हिन्दी भाषा के विकास में सत्ताई उदासीनता ही बाधक है ? स्पष्ट कीजिए।
प्रश्न – हिन्दी भाषा के विकास में सत्ताई उदासीनता ही बाधक है ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर – स्वतन्त्रता से पहले हिन्दी का पठन-पाठन राष्ट्र सेवा का एक अंग समझा जाता था। अनेक वर्षों के स्वतन्त्र शासन में हमने हिन्दी की इतनी उन्नति कर ली है और हिन्दी के प्रति देश में इतना सम्मान बढ़ गया है कि ‘हिन्दी वाला’ अब प्रशंसा की अपेक्षा निन्दा का सूचक हो गया है। किसी समय खद्दर के प्रति भी सम्मान का भाव था, किन्तु आज खद्दर की टोपी भ्रष्टाचार का प्रतीक बनती जा रही है। यहाँ हम सह सोचने को विवश हो जाते हैं कि यदि हमारी सरकारी नीति इसी प्रकार रही तो राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगान, संविधान – आदि का हम भारतीय कितने दिनों तक आदर कर सकेंगे, कहा नहीं जा सकता है। शायद ये सभी एक साथ जुड़े हुए हैं। इन्हें पृथक् नहीं किया जा सकता। नागालैण्ड ने अपनी क्षेत्रीय भाषा अंगेजी घोषित की है। भारतीय संविधान, राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगान आदि का तो नागालैण्ड के अन्तर्मन में कितना सम्मान है, यह इसी बात से पता लगाया जा सकता है कि अलगाव की प्रवृत्ति अभी भी वहाँ पर है। तमिलनाडु में हिन्दी का अत्यधिक विरोध हुआ। वहाँ पर द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम का किसी समय आदर्श था कि भारत से अलग ‘द्रविड़स्तान’ बनाया जाए। राष्ट्रीय ध्वज की व संविधान की होली जिस प्रकार तमिलनाडु में जलाई गई, उसे तमिलनाडु के ही देशभक्त अभी तक नहीं भूल सकते हैं।
अहिन्दी भाषी राज्यों में नहीं, हिन्दी भाषी राज्यों में भी हिन्दी के प्रति उदासीनता दिखाई पड़ती है। सरकारें तो प्रयास करती हैं, किन्तु सामान्य नागरिक भी हिन्दी के प्रति उदासीन-सा दिखाई पड़ता है। शिक्षण संस्थाएँ भी अपना कर्त्तव्य ठीक से नहीं निभा रहीं हैं। इस सन्दर्भ में 14 सितम्बर, सन् 1996 को हिन्दी दिवस मनाने को औपचारिकताएँ निभाने के अवसर पर ‘राष्ट्रीय सहारा’ हिन्दी दैनिक के ‘एक और हिन्दी उत्सव’ शीर्षक से 16 सितम्बर, सन् 1996 को प्रकाशित सम्पादकीय द्रष्टव्य है। सम्पादकीय में विद्वान् सम्पादक ने निम्नलिखित टिप्पणी की है–
“भारत उत्सवधर्मी देश है। इसीलिए जयन्तियाँ व जन्म शताब्दियाँ मनाने वाले देश में राष्ट्रभाषा को भी दिवस के रूप में निपटाने की परम्परा विकसित हो जाना कोई हैरतंगेज बात नहीं है। फिर ऐसा भी नहीं है कि सरकार राष्ट्रभाषा के सम्मान में मात्र हिन्दी दिवस ही मनाती हो । देश में ढेरों मन्त्रालय, उनके कार्यालय, सार्वजनिक प्रतिष्ठान, शिक्षण संस्थाएँ, इन सबकी भी राष्ट्रभाषा के प्रति कुछ जिम्मेदारी बनती है। इसलिए अब हिन्दी पखवाड़ा और हिन्दी मास के रूप में दीर्घकालीन हिन्दी उत्सव की परम्परा भी अपनी जड़ें जमा चुकी है। पूछा जा सकता है कि हिन्दी दिवस, पखवाड़ा या माह की क्या आवश्यकता है ? इस देश में प्रश्न करने का सबको अधिकार है, जवाब मिल बस यही जरूरी नहीं है । फिर भी जवाब हाजिर है – यदि हिन्दी दिवस, पखवाड़ा व मास न मनाया जाए तो देश के यह भूल जाने का खतरा है कि उसकी राष्ट्रभाषा हिन्दी है। हमने अपने महापुरुषों, राष्ट्रपुरुषों को जयन्तियों के सहारे ही आज तक जिन्दा रखा है। यह आजमाया हुआ नुस्खा है इसलिए हिन्दी के सन्दर्भ में भी इसे ही आजमाना उचित था और ऐसा करना घाटे का सौदा भी नहीं रहा है। नेताओं, अधिकारियों और आम जनता को कम से कम सितम्बर माह में और उसमें भी 15 सितम्बर के अखबारों में छपी खबरों से पता चल जाता है कि हिन्दी जो है वह आज भी राष्ट्रभाषा है।
अब राजनीति का तो नाम है सरकार का विरोध करना । कुछ और नहीं मिलता तो भाई लोग राष्ट्रभाषा की लाठी लेकर सरकार के पीछे पड़ जाते हैं जबकि यह जगजाहिर तथ्य है कि सरकार ने हमेशा हिन्दी को राष्ट्रभाषा माना है । संविधान में उसे राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया है। वह तो वैकल्पिक रूप में अंग्रेजी की अल्पकाली न व्यवस्था कर रखी है। उसे तो एक न एक दिन जाना ही है। अल्पकालिक व्यवस्था अन्ततः अल्पकालिक ही होती है। अंग्रेजी को राजभाषा के रूप में शुरूआत में मात्र पन्द्रह वर्ष के लिए अपनाया गया था। उसके बाद उसे जाना था। नहीं गयी तो इसलिए कि सरकारी स्तर पर हिन्दी अभी राजकाज की भाषा के योग्य नहीं बन पायी थी। अब सरकार की क्या करें। उसने तो अपने स्तर पर हर कार्यालय में हिन्दी अनुवादक से लेकर राजभाषा अधिकारी तक नियुक्त करने का प्रावधान कर रखा है। बैंकों व रेलवे स्टेशनों पर स्पष्ट लिखा होता है कि यहाँ हिन्दी में फार्म स्वीकार किये जाते हैं। इससे अधिक सरकार क्या कर सकती है ? वह लोगों को पकड़-पकड़ कर तो हिन्दी में पढ़ने-लिखने के लिए मजबूर नहीं कर सकती। अब बताइये प्रधानमन्त्री देवगौड़ा को क्या किसी ने जबरदस्ती हिन्दी सीखने के लिए मजबूर किया है ? फिर भी लोग हैं कि हिन्दी को लेकर सरकार की कथनी-करनी पर हमेशा अंगुली उठातें रहते हैं।
क्या हुआ यदि शोध छात्र मकालाल जैन को विगत 12 वर्ष से संघर्ष के बावजूद आज तक रुड़की विश्वविद्यालय से हिन्दी में अभियान्त्रिकी में शोधकार्य करने की अनुमति नहीं मिला। क्या हुआ यदि वर्षों से लोग संघ लोग सेवा आयोग कार्यालय के समक्ष उसकी परीक्षाएँ हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं में कराने की माँग कर रहे हैं। जब देश का हर नागरिक अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में प्रवेश दिलवाना चाहता है, हर भारतीय नागरिक विदेश जाकर धन कमाना चाहता है, तब तो कोई आपत्ति नहीं करता। बस सरकार के पीछे लाठी लेकर पड़े रहते हैं। सरकार आखिर कर ही क्या सकती है ? और जो कुछ वह कर सकती है क्या वह उसने किया नहीं ? उसने हिन्दी के लिए कानून बनाया, हिन्दी विभागों व हिन्दी पदों की स्थापना की, हिन्दी दिवस घोषित किया और सबसे बड़ी बात हिन्दी के विकास के लिए करोड़ों का बजट भी तय किया। इतने सारे सुख जोड़ रखे हैं हिन्दी के साथ, अंग्रेजी के साथ ऐसा कोई सुख नहीं है। “
हिन्दी के साथ अब कितने ही पुरस्कार जुड़ गये हैं। अंग्रेजी में अधिक पत्राचार करने पर किसी सरकारी विभाग में पुरस्कार नहीं मिलता, पर हिन्दी में अधिक पत्राचार करने व टिप्पणियाँ लिखने पर पुरस्कार मिलता है। हिन्दी के विकास के लिए कार्यशालाएँ आयोजित की जाती हैं। ‘अंग्रेजी हटाओ’ आन्दोलनकारियों की दुकानदारी भी इसीलिए चल रही है कि हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है। हिन्दी में धड़ल्ले से अनुवाद हो रहा है। सरकारी विभाग हिन्दी में मौलिक लेखन को पुरस्कृत कर रहे हैं। हिन्दी पुस्तकों की खरीददारी को बढ़ावा दिया जा रहा है। भले ही उसमें घपले हो रहे हों। सरकार की कार्य प्रणाली से स्पष्ट है कि हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है जिसका उत्सव धूमधाम से मनाया जाना चाहिए | हिन्दी दिवस बीत गया, अब अगले साल आएगा, पर निराशा की कोई बात नहीं है। अभी हिन्दी पखवाड़ा व हिन्दी मास शेष है। आओ कुछ दिन और हिन्दी उत्सव मनाएँ ।
इसी सन्दर्भ में नई दिल्ली में 31 अगस्त, 1997 को सम्पन्न हिन्दी प्रकाशक संघ के अड़तीसवें वार्षिक अधिवेशन में हिन्दी दैनिक जागरण के सम्पादक श्री नरेन्द्र मोहन का निम्नलिखित वक्तव्य उल्लेखनीय है— उन्होंने कहा – “सरकारी सहायता के बूते पर हिन्दी प्रकाशन व्यवसाय तो चलाया जा सकता है, लेकिन उन लांछनों का जवाब नहीं दिया जा सकता, जो आज हिन्दी पर लग रहे हैं। उन्होंने कहा कि जिस भाषा को देश के 70 करोड़ लोग समझते हों तथा 25 करोड़ अच्छी तरह पढ़ लेते हों, उसे आजादी के 50 वर्ष बाद भी राजभाषा का दर्जा न मिल पाना अफसोस की बात है। उन्होंने कहा कि हिन्दी से जुड़े सभी लोगों को इसे बंगाली, मराठी या अन्य भाषाओं की तरह पाठकों का व्यापक जनसमर्थन दिलाने के प्रयास करने चाहिए । “
पी. नरेन्द्र मोहन ने उन कारणों की खोज पर जोर दिया, जिनकी वजह से आजादी से पूर्व राजभाषा का दर्जा पा चुकी हिन्दी बाद में उस स्थान से हट गयी।
उन्होंने कहा कि आजादी के बाद संविधान में उसे राजभाषा का दर्जा दे दिया गया, परन्तु साथ में यह शर्त भी लगा दी गयी कि जब तक देश का एक भी राज्य उसके इस दर्जे का विरोध करेगा, वह राजभाषा नहीं बन पायेगी।
उन्होंने सरकारी विधेयकों या प्रतिवेदनों के अभी भी मूलतः अंग्रेजी में ही तैयार होने पर दुःख जताया। हिन्दी प्रकाशकों का देश को अंग्रेजियत द्वारा किये जा रहे मानसिक सांस्कृतिक शोषण से मुक्ति दिलाने के लिए आगे आने का आह्वान करते हुए उन्होंने कहा कि भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों पर आधारित पुस्तकों के अधिकाधिक प्रकाशन बिना यह काम सम्भव नहीं है। उन्होंने कहा कि हिन्दी प्रकाशकों का भविष्य उज्जवल है पर उन्हें उसके लिए उदासीनता छोड़कर आत्ममंथन के जरिये संघर्ष करना होगा। इसी अवसर पर सुविख्यात लेखक ‘विष्णु प्रभाकर’ ने अपने अध्यक्षीय सम्बोधन में हिन्दी की दुर्दशा और अपमान के लिए हिन्दी वालों को ही जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने कहा कि हम हिन्दी-भाषी यदि अपने-अपने घरों में ही हिन्दी को उसका सम्मान दिला दें तो हालात बदल जायेंगे। श्री ‘प्रभाकर’ ने देश की राजनीतिक स्थिति पर टिप्पणी करते हुए कहा कि आज भ्रष्टाचार या अन्य मुद्दों पर दोषारोपण की नहीं, बल्कि आत्मचिन्तन की जरूरत है।
सरकारी भाषा – नीति से जब असन्तोष बढ़ता है तो शिक्षा में भी आन्दोलनों की हवा बहती है। इस समय की हमारी भाषा – नीति न तो उत्तर को सन्तुष्ट कर रही है, न दक्षिण को। इसलिए उत्तर एवं दक्षिण में भाषा के सम्बन्ध में आन्दोलन हुए। उत्तर भारत के छात्रों में अंग्रेजी के विरोध में रोष उमड़ा तो दक्षिण भारत के विद्यार्थियों में अंग्रेजी के प्रति प्रेम प्रबल हो उठा। पराधीन भारत में भी आन्दोलन होते थे, किन्तु वे कुछ दूसरे प्रकार के थे। राजनीतिक आन्दोलन के सन्दर्भ में एक बार गांधीजी ने कहा था – “आज हवा ही कुछ ऐसी बह गयी है कि हमारे लिए उसके असर से बच निकलना मुश्किल हो गया है, लेकिन अब वह जमाना भी नहीं रहा, जब विद्यार्थियों को जो कुछ मिलता था, उसी में वे सन्तुष्ट रह लिया करते थे। अब तो वे बड़े-बड़े तूफान भी खड़े कर दिया करते हैं। छोटी-छोटी बातों के लिए भूख-हड़ताल तक कर देते हैं। अगर ईश्वर उन्हें बुद्धि दे तो वे कह सकते हैं, ‘हमें हमारी मातृभाषा में पढ़ाओ’ और अगर वे मेरी अक्ल से काम लें तब तो उन्हें कहना चाहिए कि ‘हम हिन्दुस्तानी हैं, चुनांचे हमें ऐसी जुबान में पढ़ाइये, जो सारे हिन्दुस्तान में समझी जा सके’, और ऐसी जुबान तो हिन्दुस्तानी ही हो सकती है। “
गांधीजी के इस कथन के सन्दर्भ में विगत आन्दोलनों को देखने से यह सहज ही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उत्तर एवं दक्षिण के आन्दोलनों को एक समान आन्दोलन नहीं कहा जा सकता; फिर भी वर्तमान परिस्थितियों में भाषा के सम्बन्ध में आन्दोलन का समर्थन नहीं किया जा सकता और तब तो ऐसा आन्दोलन और भी निन्दनीय हो जाता है, जब छात्र रेलवे स्टेशन व पोस्ट-ऑफिस को फूंकने का प्रयत्न करें।
हिन्दी हमारे राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक है। इस सम्बन्ध में सन् 1976 में तत्कालीन उपराष्ट्रपति श्री जत्ती के विचार द्रष्टव्य हैं।
श्री जत्ती मैसूर रियासत हिन्दी प्रचार समिति के तत्त्वाधान में कर्नाटक राज्य की अन्य हिन्दी प्रचार संस्थाओं के सहयोग से हिन्दी प्रचार आन्दोलन के स्वर्ण जयन्ती समारोह का उद्घाटन कर रहे थे।
तत्कालीन उपराष्ट्रपति श्री वासप्पा दानप्पा जत्ती ने कहा कि हिन्दी के प्रति देश के सभी नागरिकों को अपना दृष्टिकोण उदार बनाना चाहिए | हिन्दी हमारी सामाजिक, सांस्कृतिक एवं भावात्मक एकता की प्रतिनिधि भाषा है, हमारे राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक है, जिसका भविष्य उज्जवल है। हिन्दी प्रेमियों में प्राय: यह अनुरोध किया जाता है कि उन्हें उदार भाव से हिन्दी का प्रचार करना चाहिए, लेकिन मेरी मान्यता तो यह भी है कि हिन्दी के प्रति देश के सभी नागरिकों को अपना दृष्टिकोण उदार बनाना चाहिए। हिन्दी हमारे संविधान द्वारा राजभाषा के रूप में स्वीकार की गयी है, उसकी प्रतिष्ठा करना हम सबका राष्ट्रीय कर्त्तव्य है। समाज का हर प्रबुद्ध ओर चिन्तनशील व्यक्ति गांधीजी के इस विचार से सहमत है कि एक सूत्र में पिरोने के लिए सम्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी ही उपयोगी भूमिका निर्वाह कर सकती है क्योंकि वह पहले से ही हमारी सांस्कृतिक एकता का सेतु रही है, सन्त महात्मा इसी के माध्यम से दूर-दूर तक जनमानस से सम्पर्क साधने में इसी भाषा में अपने विचारों का आदान-प्रदान करते रहे हैं, गांधीजी की आवाज ने लोगों के हृदय में एक नया उत्साह जागृत कर दिया। कर्नाटक में हिन्दी के लिये कई स्वायत्त संस्थाओं ने यह काम अपने हाथ में लिया। हिन्दी का जो कार्य यहाँ हो रहा है और लोगों में इसके प्रति जो लगाव है, उसे देखकर मुझ बड़ी प्रसन्नता है। यूनेस्को में जिस प्रकार हिन्दी को अपना गौरवमय स्थान प्राप्त है उसी प्रकार वह निकट भविष्य में संयुक्त राष्ट्र संघ में भी अपना सम्मानित स्थान ग्रहण करेगी।
राष्ट्रीय चेतना के विकास के साथ-साथ आज जनमानस में जो जागरूकता है, उस परिप्रेक्ष्य में हिन्दी की भावी सम्भावनाओं का हम मूल्यांकन कर सकते हैं कि युग परिवेश में हिन्दी राष्ट्रीय आवश्यकताओं को पूरा करने में काफी समर्थ है, आज जरूरत इस बात की है कि लोग अपने दैनिक कार्यों में, आपसी पत्र-व्यवहार में उसका विरोध करें, उसे हम • जितना व्यवहार में लायेंगे उतनी ही उसकी शक्ति में वृद्धि होगी।
कर्नाटक विधानसभा अध्यक्ष श्री एस. एम. कृष्ण द्वारा मैसूर हिन्दी प्रचार परिषद् के दीक्षान्त समारोह में बगलूरू ने सन् 1993 में व्यक्त उद्गार द्रष्टव्य हैं। उन्होंने कहा, ‘भारत अनेक धर्मों, अनेक उपसंस्कृतियों और अनेक साम्प्रदायिक धारणाओं का देश है। यह बहुभाषा-भाषी देश भी है। हमारे संविधान में भारत की 17 भाषाएँ राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकृत हुई हैं। इनमें हिन्दी भी एक है | हिन्दी बहुप्रचलित भाषा है। इसकी व्याप्ति और उपयोगिता की दृष्टि से यह सम्पर्क भाषा भी है।”
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