1857 का विद्रोह एवं झारखण्ड

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1857 का विद्रोह एवं झारखण्ड

1857 का विद्रोह एवं झारखण्ड

11 मई, 1857 को मेरठ के सिपाहियों द्वारा दिल्ली पर कब्जा करते ही भारत में प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम की शुरूआत हो गई. जिसका विस्तार दिल्ली, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश बिहार, मराठा आदि राज्यों में हो गया था. ऐसे में झारखण्ड के सेनानी एवं राष्ट्रभक्त कैसे हाथ पर हाथ धरे बैठते ? सबसे पहले हजारीबाग में देशी पैदल सेना के दस्तों ने जुलाई के अन्त में विद्रोह कर दिया. इस विद्रोह का विस्तार चतरा, हजारीबाग, पलामू, राँची, चाईबासा, सिंहभूम एवं संथाल परगना तक था.
30 जुलाई, 1857 को सुरेन्द्र शाहदेव ने हजारीबाग के केन्द्रीय कारागार को तोड़कर क्रान्तिकारियों को आजाद कर दिया. ये क्रान्तिकारी भारत के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम में शामिल हो गये. इन्होंने हजारीबाग एवं उसके निकटवर्ती पंचायतों पर अपना कब्जा कर लिया. इसकी खबर सेना छावनी में पहुँचते ही डोरंडा एवं राँची के सैनिकों ने विद्रोह कर दिया और इन दोनों स्थानों को अपने कब्जे में ले लिया. डोरंडा के सैनिक विद्रोह का नेतृत्व जमादार माधव सिंह और सूबेदार नादिर अली खाँ ने किया था. इनकी अंग्रेजों से लड़ाई चुटुपालू घाटी एवं ओरमांझी में हुई. इस लड़ाई में स्थानीय अंग्रेज सेना पराजित हो गयी थी. इन सैनिकों को मुक्तिवाहिनी के शेख भिखारी ने अमूल्य सहयोग दिया. इस लड़ाई में शेख भिखारी की वीरता देखने योग्य थी शेख भिखारी एवं इन सैनिकों की वीरता देखकर अंग्रेज कप्तान ग्राह्य ने हजारीबाग से तोप एवं सैनिकों की मदद ली. फिर भी इन्हें विद्रोही सैनिकों के हाथ 2 अगस्त, 1857 को पराजित होना पड़ा. इन विद्रोहियों के प्रेरणास्रोत थे बटुक गाँव के ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव एवं उनके सेनापति भौंरो के पाण्डेय गणपत राय थे. 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम में ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव एवं पाण्डेय गणपत राय का योगदान अतुलनीय है. इन्होंने मुक्तिवाहिनी के माध्यम से अनेक शूरवीरों को अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए प्रेरित किया जिसमें जयमंगल पाण्डे, बृजभूषण सिंह, भाई घासी सिंह खंटगा के टिकैत उमरांव सिंह उल्लेखनीय हैं. इनमें शेख भिखारी का योगदान अविस्मरणीय है. इन्होंने डोरंडा के सैनिकों को चूटुपालु घाटी एवं ओरमांझी के युद्ध में मदद की एवं संथाल
परगना के स्थलों को विद्रोह के लिए भी जाग्रत किया, किन्तु संथाल 1855 ई. के विद्रोह दमन से टूट गये थे. अतः इस संग्राम में वे उतना योगदान नहीं दे सके. इसी बीच 10 सितम्बर, 1857 को जगदीशपुर (बिहार) में बाबू कुँवर सिंह की पराजय की सूचना राँची एवं चूटुपालु के विजेताओं को मिलीं. इन्हें 11 सितम्बर को डोरंडा पहुँचने की सूचना मिली और ये सेनानी डोरंडा से जगदीशपुर के लिए बाबू कुँवर सिंह की मित्रवाहिनी की सहायता हेतु कूच किया. ये दस्ता चंदवा, बालूमाथ होते हुए चतरा पहुँचा. यहाँ से इन्हें डाल्टेनगंज होते हुए रोहतास पहुँचना था. उस दस्ता में शेख भिखारी भी था. रास्ते में अनेक क्रान्तिकारी इस दस्ते में शामिल होते गये. 2 अक्टूबर, 1857 को चतरा में ब्रिटिश सेना के साथ इनका संघर्ष हुआ. क्रान्तिकारियों का नेतृत्व जयमंगल पाण्डे कर रहे थे और विदेशी सेना का नेतृत्व मेजर हिंलिश. इस युद्ध में अंग्रेजों की विजय हुई. विदेशी सेना में 53वें इन्फेन्ट्री, बंगाल इन्फेन्ट्री एवं सिख रेजीमेन्ट के सैनिक शामिल थे. 4 अक्टूबर , 1857 को जयमंगल पाण्डे को फाँसी
> 1857 के विद्रोह के प्रकृति के सम्बन्ध में विद्वान् एकमत नहीं हैं, किन्तु हम यहाँ इस विद्रोह को भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के  रूप में स्वीकार करते हैं.
दे दी गई. शेख भिखारी भागकर चुटुपालु घाटी पहुँच गये. यहाँ शेख भिखारी के नेतृत्व में अंग्रेजों के खिलाफ जनवरी 1858 में मुकाबला हुआ और 6 जनवरी को शेख भिखारी एवं टिकैत उमरांव सिंह को गिरफ्तार कर 8 जनवरी, 1858 को फाँसी दे दी गई.
राँची एवं हजारीबाग के संघर्ष की खबर चारों ओर फैल गयी थी. चाईबासा स्थित रामगढ़ बटालियन के सिपाहियों ने भी विद्रोह की खबर मिलते ही 3 सितम्बर, 1857 को विद्रोह कर दिया. इन्होंने सरकारी खजानों का लूट लिया, जेल के बन्दियों को मुक्त कर राँची के बागियों से मिलने हेतु राँची की ओर प्रस्थान किया, किन्तु खराब मौसम के कारण (बाद में ) आगे नहीं बढ़ सके और इन्हें पोडाहार के राजा अर्जुन सिंह ने आश्रय दिया. इन सैनिकों से प्रभावित होकर राजा अर्जुन सिंह भी इस विप्लव में प्रत्यक्ष तौर पर शामिल हो गये. राजा को स्थानीय हो जनजातियों ने अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष में सहयोग किया. राजा चक्रधरपुर के पुलिस चौकी पर अपना कब्जा जमा लिया. ब्रिटिश अधिकारी राजा अर्जुन सिंह को किसी भी हालत
में पकड़ना चाहते थे. इसके लिए उन्होंने उनके पकड़ने पर 1000 रुपये का इनाम रखा था. राजा को गिरफ्तार करने हेतु सिंहभूम के जिलाधिकारी को बदलकर ले. बर्च की नियुक्ति की. ले. बर्च सरायकेला के राजा के सहयोग से 20 अक्टूबर, 1857 को राजा अर्जुन सिंह के पौत्र जग्गु दीवान को चक्रधरपुर पर आक्रमण कर गिरफ्तार कर लिया गया और फाँसी दे दी गयी, किन्तु इस आक्रमण से राजा बच निकला. अब विप्लवकारी राजा के नेतृत्व में दक्षिण कोल्हान विद्रोह की आग में जलने लगा था. अतः इस पर नियन्त्रण हेतु बरपीड पर आक्रमण करने की योजना बनाई, किन्तु रास्ते में ही इन सैनिकों को विप्लवकारियों के छापामारी युद्ध का सामना करना पड़ा जिसमें अनेक ब्रिटिश सैनिक एवं अधिकारी हताहत हुए. अंग्रेज इस पराजय से आग बबूला हो गये और पोडाहार पर आक्रमण कर दिया, किन्तु राजा अजुर्न सिंह गिरफ्त में नहीं आए. अन्ततः राजा को 5 जनवरी, 1858 को अपने श्वसुर के यहाँ से गिरफ्तार किया गया और ₹400 मासिक पेंशन देकर बनारस भेज दिया गया; जहाँ उनका देहान्त हो गया.
पलामू जिला इस स्वतन्त्रता संग्राम से कैसे अछूता रहता. पलामू में यह आन्दोलन देर से अवश्य शुरू हुआ, किन्तु आन्दोलन अंग्रेजों के लिए परेशानी का कारण बन गया. नीलाम्बर एवं पीताम्बर ने भोगता खेरवार तथा चेरों को एकमत कर मजबूत सैनिक दस्ता का गठन किया. ये दोनों भाई के नेतृत्व में इन दस्तों ने चैनपुर स्टेट एवं रंका स्टेट पर आक्रमण कर दिया. इस आक्रमण में उनके दो भोजा जग साँय एवं दलेल साँय ने सहयोग दिया.
ये विप्लवकारी 29 नवम्बर को राजहंस स्थित कोल कम्पनी का अन्ततः अंग्रेजों एवं अधिकारियों के बंगलों को तहस-नहस कर दिया. पीताम्बर एवं नीलाम्बर पकड़े गये एवं दोनों भाइयों को एक पेड़ से लटकाकर फाँसी दे दी. इस प्रकार भारत का यह प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम शिथिल पड़ गया और अंग्रेजों ने अपनी प्रशासनिक नीति में आमूल-चूल परिवर्तन किया.
> मुख्य बातें
> झारखण्ड में 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संघर्ष की शुरूआत अगस्त 1857 के प्रथम सप्ताह में हजारीबाग एवं निकटवर्ती क्षेत्रों से हुई.
> झारखण्ड में भारत के प्रथम स्वतन्त्रता संघर्ष में रामगढ़ छावनी एवं अन्य सेनाओं ने क्रान्तिकारियों के साथ अंग्रेजों के विरुद्ध बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया.
> इस संघर्ष का मुख्य केन्द्र हजारीबाग, राँची, चुटुपालु की घाटी, चतरा, पलामू, चाईबासा था.
> भारत के इस स्वतन्त्रता संग्राम में जमींदारों से ज्यादा बढ़-चढ़कर आम नागरिकों ने भाग लिया. इनमें शेख भिखारी, नीलाम्बर, पीताम्बर, उमराव सिंह के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं.
> इस संघर्ष को ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव एवं पाण्डेय गणपत राय की ‘मुक्तिवाहिनी सेना’ का योगदान उल्लेखनीय है.
> जनजातीय आन्दोलन का गढ़ संथाल परगना 1857 के स्वतन्त्रता संघर्ष से लगभग अछूता रहा.
> ‘मुक्तवाहिनी सेना’ बाबू कुँवर सिंह के सम्पर्क में थी.
> ‘मुक्तिवाहिनी सेना’ ने बाबू कुँवर सिंह की पराजय की सूचना सेना उन्हें मदद देने हेतु रोहतास की ओर कूच किया था.
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