स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के संचालन में भारत के चुनाव आयोग की भूमिका का आलोचनात्मक परिक्षण करें। इस संबंध में मतदाता पहचान पत्र का क्या उद्देश्य है ?

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प्रश्न – स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के संचालन में भारत के चुनाव आयोग की भूमिका का आलोचनात्मक परिक्षण करें। इस संबंध में मतदाता पहचान पत्र का क्या उद्देश्य है ?
उत्तर – 

स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने के लिए संविधान के तहत चुनाव आयोग की स्थापना की गयी है। भारत में चुनाव आयोग की स्थापना सन 1950 में की गयी। यह प्रकृति में एक स्वायत्त निकाय है और राजनीतिक दबावों और कार्यकारी प्रभाव से मुक्त संस्था है। यह सुनिश्चित करने हेतु ध्यान रखा गया है कि चुनाव आयोग सत्ताधारी पार्टी या कार्यपालिका के बाहरी दबावों से मुक्त एक स्वतंत्र निकाय के रूप में काम करे। देश के विभिन्न विधायी निकायों के लिए स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराना और लोकतंत्र के विकास की गारंटी देना चुनाव आयोग का कर्तव्य है।

चुनाव आयोग की भूमिका

स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनावों के लिए अभिभावक –  लोकतांत्रिक राजनीति की सबसे महत्वपूर्ण विशेषताओं में से एक है नियमित अंतराल पर चुनावों का आयोजन। समय-समय पर स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराना लोकतांत्रिक प्रणाली के लिए आवश्यक है। यह संविधान की मूल संरचना का हिस्सा है। चुनावों की सफलता और लोकतंत्र के लिए आयोग ने कई प्रयास किए हैं। तो इस प्रकार लोकतंत्र तथा स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव दोनों के लिए चुनाव आयोग संरक्षक के रूप में माना जाता है।

आदर्श आचार संहिता – चुनाव आयोग को स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों का संरक्षक माना जाता है। हर चुनाव में, यह राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के लिए स्वतंत्र और निष्पक्ष तरीके से चुनाव कराने के लिए एक आदर्श आचार संहिता जारी करता है। आयोग ने 1971 (5वें आम चुनाव) में अपना पहला कोड जारी किया था और आयोग ने समय-समय पर इसे संशोधित भी किया। इसने चुनाव के दौरान राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के आचरण के लिए दिशानिर्देश दिए। हालांकि, राजनीतिक दलों द्वारा कोड के उल्लंघन के कई उदाहरण हैं और उम्मीदवारों द्वारा आधिकारिक मशीनरी के दुरुपयोग के लिए भी शिकायतें प्राप्त होती हैं। इस तरह के कोड की आवश्यकता स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के हित में है।

राजनीतिक दलों का पंजीकरण –  पार्टी प्रणाली संसदीय लोकतंत्र की एक अनिवार्य विशेषता है। राजनीतिक दलों से सम्बंधित इस पंजीकरण प्रक्रिया से सम्बद्ध विधि का अधिनियमन 1989 में हुआ और कई पार्टियां आयोग के साथ पंजीकृत हुई। यह प्रशासनिक मशीनरी के भ्रम और परेशानी के साथ-साथ मतदाताओं को उलझन से बचने में भी मदद करता है। यह सुनिश्चित करता है कि राजनीतिक दल अपने पंजीकरण द्वारा ही लोकतंत्र की कार्यप्रणाली का सही अभ्यास कर सकते हैं।

चुनाव खर्च पर सीमाएं –  चुनावों के दौरान पैसे के बढ़ते प्रभावों और अशिष्टता से छुटकारा पाने के लिए चुनाव आयोग ने इस संबंध में कई सुझाव दिए हैं। चुनाव आयोग ने चुनाव प्रचार के दौरान उम्मीदवार द्वारा खर्च की जाने वाली राशि पर कानूनी सीमा तय की है। इन सीमाओं को समय-समय पर संशोधित भी किया गया है। चुनाव आयोग, पर्यवेक्षकों की नियुक्ति द्वारा चुनाव खर्च के व्यक्तिगत खाते पर नजर रखता है। चुनाव परिणामों की घोषणा के 30 दिनों के भीतर व्यय का विवरण देना भी आवश्यक है। लोकसभा और विधानसभा चुनावों के लिए चुनाव आयोग द्वारा अभियान की अवधि को 21 दिन से घटाकर 14 दिन कर दिया गया था; यह प्रावधान चुनाव खर्च को कम करने के लिए किया गया है।

वैज्ञानिक और तकनीकी विकास का उपयोग  – चुनाव आयोग वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति का लाभ उठाकर चुनाव प्रक्रियाओं में सुधार लाने की कोशिश कर रहा है।

ईवीएम की पहल  – इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन का प्रयोग इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। इसका उपयोग कुप्रथाओं को कम करने और दक्षता में सुधार करने के उद्देश्य से किया गया था। प्रायोगिक आधार पर यह पहली बार 1982 में केरल राज्य में विधान सभा चुनावों के लिए आजमाया गया था। सफल परीक्षण और कानूनी पूछताछ के बाद आयोग ने आगे बढ़ने और ईवीएम का उपयोग शुरू करने का ऐतिहासिक फैसला लिया। चुनावी धोखाधड़ी को रोकने के लिए, 1993 में EPIC (इलेक्टोरल फोटो पहचान पत्र ) जारी किए गए थे। 2008 के चुनावों में मतदाताओं की तस्वीरों के साथ मतदाता सूची तैयार करने वाला कर्नाटक पहला राज्य बन गया।

बहु सदस्यीय चुनाव आयोग  – चुनाव आयोग को बहु सदस्यीय निकाय बनाने की लंबे समय से मांग थी। एस एस धनोआ बनाम भारत संघ में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि, चुनाव आयोग को महत्वपूर्ण कार्य सौंपे गये हैं और उन्हें निष्पादित करने के लिए यह अनन्य और अनियंत्रित शक्तियों से लैस है, यह आवश्यक और वांछनीय दोनों है कि, इन शक्तियों का प्रयोग किसी एक व्यक्ति द्वारा नहीं किया जाना चाहिए, चाहे वह कितना भी बुद्धिमान और विवेकशील क्यों न हो। यह लोकतांत्रिक शासन सिद्धांतों के अनुरूप भी है । संविधान संशोधन अधिनियम, 1993 चुनाव आयोग को बहु सदस्यीय निकाय के रूप में परिवर्तित कर दिया । एक सदस्यीय चुनाव आयोग के पास अब निरंकुश अधिकार नहीं होंगे। देश के बड़े आकार और विशाल निर्वाचन क्षेत्रों के मद्देनजर चुनाव आयोग ने अपने बोझ को कम करने के लिए विभिन्न क्षेत्रों के लिए क्षेत्रीय चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति का भी प्रस्ताव रखा।

राजनीति के अपराधीकरण पर रोक लगाना –  भारत में राजनीति का अपराधीकरण एक गंभीर समस्या है। इस कुप्रथा की शुरुआत बिहार से हुई और धीरे-धीरे यह पूरे देश में फैल गया। 2003 में, विधायी निकायों के लिए अपराधियों के चुनाव को प्रतिबंधित करने के लिए एक कानून पेश किया गया था। हालांकि, आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्ति संसद और राज्य विधानसभाओं में लगातार सीटें जीतते रहे हैं। यह बहुत ही अवांछनीय और शर्मनाक स्थिति पैदा करता है जब कानून तोड़ने वाले कानून निर्माता बन जाते हैं। आयोग ने सामाजिक विरोधी गतिविधियों पर अपनी गंभीर चिंता व्यक्त की है। आयोग ने राजनीति के अपराधीकरण के खतरे को रोकने के लिए मानदंड भी स्थापित किये है और सरकार के समक्ष सिफारिश भी की है । उम्मीदवार आपराधिक रिकॉर्ड की घोषणा करते हुए एक निर्धारित प्रपत्र में एक हलफनामा प्रस्तुत करने के लिए बाध्य हैं, जिसमें दोषी होने, लंबित मामलों से बरी होना शामिल है। उम्मीदवारों द्वारा प्रस्तुत की जाने वाली जानकारी जनता के समक्ष तथा प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में प्रसारित की जाएगी।

  • उम्मीदवारों के बारे में जानने का अधिकार – लोकतंत्र को स्वस्थ और निर्मल बनाने के लिए, नागरिकों को उन उम्मीदवारों के बारे में जाने का अधिकार है, जिन्हें वे अपने प्रतिनिधि के रूप में चुनना पसंद करते हैं। अपराधीकरण को रोकने हेतु जनहित में उम्मीदवार के अतीत को अंधेरे में नहीं रखा जाना चाहिए । निर्वाचित उम्मीदवारों को समय-समय पर अपने काम को निर्वाचन क्षेत्र में रिपोर्ट करने और लोगों द्वारा दर्ज शिकायतों के निवारण हेतु किये गए उपायों के बारे में जानकारी देने का प्रावधान भी होना चाहिए। जवाबदेही की इस भावना को निश्चित ही कानूनी आकार देने के साथ-साथ चूक होने की स्थिति में सजा का प्रावधान भी होना चाहिए। विशेष रूप से यह चुनावों को स्वच्छ, सच्चरित्र उम्मीदवार के निर्वाचन के लिए बनाए गए महत्त्वपूर्ण नवाचार भी हैं। चुनाव प्रक्रिया की शुरुआत से अंत तक निरंतर निरीक्षण एक अनिवार्य एवं महत्वपूर्ण तत्त्व है।
  • प्रकाशन पर प्रतिबंध – इसके अलावा, आयोग ने जनमत सर्वेक्षणों के परिणाम (एक्जिट पोल) के प्रकाशन और प्रसार को प्रतिबंधित करने के लिए एक आदेश जारी किया।

भारत में लोकतंत्र एक आधारभूत संरचना के रूप में विद्यमान है, लेकिन अगर हम चुनाव के दौरान की स्थिति का अवलोकन करें तो ऐसा लगता है कि यह वास्तविक लोकतंत्र है ही नहीं । नवीनतम चुनावों में आयोग ने कुछ चुनावी प्रक्रियाओं को लोकसभा और विधान परिषद् के चुनावों से अलग तरीके से संबद्ध किया, जिससे लोगों को असुविधा होती है। आयोग ने इस प्रक्रिया में कई सुधार किए लेकिन अभी भी यह कारगर साबित नहीं हुआ है और इसके निष्प्रभावी प्रदर्शन पर विवाद उत्पन्न हो रहे हैं। वर्षों से आयोग ने लोकतंत्र को मजबूत करने और चुनाव की निष्पक्षता बढ़ाने के लिए कई प्रशंसनीय चुनावी सुधार किए हैं। आयोग ने अग्रिम प्रौद्योगिकी का उपयोग करके चुनावों के दौरान कुप्रथाओं को रोकने के लिए सर्वश्रेष्ठ कदम उठाए हैं। हालांकि, चुनाव आयोग द्वारा उठाए गए ये सभी प्रयास लोगों के मन में लोकतंत्र के प्रति उनके विश्वास को बढ़ाने में मदद करेंगे। सर्वोच्च न्यायालय ने हमेशा चुनावों के कानूनी और अन्य मुद्दों की जांच की और हमेशा लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों की रक्षा करने पर जोर दिया, जो उनके निर्णयों के माध्यम से परिलक्षित होता है। न्यायालय द्वारा दिए गए संहिता (कोड), कानून और आदेशों के उल्लंघन के लिए लालची राजनेताओं को दंडित करने हेतु शक्ति आयोग के अधिकारों में निहित होना चाहिए। एक देश के प्रशासन को गोली से नहीं बल्कि मतपत्र से नियंत्रित किया जाना चाहिए।

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