Gujarat Board | Class 9Th | Hindi | Model Question Paper & Solution | Writing – Chapter – 1 निबंध-लेखन

Gujarat Board | Class 9Th | Hindi | Model Question Paper & Solution | Writing – Chapter – 1 निबंध-लेखन

प्रश्न – निम्नलिखित विषयों पर 100 शब्दों में निबंध लिखिए: –

(1) मेरी प्रिय पुस्तक
[ प्रिय पुस्तक का उल्लेख – भिन्न-भिन्न भाषाओं में इस पुस्तक के अनुवाद – पुस्तक की विषयवस्तु – पुस्तक की विशेषता – पुस्तक महत्त्व ] का प्रभाव – –
उत्तर : पाठ्यपुस्तकों के साथ-साथ मुझे अन्य पुस्तकें पढ़ने का भी बहुत शौक है। मैं अपने विद्यालय के पुस्तकालय से कई अच्छी पुस्तकें लाकर पढ़ता रहता हूँ। इनमें से मुझे गांधीजी की आत्मकथा सबसे अधिक प्रिय है।
गांधीजी ने यह पुस्तक अपनी मातृभाषा गुजराती में लिखी है। इसका नाम है ‘सत्य ना प्रयोगो’ । हिन्दी, मराठी और अंग्रेज़ी में भी इसका अनुवाद हुआ है। हिन्दी में इसका नाम ‘सत्य के प्रयोग’, मराठी में ‘सत्याचे प्रयोग’ तथा अँग्रेज़ी में ‘एक्स्पेरिमेंट आफ ट्रुथ’ है। भारत की अन्य भाषाओं में भी इसके अनुवाद हुए हैं। गांधीजी अपने जीवन में सत्य को सबसे अधिक महत्त्व देते थे । इसीलिए उन्होंने अपनी आत्मकथा को यह नाम दिया है।
‘सत्य के प्रयोग’ में गांधीजी ने अपनी कमियों एवं बुराइयों का खुलकर वर्णन किया है। उन्होंने धूमपान, मांसाहार व चोरी करने तथा अपनी अन्य बुराइयों के बारे में कुछ भी नहीं छिपाया । हर जगह उन्होंने अपनी गलतियों का स्वीकार किया है। उन्होंने यह भी बताया है कि किस प्रकार वे इन बुराइयों के चक्कर में फँसे और कैसे उन्होंने इनसे छुटकारा पाया। इसके अलावा इस पुस्तक में गांधीजी ने अपनी शिक्षा, विलायत यात्रा, वकालत, दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह तथा भारत के स्वतंत्रता आंदोलनों की विस्तृत चर्चा की है।
गांधीजी के जीवन की विभिन्न घटनाएँ हमें सदा प्रेरणा देती रहती हैं । इनसे हमें सीख मिलती है कि एक साधारण व्यक्ति भी किस तरह इतना महान बन सकता है। गांधीजी अपनी सच्चाई, लगन, ईमानदारी और आत्मबल से हमारे देश के महान नेता और युगपुरुष बन गए । इन्हीं गुणों के कारण आज हम उन्हें ‘राष्ट्रपिता’ के रूप में याद करते हैं।
इस पुस्तक की भाषा बहुत सरल और हृदय को छूनेवाली है। इसकी शैली भी बहुत रोचक है। इस पुस्तक को पढ़ने से पाठक के हृदय में सत्य, अहिंसा, प्रेम, आत्मविश्वास तथा मानव सेवा के भाव जागृत होते हैं। गांधीजी की आत्मकथा पढ़कर मुझे बहुत लाभ हुआ है। इसके प्रभाव से मैंने कई बुरी आदतों से छुटकारा पाया है।
मेरी तरह कई लोगों ने गांधीजी की आत्मकथा पढ़कर अपने जीवन की राह बदल डाली है। हमारे देश में समाजसुधार और दलितोद्धार करने तथा शोषण के खिलाफ़ आवाज़ उठाने में यह पुस्तक काफी सहायक सिद्ध हुई है। यह पुस्तक मेरी मित्र, गुरु और मार्गदर्शक बन गई है।
(2) बस स्टैंड पर आधा घंटा
[ यातायात में बस का महत्त्व – बस के लिए कतार में खड़े रहना बस की प्रतीक्षा में खड़े यात्रियों की मनोदशा – बसों का आना-जाना – इच्छित बस मिलना ]
उत्तर : यातायात के आधुनिक साधनों में बस का बहुत महत्त्व है। शहरों में तो आने-जाने का मुख्य साधन बस ही है। इसीलिए बसों में यात्रियों की बहुत भीड़ होती है। कभी-कभी तो इच्छित बस मिलने में आधा-एक घंटा भी लग जाता है।
कल मुझे अपने एक मित्र के घर जाना था। मैं बस स्टैंड पर कतार में खड़ा हो गया। मुझे 130 नंबर की बस पकड़नी थी । उस स्टैंड पर कई दूसरी बसें भी आती थीं।
काफ़ी देर हो गई, पर बस नहीं आई। मैं बड़ी उत्सुकता से कतार में खड़े लोगों के हावभाव देख रहा था । कतार में बूढ़े, जवान, बच्चे, स्त्रियाँ सभी प्रकार के लोग थे। स्त्रियाँ महँगाई की बातें कर रही थीं। एक यात्री खड़ा खड़ा एक सामयिक पढ़ रहा था। दो वृद्ध व्यक्ति एक- दूसरे का हालचाल पूछ रहे थे। कालेज में पढ़नेवाले दो छात्र हँसी मज़ाक में व्यस्त थे। मेरे पीछे खड़ा बच्चा अपनी माँ से खिलौना खरीदने की जिद कर रहा था। माँ बच्चे को डाँट रही थी । एक भिखारी हाथ में कटोरी लिये भीख माँग रहा था ।
इस बीच कई बसें आती रहीं। बस आते ही यात्री बस पकड़ने दौड़ पड़ते। इससे बार- बार कतार टूट जाती थी। कभी-कभी धक्कामुक्की भी हो जाती थी। कुछ लोग काफ़ी इंतज़ार करने पर भी बस न मिलने पर टैक्सी में बैठकर चले गए । क्या करते बेचारे, बस के भरोसे कब तक खड़े रहते ?
तभी 130 नंबर की बस आ गई। यात्री भागकर उसमें चढ़ने लगे। एक बुढ़िया बस में ठीक से चढ़ भी न पाई थी कि कंडक्टर ने घंटी बजा दी। बुढ़िया जैसे-तैसे बस में चढ़ तो गई, पर कंडक्टर पर खूब बरसी। आखिरकार कंडक्टर को बुढ़िया से माफी माँगनी पड़ी। तब कहीं जाकर बुढ़िया का गुस्सा शांत हुआ। बस भले देर से आई, पर उसमें भीड़ नहीं थी। मैं आराम से अंदर जाकर बैठ गया ।
सचमुच, बस के इंतज़ार में बस स्टैंड पर आधा घंटा बिताना एक बहुत ही रोचक अनुभव है।
(3) होली आई रे … !
[ परिचय – होली के बारे में प्रसिद्ध कथाएं – त्योहार से आनंद – होली की हानिकारक परंपराएं – होली से प्राप्त संदेश – उपसंहार ]
उत्तर : होली हमारे देश का एक प्रमुख त्योहार है। यह त्योहार फाल्गुन मास में शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को मनाया जाता है।
होली के बारे में भक्त प्रहलाद की कथा प्रचलित है। प्रह्लाद के पिता हिरण्यकशिपु एक नास्तिक व्यक्ति थे, जब कि पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु का भक्त था। यह बात हिरण्यकशिपु को पसंद नहीं थी। इसलिए उसने प्रहलाद को आग में जला देने का निश्चय किया। हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को वरदान मिला हुआ था, जिससे आग उसको नहीं जला सकती थी। भाई के आदेश पर होलिका प्रहलाद को गोद में लेकर आग में बैठ गई। लेकिन होलिका आग में भस्म हो गई और प्रहलाद बच गया! आसुरी शक्ति पर दैवी शक्ति की विजय हुई। लोगों में आनंद छा गया। तभी से होलिकोत्सव का प्रारंभ हुआ। कुछ लोग होली को रबी की फसल का त्योहार मानते हैं। उनके मतानुसार अच्छी फसल होने की खुशी में यह त्योहार मनाया जाता है।
होली के त्योहार की तैयारियाँ कई दिन पहले से शुरू हो जाती हैं। दुकानें रंगों एवं पिचकारियों से सजाई जाती हैं। होली जलाने के लिए लकड़ियाँ इकट्ठी की जाती हैं। पूर्णिमा को शाम के समय होली जलाई जाती है। सुहागन स्त्रियाँ नारियल, कुंकुम, चावल और नए अनाज से होली की पूजा करती हैं। बच्चे, बूढ़े, नवयुवक सभी उत्साह में आकर गाने, बजाने तथा नाचने लगते हैं। होली के दूसरे दिन धुलेंडी मनाई जाती है। इस दिन खूब रंग-गुलाल उड़ते हैं। लोग एक-दूसरे पर रंग छिड़कते हैं। लोग प्रेम से एक-दूसरे से गले मिलते हैं। होली के उत्सव में जाति-पांति और धर्म का भेद-भाव मिट जाता है।
होली के साथ कुछ हानिकारक परंपराएं भी जुड़ गई हैं। होली के अवसर पर कुछ लोग भद्दे गीत गाते हैं। कुछ लोग रंग के बजाय एक-दूसरे पर कीचड़ डालते हैं। कुछ लोग विषैले रंगों का भी प्रयोग करते हैं। ये रंग आँखों एवं त्वचा को नुकसान पहुँचाते हैं। हमें इन बुराइयों से बचना चाहिए ।
वास्तव में होली वसंत ऋतु का रंगबिरंगा त्योहार है। यह हमारे जीवन में उल्लास और प्रेम का रंग भर देता है। सामाजिक एकता, उल्लास और उमंग की दृष्टि से होली अपने आपमें एक अनूठा त्योहार है।
होली का त्योहार हमें यही संदेश देता है कि सारे भेद-भाव भूलकर एकता के रंग में रंग जाओ।
(4) मेरा देश
[ परिचय – प्राकृतिक शोभा – इतिहास, सभ्यता, संस्कृति महापुरुष – दर्शनीय स्थान – उज्ज्वल भविष्य ]
उत्तर : भारत मेरा देश है। यह एशिया महाद्वीप के दक्षिणी भाग में स्थित है। महाराज दुष्यंत व शकुंतला के वीर और प्रतापी पुत्र भरत के नाम पर हमारे देश का नाम ‘भारत’ पड़ा। इसे ‘हिंदुस्तान’ भी कहते हैं। अंग्रेजों के शासनकाल में इसका ‘इंडिया’ नाम प्रचलित हुआ । यह दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक राष्ट्र है।
भारत के उत्तर में गिरिराज हिमालय सिर ऊँचा किए खड़ा है। देश के दक्षिण में हिंद महासागर तथा पश्चिम में अरब सागर हैं। पूर्व में बांग्लादेश व ब्रह्मदेश हैं। गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र, सिंधु, गोदावरी, नर्मदा आदि हमारे देश की पवित्र नदियाँ हैं। इन नदियों के कारण ही हमारा देश इतना उपजाऊ बना है। कश्मीर को ‘धरती का स्वर्ग’ कहा जाता है। इसकी प्राकृतिक शोभा बहुत रमणीय है।
भारत संसार का सबसे प्राचीन देश है। यह सुसंस्कृत और सभ्य बननेवाला दुनिया का सर्वप्रथम देश है। यहाँ की संस्कृति बहुत प्राचीन और समृद्ध है। यहाँ विभिन्न जातियों एवं संप्रदायों के लोग मिल- -जुलकर रहते हैं। भारत कई भाषाएँ बोली जाती हैं। भारत के वेद दुनिया के आदि-ग्रंथ माने जाते हैं। रामायण और महाभारत हमारे देश के सुप्रसिद्ध महाकाव्य हैं। भारत शिक्षा, कला, व्यापार, संस्कृति आदि सभी क्षेत्रों में सदैव आगे रहा है। यहाँ के लोग आस्तिक, मेहनती तथा ईमानदार हैं।
मेरा देश राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध, अशोक, शिवाजी, राणा प्रताप, महात्मा गांधी आदि महापुरुषों की जन्मभूमि है। इस देश में दुर्गावती, रानी लक्ष्मीबाई तथा अहिल्याबाई जैसी अनेक वीरांगनाएँ भी हुई हैं।
भारत अपनी शिल्पकला के लिए प्रसिद्ध है। अजंता एवं एलोरा की गुफाएँ, दक्षिण के भव्य मंदिर, ताजमहल, कुतुबमीनार आदि यहाँ के देखने लायक स्थान हैं। शिमला, नैनीताल, महाबलेश्वर, माथेरान तथा उटकमंड आदि यहाँ के प्रसिद्ध पर्वतीय स्थल हैं। दिल्ली हमारे देश की राजधानी है। मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, बैंगलूरु आदि यहाँ के औद्योगिक व समृद्ध महानगर हैं।
हमारे देश में लंबे समय तक अंग्रेजों का शासन रहा। इसके कारण यह देश पिछड़ गया था। 1947 में आज़ाद होने के बाद यह लगातार आगे बढ़ रहा है। अब तो भारत एक परमाणु संपन्न राष्ट्र बन गया है। भारत का भविष्य बहुत उज्ज्वल है। मेरा भारत मुझे प्राणों से भी प्यारा है।
जय भारत ! वंदे मातरम् ।
(5) यदि परीक्षाएँ न होतीं …
[ परीक्षाएं न होने पर आनंद ही आनंद – परीक्षाएं विद्यार्थियों के ज्ञान की सूचक नहीं – अभिभावकों तथा परीक्षकों को राहत – मार्गदर्शिकाओं, कोचिंग क्लास आदि से छुटकारा – परीक्षाओं से बचना असंभव ]
उत्तर : बार-बार आनेवाली परीक्षाएँ विद्यार्थियों की नाक में दम कर देती हैं। कसौटी परीक्षाओं तथा सत्रांत परीक्षाओं का सिलसिला छात्रों को चैन नहीं लेने देता। यदि ये परीक्षाएँ न होतीं तो कितना अच्छा होता ! सिर पर परीक्षाओं का बोझ न होता, तो बस आनंद ही आनंद रहता। मगर परीक्षाएँ खत्म कर दी जाएँ, तो फिर छात्रों की प्रगति की जानकारी कैसे मिलेगी ? छात्र को अगली कक्षा तरक्की किस आधार पर दी जाएगी ?
परीक्षाओं में रखा ही क्या है ? सालभर की पढ़ाई का मूल्यांकन दो- तीन घंटों में कैसे हो सकता है ? परीक्षाओं में सफल होनेवाले विद्यार्थियों में भी ज्ञान शायद ही दिखाई देता है। उन्हें मिली सफलता उनके ज्ञान और बुद्धि को नहीं, उनकी रटने की शक्ति को दर्शाती है। आज के विद्यार्थी केवल परीक्षार्थी बन कर रह गए हैं। वे केवल परीक्षा में पास होने के लिए ही पढ़ते हैं। कुछ तो बिना पढ़े, नकल करके या किन्हीं अन्य उपायों से भी सफल हो जाते हैं। इसलिए आधुनिक परीक्षाओं को ‘ज्ञान का दर्पण’ नहीं कहा जा सकता। लेकिन छात्र पढ़ाई के द्वारा जो ज्ञान प्राप्त करते हैं उसका पता बिना परीक्षा के कैसे चलेगा?
परीक्षाओं को व्यर्थ ही इतना अधिक महत्त्व दिया जाता है। बच्चों की पढ़ाई के पीछे माँ-बाप की नींद हराम हो जाती है। बच्चों के भविष्य को ध्यान में रखते हुए माँ-बाप खुद उन्हें पढ़ाने में जुटे रहते हैं। उनके लिए ट्यूशन की व्यवस्था करने में खूब खर्च करते यदि परीक्षाएँ न होतीं, तो अभिभावकों को बहुत राहत मिलती। इतना ही नहीं, परीक्षकों को भी उत्तर-पुस्तिकाएँ जाँचने में अपनी आँखें न फोड़नी पड़तीं। लेकिन परीक्षाओं की झंझट न होती, तो कोई भला पढ़ता ही क्यों ?
यदि परीक्षाएँ न होतीं तो विद्यार्थियों को महँगी मार्गदर्शिकाएँ या गाइडें खरीदनी न पड़ती। फिर तो वे ‘अपेक्षित प्रश्नसंग्रह ‘ या महत्त्व के प्रश्नों (Important Questions) के पीछे न भागते। कोचिंग क्लासों में अपना समय और रुपया बरबाद करने से भी बच जाते !
परीक्षा-पद्धति भले ही कुछ हद तक दोषपूर्ण हो, पर विद्यार्थी को अगली कक्षा में ले जाने के लिए उसकी क्षमता तो परखनी ही पड़ेगी। इसलिए परीक्षाएँ कभी बंद नहीं हो सकतीं। मनोरंजन के लिए हम भले ही ऐसी कल्पना कर लें, पर विद्यार्थियों के लिए परीक्षाएँ आवश्यक हैं। परीक्षाओं के अभाव में बुद्धिमान विद्यार्थियों का पता कैसे लगेगा ? परीक्षाओं का होना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है।
(6) पुस्तकालय
[ पुस्तकालय अर्थात् सरस्वती का मंदिर – ज्ञानप्राप्ति का महान साधन – मनोरंजन का खजाना – आदर्श पुस्तकालय के लिए कुछ आवश्यक बातें – महत्त्व ]
उत्तर : मनुष्य के जीवन में ज्ञान का बहुत महत्त्व है। शिक्षा के रूप में स्कूलों और कालेजों में विद्यार्थियों को ज्ञान दिया जाता है। संतों के प्रवचनों से भी हमें ज्ञान मिलता है। पर इस मामले में पुस्तकालयों की भूमिका निराली है। पुस्तकालयों को तो ज्ञान का भंडार ही कहना चाहिए । पुस्तकालय सरस्वती के पवित्र मंदिर हैं।
पुस्तकालयों में धर्म, साहित्य, विज्ञान, अर्थशास्त्र, राजनीति, कला, दर्शनशास्त्र आदि विभिन्न विषयों की पुस्तकें होती हैं। उनमें अनेक संदर्भ ग्रंथ और शब्दकोश भी होते हैं। बड़े से बड़े धनवान व्यक्ति के लिए भी इतनी सारी पुस्तकें खरीदना या अपने घर में रखना संभव नहीं होता । पुस्तकालयों में बैठकर पढ़ने की सुविधा भी होती है। पुस्तकालयों में अनेक दैनिक, साप्ताहिक पत्र एवं मासिक पत्रिकाएँ आती हैं। कोई भी व्यक्ति वहाँ बैठकर इन सबको पढ़ सकता है। पुस्तकालय के सदस्य बनकर हम मनचाही पुस्तकें पढ़ने के लिए घर भी ले जा सकते हैं। पुस्तकालय ऐसी ज्ञान-गंगा है, जिसमें कोई भी डुबकी लगा सकता है।
फुरसत का समय पुस्तकालय में बिताने से हमें बहुत लाभ होता है। वहाँ रखी महान लेखकों की पुस्तकें हमें ज्ञान के साथ-साथ मनोरंजन भी प्रदान करती हैं। कहानियाँ और उपन्यास पढ़ने से मन हल्का हो जाता है। अच्छी पुस्तकें पढ़ने से मन में नए विचार आते हैं और नई प्रेरणाएँ मिलती हैं। देश – विदेश का साहित्य पढ़ने से हमारी दृष्टि विस्तृत होती है। इस प्रकार पुस्तकालय हमारे लिए वरदान साबित हो सकते हैं।
आदर्श पुस्तकालय वही होता है, जो सबके लिए खुला हो, सार्वजनिक । उसका सदस्यता शुल्क अधिक न हो। उसमें उच्चकोटि की साहित्यिक पुस्तकें हों । विज्ञान और उद्योग संबंधी पुस्तकें अधिक मात्रा में हों। आदर्श पुस्तकालय दिनभर खुला रहता है। इससे अधिक से अधिक लोग उसका लाभ उठा सकते हैं।
सचमुच, पुस्तकालय ज्ञान के दीपक के समान है। भारत जैसे विकासशील देश में गाँव-गाँव में पुस्तकालय होने चाहिए । पुस्तकालयों प्रकाश से ही अज्ञान का अँधेरा दूर हो सकता है।
(7) वृक्षारोपण
[ वृक्ष – मनुष्य के मित्र – वृक्षारोपण एक पुण्य कार्य वृक्षारोपण से लाभ – भौगोलिक एवं वैज्ञानिक दृष्टि का महत्त्व – वृक्षारोपण – परम कर्तव्य ] वृक्षों
उत्तर : प्राचीन काल से ही वृक्ष मनुष्य के मित्र रहे हैं। वृक्षों से मनुष्य को अनेक लाभ होते हैं। वृक्षों की अधिकता लोगों के सुख, सौभाग्य और समृद्धि की निशानी मानी जाती है। इसलिए वृक्षारोपण की बहुत महिमा बताई गई है।
हमारे देश में पिछले कई वर्षों से वृक्षों की अंधाधुंध कटाई होती रही है। इसके कारण आज बड़े-बड़े जंगल साफ हो गए हैं और वृक्षों की सघनता में बहुत कमी आ गई है। वृक्षों के अभाव से वर्षा की मात्रा कम हो गई है। अब ज्यादा से ज्यादा वृक्ष लगाने की कोशिश की जा रही है। नया वृक्ष लगाकर उसकी देखरेख करना किसी बच्चे को गोद लेकर उसका पालन-पोषण करने के बराबर है। वृक्षारोपण को एक पुण्य कार्य माना गया है।
वृक्षारोपण से अनेक लाभ होते हैं। वृक्षों के बढ़ने और फलनेफूलने से निर्जन स्थान भी हरे-भरे और सुंदर बन जाते हैं। वृक्षों की हरियाली मन को प्रसन्नता से भर देती है। वृक्षों की शीतल छाया गरमी की दोपहर में सुख-शांति प्रदान करती है। वृक्ष के पत्ते, फूल, फल सब हमारे काम आते हैं। वृक्षों से हमें कागज, दियासलाई, गोंद, लाख, तरह-तरह की दवाइयों तथा तेलों की प्राप्ति होती है।
भौगोलिक और वैज्ञानिक दृष्टि से भी वृक्षारोपण का विशेष महत्त्व है। वृक्षों से वायुमंडल शीतल व शुद्ध बनता है। वृक्षों के आकर्षण से ही बादल खिंचे चले आते हैं, जिससे बरसात होती है। खेत के चारों ओर पेड़ लगाने से खेत की मिट्टी की रक्षा होती है। नदी के किनारे लगाए गए पेड़ उसके किनारों के कटाव को रोकते हैं। सड़कों के किनारे पेड़ लगाने से सड़कों की शोभा बढ़ती है और राहगीरों को सुखद छाया मिलती है।
वृक्षारोपण हमारा परम कर्तव्य है। वृक्ष लगाकर हम अपनी और समाज की सेवा करते हैं। वृक्षारोपण द्वारा प्राणी जीवन को स्वस्थ, सुंदर और सुखमय बनाया जा सकता है। वृक्ष हमारे जीवन की प्रथम आवश्यकता है। वे हमारे जीवन के मूलाधार हैं। इसलिए प्रति वर्ष वृक्षारोपण को हमें एक महोत्सव के रूप में मनाकर प्रकृति का आशीर्वाद पाना चाहिए ।
(8) एक फूल की आत्मकथा
[ जन्म और बचपन – सुगंध और सुंदरता का जादू – भगवान के सिर पर – वर्तमान दशा-अंतिम इच्छा ]
उत्तर : मैं गुलाब का फूल हूँ। मेरा जन्म जीजामाता उद्यान में एक पौधे पर हुआ था। वहां अन्य पौधों पर मेरे और भी अनेक साथी थे। सबका अपना-अपना रूप-रंग था। सबकी अपनी-अपनी सुंदरता थी। पहले तो मैं बहुत छोटा था । उस समय लोग मुझे ‘कली’ कहते थे। बड़ा होने पर लोग मुझे ‘फूल’ कहने लगे। मैं अपनी माँ की गोद में हवा के झोंकों के साथ झूमता रहता था। कितनी आनंदभरी थी उस समय की वह प्यार भरी दुनिया !
जब मैं फूल बना, तो मेरे रूप-रंग की शान निराली हो गई। जो भी मुझे देखता, बस देखता ही रह जाता। मेरी सुगंध और सुंदरता लोगों पर जादू जैसा असर करती थी। मधु के लोभी भरि मुझपर मंडराते रहते थे । तितलियाँ भी मेरे आसपास ही रहना चाहती थीं। सचमुच मेरे जीवन का वह सुनहरा समय था ।
मगर परिवर्तन जीवन का नियम है। मेरे जीवन में भी भारी परिवर्तन हुआ। एक दिन सुबह माली बगीचे में आया। उसने बहुत निर्दयता से मुझे मेरी माँ की गोद से अलग कर दिया। उसने मुझे तोड़कर एक टोकरी में डाल दिया। इसी प्रकार और भी कई फूल तोड़कर उसने टोकरी में डाले। इसके बाद माली अन्य फूलों के साथ मुझे बाजार में ले गया। वहाँ एक आदमी ने मुझे खरीद लिया। वह मंदिर में गया और भगवान की पूजा कर उसने मुझे भगवान की मूर्ति पर चढ़ा दिया। भगवान के मस्तक पर पहुँचकर मैं फूला नहीं समाया । पर हाय किस्मत ! कुछ ही मिनट बीते थे कि मेरी तकदीर बदल गई। पुजारी ने मुझे भगवान के मस्तक से उठाया और एक भक्त को दे दिया। मुझे पाकर उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उसने मुझे अपने सिर आँखों से लगा लिया। घर पहुँचकर उसने मुझे अपनी अलमारी के ऊपर रख दिया ।
दूसरे दिन पड़ा पड़ा मैं मुरझा गया। मेरा रूप-रंग उतर गया था। मेरी खुशबू भी चली गई थी। सफाई करते समय नौकर ने मुझे उठाकर कचरे की टोकरी में डाल दिया। फिर वह मुझे उठाकर कूड़ेदान में फेंक आया। तब से मैं यहीं पड़ा पड़ा अपनी किस्मत पर रो रहा हूँ ।
अब तो बस एक ही इच्छा है कि किसी फुलवारी में मेरा फिर से जन्म हो ।
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