सत्ताएँ भाषाओं को प्रभावित करती हैं। भारतीय भाषाओं का उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।

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प्रश्न – सत्ताएँ भाषाओं को प्रभावित करती हैं। भारतीय भाषाओं का उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- भारत में भाषाओं पर सत्ता के प्रभाव को निम्नवत् समझा जा सकता है
स्वतन्त्रता से पूर्व भाषाओं पर सत्ता का प्रभाव 
प्राचीन काल में हमारी भाषा नीति स्पष्ट थी। बोलियाँ अनेक थीं, किन्तु शिक्षा एवं सरकारी कामकाज के माध्यम के रूप में संस्कृत स्वीकृत थी । संस्कृत विद्वानों, शिक्षितों व जनता के उच्च वर्ग की भाषा, अर्थात् देववाणी थी। पाणिनी एवं पतंजलि जैसे भाषा-वैज्ञानिकों के हाथ में आकर यह इतनी परिमार्जित हो गयी थी कि उच्चतम एवं सूक्ष्म से सूक्ष्म विचारों को अभिव्यक्त करने में यह सर्वथा समर्थ थी। कामकाज की भाषा होने के कारण यह अत्यन्त सम्मानीय मानी जाती थी। इसका ‘देववाणी’ नाम इसी सम्मान का सूचक है। कुछ समय पश्चात् अर्थात् बौद्धकाल में अशोक जैसे महान सम्राट के शासन काल में, भारत की राजभाषा का पद पालि व प्राकृत को मिला। फिर क्या था, पालि व प्राकृत की भी उन्नति खूब हुई। इसमें ग्रन्थ रचे गये, घोषणाएँ की गयीं, शिलाओं एवं स्तम्भों पर लेख लिखे गये एवं भारत के प्रमुख विद्यालयों, विहारों, विश्वविद्यालयों तथा आश्रमों में पालि व प्राकृत का पठन-पाठन होने लगा।
फिर समय बदला। भारत पर मुसलमानों का शासन हुआ। मुगलों के शासन काल में कुछ स्थिरता आई। कामकाज की भाषा फारसी हुई। अदालतों, कचहरियों एवं दरबारों में, फारसी का बोलबाला प्रारम्भ हुआ, जिसके अवशेष अभी भी कचहरियों में देवनागरी लिपि में लिखे देखे गये, कुछ ठेठ फारसी के शब्दों के रूप में देखे जा सकते हैं। साधारण जनता ने बाजारों में एक अन्य भाषा उर्दू या हिन्दी का विकास कर लिया था, किन्तु राजभाषा का पद फारसी को प्राप्त था, अतः शिक्षालयों में भी फारसी का पठन-पाठन प्रारम्भ हुआ। मकतब व मदरसे खुले । फारसी का विद्वान चारों ओर सम्मानित होने लगा।
यह समय भी अधिक दिन न रह सका। एक समय आया, जब समूचा भारत ब्रिटिश राष्ट्रध्वज के नीचे आ गया। अंग्रेज पहले व्यापार पर ही अपना ध्यान केन्द्रित किये हुए थे, किन्तु जब बाद में उन्हें राज्य करने का भी चस्का लगा तो भाषा का प्रश्न भी उनके सामने आया। व्यापारी जहाँ जाता है, पहले वहाँ की भाषा से परिचय प्राप्त करता है। अंग्रेजों ने भी पहले ऐसा ही किया, किन्तु बाद में उन्हें ऐसा करने की आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई। राजकाज की भाषा अंग्रेजी ही थी, उधर अंग्रेजी के सौभाग्य से मैकॉले की शिक्षा नीति स्वीकृत हो गई।
ब्रिटिश शासन काल में मैकॉले के प्रयासों के पश्चात् हमारी भाषा-नीति स्पष्ट थी। अंग्रेजी राजभाषा थी। विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा का माध्यम भी अंग्रेजी था। उस समय हम अपने शिक्षालयों में अंग्रेजी की वर्तनी रटवाने में ही छात्रों का समय नष्ट करते रहे; फिर भी हम दो प्रतिशत से अधिक भारतीयों को अंग्रेजी न सिखा सके, परन्तु हमारी शिक्षा का आदर्श अंग्रेजी का ज्ञान प्राप्त करना अवश्य रहा। इसलिए भारत में कुछ विद्वान् अंग्रेजी के इतने उच्च कोटि के जानकार हुए कि उनका लोहा अंग्रेज भी मानने लगे। विश्व कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविताओं पर अंग्रेज भी मुग्ध हो गये और श्रीमती सरोजनी नायडू को उन्होंने ‘भारत कोकिला’ की उपाधि ही दे डाली।
स्वतन्त्रता के पश्चात् भाषाओं पर सत्ता का प्रभाव
पुन: समय बदला। हमारी परतन्त्रता की बेड़ियाँ कट गईं। हम स्वतन्त्र हुए। स्वतन्त्र भारत में सरकार की भाषा सम्बन्धी नीति की दिशा राजाजी ने पहले ही निश्चित कर दी थी। द्वितीय महायुद्ध के पूर्व जब चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य जी के हाथों में मद्रास (चेन्नई) प्रदेश की बागडोर आई, तो उन्होंने उसी दिशा में तमिलनाडु का मार्गदर्शन किया। मद्रास की दोनों व्यवस्थापिका सभाओं में हिन्दी – विरोध का दृढ़तापूर्वक सामना करते हुए राजाजी ने हिन्दी के राष्ट्रभाषा होने का प्रस्ताव पास कराया और कहा – “सरकार की नीति इस सम्बन्ध में यही है कि हिन्दी का, जो भारत के अधिकांश भागों में बोली जाती है— कामचलाऊ ज्ञान हो जाए, ताकि इस (मद्रास) प्रदेश के विद्यार्थी इस योग्य हो जाएँ कि दक्षिण तथा उत्तर में सुविधापूर्वक विचार-विनिमय कर सकें।” उन्होंने शिक्षा के उद्देश्य का सन्दर्भ देते हुए आगे कहा, “निष्कर्ष यह है कि हिन्दी का गम्भीर ज्ञान प्राप्त करना भारत के सभी लोगों के लिए शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए। ” स्वतन्त्र भारत की सरकार भाषा-नीति और शिक्षा की दिशा का स्पष्ट चित्र उस समय राजाजी के मस्तिष्क में था। बाद में वे अपने निश्चय से डिग गये और भाषा – नीति को उन्होंने अस्पष्ट बना डाला।
ख्यति-प्राप्त बंगाली विद्वान् श्री बंकिमचन्द्र चटर्जी के कथन को देखिए– “हिन्दी भाषा की सहायता से भारतवर्ष के विभिन्न प्रदेशों में जो लोग ऐक्य स्थापित कर सकेंगे वे ही प्रकृत बन्धु कहलाने योग्य हैं। चेष्टा कीजिये, यत्न कीजिए, कितने ही बाद क्यों न हों, मनोरथ पूर्ण होगा। हिन्दी भाषा के द्वारा भारत के अधिकांश स्थानों का मंगल – साधन कीजिये- केवल बंगला और अंग्रेजी की चर्चा से काम न चलेगा। “
आचार्य विनोबा भावे ने तो यहाँ तक कह डाला था कि “मैं दुनिया की सब भाषाओं की इज्जत करता हूँ, परन्तु मेरे देश में हिन्दी की इज्जत न हो, यह मैं नहीं सह सकता।” प्रसिद्ध भाषा-शास्त्री डॉ. सुनीतकुमार चटर्जी के उद्गार भी भाषा – नीति के परिचायक थे। उनका कहना था, “राष्ट्रीयता के प्रतीक स्वरूप एक भाषा के माने बिना काम नहीं चल सकता और यह भाषा देश की या राष्ट्र की कोई भाषा होनी चाहिए। हिन्दी की प्रतिष्ठा सर्वत्र दीख पड़ती है। हमारा सब अन्तः प्रान्तीय कामकाज राष्ट्रभाषा हिन्दी में ही हो सकता है । ” बाद में डॉक्टर साहब भ्रम के शिकार हो गये।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के निम्नलिखित विचारों की बानगी लीजिए जो उन्होंने विभिन्न अवसरों पर व्यक्त किये थे और जिन्हें आज हम भुलाते जा रहे हैं— “जो स्थान इस समय अनुचित ढंग से अंग्रेजी भाषा भोग रही है, वह स्थान हिन्दी को मिलना चाहिए। इस विषय में मतभेद होने का कारण न होने पर भी मतभेद होगा, दुर्भाग्य की बात है। शिक्षित वर्ग की एक भाषा अवश्य होनी चाहिए और वह हिन्दी ही हो सकती है। हिन्दी द्वारा करोड़ों व्यक्तियों में आसानी से काम किया जा सकता है। इसलिये उसे उचित स्थान मिलने में जितनी देर रही है, उतना ही देश का नुकसान हो रहा है।…….. अगर हमारे हाथ में तानाशाही सत्ता हो, तो मैं आज विदेशी माध्यम के जरिये अपने लड़के, लड़कियों की शिक्षा बन्द कर दूँ और सारे शिक्षकों और प्रोफेसरों में यह माध्यम तुरन्त बदलवा दूँ या उन्हें बर्खास्त करा दूँ। मैं पाठ्य-पुस्तकों की तैयारी का इन्तजार नहीं करूंगा। वे तो माध्यम परिवर्तन के पीछे-पीछे चली आयेंगी। “
“यह मेरा निश्चित मत है कि आज की अंग्रेजी शिक्षा ने शिक्षित भारतीयों को निर्बल और शक्तिहीन बना दिया है। इसने भारतीय विद्यार्थियों की शक्ति पर भारी बोझ डाला है और हमें नकलची बना दिया है…………… कोई भी देश नकलचियों की जाति पैदा करके राष्ट्र नहीं बन सकता।”
अंग्रेजी के ज्ञान के बिना भारतीय मस्तिष्क का सर्वोच्च विकास सम्भव होना चाहिए। हमारे बालक और बालिकाओं को यह सोचने का प्रोत्साहन देना कि अंग्रेजी के ज्ञान बिना उत्तम समाज में प्रवेश करना असम्भव है, भारत के पुरुषत्व और खासतौर पर एक स्त्रीत्व के प्रति हिंसा करना है। यह विचार इतना अपमानजनक है कि सहन नहीं किया जा सकता है। अंग्रेजी के मोह से छुटकारा पाना स्वराज्य प्राप्ति की एक अत्यन्त आवश्यक शर्त है।
“मैं ऐसी कई मिसालें जानता हूँ, जिनमें स्त्रियाँ इसलिए अंग्रेजी पढ़ना चाहती हैं कि अंग्रेजी के साथ उन्हें अंग्रेजी बोलना आ जाय। मैंने ऐसे कितने ही पति देखे हैं जो इसलिए दुःखी होते हैं कि उनकी पत्नियाँ उनके साथ अथवा उनके मित्रों के साथ अंग्रेजी में बात नहीं कर सकती। मैं ऐसे कुटुम्बों को जानता हूँ जिनमें अंग्रेजी भाषा को अपनी मातृभाषा बना लिया जाता है । ……… इस बुराई ने समाज में इतना घर कर लिया है कि अनेक लोगों की दृष्टि में शिक्षा का अर्थ अंग्रेजी भाषा ज्ञान के सिवाय और कुछ है ही नहीं । “
महात्मा गांधी ने भाषा नीति के सम्बन्ध में बड़े सुलझे हुए विचार स्वतन्त्रता से पूर्व ही जनता के सामने रख दिये थे। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था, “समूचे हिन्दुस्तान के साथ व्यवहार करने के लिए हमको भारतीय भाषाओं में से एक ऐसी भाषा या जबान की जरूरत है, जिसे आज ज्यादा तादाद में लोग जानते और समझते हो और बाकी लोग जिसे झट सीख सकें। इसमें शक नहीं कि हिन्दी ऐसी ही भाषा है। उत्तर के हिन्दू और मुसलमान—दोनों इस भाषा को बोलते और समझते हैं। “
स्वतन्त्र भारत की एक तस्वीर स्वतन्त्रता से पूर्व भी हमें आजाद हिन्द सरकार के रूप में दिखाई पड़ गई थी । मलेशिया, जापान जैसे देशों में भी हिन्दी – प्रेम का संचार हो गया द्वितीय महायुद्ध के दौरान आजाद हिन्द सभा की स्थापना हो गयी थी। आजाद हिन्द सरकार ने हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा स्वीकार कर लिया था। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस जर्मनी से जापान पहुँच गये। आजाद हिन्द सरकार ने हिन्दी के विकास के लिए अलग विभाग खोल दिया था, जिसके अध्यक्ष श्री हेमराज शास्त्री बनाये गये थे।
जिस समय भारत स्वतन्त्र हुआ, सभी देशभक्तों को यह विश्वास हो गया कि स्वतन्त्र भारत की राजभाषा ‘हिन्दी’ हो जायेगी, किन्तु ऐसा हुआ नहीं। जो काम तुरन्त होना चाहिए था, उसके लिए अनावश्यक रूप से टालने की नीति अपनायी गयी । कहते हैं कमालपाशा के हाथ में जब तुर्की के शासन की बागडोर आई तो उसके सामने भी तुर्की सरकार की भाषा-नीति का प्रश्न उपस्थित हुआ। उसने राज्य के अधिकारियों, शिक्षा के अधिकारियों एवं शिक्षाशास्त्रियों को बुलाकर पूछा कि तुर्की भाषा के माध्यम से राजकाज चलाने में कितने वर्ष लगेंगे। अधिकारियों ने कहा कि कम-से-कम दस वर्ष तो लगेंगे ही। कमालपाशा ने तुरन्त आदेश दिया कि “समझ लिया जाए कि वे दस वर्ष दूसरे दिन सुबह दस बजे समाप्त हो रहे हैं। अतः दस बजे से सारा कामकाज तुर्की भाषा में ही होगा ” ……….. और दूसरे दिन से सचमुच तुर्की देश की राजभाषा तुर्की ही हो गयी। भारत के ऊपर केवल दो प्रतिशत अंग्रेजी-भाषियों का शासन सम्भवतः जनतन्त्र की सीमा से बाहर की ही शासन प्रणाली होगी।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् लगभग दो वर्ष तक हमने खूब शोर मचाया कि भारत की राजभाषा हिन्दी होगी। इसका परिणाम यह हुआ कि सारे देश में हिन्दी पठन-पाठन की ओर लोगों की रुचि बढ़ी, किन्तु संविधान लागू होते-होते यह निश्चय होने लगा कि तुरन्त हिन्दी सिखाने की आवश्यकता नहीं है। पन्द्रह वर्ष की लम्बी अवधि इस कार्य के लिए रखी गयी और बाद में भी निश्चय की स्थिति का दर्शन नहीं मिलता था। इसलिए कुछ अहिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी – शिक्षा को गम्भीरता से देखा ही नहीं गया। कारण स्पष्ट था। राजकाज की भाषा शिक्षा-भाषा की प्रेरणा स्त्रोत होती है। राजभाषा ‘अंग्रेजी’ चल रही थी, अतः तमिलनाडु में हिन्दी – शिक्षण के नाम पर कोई विशेष कार्य नहीं हुआ। अन्य राज्यों में हिन्दी – शिक्षा पर ध्यान दिया गया, किन्तु कुछ में उसकी उपेक्षा की गयी। तमिलनाडु में हिन्दी को स्कूलों में अनिवार्य नहीं बनाया गया। हिन्दी में परीक्षा ली जाती थी, फिर भी उससे अग्रिम कक्षा मिलने या न मिलने पर प्रभाव नहीं पड़ता था। चाहे छात्र फेल हो या पास, आगे की कक्षा में चढ़ा दिया जाता था, इसलिए स्कूलों में हिन्दी पनप न सकी। कभी हिन्दी छठी कक्षा से पढ़ायी जाती तो कभी सातवीं से । अन्ततः वह नवीं से पढ़ाई जाने लगी । स्पष्ट है कि हिन्दी शिक्षा की ओर सरकार का ध्यान इतना नहीं रहा, जितना होना चाहिए था। अन्य राज्यों में भी हिन्दी की शिक्षा के विषय में उत्साह धीरे-धीरे कम होता गया।
हिन्दी-भाषी राज्यों में भी सरकार की लचर भाषा – नीति का प्रभाव पड़ा। आजाद भारत में साँस लेने वाले छात्र के मन में अंग्रेजी के प्रति निष्ठा कम होती गयी और उसने अंग्रेजी-शिक्षण को भार-स्वरूप समझा, किन्तु इस स्थिति से हिन्दी – शिक्षण के स्तर में कोई विशेष सुधार नहीं हुआ। कुछ तो मातृभाषा समझकर और कुछ ढुलमुल सरकारी भाषा-नीति के कारण छात्र हिन्दी की शिक्षा को गम्भीरता से नहीं देख सके। परिणाम स्पष्ट हैहिन्दी-भाषी प्रदेशों के बहुत से छात्र न तो अंग्रेजी में और न हिन्दी में ही भाव – ग्रहण एवं – भावाभिव्यक्ति की उच्चकोटि की योग्यता प्राप्त कर सके।
शिक्षा की दृष्टि से यह स्थिति भयावह है। पिछले अनेक वर्षों से हम छात्रों के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। कभी तो हम अंग्रेजी को कक्षा छः से प्रारम्भ करते हैं, कभी कक्षा एक से अनिवार्य करने का उपदेश दे सते हैं। कभी हाईस्कूल में अंग्रेजी को अनिवार्य डालते विषय बनाते हैं तो कभी उसे वैकल्पिक कर देते हैं। कभी हिन्दी साहित्य को इण्टर के लिए अनिवार्य घोषित करते हैं तो कभी किसी वर्ग के लिए सामान्य हिन्दी अनिवार्य करके साहित्य को वैकल्पिक कर देते हैं। कभी इण्टर में विज्ञान के छात्रों के लिए अंग्रेजी को अनिवार्य करते हैं, कभी वैकल्पिक। सन् 1967 में उत्तर प्रदेश में संविद सरकार ने हाईस्कूल एवं इण्टरमीडिएट परीक्षा के लिए भाषा – नीति सम्बन्धी तीन-चार परस्पर विरोधी आदेश निकाले थे।
कोई भी राजनीतिक दल भाषा – नीति के सम्बन्धं में स्पष्ट बात नहीं करता । घुमा-फिरा कर वक्तव्य दिये जाते हैं। सरकार ने तो शिथिल नीति अपनाने का परिचय प्रारम्भ से ही दे दिया है। शिक्षा में भाषा के अध्ययन का प्रश्न राजभाषा के प्रश्न के साथ जुड़ा हुआ है । यह नौकरी का प्रश्न बन जाता है। राजभाषा के सम्बन्ध में अस्थिर नीति शिक्षा अस्थिर भाष-नीति को जन्म देती है। हमारी सरकार ने सन् 1956 तक द्विभाषा – सूत्र की ओर अपना झुकाव प्रदर्शित किाय। सन् 1956 से सन् 1967 तक हम त्रिभाषा – सूत्र का जप करते रहे। वर्ष 1967-68 में केन्द्रीय सरकार पुनः द्विभाषा – सूत्र की ओर झुकी और अब पुनः त्रिभाषा – सूत्र की चर्चा गरम है— इधर से उधर, उधर से – इधर । उत्तर में आन्दोलन हो तो उत्तर की ओर झुकाव, दक्षिण में आन्दोलन हो तो दक्षिण की ओर झुकाव । कभी हिन्दी के लिए अत्यधिक उत्साह तो कभी अंग्रेजी की जीवन रक्षा के लिए दो-दो भाषा-संशोधन विधेयक। कभी संविधान का उल्लेख तो कभी प्रधानमंत्री के आश्वासन का उल्लेख । कभी गांधीजी की दुहाई तो कभी अन्तर्राष्ट्रीयता का स्वप्न! कभी एक राष्ट्रभाषा का उपदेश, तो कभी चौदह राष्ट्रभाषाओं को समान दर्जा देने का प्रचवचन! यह सब क्या हो रहा है ?
हमारी भाषा नीति का प्रभाव शिक्षा के स्तर पर बिना पड़े नहीं रह सकता। माध्यमिक शिक्षा तक लगभग सम्पूर्ण देश में शिक्षा का माध्यम मातृभाषाएँ हैं। जो छात्र मातृभाषा के माध्यम से माध्यमिक कक्षा तक पढ़ता रहता है, वह अकस्मात् स्नातक एवं स्नातकोत्तर स्तर तक किस प्रकार विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा ग्रहण कर सकेगा ? विश्वविद्यालयों में भी मातृभाषा की परीक्षा एवं शिक्षा का वैकल्पिक माध्यम बनाना ही होगा।
इस स्थल पर ज्ञान पीठ पुरस्कार से सम्मानित श्री नरेश मेहता का हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग में पैंतालीसवें वार्षिक अधिवेशन के अवसन पर पटना में दिए गये अध्यक्षीय भाषण का उल्लेख करना आवश्यक है। उन्होंने कहा –
“गणतन्त्र की स्थापना के साथ ही हिन्दी को राष्ट्रभाषा मान लिया गया । हम सब जानते हैं कि इस गौरव के पीछे स्वामी दयानन्द सरस्वती तथा महात्मा गांधी, टण्डन जी का योगदानन् सबसे प्रमुख है। वह समय था जब तत्काल राष्ट्रभाषा को प्रतिष्ठापित किया जा सकता था, लेकिन जब इसको लागू करने के लिए पन्द्रह वर्ष का समय माँगा गया वही सबसे बड़ी भूल थी। यह अवधि सायास माँगी गयी थी या अनायास, आज इसकी चर्चा व्यर्थ है। यह अवधि राज्य और प्रशासन में बैठे अभारतीय मानसिकता वाले महापुरुषों के लिए महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुई। इस देश पर योजनाबद्ध तरीके से अंग्रेजों का वर्चस्व और विस्तार इसी अवधि में बढ़ा । राष्ट्रभाषा संज्ञा को कितना भ्रामक बनाया जा सकता है, हम इसी अवधि में देखते हैं। अकेली. हिन्दी ही क्यों राष्ट्रभाषा है ? क्या अन्य भारतीय भाषाएँ अराष्ट्रीय हैं ? इस प्रकार राष्ट्रभाषा के प्रश्न को हिन्दी बनाम अन्य भारतीय भाषाओं के बीच विद्वेष और विरोध रूप में पनपाया गया ताकि ये भारतीय भाषाएँ आपस में लड़ती रहें और अंग्रेजी की स्थिति सुदृढ़ होती रहे । राजभाषा, सम्पर्क भाषा जैसे नये-नये विचार खड़े किये गये। सभी भारतीय भाषाएँ इस षड्यन्त्र की शिकार होती गयीं। इस बन्दर – बाँट का सारा लाभ राजभाषा अंग्रेजी को मिलता रहा।
तात्पर्य यह है कि राष्ट्रभाषा की समस्या को लेकर धर्म, प्रदेश, क्षेत्र, आधुनिकता, व्यापार-वाणिज्य, तकनीकी विकास आदि को समय-समय पर इस प्रकार प्रस्तुत किया जाता रहा कि हिन्दी यदि राष्ट्रभाषा बनती है तो इससे धार्मिक विद्वेष बढ़ेगा, क्योंकि भाषाएँ दोयम दर्जे की हो जाएँगी, विभिन्न क्षेत्रीयताओं पर हिन्दी का साम्राज्य कायम हो जाएगा। हम आधुनिकता की दृष्टि से पिछड़ जाएँगे। बिना अंग्रेजी के आधुनिक व्यापार वाणिज्य सम्भव नहीं है। हिन्दी तकनीकी भाषा नहीं है। ऐसे न जाने कितने वायवीय तर्क-कुतर्क प्रस्तुत किये गये। भारतीय भाषाएँ यह भूल गयीं कि अंग्रेजी का यहाँ से चला जाना अंग्रेजों के यहाँ चले जाने से भी अधिक संकटपूर्ण है। सारा भारतीय बाजार, साहित्य, प्रकाशन, अखबार तथा आधुनिक मीडिया, शिक्षा संस्थान आज जिस मात्रा में अंग्रेजी के कब्जे में है वह यदि हाथ से निकल जाता है तो अंग्रेजी साम्राज्य के पलायन से भी ज्यादा गम्भीर समस्या हो सकती है क्योंकि यह राजनीतिक आधिपत्य नहीं, बल्कि आर्थिक आधिपत्य है। इस सन्दर्भ में अन्तर्राष्ट्रीय सम्पर्क के लिए अंग्रेजी की अनिवार्यता की भी प्रायः चर्चा होती है, जबकि यह तर्क सर्वथा सत्य नहीं है। वस्तुतः हमसे वैचारिक भूल यह हुई कि हमने राष्ट्र और राज्य के मूलभूत भेद को नहीं समझा। राज्यों के उद्भव और पतन तो हुआ करते हैं जबकि राष्ट्र तो शाश्वत सत्ता है उसे अपने साक्ष्य के लिए इतिहास की आवश्यकता नहीं होती, वह तो सनातन संस्कृत होती है। हमें यह कटु सत्य स्वीकार कर लेना चाहिए कि मध्यकाल में जिस प्रकार फारसी राजभाषा थी वैसे ही आज अंग्रेजी राजभाषा है । “
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