समावेशी शिक्षा पर निबंध लिखें ।

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प्रश्न – समावेशी शिक्षा पर निबंध लिखें ।

उत्तर – वास्तव में “समावेशी शिक्षा, शिक्षण की ऐसी प्रणाली है जिसमें विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को सामान्य बच्चों के साथ मुख्यधारा के स्कूलों पठन-पाठन और आत्मनिर्भर बनने का मौका मिलता है ताकि वे समाज की मुख्यधारा में शामिल हो सकें । इसके तहत पठन-पाठन के अलावा विकलांग बच्चों के लिए बाधा-रहित स्कूली माहौल का निर्माण कार्य भी शामिल है।” शिक्षण की इस नवीन प्रणाली से हाशिये पर के वैसे बच्चे लाभान्वित होते हैं, जिन्हें अपनी दिनचर्या से लेकर पढ़ाई पूरी करने के लिए विशेष देख-भाल की आवश्यकता पड़ती है। विशेष आवश्यकता वाले बच्चे सामान्यतः दृष्टि, श्रवण, अस्थि एवं अधिगम अक्षमता के साथ-साथ मानसिक मंदता और बधिरांधता से ग्रस्त होते हैं। इन्हें सामान्य बच्चों के साथ समायोजित होने में काफी कठिनाई होती है। माता-पिता या अभिभावकों का सोच भी इन बच्चों के प्रति सकारात्मक नहीं होता है। लिहाजा वे अपने आपको समाज से कटा महसूस करते हैं। परिणामस्वरूप वे स्कूली शिक्षा से बाहर ही रह जाते हैं। समाज में ऐसे बच्चों की आबादी 5-10 फीसदी है। इसलिए ऐसे बच्चों को शिक्षा में समावेशन किया जाना लाजिमी है ।

समावेशन कोई प्रयोग नहीं है जिसकी जाँच की जाए। यह एक मूल्य है जिसका अनुसरण किया जा सकता है। सभी बच्चे, चाहे वे विकलांग हों अथवा नहीं, को शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार है। उन्हीं को भविष्य में देश के नागरिक बनना है। भारत में संसाधन के अभाव में सामान्य बच्चों को गुणवत्ता पूर्ण मुख्यधारा के स्कूलों की सुविधा मयस्सर नहीं हो रहा ऐसे में विशेष आवयश्कता वाल बच्चों को मुख्यधारा के स्कूलों में दाखिले के जाँच और अनुसंधान की बात बेमानी है।

बच्चे की विकलांगता को ऐसी खराबी या कमी माना जाता है जिसके उपचार और सुधार की आवश्यकता हो । उपचार भी पृथक् रूप से और सुरक्षित वातावरण में होना चाहिए । विकलांगता के बारे में यह चिकित्सकीय दृष्टि शिक्षा के क्षेत्र में भी आई । जिससे विकलांग बच्चों की विशेष शिक्षा के लिए पृथक प्रणाली का जन्म हुआ, ऐसा कमोबेश पश्चिम में जनशिक्षण के प्रसार के साथ हुआ । शारीरिक और ऐन्द्रिक विकलांगता के मामले में दोष सिद्धांत मुख्य तौर से प्रयुक्त हुआ । बीसवीं सदी के आरंभ में मनोविज्ञान और मानसिक जाँच ” के विज्ञान की उत्पत्ति हुई । इसका प्रसार उन बच्चों तक हुआ जो शारीरिक विकलांगता या अंगों की क्षति से पीड़ित नहीं थे, पर समस्याग्रस्त माने गए और उन्हें मानसिक रूप से कमजोर माना गया ।

विकलांगता और उसकी ‘जरूरतों’ को एक रोग समझने की दृष्टि से निर्भरता के लक्षण उत्पन्न हुए। चिकित्सकीय जरूरतों शैक्षिक जरूरतों पर हावी रही और बच्चे विकलांगता को निजी त्रासदी मानने के लिए मजदूर किए गए । यद्यपि आवश्यकता आधारित दृष्टि ने उन बच्चों की विशेष जरूरतों को पूरा करने के लिए मदद और परोपकार पर ध्यान केंद्रित किया, जबकि अधिकार आधारित दृष्टि ने हकदारी, समानता और सामाजिक न्याय पर ध्यान दिया । अधिकार आधारित दृष्टि समाज और संस्थानों की नीतियों तथा रवैए में बदलाव की माँग करती है । 1970 व 1980 के दशक में पश्चिमी देशों में समानता और अधिकारों की लगातार बढ़ती माँग के परिणामस्वरूप विशेष शैक्षिक जरूरत वाले बच्चों को मुख्य धारा के स्कूलों में ‘समेकित’ करने की जरूरत महसूस की जाने लगी। हालाँकि शब्दों की जुगाली करने वालों ने स्कूली शिक्षा की प्रक्रिया में आए किसी भी वैचारिक बदलाव को नहीं माना । नतीजा हुआ कि नियमित विद्यालयों के भीतर ही ‘ विशेष विद्यालयों’ की स्थापना होने लगी ।

देश के अधिकतर निजी विद्यालयों में विशेष शिक्षा’ दृष्टिगोचर होती है, जो विशेष आवश्यकता वाले बच्चों का नामांकन समावेशी शिक्षा देने के नाम पर करते हैं । इन विद्यालयों में बच्चे ‘आते’ हैं पर इसके अंग ‘नहीं बन पाते’ । बच्चों की विशेष आवश्यकता के मद्देनजर कोई बदलाव लाए बगैर उन्हें ‘किसी तरह रख लेने की दृष्टि अपनाई जाती है, जिसमें बच्चों से अपेक्षा होती है कि वे नियमित विद्यालयों की संस्कृति, मानक और पाठ्यचर्या के साथ एकाकार हो जाएँ। इस प्रकार यह एकीकरण इन बच्चों पर एक और बोझ बन जाता है। दूसरे शब्दों में, एकीकृत शिक्षा की संभावना सीमित हो जाती है, क्योंकि बच्चों से विद्यालय के माहौल में खप जाने की अपेक्षा होती है । इस प्रक्रिया में कई दृष्टियों-‘निकासी’, ‘उपचार’ तथा ‘मुख्यधारा में शामिल करना’ पर अमल होता है और इस तरह विशेष आवश्यकता वाले बच्चों पर ही पूरा बोझ डाल दिया जाता है ।

एक ओर जहाँ एकीकरण संबंधी विमर्श मुख्यधारा के विद्यालय परिसर में विकलांग बच्चों के लिए पृथक् विशेष विद्यालय बनाने तक रहा गया है, वहीं दूसरी ओर समावेशी विद्यालय बनाने की खातिर विविधता आधारित विमर्श उभरकर सामने आए हैं। विशेष आवश्यकता और सीखने में कठिनाई के बारे में विविधता का विमर्श विकलांगता को ‘जन्मजात’’ और ‘निरपेक्ष’ नहीं मानता, बल्कि ऐतिहासिक और संव्यावहारिक मानता है । विशेष आवश्यकता और विकलांगता को विविधता के रूप में महत्त्व देने का यह अर्थ नहीं कि इस समस्या से चिपका रहा जाए, बल्कि इसे महत्ता प्रदान करने को उत्सव के रूप में मनाया जाना चाहिए । विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को ‘अन्य’ या ‘वे’ के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि समावेशी तथा प्रतिसंवेदी विद्यालय के निर्माण में उनके योगदान को महत्त्व देना चाहिए ।

अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य (International Perspective) – समावेशी शब्द का प्रचलन 1990 के दशक के मध्य से बढ़ा, जब 1994 में सलामांका (स्पेन) में यूनेस्को द्वारा विशेष शैक्षिक आवश्यकताओं पर विशेष विश्व सम्मेलन सुलभता और समता का आयोजन हुआ। इस सम्मेलन में 92 सरकारों और 25 अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने हिस्सा लिया । सम्मेलन का समापन इस उद्घोषणा के साथ हुआ कि “प्रत्येक बच्चे की चरित्रगत विशिष्टताएँ, रुचियाँ, योग्यता और सीखने की आवश्यकताएँ अनोखी होती हैं।” इसलिए शिक्षा प्रणाली में इन विशिष्टताओं और आवश्यकताओं की व्यापक विविधता का ध्यान रखना चाहिए । सम्मेलन में यह उद्घोषणा भी की गई कि समावेशी दिशाबद्धता वाले नियमित विद्यालय भेदभाव पूर्ण व्यवहारों को रोकने, सहज रूप से अंगीकार करने वाले समुदायों को बनाने, समावेशी समाज की रचना करने और सबों के लिए शिक्षा हासिल करने में सर्वाधिक कारगर है।

सलामांका वक्तव्य में इस बात पर बल दिया गया है कि – “हर शिशु को शिक्षा का बुनियादी अधिकार है और उसे अधिगम का एक स्वीकार्य स्तर प्राप्त करने और बनाए रखने का अवसर दिया जाना चाहिए । ”

सलामांका वक्तव्यं के बाद डाकर (सेनेगाल) में वर्ष 2000 में आयोजित विश्व शिक्षा मंच पर भी शिक्षा में समावेश की बात दुहरायी गई । डाकर सम्मेलन में स्पष्ट किया गया कि ‘किसी व्यक्ति या बच्चों को उच्च कोटि की प्राथमिक शिक्षा पूर्ण करने के अवसर से केवल इसलिए वंचित नहीं किया जाना चाहिए कि वह सामर्थ्य से परे है । बाल श्रम के रास्ते में रोड़ा नहीं होना चाहिए । विशेष आवश्यकता वाले अभावग्रस्त उपजातीय अल्पसंख्यकों के दूरदराज के और अलग-अलग समुदायों के तथा शिक्षा से वंचित नगरीय व दूसरे लोगों का समावेश वर्ष 2015 तक सार्वभौम प्राथमिक शिक्षा की प्राप्ति की रणनीतियाँ का अभिन्न अंग होना (यूनेस्को 2000 : 15)।

अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के इन विकासक्रमों ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी है कि कोई भी देश ‘समावेशी शिक्षा’ को कार्य रूप दिए बगैर अपनी तरक्की कर ही नहीं सकता है। इसलिए इसे अपनाने में भारत भी पीछे नहीं है ।

भारतीय परिप्रेक्ष्य ( Indian Perspective)-‘समावेशी शिक्षा’ भारत की शैक्षिक शब्दावली में अभी हाल में जुड़ी है। शैक्षिक जगत् में समावेशी शिक्षा की अवधारणा स्पष्ट होने के पहले भारत में विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की शिक्षा-दीक्षा विशेष शिक्षकों विशेष स्कूलों में, विशेष शैक्षिक गतिविधियों और विशेष पाठ्यक्रमों के जरिए दी जाती थी । शिक्षण की ऐसी प्रणाली विशिष्ट शिक्षा कहलाती है। कालांतर में बच्चों के लिए एकीकृत शिक्षा प्रणाली की अवधारणा सामने आयी । इस शिक्षण प्रणाली के तहत विभिन्न श्रेणी के निःशक्तताग्रस्त बच्चों को सामान्य विद्यालयों में सामान्य बच्चों के साथ-साथ समन्वित कर, एक जैसी शिक्षण पद्धति एवं परिस्थितियों में पठन-पाठन की सुविधा मुहैया करायी जाती है। वही समावेशी शिक्षा विशेष एवं सामान्य शिक्षा की एक समेकित पद्धति है । यह विद्यालय व्यवस्था में एक मूलभूत सुधार की कल्पना है जिसमें पाठ्यचर्या अनुकूलन, शिक्षण पद्धति, मूल्यांकन और यहाँ तक कि विद्यार्थी समूहों का निर्माण और बाधा रहित स्कूली माहौल का निर्माण शामिल है ।

विशेष आवश्यकता वाले बच्चे समाज के अभिन्न अंग हैं, इस बात का अहसास करते हुए नीति-निर्माताओं ने विकलांग बच्चों को शिक्षित करने की वकालत की है। इसलिए विकलांग शिक्षा का तत्त्व हर आयोग की अनुशंसाओं और शैक्षिक दस्तावेजों में दृष्टिगोचर होता है।

सार्जेन्ट रिपोर्ट (1944) : (i) मानसिक या शारीरिक रूप से निःशक्त बच्चे / व्यक्तियों के लिए राष्ट्रीय शिक्षा व्यवस्था में यह एक अभिन्न अंग होना चाहिए तथा यह प्रावधान शिक्षा विभाग द्वारा किया जाना चाहिए ।

(ii) भारत में सरकारों ने अभी तक शिक्षा की इस धारा में शायद कोई दिलचस्पी दिखाई हो, अभी तक जो प्रयास हुए वह लगभग पूरी तरह से स्वयंसेवी प्रयासों के कारण हुआ है ।

(iii) जहाँ तक संभव हो निःशक्त बच्चों को सामान्य बच्चों से अलग नहीं किया जाना चाहिए । उन्हें विश्वविद्यालयों एवं संस्थाओं में तभी भेजा जाना चाहिए जब ऐसा करना उन्हें दोष की प्रकृति और सीमा के कारण आवश्यक हो जाए । अंशतः निःशक्त बच्चों की सामान्य विद्यालयों में विशेष व्यवहार किया जाना चाहिए ।

(iv) दृष्टिहीन व बधिर बच्चों/व्यक्तियों को शिक्षा संबंधी विशेष बंदोबस्त की आवश्यकता है, इनमें विशेष प्रशिक्षण प्राप्त अध्यापकों के प्रशिक्षण के लिए केंद्रीय संस्थाओं की स्थापना आवश्यक है ।

(v) जहाँ तक संभव हो आबदाता रोजगारों के लिए नि:शक्तों को प्रशिक्षण देने, उनके लिए ऐसे रोजगार की तलाश कर विशेष ध्यान देना चाहिए प्रवृत्ति सहायता कार्य भी आवश्यक है ।

कोठारी आयोग (1964-66) – कोठारी आयोग (भारत का प्रथम शिक्षा आयोग) के मुताबिक ‘एक विकलांग बच्चे के लिए शिक्षा का पहला कार्य यह है कि सामान्य बच्चों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बनाए गए सामाजिक-सांस्कृतिक पर्यावरण में समंजन के लिए उसे तैयार करे । इसलिए आवश्यक है कि विकलांग बच्चों की शिक्षा सामान्य शिक्षा प्रणाली का ही एक अविच्छिन्न अंग हो । अंतर केवल बच्चे को पढ़ाने की विधि और बच्चे द्वारा ज्ञान प्राप्ति के लिए अपनाए गए साधनों में होगा।’ इस क्षेत्र में अभी तक बहुत कुछ काम किया गया है…. स्थिति में कोई भारी सुधार निकट भविष्य में व्यावहारिक नहीं दिखाई देता । इस क्षेत्र में ऐसा बहुत कुछ है जिसे हम शिक्षा में उन्नत देशों से सीख सकते हैं (शिक्षा आयोग 1966 : 123) ।

आयोग ने अपनी रिपोर्ट में एकीकृत शिक्षा की अनुशंसा की। तत्पश्चात् 1968 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति के जरिए 1974 में विकलांग बच्चों की एकीकृत शिक्षा योजना शुरू की जा सकी ।

” राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986)- राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि- “शिक्षा सबके लिए मायने रखती है जब विकलांग बच्चों को भी शिक्षा का अवसर दिया जाए।” कुछ अन्य सुझाव इस प्रकार हैं :

  1. जहाँ तक भी व्यावहारिक है कर्मेन्द्रिय-दोषों और मामूली निःशक्तताग्रस्त बच्चों की शिक्षा दूसरे बच्चों के साथ साझी होगी ।
  2. गम्भीर रूप से निर्योग् य बच्चों के लिए, जहाँ तक संभव हो, जिला मुख्यालयों पर छात्रावासों से युक्त विशेष विद्यालयों की व्यवस्था की जाए ।
  3. नि:शक्त बच्चों को व्यावसायिक शिक्षा देने के लिए पर्याप्त बंदोबस्त किए जाएँगे।
  4. गम्भीर बच्चों की विशेष कठिनाइयों का सामना करने के लिए अध्यापक प्रशिक्षण कार्यक्रमों को नई दिशा दी जाएँगी, विशेष रूप से प्राथमिक कक्षाओं के अध्यापक के लिए ।
  5. नि:शक्त बच्चों की शिक्षा के स्वयंसेवी प्रयासों को हर संभव उपाय से प्रोत्साहित किया जाएगा ।
संशोधित कार्रवाई योजना (Programme of Action-1992) – संशोधित कार्रवाई योजना (1992) में भी विकलांग बच्चों की शिक्षा के लिए विशेष विद्यालय खोले जाने की वकालत की गई । इस योजना की शिक्षाशास्त्रीय सिफारिशें निम्नलिखित हैं:
  1. निःशक्त बच्चों के लिए पाठ्यसामग्रियों में पाठ्यक्रम में लचीलेपन का विशेष महत्त्व है यदि बाल केंद्रित शिक्षा व्यवहार किया जाए तो इन बच्चों की विशेष आवयश्कताएँ पूरी की जा सकती हैं ।
  2. नि:शक्तताग्रस्त बच्चों की शिक्षा में एक-दूसरे के लिए बच्चों की आपसी सहायता बड़ी कक्षाओं और बहुश्रेणीय अध्यापन को देखते हुए एक कारगर संसाधन है।
निःशक्त व्यक्ति अधिनियम (1995) [Person with Disability Act, 1995]निःशक्त व्यक्ति अधिनियम (1995) के अध्याय 5 की धारा 26 के अन्तर्गत निःशक्त बालकों के लिए निःशक्त शिक्षा सुनिश्चित की जाने की बात कही गई है। इस अधिनियम • मुख्य बिन्दु निम्नलिखित हैं: के
  1. समुचित सरकारें और स्थानीय प्राधिकारी यह सुनिश्चित करेंगे कि प्रत्येक निःशक्त बालक को अठारह वर्ष की आयु प्राप्त कर लेने तक, उचित वातावरण में निःशुक्क शिक्षा प्राप्त हो सके ।
  2. सरकारें नि:शक्त विद्यार्थियों का सामान्य विद्यालयों में एकीकरण के संवर्धन का प्रयास करेंगे ।
  3. सरकारें उनके लिए जिन्हें विशेष शिक्षा की आवश्यकता है, सरकारी और प्राइवेट सेक्टर में विशेष विद्यालयों की स्थापना में ऐसी रीति से अभिवृद्धि करेंगे कि जिससे देश के किसी भी भाग में रह रहे निःशक्त बालकों की ऐसे विद्यालय तक पहुँच हो ।
  4. समुचित सरकारें निःशक्त बालकों के लिए विशेष विद्यालयों को व्यावसायिक प्रशिक्षण सुविधाओं से सज्जित करने का प्रयास करेंगे ।

सर्व शिक्षा अभियान – सब के लिए शिक्षा के लक्ष्य प्राप्ति हेतु वर्ष 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में घोषणा की गई थी इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु शिक्षा के सार्वजनीकरण तथा सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने के लिए संविधान के 86वें संशोधन (2002) के जरिए 614 वर्ष आयु वर्ग के सभी बच्चों के लिए निःशुक्त और अनिवार्य प्रारंभिक शिक्षा का मूल अधिकार प्रदान किया गया । कालांतर में समावेशी शिक्षा को इस सर्व शिक्षा अभियान में शामिल कर लिया गया । इसके अन्तर्गत विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की पहचान, कार्यात्मक और औपचारिक जाँच, सहायक उपकरण, सहायक सेवाएँ, शैक्षिक स्थापन गैर-औपचारिक तथा वैकल्पिक स्कूली शिक्षा, दूरस्थ शिक्षा तथा अधिगम, अध्यापक प्रशिक्षण, संसाधन सहायता, वैयक्तिक शैक्षिक योजना, गृह आधारित शिक्षा अभिभावक प्रशिक्षण, परिभ्रामी शिक्षा, मॉडल उपचारात्मक शिक्षण, समुदाय आधारित पुनर्वास, व्यावसायिक शिक्षा तथा सहकारी कार्यक्रम, योजना एवं प्रबंधन, बाधा – मुक्त वातावरण, अनुसंधान, देखरेख एवं मूल्यांकन आदि मुद्दे शामिल हैं।

शिक्षा में समावेश के आधारभूत मॉडल-भारत में शिक्षा में समावेश के लिए कई मॉडल विकसित किए गए है जिसमें स्कूल आधारित अप्रोच, कम्पोजिट एप्रोच एवं समावेशी अप्रोच आदि प्रमुख हैं।

  1. विद्यालय आधारित अप्रोच (School Based Approach) – शिक्षा में समावेश के लिए किए जा रहे अन्तर्राष्ट्रीय प्रयोगों से प्रभावित होकर योजना आयोग ने वर्ष 1971 में इस मसले को अपनी योजना में शामिल कर लिया । तत्पश्चात् 1974 में भारत सरकार ने “निःशक्त बच्चों के लिए समेकित शिक्षा” योजना की शुरूआत कर दिया । केन्द्र प्रायोजित इस योजना के तहत विकलांग बच्चों को मुख्यधारा के विद्यालयों में, उनके गैर-विकलांग हमजोलियों की संगति में शिक्षा दी जाने लगी । समेकित या एकीकृत शिक्षा के पक्ष में दलील दी गई कि ऐसे निःशक्त बच्चों की यद्यपि सामान्य क्रियाकलाप करने में आंशिक अथवा गंभीर बाधा पेश आ सकती है, परंतु उन्हें बिल्कुल अक्षम समझकर सामान्य प्रचलित शिक्षा व्यवस्था से वंचित करना, अन्यायपूर्ण एवं अनुचित होगा । इसलिए ऐसे बच्चों में जो सकारात्मक क्षमताएँ विद्यमान हैं उनका उचित विकसित किया जाना चाहिए ।
  2. समष्टि अप्रोच (Composite Approach) – भारत के विकलांग बच्चों के एकीकृत स्कूलों में समावेशन का दूसरा प्रयोग वर्ष 1986-87 में किया गया । यूनिसेफ के सहयोग से मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने वर्ष 1987 में निर्योग्य व्यक्तियों की एकीकृत शिक्षा परियोजना का कार्यान्वयन शुरू किया। इस परियोजना के शुरूआत के बाद विद्यालय आधारित अप्रोच समष्टि अप्रोच में बदल गई । इसे मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, नागालैंड, उड़ीसा, राजस्थान, तमिलनाडु, हरियाणा, मिजोरम के एक-एक प्रखंड एवं दिल्ली नगर निगम और बड़ौदा नगर निगम इलाके में लागू किया गया। अध्यापक प्रशिक्षण इस कार्यक्रम का नाजुक घटक था । यह प्रशिक्षण तीन स्तरों पर चलाया जाता था। पहले चरण में इन प्रखंडों के सभी अध्यापकों को एक सप्ताह का प्रशिक्षण दिया जाता था। दूसरे चरण में उनमें से 10 प्रतिशत को छः सप्ताह का गहन प्रशिक्षण दिया जाता था। अन्त में हर प्रखंड के 8-10 अध्यापकों को एक अकादमिक वर्ष का प्रशिक्षण लेना पड़ता था । इन अध्यापकों को सभी प्रकार के विकलांग बच्चों के लाभार्थ बहुश्रेणीय प्रशिक्षण दिया जाता था तथा उन्हें प्रखंड समूह स्तर पर स्थित संसाधन केन्द्रों में तैनात किया जाता था ।
    परियोजना समाप्ति पर पाइड प्रखंडों के निःशक्त बच्चों की उपलब्धि सामान्य बच्चों के बराबर पायी गई लेकिन मंदबुद्धि बच्चों ने वैसा उपलब्धि नहीं दिखाई । निःशक्त बच्चों में प्रतिधारण दर लगभग 95 प्रतिशत पाई गई जो पाइड प्रखंडों के सामान्य बच्चों की तुलना में काफी अधिक थी । अधिकांश सामान्य अध्यापकों ने संकेत दिया कि विकलांग बच्चों को पढ़ाकर वे बेहतर अध्यापक बनते जा रहे हैं । पाइड के अधिकांश परिणामों को 1992 में संशोधित निःशक्त बच्चों की एकीकृत योजना में शामिल कर लिया गया ।
  3. समावेशी अप्रोच (Inclusive Approach) – वर्ष 1997 में विकलांगों के लिए एकीकृत शिक्षा को ‘जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम’ में शामिल कर लिया गया । 1998 आते-आते डी पी ई पी राज्यों ने सर्वे, मूल्यांकन कैंप आदि के जरिए डी पी. ई पी स्कूलों में नामांकित बच्चों को संसाधन सहायता मुहैया कराने लग गए थे । कालांतर में इस कार्यक्रम में कम्यूनिटी मोबिलाइजेशन, विकलांग बच्चों की पहचान, सेवाकलीन शिक्षक प्रशिक्षण और बाधारहित माहौल निर्माण आदि पर बल दिया जाने लगा। देश के 18 राज्यों के कुल 2014 प्रखंडों को इसके दायरे में लाया गया । फिलहाल यह कार्यक्रम गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, तमिलनाडु तथा उत्तरांचल के सभी प्रखंडों में चल रहे हैं ।

निःशक्त बच्चों और युवाओं के लिए समावेशी शिक्षा योजना [Inclusive Education for Children and Youths with Disabilities (IECYD)]– चूँकि भारत सरकार ने वर्ष 1994 में ही ‘सलामांका वक्तव्य’ पर हस्ताक्षर कर देश में समावेशी शिक्षा लागू करने की अपनी प्रतिबद्धता जाहिर की थी इसलिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने वर्ष 2005 में विकलांग बच्चों के लिए समेकित शिक्षा योजना में 1418 वर्ष आयु वर्ग के निःशक्त युवाओं को शामिल कर एक संशोधित “नि:शक्त बच्चों और युवाओं के लिए समावेशी शिक्षा” योजना बना डाली है ।

राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा (2005) [ National Curriculum Framework)-2005]- एन.सी.ई.आर.टी. की राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा (2005) में भी समावेशन नीति को स्वीकार किया गया है। पाठ्यचर्या के अध्याय 4 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि-समावेशन की नीति को हर स्कूल और सारी शिक्षा व्यवस्था को लागू किए जाने की जरूरत है। बच्चे के जीवन के हर क्षेत्र में वह चाहे स्कूल में हो या बाहर सभी बच्चों की भागीदारी सुनिश्चित किए जाने की जरूरत है। स्कूलों को ऐसे केन्द्र बनाए जाने की आवश्यकता है जहाँ बच्चों को जीवन की तैयारी कराई जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि सभी बच्चों, खासकर शारीरिक या मानसिक रूप से असमर्थ बच्चों, समाज के हाशिए पर जीने वाले बच्चों और कठिन परिस्थितियों में जीने वाले बच्चों को शिक्षा के इस महत्त्वपूर्ण क्षेत्र का सबसे ज्यादा फायदा मिले। अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करने के मौके और सहपाठियों के साथ बाँटने के मौके देना बच्चों में प्रोत्साहन और जुड़ाव को पोषण देने के शक्तिशाली तरीके हैं। स्कूलों में अक्सरहाँ शिक्षक कुछ गिने-चुने बच्चों को ही बार-बार चुनते रहते हैं । इस छोटे समूह को तो ऐसे अवसरों का फायदा होता है, उनका आत्मविश्वास बढ़ता है और वे स्कूल में लोकप्रिय हो जाते हैं। लेकिन दूसरे बच्चे बार-बार उपेक्षित महसूस करते हैं और स्कूल में पहचाने जाने और स्वीकृति की इच्छा उनके मन में लगातार बनी रहती हैं। तारीफ करने के लिए हम श्रेष्ठता और योग्यता को आधार बना सकते हैं लेकिन अवसर तो सभी बच्चों को मिलना चाहिए और सभी बच्चों की विशिष्ट क्षमताओं को भी पहचाना जाना चाहिए । साथ ही उनकी तारीफ भी होनी चाहिए ।

इसमें विशेष आवश्यकता वाले बच्चे भी शामिल हैं, जिन्हें दिए गए काम को पूरा करने में ज्यादा समय या मदद की जरूरत होती है। इसी के मद्देनजर राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूप रेखा (2005) में दिशा-निर्देश दिया गया है कि शिक्षक ऐसी गतिविधियों की योजना बनाते समय कक्षा में बच्चों से चर्चा करें और वे यह सुनिश्चित कर लें कि प्रत्येक बच्चा अपना योगदान दे पा रहे हैं या नहीं । इसलिए योजना बनाते समय, शिक्षकों को सभी की भागीदारी पर विशेष ध्यान देना चाहिए ।

समान स्कूली प्रणाली और समावेशी शिक्षा (Common School System and Inclusive Education) – बिहार की स्कूली शिक्षा के कायाकल्प के लिए गठित समान स्कूल प्रणाली आयोग (2007) ने अपनी अनुशंसा में विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के शैक्षिक समावेशन की वकालत की है “समान स्कूली प्रणाली के अंतर्गत विद्यालय समावेशी हों, जहाँ शारीरिक या मानसिक रूप से विकलांग बच्चे इस तरह पढ़ने आएँ मानों . वे सम्पूर्ण बालक समुदाय के अंग हों, जिनके पास भी बराबर अधिकार हैं और विद्यालय भी अपने को इस ढ़ग से पुनर्गठित करें कि बच्चे ‘सम्मिलित’ होने का अहसास कर सकें । ” यह तभी संभव हो पाएगा, जब हमारे नीति-निर्धारक समूची स्कूल प्रणाली में समावेश की भावना को आत्मसात करें, खासकर सेवा-पूर्व एवं सेवा कालीन शिक्षक प्रशिक्षण की रूपरेखा बनाते समय समावेशी शिक्षा की भावना को आत्मसात करें ।

इसका अर्थ यह नहीं है कि विकलांग और विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के लिए कुछ अतिरिक्त सुविधाओं की जरूरत नहीं है । शारीरिक रूप से विकलांग बच्चों को चलने-फिरने के लिए बैशाखी व ह्वील चेयर, दृष्टि अपंगता के शिकार बच्चों को ब्रेल लिपि और चश्मे, मूक-बधिर बच्चों को श्रवण यंत्रों की जरूरत होती है। मंद बुद्धि बच्चों को सहायक कर्मी को भी रखना पड़ सकता है जो नियमित शिक्षकों के साथ मिलकर समावेशी वातावरण में उन्हें शिक्षित करेंगे। सांकेतिक भाषा के जानकर शिक्षक बधिर बच्चों के साथ अधिक कारगर ढंग से संवाद स्थापित कर सकते हैं ।

आयोग ने माना कि समेकित शिक्षा के केन्द्र प्रायोजित योजनाओं में अपनाए जानेवाले मानकों के अनुसार आठ बच्चों पर एक शिक्षक वाला अनुपात भी समावेशी शिक्षा के मामले में फिट बैठता है। चूँकि यह मानक विद्यालय का दौरा करने वाले भ्रमणशील शिक्षकों पर आधारित है, अतः घरों और अस्पतालों का दौरा करने वाले शिक्षकों के लिए यह अनुपात ‘प्रति छह बच्चा पर एक शिक्षक’ रहने दिया जा सकता है। चूँकि इस काम के लिए अलंग से कोई शिक्षक नहीं लगाया जाएगा और विभिन्न विषयों के नियंत्रित शिक्षकों को ही घरों और अस्पतालों में रहने वाले बच्चों के पास जाना होगा इसलिए उन्हें वेतन के अलावा उपयुक्त मानदेय भी दिया जा सकता है ।

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