स्त्रियों की शिक्षा तथा लैंगिक शिक्षा में प्रतिमान विस्थापन पर प्रकाश डालें ।

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प्रश्न – स्त्रियों की शिक्षा तथा लैंगिक शिक्षा में प्रतिमान विस्थापन पर प्रकाश डालें । 
उत्तर – स्त्रियों की शिक्षा तथा लैंगिक शिक्षा में प्रतिमान विस्थापन (Paradigm Shift in Women’s Education and Gender Education) – स्त्रियों की शिक्षा तथा लैंगिक शिक्षा में प्रतिमान विस्थापन से पूर्व इनके विषय में जानना आवश्यक है । शिक्षा के लिए प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक कई प्रकार की अवधारणायें प्रचलित हुई हैं। कहीं शिक्षा आत्मसातीकरण है, कहीं बोध है, ज्ञान है, सूचनाओं का समूह है, विवेकपूर्णता है तो कहीं मनुष्य में अन्तर्निहित शक्तियों का स्वाभाविक विकास हैं। शिक्षा के लिए कुछ अभिकरणों की सहायता ली जाती है जिसे निम्न प्रकार से देखा जा सकता है –
शिक्षा के अभिकरण
अनौपचारिक अभिकरण – ये वे अभिकरण होते हैं जिनकी स्थापना शिक्षा के लिए नहीं होती है | इनका न तो निश्चित पाठ्यक्रम होता है और न ही समय-सारणी, परिवार, समाज, समुदाय आदि । जैसे-
औपचारिक अभिकरण –औपचारिक अभिकरणों की स्थापना तथा वहाँ का वातावरण और पाठ्यक्रम तथा समय-सारणी इत्यादि होते हैं, जिससे उद्देश्यपूर्ण शिक्षा निश्चित अवधि में प्रदान की जा सके। इसके अन्तर्गत विद्यालय, संग्रहालय, पुस्तकालय आदि आते हैं ।
अंशोपचारिक अभिकरण – इस प्रकार के अभिकरणों का पूर्णरूपेण उद्देश्य शिक्षा प्रदान करना नहीं होता, जैसे— रेडियो, टेलीविजन आदि मनोरंजन के साथ-साथ शिक्षा प्रदान करते हैं ।
प्रत्येक बालक की पहली शिक्षा का प्रारम्भ उसके परिवार से और प्रथम शिक्षिका माता होती है । प्रत्येक प्रकार की शिक्षा और उसके प्रति रुझान का बीज-वन परिवार से होता है । अतः स्त्री शिक्षा और लैंगिक शिक्षा की नींव भी परिवार से ही पड़ती है ।
प्राचीन काल
  • प्राचीन काल में स्त्री शिक्षा के प्रतिमानस्वरूप वेदमन्त्रों की रचयिता तथा विदुषी गार्गी, मैत्रेयी, अपाला, विश्ववारा, सुमेधा इत्यादि के रूप में प्राप्त होती हैं ।
  • बालकों के समान बालिकायें भी गुरुकुलों में शिक्षा ग्रहण करती थी ।
  • सह-शिक्षा का प्रचलन था ।
  • लैंगिक शिक्षा प्राचीन कालीन धर्मशास्त्रों, नीतिग्रन्थों तथा महाकाव्यों के पुटों द्वारा व्यावहारिक रूप से प्रदान की जाती थी ।
  • आदर्श तथा पुरुषोत्तम राम के चरित्र एवं सतियों के चरित्र के द्वारा लैंगिक शिक्षा, जिसमें स्त्रियों तथा पुरुषों के गुणों, कृत्यों तथा जिम्मेदारियों की शिक्षा दी जाती थी ।
  • लैंगिक शिक्षा परिवार के बड़े सदस्यों द्वारा प्रदान की जाती थी ।
  • स्त्री-पुरुष में प्रारम्भ में भेदभाव नहीं था, परन्तु धीरे-धीरे होने लगा ।
  • बाल विवाह इत्यादि का प्रचलन नहीं था, जिससे स्त्रियों की स्थिति सशक्त थी और वे आजीवन अविवाहित रहकर ब्रह्मचारिणी का जीवन व्यतीत करने के लिए भी स्वतन्त्र थीं ।
मध्य काल
  • पुरुषों की श्रेष्ठता की स्थापना हो चुकी थी ।
  • स्त्रियों को भोग तथा विलास की वस्तु माना जाने लगा था ।
  • स्त्री शिक्षा का समुचित प्रबन्ध नहीं था ।
  • स्त्रियों से सम्बन्धित भेदभावों तथा कुरीतियाँ अपने चरम पर थीं ।
  • स्त्रियों में असुरक्षा की भावना थी ।
  • लैंगिक शिक्षा एकपक्षीय थी जिसमें स्त्रियों को पुरुषों के प्रति कर्त्तव्यों का निर्वहन करना सिखाया जाता था, परन्तु पुरुषों को नहीं ।
  • पुरुषों को स्त्रियों की अपेक्षा स्वतन्त्रता थी ।
  • सह – शिक्षा का प्रचलन नहीं था ।
  • लैंगिक शिक्षा हेतु कहानियों तथा दृष्टान्तों का आश्रय लिया जाता है, परन्तु उनके स्त्री की सशक्त भूमिका नहीं होती थी ।
आधुनिक काल 
  • स्त्री – पुरुष दोनों शिक्षा की आवश्यकता थी, जिसमें स्त्री शिक्षा पर अत्यधिक बल ।
  • औपचारिक रूप से लैंगिक शिक्षा का प्रवन्ध ।
  • पाठ्यक्रम में लिंगीय समानता का समावेश ।
  • सह-शिक्षा का प्रचलन ।
  • स्त्री शिक्षा तथा लैंगिक भेदभावों में कमी हेतु लैंगिक शिक्षा के विस्तार में जनसामान्य की भागीदारी ।
  • जनसंचार के माध्यमों द्वारा स्त्री शिक्षा तथा लैंगिक शिक्षा के परिवर्तित प्रतिमान से अवगत कराना ।
  • स्त्री शिक्षा के प्राचीन प्रतिमानों के स्थान पर बदली परिस्थितियों के अनुरूप नवीन प्रतिमानों की स्थापना ।
  • स्त्रियोन्मुखी पाठ्यक्रम तथा व्यावसायिक दक्षता हेतु संस्थाओं पर बल ।
  • स्त्री शिक्षा के प्रचार-प्रसार हेतु पत्राचार पाठ्यक्रम, दूरस्थ शिक्षा तथा प्रौढ़ शिक्षा इत्यादि ।
  • महिला समाख्या, कस्तूरबा गाँधी विद्यालय एवं ऑपरेशन ब्लैकबोर्ड का शुभारम्भ ।
  • लैंगिक भेदभावों में कमी लाने के लिए महिलाओं को आरक्षण देने की वकालत ।
इस प्रकार प्राचीन काल से आधुनिक काल तथा समाज तथा समाज की आवश्यकताओं में परिवर्तन आया । पहले मनुष्य पैदल, बैलगाड़ी और अब मिनटों में सफर तय करने वाले हवाई जहाज की यात्रा करता है । अंतः निश्चित रूप से स्त्री शिक्षा और लैंगिक शिक्षा के आदर्शों में परिवर्तन आया है। अब स्त्रियाँ अपने अधिकारों, अस्तित्व के साथ-साथ अपनी रुचियों, आर्थिक सशक्तीकरण, अवकाश के समय के सदुपयोग तथा रचनात्मक अभिव्यक्ति के लिए शिक्षा ग्रहण कर रही हैं । राष्ट्र की प्रगति, सामाजिक उत्थान में स्त्रियों की भागीदारी बढ़ी है। वे आज राजनैतिक, सामाजिक, अवकाश के समय के सदुपयोग तथा रचनात्मक अभिव्यक्ति के लिए शिक्षा ग्रहण कर रही हैं । राष्ट्र की प्रगति, सामाजिक उत्थान में स्त्रियों की भागीदारी बढ़ी है। वे आज राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय आदि क्षेत्रों में अग्रणी भूमिका का निर्वहन कर रही हैं और नेतृत्व तथा प्रबन्धन क्षमता के द्वारा नारी की जो परिवर्तित छवि प्रस्तुत कर रही हैं वह युगानुरूप है । स्त्रियाँ सामाजिक परिवर्तन की प्रमुख अभिकर्त्ता हैं । लैंगिक शिक्षा के प्रतिमानों में भी परिवर्तन आया । पहले लैंगिक शिक्षा की आवश्यकता लैंगिक भेदभावों को कम करने, भावना ग्रन्थियों को समाप्त करने इत्यादि के लिए न दी जाकर उनको उनके कत्तव्यों से अवगत कराने तथा प्रतिमानों की स्थापना के लिए प्रदान की जाती थी । लैंगिक शिक्षा की वर्तमान में संस्थागत आवश्यकता अधिक है, लैंगिक क्योंकि विभिन्न पृष्ठभूमि तथा बहु सांस्कृतिक तत्त्वों को एकत्र कर समरूपता लाने, मुद्दों के प्रति जागरूक बनाने के लिए संस्थागत शिक्षा की आवश्यकता अत्यधिक है ।
स्त्री शिक्षा और लैंगिक शिक्षा के प्रतिमानों (आदर्शों) में समय-समय पर आया परिवर्तन ही उसके विस्थापन और बदलती हुई परिस्थितियों के साथ परिवर्तित होने का द्योतक है।
आवश्यकता तथा महत्त्व (Need And Importance ) — स्त्री शिक्षा तथा लैंगिक शिक्षा के प्रतिमानों के विस्थापन की आवश्यकता तथा महत्त्व का आकलन निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर किया जा सकता है –
  1. समय में परिवर्तन होने के साथ-साथ प्रतिमानों में भी परिवर्तन आना अवश्यम्भावी है।
  2. स्त्री शिक्षा तथा लैंगिक शिक्षा की आवश्यकतायें परिवर्तित होती रहती हैं, अतः पुराने प्रतिमानों का विस्थापन आवश्यक है ।
  3. लैंगिक मुद्दे धीरे-धीरे जटिल होते जा रहे हैं जिनको सुलझाने के लिए नवीन प्रतिमानों की आवश्यकता होती हैं ।
  4. लैंगिक मुद्दे तथा स्त्री शिक्षा पर राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय विषयों का प्रभाव पड़ने से भी इनके प्रतिमानों में विस्थापन की आवश्यकता होती है ।
  5. नवीन तकनीकी ज्ञान के साथ-साथ नवीन प्रतिमान भी आते हैं ।
  6. प्रतिमानों का विस्थापन सामाजिक परिवर्तन तथा गतिशीलता के लिए भी आवश्यक है ।
  7. प्रतिमानों का विस्थापन होगा तभी नवीन प्रतिमानों और विचारों को स्थान प्राप्त होगा ।
  8. लोकतंत्रीय आदर्श में स्त्री शिक्षा तथा लैंगिक शिक्षा के प्रतिमानों में विस्थान होना आवश्यक है ।
  9. समाज की कुरीतियों की समाप्ति के लिए प्रतिमान विस्थापन आवश्यक है ।
  10. स्त्री-पुरुषों के मध्य स्वस्थ दृष्टिकोण विकसित करने के लिए लैंगिक शिक्षा के नवीन प्रतिमानों की आवश्यकता अत्यधिक है ।
प्रतिमान विस्थापन हेतु उपाय तथा सुझाव (Measurements and Suggestions for Paradigm Shift) — स्त्री शिक्षा तथा लैंगिक शिक्षा ये दोनों ही विषय ज्वलन्त तथा राष्ट्र – हित के हैं। दार्शनिकों का एक वर्ग मानता है कि परिवर्तन ही केवल अपरिवर्तनीय है अर्थात् देश, काल और परिस्थिति के अनुसार आदर्श इत्यादि में परिवर्तन होता है। ठीक उसी प्रकार विभिन्न देश, काल और परिस्थितियों में स्त्री शिक्षा तथा लैंगिक शिक्षा के प्रतिमानों में परिवर्तन आया और भविष्य में भी आयेगा ।
स्त्री शिक्षा तथा लैंगिक शिक्षा के प्रतिमानों में विस्थापन हेतु उत्तरदायी कारक निम्न हैं—
  1. सांस्कृतिक कारक – स्त्री तथा लैंगिक शिक्षा के प्रतिमानों में विस्थापन के लिए सांस्कृतिक कारक उत्तरदायी होते हैं। संस्कृति पर अन्य संस्कृतियों का प्रभाव पड़ता है जिसके कारण सामाजिक प्रतिमानों में परिवर्तन आता रहता है और इसी कारण से स्त्री शिक्षा के प्रतिमानों में परिवर्तनों में परिवर्तन आया है। पहले स्त्रियों को घर गृहस्थी की शिक्षा; स्त्रियोचित गुणों के विकास की शिक्षा तथा स्त्री धर्म का पालन करना सिखाया जाता था, परन्तु सांस्कृतिक आदान-प्रदान के साथ-साथ स्त्री शिक्षा के प्रतिमानों में भी परिवर्तन सांस्कृतिक कारकों से आया है, जैसे पहले सांस्कृतिक उत्तरजीविता के लिए पुरुष को ही उत्तरदायी माना जाता था, परन्तु अब लैंगिक शिक्षा के विस्थापन के द्वारा स्त्रियों की उत्तरजीविता सांस्कृतिक मूल्यों में स्वीकार किये जाने से लैंगिक शिक्षा में महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया जा रहा है । इस प्रकार सांस्कृतिक आदान-प्रदान और समृद्ध होती संस्कृति में लैंगिक भेदभावों को कम कर स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहित किया जा रहा है ।
  2. सामाजिक कारक – समाज एक गतिशील व्यवस्था है। यहाँ परिवर्तन निरन्तर चलता रहता है। पहले समाज में रूढ़ियों तथा अन्धविश्वासों का प्रचलन अत्यधिक था, जिसके कारण पर्दा प्रथा, देवदासी प्रथा, जौहर प्रथा, स्त्री प्रथा, विधवा पुनर्विवाह, बाल विवाह इत्यादि का प्रचलन था, जिससे सामाजिक गतिशीलता अवरुद्ध हो रही थी और स्त्रियों की शिक्षा की उपेक्षा कर दी गयी थी । समय-समय पर समाज सुधारकों तथा सरकार के द्वारा सामाजिक पिछड़ेपन को समाप्त करने के प्रयास किये गये और इसी दिशा में स्त्री शिक्षा के नवीन प्रतिमानों की स्थापना की गयी जिससे स्त्रियाँ सामाजिक परिवर्तन की दिशा में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर रही हैं । लैंगिक शिक्षा के प्रतिमानों में विस्थापन सामाजिक कारकों द्वारा आया । अब समाज में बालकों और बालिकाओं दोनों की ही शिक्षा को से स्थान प्रमुखता प्रदान किया जा रहा है ।
  3. आर्थिक कारक – स्त्री शिक्षा तथा लैंगिक शिक्षा के प्रतिमानों में विस्थापन का एक कारक आर्थिक कारक है । प्राचीन काल में पुरुषार्थ चतुष्ट्यों— धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष प्रचलित थे, जिसमें सर्वाधिक महत्त्व मोक्ष को दिया जाता था । परन्तु वर्तमान संस्कृति भौतिक और अर्थ की संस्कृति है, अतः ऐसे में स्त्री-पुरुष दोनों ही कन्धे से कन्धा मिलाकर चल रहें हैं । इस प्रकार आर्थिक कारकों के कारण भी स्त्री शिक्षा के प्राचीन प्रतिमानों में विस्थापन हुआ और स्त्रियों के लिए व्यावसायिक पाठ्यक्रमों की व्यवस्था की जा रही है तथा लैंगिक शिक्षा को लैंगिक भेदभावों में कमी लाने का प्रयास किया जा रहा है । आर्थिक उदारीकरण द्वारा भी स्त्री शिक्षा और लैंगिक शिक्षा की दिशा में नवीन प्रतिमानों की स्थापना हुई है ।
  4. धार्मिक कारक–धार्मिक तत्त्वों में रूढ़िग्रस्तता आ जाती है तो धर्म सुधार के लिए फिर से धर्म के मूल स्रोतों और धर्म सुधारकों द्वारा धर्म सुधार का कार्य किया जाता है । धार्मिक रीति-रिवाजों और परम्पराओं के कारण भी स्त्रियों की शैक्षिक व सामाजिक आदि स्थिति को दीन-हीन दशा में रखा गया, परन्तु धर्म के मूल तत्त्व समानता, प्रेम, भ्रातृत्व, स्त्री शिक्षा मानवता और सहिष्णुता का पाठ पढ़ाते हैं । इस प्रकार धार्मिक कारकों में उदारता, और लैंगिक शिक्षा के प्रतिमानों में समानता और गतिशीलता की स्थापना करेगा वहीं रूढ़ियों से जकड़े धर्म में अनुदार तथा संकीर्ण शैक्षिक प्रतिमान स्थापित होंगे । इस प्रकार स्त्री शिक्षा तथा लैंगिक शिक्षा में प्रतिमान विस्थापन हेतु धार्मिक कारक भी उत्तरदायी है ।
  5. राजनैतिक कारक – राजनैतिक जागरूकता तथा लोकतन्त्र में सभी मुद्दों पर खुलकर चर्चा होती है, जबकि तानाशाही राजतंत्रीय इत्यादि विषयों में शक्ति और सुविधाओं का केन्द्रीयकरण होता है। भारत में लैंगिक मुद्दों तथा स्त्री शिक्षा पर उदारता का रुख यहाँ के राजनैतिक कारकों द्वारा किया जा रहा है। भारत में लोकतन्त्र है और लोकतन्त्रीय प्रणाली में सभी को समान माना जाता है तथा लोकतन्त्र को सफलता और सुदृढ़ता वहाँ के सुयोग्य तथा सुशिक्षित नागरिकों पर ही आधारित है। स्त्रियों की शिक्षा इसीलिए महत्त्वपूर्ण विषयों में से एक है, क्योंकि लोकतन्त्र की आधारशिला इससे सुदृढ़ होगी । लैंगिक मुद्दों के कारण भी समानता इत्यादि में बांधा उत्पन्न होती है । अतः वर्तमान में स्त्री शिक्षा और लैंगिक मुद्दों कं प्रतिमानों के विस्थापन में राजनैतिक कारक महत्त्वपूर्ण हैं |
  6. राष्ट्रीय कारक – राष्ट्रीय कारकों के द्वारा स्त्री शिक्षा और लैंगिक शिक्षा के प्रतिमानों में भी परिवर्तन आया है। राष्ट्रीय कारकों के अन्तर्गत राष्ट्रीय एकता, विकास तथा उन्नति आती है | स्त्री शिक्षा के बिना राष्ट्रीय एकता और विकास की स्थापना नहीं हो पायेगी और लैंगिक शिक्षा की आवश्यकता भी वर्तमान में अत्यधिक है । लैंगिक शिक्षा के द्वारा परस्पर लिंगों के प्रति उचित दृष्टिकोण का विकास होता है जिससे राष्ट्रीयता की भावना बलवती होती है । इस प्रकार लैंगिक तथा स्त्री शिक्षा के नवीन प्रतिमानों तथा प्राचीन प्रतिमानों के विस्थापन में राष्ट्रीय कारक महत्त्वपूर्ण हैं |
  7. अन्तर्राष्ट्रीय कारक – स्त्री शिक्षा तथा लैंगिक शिक्षा के प्रतिमानों पर अन्तर्राष्ट्रीय कारकों का प्रभाव स्पष्टरूपेण परिलक्षित होता है, क्योंकि अब भूमण्डलीकरण के युग में वैश्विक ग्राम की परिकल्पना साकार हो रही है । स्त्री शिक्षा तथा लैंगिक शिक्षा भी भूमण्डलीकरण से अछूती नहीं है । सम्पूर्ण विश्व शान्ति, दया, करुणा और प्रेम के लिए स्त्रियों की ओर देख रहा हैं । अतः ऐसे में स्त्री शिक्षा और लैंगिक शिक्षा को प्रगतिशील बनाने के लिए नवीन प्रतिमानों के निर्माण की आवश्यकता है।
स्त्री शिक्षा और लैंगिक शिक्षा में प्रतिमान विस्थापन के लिए कुछ उपाय अपनाये जाने चाहिए जिससे यह प्रभावी बन सके । इन शिक्षाओं में प्रतिमान विस्थापन के उपाय स्वरूप राष्ट्रीय आवश्यकताओं, देश की सांस्कृतिक मान्यताओं, आर्थिक स्थिति, संसाधनों की उपलब्धता, समाज की आवश्यकताओं इत्यादि पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए इस हेतु उपाय तथा सुझाव निम्नांकित प्रकार से सुझाये जा सकते हैं –
  1. लैंगिक शिक्षा तथा स्त्री शिक्षा में प्रतिमान विस्थापन हेतु भारतीय समाज के मूल तत्त्वों से अवगत होना आवश्यक है ।
  2. लैंगिक शिक्षा तथा स्त्री शिक्षा के प्रतिमान विस्थापन हेतु आम सहमति बनाना आवश्यक है ।
  3. इस हेतु राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय मानकों का ध्यान रखना चाहिए ।
  4. स्त्री शिक्षा तथा लैंगिक शिक्षा में प्रतिमान विस्थापन के लिए उपायस्वरूप सांस्कृतिक तत्त्वों पर ध्यान देना चाहिए ।
  5. स्त्री शिक्षा तथा लैंगिक शिक्षा में प्रतिमान विस्थापन के लिए आर्थिक हितों तथा संसाधनों का विकेन्द्रीकरण होना चाहिए ।
  6. स्त्री शिक्षा तथा लैंगिक शिक्षा में प्रतिमान विस्थापन के उपायस्वरूप समाज की आवश्यकताओं पर दृष्टिपात करना आवश्यक है ।
  7. स्त्री शिक्षा तथा लैंगिक शिक्षा में प्रतिमान विस्थापन के उपायस्वरूप वयस्क शिक्षा, समाज शिक्षा तथा दूरस्थ शिक्षा और पत्राचार पाठ्यक्रमों को अपनाना चाहिए ।
  8. स्त्री शिक्षा तथा लैंगिक शिक्षा में प्रतिमान विस्थापन के उपायस्वरूप नवाचारों तथा तकनीकी को अपनाया जाना चाहिए ।
  9. वर्तमान आवश्यकतानुरूप व्यापक और उदार बनाया जाना चाहिए ।
  10. व्यावसायोन्मुखी होना चाहिए ।
स्त्री शिक्षा तथा लैंगिक शिक्षा की वर्तमान में आवश्यकता तथा महत्त्व अत्यधिक है, क्योंकि स्त्रियों की अनदेखी करके और उनको पुरुषों की अपेक्षा निम्न स्थान प्रदान करने से किसी भी सभ्य समाज की स्थापना नहीं हो सकती है । स्त्री शिक्षा और लैंगिक शिक्षा में प्रतिमान विस्थापन निरन्तर चल रहा है, जिसमें पाठ्यक्रम, शिक्षण उद्देश्य, शिक्षण विधियाँ इत्यादि में नये-नये प्रयोग किये जा रहे हैं। नवाचारों के प्रयोग द्वारा इन शिक्षाओं को और भी प्रभावी तथा बोधगम्य बनाया जा रहा है । स्त्री शिक्षा और लैंगिक शिक्षा में प्रतिमान विस्थापन के कारण यह नवीनता के साथ-साथ अपने मूल स्वरूप को भी आगे बढ़ा रही है जिससे भारतीय संस्कृति भी उच्छ्वसित हो रही है ।

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