झारखण्ड : सामान्य परिचय

झारखण्ड : सामान्य परिचय

झारखण्ड का निर्माण जनजातियों की सांस्कृतिक विशिष्टता का परिणाम है. झारखण्ड के सम्बन्ध में लिखित कोई भी पुस्तक यहाँ की जनजातियों के विवरण के बिना अधूरी है. ‘झारखण्ड का जनजातीय जीवन’ झारखण्ड के ‘सामान्य परिचय’ अध्याय में लेखक ने झारखण्ड के मूलवासियों के पौराणिक एवं पुरातात्विक अवशेष का प्रमाण देकर आदिम जातियों की ऐतिहासिक पहलू को पुष्ट करने का प्रयास किया गया है.
लेखक ने ऐतिहासिक प्रमाण के तौर पर झारखण्ड के विभिन्न स्थलों से प्राप्त पुरापाषाणकालीन पुरातात्विक अवशेषों एवं वैदिक तथा पौराणिक साहित्यों में वर्णित जनजातियों की चर्चा की गई है.
‘सामान्य परिचय’ अध्याय में झारखण्ड के विभिन्न जनजातियों के आगमन एवं क्रमबद्धता का वर्णन किया गया है और उनके प्रारम्भिक विस्तार क्षेत्र का उल्लेख कर उक्त स्थलों पर उनकी संस्कृति सम्बन्धी प्रभाव की भी चर्चा है. इस अध्याय में असुर, मुण्डा हो, उराँव, तथा चेर जनजातियों की विशेष चर्चा है. लेखक का प्रयास रहा है कि ‘सामान्य परिचय’ अध्याय से पाठक झारखण्ड के जनजातियों के अन्य पहलू के अध्ययन के पूर्व उनकी इस राज्य में अस्तित्व की चरणबद्धता को समझें.
> झारखण्ड का जनजातीय जीवन 

सामान्य परिचय

झारखण्ड अर्थात् झाड़-झंखाड़, जो वनों को इंगित करता है और इस झारखण्ड (वनों) का प्रथम वासी यहाँ निवास करने वाली जनजातियाँ हैं जो सर्वप्रथम इन जंगलों को अपना रैन बसेरा बनाया ये जनजातियाँ अति प्राचीनकाल से इस प्रदेश में वास कर रहे हैं, जिसका प्रमाण विभिन्न पौराणिक साहित्यों, पुरातात्विक खोजों तथा ऐतिहासिक लेखनों से होता है. ये जनजातियाँ इस प्रदेश में हजारों वर्षों से रहते आ रहे हैं. इस अवधि में इन्होंने प्रकृति के समरूप अपनी एक जीवनचर्या विकसित की है अर्थात् इनका अपना एक समाज है जिसका राजनैतिक, आर्थिक एवं धार्मिक पहलू है, अपनी प्रकृति-आधारित कला है, गीत-संगीत है, नृत्य है एवं अपनी संस्कृति है. इस जीवनचर्या को पिछले 100 वर्षों में अनेक कारकों ने काफी प्रभावित किया है, जिसमें कुछ प्रभाव इनके लिए काफी घातक सिद्ध हुए हैं. जिसके कारण आज ये अनेक समस्याओं; जैसे–विस्थापन, स्वास्थ्य सम्बन्धी, मानसिक संत्रास से आक्रान्त हैं. भारत सरकार एवं पूर्व के राज्य (विहार) सरकार ने जनजातीय समस्याओं के निवारणार्थ प्रयास किये हैं, किन्तु अभी भी समस्याएँ वरकरार हैं. अतः झारखण्ड के नूतन सरकार के लिए जनजातीय समस्याओं का निवारण एक चुनौती है.

> पुरातात्विक अवशेष

झारखण्ड में पुरातत्ववेत्ताओं के लिए अध्ययन हेतु व्यापक क्षेत्र है. यहाँ कुछ स्थलों से पुरापाषाणकाल से नवपाषाण काल तक के अवशेष, खुदाई के क्रम में मिले हैं. प्रस्तर युग के सभ्यता एवं संस्कृति सम्बन्धी अवशेष यहाँ आज भी दबे पड़े हैं. इस ओर पुरातत्ववेत्ताओं का प्रयास जनजातीय अध्ययन में योगदान देगा. ऐसे अनेक स्थल हैं जहाँ आदिम जातियों के द्वारा प्रयुक्त औजारों के अवशेष मिले हैं, किन्तु अभी तक मानवीय अवशेष प्रात नहीं हुए हैं. इस से भी अधिक स्थल हैं जहाँ पुरापाषाणकाल से नवपाषाण काल तक प्रदेश में सौ के प्रयुक्त औजारों के अवशेष मिले हैं. मुख्यतः गुमला, राँची, खूँटी, लोहरदगा, गढ़वा, पलामू, पूर्वी एवं पश्चिमी सिंहभूम, दुमका, साहेबगंज, गोड्डा एवं देवघर जिलों से पुरापाषाणकाल एवं उसके बाद के उपकरणों के अवशेष मिले हैं. इन स्थलों से प्राप्त मुख्य उपकरण निम्नलिखित हैं-
विदारणी, वेधनी, वेधक, खुरचनी, शलक, हस्तकुठार, अर्धचन्द्राकार (लुनेट), क्रोड, गड़ासा, नक्षणी, पार्श्वखुरचनी, अफीक, भाला, पलक, अन्य खुरचनी, हथौड़ा एवं चाकू आदि.

> जनजातीय इतिहास

झारखण्ड के वर्तमान जनजातियों में मुण्डा, असुर, कोल आदि का उल्लेख भारत के ऋग्वेद एवं पौराणिक तथा बौद्ध साहित्य में मिलता है. प्राचीन ऋग्वेद में ‘असुर’ को ‘रुद्र’ के रूप में उल्लेखित किया गया है. कहीं-कहीं पर इन्द्र को असुरघ्र अर्थात् असुरों के हंता के रूप में उल्लेख किया गया. ‘भगवत पुराण’ में कोल की उत्पत्ति की चर्चा की गई है. हरिवंश पुराण एवं वायु पुराण में भी कोल की चर्चा की गई है. महाभारत के द्रोण पर्व में कौरव सेना की ओर से मुण्डाओं का उल्लेख है. इन जनजातियों का पूर्व का ऐतिहासिक प्रमाण एक जगह मिलता है. लगभग 800-600 ई. पू. के आस-पास से इनके सम्बन्ध में जो भी जानकारी प्राप्त हुई वे एक जगह संकलित नहीं हैं. सूचनाएँ काफी बिखरी हुई हैं. इन्हीं बिखरी हुई
सूचनाओं के आधार पर झारखण्ड के जनजातियों के सन्दर्भ में रायबहादुर एस. सी. राय कनिंघम, डाल्टन, वेरियर एल्विन, एल. पी. विद्यार्थी आदि ने महत्वपूर्ण सूचना दी हैं.
झारखण्ड के धरातल पर सर्वप्रथम असुरों का प्रवेश हुआ था जिन्हें बाद में मुण्डाओं ने पश्चिम की ओर ढकेल दिया. मुण्डाओं ने झारखण्ड में छठी सदी ईसा पूर्व प्रवेश किया था. एस. सी. राय के अनुसार मुण्डाओं का पुराना निवास स्थल आजमगढ़ था. यहाँ से ये विभिन्न स्थानों पर प्रवास करते हुए झारखण्ड पहुँचे. कालान्तर में मुण्डाओं ने रोहतासगढ़ से होते हुए झारखण्ड में प्रवेश किया. मुण्डा असुरों को पश्चिम की ओर ढकेलकर दक्षिण की ओर एवं पूर्व की ओर क्रमशः वर्तमान खुंटी, पंचपरगना तथा पुरुलिया आदि में बस गये. मुण्डाओं के साथ संथाल भी रोहतासगढ़ में कुछ दिन रहे. पुनः ये विन्ध्य पर्वत की ओर वापस हो गये. विन्ध्य पर्वत से ये सोन नदी को पार कर दक्षिण-पूर्व दिशा की ओर बढ़े और ओमडन्ड नामक स्थान पर, झारखण्ड में अपना पहला निवास स्थान बनाया. कुछ समय बाद इन्होंने मुण्डाओं के साथ सहयोग किया. यहाँ से ये दामोदर को पार कर शिकार भूम (आधुनिक अभ्रक के क्षेत्र) में हजारीबाग, कोडरमा, (गिरीडीह में बसे). कालान्तर में दामोदर नदी के किनारेकिनारे बढ़ते हुए धनवाद पहुँचे और यहाँ से अपने वर्तमान निवास स्थान संथाल परगना पहुँच गये.
मुण्डा झारखण्ड में असुरों के बाद आने वाली सबसे प्राचीन जनजाति थी. अतः इन्होंने यहाँ अपना हातु (गाँव) बसाया जो बाद में खुंट कुट्टी हातु (मूलवासियों का गाँव) के नाम से जाना जाने लगा.
कालान्तर में मुण्डाओं ने 12 गाँवों को समूह की पट्टी बनाया और इस पट्टी के मुखिया मानकी, पंचों आदि का चयन होने लगा. इस प्रकार मुण्डाओं में अति प्राचीनकाल से गणतन्त्र का अस्तित्व था. कुछेक शताब्दी के बाद झारखण्ड के जनजातीय रंगमंच पर उराँवों का प्रवेश हुआ. इन्होंने भी मुण्डाओं के वासस्थल के आस पास अपना प्रारम्भिक वास स्थान बनाया उराँव द्रविड़ प्रजाति के थे. इनके आगमन के बाद मुण्डाओं की एक शाखा ‘हो’ कोयल नदी के सहारे दक्षिण की ओर बढ़ते हुए सिंहभूम पहुँच गई. कोयल नदी की तरफ से आने के कारण इन्हें कोल एवं इस क्षेत्र को बाद में कोल्हन क्षेत्र कहा जाने लगा. अन्य मुण्डा उराँव को अपने पूर्व निवास स्थान राँची के उत्तरी-पश्चिमी हिस्से में छोड़कर पूर्व की ओर प्रस्थान कर छोटा नागपुर उच्च मध्य पठार पर पहुँच गये. बाद में लगभग 500 ई. पू. में, इस पूरे क्षेत्र के मुखिया का मुण्डा मानकी या परहा द्वारा चयन किया गया. कालान्तर में इन्हीं मुखियाओं या परहों द्वारा राजा फनीमुकुट राय का राजा के रूप में चयन किया गया, जो नागवंशी थे.
उराँव, जो द्रविड़ प्रजाति के हैं, दक्षिण की ओर से झारखण्ड में आकर मुण्डाओं को पूर्व की ओर ढकेल कर राँची के निकट बस गये. उराँवों को कुरुख भी कहते हैं. कुरूख, कुर्ग का अपभ्रंश है डाल्टन इसे कोंकण से जोड़ते हैं. विष्णु पुराण में उल्लिखित कोंकण से इसकी सभ्यता सिद्ध की जाती है.
इस प्रकार कोंकण को ही इनका निवास स्थान बताया जाता है. भाषाविद् कन्नड़ भाषा एवं कुरूख ( जो उराँवों की भाषा को भी कहते हैं) में समरूपता सिद्ध कर इन्हें द्रविड़ भाषी एवं इनका मूल निवास स्थान कर्नाटक (कुर्ग ) बताया है किन्तु ये उराँवों की लोक परम्पराओं से यह पता चलता है कि इन्होंने राम-रावण युद्ध में राम की ओर से भाग लिया था. इसकी पुष्टि उनके टोटम ‘हनुमान’ (वानर) से भी होती है. इसके बाद ये नर्मदा की ओर बढ़ते गये और सोन घाटी पहुँच गये. यहाँ से ये आरा एवं बक्सर की ओर बढ़ गये, जहाँ वे कुछ दिन रहे. इस स्थल को पुनः छोड़कर रोहतासगढ़ की ओर बढ़ गये. वर्तमान रोहतास एवं भोजपुर जिले (बिहार) में उराँव, खेरवार, भाट, चेर एवं सावर बहुत दिनों तक एक साथ रहे, किन्तु मलेच्छों ( आक्रमणकारी चेरों) के भय से इन्होंने रोहतास छोड़ दिया.. यहाँ से ये दो शाखाओं में बँट गये. एक शाखा जो मलेच्छ कहलायी, जो राजमहल पहाड़ी पर बस गये एवं दूसरी शाखा पलामू होते हुए उत्तरी कोयल के दक्षिणी पूर्वी हिस्से में बसे जहाँ पहले से ही मुण्डा रह रहे थे. यहाँ ये दोनों जनजाति प्रारम्भ में शान्तिपूर्वक रहे. उराँव, मुण्डाओं के ग्राम्य संगठन को अपनाया. कालान्तर में इन दोनों प्रजातियों ने नागवंशी राजा को अपना राजा माना.
चेर लोगों ने भी सोन घाटी के पास काफी दिन तक निवास किया. चेरों ने लगभग 271 ई. पूर्व तक इस क्षेत्र पर शासन किया. मध्यकाल एवं आधुनिक काल में भी इन चेरों ने शासन किया. प्रायः इसी समय यहाँ आयीं. झारखण्ड की अन्य जनजातियाँ विभिन्न जनजातियाँ समय-समय पर यहाँ आयीं और प्रायः सदैव के लिए यहाँ बस गईं. ये स्वायत्तता युक्त जीवन व्यतीत कर रही थीं, किन्तु मुगल काल में अकबर के समय सन् 1585 में उराँवों एवं मुण्डाओं के राजा मालगुजार बनकर रह गये. जहाँगीर के काल में सन् 1616 में इन जनजातियों के नागवंशी राजा दुर्जनशाल को गिरफ्तार कर 12 साल तक के लिए ग्वालियर के किले में कैद रखा. कैद से छूटने के बाद राजा ने गैर-आदिवासियों को अपने प्रशासनिक कार्य में शामिल किया. जिसके कारण बाहर से अनेक गैर-आदिवासी यहाँ आकर बसे इस प्रकार इन आदिवासियों के एकान्तिक जीवन में उथल-पुथल की प्रक्रिया शुरू हो गई. इस प्रक्रिया को अंग्रेजी शासन एवं मिशनरियों के आगमन ने तीव्र कर दिया, जिसके प्रतिक्रियास्वरूप अनेक जनजातियों में विद्रोह हुआ.
> मुख्य बातें
> जनजातियों की अपनी विशिष्ट सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक आर्थिक तथा धार्मिक अवधारणा होने के कारण एक विशिष्ट पहचान है.
> झारखण्ड में पुरापाषाणकाल से ही जनजातियों का डेरा रहा था.
 > झारखण्ड के अनेक जनजातियों का उल्लेख हिन्दू पौराणिक ग्रन्थों में है.
> प्रमुख मानवशास्त्रियों का मानना है कि झारखण्ड की सभी जनजातियाँ  बाहर से आकर इस क्षेत्र में बसी हैं.
> झारखण्ड में सर्वप्रथम असुर जनजातियाँ आकर बसीं. इसके बाद मुण्डाओं का आगमन हुआ है.
> झारखण्ड में सर्वप्रथम मुण्डाओं ने स्वयं को राजनीतिक रूप से संगठित किया.
> झारखण्ड में बाद में आने वाली मुख्य जनजातियों में उराँव, हो तथा कोल उल्लेखनीय हैं.
> उराँव अपनी भाषा के कारण द्रविड़ माने जाते हैं जो कोंकण के मूल वासी थे.
> यहाँ के आदिवासियों के जीवन चर्चा को सर्वप्रथम मुगल शासक अकबर ने प्रभावित किया.
> जहाँगीर के शासनकाल में झारखण्ड के नागवंशी शासक दुर्जनशाल को गिरफ्तार कर ग्वालियर के किले में कैद कर लिया गया था.
> कालान्तर में ईसाई मिशनरी, सेठ – साहूकारों तथा ब्रिटिश शासनतन्त्र का झारखण्ड में जाल बिछ गया.
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