कामनवेल्थ एवं ओलिवर क्रामवेल सन् 1649 ई. सन् 1660 ई.

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कामनवेल्थ एवं ओलिवर क्रामवेल (सन् 1649 ई. सन् 1660 ई.

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कामनवेल्थ एवं ओलिवर क्रामवेल (सन् 1649 ई. सन् 1660 ई.) ( Commanwealth and Oliver Cromwell (1649-1660A.D.)
यह हेनरी अष्टम के प्रख्यात मन्त्री थॉमस क्रामवेल के वंश में उत्पन्न हुआ था। उसने कम्ब्रिज विश्वविद्यालयस में शिक्षा ग्रहण की और लैटिन, यूनानी एवं डवच भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया। विवाह के उपरान्त वह अपनी जन्म भूमि हण्टिग्टन में ही रहने लगा। उसी समय से वह सन् 1628 ई. में पार्लियामेण्ट का सदस्य चुना गया।
क्रामवेल ने आरम्भ में विद्रोही भावनाओं को प्रदर्शित किया और राजा की धार्मिक नीति की खूब आलोचना की। चार्ल्स के 11 वर्ष के निरंकुश शासन में भी यसह सरकारी नीति का विरोध करता रहा। सन् 1640 ई. में जब लाँग पार्लियामेण्ट के चुनाव आरम्भ होने तक राजा के विरोधियों में प्रधान भाग लिया। उसकी प्रसिद्धि गृहयुद्ध आरम्भ होने पर द्रुत गति से हुई।
क्रामवेल और गृहयुद्ध
सन् 1642 ई. में गृह युद्ध के आरम्भ होने पर ओलिवर क्रामवेल ने अपने 60 घुड़सवारों सहित चार्ल्स प्रथम के विरुद्ध संसद का पक्ष ग्रहण कर लिया। ऐडाहिल के युद्ध में चाहे राजा को ही विजय प्राप्त हुई हो परन्तु वह अन्तिम वक्त तक लड़ता रहा। अब उसने आयरन साइड्ज के नाम से एक सैनिक दल तैयार किया और उसकी मदद से उसने शाही सेना को मार्स्टन मूर की लड़ाई में पराजित किया। इस ‘नयी आदर्श सेना’ ने सारे गृह युद्ध की काया ही पलट डाली। सन् 1645 ई. में इस सेना के माध्यम से चार्ल्स की नेजबी नामक स्थान पर करारी हार हुई और उसको बन्दी बना लिया। सन् 1649 ई. में चार्ल्स को मृत्युदण्ड दिलवाने एवं देश में प्रजातन्त्र शासन स्थापित करने में उसका विशेष हाथ रहा। रेम्जेम्यूर का इस सम्बन्ध में कहना है–
क्रामवेल को लार्ड प्रोटैक्टर बनाना— प्रारम्भ में क्रामवेल ने रम्प की मदद से देश का शासन चलाने का प्रयास किया। कैथोलिक अपनी शक्ति का दुरूपयोग करने लगे और उन्होंने अपने सम्बन्धियों को ही बड़े-बड़े पद देने प्रारम्भ कर दिए। अब क्रामवेल ने इस कारणवश रम्प को तोड़ दिया परन्तु इसके सदस्य पृथक होने को तैयार न हुए तब इसने सन् 1653 ई. में बलपूर्वक संसद भवन से उन्हें निकाल दिया।
अब पुनः नयी संसद बुलायी जिसको वेयरबोन संसद कहा जाता है। अनुभव न होने के कारण विवश होकर 5 महीने उपरांत ही इस संसद को भंग कर दिया। उसके उपरांत एक नयी शासन-विधि तैयार की गयी जिसे महासंरक्षक की संज्ञा दिया गया। उसने सम्राट् की उपाधि ग्रहण नहीं की और अपने पुत्र को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया।
ऑलिवर क्रॉमवेल के संवैधानिक प्रयोग
क्रॉमवेल इंग्लैंड का वास्तविक शासक रम्प संसद के भंग हो जाने के बाद बना रहा। इस काल में क्रॉमवेल ने अपने अपूर्व साहस एवं योग्यता का परिचय दिया और यश प्राप्त किया। उसकी कई कोशिशें के बावजूद भी राज्य का शासन एक वैधानिक आधार पर उतारा न जा सका। वह एक उदार विचार का व्यक्ति था। वह चर्च व्यवस्था को पुराने आधार पर ही रहने देने का पक्षपाती था और प्रत्येक सम्प्रदाय के लोगों को उपासना की दृष्टि से देखता था । अर्थात उसका शासन पुरानी परम्पराओं का पक्षधर था केवल थोड़ा संशोधन मात्र वह उन परम्पराओं में करना चाहता था। किन्तु मौर्टग्यू के शब्दों में- “The Leader of a revolutionary party can never become a constitutional King.”
सम्राट चार्ल्स के गुट के व्यक्ति उसे हत्यारा समझा करते थे। प्रेसविटेरियन के लिये वह घृणा का पात्र था। क्योंकि उसने उनके हाथों से सत्ता का अपहरण कर लिया था। इसीलिए एनावैपिस्टर आदि कट्टरपंथी भी उसके विरुद्ध थे, इसका कारण यह था कि बड़ी सख्ती से उनका दमन किया था। उसका कहना था – “We must break them or they will break us. ” यहाँ तक कि उसके अपने दल के स्वतन्त्र विचार रखने वाले भी उसे शक की नजरों से देखते थे तथा उस पर शक भी किया करते थे, कि वह राजा बनना चाहता था।
क्रॉमवेल का रम्प बलपूर्वक भंग किया गया था और यह उसकी महान् गलती थी कि इसके बाद प्राचीन संविधान ही अन्तिम होता कि एक नियमित शासन-व्यवस्था स्थापित कर सके। नतीजा नंगी तलवार ही आधार बनी रही जो कि शासन चलाने में मददगार थी। क्रॉमवेल ने फिर भी वैधानिक-शासन स्थापित करने के हेतु बड़ा धैर्य के साथ प्रयोग किया।
वेयरवोन्स पार्लियामेंट— क्रामवेल ने 5 जुलाई सन् 1653 ई. को एक नई पार्लियामेंट की स्थापना की जिसका नामकरण एक व्यक्ति के नाम के आधार पर Bareborne’s Parliament था। इसमें सदस्यों की संख्या 140 थी। Independent चर्च के द्वारा प्रस्तुत सूची में से क्रॉमवेल तथा उसकी सेना द्वारा प्रस्तुत सूची में से क्रॉमवेल तथा उसकी सेना द्वारा मनोनीत किये गये थे। इसमें 6 सदस्य आयरलैंड से भी लिये गये थे। धार्मिक और इमानदार प्रवृत्ति के लोगों की यह संस्था थी। क्रॉवेल के चरित्र में एक व्यावहारिक पक्ष था जिसके कारण यह लिखित संविधान को अधि क महत्व न प्रदान करता था। उसके हृदय में एक भाव पक्ष भी था जिसके कारण “सन्तों का राज्य” स्थापित करने की योजना उसे एकदम ठीक लगती थी। इस पार्लियामेंट को मनोनीत करने के बाद उसने समझा कि सन्तों का राज्य उसने स्थापित कर दिया, किन्तु वह भूल गया कि सन्त प्रायः शासक नहीं होते। इस संस्था के सदस्य भी शासन के काम को सुचारू रूप से चलाने में सफल नहीं होते। वे सभी सदस्य भावना प्रधान और अव्यावहारिक थे। उन्होंने आते ही अनेक ऐसे प्रस्ताव किये, जो उस काल के लिए बहुत आगे के थे। इसलिए इस Barebone से क्रॉमवेल को आशा से अधिक निराशा हुई । अतः उन्होंने इसे 12 दिसम्बर को स्वयं ही खत्म कर दिया।
इन्सटूमेन्ट ऑफ गवर्नमेंट ( Instrument of Government )— सैनिक अधिकारियों ने प्रथम प्रयोग की सफलता के बाद क्रॉमवेल के जामात आयरटन के नेतृत्व में एक अन्य शासन विधान प्रस्तुत किया जिसे Instrument of Government कहा जाता है। इसको क्रॉमवेल के बिना पार्लियामेंट तथा जनता की अनुमति के ही कार्यरूप में परिणत करने का निश्चय किया। वह संविधान रोध और प्रतिरोध के आधार पर लिखित संविधान थी, जिसकी धाराओं को बदलने का अधिकार को प्रयोग नहीं कर सकता था इस तरह यह अमरीकी संविधान से मेल खाता था। शासन के प्रधान का लोर्ड प्रोटेक्टर की उपाधि दी गई और प्रथम-लार्ड प्रोटेक्टर (संरक्षण) कौंसिल द्वारा उत्तराधिकारी का चुनाव नहीं किया जाएगा। गृह तथा वैदेशिक नीति में संरक्षण को करने का कुछ भी अधिकार न था, जब तक कि कौंसिल अपनी सहमति न दे। पार्लियामेंट का हस्तक्षेप सैनिक एवं राजनीतिक व्यवस्था में आवश्यक था । पदाधिकारियों की नियुक्ति के विषय में पार्लियामेंट की सहमति भी आवश्यक थी। कौंसिल के सदस्यों का नाम इन्स्ट्रूमेंट में स्वीकृति आवश्यक थी। इसका जो एक बार सदस्य बनता है उसकी सदस्यता आजीवन बनी रहती है। यह अपना परामर्श विस्तृत रूप से देने के अधिकारी थे। पार्लियामेंट की बैठक स्थगित रहने पर इन्हें अध्यादेश जारी करने का अधिकार था । एक नवीन पार्लियामेंट इन्स्ट्रूमेंट के अनुसार बुलाई जाती । इस नवीन पार्लियामेंट के सदस्य इंग्लैंड, स्कॉटलैंड तथा आयरलैंड तीनों स्थानों के होते थे। इस पार्लियामेंट का अधिवेशन तीन में एक बार होना जरूरी था तथा इसका सत्र कम-से-कम 4 महीने चलना चाहिए। वोट वे ही दे सकते थे जो 200 पौंड से अधिक सम्पत्ति रखते थे। रोमन कैथोलिकों को इस महान अधिकार से वंचित रखा गया था। राजपक्ष के लोग प्रथम तीन निर्वाचनों में भाग नहीं ले सकते थे और न प्रथम चार पार्लियामेंट में स्थान ही ग्रहण कर सकते थे । संविधान के विरुद्ध पार्लियामेंट कोई भी कानून बना सकती थी। इन्स्ट्रूमेंट को एक अपरिवर्तनशील संविधान माना गया था। राज्य के व्यय के लिए साधारण वार्षिक कर बिना पार्लियामेंट की स्वीकृति से ही वसूल किया जाता था। लेनि असाधारण प्रकार के राजस्व की वसूली के लिए पार्लियामेंट की आज्ञा जरूरी थी । इस तरह राजा और पार्लियामेंट दोनों के अत्याचारों को रोकने का प्रयास किया गया था। कौंसिल आधुनिक कैबिनेट से मिलती-जुलती थी। प्रोटेक्टर का पद प्रधानमंत्री के समक्ष था।
इसमें सबसे बड़ा दोष यह था कि इसे एक ही निर्माता का समर्थन था, दूसरा दोष यह था कि इसका संशोधन कोई नहीं कर सकता था। किसी भी संविधान की सफलता के लिए दो कारण आवश्यक हैं यों / या तो उसका आधार परम्परा होती है, इसका आधार परम्परा नहीं थी। इंग्लैंड जैसे अलिखित संविधान ने इसे सम्भव करने की कोशिश की।
प्रथम पार्लियामेंट— क्रॉमवेल को 16 दिसम्बर, सन् 1654 ई. को लार्ड प्रोटेक्टर की उपाधिा से सम्मानित किया गया। इस काल की प्रथम पार्लियामेंट की बैठक सितम्बर सन् 1654 ई. में हुई। पार्लियामेंट में रिपब्लिकन अधिक थे। इसका परिणाम यह हुआ कि बैठक में कठिनाइयाँ उपस्थित हो गई। इस पार्लियामेंट ने पदार्पण करते ही इन्स्ट्रूमेंट ऑफ दी गवर्नमेंट की ‘तीव्र आलोचना प्रारम्भ कर दी । पार्लियामेंट का मानना था कि पार्लियामेंट ही विधान निर्माण करने वाली परिषद है और इसे किसी भी विधान की काया पलटने का अधिकार है। किन्तु इन्स्ट्रूमेंट ऑफ गवर्नमेंट में यह अधिकार किसी को भी नहीं था। इस तरह ऐसा संकट पैदा हो गया, जिसे वैधानिक कह सकते हैं। पार्लियामेंट ने सेना का नेतृत्व क्रॉमवेल के हाथों से छीनना चाहा। अतः क्रॉमवेल ने 100 सदस्यों को पार्लियामेंट से निष्कासित कर दिया, जो कि पार्लियामेंट में उसका विरोध करते थे। इस घटना के बाद ही शांति कायम हो सकी। अतएव उसने चन्द्रमास के अनुसार ही पांच महीने गिनकर पार्लियामेंट को भंग कर दिया।
सैनिक शासन— जब क्रॉमवेल ने पाया कि वह वैधानिक शासन नहीं कर सकता, तो उसने इंग्लैंड का विभाजन ग्यारह फौजी जिलों में कर दिया और एक मेजर जनरल नामक सैनिक अधिकारी प्रत्येक जिलें में नियुक्त कर दिया। वह शासन व्यवस्था के अलावा लोगों की भावनाओं के लिए भी जिम्मेदार था। जनता थोड़े ही दिनों में इन सैनिक शासन से ऊब गई और इसका विरोध होने लगा।
दूसरी पार्लियामेंट— सितम्बर, सन् 1665 ई. में क्रॉमवेल को विवश होकर दूसरी पार्लियामेंट की बैठक करनी पड़ी। इस पार्लियामेंट में भी यह प्रतिबन्ध लगाया कि रिपब्लिकन दल के सदस्यों से अधिक सदस्य इसमें नहीं बैठ सकते हैं। क्रॉमवेल के प्रति बाकी लोगों ने भक्ति दिखलाकर कृतज्ञता प्रकट की और उन्होंने Humble Petition and Advice नामक एक नवीन शासन विधान क्रामवेल की स्वीकृति के लिए प्रस्तुत किया।
हम्बल पेटीशन एण्ड एडवाइज— Humble Petition and Advice का मानना है कि कौंसिल ऑफ स्टेट नामक संस्था को समाप्त कर दिया गया था। क्रॉमवेल के अधिकारों में बढ़ोत्तरी कर दी गई। उससे अपना उत्तराधिकारी मनोनीत करने तथा सम्राट की उपाधि धारण करने की प्रार्थना की गई और एक द्वितीय सदन (Second House) को बनाया गया जिसमें 70 सदस्य प्रोटेक्टर द्वारा मनोनीत स्थान ग्रहण कर सकते थे। यह स्पष्ट रूप से राजतन्त्रात्मक विधान था। क्रॉमवेल एक कुशल सम्राट अपनी क्षमताओं तथा योग्यताओं के आधार पर हो सकता था। इसके अतिरिक्त कोई अन्य उपाय भी दिखाई नहीं देता था। मनोनीत पार्लियामेंट का प्रयोग करना और वह असफलता को प्राप्त हुई और इन्स्ट्रुमेंट ऑफ गवर्नमेंट के अंतर्गत मौलिक कानून द्वारा सीमित पार्लियामेंट बुलाई गई तथा भंग की जा चुकी थी। मेजर जनरलों का शासन जनता के ध्यान प्राचीन शासन व्यवस्था की ओर झुका रहा था । सेना इस पक्ष में नहीं थी कि क्रॉमवेल राजा बन जाय, इस कारण क्रॉमवेल ने केवल राजा की उप धारण के प्रस्ताव को छोड़कर अन्य सभी बातें स्वीकार कर ली। उसने राजा के बदले लार्ड प्रोटेक्टर की उपाधि धारणा की। प्रिवी कौंसिल ऑफ स्टेट के स्थान पर बनाई गई पार्लियामेंट की शक्ति और सुविधा पहले से अधिक हो गई। इन्स्ट्रुमेंट की तरह शासन विधान अपरिवर्त्तनशील नहीं था । लार्ड सभा द्वितीय सदन के रूप में अपना प्रभाव जमा चुकी थी। इस प्रकार नवीन विधान बहुत कुछ प्राचीन विधा के समान हो गया। राजा के स्थान पर लार्ड प्रोटेक्टर था । कहा जा सकता है कि ट्यसूडरकालीन प्रिवी कौंसिल किसी-न-किसी रूप से पुनः अपने अस्तित्व में आ गयी थी। पार्लियामेंट के दो सदन हो गये थे। इस प्रकार परिस्थिति पूर्णरूपेण बदल चुकी थी। पुराने नियमों को व्यवहार में लाने की कोशिश की जा रही थी। लेकिन लोग यह भूल कर रहे थे कि प्राचीन परम्पराओं के आधार पर ही राजा-और-पार्लियामेंट के बीच संघर्ष आरम्भ हुआ था। प्रजातंत्र भ्रमण करके फिर अपनी जगह लौट आई थी। चार्ल्स प्रथम की भांति क्रॉमवेल के हृदय में भी यह अभियान था कि ईश्वर के एक विशेष कार्य से वह संसार में आया है। इन भ्रामक धारणाओं के आधार पर क्रॉमवेल भी उतना ही हठी साबित हुआ जितना कि चार्ल्स प्रथम। यदि पार्लियामेंट चार्ल्स प्रथम की विरोधी थीं तो भी क्रॉमवेल के हाथों में रहने देना चाहती थी और वह उसकी धार्मिक स्वतन्त्रता के ही पक्ष में थी। अतः सन् 1658 ई. में जब पार्लियामेंट की बैठक हुई तो क्रॉमवेल का विरोध प्रेसविटेरियन के प्रतिनिधियों ने जमकर किया।
क्रॉमवेल ने मजबूर होकर पार्लियामेंट को पुनः भंग कर दिया। यह घटना फरवरी, सन् 1658 ई. में घटित हुई। इसके कुछ ही दिनों के बाद 3 सितम्बर सन् 1658 ई. क्रॉमवेल का देहान्त हो गया। रिचर्ड क्रॉमवेल उसका उत्तराधिकारी बना। उसने सन् 1658 ई. में तीसरी पार्लियामेंट की बैठक की किन्तु इसका संघर्ष सेना से ही हो गया। अतः उसने पार्लियामेंट को भंग कर दिया।
इसके उपरान्त सेना ने रम्प की फिर से बैठक बुलाई और रिचर्ड क्रॉमवेल ने अपना पद छोड़ दिया। इस प्रकार प्रजातन्त्रकाल समाप्त हो गया तथा अन्य राज्य की पुनः स्थापना की गयी।
क्रॉमवेल का चरित्र एवं उसके कार्यों का मूल्यांकन— वास्तव में क्रॉमवेल हृदय से इंग्लैंड की भलाई करना चाहता था। उसने प्रजा की भलाई के अनेक प्रयत्न किये। उसके निम्नलिखित कार्यों से हम कह सकते हैं कि यदि क्रॉमवेल जैसा सुयोग्य शासक उस युग में न होता तो चार्ल्स प्रथम की हत्या के बाद न जाने इंग्लैंड को किन-किन परिस्थितियों का मुकाबला करना पड़ता।
1. ब्रिटिश टापू का संगठन— क्रॉमवेल ने अपनी योग्यता के बल पर स्कॉटलैण्ड तथा बेल्स को अपने अधिकार में कर लिया। यह तीनों द्वीप वैधानिक रूप से इंग्लैंड में विलीन हो गये। इस प्रकार क्रॉमवेल ने ब्रिटिश द्वीपों का एकीकरण करके एक विशाल राज्य की स्थापना की। इंग्लैंड के इतिहास में क्रॉमवेल्थ का यह कार्य एक महत्वपूर्ण व महान कार्य था।
2. यूरोप में इंग्लैंड की धाक जमाना— क्रॉमवेल की वैदेशिक नीति काफी सफल रही। उसका न कोई विशेष स्वार्थ था न लालच ही । यह सदैव इंग्लैंड का यूरोप के अन्य देशों में सम्मान और प्रभुत्ता का इच्छुक रहा । हमेशा अपने देश का विकास करने के पक्ष में था। हालैण्ड और स्पेन की पराजय ने पूर्व में इंग्लैंड को एक व्यापारिक शक्ति बना दिया। यह कार्य करके उसने विश्व में इंग्लैंड की श्रेष्ठता की नींव डाली। क्रॉमवेल अपनी उपरोक्त सेवाओं और कारनामों के लिये इंग्लैंड के महान् राजनीतिज्ञों और देशभक्तों में गणना करने के योग्य हो गया। फिर भी उसकी आन्तरिक नीति दिखावा मात्र ही थी ।
3. प्रजातन्त्र की रक्षा करना— क्रॉमवेल की दृढ़ एवं वीरतापूर्ण नीति के परिणामस्वरूप ही पार्लियामेंट ने सम्राट को वीरतापूर्वक चार क्षेत्रों में पराजित किया। चार्ल्स प्रथम को दिया गया मृत्युदण्ड का प्रभाव दूसरे शासकों पर भी पड़ा। क्रॉमवेल के बाद किसी ने भी निरंकुश शासन स्थापित न किया। सभी सम्राटों ने वैधानिक ढंग से राज्य करने की नीति अपनायी। कहा जा सकता है कि क्रॉमवेल ने सम्राट के निरंकुश शसन को समाप्त करके प्रजातंत्र की रक्षा की अपनी योग्यता के आधार पर क्रॉमवेल इंग्लैंड के राजनैतिक तथा वैधानिक इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।
4. सुख और शांति की स्थापना करना— क्रॉमवेल की महानता इसी में थी कि गृहयुद्ध से उत्पन्न होने वाली अराजकता तथा अत्याचार पूर्ण अवस्था को देश से समाप्त कर दे। इंग्लैंड की जनता कई विदेशी दलों में बंटी थी। उसने अपनी योग्यता का परिचय देते हुए देश की विषम परिस्थिति पर नियंत्रण पा लिया था। उसने देश में सुख और शान्ति की स्थापना कर दी। ऐसे वातावरण को नियंत्रण करना कोई सरल बात नहीं थी।
5. अंग्रेजी साम्राज्य का निर्माता— एक योग्य एवं कुशल राजनीतिज्ञ क्रॉमवेल ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी को कई सुविधाओं से लेस किया, जिसके कारण ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारत में पने व्यापार को फैलाने में सफलता प्राप्त की। बाद में कम्पनी भारतवर्ष में अपनी व्यापार की उन्नति करने में सफल हो गई। इस प्रकार यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि यह ब्रिटिश साम्राज्य का निर्माता था।
क्रॉमवेल के संवैधानिक प्रयोगों की उपयोगिता
क्रॉमवेल ने अपने प्रजातंत्रीय प्रयोग को असफल देखते हुए राजतंत्र की स्थापना की। यद्यपि उसके प्रजातन्त्रीय प्रयोग असफल अवश्य हुए फिर भी इनका वैधानिक इतिहास में अत्यधिक महत्व था। सन् 1660 ई. तक पार्लियामेंट का प्रभाव काफी बढ़ गया था। इसका स्थान सन् 1641 ई. से पहले की भांति क्षणिक और अनिश्चित नहीं था। वह अब अत्यन्त शक्तिशाली संस्था बन गई । इसकी इच्छा का राजा और देश दोनों आदर करते थे। लेकिन इसमें अभी भी कुछ कमजोरी अवश्य निहित थी। इसे राजा अपनी इच्छानुसार भंग कर सकता था। चार्ल्स द्वितीय ने बहिष्कार बिल के अवसर पर इसे अमान्य घोषित कर दिया। इसी प्रकार जेम्स ने भी किया। इतना होने पर भी यह माननीय हैं कि पार्लियामेंट की पूर्ण निकटस्थ थी।
1. शक्तियों के पृथक-पृथक्करण का सिद्धांत भी इसी समय प्रतिपादित किया गया, जिसके परिणामस्वरूप राजा और पार्लियामेंट दोनों की निरंकुशता पर छाप लगाई जा सकती थी।
2. क्रॉमवेल के प्रयोगों द्वारा ही स्कॉटलैंड, आयरलैंड और इंग्लैंड का एकीकरण सम्भव हो सका। Pollard के अनुसार “The instrument of government was the comprehensive Act of Union in English history.”
3. इन प्रयोगों ने यह सिद्ध करके दिखा दिया कि पार्लियामेंट की प्रभुत्ता से ही किसी स्वतन्त्र सरकार की सभी समस्याओं का समाधान करना संभव नहीं है, लेकिन संसदों का अपने निर्वाचकों के प्रति उत्तरदायित्व स्वीकार करना चाहिए तथा कुछ सुधार निर्वाचित में अवांछनीय हैं। यद्धपि वह उद्देश्य दो शताब्दियों तक अपूर्ण रहा फिर जनता का ध्यान इस तरफ प्रभावित होना अत्यधिक महत्वपूर्ण था।
4. शासन व्यवस्था के सैद्धान्तिक मुद्दों पर भी ध्यान दिया गया। राजा की स्वेच्छाचारिता एवं निरंकुशता के पश्चात् पार्लियामेंट की निरंकुशता तथा बाद में सेना की निरंकुशता विश्व के समझ प्रकट हुई। यह इतना दुखदायी सिद्ध हुआ कि इसका अंत करना पड़ा। इससे लोगों ने अनुमान लगाया कि तीनों के परस्पर समझौते के आधार पर स्थायी सरकार बन सकती है। लोगों ने यह भी अनुभव किया कि शासन में सैनिकों की अपेक्षा गैर सैनिकों की अधिक आवश्यकता एवं महत्व है।
5. क्रॉमवेल के प्रयोगकालीन समय में ही भारत में वयस्क मताधिकार, धार्मिक स्वतन्त्रता इत्यादि महान् भावनाओं का जन्म हुआ जो आज तक विश्व सभ्यता एवं संविधान पर अमिट प्रभाव डालते हैं। जॉन लिलवर्न एक अत्यन्त प्रभावशाली व्यक्ति था। उसने वयस्क मताधिकार और गणतन्त्रात्मकता का प्रचार किया। लवलर्स नामक एक दल, मनुष्यों को (गरीब, अमीर सब को) समान अधिकार दिलाने का आन्दोलन कर रहा था। Hawison के नेतृत्व में Fifth monarchyman सन्तों का राज्य स्थापित करने का स्वप्न देख रहे थे। कहा जा सकता है कि प्रजातंत्र काल में राजनीति, धर्म समाज आदि क्षेत्रों में नवीन जीवन-धारा प्रवाहित हो रही थी। इसीलिए इस युग को स्वर्ण युग की संज्ञा दी जाती है।
6. इन प्रयोगों के तहत जनता के मौलिक अधिकारों की भी चर्चा सम्मिलित हो गयी और पार्लियामेंट भी जनता के मौलिक अधिकारों को छीन नहीं सकती थी।
7. क्रॉमवेल धार्मिक सहिष्णुता का पोषक था। धर्म सुधार के पश्चात् से लेकर क्रॉमवेल के शासनकाल तक कोई भी सरकार इतनी धर्म सहिष्णु नहीं थी । यह मानवीय है कि पुनर्स्थापन-काल में क्लैरेन्डन बिल पास किया गया। फिर भी धार्मिक सहिष्णुता की बात लोगों ने नहीं भुलायी और अक्सर / अवसर पाते ही इसके लिये निगम की स्थापना की गयी।
गृहनीति
क्रॉमवेल के माध्यम से चार्ल्स प्रथम को मृत्युदण्ड दिलाये जाने के उपरांत ब्रिटेन के शासन की बागडोर को स्वयं संभाला और वहाँ प्रजातन्त्र की स्थापना की। शासन सँभालते हुए उसको कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उसके साथी उसके शासन से सन्तुष्ट नहीं थे। वे ब्रिटेन में पूर्ण रूप से प्रजातन्त्र की स्थापना चाहते थे। राजा के समर्थक भी विद्रोह करने के प्रयत्न कर रहे थे। राजकुमार रूपटे की जलसेना अंग्रेजी जहाजों के मार्ग में परेशानियाँ पैदा कर रही थी। स्कॉटलैण्ड के निवासी चार्ल्स द्वितीय को राजा बनाने का प्रयत्न कर रहे थे।
उसके माध्यम से आन्तरिक नीति में किये गये कार्य निम्न प्रकार हैं—
(1) देश में शान्ति का प्रसार— क्रॉमवेल ने अपने साथियों के जो पूर्ण प्रजातन्त्र स्थापित करना चाहते थे, विद्रोह का दमन किया। क्रॉमवेल ने एडमिरल ब्लैक के नेतृत्व में एक जल बेड़े का सृजन किया। ब्लैक ने रूपर्ट का पीछा कर उसके कई जहाजों को डुबो दिया और राजा के पक्षपातियों की शक्ति को कम कर दिया। इस प्रकार उसने ब्रिटेन में शान्ति की स्थापना की।
(2) इंग्लैण्ड, स्कॉटलैण्ड और आयरलैण्ड का मिलाप— इनका मिलाप कर इन तीनों भागों को एक ही पार्लियामेंट के अधीन कर दिया। ब्रिटेन के इतिहास में यह पहला मौका था, जब वर्तानिया को राजनीतिक एकता प्राप्त हुई। इस संयुक्त पार्लियामेण्ट में ब्रिटेन के 400 और स्कॉटलैण्ड एवं आयरलैण्ड के 30-30 सदस्य शामिल किये गये।
(3) सैनिक शासन का लागू किया जाना— क्रामवेल ने अनेक बार संसद के अधिवेशन कराये परन्तु संसद के माध्यम से क्रॉमवेल के अधिकारों को सीमित करने के प्रयत्न किए जाने पर उसने उसे भंग कर दिया। उसने निरंकुशता का प्रयोग करके सन् 1655 ई. में सारे देश को 12 भागों में बाँट दिया। हर भाग को मेजर जनरल के अधीन कर दिया। उसे आखिर में पार्लियामेंण्ट से न बनने पर सेना का सहारा लेना पड़ा।
(4) धार्मिक नीति— उसने जहाँ तक हो सका सबको धार्मिक स्वतन्त्रा प्रदान की। उसे यहूदियों को जिन्हें ब्रिटेन से बाहर निकाल दिया, वापस ब्रिटेन बुला लिया। देश में खेल-तमाशे, नाच – रंग आदि सब बन्द करवा दिये। मात्र कैथोलिक लोगों को पूर्ण स्वतंत्रता नहीं थी, परन्तु उन पर धर्म के नाम पर कोई अत्याचार नहीं किये जाते थे।
राग-रंग, नाच और खेल-तमाशों आदि मनोरंज के साधन समाप्त करने के कारण कुछ लोगों ने उसे प्यूरिटन कहा है। यह बात न्याय संगत नहीं है। उसने अंग्रेजों के जीवन को गम्भीर बनाने का प्रयास किया, परन्तु यह नहीं कि उसे किसी भी मनोरंजन से बहुत प्यार था । वह कविता और घुड़सवारी में रुचि रखता था।
(5) शिक्षा में सुधार— उसने शिक्षा के विस्तार हेतु गिरजाघरों से छीनी हुई भूमि के एक बड़े भाग में विधा के प्रसार हेतु अनेक स्कूल खोले । कैम्ब्रिज और ऑक्सफोर्ड जैसे विश्वविद्यालयों को विशेष संरक्षण प्रदान किया गया। डरहम के सुप्रसिद्ध विश्वविद्यालय की नीवं भी क्रामवेल ने ही रखी । मिल्टन एवं मारबल जैसे विद्वानों को भी क्रामवेल ने विशेष मदद की।
(6) अन्य सुधार— उसने निरंकुशता का शासन किया इसमें कोई सन्देह नहीं परन्तु निरंकुशता अपनाने पर भी उसने प्रजा की भलाई में कोई कमी नहीं की। उसने सड़कों की उचित व्यवस्था करायी। लोगों के रहन-सहन में सुधार किया और उनके नैतिक जीवन को उन्नत बनाने का प्रयास करायी। लोगों के रहन सहन में सुध र किया और उनके नैतिक जीवन को उन्नत बनाने का प्रयास किया। खजाने की स्थिति को सुदृढ़ बनाया।
इस प्रकार उसके कार्यों के माध्यम से यह ज्ञात होता है कि उसने हर कार्य न्यायपूर्वक एवं प्रजा के हित का ध्यान रखते हुए किया। देश को शान्ति एवं सुख-समृद्धि के पथ पर आगे बढ़ाने का प्रयास किया। परन्तु फिर भी लोग उसके सैनक शासन से प्रसन्नत न थे और उसकी कठोर एवं दमन की नीति से तंग आये हुए थे। इस कारण वह अपनी आन्तरिक नीति में इतना सफल न हो सका।
विदेशी नीति
ओलिवर क्रामवेल की विदेशी नीति के तीन मुख्य उद्देश्य थे—
(1) प्रोटेस्टेण्ट धर्म की रक्षा करना एवं कैथोलिक देशों के विरुद्ध एक संगठन बनाया जाना।
(2) स्टुअर्ट काल की व्यापारिक हानि को दूर करके व्यापार को उन्नतशील बनाना।
(3) यूरोप में ब्रिटेन को एक महान शक्ति बनाना।
क्रोमवेल को अपनी विदेशी नीति में बहुत सफलता मिली उस वक्त ब्रिटेन अपनी उत्कर्ष की चरम सीमा पार पर था यह कहा जाता है कि “विदेशों में जितनी महत्ता ओलिवर क्रामवेल की थी उसकी अपेक्षा स्वदेश में उसकी महत्ता मात्र उसकी छाया मात्र थी। “
इंग्लैंग के सम्मान को जेम्स प्रथम की दुर्बल कूटनीति और बकिंघम की पराजय ने मिट्टी में मिला दिया था। गणतन्त्र के शासनकाल में इंग्लैंड ने खोये हुए सम्मान को पुनः हासिल करने की कोशिश की। रम्प – पार्लियामेंट और निस्सन्देह क्रॉमवेल की दृढ़ वैदेशिक नीति ने इंग्लैंड के सम्मान में वृद्धि की । अंग्रेज नौ सेना ने राजा के समर्थकों को मेडीटेरियन समुद्र तक पीछा किया, पुर्तगाल का विरोध किया, फ्रांस के व्यापार पर आक्रमण किया, हालैण्ड और स्पेन ने युद्ध किया और उनमें से अनेक में सफलता प्राप्त करके दरबार फिर एलिजाबेथ के समय की जीते इंग्लैंड की नौ-सेना की शक्ति और उसके सम्मान को पुनः वापस ला दिया।
रम्प संसद से क्रॉमवेल के प्रथम डचयुद्ध का विरासत के रूप में प्राप्ति हुई। दिसम्बर, सन् 1653 ई. में जब वह संरक्षक नियुक्त हुआ तो उसने उस युद्ध को जारी रखना उपयुक्त समझा। सन् 1654 ई. में इंग्लैंड संधि करने पूर्णतः को तैयार हो गया एवं उसे इंग्लैंड की सभी शर्ते मान्य थी । इंगलिश चैनल में इंग्लैंड के जहाजों को सलामी देना, राजतन्त्र के समर्थकों को अपने देश से निकालना और नाविक कानूनों को मानना स्वीकार कर लिया। क्रॉमवेल की यह प्रथम सफलता थी। रम्प द्वारा प्रारम्भ किये गये कार्यों को उसने सफलतापूर्वक पूरा किया।
उसके पश्चात् भी क्रॉमवेल की विदेशी नीति साहसी और उम्र रही। उसने यूरोप की राजनीति में कभी तटस्थ भूमिका नहीं निभाई बल्कि उसने उसमें सक्रिय भाग लिया और इंग्लैंड की शक्ति और महत्व को स्पष्ट किया। क्रॉमवेल अपनी विगत-नीत में साम्राज्यवादी था। क्रॉमवेल की विदेश नीति में प्रमुख रूप से तीन उद्देश्यों को शामिल किया जा सकता था—
1. स्टुअर्ट राजा विदेशी सहयोग लेते हुए इंग्लैंड के सिंहासन पर पुनः न बैठ सके।
2. प्रोटस्टेण्ट धर्म का / की सुरक्षा और उसका विस्तार करना ।
3. इंग्लैंड के व्यापार की शुरूआत करना ।
क्रॉमवेल अपने उपर्युक्त लक्ष्यों को पूर्ण करने में निरन्तर जुटा रहा। डचयुद्ध की समाप्ति के पश्चात् उसने यूरोप को प्रोटेस्टेण्ट शक्तियों का एक गुट Holy League का प्रयत्न किया, परन्तु उसे किसी प्रकार सफलता नहीं मिली। स्पेन और फ्रांस दोनों की कैथोलिक शक्तियाँ थीं। लेकिन लड़ाई इन दोनों के मध्य ही थी। स्वीडन, ब्राण्डेन वर्ग डेनमार्क और हॉलैंड जैसे प्रोटेस्टेण्ट शक्तियाँ धर्म की भावना को छोड़कर व्यापार और अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा हेतु परस्पर संघर्ष करने को तैयार थीं तथा क्रामवेल के कहने से परस्पर सहयोग हेतु तत्पर न हुई।
क्रॉमवेल इस बदलाव को भली-भांति समझ रहा था। इसी वजह से उसका प्रोटेस्टेण्ट राज्यों का एक संघ बनाने का प्रयत्न असफल हुआ फिर भी स्वीडेन से दो व्यापारिक संधियाँ की गई, जिससे इंग्लैंड को बाल्टिक समुद्र में व्यापार करने की पूर्णत: स्वतंत्रता मिल गई। इसके अतिरिक्त, क्रॉमवेल ने डेनमार्क और पुर्तगाल से भी व्यापारिक संधियाँ करने में सफलता प्राप्त की। इन संधियों से इंग्लैंड के व्यापार का काफी विकास हुआ। उसी समय क्रॉमवेल को यूरोप की राजनीति में हस्तक्षेप करने का एक और अवसर मिला जर्मनी में तीस वर्षीय युद्ध समाप्त हो चुका था, परन्तु स्पेन और फ्रांस में युद्ध चल रहा था और वे दोनों इंग्लैंड की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाना चाहते थे। ऐसा लगने लगा कि इंग्लैंड और फ्रांस में युद्ध हो जायेगा, क्योंकि फांस और इंग्लैंड के नाविक समुद्र पर एक दूसरे से युद्ध कर रहे थे और सन् 1652 ई. में इंग्लैंड के नौ सेनापति Blake ने फ्रांसीसी प्रोटेस्टेण्टों की सहायता करने के उद्देश्य से Dunkirk के निकट एक फ्रांसीसी जल/जेल बेड़े को नष्ट कर दिया था। परन्तु इंग्लैंड और फ्रांस के मध्य किसी प्रकार की लड़ाई नहीं हुई। क्रॉमवेल ने स्पेन की सीमाओं में निवास करने वाले अंग्रेज व्यापारियों को धार्मिक सहयोग देने की पूरी – पूरी छूट दे दी । प्रत्युत्तर में स्पेन के राजदूत ने कहा था कि- “यह तो मेरे मालिक की दोनों आँखें माँगने के बराबर हैं” ( This is to ask for my Master’s two eyes) इस वजह से स्पेन से उसकी दोस्ती नहीं हो सकी।
अतः क्रॉमवेल ने स्पेन के खिलाफ कदम उठाने का प्रयास किया। उसने संसद से कहा कि ” Truely your great enemy is the spanian ” उसने घोषणा की कि इंग्लैंड के व्यापारियों और जमींदारों की स्पेन नाविकों से खतरा ही है। इस आधार पर स्पेन के उपनिवेशो पर हमला करने की नीति को अपनाया गया। सन् 1635 ई. में Hispaniola पार्लियामेंट पर हमला किया गया, परन्तु वह किसी प्रकार सफल सिद्ध नहीं हो सका। यद्यपि वापस हटकर अंग्रेज ने “Jamaica” पर अधि कार कर लिया।
सन् 1656 ई. में स्पेन ने इंग्लैंड के खिलाफ युद्ध का बिगुल फूंक दिया स्पेन और इंग्लैंड का नौ-सेना में स्थान-स्थान पर युद्ध होने लगे। उसी वर्ष Adoniral stayner ने Cading के करीब स्पेन के जहाजी बेड़े को हरा दिया एवं स्पेन के एक बड़े खजाने को लूट लिया। अगले वर्ष Blake ने स्पेन के जल-बेड़े को केनेरीज के निकट परास्त किया। इन दो युद्धों से स्पेन काफी कमजोर हो गया। पुर्तगाल जीतने हेतु एकत्रित उनकी सेना वेतन भुगतान न होने के कारण भंग हो गई और एक दूसरी सेना सहायता न पहुँच सकने के कारण नीदरलैंड ने फ्रांस और इंग्लैंड की सेनाओं से घिर गई ।
क्रॉमवेल ने सन् 1655 ई. में फ्रांस से एक समझौता कर लिया था और सन् 1656 ई. में फ्रांस से एक संधि कर ली, जिससे इंग्लैंड को दो प्रकार लाभ प्राप्त हुये उनका वर्णन निम्न प्रकार प्राप्त कर सकते हैं—
1. इंग्लैंड को इस युद्ध को जीतने के बाद Mardyek और Dunkrik प्राप्त हुआ और
2. Savory के Duke ने फ्रांस के दबाव में आकर प्रोटेस्टेण्टों पर अत्याचार करना बन्द कर दिया और क्रॉमवेल को यूरोप में प्रोटेस्टेण्टों का रक्षक माना गया।
उसके क्रॉमवेल द्वारा Tunis के शासक के विरुद्ध एक जहाजी बेडा भेजा उसने अंग्रेज कैदियों छोड़ने के / से इनकार कर दिया था। इस आक्रमण का और तो कोई परिणाम न निकला, परन्तु एक लाभ वह / यह अवश्य हुआ कि इंग्लैंड में प्रथम बार मेडीटेरिनियम समुद्र में अपनी नौ-सेना की कार्यवाही आरम्भ की, जिससे कालान्तर में इंग्लैंड काफी लाभान्वित हुआ।
परन्तु Dunkirk के जीतने के बाद Oliver Cromwell की दुर्भाग्यवश सितम्बर, सन् 1658 ई. में स्वर्ग सिधार गया। उसके बाद इंग्लैंड एक बार पुनः आन्तरिक समस्याओं में फँस गया तथा विदेशी नीति में कोई दूसरे उपयोगी कार्य संपन्न नहीं कराये जा सके।
क्रॉमवेल की विदेशी नीति के सम्बन्ध में Puritans ने अपना मत स्पष्ट करते हुए यह कहा कि, “ We are islands and our life and soul is trade.’ इतिहास Ramsay Oliver के अनरुसार “Dazzling as its immediate result were, the foreing policy Cromwell, ispired by purely militrists ides was wholly mistaken.” इतिहासकार M.M. Peese यह मानते हैं कि क्रॉमवेल को उपर्युक्त वर्णित नीति से इंग्लैंड की आर्थिक दशा में किसी प्रकार का सुधार नहीं आया, जनता कर के भारत से डूबी जा रही थी एवं इंग्लैंड की नौ सेना के निरन्तर युद्धों में व्यस्त रहने के कारण इंग्लैंड का समुद्री व्यापार आरक्षित/अरक्षित हो गया एवं उन पर समुद्री लुटेरे हमला करते रहे।
परन्तु कई इतिहासकार यह भी मानते हैं क्रॉमवेल की विदेश नीति पर्याप्त सफल थी, उससे इंग्लैंड की प्रसिद्धि बढ़ गई एवं उसे कुछ स्थायी लाभ भी प्राप्त हुए Clarendon ने लिखा था कि विदेशी में इंग्लैंड का सम्मान काफी बढ़ गया था। उसी प्रकार Thurloe ने कहा था कि ‘वह यूरोप की चाभियाँ अपनी कमर में रखता था। ‘
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