समाजीकरण की अवश्यकता या महत्त्व का वर्णन करें।
प्रश्न – समाजीकरण की अवश्यकता या महत्त्व का वर्णन करें।
उत्तर- समाजीकरण के गत सम्पूर्ण विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि समाजीकरण की सफलता व्यक्तित्व के निर्माण की अनिवार्य दशा है। समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा ही व्यक्ति यह जान पाता है कि उसे किन व्यक्तियों के साथ रहना है, उनसे किस प्रकार व्यवहार करना है तथा अपनी क्षमताओं का विकास किस प्रकार करना है। इसके अतिरिक्त यह प्रक्रिया अनेक दूसरे कार्यों के द्वारा भी व्यक्तित्व को संगठित रखने का प्रयास करती है। समाजीकरण के यह कार्य प्रमुख रूप में चार हैं-
1. नियमबद्धता का विकास (Basic Discipline) — समाजीकरण की प्रक्रिया व्यक्ति के जीवन को नियमबद्ध रखने के लिए आवश्यक है। यह प्रक्रिया व्यक्ति को अपने लक्ष्यों को तत्काल पूरा कर लेने पर जोर नहीं देती, बल्कि परिस्थिति के अनुसार लक्ष्यों को आगे के लिए स्थगित करना, छोड़ देना अथवा संशोधित करना सिखाती है। इसका उद्देश्य भविष्य के उद्देश्यों और सामाजिक मूल्यों को ध्यान में रखते हुए व्यवहार की सीख देना होता है। यही कारण है कि व्यक्ति समाज के नियमों को जितना अधिक ग्रहण कर लेता है, उसके व्यक्तित्व का विकास भी उतना ही अधिक मात्रा में होने की सम्भावना रहती है।
2. आकांक्षाओं की पूर्त्ति (To Instil Aspirations) — नियमबद्धता और आकांक्षाओं की पूर्ति में घनिष्ठ सम्बन्ध है। अनुशासन स्वयं ही व्यक्ति को कोई पुरस्कार नहीं देता बल्कि यह आकांक्षाओं की पूर्ति में सहायक होता है। वास्तविकता यह है कि सामाजिक व्यवस्था के अनुसार आकांक्षाएँ भी एक व्यक्ति से दूसरे को संचरित होती रहती हैं। उदाहरण के लिए, यदि एक समाज की अर्थव्यवस्था उच्च तकनीकी ज्ञान पर आधारित है तब अनेक व्यक्ति उद्योगपति, वैज्ञानिक या इन्जीनियर बनने की आकांक्षा रखेंगे। समाजीकरण की प्रक्रिया का कार्य व्यक्ति की आकांक्षाओं के रूप का निर्धारण करना और उनकी आदर्श – पूर्ति में सहायता देना है।
3. सामाजिक दायित्वों की पूर्ति का प्रशिक्षण (To teach the responsibility of Social roles)—प्रत्येक व्यक्ति की अन्य व्यक्तियों की तुलना में अपनी सामाजिक स्थिति क्या है, यह ध्यान रखना आवश्यक है। इसका ध्यान रखते हुए ही व्यक्ति को तरह-तरह की भूमिकाएँ निभानी पड़ती हैं। जैसे एक नेता तथा अनुयाई, शिक्षक और विद्यार्थी तथा वक्ता और श्रोता की भूमिका एक-दूसरे से भिन्न लेकिन एक-दूसरे की पूरक होती है। समाजीकरण की प्रक्रिया यह सिखाती है कि विभिन्न परिस्थितियों में व्यक्ति अन्य व्यक्तियों के व्यवहारों से किस प्रकार सामंजस्य स्थापित करे और अन्य व्यक्तियों से अनुकूलन करने के लिए किस प्रकार की भूमिका निभाए। व्यक्ति की भूमिका ही यह निश्चित करती है कि उसमें किस प्रकार के गुण, विचार, मनोवृत्तियाँ और व्यक्त्वि सम्बन्धी विशेषताएँ होना आवश्यक है।
4. सामाजिक क्षमताओं का विकास (Development of Social Skills) सामाजिक क्षमताओं का अर्थ उन गुणों से है जो व्यक्ति को समाज से अनुकूलन करने में सहायक होते हैं। उदाहरण के लिए, पत्र लिखने की कला, पड़ोसियों से विनम्र व्यवहार, मित्रों से स्पष्ट वार्तालाप, बड़ों का सम्मान करना तथा भोजन की सुन्दर व्यवस्था कुछ सामाजिक क्षमताएँ हैं, जो व्यक्ति के सामाजिक तथा आर्थिक जीवन को प्रभावित करती हैं। इस प्रकार समाजीकरण की प्रक्रिया का यह महत्त्वपूर्ण कार्य व्यक्ति में उन सामाजिक क्षमताओं को विकसित करना है, जिनमें वह अन्य क्षेत्रों में भी अपनी भूमिका को निभा सकें।
5. सामाजिकता का विकास (Development of Socialbility) समाजीकरण की प्रक्रिया का व्यक्तित्व के निर्माण से इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि इसकी अनुपस्थिति में व्यक्ति किसी भी प्रकार एक सामाजिक प्राणी नहीं बन सकता। गैलेस और डेविस ने अनेक ऐसे असमाजीकृत बच्चों का उल्लेख किया है जो समाज के सम्पर्क से पृथक् रहने के कारण सामाजिक मानव नहीं बन सके, जैसे— एक उदाहरण – भारतीय बालिकाओं को जिन्हें सन् 1920 में भेड़ियों के बीच पाया गया। इस समय छोटी लड़की की आयु 2 वर्ष तथा बड़ी लड़की की उम्र 8 वर्ष थी, छोटी लड़की की इस खोज के कुछ महीने बाद ही मृत्यु हो गई जबकि बड़ी लड़की, जिसका नाम कमला रखा गया, सन् 1929 तक जीवित रही। खोज के समय कमला में मानव व्यवहार की कोई भी विशेषताएँ नहीं थीं। वह चारों हाथ-पैरों से चलती थी। रात में घूमती थी। भेड़ियों के समान गुर्राती थी तथा आदमी को देखकर दूसरे जंगली जानवरों की तरह डरती थी। इस समय से कमला को सावधानीपूर्वक सामाजिक सीख दी जाने लगी। फलस्वरूप कमला कुछ बोलना सीख गई, उसने भोजन करना तथा कपड़े पहनना सीख लिया, लेकिन फिर भी उसमें मानवोचित गुणों का पूरा विकास नहीं हो सका।
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