शिक्षा के सार्वजनीकरण पर प्रकाश डालें ।

प्रश्न – शिक्षा के सार्वजनीकरण पर प्रकाश डालें ।
उत्तर – शिक्षा मानव मुक्ति का साधन है । कुछ विद्वान इसे विवेक की तीसरी आँख भी कहते हैं । लेकिन आजादी के दशकों बाद भी शिक्षा आमलोगों की पहुँच से बाहर है । सभी के लिए शिक्षा और ‘सबको मिले शिक्षा’ जैसा नारा राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दिया जा रहा है ।
अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा आयोग (1996) ने भी स्वीकार किया कि मनुष्य के वैयक्तिक एवं सामाजिक विकास में शिक्षा एक आधारभूत भूमिका निभाती है। आयोग ने इक्कीसवीं सदी की चुनौतियों का सामना करने के लिए आजीवन अधिगम को आवश्यक बताया है । साथ ही शिक्षा के चारों स्तम्भों-‘लर्निंग टू लर्न’ ‘लर्निंग टू डू’, ‘लर्निंग टू लिव टूगेदर’ और ‘लर्निंग टू बी’ को छिपा हुआ खजाना बताया जिसके बगैर समाज की कोई प्रतिभा प्रभावशाली नहीं हो सकती है ।
वैसे भी ‘सभी के लिए शिक्षा’ एक विश्वव्यापी मसला रहा है। मानवाधिकार घोषणा पत्र (1948) में कहा गया कि सभी को शिक्षा पाने का अधिकार है । लेकिन इसके पाँच दशक बाद भी दुनिया के करोड़ों बच्चों और वयस्कों को यह अधिकार मयस्सर नहीं हुआ है । तत्पश्चात् मार्च 1990 में थाईलैंड के जॉमटीन शहर में सभी के लिए शिक्षा’ विषय विश्व सम्मेलन में भाग ले रहे 155 देशों के प्रतिनिधि एवं करीब 150 से अधिक सरकारी एवं गैर-सरकारी संगठनों के प्रतिनिधियों ने वर्ष 2000 तक सभी बच्चों को प्राथमिक शिक्षा मुहैया कराने एवं उनके बीच की निरक्षरता को कम करने की दिशा में ठोस कदम उठाने पर सहमति जाहिर की है। इस सम्मेलन ने बुनियादी शिक्षा के सार्वजनीकरण और निरक्षरता उन्मूलन को गति प्रदान की है। कालांतर में इस लक्ष्य को निर्देशित करने, कार्य समन्वय, देख-रेख एवं योजना की सफलता के मूल्यांकन के लिए यूनेस्को, यूनिसेफ, यू.एन.डी.पी., विश्व बैंक एव यूनेपा के सहयोग से एक फोरम का गठन किया गया। लेकिन वर्ष 2000 के अंत तक यह योजना अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सका।
वर्ष 1993 में यूनेस्को ने ‘सभी के लिए शिक्षा’ विषयक एक शिखर सम्मेलन का आयोजन नई दिल्ली में किया । इसमें बंग्लादेश, ब्राजील, चीन, मिस्र, भारत, इंडोनेशिया, नाईजीरिया, मेक्सिको एवं पाकिस्तान सहित कुल नौ देशों ने भाग लिया। दिल्ली घोषणा के जरिये यह तय किया गया वर्ष 2000 तक निम्नलिखित लक्ष्य को हासिल कर लिया जाए ।
(i) प्रत्येक बच्चे को स्कूल पहुँचाना । (ii) युवाओं और वयस्कों तक बुनियादी शिक्षा पहुँचाना । (iii) बुनियादी शिक्षा सुलभता के मार्ग की विषमता दूर करना । (iv) बुनियादी शिक्षा की गुणवत्ता सुधारना । (v) मानव विकास को प्राथमिकता देना । (vi) प्राथमिक शिक्षा का सार्वजनीकरण । (vii) 15-35 वर्ष आयुवर्ग के लोगों के बीच निरक्षरता दूर करना । (viii) महिलाओं के सशक्तिकरण का अवसर प्रदान करना ।
भारत में भी सरकारी और गैर-सरकारी स्तर पर शिक्षा के सार्वजनीकरण की दिशा में अनेक प्रभावकारी प्रयास वर्षों से जारी है।
स्वतंत्रता आंदोलन की प्रेरणा से भारतीय संविधान (26 नवम्बर, 1949 ) की रचना हुई और शिक्षा को मानव की बुनियादी जरूरत समझी गई। इसलिए आम जन की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार और बदलाव के लिए शिक्षा को भी एक अहम पहलू माना गया । अनुच्छेद 29 (1) में कहा गया कि- “कोई भी नागरिक धर्म, मूल, जाति और भाषायी आधार पर राज्य निधि से सहायता प्राप्त शैक्षिक संस्थानों में नामांकन से वंचित नहीं हो सकता । “
इस तरह 1921 से 1976 तक शिक्षा राज्य सूची का अंग रहा । लेकिन 42वें संविधान • संशोधन के जरिए यह समवर्ती सूची में स्थानांतरित कर दिया गया । मूल भारतीय संविधान के भाग 4 ने ‘राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्व’ के अंतर्गत अनुच्छेद 45 में सभी बालकों के लिए नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का उपबंध किया गया है । इस अनुच्छेद में कहा गया कि “राज्य इस संविधान के प्रारंभ से दस वर्ष की अवधि के भीतर सभी बालकों को चौदह वर्ष की आयु पूरा करने तक निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने के लिए प्रयास करेगा । “
यानि प्राथमिक शिक्षा का सार्वजनीकरण के मसले को वर्ष 1950 से ही एक लक्ष्य के रूप में स्वीकार किया गया । परंतु वर्तमान 86 वें संविधान संशोधन (2002) के माध्यम से इस भावना को मौलिक अधिकार का दर्जा देने के लिए अनुच्छेद 21 के साथ 21 (क) जोड़ा गया है | अनुच्छेद 21 (क) में कहा गया है कि “राज्य कानून निर्धारित पद्धति से 6 से 14 वर्ष के सभी बच्चों को निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा प्रदान करेगा ।”
संविधान संशोधन के जरिए विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को भी शिक्षा निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा हासिल करने का मौका मिलेगा। ऐसे बच्चों को शामिल किए बगैर शिक्षा ¨का सार्जनीकरण बेईमानी होगा। दूसरी ओर संविधान के अनुच्छेद 51 (क) में खंड (जे) के बाद (के) जोड़ा गया है । इसमें कहा गया है कि बच्चों को 6-14 वर्ष की आयु के बीच शिक्षा उपलब्ध कराना माता-पिता और अभिभावक का मूल कर्त्तव्य है। हालाँकि ऐसा न करने वाले माता-पिता या अभिभावकों पर किसी प्रकार के दंड का प्रावधान नहीं किया गया है। फिर भी संविधान के अनुच्छेद 51 (क) में खंड (जे) के बाद (के) जोड़े जाने, यानि
बच्चे के माता-पिता या अभिभावक पर शिक्षा के अवसर प्रदान करने की संवैधानिक जिम्मेवारी तय कर दिये जाने के बाद अब बच्चों को स्कूल नहीं भेजे जाने की विफलता के मुख्य कारक के रूप में माता-पिता या अभिभावक को चिह्नित होने का भय है ।
इससे पहले भी वर्ष 1993 में यूनीकृष्णन बनाम आंध्र प्रदेश राज्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया था कि शिक्षा पाने का अधिकार अनुच्छेद 21 के अधीन एक मूल अधिकार है और सभी को शिक्षा उपलब्ध कराना राज्य का उत्तरदायित्व है । किन्तु, यह अधिकार 14 वर्ष के बच्चों के लिए ही सीमित है। उच्च शिक्षा के मामले में यह अधिकार राज्य की आर्थिक क्षमता पर निर्भर करेगा । सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि संविधान के भाग 4 के अनुच्छेद 45 को भाग-3 के अनुच्छेद 21 के साथ जोड़ कर पढ़ा जाना चाहिए, क्योंकि प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार अनुच्छेद 21 के अन्तर्गत प्रदत्त ‘‘प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता” के संरक्षण अर्थात् जीने के अधिकार का ही एक अवयव है ।
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