झारखण्ड-उग्रवाद की समस्या एवं क्षेत्रीयता
झारखण्ड-उग्रवाद की समस्या एवं क्षेत्रीयता
झारखण्ड का नये राज्य के रूप में अस्तित्व में आने से पहले से ही यहाँ उग्रवाद एवं क्षेत्रीयता की समस्या रही है. उग्रवाद की समस्या बिहार से विरासत के तौर पर मिली और क्षेत्रीयता की समस्या के प्रतिफल के रूप में झारखण्ड राज्य है. इस अध्याय में उग्रवाद की समस्या के प्रकृति एवं विस्तार के कारण इस समस्या के समूल नाश हेतु सरकारी प्रयास तथा इसके उपाय सम्बन्धी सुझावों की चर्चा है.
क्षेत्रीयता झारखण्ड की पुरानी समस्या है जिसकी नींव स्वतन्त्रता पूर्व ही डाल दी गई थी. झारखण्ड में क्षेत्रीयता की अवधारणा ने हिंसक रूप भी लिया, जिसे आदिवासी नेताओं ने बढ़ावा दिया. इस अध्याय में झारखण्ड में क्षेत्रीयता के अवधारणात्मक पहलू एवं प्रकृति की चर्चा की गई है. क्षेत्रीयता की अंध भक्ति विकास में बाधक होता है और सरकार की कुछेक नीति इसी ओर बढ़ रही है. लेखकद्वय ने | इस ओर इशारा किया है.
उग्रवाद एक वैश्विक समस्या है, जिसे सम्पूर्ण मानव समाज एक या दूसरे रूप में आक्रान्त है, जिसके कारण देश एवं काल के अनुसार परिवर्तित होते जाते हैं, किन्तु इनका उद्देश्य – हिंसा द्वारा लक्ष्य की प्राप्ति है + सर्वत्र एक है.
> उग्रवाद की समस्या
झारखण्ड भी इस उग्रवाद की समस्या से ग्रसित है. यहाँ 18 में से 14 जिले नक्सलवाद से आक्रान्त है. झारखण्ड को नक्सलवाद की समस्या मूलतः बिहार से बैर सौगात के रूप में मिला जो आज देश के लिए सरदर्द बन गया. झारखण्ड के नक्सलवाद से प्रभावित जिलों में मुख्य हैं- चतरा, कोडरमा, गिरिडीह, हजारीबाग, बोकारो, धनबाद, रांची, लोहरदगा, गुमला, गढ़वा, पलामू, दुमका आदि. इस उग्रवाद की बलिवेदी पर झारखण्ड निर्माण के पूर्व लोहरदगा के युवा एस. पी. अजय सिंह चढ़ गए. झारखण्ड के निर्माण के कुछ दिनों बाद ही गिद्धौर प्रखण्ड के वी. डी. ओ. को नक्सलवादियों ने अपहरणोपरान्त मौत के घाट उतार दिया. झारखण्ड नक्सलवाद इस प्रकार है-
1. मजदूरी सम्बन्धी विवाद.
2. गरीबों का आर्थिक शोषण.
3. जंगल एवं पहाड़ के रूप में विशाल एवं सुरक्षित शरण स्थली.
4. ग्रामीणों एवं आदिवासियों में अशिक्षा जिससे ये आसानी से इन उग्रवादियों की बात में आ जाते हैं.
5. भूमि सुधार का अभाव – बिहार में जमींदारी की समाप्ति के बाद भूमि सुधार पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया, जिससे भूमिहीन भूमिहीन बने रहे एवं इनका शोषण बदस्तूर जारी रहा.
6. उच्च जातियों द्वारा आदिवासियों एवं निम्न जातियों का शोषण आज भी जारी है, जो उग्रवादियों के लिए फायदेमंद साबित हो रहा है.
7. जनसमर्थन – उग्रवादियों को जनसामान्य का एवं ग्रामीण लोगों का समर्थन भी मिल रहा है. क्योंकि ये छोटे-मोटे अपराधों का यथाशीघ्र निर्णय, सामाजिक अपराध के निदान में सहयोग करते हैं. सबसे बड़ी बात जो इन उग्रवादियों के पक्ष में है कि ये गरीब ग्रामीण इन्हें अपना हितैषी मानने लगे हैं, जिससे इन्हें
इनका समर्थन मिलता है, जो प्रशासन के लिए चिन्ता का विषय है. उग्रवाद की चपेट में आज झारखण्ड का तीन-चौथाई इलाका है, जिससे इस राज्य पर बुरा प्रभाव पड़ा है, उग्रवाद के दुष्परिणाम इस प्रकार हैं
1. कानून व्यवस्था की समस्या.
2. सरकारी योजनाओं की विफलता.
3. श्रम एवं पूँजी का प्रदेश से पलायन.
4. आर्थिक विकास का बाधक.
5. शिक्षा विकास में बाधक,
6. सड़क एवं संचार के विकास का बाधक आदि.
> सरकारी प्रयास एवं उपाय सम्बन्धी सुझाव :
बिहार सरकार द्वारा उग्रवाद पर नियन्त्रण हेतु पूर्व में किए गए सारे प्रयास व्यर्थ साबित हुए. उग्रवाद पर नियन्त्रण एवं समाप्ति के राजनीतिक एवं प्रशासनिक इच्छा शक्ति का अभाव रहा है. मोर्चे पर बिहार सरकार की विफलता का मुख्य कारण सरकार के नई सरकार ने भी बाबूलाल मरांडी के नेतृत्व में उग्रवादियों से वार्ता की पेशकश की है. सरकार के प्रतिरोधक नीति के तहत् ‘सघन एन्टी नक्सलाईट अभियान शुरू करना है, जिसके अन्तर्गत थाना आउट पोस्ट पिकेट एवं सुरक्षात्मक व्यवस्था के निमित्त 80 लाख की स्वीकृति दी गई है.
पुलिस थानों के लिए अत्याधुनिक सुविधाओं तथा मूलभूत संरचना हेतु करीब 17 करोड़ रुपये की स्वीकृति दी गई है एवं जिला नियन्त्रण कक्षों को सुदृढ़ करने के लिए 5-62 करोड़ रुपये की स्वीकृति दी गई है.
> उपाय सम्बन्धी सुझाव :
उग्रवाद की समस्या एक कानूनी समस्या के साथ राजनीतिक एवं सामाजिक समस्या भी है. अतः इनके निवारण हेतु कानूनी प्रयास के साथ-साथ राजनीतिक एवं सामाजिक प्रयास भी करना होगा, उग्र वाद की समाप्ति हेतु सरकार को निम्नांकित प्रयास करनी चाहिए –
1. आर्थिक विकास,
2. रोजगार सृजन,
3. शिक्षा का प्रसार,
4. सरकारी नीतियों के प्रति एवं उग्रवादियों के विरुद्ध सरकार को जनसमर्थन प्राप्त करना,
5. सरकारी योजनाओं से जनता को लाभ हो तथा भ्रष्टाचार पर रोक लगे.
6. उग्रवाद प्रभावित क्षेत्रों में गरीबों को अति निम्न ब्याज दर पर ऋण प्रदान किया जाये, जिससे कि यह सूदखोरों एवं महाजनों के चंगुल में फँसने से बचें.
7. सड़क एवं अन्य मूलभूत सुविधाओं का विकास किया जाये.
> क्षेत्रीयता
क्षेत्र विशेष के प्रति लगन एवं केन्द्र या राज्य सरकार द्वारा इस क्षेत्र के प्रति उपेक्षा क्षेत्रीयतावाद का कारण रहा है.
झारखण्ड में क्षेत्रीयता की भावना ब्रिटिश शासन के दौरान से ही थी. अंग्रेजों एवं गैर-जातियों के इस क्षेत्र में प्रवेश का आदिवासियों ने सदैव विरोध किया. पृथक् राज्य आन्दोलन के दौरान गैर-जनजातियों के प्रति विरोध की भावना इनमें पूरी तरह से घर कर गई. इन्हें लगने लगा कि झारखण्ड के विकास में बाधक बाहरी लोग (गैर-आदिवासी) हैं जिसे ये दिक् या डाकू कहते थे. उनकी इस भावना को पृथक् झारखण्ड आन्दोलन के नेताओं ने काफी बल प्रदान किया. झारखण्ड आन्दोलन के दो महत्वपूर्ण नेता दिशुम गुरु, शिबु सोरेन एवं स्व. बिनोद बिहारी महतो ने गैर-झारखण्डियों अर्थात् बाहरी लोगों को मार भगाने का आह्वान किया. डॉ. राम दयाल मुण्डा जैसे सम्मानित व्यक्ति (राँची विश्वविद्यालय के भूतपूर्व कुलपति) ने भी झारखण्ड को बिहार का एक उपनिवेश बताया.
क्षेत्रीयतावाद के नेताओं एवं समर्थकों की कुछेक मान्यता सही है तथाकथित दिकुओं के आव्रजन से यहाँ की जनजातियों की संस्कृति,
लोक कला संक्रमित हुई है. उनकी संख्या अपने ही देश (क्षेत्र में) आनुपातिक तौर पर कम हो गई. बाहरी लोग एवं उच्च जातियों के लोगों ने इन्हें हेय दृष्टि से देखा जिन्होंने इनकी समर सत्ता एवं सामाजिकता की भावना को चोट पहुँचायी. इनका आर्थिक शोषण करने से वाज नहीं आये. कभी-कभी तो ये शोषण इनकी महिलाओं की आबरू की सीमा का उल्लंघन कर जाता. इन. आदिवासियों की मान्यता है, विभिन्न उद्योगों की स्थापना, मसलन खनन उद्योग इस्पात उद्योग, बिजली उद्योग, नदी घाटी परियोजनाओं से विस्थापन के हुए, किन्तु लाभ दिकुओं ने उठाया. कालान्तर में पृथक् राज्य आन्दोलन में गैर-जनजातियों एवं मुस्लिमों के भाग लेने से आदिवासियों की क्षेत्रवाद की मानसिकता थोड़ी शिथिल पड़ी. अब इनका मुख्य उद्देश्य झारखण्ड राज्य की प्राप्ति थी. इस सर्वोच्च लक्ष्य की प्राप्ति हेतु इन्होंने समाज के हर वर्ग को आन्दोलन में शामिल करने की वांछनीयता को समझते हुए आदिवासी एवं गैर-आदिवासी तथा झारखण्डी एवं गैर-झारखण्डी जैसे क्षेत्रवादी मुद्दों को त्याग दिया, फलतः आन्दोलन का समाज के हर तबके में विस्तार हुआ. अन्ततः 15 नवम्बर, 2000 को झारखण्ड के रूप में पृथक् राज्य की प्राप्ति हुई.
झारखण्ड के निर्माण के बाद बाहरी-भीतरी के मुद्दे पुनः जीवित हो गये. आदिवासी नेताओं ने झारखण्डी एवं गैर- झारखण्डी की परिभाषा तय करने लगे. किन्हीं ने 1908 ई. के भूमि निबन्धन को आधार बनाया, तो किन्हीं ने कुछ उदारता दिखाते हुए 1932-33 के वर्ष में हुए भूमि निबन्धन को आधार बनाकर मूल झारखण्ड वासी एवं गैर-झारखण्ड की परिभाषा तय की. ऐसी मान्यता इस नूतन प्रदेश के लिए घातक साबित होगी, क्योंकि इससे कानून व्यवस्था की समस्या उत्पन्न होगी. पूँजी का एवं मानव संसाधनों का पलायन होगा, जो इसके विकास का अवरोधक साबित होगा तथा पृथक् राज्य निर्माण की वांछनीयता ही धूल-धूसरित हो जाएगी. अतः राज्य सरकार को क्षेत्रीयतावाद की ऐसी मनोदशा पर अंकुश लगाना चाहिए तथा आदिवासियों के लिए ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए कि उनका शोषण न हो तथा गैर-आदिवासियों में असुरक्षा की भावना न पनपे.
> मुख्य बातें
> झारखण्ड को उग्रवाद के रूप में बिहार से एक सौगात मिला है.
> झारखण्ड के लगभग सभी जिले उग्रवाद से प्रभावित हैं.
> लोहरदगा के पुलिस सुपरिण्टेन्डेन्ट श्री अजय सिंह की उग्रवादियों ने हत्या कर दी.
> गिद्धौर प्रखण्ड के युवा प्रखण्ड विकास पदाधिकारी (वी. डी. ओ.) की भी उग्रवादियों ने हत्या कर दी.
> उग्रवाद के विस्तार का सबसे बड़ा कारण राज्य में भूमि सुधार का अभाव है.
> स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद से ही भूमि सुधार हेतु प्रयास किये गये, किन्तु बिहार में यह बहुत धीमी गति से हुआ और यह उग्रवाद का कारण बन गया.
> उग्रवाद एवं क्षेत्रीयता की समस्या ने विकास की प्रक्रिया को प्रभावित किया है.
> उग्रवादियों ने अपने अस्तित्व की रक्षा हेतु शिक्षा, संचार एवं परिवहन की प्रक्रिया में बाधा खड़ी की है.
> उग्रवाद पर रोक हेतु बिहार सरकार ‘ऑपरेशन जॉन’, ‘ऑपरेशन टास्क फोर्स’ भूमि सुधार कार्यक्रमों को गति प्रदान करने हेतु ‘ऑपरेशन टोडरमल’ शुरू किया है.
> बिहार से पृथक् होने के बाद झारखण्ड सरकार सघन एण्टी नक्सलाइट अभियान शुरू करने वाली है.
> उग्रवाद की समस्या के निवारण हेतु सरकार को दमनात्मक कार्यवाही के साथ-साथ राजनीतिक एवं सामाजिक प्रयास भी करने होंगे.
> झारखण्ड में क्षेत्रीयता की अवधारणा का मुख्य कारण तथा कथित ‘दिकुओं’ द्वारा यहाँ के जनजातियों एवं गरीबों का आर्थिक एवं शारीरिक शोषण है.
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