शारीरिक वृद्धि चक्र के प्रभाव एवं शारीरिक विकास को प्रभावित करनेवाले तत्त्वों की विवेचना करें।

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प्रश्न – शारीरिक वृद्धि चक्र के प्रभाव एवं शारीरिक विकास को प्रभावित करनेवाले तत्त्वों की विवेचना करें।
उत्तर – शारीरिक वृद्धि चक्रों के कुछ प्रभाव होते हैं जिनकी व्याख्या नीचे की गई है :
1. समायोजन सम्बन्धी कठिनाइयाँ (Adjustmental difficulties) – बच्चे के शारीरिक विकास की दर हमेशा एक ही समान नहीं होती। जब विकास की गति मंद होती तब तो बच्चा उस अपने वातावरण से स्वयं को समायोजित कर लेता है। किन्तु जब बच्चे के विकास की गति तीव्र होती है तो वह तुरंत अपने वातावरण से समायोजित नहीं हो पाता। ऐसी स्थिति में वह अनेकानेक संवेगात्मक तनावों से घिर जाता है ।
2. शक्ति-स्तर (Energy level) — हम पहले ही पढ़ चुके हैं कि शारीरिक विकास की प्रक्रिया में शक्ति का व्यय होता है। अतः यह सामान्य बात है कि तीव्र गति से वृद्धि होन पर अधिक शक्ति का व्यय होगा और यदि वृद्धि की दर कम होगी तो कम शक्ति की जरूरत होगी। विकास की जिस अवस्था में वृद्धि की दर तीव्र होती है, शक्ति की खपत भी ज्यादा होती है। ऐसे में उसे अधिक मात्रा में खाना, सोना की जरूरत होती है।
3. आहार सम्बन्धी आवश्यकताएँ (Nutritional needs) – बच्चों की विवृद्धि को प्रभावित करने वाले कारकों में दो कारण सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण हैं। प्रथम उसका वंशानुक्रम एवं दूसरा उसका पोषण। वंशानुक्रम तो बच्चा अपने माता-पिता से पाता है जिसमें परिवर्तन नहीं किया जा सकता। किन्तु पोषण यदि अच्छा हो जो बच्चों का सर्वोत्तम विकास सम्भव है। जिस अविध में विवृद्धि की गति तीव्र होती है, पोषण की जरूरत भी बढ़ जाती है। यदि ऐसे में पर्याप्त पौष्टिक भोजन बच्चों को न दिया गया तो शारीरिक विकास की गति मंद पड़ जाती है। शरीर के कई अंगों का विकास अवरूद्ध हो जाता है। न सिर्फ शारीरिक बल्कि मानसिक स्वास्थ्य भी इससे प्रभावित होता है। कई बार मानसिक स्वास्थ्य इतना अधिक प्रभावित होता है कि उससे सामाजिक समायोजन भी बिगड़ जाता है।
4. होमियोस्टैसिस बनाए रखना (Maintenance of Homeostasis) – होमियोस्टैसिस का अर्थ है, “वह क्षतिपूत्ति संबंधी शारीरिक समायोजन जो बाह्य वातावरण में होने वाले परिवर्तनों की पूर्ति के लिए होते हैं। ” (Compensatory bodily adjustments to meet changes in the external environment.) हम पहले पढ़ चुके हैं कि शारीरिक विवृद्धि की गति बदलती रहती है। जिस प्रकार की गति होती है, उसी प्रकार से शरीर स्वयं को समायोजित करना सीख लेता है। सामान्य वृद्धि गति में समायोजित होना तो शरीर के लिए सम्भव है किन्तु जब वृद्धि की दर तीव्र होती है तो ऐसे में शरीर के लिए सामंजस्य स्थापित करना मुश्किल होता है। इससे बच्चे में चिड़चिड़ापन एवं थकान उत्पन्न होती है।
5. अकुशलता (Awkwardness) – बालक में जब वृद्धि की दर कम रहती है तो उम्र के अनुरूप वह कार्यों में कुशलता प्राप्त कर पाता है। किन्तु जब विवृद्धि की दर अधिक हो जाती है तो वह होने वाले परिवर्तनों से उतनी जल्दी सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाता। शारीरिक विकास को प्रभावित करने वाले तत्त्व (Factors affecting Physical Growth)
1. परिवार ( Family) — बालक के विकास क्रम पर परिवार का भी प्रभाव पड़ता है। थॉमसन, क्रॉमगन, रेनाल्ड आदि विद्वानों के विचारानुसार बालकों का कद, हड्डी की वृद्धि, लैंगिक परिपक्वता, दाँतों का निकलना तथा खराब होना आदि बातें भिन्न-भिन्न परिवारों में एक जैसी पाई जाती हैं।
2. लैंगिक भिन्नता (Sex differences)–लैंगिक भिन्नता बालकों के विकासक्रम पर प्रभाव डालती है। किसी उम्र में लड़कों का विकास तीव्र गति से होता है, तो कभी लड़कियों की। उम्र वृद्धि के साथ-साथ लड़के-लड़कियों के विकास क्रम की अस्थिरता (variability) बढ़ती है।
3. शरीर की लम्बाई (Length of the body) – बालक-बालिकाओं के शरीर की लम्बाई या ऊँचाई का भी उनके विकास क्रम से घनिष्ठ सम्बन्ध है। नारवल तथा क्रॉमगन के अनुसार बड़े बच्चे की अपेक्षा छोटा बच्चा अधिक अवधि तक बढ़ता रहता है।
4. संवेगात्मक तनाव (Enotional tension)–विडोसन के विचारानुसार संवेगात्मक तनाव विकास को अवरूद्ध कर देते हैं। किन्तु इसका प्रभाव कद की अपेक्षा वजन पर अधिक पड़ता है।
5. ऋतु (Season)— ऋतु विशेष का विकासक्रम से घनिष्ट संबंध है। जुलाई से दिसंबर तक बच्चों के वजन बढ़ते हैं। सितम्बर से दिसम्बर तक बालक का वजन बहुत तेज गति से बढ़ता है। फरवरी से जून की अपेक्षा इस काल में वजन चौगुना बढ़ जाता है। पुनः मई से जुलाई के मध्य वजन में बढ़ने की दर अत्यंत मन्द होती है। इसके विपरीत अप्रैल से अगस्त तक बालक के कद में वृद्धि होती है तथा अगस्त से नवम्बर तक कद के बढ़ने की दर अत्यंत मन्द हो जाती है।
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