हाल के दिनों में, भारत की दलगत राजनीति पर बढ़ते क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के निहितार्थ क्या हैं?
क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का उदय भारतीय राजनीतिक परिदृश्य पर एक शाश्वत विषय लगता है। क्षेत्रीय दलों के उदय ने निर्विवाद रूप से भारत में चुनावी राजनीति की प्रकृति को बदल दिया है। क्षेत्रीय दलों के बारे में एक आम मिथक यह है कि उनके उद्भव ने परिभाषत: राष्ट्रीय दलों के कद को या तो निम्नीकृत (मतवकम ) किया है और यह निम्नीकरण अभी भी जारी है। लेकिन वास्तव में, 1980 के दशक के अंत और 1990 के दशक की शुरुआत में क्षेत्रीय दलों के उद्भव में अभूतपूर्व वृद्धि के बाद, राष्ट्रीय स्तर पर चुनाव के प्रतिस्पर्धी प्रारूप के कारण आश्चर्यजनक रूप से स्थिर शक्ति संतुलन कायम हुआ है। क्षेत्रीय दल 4 प्रमुख मुद्दों पर काम करते हैं- पहचान, राज्यत्व, स्वायत्तता और विकास | स्वायत्तता में राज्यों (जैसे जम्मू और कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस) को अधिक शक्तियां देने की मांग की जाती है। राज्यत्व के अंतर्गत राज्य में देश के भीतर एक स्वतंत्र राज्य के लिए मांग उठती है (जैसे कि तेलंगाना राष्ट्र समिति ने किया ) । पहचान में एक समूह के सांस्कृतिक अधिकारों की मान्यता के लिए लड़ना शामिल है (जैसे महाराष्ट्र में शिवसेना या दलितों की पहचान के लिए लड़ रहे द्रमुक ) । विकास में क्षेत्रीय दलों का मानना है कि केवल वे ही किसी विशेष क्षेत्र के लोगों के लिए विकास ला सकते हैं। अक्सर क्षेत्रीय पार्टियां 2 या अधिक कारकों को जोड़ती हैं, जैसे कि विदर्भ राज्य पार्टी विकास और राज्य को जोड़ती है, जबकि DMK और NC पहचान और स्वायत्तता को जोड़ती है।
अक्सर यह माना जाता है कि क्षेत्रीय दल एक निर्वात से उत्पन्न नहीं हो सकते हैं और क्षेत्रीय पहचान तथा पहले से ही प्रचलित लोगों के विचारों का प्रतिनिधित्व करने के लिए आते हैं। क्षेत्रीय दल इस प्रकार के माध्यम हैं, जिनके द्वारा सांस्कृतिक विशिष्टता पर आधारित सम्भाषण राजनीतिक मुखरता के रूप में परिवर्तित हो जाता है। हालांकि, यह चीजों की एक बहुत ही सरल तस्वीर है। कभी-कभी क्षेत्रीय दल चुनावी लाभ के लिए इन ‘सांस्कृतिक विशिष्टताओं’ का निर्माण करते हैं। इस प्रकार वे एक अर्थ में ‘जातीय उद्यमी या विजातीय ठेकेदार’ हैं – जो एक ऐसी मांग और बाजार निर्मित करते हैं जो पहले से मौजूद नहीं होता है। प्रादेशिक दल हमेशा क्षेत्रीय पहचान के उत्पाद नहीं होते हैं, लेकिन, चुनावी लाभ के लिए, क्षेत्रीय दल इन क्षेत्रीय पहचानों को निर्मित कर और उन पहचानो को मजबूत कर सकते हैं। क्षेत्रीय दल, चुनावी लाभ को अधिकतम करने के लिए, बहुमत लोगों की समस्याओं के लिए क्षेत्र के अल्पसंख्यक लोगों को दोष देते हैं, और फिर अल्पसंख्यकों के खिलाफ बहुसंख्यकों को एकजुट करते हैं।
हालाँकि, क्षेत्रीय दल अक्सर अच्छे परिणाम देते हैं क्योंकि वे समस्याओं को सामने ले आते हैं और राष्ट्र को उन समस्याओं का राजनीतिक रूप दमन करने के बजाय समस्या से निपटने का प्रयास करना चाहिए। अखिल असम गण संग्राम परिषद (जिसे बाद में असोम गण परिषद या एजीपी के नाम से जाना जाता है), 1966 में असम में अवैध बांग्लादेशी प्रवासियों की समस्या के कारण प्रमुखता से उभरी। कांग्रेस इस मुद्दे से निपटने में संकोच कर रही थी, क्योंकि अप्रवासी (और देश के बाकी हिस्सों में मुस्लिम) उनके वोट बैंक का एक बड़ा हिस्सा निर्मित करते थे। AGP द्वारा की गई राजनीतिक लामबंदी सम्बंधी गतिविधि ने 1985 में कांग्रेस द्वारा हस्ताक्षरित असम समझौते में बहुत योगदान दिया, जिसने 1971 के बाद के सभी अप्रवासियों को गैर-नागरिक के रूप में मान्यता दी ।
क्षेत्रीय दलों के उद्भव से अक्सर तथाकथित इंद्रधनुषी गठबंधन बनते हैं, क्योंकि इंद्रधनुष की तरह, वे कई अलग-अलग रंगों के साथ अल्पकालिक और केवल थोड़े समय के लिए होते हैं। नीतिगत पक्षाघात (Policy Paralysis) तथा निर्णय लेने की प्रक्रिया में विलम्ब एवं विधेयकों के सम्बन्ध में देरी, ये सभी गठबंधन के परिणाम होते हैं। 1999 में पाकिस्तानी आक्रमण के जवाब में, भारत को ‘ऑपरेशन विजय’ को लॉन्च करने में एक सप्ताह का समय लगा, जिसके अंतर्गत भारतीय क्षेत्रों से पाकिस्तानी सैनिकों को खदेड़ा गया था। आपातकाल की स्थिति में, गठबंधन में समन्वय बिठाने के कारण से अवांछनीय विलम्ब हो सकता है। साथ ही, ठीक इसी समय गठबंधन के दौरान, क्षेत्रीय दल, अपवर्जनात्मक (Enclutionary) राष्ट्रीय दलों पर एक नियंत्रक बल ( Moderating force ) के रूप में कार्य कर सकते हैं।
क्षेत्रीय दलों की एक अन्य आलोचना उनकी बहिष्कृत या अपवर्जित विचारधारा है। कुछ पार्टियां जैसे शिवसेना, मराठा और हिंदू गौरव के आह्वाहन द्वारा, दोहरे बहिष्कार पर काम करती हैं। इस प्रकार क्षेत्रीय दाल, मतभेदों को उजागर करने और सामान्यताओं की अनदेखी करके, अंतर पैदा करते हैं। क्षेत्रीय दलों के पास अपने समर्थकों के संबंध में एक स्थिर, निश्चित विचारधारा है और इसलिए उन्हें इसे अवश्य ही महत्व देना है। उन लोगों के लिए जो अभी भी इस बात से डरते हैं कि क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय हित के ऊपर सम्प्रदायवादी हितों को बढ़ावा देते हुए राष्ट्रीय बंधुत्व को कमजोर करते हैं, राजनीतिक वैज्ञानिको ने, देश की टूट (break-up) से पहले तीन संकेतकों को देखा जिनमें से किसी भी संकेत का भारत के क्षेत्रीय दलों द्वारा प्रदर्शन नहीं किया गया है ।
- महानगर / केंद्र पर न्यूनतम आर्थिक निर्भरता
- राष्ट्रीय केंद्र की ओर संचार और गठबंधन की सिर्फ कुछ योजक रेखाएं (few ties ) या संबंध
- उस क्षेत्र के भीतर संस्कृति का आंतरिक समुच्चय / उस क्षेत्र के भीतर एक प्रति संस्कृति (counter culture ) का विकास।
क्षेत्रीय पार्टियां भारत जैसे बहु-जातीय, बहु – नस्लीय, बहु – धार्मिक और बहु भाषाई समाजों में वयस्क मताधिकार पर आधारित लोकतांत्रिक प्रणाली का एक स्वाभाविक परिणाम हैं और उनके विकास में बाधा उत्पन्न करना लोकतंत्र की संपूर्ण भावना के खिलाफ है। भारत की राजनीति, अर्थशास्त्र और समाज में सत्ता के प्रमुख केंद्रों के रूप में क्षेत्रीय दलों का उदय देश की स्वतंत्रता के बाद के इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण विकासों में से एक है और आने वाले 2019 के आम चुनावों में क्षेत्रीय दल अगली केंद्र सरकार के गठन में मदद करने में महत्वपूर्ण एवं प्रभावी भूमिका निभाएंगे। यह भी संभव है कि भारत के अगले आम चुनाव में एक क्षेत्रीय पार्टी के नेता के नेतृत्त्व में तीसरे मोर्चे’ की सरकार का गठन हो ।
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