संविधान की कार्रवाई और संशोधन
संविधान की कार्रवाई और संशोधन
भारत जैसे विशाल देश के लिए एक सर्वमान्य संविधान के निर्माण में सुसंबद्धता तथा जीवंतता से परिपूर्ण राज व्यवस्था को संजोया गया। और लोकतंत्र, समतावाद, पंथनिरपेक्षता तथा विधि के शासन को महत्ता दी गई। समाजवादी समाज व्यवस्था को लाने के लिए योजनाबद्ध विकास पर बल दिया गया। पंचवर्षीय योजनाओं के अधीन प्रयास किए गए कि निर्धनों एवं दलितों की दशा को सुधारा जाए, वैज्ञानिक एवं औद्योगिक बुनियादी ढांचे का निर्माण किया जाए, कृषि के क्षेत्र में क्रांति लाई जाए, उद्योग को बहुआयामी बनाया जाए और औद्योगिक क्षमता तथा उत्पादन को बढ़ाया जाए।
छह सौ से अधिक देशी रियासतों का एकीकरण किया गया । शरणार्थियों को पुनः बसाया गया। जमींदारी का उन्मूलन किया गया तथा अन्य भूमि सुधार किए गए। भारत में पुर्तगाल तथा फ्रांस के अधीन क्षेत्रों को आजाद कराया गया। हैदराबाद तथा जम्मू-कश्मीर की रियासतों का विलय भारत संघ में कराया गया। अपने दो पड़ोसी देशों के अनेक आक्रमणों का सामना किया गया । गुटनिरपेक्षता एवं शांतिपूर्ण सिद्धांतों वाली सार्थक विदेश नीति का विकास किया गया। भारत के दर्शन तथा नेतृत्व को एक साथ सौ से भी अधिक राष्ट्रों ने स्वीकार किया। धरती पर सबसे विशाल लोकतंत्र में अब तक (सन् 2005 के प्रारम्भ तक), चौदह बार आम चुनाव कराए जा चुके हैं। अनेक बार एक पार्टी अथवा गठबंधन को दूसरी पार्टी अथवा गठबंधन के हाथों शांतिपूर्ण ढंग से सत्ता सौंपी गई । हमारी राज्य व्यवस्था पर बाहरी तथा भीतरी विद्वेषी शक्तियों ने अनेक खिंचाव, तनाव व दबाव डाले पर भारत डिगा नहीं ।
संक्षेप में, कहा जा सकता है कि राजनीतिक स्तर पर अभी तक हमारी महान उपलब्धियां इस प्रकार हैं : (1) हमने राष्ट्र की एकता एवं अखंडता तथा राज्य व्यवस्था के पंथनिरपेक्ष स्वरूप को बनाए रखा और (2) व्यक्ति की आजादी एवं गरिमा को सुनिश्चित करते हुए हमने संसदीय लोकतंत्र प्रणाली को कायम रखा।
किसी भी लोकतंत्र में दो मुख्य सरोकार होते हैं— स्थिरता और उत्तरदायित्व । लोकतंत्र जो सरकार देता है, उसे सुरक्षा, विकास और जनकल्याण के लिए जरूरी बल एवं स्थिरता प्राप्त होनी चाहिए। और जिन लोगों से शासन की अपेक्षा की जाती है, उन्हें जनता तथा उनके प्रतिनिधियों के प्रति उत्तरदायी रहना चाहिए। हमारे संविधान निर्माताओं को उस उपनिवेशवादी निरंकुश शासन का कटु अनुभव था जो न तो जनता का प्रतिनिधित्व करता था और न ही उसकी उमंगों, आकांक्षाओं और आवश्यकताओं की ओर ध्यान देता था । वह भारत के लोगों के किसी प्रतिनिधि निकाय के प्रति जवाबदेह या उत्तरदायी नहीं था। अतः यह स्वाभाविक था कि हमारे संविधान निर्माताओं ने कार्यपालिकाओं के ‘उत्तरदायित्व’ तथा प्रशासन की जवाबदेही को पहला स्थान दिया।
उत्तरदायित्व के महत्व को बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि विद्यमान संसदीय प्रणाली के भीतर और अधिक स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए उपाय एवं साधन खोजे जाएं।
सांविधानिक संशोधन : प्रत्येक नई पीढ़ी और नए युग के साथ कुछ नई चेतनाओं, प्रेरणाओं का जन्म होता है। किसी भी संविधान की महानता इसी में है कि उसे नष्ट हुए बिना बदलती हुई सामाजिक मान्यताओं के अनुरूप ढाला जा सके। इसके लिए आवश्यक है कि संविधान में आंतरिक दृढ़ता के साथ-साथ एक लोच या लचीलापन हो, एक नम्यता और परिवर्तनशीलता हो ।
1950-2005 के लगभग 55 वर्षों में 92 सांविधानिक संशोधन हो चुके हैं। आवश्यकता पड़ने पर और भी होते रहेंगे । समाज की बदलती हुई मान्यताओं, अपेक्षाओं और आवश्यकताओं के साथ संविधान को बदलते रहना होगा- कभी संशोधन के द्वारा, कभी कार्यान्वयन की प्रक्रिया में और कभी न्यायिक व्याख्या के माध्यम से । संविधान के अनुच्छेदों को इससे नए-नए अर्थ मिलते रहेंगे। किसी भी जीवित संविधान के लिए जरूरी है कि वह समय के साथ कदम मिलाकर चले ।
हमारा देश एक विशाल देश है। उसकी समस्याएं भी अनेक और विशाल हैं। इसमें संदेह नहीं कि गत दशकों में जो कुछ हुआ उस पर, कुल मिलाकर प्रत्येक भारतवासी गर्व का अनुभव कर सकता है। फिर भी अभी हमें सारे देश में एक ऐसा नया वातावरण पैदा करना है जिसमें प्रत्येक भारतवासी को लगे कि वह देश निर्माण के महान कार्य में जुटा हुआ है और उसे अपने प्रयत्नों से देश को आगे बढ़ाना है।
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