साहन दिया. इस काल में दक्षिण भारत में अनेक गुहाओं का निर्माण किया गया, जोकि सभी बौद्ध धर्म से सम्बन्धित हैं. अजन्ता, नासिक, कार्ले आदि के गुहा विहार एवं चैत्य आदि इसी काल में बने.
इस काल में स्तूप, बोधिवृक्ष, बुद्ध के चरण चिह्नों, त्रिशूल, धर्म चक्र बुद्ध तथा अन्य बड़े संतों के धातु अवशेषों की पूजा की जाती थी. इस समय बौद्ध धर्म तीन शाखाओं में बँट गया था; यथा मदायनीय, धम्मोतरीय, महासंघिक इन सभी में आपसी कलह एवं विद्वेष की भावना नहीं थी और कभी-कभी एक ही विहार में विभिन्न सम्प्रदायों के भिक्षु निवास करते थे.
इस समय यह उल्लेखनीय है कि इस समय दक्षिण भारत में जैन धर्म का विशेष प्रचार-प्रसार नहीं था.
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि सातवाहन काल में धार्मिक सहिष्णुता विद्यमान थी एवं बौद्ध तथा वैदिक (ब्राह्मण) धर्म उन्नति के मार्ग पर अग्रसर थे.
सातवाहन काल : आर्थिक स्थिति
दक्षिण भारत के इतिहास में सातवाहन काल अपनी समृद्धि एवं सम्पन्नता के लिए प्रसिद्ध था. इस युग में भूमि का अत्यधिक महत्व था. राजा के पास अपनी स्वयं की भूमि होती थी जिसमें से वह भूमिदान एवं ग्राम दान दिया करता था. इसी प्रकार किसानों के पास भी स्वयं की अपनी भूमि होती थी. दान देने के लिए राजा द्वारा अक्सर ऐसी भूमि जिसके मालिक किसान थे. राजा खरीदता था. राजा कृषकों पर उपज का छठा भाग कर के रूप में लगाता था.
सातवाहन काल में कृषि के साथ-साथ व्यापार में अत्यधिक उन्नति हुई. सातवाहन काल के व्यापारी व्यावसायिक संघों से जुड़े हुए थे जिन्हें ‘श्रेणी’ कहा जाता था. इसका प्रधान ‘श्रेष्ठिन’ कहलाता था व इसके कार्यालय को ‘निगम सभा’. प्रत्येक श्रेणी के अलग-अलग नियम होते थे जिन्हें ‘श्रेणी धर्म’ कहा जाता था. श्रेणियों को राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त थी. वे बैंकों का भी कार्य करते थे. नासिक अभिलेख के अनुसार गोवर्धन में बुनकरों की एक श्रेणी के पास 2000 कर्षापणों की एक अक्षय निधि 1 प्रतिशत मासिक ब्याज की दर पर जमा की गई थी. श्रेणियाँ अपने नाम से दान भी देती थीं. व्यापार व्यवसाय में चाँदी एवं ताँबे के सिक्कों का प्रयोग किया जाता था. इसके अतिरिक्त दैनिक लेन-देन के लिए सीसे के सिक्के भी प्रचलन में थे.
सातवाहन काल में आन्तरिक एवं बाह्य दोनों ही व्यापार उन्नति पर थे. पैठान, तगर, जुन्तार, करहाटक, नासिक, बैजयन्ती, धान्यकटक, विजयपुर आदि अनेक व्यापारिक नगर थे जो चौड़ी सड़कों द्वारा आपस में जुड़े थे. सातवाहन साम्राज्य के पूर्वी एवं पश्चिमी किनारों पर अनेक प्रसिद्ध बन्दरगाह थे. टॉलमी गोदावरी एवं कृष्णा नदियों के डेल्टा के मध्य स्थित अनेक बन्दरगाहों का उल्लेख करता है तथा बताता है कि इन स्थानों से मलय द्वीप तथा पूर्वी द्वीपों के लिए जहाज जाते थे. पूर्वी दकन के प्रसिद्ध बन्दरगाह कन्टकोस्सील, कोंदूर, अलोसिंगे आदि थे. पश्चिमी दकन के प्रसिद्ध बन्दरगाह बैरीगाजा, सोपारा, कल्याण आदि थे. यहाँ से पश्चिमी देशों के लिए जहाज आते जाते थे. भारत का व्यापार, मिस्र, रोम, चीन एवं पूर्वी द्वीपसमूहों आदि से मुख्य रूप से होता था. सातवाहन नरेशों के सिक्कों पर ‘दो पतवारों’ वाले जहाज का चित्र स्पष्ट करता है कि इस काल में समुद्री व्यापार अत्यधिक विकसित था.
भारत से निर्यात होने वाली सामग्री में मुख्यतः विलासिता की वस्तुएँ, रेशमी कपड़े, मलमल, चीनी, इलायची, लोंग, हीरे, माणक एवं मोती आदि थे, जबकि आयात होने वाली वस्तुओं में रोमन मदिरा, ताँबा, राँगा, सीसा, दवाएँ आदि प्रमुख थे. स्पष्ट है कि यह व्यापार भारत के लिए लाभकारी था और इसी व्यापार के फलस्वरूप सातवाहन राज्य आर्थिक दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध बन गया.
सातवाहन काल : भाषा एवं साहित्य
सातवाहन काल में प्राकृत भाषा दक्षिणी भारत में बोली जाती थी और यही भाषा सातवाहन साम्राज्य की राष्ट्रभाषा थी. सातवाहन नरेशों के अभिलेख इसी भाषा में लिखे गए हैं.
सातवाहन नरेश स्वयं विद्वान्, विद्याप्रेमी एवं विद्वानों के आश्रयदाता थे. ‘गाथासप्तशती’ नामक प्राकृत भाषा में रचित श्रृंगार रस प्रधान नीति काव्य जिसकी रचना सातवाहन नरेश हाल द्वारा की गई थी उसे एक महान् कवि होने का अकाट्य प्रमाण प्रस्तुत करती है. इसमें कुल 700 आर्या छन्दों का संग्रह है जिसका प्रत्येक पद्य अपने आप में पूर्ण तथा स्वतन्त्र है. इस प्रकार इसके पद्य मुक्तक काव्य के प्राचीनतम उदाहरण हैं.
राजा हाल के दरबार में अनेक विद्वान् निवास करते थे. गुणाढ्य एवं सर्ववर्मन जैसे विद्वान् उसी के आश्रय में थे. गुणाढ्य ने ‘वृहत्कथा’ नामक ग्रंथ की रचना की. यह ‘पैशाची प्राकृत’ में लिखा गया था जिसमें लगभग एक लाख पद्यों का संग्रह था. इस ग्रंथ में उस काल की प्रचलित अनेक लोक कथाओं का संग्रह किया गया था. अनेक अद्भुत यात्रा विवरणों एवं प्रणय प्रसंगों का विवरण इसमें मिलता है. सर्ववर्मन ने ‘कातंत्र’ नामक संस्कृत व्याकरण ग्रंथ की रचना की. वृहत्कथा के अनुसार राजा हाल को सुगमता से संस्कृत सिखाने के उद्देश्य से इस ग्रंथ की रचना की गई थी.
इस काल में दक्षिण में संस्कृत भाषा का भी व्यापक- प्रचार प्रसार था. वृहत्कथा के अनुसार हाल की रानी मलयवती संस्कृत भाषा की विदुषी थी. कन्हेरी अभिलेख में सातवाहन रानी संस्कृत भाषा का प्रयोग करती थी.
इस प्रकार सातवाहन काल में दक्षिण भारत में संस्कृत एवं प्राकृत दोनों भाषाओं और साहित्य का समान रूप से विकास हुआ.
सातवाहन कला एवं स्थापत्य : स्तूपों के सन्दर्भ में
सातवाहन काल में हमें जो कला व स्थापत्य के अवशेष आज प्राप्त हैं वे सभी बौद्ध धर्म से सम्बन्धित हैं. इस काल में स्तूप, चैत्य एवं विहारों का निर्माण अधिक कराया गया तथा प्राचीन स्मारकों की मरम्मत कराई गई. इस काल के अवशेष हमें अमरावती, नागार्जुनकोण्डा, भट्टि प्रोलु, पेउगंज, गोली आदि स्थानों से प्राप्त होते हैं. इसके अतिरिक्त, भाजा, कार्ले, कोण्डाने आदि स्थलों से अनेक चैत्यों गृहों के अवशेष मिलते हैं. स्तूपों, चैत्यों एवं विहारों का विवरण निम्नलिखित है –
(1) स्तूप- दुर्भाग्यवश सातवाहन काल में बने स्तूपों में सभी स्तूप नग्न अवस्था में हैं. सातवाहन काल में अनेक स्तूपों का निर्माण हुआ जिनमें गुन्टूर जिले में स्थित अमरावती का स्तूप सर्वाधिक प्रसिद्ध था. वर्तमान में यह नष्ट हो गया तथा इसके अवशेष कोलकात्ता, चेन्नई एवं लन्दन के संग्रहालय में सुरक्षित हैं. अमरावती स्तूप की वेदिका एवं गुम्बद दोनों का निर्माण स्वेत संगमरमर से करवाया गया था. गुम्बद के शीर्ष पर एक मंजूषा बनी थी जिस पर लोहे का छत्र लगा था. स्तम्भों के ऊपर उष्णीश (Coping stone) लगा था तथा दो-दो स्तम्भों के मध्य में तीन-तीन सूचियाँ (Cross bars) लगाई गई थीं. सभी के ऊपर कलापूर्ण नक्काशी की गई थी. वेदिका के चारों ओर 26 फुट चौड़ा एक-एक तोरण द्वार बना था.
उल्लेखनीय है कि इस स्तूप का निर्माण 200 ई. पू. में करवाया गया था तथा वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावी के समय में इसका जीर्णोद्धार करवाया गया. सम्भवतः इसी के समय इस स्तूप के चारों ओर पाषाण वेदिका ( Stone Railing) बना दी गई. वेदिका तथा स्तम्भों पर उत्कीर्ण चित्र सातवाहन युग की कला के चरमोत्कर्ष को व्यक्त करते हैं.
अमरावती से लगभग 95 किमी दूर उत्तर में नागार्जुन पहाड़ी पर बना ‘नागार्जुन कोण्ड स्तूप’ यहाँ बने अनेक स्तूपों में सर्वाधिक उल्लेखनीय है. यहाँ का सबसे बड़ा स्तूप जो महास्तूप है गोलाकार है. इसकी ऊँचाई 80 फुट एवं व्यास 106 फुट है. भूतल पर प्रदक्षिणा पथ 13 फुट चौड़ा है. इस स्तूप की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता ‘आयतों’ का इसमें निर्माण है. आयत एक विशेष प्रकार का चबूतरा होता है. स्तूप के आधार को आयताकार रूप में बाहर की ओर चारों दिशाओं में आगे बढ़ाकर बनाया जाता था. इस स्तूप में तोरण द्वारों के अभाव के अतिरिक्त अन्य सभी विशेषताएँ अमरावती स्तूप के समान ही हैं.
(2) चैत्यगृह एवं विहार – इस काल में पश्चिमी भारत में पर्वत गुफाओं को काटकर चैत्यगृह एवं विहारों का निर्माण किया गया. चैत्यगृह बौद्ध धर्म में वस्तुतः प्रार्थना भवन ( गुहा मन्दिर) होते हैं तथा विहार भिक्षुओं के निवास स्थान सातवाहन काल में बने चैत्यों में भाजा, जुन्नार, अजन्ता, बेडस, कार्ले, कन्हेरी आदि के चैत्य अत्यधिक प्रसिद्ध हैं. इनमें चैत्य गृहों के साथ-साथ गुहा विहार भी बनवाए गए हैं.
प्राचीन भारत में सर्वाधिक सुन्दर एवं भव्य स्मारकों में कार्ले का चैत्य प्रमुख है. यह मुख्य द्वार से पीछे के द्वार तक 24:3″ x 25′ x 7″ लम्बा एवं चौड़ा है. इसकी ऊँचाई 45 फुट है. गुफा के प्रवेश द्वार पर एक विशाल स्तम्भ बना है तथा इसके शीर्ष पर चार सिंह विराजमान हैं. मण्डप में भीतर जाने के लिए तीन प्रवेश द्वार हैं. इसमें लिखे लेख के अनुसार इसका निर्माण ‘भूतपाल’ नामक श्रेष्ठि ने करवाया था. भाजा के गुहा चैत्य में 27 स्तम्भ लगे हुए हैं तथा कन्हेरी का चैत्य गृह कार्ले के ही अनुकरण पर बना है. इसकी गुफा के बाहर बुद्ध की अनेक मूर्तियों का निर्माण किया गया है.
उल्लेखनीय है कि सभी गुहा विहार एक मंजिले होते थे तथा इनमें एक बड़ा चौकोर मण्डप होता था. उनमें एक प्रवेश द्वार तथा तीन ओर गुफा के कमरे बने होते थे जिनमें भिक्षु निवास करते थे.
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि सातवाहन काल में कला के प्रत्येक क्षेत्र में अत्यधिक उन्नति हुई.
शुंग वंश
⇒ शुंग राजाओं के कार्यों का उल्लेख
मौर्य वंश के अन्तिम शासक वृहद्रथ की हत्या उसके सेनापति द्वारा 185 ई. पूर्व कर देने के बाद एक नए राजवंश ‘शुंग वंश’ की स्थापना हुई. इस वंश का संस्थापक पुष्यमित्र शुंग था. इस घटना के विषय में हमें बाणभट्ट के हर्षचरित्र से जानकारी मिलती है जिसके विषय में उसने लिखा है कि “अनार्य सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने अपने स्वामी बृहद्रथ मौर्य को सेनाओं का निरीक्षण करते समय कुचल डाला, क्योंकि वह राज्य शपथ निभाने में असमर्थ था.’
इसी से यह स्पष्ट हो जाता है कि वृहद्रथ अपनी प्रजा की रक्षा करने में असमर्थ था. इसी समय तक ानी सेनाएँ उसकी राजधानी पाटलिपुत्र तक पहुँच गयी थीं और यही कारण पुष्यमित्र को शायद सत्ता प्राप्ति के लिए मददगार बना.
पुष्यमित्र शुंग ने 185 ई. पू. से 149 ई.पू. तक अर्थात् 36 वर्षों तक शासन किया. इस काल में वह दो बार यूनानी सैनिकों से लड़ा. गार्गी संहिता में उसके द्वारा लड़े गए युद्धों का बड़ा ही भयंकर विवरण मिलता है. प्रथम यवन (यूनानी) युद्ध का नेतृत्व ‘डेमेट्रियस’ ने किया था जबकि दूसरे युद्ध का नेतृत्व पुष्यमित्र शुंग के पौत्र वसुमित्र ने किया था, इस युद्ध में यूनानी सेनापति मेनाण्डर था जिसे वसुमित्र ने सिन्धु नदी के तट पर पराजित कर दिया था.
कालिदास रचित नाटक ‘मालविकाग्निमित्रम्’ से पता चलता है कि पुष्यमित्र शुंग ने एक अन्य युद्ध विदर्भ से भी लड़ा. यह युद्ध उसके एवं विदर्भ के गवर्नर यज्ञसेन के मध्य हुआ जिसमें यज्ञसेन की पराजय हुई थी. इस युद्ध में शुंग सेना का नेतृत्व वीरसेन ने किया. बाद में आगे चलकर विदर्भ को वीरसेन एवं पुष्यमित्र के पुत्र अग्निमित्र के मध्य बाँट दिया गया और वरद नदी को दोनों राज्यों की सीमा बना दी गई.
अयोध्या अभिलेख से पता चलता है कि पुष्यमित्र शुंग ने अपने जीवन काल में दो अश्वमेध यज्ञ किए थे. इनके विषय में विस्तृत जानकारी हमें ‘मालविकाग्निमित्र’ नाटक द्वारा भी मिलती है जिसके अनुसार, पतंजलि इन यज्ञों के पुरोहित थे. इन यज्ञों द्वारा जो घोड़े छोड़े गए थे उन्हें यवनों ने पकड़ लिया जिसके कारण शुंगों एवं यवनों के मध्य भयंकर युद्ध लड़े गए तथा यवन बुरी तरह से परास्त हुए.
⇒ क्या पुष्यमित्र शुंग बौद्ध धर्म विरोधी था ?
अनेक इतिहासकारों ने पुष्यमित्र शुंग को बौद्ध धर्म का विरोधी सिद्ध करने का प्रयास किया है. इन इतिहासकारों में हम प्रमुख रूप से स्मिथ, मजूमदार, सुधाकर, चट्टोपाध्याय आदि के नाम गिना सकते हैं. ये लोग पुष्यमित्र शुंग को ब्राह्मण धर्म का पोषक एवं बौद्ध धर्म का घोर शत्रु मानते हैं. इन लोगों के अनुसार पुष्यमित्र शुंग ने अशोक द्वारा बनवाए गए 84 हजार स्तूपों को नष्ट कर दिया. उसने जब पाटलिपुत्र स्थित कुम्राहार विहार को तीन बार नष्ट करने का प्रयास किया, परन्तु भयंकर आकाशवाणी होने के कारण वह इसे नष्ट नहीं कर सका. अनेक इतिहासकारों ने लिखा है कि पुष्यमित्र एक बड़ी सेना लेकर स्तूपों एवं विहारों को नष्ट करता हुआ तथा भिक्षुओं को मौत के घाट उतारता हुआ शाकल तक पहुँच गया.
इन इतिहासकारों का समर्थन उस समय के ग्रंथ दिव्यावदान, आर्यमंजूश्री मूलकल्प आदि ग्रंथ भी करते हैं.
परन्तु इन इतिहासकारों के अनेक तर्कों के बावजूद भी रायचौधरी, त्रिपाठी, राजबली पाण्डेय जैसे इतिहासकारों का मानना है कि वह बौद्ध धर्म का विरोधी नहीं था. इन इतिहासकारों का कहना है कि यदि वह बौद्ध धर्म का विरोधी होता तो उसके काल में बौद्ध स्मारकों का निर्माण नहीं होता. इसी काल में भरहुत के स्तूप एवं वेदिकाओं का निर्माण कार्य पूरा हुआ. इन पर लिखा गया ‘सुगनभरजे’ यह स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है कि इनका निर्माण शुंग काल में किया गया था.
जगन्नाथ एवं टार्न जैसे इतिहासकारों ने शुंगों का बौद्ध विरोधी होना धार्मिक कम राजनैतिक अधिक माना है. इसका प्रमुख कारण यह है कि मौर्य सम्राट बौद्ध धर्म के पोषक थे जिनके अहिंसा के सिद्धान्त ने साम्राज्य को कमजोर बना दिया था. अतः स्वाभाविक रूप से पुष्यमित्र द्वारा इस धर्म से जुड़ी बातों का विरोध किया गया और यही मत उचित प्रतीत होता है. पुष्यमित्र शुंग के काल में भाजा का विहार और चैत्य एवं चट्टान को काटकर बनाए गए स्तूप, अजन्ता में चैत्य कक्ष नं. 9, भरहूत में वृक्ष देवता आदि का निर्माण उसकी सहिष्णुता का परिचायक है.
पुष्यमित्र शुंग की मृत्यु के बाद 148 ई. पू. उसका पुत्र अग्निमित्र शासक बना जिसने 140 ई. पू. तक शासन किया उसके बाद वसु ज्येष्ठ वसुमित्र, भद्रक, देवभूति आदि शासक बने. ये शासक अत्यधिक कमजोर सिद्ध हुए जिसके कारण 73 ई. पू. तक यह वंश समाप्त हो गया.
कण्व वंश
शुंग वंश के अन्तिम शासक देवभूति की हत्या कर उसके अमात्य कण्व वंशी वासुदेव ने ब्राह्मण ‘राजवंश कण्व की स्थापना की. इस वंश में भूमिमित्र, नारायण एवं सुशर्मा कण्व आदि राजाओं ने 43 वर्षों तक शासन किया. इन शासकों की क्या उपलब्धियाँ रही थीं. इनके विषय में हमें बहुत ही कम जानकारी प्राप्त होती है. पुराणों के अनुसार आंध्रभृत्यों द्वारा इस वंश के शासन का अन्त कर दिया गया.
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