अल-मंसूर (754-775 ई.) : प्रशासनिक नीति एवं उपलब्धियाँ (Al-Mansoor (754. 775AD.) Administrative Policy and Achievements)

अल-मंसूर (754-775 ई.) : प्रशासनिक नीति एवं उपलब्धियाँ (Al-Mansoor (754. 775AD.) Administrative Policy and Achievements)

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अपनी मृत्यु से पूर्ण अबू अल अब्बासी द्वारा अपने छोटे भाई अबू जफर को उत्तराधिकारी घोषित कर दिया गया था । अब्बास के बाद वह दूसरा खलीफा था। इस अवसर पर उसने अल-मंसूर की उपाधि धारण की और इस्लामी इतिहास में वह इसी नाम से जाना जाता है।
अब्बासी राजवंश की स्थापना (Establishment of Abbassi Ancestry ) 
अब्बासी राजवंश के श्रेष्ठ शासक के रूप में मंसूर अब्बासी का नाम प्रमुख है। यद्यपि अब्बासी राजवंश की स्थापना अबू-अल-अब्बास ने की थी, परन्तु संगठन आदि की दृष्टि से उसके कार्यों को पूरा नहीं कहा जा सकता है। बाद में इन कार्यों को मंसूर ने मूर्त रूप दिया । अतः अधिकांश विद्वान मंसूर को ही अब्बासी राजवंश का वास्तविक संस्थापक मानते हैं। मंसूर ने अपनी शक्ति और पराक्रम से अब्बासी शासन के महत्व को काफी बढ़ाया और खलीफा के पद एवं प्रतिष्ठा में अपार वृद्धि की । उसने सम्पूर्ण साम्राज्य में विद्रोहों का अन्त कर शान्ति सुव्यवस्था की स्थापना की। अपनी सैनिक योग्यता के आधार पर मंसूर ने बाह्य आक्रान्ताओं से न केवल इस्लामी साम्राज्य की रक्षा की, वरनू योग्य शासक और संगठनकर्ता के रूप में प्रतिष्ठा पाई। उमैयदकाल में धर्म एवं प्रशासन में जो स्वरूप सामने आया था, उन्हें सुधारकर मंसूर ने धर्म एवं प्रशासन के अंतर्गत काफी बदलाव लाये । उसने उमैयद खलीफाओं के विपरीत प्रशासन एवं राजनीति में धर्म के प्रभाव को स्वीकार कर आम मुसलमानों को अब्बासी राजवंश का कट्टर समर्थक बना दिया l
अब राजनीति एवं प्रशासन में धर्म के महत्व पर जोर दिया जाने लगा। इन परिवर्तनों को सामान्य मुसलमानों ने खुले दिल से स्वीकार नहीं किया और अब लोग मंसूर को अपन मार्ग-दर्शक मानने लगे। अब्बासी इतिहास में मंसूर का महत्व इस दृष्टि से भी माना जाता है कि उसके शासनकाल से ही अब्बासी राजवंश में योग्य खलीफाओं की श्रृंखला की शुरुआत हुई। उसके बाद के अब्बासी खलीफाओं को विश्व में प्रसिद्धि प्राप्त हुई थी। मंसूर और महदी की तुलना एण्टोनिन और मेडिसीज के साथ की जाती है। उन्होंने इस्लामी साम्राज्य के संगठन, एकता और प्रतिष्ठा का विस्तार करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया था। स्पष्ट है कि मंसूर अब्बासी राजवंश का वास्तविक संस्थापक तथा योग्य अब्बासी खलीफाओं की शृंखला को प्रारम्भ करने वाला था। अतः उनका लेख अब्बासी शासकों के मध्य सबसे पहले किया जाता है।
साम्राज्य विस्तार एवं कठिनाइयाँ (Empire Extension and Issues)
शुरुआती दौर में मंसूर को काफी मुश्किल से गुजरना पड़ा था। उसने इन विद्रोहों को कठोर हाथों से कुचल कर साम्राज्य में सर्वत्र शान्ति एवं सुव्यवस्था की स्थापना की ।
सीरिया में अब्दुल्ला के विद्रोह का अंत (End of Revolt of Abdulla in Siria)
सीरिया को मंसूर द्वारा सर्वप्रथम अपना केन्द्र बनाया गया। सीरिया के गवर्नर अब्दुल्ला ने मंसूर के विरुद्ध खुलेआम बगावत कर दी। मंसूर का चाचा अब्दुल्ला स्वयं खलीफा बनना चाहता था । अब्दुल्ला ने अब्बासी राजवंश की स्थापना में अपने भाई अल-अब्बास का काफी सहयोग किया था। मंसूर ने अब्दुल्ला की चुनौती को स्वीकार किया और खुरासान के गवर्नर अबू मुस्लिम को एक शक्तिशाली सेना के साथ अब्दुल्ला के विद्रोह को कुचलने के लिए भेजा। शत्रु सेनाओं के बीच नवम्बर, 754 ई. में नासीबीन नामक स्थान पर भयंकर संघर्ष हुए। इस युद्ध में अब्दुल्ला को हार का सामना करना पड़ा । युद्ध में मुँह की खाने के पश्चात् अपने परिवार के अन्य सदस्यों के साथ उसने अपने भाई बसरा के गवर्नर सुलेमान बिन अली के यहाँ जाकर शरण ली। किंतु अबू मुस्लिम की सेना ने वहाँ भी इसका पीछा नहीं छोड़ा। अब्दुल्ला तथा उसके दो पुत्रों को पहले हाशिमी के निकट एक दुर्ग में कैद कर दिया गया । किंतु अब्दुल्ला की अपरिमित शक्ति से भयभीत होकर अंत में एक षड्यंत्र रचकर मंसूर ने उसकी हत्या करवा दी । इस तरह मंसूर की शक्ति में वृद्धि हुई।
अबू मुस्लिम का पतन (Failure of Abu Muslim)
मंसूर के शासनकाल में सेनापति अबू मुस्लिम को भी अब्दुल की भांति यातनाए दी गई थी । मुस्लिम ने अबू अल-अब्बास द्वारा राजवंश की स्थापना में यथेष्ट सहयोग दिया था। अल-अब्बास ने उसे उसके उपकरणों के बदले खुरासान का प्रांतपति बना दिया था। अबू मुस्लिम ने अब्दुल्ला को परास्त कर खलीफा मंसूर के रास्ते के एक बड़े रोड़े को भी हटाया था। उसे अपनी सफलताओं पर काफी गर्व होने लगा था। वह खुर्रामी संप्रदाय का इमाम बन बैठा। खुर्रामियों पर उसका इतना प्रभाव था कि वे उसके एक इशारे पर अपने प्राणों की बाजी तक लगाने के लिए तत्पर रहते थे। अबू मुस्लिम खुरासान में काफी प्रभावशाली हो चुका था। उसकी महत्त्वकांक्षा इस सीमा तक पहुँच गयी थी कि वह खुरासियों की मदद से मंसूर का राज्य छीनना चाहता था। अबू मुस्लिम की महत्त्वाकांक्षा जब चरम सीमा पर पहुँच गयी तो मंसूर ने उसे चकनाचूर करने के तैयारी तैयारी शुरू कर दी। नासीबीन के युद्ध में विजयी होकर जब अबू मुस्लिम लौट रहा था तो खलीफा ने उसे सूचना भेजकर उसे सीधे ही राजधानी लौट आने को कहा। अबू मुस्लिम सशंकित हो उठा। प्रारम्भ में उसने खलीफा के आदेश का पालन करने से इंकार कर दिया परन्तु अंत में वह मंसूर के सामने उपस्थित हो गया। मंसूर उसे खुरासान के स्थान पर मिस्र के गवर्नर का पद सौंपना चाहता था, परन्तु, अबू मुस्लिम ने इसे अस्वीकार कर दिया। बाद में वह बेबीलोनिया का गवर्नर बनने के लिए राजी हो गया था। किन्तु, इसी बीच खलीफा के आदेशानुसार उसमें सैनिकों द्वारा धोखे से उसका कत्ल कर दिया गया ।
रावन्दी विद्रोह का अंत (End of Ravandi Revolt)
जिस समय मंसूर द्वारा अबू मुस्लिम की महत्वाकांक्षा के दमन की योजना बनाई जा रही थी। उन्हीं दिनों हाशिनी क्षेत्र में रावन्दियों ने विद्रोह कर दिया था। रावन्दियों के विद्रोह से अब्बासी खलीफा का जीवन संकटापन्न हो गया। 758 ई. में मंसूर ने कठोर हाथों से रावन्दियों का दमन कर दिया। बड़ी संख्या में विद्रोहियों को मौत के घाट उतार दिया गया और बचे हुए विद्रोहियों को शहर से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया ।
तबरिस्तान में अब्बासी प्रभुत्व की स्थापना (Establishment of Abbassi Sovereignty in Tabristan)
कैस्पियन सागर के दक्षिण-पूर्व में स्थित तबरिस्तान में होने वाले विद्रोह का दमन करने में खलीफा मंसूर का महत्वपूर्ण योगदान रहा तथा इस क्षेत्र में अब्बासी ने अपना सिक्का जमा लिया। तबरिस्तान के लोग मंसूर को खलीफा के रूप में स्वीकार नहीं करते थे और उन पर स्थानीय शेख का काफी प्रभाव था । जनसमर्थन ने शेख की महत्वाकांक्षा काफी बढ़ा दी और उसके आदेश पर तबरिस्तान के लोगों ने मंसूर के विरुद्ध आंदोलन का बिगुल फूँक दिया। खलीफा ने विद्रोह को समाप्त करने के लिए अपनी सेना भेज दी। जल्द ही अब्बासी सैनिकों ने नर-हत्या का तांडव उपस्थित कर दिया। काफी लोग बेमौत मारे गये तथा बहुत से लोग पलायन कर गये । मंसूर ने तबरिस्तान तथा गिलान के क्षेत्रों को अब्बासी साम्राज्य में मिला लिया ।
देलम में विद्रोहों की समाप्ति (End of Revolts in Delam)
अब्बासी द्वारा उसी समय खलीफा के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया गया। इस क्षेत्र में लोग मैजियन संप्रदाय के समर्थक थे और वे इस्लाम धर्म के विरोधी थी। देलम के विद्रोह के दमन के लिए खलीफा ने एक शक्तिशाली सेना भेजी। विद्रोहियों को सेना से मुँह की खानी पड़ी। इस प्रकार 760 ई. तक देलम में शांति स्थापित हो गयी और इसे भी अब्बासी साम्राज्य में मिला लिया गया।
अली के समर्थकों का दमन (Oppression of Supporters of Ali)
अलीदी का नाम मंसूर के प्रतिरोधियों में सर्वप्रथम आता है । वह अली का समर्थक था। उमैयदकाल से ही अलीदी अपने खोए हुए प्रभुत्व की स्थापना की कोशिश में लगे थे। यद्यपि उनका रहन-सहन काफी साधारण था परंतु उनकी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा में कुछ भी कमी नहीं आई थी। उन्हें अरब के बहुत से मुसलमानों का समर्थन प्राप्त था और इसके लिए वे संघर्ष करने को भी तैयार रहते थे। यद्यपि उनका संबंध अब्बासियों के साथ था, फिर भी वे उनके विरोधी बने रहे। अलींदियों द्वारा मदीना के अपने केन्द्र का स्थापना की गई। उनका नेता हजरत हसन का पड़पोता मुहम्मद स्वयं खलीफा बनना चाहता था। मुहम्मद ने अपने समर्थकों के सहयोग से अब्बासी साम्राज्य के विरुद्ध आक्रमण करने की योजना बनाई किन्तु मंसूर को इसकी सूचना पहले ही मिल जाने के कारण वह चौकन्ना हो चुका था। मंसूर ने मदीना के अब्बासी गवर्नर को मुहम्मद तथा उसके भाई इब्राहीम को कैद कर लेने का आदेश दिया। यद्यपि इन दोनों ने भाग कर अपने प्राणों की रक्षा की। किन्तु अलींदियों के अन्य दूसरे नेता तथा समर्थक पकड़ लिये गये । इनमें अब्दुल्ला और मुहम्मद उस्मानी विशेष रूप से उल्लेखनीय थे। उस्मानी इब्राहिम का श्वसुर था। इन कैदियों को कूफा लाकर होबैरा के किले में बंदी बना दिया गया। साथ ही साथ इन्हें काफी प्रताड़ित भी किया गया ।
यद्यपि अब्बासी सैनिकों द्वारा मुहम्मद एवं अन्य विद्रोहियों को ढूँढ़ने में हर संभव प्रयास किए गए लेकिन प्रयत्न करने के बावजूद ये दोनों भाई अब्बासियों के पकड़ में नहीं आ सके। इतना ही नहीं, दोनों ने गुप्त रूप से अपनी सेना का संगठन भी कर लिया। मुहम्मद तथा इब्राहीम के आदेश पर बसरा, अहबान तथा मदीना के लोगों ने खलीफा मंसूर के विरुद्ध बगावत के झंडे गाड़ दिये। मदीना में विद्रोहियों ने, जो मंसूर को खलीफा के पक्ष में नहीं थे, उसके स्थान पर मुहम्मद को खलीफा बना दिया गया। मदीना के अब्बासी गवर्नर को गिरफ्त में ले लिया गया। प्रसिद्ध इस्लामी कानून के ज्ञाता तथा निर्माता बानू हनीफ एवं मलिक इब्न अनास द्वारा मुहम्मद के खलीफा पद को वैध घोषित कर दिया गया।
अब्बासी खलीफा हेतु अब बुरे दिन प्रारंभ हो चुके थे। परंतु मंसूर भी प्रतिकूल परिस्थितियों में भी हार नहीं मानता था। मंसूर का अर्थ है विजेता, जो बाद में सही साबित हुआ। हालात को अपने अनुकूल जानकर मंसूर ने कूटनीति का सहारा लिया। प्रारम्भ में उसने मुहम्मद को लालच देकर उसे अपने पक्ष में मिलाने की कोशिश की। जब उसकी यह योजना कारगर सिद्ध नहीं हुई तो उसके द्वारा संघर्ष की राह अपनाई गई। खलीफा मंसूर ने अपने भतीजा आइसा को अलींदियों के विद्रोह का अंत करने के लिए भेजा । मुहम्मद ने अपने समर्थकों को अपनी इच्छा से युद्ध में शामिल होने का निमंत्रण दिया। वह अनिच्छुक लोगों पर में जोर डालकर युद्ध में शामिल नहीं कराना चाहता था। उसकी इस उदारता का परिणाम यह हुआ कि केवल तीन सौ व्यक्ति उसकी मदद के लिए आगे आए।
यद्यपि मुहम्मद के समर्थकों ने आइसा की विशाल सेना का 762 ई. में पूरी बहादुरी के साथ के मुकाबला किया परन्तु उसकी संख्या इतनी कम थी कि वह युद्ध जीत ही नहीं सकता था । मुहम्मद के सारे सैनिक युद्ध में मारे गये । स्वयं मुहम्मद इस युद्ध में शहीद हो गया। आइसा से अनुमति लेकर मुहम्मद के परिवार की एक स्त्री ने सारे शहीदों का क्रियाकर्म किया। मदीना के समीप इन शहीदों की लाशों को दिसंबर, 762 ई. में दफना दिया। इस प्रकार मंसूर ने अलींदी नेता मुहम्मद को पराजित किया ।
परंतु मुहम्मद का भाई इब्राहीम अब भी जीवित था और उसके नेतृत्व में अलींदियों का विद्रोह का अंत नहीं हुआ था। इब्राहिम को पराजित करने की योजना के तहत आइसा ने आगे कदम बढ़ाया । दजला नदी (यूफ्रेटिस) के तट पर शत्रु सेनाओं के बीच भयंकर युद्ध हुए। इब्राहिम की सेना ने आइसा की सेना का जमकर मुकाबला किया, नैतिकता का उत्कृष्ट नमूना पेश करते हुए इब्राहिम ने आइसा की सेना का पीछा नहीं किया। आइसा ने इस अवसर का काफी फायदा उठाया। अपनी सेना को पुनः इब्राहिम की सेना पर आक्रमण करने का आदेश दिया। इब्राहिम इस अप्रत्याशित आक्रमण के लिए तैयार नहीं था। अतः अब्बासी सैनिकों ने इब्राहिम की सेना को, जो युद्ध के लिए तैयार नहीं थी, उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया। स्वयं इब्राहिम की इस युद्ध में मौत गई। इस तरह मंसूर के रास्ते की दूसरी रूकावट भी हट गई ।
खलीफा मंसूर द्वारा मुहम्मद तथा इब्राहिम के मृत्यु के पश्चात् बसरा तथा मदीना के अलींदियों को समूल नष्ट करने की योजना बनाई गई। बसरा में इब्राहिम के सहयोगियों तथा समर्थकों को मौत के घाट उतार दिया गया। उन्हें जेलों में ठूंस दिया गया तथा उनके घरों को लूट कर उनमें आग लगा दी गयी। उन धनी एवं सम्पन्न व्यक्तियों के साथ भी ऐसा ही व्यवहार किया गया, जो धन आदि से इब्राहिम की सहायता किया करते थे। मदीना के लोगों को काफी प्रताड़ित किया था। अली के सम्बन्धियों की जमीन-जायदाद छीन ली गयी तथा जनता को अब तक प्राप्त सारे विशेषाधिकारों एवं सुविधाओं से वंचित कर दिया गया। इतना ही नहीं, बाहरी देशों से उन्हें जो सहायता मिलती थी, उन पर भी रोक लगा दी गई। उन कानून शास्त्रियों को, जिन्होंने मुहम्मद के खलीफा – पद को सही ठहराया था, बन्दी बना लिया गया । होबैरा का दुर्ग कैद किये गये विद्रोहियों से ठसाठस भर गया। बाद में इन तमाम कैदियों की निर्मम हत्या कर दी गयी। इब्राहिम का सिर काट कर 14 फरवरी, 763 ई. को उसके वृद्ध कैदी पिता अब्दुल्ला के पास भेज दिया गया । अपने पुत्र के कटे हुए सिर को देख कर अब्दुल्ला ने मंसूर के दूत को बड़े ही धैर्य से कहा था, अपने स्वामी को जाकर कह देना कि मेरे दुःख के दिन सुख में परिवर्तित होंगे। अल्लाह उसी दिन हमें वास्तविक न्याय देगा।
साम्राज्य का प्रसार (Exxtension of Empire)
अब साम्राज्य में मंसूर ने काफी शक्ति अर्जित करनी थी जिससे पड़ोसी राज्यों के मध्य संघर्ष की शुरुआत हो गई थी। प्रायः एक सदी से बैजेन्टाइन वासी रुक रुक कर इस्लामी साम्राज्य की सीमाओं पर आक्रमण कर रहे थे। मंसूर ने अपनी सेना को आगे बढ़ने से रोक दिया। अनेक युद्धों और भयंकर नर-संहार के पश्चात् बेजैन्टाइनी सेना को हार स्वीकार करनी पड़ी। कुस्तुन्तुनिया के सम्राट को मंसूर के साथ एक सप्तवर्षीय सन्धि करनी पड़ी। युद्ध में खलीफा के हाथों परास्त हो जाने के कारण रोमन सम्राट द्वारा खलीफा को वार्षिक कर देने का आश्वासन देना पड़ा। साथ ही उसने खलीफा की सम्प्रभुता को मानना भी स्वीकार कर लिया। खलीफा ने रोमन आक्रमण से नष्ट हो गये शहरों एवं मकानों का पुनर्निर्माण कराया तथा लोगों को फिर से वहाँ बसाया गया। खलीफा ने स्वयं विभिन्न प्रान्तों की यात्रा की और प्रजा की दशा का अवलोकन किया। मंसूर के आदेश पर मेलेसिया, मेसिया तथा अनेक अन्य नगरों का फिर से बनाया गया।
अन्य क्षेत्रों की विजय (Mctory of Other Areas)
यद्यपि अब्बासियों को स्पेन के विरुद्ध मुंह की खानी पड़ी। परन्तु उनके कुछ अन्य प्रयास सफल साबित हुए। अब्बासियों ने बाकू के क्षेत्रों पर अपना अधिकार जमा लिया तथा वहाँ के लोगों को वार्षिक कर देने के लिये बाध्य किया गया। भारतीय सीमा पर कन्धार को अब्बासी सेनापति ने अपने कब्जे में ले लिया था तथा वहाँ भगवान बुद्ध की प्राप्त एक प्रतिमा को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया गया। वस्तुतः मंसूर के सेनापतियों ने कश्मीर की सुरम्य एवं सम्पन्न घाटी पर धावा बोल दिया। 770 ई. में एक अब्बासी जहाजी बेड़ा बसरा से सिन्धु नदी के डेल्टे पर आक्रमण हेतु भेजा गया। 763 ई. में मंसूर ने अपने पुत्र जफर को हारव बिन अब्दुल्ला के साथ मोसुल का प्रान्तपति नियुक्त किया । हारव ने मोसुल में एक भव्य दुर्ग की स्थापना की जिसे बाद में जफर के अपना निवास स्थान बना लिया। इस प्रकार मंसूर ने न केवल आंतरिक विद्रोहों को जड़-मूल से समाप्त कर दिया, बल्कि अपने विजय अभियानों के द्वारा उसने पश्चिमी एशिया तथा अफ्रीका के प्रदेशों पर अब्बासी प्रभुत्व की स्थापना भी कर दी। अब वह बिना किसी बाधा के राज्य करने लगा। अतः मंसूर को अब्बासी राजवंश का वास्तविक संस्थापक कहा जाना गलत नहीं होगा।
शासन व्यवस्था (Administrative System)
जार्जिया के क्षेत्र में शासन व्यवस्था – अभी भी जार्जिया का क्षेत्र खराजियों के अधीन था । मंसूर के शासनकाल में इन क्षेत्रों में फिर भयंकर विद्रोह छिड़ चुका था । मंसूर ने खालिद बिन बरमक को अर्थ सचिव के पद पर नियुक्त कर दिया। मेसोपोटेमिया का प्रांतपति पदच्युत कर दिया गया और उसे जार्जिया के क्षेत्र में खराजियों के विद्रोह को कुचल डालने का आदेश दिया गया। बरमक ने बड़ी ही बुद्धिमानी के साथ अपनी सेना की बागडोर संभाली और विद्रोहियों को समाप्त कर जार्जिया के क्षेत्र में शांति सुव्यवस्था स्थापित की ।
अफ्रीका के क्षेत्र में शासन व्यवस्था – खारजी अब अफ्रीका हमला करने की योजना बना रहे थे। मंसूर ने अफ्रीका में खराजियों के विद्रोह को कुचलने के लिए याजीद मुहालवी को अफ्रीका का प्रान्तपति नियुक्त कर दिया। मुहालवी ने जल्द ही विद्रोहियों को कुचल डाला और वहाँ शांति स्थापित की।
मंसूर की असफलता – मंसूर स्पेन को भी अपने अधिकार में लेना चाहता था। स्पेन पर उन दिनों उमैयदों का प्रभुत्व कायम था। अब्दुर्रहमान का स्पेन में काफी प्रभाव था । अफ्रीका के अब्बासी गवर्नर ने 763 ई. में उमैयदों के विरुद्ध स्पेन पर धावे बोल दिये, परन्तु अब्दुर्रहमान ने अब्बासियों के इस आक्रमण को न केवल विफल बना दिया, बल्कि उसने अब्बासी गवर्नर की हत्या करवा दी और मंसूर के पास भेज दिया। इस पराजय के बाद मंसूर ने स्पेन के विरुद्ध आक्रमण करने की कोशिश नहीं की। इस प्रकार स्पेन उमैयदों के ही अधिकार में रहा।
प्रशासनिक सुधार और संगठन कार्य
(Administrative Reforms and Organisation Works)
खलीफा मंसूर ने केवल अब्बासी राजवंश को ही स्थापित नहीं किया था, बल्कि उसमें एक कुशल प्रशासक के सभी गुण भी विद्यमान थे। उसने एक शक्तिशाली केन्द्रीय सरकार की स्थापना की और खलीफा पद के महत्व, गौरव एवं अधिकारों को व्यापक बनाया। मंसूर के दरबार में दूर-दूर के प्रतिष्ठित विद्वान, साहित्यकार, विधि-ज्ञाता, कलाकार आदि को सम्मानित किया जाता था। मंसूर के शासनकाल में ही एक ईरानी को वजीर का पद इस्लामी सरकार में पहली बार नसीब हुआ। खालिद इब्न-बरकम ने इस पद को सर्वप्रथम ग्रहण किया ।
बौद्ध मठों के प्रधान पुजारी को बरमक कहा जाता था। खालिद का पिता बल्ख के एक बौद्ध मठ का प्रधान पुजारी था। उसकी माता को 705 ई. में कुतयबा इब्न-मुस्लिम द्वारा बल्ख में बंदी बना लिया गया था। खालिद तथा खलीफा अल-अब्बास में दोनों इतने अच्छे दोस्त थे कि खालिद की पत्नी ने खलीफा की पुत्री को और खलीफा की पत्नी ने खालिद की पुत्री को अपने-अपने पास रख कर भरण-पोषण किया। अल-अब्बास ने खालिद को दीवान- अल खराज (वित्त मंत्री) के पद पर नियुक्त कर दी। 756 ई. में उसे तबरिस्तान का गवर्नर नियुक्त किया गया जहां उसने एक भीषण विद्रोह का दमन किया था। अपनी वृद्धावस्था में उसने बैजेन्टीनियन दुर्गों को जीत कर काफी प्रसिद्धि हासिल की। यद्यपि खालिद को वजीर के रूप में सारे अधिकार प्राप्त नहीं थे परन्तु अनेक अवसरों पर उसने वजीर की भांति, खलीफा के महान परामर्शदाता के रूप में काम किया तथा वजीरों के एक सुविख्यात परिवार बरकम वजीर का संस्थापक बना ।
प्रान्तीय शासन – शांति स्थापित होने के पश्चात् मंसूर द्वारा प्रांतीय शासन व्यवस्था को संगठित करने की ओर कदम उठाए गए । मंसूर बेहिचक उच्च प्रशासनिक पदों पर मवालियों तथा स्वतन्त्र गुलामों को नियुक्त करता था। उसने गुप्तचरों के माध्यम से साम्राज्य के विभिन्न क्षेत्रों से तमाम सूचनाएँ एकत्र करने की व्यवस्था की तथा सूचनाओं को एकत्रित करने के लिए एक विशेष पदाधिकारी की नियुक्ति की । समाचार लेखक को प्राप्त सूचनाओं को दर्ज करने के लिये नियुक्त किया गया था। इनके सहयोग से खलीफा साम्राज्य की विभिन्न प्रांतीय सरकारों की गतिविधियों पर कड़ी निगरानी रखने लगा। बड़ी संख्या में खलीफा द्वारा गुप्तचरों की नियुक्ति की गयी, जो साम्राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में होने वाले विद्रोह एवं षड्यन्त्रों की सूचना खलीफा को दिया करते थे । इस प्रकार प्रान्तों में गड़बड़ी की रोकथाम आसानी से की जा सकती थी और साम्राज्य में शांति रखी जा सकती थी। इसके अलावा शांति बनी रहने के कारण लोगों की जान-माल सुरक्षित रहते थे तथा आर्थिक एवं सांस्कृतिक विकास का मार्ग प्रशस्त होता था ।
नयी राजधानी बगदाद का निर्माण – अलीदियों के विरुद्ध अंतिम सफलता मिलने के पश्चात् मंसूर द्वारा फरात नदी के पश्चिमी तट पर बगदाद की नींव रखी गई । अल-अब्बास ने हाशीमिया को अपनी राजधानी बनाया था। किन्तु यह कूफा के काफी निकट था। कूफा के लोगों ने उमैयदों को अत्यधिक परेशान किया था जिसके कारण बड़े सोच-समझ कर मंसूर ने बगदाद को अपनी नयी राजधानी बनाया। मंसूर का चुनाव उत्तम था क्योंकि राजनीतिक, सैनिक, सांस्कृतिक, आर्थिक दृष्टि से यह स्थान बड़े ही महत्व का था। प्राचीन काल में बगदाद पर रसानियों का प्रभुत्व रहा था । बगदाद का अर्थ होता है ईश्वर द्वारा
प्रदत्त। नयी राजधानी के निर्माण में चार वर्ष लगे और इस पर लगभग 48,83,000 रकम व्यय की गई। इस शहर का निर्माण सीरिया, मेसोपाटामिया तथा साम्राज्य क्षेत्रों से बुलाए गये लगभग सौ हजार कारीगरों, शिल्पियों तथा मजदूरों ने किया। शहर निर्माण सम्बन्धी सामग्री की सहायता अल-मदाइन के दी नई राजधानी के चारों तरफ दोहरी दीवार बनवाई गई। इसके अन्दर खलीफा के महल, सरकारी भवन, मस्जिद, लोगों का निवास स्थान, सैनिक छावनी तथा बजारों का निर्माण किया गया। पानी की समुचित व्यवस्था की गयी। नहरें लायी गयीं और उन पर पुल बनाए गये जिससे बगदाद शहर, सभी सुविधाओं से सम्पन्न हो गया जिससे वहाँ आकर अमीर व्यक्ति, व्यापारी, विद्वान, कवि, साधारण लोग रहने लगे और बगदाद एक आधुनिक शहर बन गया। इसका आर्थिक एवं राजनीतिक दृष्टि से तो महत्व था ही, इसने अब अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति भी अर्जित कर ली।
मध्यकाल में बगदाद की श्रेष्ठता को चुनौती देने वाला केवल कुस्तुन्तुनिया के अलावा विश्व में शायद ही कोई अन्य नगर रहा हो। खलीफा मंसूर ने अपनी नयी राजधानी को दार-अल-अलाम अथवा मदीनात-अल-सलाम शांति का नगर के रूप में नामकरण किया, परन्तु अपने प्राचीन नाम बग़ाद के रूप में ही यह अधिक प्रसिद्ध हुआ।
ईरान के प्रभाव का विकास – इस्लामी सभ्यता, संस्कृति एवं राजनीति पर फारसी प्रभाव मंसूर के शासनकाल में स्पष्ट रूप से दिखने लगे थे। ईरान के प्रभाव से खलीफा का पद भी प्रभावित हो गया। अब इस्लाम का खलीफा एक अरबी शेख की अपेक्षा एक ईरानी निरंकुश शासक की तरह अधिक दिखने लगा ईरानियों ने अपने प्रभाव से धीरे-धीरे पूरे इस्लाम को प्रभावित कर दिया । सम्भवतः मंसूर ने ही पहली बार कलानी फारसी टोपी अथवा मुकुट का प्रयोग किया। फारसी प्रभाव के चलते प्राचीन अरबी जीवन की कठोरता समाप्त होती गयी और इस्लाम के इतिहास में उस नये युग का उदय हुआ, जो नयी सभ्यता-संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान तथा कला-कौशल का प्रतिनिधित्व करता था। अब केवल प्रसार में अरब का महत्व शेष बचा था – इस्लाम और अरबी भाषा, जो अब भी राजभाषा बनी हुई।
मंसूर की मौत (775 ई.) (Death of Mansoor (775 AD)
करीब 60 साल की आयु में मंसूर की मृत्यु हुई, जब वह मक्का की यात्रा पर जा रहा था। इस भय से कि भविष्य में कहीं खलीफा की लाश के साथ दुर्व्यवहार न किया जाय, जैसा कि खलीफाओं की कब्रों को खोद कर अब्बासियों द्वारा किया था, मंसूर की लाश को दफनाने के लिए सौ से अधिक कब्रों का निर्माण किया गया और इनमें से एक में चुपके से उसके पार्थिक शरीर को दफन कर दिया गया।
मंसूर का पतन एवं उसके उत्तराधिकारी (Fall of Mansoor and His Successors)
मंसूर को अपने काल के आरंभ में कई गंभीर आन्तरिक एवं बाह्य समस्याओं से गुजरना पड़ा था। अबू-अल-अब्बास ने उमैयद वंश को समाप्त कर अब्बासी राजवंश की नींव डाली थी। दुर्भाग्यवश उसे साम्राज्य के संगठन का उचित अवसर प्राप्त नहीं हुआ और जल्द ही उसकी मौत हो गयी। स्पष्ट है कि साम्राज्य के अन्दर अभी भी विरोधी तत्व जड़ मूल से समाप्त नहीं हो सके थे। सीरिया, खुरासान, तबरिस्तान, देमल आदि के क्षेत्रों में भयंकर विद्रोह हो रहे थे। अलींदियों ने भी अब्बासियों के विरुद्ध विद्रोह छेड़ दिया था। रावनी संप्रदाय के मानने वालों ने हाशिनी में धर्म-युद्ध को प्रारम्भ कर दिया था। विद्रोहियों का दमन कर साम्राज्य में शान्ति एवं सुव्यवस्था की स्थापना की हर संभव कोशिश की जा रही थी। साथ ही, बाह्य आक्रान्ताओं से साम्राज्य की सुरक्षा और साम्राज्य विस्तार की समस्याओं को भी हल करना था।
अब्बासी शासन को सुदृढ़ करना तथा साम्राज्य को संगठित करना भी उनका प्रमुख उद्देश्य था। मंसूर ने उपर्युक्त समस्त समस्याओं का समुचित समाधान कर साम्राज्य में शान्ति सुव्यवस्था की स्थापना की। बाह्य आक्रमणकारियों से साम्राज्य को न केवल सुरक्षित रखा, बल्कि अब्बासी प्रभुत्व का यथेष्ट विस्तार भी किया और अपने प्रशासनिक सुधारों तथा सुदृढ़ीकरण के द्वारा अब्बासी साम्राज्य को संगठित किया। मंसूर ने बगदाद में अपनी राजधानी स्थापित की, जो जल्द ही इस्लामी राजनीति एवं सभ्यता संस्कृति का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण केन्द्र बना । साम्राज्य में बरमक वजीरों का उत्कर्ष भी मंसूर के काल में हुआ जिनका इस्लाम के इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
मंसूर का उत्तराधिकारी – मंसूर द्वारा शुरुआती दौर में अपने अनुज आइसा-इब्न मूसा को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत करने की इच्छा व्यक्त की गई थी। आइसा ने अनेक लड़ाइयाँ लड़ी थीं और आलीदियों के दमन का तो सारा श्रेय उसी को दिया जाता है। उसने अब्बासी राजवंश की स्थापना में काफी योगदान किया। उन दिनों आइसा की लोकप्रियता पराकाष्ठा पर पहुंच गयी थी। अब मंसूर को अपने उत्तराधिकारी नियुक्त करने में किसी प्रकार की रुकावट नहीं रह गयी | उसने इस आशय की घोषणा कर दी और जनता ने इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया। इस प्रकार मंसूर की मृत्यु के पश्चात उसके पुत्र महदी अब्बास को खलीफा बनाया गया ।
मंसूर का मूल्यांकन (Evaluation of Mansoor)
मंसूर एक अत्यंत प्रतिभाशाली व्यक्ति था। मंसूर में मानव चरित्र के अनेक गुण विद्यमान थे । वह बड़ा परिश्रमी, दृढ़ चित्त, संतुलित विचार का एक दूरदर्शी व्यक्ति था। अपने बाहुबल से उसने बड़ी कठोरता के साथ साम्राज्य का प्रसार किया। प्रशासन एवं संगठन कार्यों में उसे गहरी रुचि थी । वह स्वयं प्रशासन सम्बन्धी कार्यों पर नजर रखता, सेना तथा दुर्गों की देखभाल करता तथा साम्राज्य में शांति व्यवस्था बनाये रखने के लिये अच्छे अधिकारियों की नियुक्ति करता था। विद्वानों ने यथार्थ ही उसे अब्बासी राजवंश का वास्तविक संस्थापक कहा है। परिश्रम तथा संयम दोनों का समावेश उसके जीवन में देखा जा सकता है। अपने व्यक्तिगत जीवन में उनके आराम और विलासिता का कोई स्थान नहीं था। उसका सारा दिन प्रशासनिक एवं धार्मिक कार्यों में ही बीतता था । इन कार्यों का संपादन कर रात के तीसरे पहर में ही वह सोया करता था और भोर होते ही वह शयन कक्ष का त्यांग कर अपने रोजमर्रा के कार्य करने लगता था ।
मंसूर आगे आनेवाले शासकों हेतु एक प्रेरणास्रोत है। उसके विचार उसी प्रकार वर्षों दिशा-निर्देशन करते रहे, जिस प्रकार मुआविया के विचार उमैयदों को मंसूर
कुछ निजी विश्वास और सिद्धान्त थे, जो उसकी नजर में काफी महत्वपूर्ण थे, यथा, वह किसी भी कार्य को कल पर न छोड़कर आज पूरा करने पर अधिक बल देता था। उसका मानना था कि शासक को अपनी प्रजा और सेना को संतुष्ट रखना चाहिए। राजकोष को कभी भी खाली नहीं करना चाहिए। अच्छे विचारकों एवं परामर्शदाताओं का सहयोग एवं मित्रता प्राप्त करनी चाहिए तथा मित्रों एवं सम्बंधियों की भूल कर भी अवज्ञा नहीं करना चाहिए। मंसूर को प्रारंभ के अब्बासी खलीफाओं में काफी सम्मान दिया जाता है l

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