समसामयिक भारतीय समाज में महिलाओं की परिवर्तित प्रस्थिति को स्पष्ट कीजिये |

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प्रश्न – समसामयिक भारतीय समाज में महिलाओं की परिवर्तित प्रस्थिति को स्पष्ट कीजिये |
उत्तर – ग्रामीण तथा नगरीय सन्दर्भ में स्त्रियों की परिवर्तनशील प्रस्थिति ( Changing status of women in rural and urban context) — एक महत्त्वपूर्ण विषय है कि भारत में स्वतंत्रता के बाद स्त्रियों की प्रस्थिति में होने वाले परिवर्तन की प्रकृति क्या है ? समाज के सभी वर्ग यह मानते हैं कि अतीत में स्त्रियाँ एक लम्बे समय तक सामाजिक एवं आर्थिक शोषण का शिकार रही थीं, आधुनिक भारत में उन्हें अपनी परम्परागत समस्याओं से एक बड़ी सीमा तक छुटकारा मिल चुका है। यह एक ऐसा सामान्य विचार है जिसे भारत में सभी वर्गों से सम्बन्धित स्त्रियों पर समान रूप से लागू नहीं किया जा सकता । एक ओर उच्च, मध्यम और निम्न आर्थिक वर्गों में स्त्रियों की प्रस्थिति एक-दूसरे से भिन्न है तो दूसरी ओर एक ही वर्ग से सम्बन्धित शिक्षित और अशिक्षित स्त्रियों की प्रस्थिति में काफी अन्तर देखने को मिलता है । यदि धार्मिक आधार पर हम स्त्रियों की स्थिति का मूल्यांकन करें तो मुस्लिम स्त्रियों की तुलना में हिन्दू स्त्रियों के जीवन में अधिक परिवर्तन हुआ है । आर्थिक तथा , राजनीतिक जीवन में जिन स्त्रियों ने सहभाग करना प्रारम्भ कर दिया है, उनकी प्रस्थिति उन स्त्रियों से अधिक अच्छी है जो आर्थिक रूप से आज भी पूरी तरह पुरुषों पर निर्भर हैं। सच तो यह है कि हमारे समाज में आज भी पुरुष प्रधान सामाजिक व्यवस्था की जड़ें इतनी गहरी हैं कि स्त्रियों को पारिवारिक, सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में कानून के द्वारा पुरुषों के समान अधिकार मिल जाने के बाद भी वे व्यावहारिक रूप से जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अपने अधिकारों का समुचित उपयोग नहीं कर पाती हैं ।
वास्तव में शिक्षा तथा सामाजिक कानून दो ऐसे प्रमुख आधार हैं जो धीरे-धीरे स्त्रियों में सामाजिक जागरूकता पैदा करके उनकी प्रस्थिति के नाम पर उत्पीड़न में इस तथ्य को स्पष्ट किया है कि भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था की जड़ें जैसे-जैसे गहरी होती जा रही है, सार्वजनिक जीवन में स्त्रियों की बढ़ती हुई सहभागिता से यह आशा की जा सकती है कि उनकी प्रस्थिति में भी तेजी से सुधार होगा। भारतीय स्त्रियों की पाकिस्तान जैसे देश से तुलना करते हुए उन्होंने लिखा है कि “कम से कम हमारे देश में पाकिस्तान के जैसा हदूद कोई कानून लागू नहीं है । इस कानून के तहत स्त्रियों पर होने वाले बलात्कार को साबित करने के लिए चार पुरुषों की गवाही आवश्यक है । यहाँ पाकिस्तान की तरह ‘किसास’ और ‘दीयत’ जैसे नियम भी लागू नहीं है जिसके अनुसार किसी स्त्री या पुरुष का कत्ल करने वाले कातिल के साथ मृत व्यक्ति के वारिस मुआवजा तय करके समझौता कर सकते हैं । इसके बाद भी सुभाषिनी अली ने इस बात पर चिन्ता व्यक्त की कि कानूनी अधिकारों के बाद भी भारत के गाँवों में यदि कोई ऊँची जाति की लड़की अपने से निम्न जाति के लड़के से विवाह कर ले तो सामाजिक प्रतिष्ठा के नाम पर जाति पंचायत द्वारा उसका बेरहमी से उत्पीड़न किया जाता है। इस दशा में स्त्रियों की प्रस्थिति में होने वाले सुधार की बात बेकार मालूम होने लगती है ।
इसका तात्पर्य यह नहीं हैं कि आधुनिक भारत में स्त्रियों की प्रस्थिति में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है । वास्तविकता यह है कि हम स्वतंत्रता से पहले की तुलना में स्त्रियों की वर्तमान का मूल्यांकन करें तो स्पष्ट हो जाएगा कि परिवार, विवाह और सम्पत्ति के क्षेत्र में उनके अधिकार बढ़े हैं। सामाजिक जीवन से सम्बन्धित विभिन्न क्रिया-कलापों में स्त्रियों का सहभाग तेजी से बढ़ता जा रहा है । स्वतंत्रता के समय जहाँ हमारे देश में केवल 5.4 प्रतिशत स्त्रियाँ साक्षर थीं, वहीं आज स्त्री साक्षरता का प्रतिशत 54.16 हो चुका है । राजनीतिक जीवन में स्त्रियों की सहभागिता तेजी से बढ़ती जा रही है। स्त्रियों के परम्परागत विचारों और मनोवृत्तियों में भारी परिवर्तन हो जाने के कारण अब वे लकीर की फकीर नहीं रहीं । प्रशासनिक सेवाओं, सेना, पुलिस, प्रबन्ध, प्रौद्योगिक विकास, शिक्षा तथा अनेक दूसरे क्षेत्रों में विशेष सफलताएँ प्राप्त करके स्त्रियों ने यह सिद्ध कर दिया है कि उनकी योग्यता और कुशलता किसी भी तरह पुरुषों से कम नहीं है। कुछ प्रमुख क्षेत्रों में ग्रामीण और नगरीय स्त्रियों की प्रस्थिति में होने वाले परिवर्तन को निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है –
संस्थागत व्यवहारों में परिवर्तन (Change in Institutional Behaviour)–संस्था का तात्पर्य उन सामाजिक नियमों और कार्य प्रणालियों से होता है जो कुछ विशेष सामाजिक मूल्यों के अनुसार व्यक्तियों को पारस्परिक व्यवहार करने तथा सामाजिक सम्बन्धों की स्थापना करने की अनुमति देती हैं । यह नियम समाज द्वारा स्वीकृत होते हैं तथा इनके विरुद्ध होने वाले व्यवहार को अनैतिक और समाज – विरोधी माना जाता है । व्यवहार के इन्हीं नियमों के अनुसार किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व का मूल्यांकन किया जाता है । परम्परागत समाजों में संस्थागत व्यवहार ही यह निर्धारित करते हैं कि समाज में विभिन्न व्यक्तियों अथवा समूहों की प्रस्थिति क्या होगी, उनके अधिकारों और कर्त्तव्यों की प्रकृति कैसी होगी तथा किन मूल्यों और विश्वासों को जीवन में अधिक महत्त्व दिया जायेगा । जैसा कि पूर्व विवेचन से स्पष्ट चुका है, परम्परागत रूप से भारतीय समाज में इस तरह के नियमों की प्रधानता रही है जिनके द्वारा स्त्रियों का विवाह, परिवार तथा सम्पत्ति के क्षेत्र में विभिन्न अधिकारों से वंचित किया जाता रहा । धार्मिक आधार पर उन मूल्यों और विश्वासों को महत्त्व दिया गया जो स्त्रियों को किसी तरह की स्वतंत्रता देने के पक्ष में नहीं थे। स्वतंत्रता के बाद जैसे-तैसे स्त्रियों के संस्थागत व्यवहारों में भी परिवर्तन की प्रक्रिया आरम्भ हो गयी। सामाजिक कानूनों के द्वारा स्त्री-जीवन से सम्बन्धित सभी विभेदों को दूर करके उन्हें पुरुषों के समान सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक अधिकार प्रदान किये गये । इसका तात्पर्य है कि स्त्रियों के जीवन में संस्थागत व्यवहारों से सम्बन्धित परिवर्तन एक मापदण्ड है जिसके आधार पर उनकी परिवर्तनशील प्रस्थिति का मूल्यांकन किया जा सकता है । इस क्षेत्र में स्त्रियों की स्थिति में आज जो परिवर्तन हुए हैं. उन्हें निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है-
  1. वैवाहिक तथा पारिवारिक प्रस्थिति में परिवर्तन (Change in Marital and Family Status)—समाज में समताकारी व्यवहारों का प्रभाव बढ़ने से नगरीय समुदाय में स्त्रियों का स्थान एक अबला अथवा दासी की तरह नहीं है बल्कि परिवार में उनके अधिकारों में लगातार वृद्धि हो रही है । शिक्षित स्त्रियाँ परिवार से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने के साथ ही अपने पति की सलाहकार, सहयोगी और मित्र हैं। नगरीय परिवारों में श्रम विभाजन का एक नया रूप विकसित हुआ है जिसमें पुरुष का कार्य आजीविका उपार्जित करना है जबकि स्त्रियाँ एक अधिकार सम्पन्न गृहिणी के रूप में परिवार का प्रबंध करती हैं । परिवार में काम-काजी स्त्रियों की प्रतिष्ठा में विशेष वृद्धि हुई है। उनके द्वारा घर से बाहर निकलकर आजीविका उपार्जित करना एक प्रतिष्ठा की बात समझी जाती है । नगरों में स्त्रियाँ संयुक्त परिवार व्यवस्था में किसी तरह का शोषण सहन करने के लिए तैयार नहीं हैं । इसी के फलस्वरूप नगरों में एकाकी परिवारों की संख्या में तेजी से वृद्धि होती जा रही है । विवाह के क्षेत्र में भी स्त्रियों की प्रस्थिति में व्यापक परिवर्तन हुआ है। ऐसी स्त्रियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है जो दहेज प्रथा और बाल विवाह का विरोध करती हैं । जीवन साथी के चयन में भी उनकी इच्छा को विशेष महत्त्व दिया जाने लगा है। इसी के फलस्वरूप एक ओर अन्तर्जातीय विवाहों की संख्या बढ़ रही है तो दूसरी ओर विधवा पुनर्विवाह को एक अधार्मिक कृत्य के रूप में नहीं देखा जाता । परिवार में उत्पीड़न अथवा शोषण की दशा में स्त्रियों ने विवाह विच्छेद के अधिकार का भी उपयोग करना आरम्भ कर दिया है । ग्रामीण समुदाय में वैवाहिक और परिवारिक मामलों में स्त्रियों की प्रस्थिति में परिवर्तन अवश्य हुआ है । लेकिन इसकी प्रकृति नगरों से कुछ भिन्न है । आज भी गाँवों में स्त्रियों को अन्तर्जातीय विवाह करने की स्वतंत्रता नहीं है लेकिन अधिकांश अपनी पुत्रियों का विवाह कम आयु में करना पसन्द नहीं करतीं । विवाह के क्षेत्र में जाति के नियम कुछ कमजोर अवश्य हुए हैं लेकिन उनका प्रभाव किसी-न-किसी रूप में आज भी बना हुआ है । इसके बाद परिवार में स्त्रियों की प्रस्थिति में उल्लेखनीय सुधार हुआ है । एक ओर स्त्री-उत्पीड़न से सम्बन्धित घटनाएँ कम होती जा रही हैं तो दूसरी ओर, नातेदारी समूह में भी उन लोगों को अच्छा नहीं समझा जाता जो किसी भी रूप में स्त्रियों का शोषण करते हैं। ग्रामीण स्त्रियों में बढ़ती हुई सामाजिक जागरूकता तथा राजनीतिक सहभागिता के फलस्वरूप भी उनकी पारिवारिक प्रस्थिति में सुधार हुआ है ।
  2. सम्पत्ति अधिकरों में परिवर्तन (Change in Property Rights ) – नगरीय समुदाय में स्त्रियों का आर्थिक जीवन उन स्मृतिकालीन व्यवस्थाओं से लगभग स्वतंत्र हो चुका है जिनके अनुसार स्त्रियों को अपने परिवार की सम्पत्ति में हिस्सा प्राप्त करने अथवा स्वतंत्र रूप से आर्थिक निर्णय लेने का कोई अधिकार नहीं था । इस क्षेत्र में महिलाओं की प्रस्थिति में होने वाले परिवर्त्तन को दो आधारों पर समझा जा सकता है – कानूनी आधार पर तथा व्यावहारिक आधार पर कानूनी रूप से हिन्दू उत्तराधिकार, 1956 के द्वारा स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार मिलने के साथ ही एक विधवा को परिवार की सम्पत्ति में से अपने पति तथा माँ के रूप में अपने पिता और पुत्र की सम्पत्ति में से हिस्सा प्राप्त करने का अधिकार मिला है । पति की मृत्यु की दशा में उसकी पत्नी को अपने नाबालिग बच्चे का संरक्षक होने तथा उसकी सम्पत्ति का प्रबंध करने का भी पूरा अधिकार है। व्यावहारिक रूप से नगरीय समुदाय से भीं स्त्रियों द्वारा अपने इस कानूनी अधिकारों का साधारणतया उपयोग नहीं किया जाता । इसके बाद भी उनकी आर्थिक प्रस्थिति इस रूप में बदल चुकी है कि परिवार का सम्पूर्ण आर्थिक प्रबंध स्त्रियों द्वारा ही किया जाने लगा है परिवार के संचालन तथा अपनी आर्थिक जरूरतों को पूरा करने के लिए पति से आर्थिक साधन प्राप्त करना उनका नैतिक अधिकार हैं, आर्थिक निर्भरता नहीं । काम-काजी स्त्रियाँ वेतन के रूप में जो आर्थिक साधन प्राप्त करती हैं, उसका उपयोग करने के लिए वे पूरी तरह स्वतंत्र हैं। परिवार के आर्थिक निर्णयों में स्त्रियों की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो गयी है । नगरीय समुदाय में निम्न वर्गीय परिवारों की जो स्त्रियाँ शारीरिक श्रम के द्वारा आर्थिक साधन प्राप्त करती हैं। उसके उपयोग से उनकी पुरुषों पर निर्भरता कम होती जा रही है। इससे निम्नवर्गीय परिवारों में तनाव की घटनाएँ भी सामने आती हैं लेकिन यह स्थिति उतनी बुरी नहीं है जैसी की कुछ समय पहले तक थी । ग्रामीण समुदाय में भी स्त्रियों की आर्थिक प्रस्थिति में पहले की तुलना में व्यापक सुधार मेंदेखने को मिलता है । इस सम्बन्ध में ग्रामीण को हम तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं—(अ) वे स्त्रियाँ जो खेती या परिवार के दूसरे व्यवसाय में सहभागी हैं; (ब) वे स्त्रियाँ जो सरकार द्वारा चलाये जा रहे व्यावसायिक कार्यक्रमों के द्वारा आजीविका उपार्जित करती हैं; (स) वे शिक्षित स्त्रियाँ जो गाँव में ही स्थित किसी स्कूल या कार्यालय में नौकरी करती हैं। परिवार के व्यवसाय में सहभाग करने वाली स्त्रियों की परम्परागत आर्थिक कठिनाइयों में अधिक परिवर्तन नहीं हुआ है लेकिन स्त्रियों के प्रति पुरुषों की मनोवृत्तियों में स्वयं परिवर्तन होने से उनकी आर्थिक समस्याओं का काफी समाधान हो चुका है। विकास कार्यक्रमों से सम्बन्धित कुटीर उद्योग में काम करने वाली स्त्रियाँ धीरे-धीरे आर्थिक रूप से आत्म-निर्भर होती जा रही हैं क्योंकि कम साधनों के बाद भी इनके द्वारा वे अपनी सीमित आवश्यकताओं को पूरा कर लेती हैं। गाँव में नौकरी करने वाले शिक्षित स्त्रियों का आर्थिक जीवन बहुत कुछ नगरीय समुदाय की काम-काजी स्त्रियों की तरह हो गया है। गाँवों में ऐसे परिवारों की भी कमी नहीं है जिनमें पुरुष स्त्रियों द्वारा उपार्जित आय पर आश्रित रहते हैं। ऐसे परिवारों में स्त्रियों की प्रस्थिति में सबसे अधिक सुधार हुआ है ।
  3. विश्वासों तथा अनुष्ठानों में परिवर्तन (Changes in Beliefs and Rituals) — भारतीय समाज में स्त्रियों की प्रस्थिति को एक विशेष रूप देने में विभिन्न विश्वासों तथा अनुष्ठानों का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। विश्वास हमारे ज्ञान अथवा सोचने की एक विशेष प्रणाली है जिसके द्वारा हम विभिन्न प्रकार के सुखों-दुखों, सफलता-असफलता, न्याय-अन्याय, जन्म – मृत्यु तथा ऐसी प्रत्येक घटना को समझने का प्रयत्न करते हैं जिन्हें किसी दूसरे तार्किक आधार पर नहीं समझा जा सकता । अधिकांश विश्वास ईश्वरीय इच्छा, भाग्य अथवा अलौकिक जीवन से सम्बन्धित होते हैं । इन विश्वासों के आधार पर जो धार्मिक क्रियाएँ की . जाती हैं, उन्हीं को अनुष्ठान कहा जाता है । भारतीय समाज में स्त्रियों की परम्परागत प्रस्थिति को प्रभावित करने में यहाँ के विश्वासों और विभिन्न अनुष्ठानों का विशेष योगदान रहा है उदाहरण के लिए बाल विवाह के प्रचलन, विधवाओं का एकाकी जीवन, स्त्रियों की पुरुषों पर निर्भरता प्रत्येक दशा में पति के प्रति पूर्ण समर्पण, पुत्री के जन्म पर दुख आदि ऐसे विश्वास हैं जिनकी विवेचना धार्मिक आधार पर ही होती रही थी । इन्हीं विश्वासों के आधार पर हमारे समाज में पुत्र के विवाह के अवसर पर कन्या दान करना, स्त्री के विधवा होने पर उसके सिर पर के बाल काट देना, अनेक धार्मिक क्रियाओं से स्त्रियों को वंचित रखना, सतियों की गाथाओं के साथ सती होने वाली स्त्रियों की पूजा करना तथा पुत्री के जन्म की दशा में नामकरण संस्कार को अलग ढंग से आयोजित करना आदि कुछ विशेष अनुष्ठान विकसित हुए । ऐसे सभी विश्वास और अनुष्ठान स्त्रियों को यह विश्वास दिलाते रहे हैं कि उनकी प्रस्थितिं उनके भाग्य का परिणाम है तथा प्रत्येक दशा में पति और पुत्र की सेवा करना ही स्त्री का एकमात्र धर्म है । नगरीय समुदाय में आज संस्थागत व्यवहार के रूप में परम्परागत विश्वासों और अनुष्ठानों का प्रभाव बहुत तेजी से कम होता जा रहा है । परम्परागत विश्वासों का सम्बन्ध अब ईश्वरीय इच्छा से नहीं माना जाता बल्कि इन विश्वासों को एक ऐसी सामाजिक नीति का हिस्सा समझा जाता है जो पुरुष प्रधान व्यवस्था को बनाये रखने के लिए विकसित की गयी । इसी कारण नगरों में बाल विवाह का विरोध बढ़ रहा है तथा परिवार में विधवा को वही स्थान दिया जाने लगा है जो परिवार की दूसरी स्त्री सदस्यों को प्राप्त होता है । एक दुश्चरित्र और अन्यायी पति को उसकी पत्नी द्वारा अपने भगवान के रूप में नहीं देखा जाता । अधिकांश परिवारों में पुत्री के जन्म पर भी उसी तरह हर्ष मनाया जाता है जिस तरह पुत्र के जन्म पर । अब यह विश्वास समाप्त होता जा रहा है, कि पुत्र के जन्म के बिना व्यक्ति को मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता । सतियों की पूजा तथा इसी तरह के उन अनुष्ठानों का स्त्रियों द्वारा विरोध किया जाने लगा है जिनके द्वारा परिवार और समाज में स्त्रियों के शोषण को प्रोत्साहन मिलता रहा था। ग्रामीण जीवन में भी परम्परागत विश्वासों का प्रभाव कम होने के साथ ही अनुष्ठानों का संक्षिप्तीकरण होने लगा है। इन परिवर्तनों ने स्त्रियों की प्रस्थिति में सुधार की प्रक्रिया को प्रोत्साहन दिया है ।
  4. सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन ( Change in Social Values ) – समाज में व्यक्ति के व्यवहारों का निर्धारण सामाजिक मूल्यों के आधार पर ही होता है । मूल्य ही यह हैं कि किस क्रिया का क्या अर्थ है तथा कौन-से व्यवहार उचित हैं और कौन-से अनुचित । परम्परागत रूप से भारतीय समाज में स्त्रियों को बचपन से ही ऐसे मूल्यों का प्रशिक्षण दिया जाता रहा है जिससे वे अपने आप को पूरी तरह पुरुषों के अधीन समझें तथा • किसी तरह के अधिकारों या स्वतंत्रता की माँग किये बिना परिवारों के सभी सदस्यों की सेवा करने को ही अपना धर्म समझती रहें । इन्हीं मूल्यों के आधार पर धर्म-ग्रन्थों और पौराणिक गाथाओं में भी स्त्रियों के लिए व्यवहार के कुछ विशेष नियम निर्धारित किये गये । वर्तमान युग में इन मूल्यों में क्रांतिकारी परिवर्तन हो जाने के कारण भी स्त्रियों की प्रस्थिति में भारी परिवर्तन हुए हैं। नगरीय और ग्रामीण समुदाय में मूल्यों में होने वाले परिवर्तन को अब स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है, यद्यपि यह परिवर्तन ग्रामीण समुदाय की तुलना में नगरीय समुदायों में अधिक स्पष्ट और व्यापक हैं। आज सभी नगरों में ऐसे संगठनों की संख्या बढ़ती जा रही है जो स्त्रियों में जागरूकता पैदा करके उन्हें परिवार और समाज में शोषण के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए तैयार करते हैं । विभिन्न स्त्री गोष्ठियों में होने वाले विचार-विमर्श से स्त्रियों को अपने साथ किये जाने वाले भेद-भाव का विरोध करने की प्रेरणा मिलती है । अब स्त्रियाँ संगठित होकर उन व्यवहारों का विरोध करने लगी हैं जिनके कारण उनका जीवन अपमानित होता स्त्रियों रहा था । समय-समय पर स्त्री संगठनों द्वारा स्त्रियों से सम्बन्धित अश्लील विज्ञापनों, के शोषण, बलात्कार की घटनाओं और दहेज हत्याओं के विरुद्ध व्यापक आन्दोलन किये जाते हैं । नारी मुक्ति के लिए होने वाला आन्दोलन अब सामान्य स्त्रियों के जीवन को भी प्रभावित करने लगा है। ग्रामीण क्षेत्रों में भी स्त्री मण्डल से सम्बन्धित स्त्रियाँ घर-घर जाकर स्त्रियों को उनके अधिकारों का बोध कराती हैं । यह सच है कि इन प्रयत्नों से सामाजिक मूल्य पूरी तरह नहीं बदल सके हैं लेकिन वर्तमान में परिवर्तन की जो प्रक्रिया आरम्भ हुई है, उससे इतना अवश्य स्पष्ट होता है कि भविष्य में उन मूल्यों का प्रभाव बहुत बड़ी सीमा तक समाप्त हो जायेगा जिन्होंने स्त्रियों को सभी तरह के अधिकारों से वंचित रखने में एक प्रभावपूर्ण भूमिका निभायी थी ।
  5. आदर्शात्मक प्रतिमानों में परिवर्तन (Change in Normative Patterns) – व्यवहार के जिन तरीकों को कोई समुदाय अपना आदर्श मानता है, उन्हीं को हम आदर्श प्रतिमान कहते हैं । इन प्रतिमानों का निर्धारण एक विशेष समाज की संस्कृति और सामाजिक मूल्यों के द्वारा होता है। उदाहरण के लिए विभिन्न प्रकार की जनरीतियाँ, लोकाचार, प्रथाएँ तथा परम्पराएँ कुछ विशेष आदर्श प्रतिमान हैं। भारतीय समाज मे स्मृतिकाल से लेकर – स्वतंत्रता से पहले तक इस तरह के आदर्श प्रतिमान फलते-फूलते रहे जो जाति व्यवस्था के नियमों को प्रभावपूर्ण बनाने भाग्य सम्बन्धी विश्वासों को प्रोत्साहन देने तथा स्त्रियों को कमजोर, मूर्ख और दुराचारी सिद्ध करने से सम्बन्ध थे । धीरे-धीरे इन्हीं प्रतिमानों ने परम्परा को लेकर स्त्री-जीवन को अछूत जातियों की तरह ही अपमानित किया । आज सामाजिक प्रतिमानों की प्रकृति में परिवर्तन होने से भी नगरीय और ग्रामीण समुदाय में स्त्रियों की प्रस्थिति में परिवर्तन होने लगा है। नगरों में अधिकांश गृहिणियाँ अब जाति सम्बन्धी उन नियमों को नहीं मानती जो उच्च और निम्न जातियों के बीच विभेद पैदा करते हैं । ऐसी जनरीतियों, लोकाचारों और प्रथाओं का प्रभाव तेजी कम होता जा रहा है जो धर्म के नाम पर अन्ध-विश्वासों को बढ़ाने के माध्यम थे । गाँवों में भी ओझाओं और तान्त्रिकाओं की शक्ति में अब अधिक विश्वास नहीं किया जाता । साधारणतया यह तांत्रिक और ओझा स्त्रियों में ही किसी दुष्ट शक्ति के प्रवेश को घर की विपत्तियों का कारण सिद्ध करने का काम करते रहे थे । व्यवहार के जिन तरीकों को कुछ समय पहले तक आदर्श रूप में देखा जाता था, उन्हें अब केवल एक अन्ध-विश्वास और व्यवहार का पिछड़ा हुआ तरीका माना जाता है । इस दशा ने भी स्त्रियों के व्यवहार प्रतिमानों को एक नया रूप देना आरम्भ कर दिया है । स्पष्ट है कि स्त्रियों के संस्थागत व्यवहारों में परिवर्तन होने से उनकी प्रस्थिति में एक रचनात्मक परिवर्तन का आना प्रारम्भ हुआ।
सामुदायिक सहभागिता में परिवर्तन (Change in Community Participation)– परम्परागत रूप से स्त्रियों का जीवन केवल परिवार तक ही सीमित था । गाँवों में जो स्त्रियाँ खेतों पर काम करती थीं, वे भी पर्दे में रहते हुए इस काम को परिवार के दायित्व के रूप पूरा करती थीं । परिवार अथवा नातेदारी के अतिरिक्त किसी भी पुरुष के सम्पर्क में आना स्त्रियों के लिए पूरी तरह वर्जित था । बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ से लड़कियों को शिक्षा देने के लिए बहुत से – कन्या विद्यालयों की स्थापना होने लगी लेकिन सम्भ्रान्त परिवार के लोग लड़कियों को शिक्षा देना धर्म विरोधी मानते रहे । गाँवों में न तो शिक्षा की कोई व्यवस्था थी और न ही कोई स्त्री परिवार से बाहर आयोजित होने वाले उत्सव में सहभाग कर सकती थी । वर्तमान युग में यह स्थिति पूरी तरह बदल चुकी है। आज सामुदायिक जीवन का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जिसमें स्त्रियों के सहभाग में तेजी से वृद्धि न हुई हो ।
  1. सामाजिक सहभागिता में वृद्धि (Increase in Social Participation)—आज सभी समाजवादी यह मानते हैं कि किसी व्यक्ति या समूह की प्रस्थिति के निर्धारण की एक मुख्य कसौटी सार्वजनिक जीवन में उसके द्वारा किया जाने वाला सहभाग है । अतीत में स्त्रियों और निम्न जातियों के लोगों को सामाजिक सहभाग से वंचित रखने के कारण ही उनकी प्रस्थिति बहुत नीची हो गयी । जिस तरह निम्न जातियों के सामाजिक सम्पर्क का विस्तार होने उनकी प्रस्थिति में भारी सुधार हुआ, उसी तरह आज सामाजिक जीवन में स्त्रियों का सहभाग बढ़ने से उनकी परम्परागत निर्योग्यताएँ भी दूर हाने लगी हैं । नगरीय क्षेत्रों में स्त्रियों के सामाजिक जीवन में एक भारी बदलाव आया है। परिवर्तन की यह प्रक्रिया उस समय से शुरू हुई जब स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान स्त्रियों ने घर के चहारदिवारी से बाहर निकलकर विभिन्न आन्दोलनों में हिस्सा लेना आरम्भ किया । जैसे-जैसे शिक्षा और सामाजिक चेतना के फलस्वरूप उन्होंने अपने जीवन का मूल्यांकन करना आरम्भ किया, उनके सामाजिक सम्पर्क का क्षेत्र भी बढ़ने लगा । आज नगरीय समुदाय में पर्दा प्रथा पूरी तरह समाप्त हो चुकी है, अपने जीवन साथी के चयन के प्रति स्त्रियाँ अधिक जागरूक हो गयी हैं तथा खाली समय का उपयोग बेकार में न बिताकर अधिकंश स्त्रियाँ विभिन्न स्त्री संगठनों के कार्यक्रमों में व्यतीत करना अधिक उपयोगी मानने लगी हैं। घर से बाहर निकलकर विभिन्न प्रकार के हस्तशिल्प, घरेलू उद्योगों तथा उपयोगी व्यवसायों के प्रशिक्षण में स्त्रियों की रुचि बढ़ रही है। सरकार द्वारा समय-समय पर स्त्रियों के विकास के लिए जो योजनाएँ लागू की जाती हैं, उनमें स्त्रियों का सहभाग निरन्तर बढ़ रहा है। उनके द्वारा मनोरंजन के लिए अपना पृथक् संगठन बनाकर विचारों का आदान-प्रदान किया जाता है । सामाजिक उत्सवों में पति-पत्नी अब संयुक्त रूप से हिस्सा लेते हैं। पुरुषों के जीवन में जैसे-जैसे व्यस्तता बढ़ रही है, अधिकांश सामाजिक दायित्वों को पूरा करने का काम स्त्रियों को हस्तान्तरित होने लगा है। ग्रामीण समुदाय में भी स्त्रियों की सामाजिक सहभागिता में एक स्पष्ट परिवर्तन दिखायी देता है । गाँवों में स्त्रियों के विकास के लिए बनने वाले स्त्री मण्डलों के द्वारा उनकी सहभागिता में बहुत वृद्धि हुई है। कृषि, पशुपालन, हस्तशिल्प तथा कुटीर उद्योगों में प्रशिक्षण देने सम्बन्धी कार्यक्रमों में स्त्रियों की रुचि बढ़ रही है। गाँवों में आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में भी स्त्रियों का सहभाग बढ़ता जा रहा है। स्त्रियों में यहाँ भी पर्दा प्रथा लगभग समाप्त हो चुकी है।
  2. स्त्री उद्यमिता (Women Enterprenureship) — सामुदायिक सहभाग में स्त्रियों की बदलती हुई प्रस्थिति का अनुमान विभिन्न उद्यमों में बढ़ती हुई संख्या के रूप में देखने को मिलता है । उद्यमिता का तात्पर्य किसी उद्यम तथा निर्णय की एक ऐसी प्रक्रिया से है जिसका उद्देश्य किसी आर्थिक क्रिया अथवा इकाई का संचालन करना होता है । यह सच है कि भारत में नगरीय स्त्रियों की जनसंख्या का एक छोटा-सा भाग ही विभिन्न उद्यमों के संचालन में लगा हुआ है लेकिन इससे उनके सामुदायिक सहभाग की प्रवृत्ति स्पष्ट हो जाती है। जो स्त्रियाँ विभिन्न उत्पादन इकाईयों अथवा उद्यमों का संचालन करती हैं, उनमें अधिकांश मध्यम वर्ग से सम्बन्धित हैं। इन उद्यमियों में एक बड़ा प्रतिशत उन स्त्रियों का है जिन्होंने सरकार द्वारा स्त्रियों के लिए आरक्षित उद्योगों को स्थापित करके अपनी कुशलता का परिचय दिया है । ऐसी स्त्री उद्यमियों का प्रमुख सम्बन्ध नगरीय समुदायों से है । भारत में जब सन् 1975 को ‘अन्तर्राष्ट्रीय महिला वर्ष’ के रूप में मनाया गया तो छठी पंचवर्षीय योजना के अन्तर्गत कुछ उद्योगों के संचालन के लिए स्त्रियों को प्राथमिकता दी जाने लगीं । ऐसा अनुमान है कि इस समय नगरीय समुदाय में 6 हजार से भी अधिक औद्योगिक इकाइयों का संचालन स्त्रियों द्वारा किया जा रहा है। इनमें खाद्य पदार्थों का परिरक्षण सिले हुए वस्त्र, माचिस तथा मोमबत्ती उद्योग, रासायनिक पदार्थ, हथकरघा, इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, रबड़ की वस्तुओं पर आधारित उद्योग, चिकित्सा सम्बन्धी वस्तुओं का निर्माण तथा घरेलू उपकरणों से सम्बन्धित उद्योग प्रमुख हैं। इन उद्योगों को सरकार द्वारा वित्तीय सहायता मिलने तथा इनमें बनी वस्तुओं की बिक्री में सहायता देने के कारण विभिन्न उद्योगों के क्षेत्र में स्त्रियों का सहभाग बढ़ता जा रहा है । जहाँ तक ग्रामीण स्त्रियों में उद्यमिता के विकास का प्रश्न है, ग्रामीण स्त्रियाँ भी कृषि उत्पादन से सम्बन्धित नयी विधियों का उपयोग करके देश की अर्थव्यवस्था में सक्रिय योगदान करने लगी है । यह सच है कि पारिभाषिक रूप से कृषि कार्य को उद्योग में सम्मिलित नहीं किया जाता लेकिन व्यापारिक फसलों के उत्पादन में उसी तरह की जोखिम और निर्णय की आवश्यकता होती है, जैसे कि अन्य उद्योगों में देखने को मिलती है। सरकार से विभिन्न अनुदान मिलने के कारण गाँवों में दस्तकारी, ताड़ी बनाने, गुड़ बनाने, पापड़-चटनी-मुरव्ये और अचार बनाने से सम्बन्धित इकाइयों को स्थापित करने में स्त्रियों की रुचि बढ़ती जा रही है । इससे ग्रामीण स्त्रियों की आर्थिक आत्म-निर्भरता बढ़ी है तथा कुछ सीमा तक उनमें नेतृत्व के गुण भी विकसित हुए हैं । अनेक व्यक्ति यह मानते हैं कि स्त्रियों द्वारा उद्यमों का संचालन करने के बाद भी उनमें पुरुषों का हस्तक्षेप अधिक रहता है तथा इसी कारण स्त्रियों में स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने की क्षमता पैदा नहीं हो पाती । कुछ सीमा तक यह बात सही है लेकिन जैसे-जैसे स्त्रियों में शिक्षा और आत्मनिर्भरता बढेगी उनमें स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने की क्षमता अपने-आप में विकसित होती जायेगी ।
  3. उत्सवों तथा धार्मिक सहभागिता में परिवर्तन (Chnage in Festival and Religious Participation) — सामुदायिक सहभागिता का एक अन्य रूप विभिन्न प्रकार के उत्सवों तथा धार्मिक गतिविधियों में सहभागिता के रूप में देखने को मिलता है । उत्सवों तथा धार्मिक सहभागिता का सम्बन्ध केवल कुछ विशेष त्यौहारों तथा धार्मिक पर्वों को मनाने से नहीं है बल्कि उत्सव सामूहिक जीवन के ऐसे प्रतीक हैं जिनसे सम्बन्धित सहभागिता किसी समुदाय के लोगों की सामाजिक जागरूकता को स्पष्ट करती है । नगरीय क्षेत्रों में आज स्त्रियाँ उन उत्सवों में अधिक सक्रिय होती जा रही हैं जिनका सम्बन्ध विभिन्न कल्याण कार्यों से है । मूक और बधिर बच्चों द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में सम्मिलित होकर उनका उत्साह बढ़ाना तथा विभिन्न प्रकार की गोष्ठियों की चर्चा में हिस्सा लेना स्त्रियों की सामुदायिक चेतना को स्पष्ट करता है। नगरों में धार्मिक सहभागिता के प्रतिमानों में भारी परिवर्तन हुआ है। अधिकांश स्त्रियाँ धार्मिक सहभागिता का तात्यर्य व्रतों उत्सवों अथवा पूजा-उपासना के आयोजनों में हिस्सा लेना नहीं मानतीं । उनके लिए सन्त प्रकृति के लोगों द्वारा किए जाने वाले प्रवचनों में हिस्सा लेना अधिक उपयोगी समझा जाने लगा है । ये प्रवचन उन नैतिक और मानवीय मूल्यों से सम्बन्धित होते हैं जिनके द्वारा स्त्रियाँ अपने जीवन को अधिक संतुलित बना सकें । ग्रामीण समुदाय में धीरे-धीरे स्थानीय विश्वासों पर आधारित ऐसे उत्सवों का प्रभाव कम होता जा रहा है जो उन लोगों के अन्ध-विश्वासों को बढ़ाते हैं । इसके विपरीत यदि स्वास्थ्य के परीक्षण, परिवार नियोजन के तरीकों तथा विकास योजनाओं की जानकारी से सम्बन्धित गाँव में कोई आयोजन किया जाता है तो उसमें भाग लेने वाली स्त्रियों की संख्या बढ़ती जा रही है । धार्मिक क्षेत्र में ग्रामीण स्त्रियों का दृष्टिकोण आज भी एक बड़ी सीमा तक परम्परागत है लेकिन धर्म पर आधारित रूढ़ियों के प्रति उनकी उदासीनता बढ़ती जा रही है। कुल मिलाकर गाँवों में भी धर्म पूजा-उपासना के वैयक्तिक ढंग से बाहर निकलकर एक सामूहिक रूप ग्रहण करने लगा है । इसी कारण ग्रामीण मन्दिरों में होने वाली पूजा में स्त्रियों की संख्या बढ़ रही है ।
  4. राजनीतिक सहभाग में वृद्धि (Increase in Political Participation) – के एम. पणिक्कर ने लिखा है कि “जब स्वतंत्रता ने पहली अँगड़ाई ली, तब भारत के राजनीतिक जीवन में स्त्रियों की बढ़ती हुई सहभागिता को देखकर बाहर की दुनिया चौंक पड़ी क्योंकि वह तो हिन्दू स्त्रियों को बहुत पिछड़ी हुई, अशिक्षित और एक प्रतिक्रियावादी सामाजिक व्यवस्था से जकड़ी हुई समझने की अभ्यस्त थी ।” स्वतंत्रता के बाद भारत में स्त्रियों को वोट देने का अधिकार मिलने से उनमें राजनीति के प्रति रुचि बढ़ना आरम्भ हुई। प्रारम्भिक स्तर पर स्त्रियों को राजनीतिक सहभाग समाज के उच्च और सम्भ्रान्त वर्ग तक ही सीमित रहा लेकिन धीरे-धीरे इस सहभाग समाज के वर्गों में हिस्सा बढ़ने लगा । राजनीतिक सहभाग के क्षेत्र में भी नगरीय और ग्रामीण समुदाय की स्थिति एक-दूसरे से कुछ भिन्न है लेकिन धीरे-धीरे गाँवों में भी अब स्त्रियों के नेतृत्व के गुण विकसित होने लगे हैं । नगरीय समुदाय की राजनीति में आज स्त्रियों का विशेष स्थान है। मध्यवर्गीय परिवारों में स्त्रियों की एक बड़ी संख्या ऐसी है जो स्वतंत्र रूप से अपने मत का उपयोग करती है । समाचार पत्रों, टेलीविजन तथा संचार के दूसरे साधनों के द्वारा राजनीतिक गतिविधियों को समझने तथा विभिन्न राजनीतिक दलों की भूमिका का मूल्यांकन करने में उनकी रुचि बढ़ती जा रही है । स्थानीय और राष्ट्रीय स्तर पर भी एक नये स्त्री नेतृत्व का विकास हुआ है सामान्य की भी यह धारणा है कि जिन राजनीतिक पदों पर स्त्रियाँ आसीन हैं, उनसे सम्बन्धित विभागों में भ्रष्टाचार की समस्या तुलनात्मक रूप से काफी कम है। अनेक राजनीतिक दलों के शीर्ष नेताओं के रूप में भी स्त्रियों ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया ।

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