प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत

प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत

साहित्यिक स्रोत
प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत के रूप में विभिन्न साहित्यिक ग्रन्थों का अपना अलग महत्त्व है. हालांकि इनमें अनेक त्रुटियाँ हैं, ऐतिहासिकता एवं तिथिक्रम का अभाव है, विवरण में अतिशयोक्ति है, फिर भी ये स्रोत भारतीय इतिहास पर जितना अधिक प्रकाश डालते हैं, उतना अन्य कोई स्रोत नहीं.
उपलब्ध भारतीय साहित्य में धर्म ग्रन्थ और ऐतिहासिक ग्रन्थ तथा अर्द्ध-ऐतिहासिक ग्रन्थ, साहित्यिक ग्रन्थों को सम्मिलित किया जा सकता है. इनका विवरण निम्नलिखित है–
वेद (संहिता या श्रुति )
ब्राह्मण धर्म ग्रन्थों में सर्वश्रेष्ठ स्थान वेदों को प्रदान किया गया है. ये संख्या में चार हैं; यथा— ऋोवद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद. इन चारों वेदों में सबसे प्रमुख एवं प्राचीन ऋग्वेद है, जोकि आर्यों के प्रारम्भिक जीवन का प्रमुख स्रोत है, क्योंकि आर्यों के विषय में पुरातात्विक स्रोतों से हमें जानकारी प्राप्त नहीं होती है.
ऋग्वेद में 10 मण्डल एवं 1028 सूक्त हैं. ऋग्वेद के दूसरे से 9वें मण्डल तक प्राचीन हैं, जबकि प्रथम व दसवाँ मण्डल बाद में जोड़े गये हैं. इस ग्रन्थ में देवताओं की स्तुति में गाये गये मन्त्रों का संग्रह है, सर्वाधिक मन्त्र इन्द्र देवता को समर्पित हैं, इसके बाद अग्नि को. यह वेद ईरानी ग्रन्थ जेंद अवेस्ता से समानता रखता है.
दूसरा प्रमुख वेद सामवेद है. साम का अर्थ है— गान, अतः इसमें ऐसे सूक्तों एवं मन्त्रों का संग्रह है, जो यज्ञ के समय गाये जाते थे. इस वेद में 1550 मन्त्र हैं जिनमें से केवल 75 ही नये हैं शेष ऋग्वेद से लिये गये हैं.
यजुर्वेद में विभिन्न यज्ञ सम्बन्धी विधि विधानों का संग्रह है. इसकी 5 शाखाएँ – काठक, कपिष्ठल, मैत्रायणी, तैतरीय व वाजसनेयी हैं. इनमें से प्रथम चार कृष्ण यजुर्वेद से व अन्तिम शुक्ल यजुर्वेद से सम्बन्धित हैं.
यह वेद उत्तर वैदिक काल की राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति पर प्रकाश डालने का प्रमुख साधन है, अन्तिम और चतुर्थ वेद अथर्ववेद है. यह 20 मण्डलों में विभक्त है तथा इसमें 731 पद्य ऋचाएँ हैं, कुछ ऋचाएँ इसमें गद्य में भी हैं.
अथर्ववेद में जादू-टोना, भूत-प्रेत, ताबीज, चिकित्सा एवं धनुर्विद्या से जुड़ी बातें उल्लेखित हैं.
इस प्रकार भारतीय प्राचीन इतिहास की जानकारी के स्रोत के महत्त्वपूर्ण साधन वेद हैं.
ब्राह्मण ग्रन्थ
वेदों के बाद ब्राह्मण ग्रन्थों की रचना हुई. इन्हें पद्य में लिखा गया है. इन्हें ‘वेदों की टीका’ भी कहा जा सकता है. उत्तर वैदिक आर्यों की सभ्यता पर इन ग्र ग्रन्थों से महत्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है. प्रत्येक ब्राह्मण ग्रन्थ एक वेद से सम्बद्ध है. ऐतरेय एवं कौषीतकी ऋग्वेद से, शतपथ- यजुर्वेद से, पंचविंश ब्राह्मण – सामवेद से तथा गोपथ ब्राह्मण अथर्ववेद से जुड़ा है.
ब्राह्मण ग्रन्थ आर्यों के राजनीतिक जीवन के अतिरिक्त सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक जीवन पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं.
आरण्यक
आरण्यक ऐसे ग्रन्थ हैं, जिनकी रचना एकान्त में चिन्तन के फलस्वरूप हुई या वनों में निवास करने वाले ऋषियों के मार्गदर्शन में हुई. इसमें यज्ञ विधियों के स्थान पर अध्यात्म चिन्तन को स्थान दिया गया है. ये ब्राह्मण ग्रन्थों के भाग हैं.
प्रमुख आरण्यक – एतरेय, तैत्तिरीय, मैत्रायणी, सांख्यान, तल्वकार.
उपनिषद्
( उप + नि + षद्) तीन शब्दों का समन्वित रूप जिसका शाब्दिक अर्थ होता है— ‘निष्ठापूर्वक निकट बैठना ‘ अर्थात् वह ज्ञान जो गुरु के समीप बैठकर उसके सानिध्य में प्राप्त किया जाता था, उपनिषद् कहलाया. अन्य अर्थ में इसका आशय उस विद्या से भी है जो ‘मानव को ब्रह्म के समीप बैठा देती है अर्थात् जिसे ब्रह्म ज्ञान हो जाता है. वेदों का अन्तिम या सार भाग होने के कारण इन्हें ‘वेदान्त’ भी कहा गया है. इनमें यज्ञीय विधियों एवं अनुष्ठानों के स्थान पर दार्शनिक चिन्तन की परम्परा द्रष्टव्य है, जहाँ आत्मा एवं ब्रह्म का एक्य अभिव्यक्त है. उपनिषदों की संख्या 108 है. उपनिषदों में जीव, आत्मा, परमात्मा, ब्रह्म, कर्म तथा सृष्टि से सम्बन्ध दार्शनिक एवं रहस्यात्मक प्रश्नों की विवेचना की गई है.
⇒ उपनिषदों में निहित ‘अद्वैतवाद’ सम्बन्धी अवधारणा को कालान्तर में बादरायण और शंकराचार्य ने सशक्त अभिव्यक्ति प्रदान की.
⇒ प्रसिद्ध राष्ट्रीय वाक्य ‘सत्यमेव जयते’ मुण्डकोपनिषद् से उद्धृत है.
उपनिषदों में विहित प्रमुख दार्शनिक सिद्धान्त
⇒ कठोपनिषद् – यम नचिकेता
⇒ छान्दोग्य – श्वेतकेतु उद्धालक संवाद.
⇒ वृहदारण्यक प्रमुख उपनिषद् निम्नलिखित हैं— ईश, केनोपनिषद्, कठोपनिषद्, छान्दोग्योपनिषद्, मुण्डकोपनिषद्, श्वेतराश्वतरोपनिषद् इत्यादि.
उपनिषद् – याज्ञवल्क्य —–मैत्रेयी संवाद.
वेदांग
वैदिक साहित्य की सम्यक् अभिव्यक्ति के लिए कालान्तर में जिस साहित्य की रचना की गई, वह ‘वेदांग’ के रूप में जानी जाती है. वेदांगों का उल्लेख मुण्डकोपनिषद् में मिलता है.. वेदांगों को वेद के अन्तिम भाग के रूप में जाना जाता है. वेदांग छह हैं
(i) शिक्षा – शुद्ध उच्चारण एवं स्वर क्रिया से सम्बन्धित ज्ञान जिस पर प्राचीनतम ग्रन्थ ‘प्रतिसांख्य’ है.
(ii) कल्प – विभिन्न विधि विधानों एवं अनुष्ठानों से सम्बन्धित सूत्र ग्रन्थ जो चार प्रकार के हैं
(A) श्रौत सूत्र – यज्ञ सम्बन्धी विधियाँ.
(B) गृह सूत्र – गृहस्थ आश्रम से सम्बन्धित कर्तव्यों का विवेचन.
(C) धर्म सूत्र – वर्ण धर्म, राजा के अधिकार व कर्त्तव्य, प्रायश्चित कर व्यवस्था आदि का विवेचन “
(D) शुल्व सूत्र – शुल्व का अर्थ है ‘नापने की डोरी’ यज्ञ वेदियों का चयन, माप, इत्यादि का विवेचन एवं हवन करने के नियम दिये हैं.
(iii) निरुक्त – वह शास्त्र जो यह बताता है कि अमुक शब्द का अमुक अर्थ क्यों होता है ? निरुक्त में शब्दों की उत्पत्ति निर्माण व अर्थ की विवेचना की गई है. क्लिष्ट वैदिक शब्दों का संकलन ‘निघण्टु’ की व्याख्या हेतु ‘यास्क’ ने निरुक्त की रचना की, जो भाषाशास्त्र का प्रथम ग्रन्थ माना जाता है.
(iv) व्याकरण – शब्दों की मीमांसा करने वाला शास्त्र व्याकरण कहलाता है, जिसमें मुख्यतः भाषा सम्बन्धी नियम विवेचित होते हैं.
ग्रन्थ – पाणिनि – अष्टाध्यायी.
कात्यायन – वार्तिक.
पतंजलि – महाभाष्य.
(v) छन्द – मात्रा आदि से सम्बन्धित ग्रन्थ जिस पर प्राचीनतम ग्रन्थ (कृति) पिंगल मुनि का ‘छंद सूत्र’ है.
(vi) ज्योतिष – ज्योतिष में ब्रह्माण्ड, सौरमण्डल नक्षत्रों आदि का वर्णन किया गया है. इससे सम्बन्धित प्राचीनतम रचना लघ्द मुनि (मगध मुनि) का ‘वेदांग ज्योतिष’ है. इसमें कुल 44 श्लोक हैं.
स्मृति
श्रुति को स्मरण करके कालान्तर में समग्र जीवन के विविध क्रिया-कलापों के विषय में विधि, निषेध, नियम, आदि की विशद् अभिव्यक्ति, जिस साहित्य में हुई – स्मृति कहा जाता है. इनका रचना काल 200 ई. पू. से 200 ई. के मध्य माना जाता है.
प्राचीनतम स्मृति ‘मनुस्मृति’ है, जिसे मानव धर्म शास्त्र भी कहा जाता है. इसे भारत की प्रथम विधि संहिता’ कहा गया है. इस स्मृति के प्रमुख टीकाकार – मेधातिथि, के कुलुकभट्ट, गोमिन राज हैं.
⇒  याज्ञवल्क्य स्मृति के प्रमुख टीकाकार, विश्वरूप, विज्ञानेश्वर (मिताक्षरा) अपरार्क एवं शूलपाणि हैं.
⇒ बंगाल के धर्मशास्त्रकारों में जीमूतवाहन, शूलपाणि और रघुनन्दन उल्लेखनीय हैं, जिन्हें त्रिदेव भी कहा जाता है.
⇒ दाय भाग – जीमूतवाहन द्वारा विरचित महत्वपूर्ण ग्रन्थ जिसमें साम्पत्तिक अधिकारों का विस्तृत विवेचन हुआ है.
पुराण
पुराण का शाब्दिक अर्थ ‘प्राचीन’ अर्थात् वह साहित्य जिसमें प्राचीन कथानकों का विवेचन हुआ है, पुराण कहलाता है.
पुराण के विषय / लक्षण :
(i) सर्ग – सृष्टि का निर्माण.
(ii) प्रतिसर्ग – सृष्टि का पुनः निर्माण
(iii) वंश – देवताओं और ऋषियों के वंश.
(iv) मनवन्तर – चार महायुग [सत् (कृत), द्वापर, त्रेता और कलियुग.]
(v) वंशानुचरित – कलियुग के राजाओं का वर्णन जिसका प्रारम्भ परीक्षित से माना गया है.
⇒ पुराणों के संकलनकर्ता ‘महर्षि लोमऋषि’ अथवा उनके पुत्र ‘उग्रश्रवा’ को माना गया है.
⇒ अट्ठारह पुराण निम्नलिखित हैं–
(1) ब्रह्मपुराण, (2) पद्मपुराण, (3) विष्णुपुराण, (4) शिवपुराण, (5) भागवतपुराण, (6) नारदीयपुराण, (7) मार्कण्डेयपुराण, (8) अग्निपुराण, (9) भविष्यपुराण, (10) ब्रह्मवैवर्तपुराण, (11) लिंगपुराण, (12) वराहपुराण, (13) स्कन्दपुराण, (14) वामनपुराण, (15) कूर्मपुराण, (16) मत्स्यपुराण, (17) गरुड़पुराण, (18) ब्रह्माण्डपुराण.
बौद्ध साहित्य
प्राचीनतम बौद्ध साहित्य त्रिपिटक के रूप में ज्ञात हैं जिनकी भाषा ‘पालि’ है.
(i) विनय पिटक – बौद्ध संघ एवं भिक्षु जीवन से सम्बन्धित विभिन्न नियम, विधि एवं निषेध आदि का प्रतिपादन किया गया है. इसका वाचन प्रथम बौद्ध संगीति में ‘उपालि’ ने किया था. इसके भाग-
(A) पातिमोख (प्रतिमोक्ष) – इसमें अनुशासन सम्बन्धी विधानों और उनके उल्लंघन पर किये जाने वाले प्रायश्चितों का वर्णन है.
(B) सुत्तविभंग – यह पातिमोख के 227 नियमों की टीका है. इसके दो भाग हैं –
(i) महाविभंग, (ii) भिखुनीविभंग.
(C) खंद्धक – संघीय जीवन के सम्बन्ध में सविस्तार विधि, निषेधों का उल्लेख है, जिसके दो भाग हैं –
(i) महावग्ग, (ii) चुलवग्ग.
परिवार पाट—यह प्रश्नोत्तर रूप में है.
(ii) सुत्त पिटक– सुत्त का अर्थ – धर्मोपदेश या धर्माख्यान.
इसमें बौद्ध धर्म की सामान्य शिक्षाएँ संकलित हैं जिसके 5 भाग हैं –
(A) दीघ निकाय,
(B) मज्झिम निकाय,
(C) संयुक्त निकाय,
(D) अंगुत्तर निकाय,
(E) खुद्धक निकाय.
⇒  अंगुत्तर निकाय सुत्त पिटक का एक भाग है, जिसमें छठी शताब्दी ई. पू. के 16 महाजनपदों का उल्लेख मिलता है.
⇒ खुद्धक निकाय – लघु ग्रन्थों का समूह है, जो अपने आप में स्वतन्त्र और पूर्ण है. इनमें निम्नलिखित लघु ग्रन्थ हैं – धम्मपद, इतिवृत्तक, विमानवत्थु, पेतवत्थु, थेरगाथा, थेरीगाथा, जातक.
⇒ धम्म पद – सुत्त पिटक के खुद्धक निकाय से सम्बन्धित ग्रन्थ है, जिसे ‘बौद्धों की गीता’ कहा जाता है.
जातक साहित्य
खुद्धक निकाय से सम्बन्धित ग्रन्थ जिसमें बुद्ध के पूर्वजन्म की 550 कहानियाँ विवेचित हैं. इस ग्रन्थ की भाषा पालि है. यद्यपि मौलिक जातक साहित्य लुप्त हो चुका है, लेकिन जातकों पर लिखी टीका में इनसे सम्बन्धित ज्ञान है. उदाहरण—’जातक-टठ्पण्णना’.
छठी सदी ई. पू. के जीवन के विभिन्न पक्षों को जानने की दृष्टि से इनका ऐतिहासिक महत्व है. रीज डेविड् ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘Buddhist India में इनके आधार पर छठी सदी B.C. के इतिहास का निर्माण करने का प्रयास किया है.
प्रमुख जातक – कौशाम्बी, दशरथ, लोसक, संख, महाजनक, गांधार, उदयन आदि.
(iii) अभिधम्म पिटक – अभि का शाब्दिक अर्थ है ‘उच्च’ अतः ऐसे ग्रन्थ जिनमें उच्च अथवा दार्शनिक सिद्धान्तों का विवेचन हुआ है अभिधम्म पिटक कहलाया.
प्रमुख ग्रन्थ – धम्म संगणी. विभंग, धातुकथा, यमक, कथावत्थु.
कथावत्थु – अभिधम्म पिटक से सम्बन्धित महत्वपूर्ण ग्रन्थ जिसकी रचना तीसरी बौद्ध संगीति के समय ‘मोगलिपुत्ततिस्स’ के नेतृत्व में की गई.
मिलिन्दपण्हो
मिलिन्दपण्हो सात सर्गों में विभाजित नागसेन द्वारा विरचित एक महत्वपूर्ण बौद्ध ग्रन्थ है जिसकी भाषा पालि एवं समय द्वितीय सदी ई. पू. है. इसमें यूनानी शासक मिलिन्द (मिनेन्डर ) द्वारा बौद्ध धर्म से सम्बन्धित अपनी शंकाओं और जिज्ञासाओं के सम्बन्ध में नागसेन से संवाद और नागसेन द्वारा प्रस्तुत समाधान विवेचित है.
रथ के उदाहरण द्वारा अनात्मवाद की अभिव्यक्ति अपने आप में विशिष्ट है. साथ ही इसमें विनाश और चन्द्रगुप्त का राज्याधिकार, व्यवसाय और श्रेणियाँ एवं सामाजिक रचना से सम्बन्धित साक्ष्य विहित है.
दीपवंश / महावंश
सिंहली बौद्ध ग्रन्थ, भाषा पालि एवं समय चौथी शताब्दी है, सिंहलद्वीप के इतिहास के साथ-साथ इसमें बौद्ध धर्म से सम्बन्धित तथ्यों की जानकारी मिलती है.
महानामा द्वारा विरचित सिंहली बौद्ध ग्रन्थ जिसकी भाषा पालि एवं समय 5वीं शताब्दी है. इसी के आधार पर कालान्तर में महावंश टीका लिखी गई, इसे ‘वंशथप्पकाशिनी’ भी कहा गया है.
महावस्तु
हीनयान सम्प्रदाय से सम्बन्धित उल्लेखनीय बौद्ध ग्रन्थ है, जिसमें महात्मा बुद्ध को अद्भुत शक्ति समन्वित रूप में प्रस्तुत किया गया है. ‘अर्हत’ के स्थान पर ‘बोधिसत्व’ की प्रतिष्ठा जो महायान का प्रमुख सिद्धान्त है, इसमें रचित है. निर्वाण न केवल भिक्षुओं बल्कि जन सामान्य के लिए भी प्राण बताया गया है. महावस्तु महात्मा बुद्ध का जीवन चरित है जो महायान की विशेषताओं से परिपूर्ण है.
ललित विस्तार
महायान सम्प्रदाय के ग्रन्थों में प्रथम उल्लेखनीय ग्रन्थ जिसका अर्थ है – महात्मा बुद्ध के लालित्य का सविस्तार वर्णन. भागवद् धर्म के अनुरूप ही यहाँ बुद्ध के ऐहिक जीवन को क्रीड़ा स्वरूप बताया गया है.
धर्मनिरपेक्ष साहित्य त्रिषष्टिशलाका
त्रिषष्टिशलाका, जिषष्टिशलाका पुरुष चरित ( 63 महान् पुरुषों के चरित) इसमें 10 पर्व तथा 24 हजार श्लोक हैं, जिसमें 24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 वासुदेव, 9 प्रतिवासुदेव और 9 बलभद्र का विवेचन है.
इसके परिशिष्ट रूपी भाग में आचार्य हेमचन्द्र ने 276 श्लोकों में महावीर के बाद हुए राजा और महापुरुषों का वर्णन विहित किया है. इसी को ‘परिशिष्ट वर्णन’ या ‘स्थिविरावली चरित’ भी कहा जाता है.
जैन धर्म साहित्य
जैन धर्म ग्रन्थ भी भारतीय इतिहास के प्रमुख स्रोत के रूप में जाने जाते हैं. मूलतया जैन धर्म ग्रन्थों की रचना प्राकृत भाषा में हुई है. इस धर्म के शास्त्रों, ग्रन्थों से तत्कालीन भारत के राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक घटनाओं की जानकारी प्राप्त होती है. प्रमुख जैन धर्म ग्रन्थों में परिशिष्ट पर्व, आचारांग सुत्त, कल्पसुत्त, भगवतीसुत्त, उवासगदसाओसुत्त, भद्रबाहुचरित्र, जिषष्टिशलाका, पुरुषचरित्र प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं. इन जैन धर्म ग्रन्थों में महावीर स्वामी के सम्बन्ध में विशिष्ट जानकारी मिलती है. जैन धर्म ग्रन्थों का संकलन गुजरात (वल्लभी) में ईसा की छठी शताब्दी में किया गया था. विशेषतया बिहार एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश के सन्दर्भ में जैन धर्म ग्रन्थों से अधिक जानकारी मिलती है. हरिभद्र की ‘समरईच कथा’, उद्योतन सूरी की ‘कुवलयमाला’ जिनसेन का ‘आदिपुराण’ एवं गुणभद्र का ‘उत्तरपुराण’ जैन धर्म साहित्य के उल्लेखनीय ग्रन्थ हैं.
कौटिल्य (चाणक्य या विष्णुगुप्त )
अर्थशास्त्र – प्राचीन भारतीय राज व्यवस्था एवं अर्थतन्त्र के सैद्धान्तिक विवेचन से सम्बन्धित महत्वपूर्ण ग्रन्थ जिसकी भाषा संस्कृत और समय चतुर्थ शताब्दी ई. पू. का है. इसमें 15 अधिकरण, 150 अध्याय तथा 180 प्रकरण हैं.
इसके प्रमुख अध्याय–
1. विनयाधिकारिणी
2. वृत्ताधिकरण
3. योनेयधिकरण
4. कर्माधिकरण
5. धर्मास्थियाधिकरण–कंकतशोधन
6. निशांत प्रणिधि
7. राजपुत्र रक्षणम्
8. आत्मरक्षिकम
अर्थशास्त्र में राज्य की उत्पत्ति, उसका संगठन, उसकी सुरक्षा के उपाय, राजा के अधिकार और कर्तव्य, मन्त्रियों एवं अधिकारियों की नियुक्ति के नियम, सामाजिक संस्थाएँ, आर्थिक क्रियाकलाप इत्यादि विषय पर वृहद् जानकारी मिलती है. इसमें चन्द्रगुप्त मौर्य के सम्बन्ध में विशद् जानकारी प्राप्त होती है.
अर्थशास्त्र पर भट्टस्वामी ने ‘प्रतिपदपंचिका’ तथा माधयजवा ने ‘जयचंद्रिका’ नामक टीकाएँ लिखीं.
कालिदास
समय विवादास्पद होते हुए भी सामान्यतः इन्हें चन्द्रगुप्त II का समकालीन माना जाता है. महान् संस्कृत कवि एवं नाटककार थे तथा शैव धर्म के प्रति इनकी अपार निष्ठा थी.
प्रमुख ग्रन्थ–
(i) ऋतु संहार – प्रथम काव्य रचना जिसमें वर्षा, ग्रीष्म, शरद, हेमन्त शिशिर एवं बसन्त आदि ऋतुओं में होने वाले प्रकृतिगत परिवर्तनों और सौन्दर्य को खण्डकाव्य के रूप में लिपिबद्ध किया है.
(ii) मेघदूतम् – पूर्व एवं उत्तर मेघ में विभक्त काव्य रचना है, जिसमें अलकापुरी से निर्वासित यक्ष की विरह व्यथा अभिव्यक्त है.
(iii) कुमारसम्भवम् – 18 सर्ग में विभक्त महाकाव्य है, जिसमें शिव-पार्वती का प्रणय विवाह और कार्तिकेय के जन्म से सम्बन्धित कथानक की सुन्दर अभिव्यक्ति की गई है. केवल आठ सर्गों को ही कालिदास की रचना माना जाता है.
(iv) रघुवंशम् – 19 सर्गों में विभक्त इस महाकाव्य में दिलीप से लेकर अग्निवर्ण तक 40 इक्ष्वाकुवंशीय राजाओं का वर्णन है. उल्लेखनीय है कि ग्रन्थ का आरम्भ पार्वती परमेश्वर की आराधना से प्रारम्भ हुआ है.
(v) मालविकाग्निमित्रम् – 5 अंकों में विभक्त इस नाट्य रचना में शुंग सम्राट अग्निमित्र और मालविका की प्रेमकथा वर्णित है. इसी नाटक में भारत पर हुए यूनानी आक्रमण का विवेचन हुआ है.
(vi) अभिज्ञानशाकुन्तलम् – 7 अंकों में विभक्त इस नाटक में हस्तिनापुर के शासक दुष्यन्त और ऋषि ‘कण्व’ की पालिता पुत्री शकुन्तला के संयोग और वियोग की सुन्दर कथा का वर्णन है.
(vii) विक्रमोवर्शीयम् – 5 अंकों में विभक्त इस नाटक में विक्रम और उर्वशी की प्रेमकथा को आधार बनाकर कथानक विवेचित किया गया है.
रूपक में पुरुरवा और उर्वशी की प्रेमलीला का वर्णन किया है.
महाकवि भास ( 13 नाटकों के प्रणेता )
प्रतिमा और अभिषेक – रामायण के कथानकों पर आधारित हैं.
बालचरित – इसमें कृष्ण के बाल चरित्र का वर्णन है.
दरिद्र चारुदत्त –  निर्धन ब्राह्मण चारुदत्त और गणिका बसंतसेना की प्रेमकथा.
अविमारक – अविमारक और कोतंगी के प्रेम का वर्णन.
पंचरात्र, मध्यम व्यायोम, दूत घटोत्कच, दूतवाक्य कर्णधार, उरुभंग – ये सब महाभारत के कथानकों पर आधारित नाटक हैं.
स्वप्नवासवदत्ता – भास द्वारा रचित सबसे महत्वपूर्ण नाटक जो कौशाम्बी नरेश उदयन और अवंति राज की पुत्री वासवदत्ता के प्रेम प्रसंगों पर आधारित है.
प्रतिज्ञायोगंधरायण – उदयन व वासवदत्ता की प्रेमकथा पर आधारित ग्रन्थ.
कल्हण (राजतरंगिणी)
राजतरंगिणी कल्हण द्वारा विरचित महत्वपूर्ण ग्रन्थ है 8 तरंगों में विभक्त इस गद्य रचना में प्रारम्भ से लेकर 12वीं शताब्दी तक का ‘कश्मीर का इतिहास’ वर्णित है.
स्वयं कल्हण ने अपने ग्रन्थ में लिखा है “वही गुणवान कवि प्रशंसा का पात्र है, जो राग द्वेष से रहित होकर घटनाओं के सही विरूपण का प्रयास करता है,” इसकी रचना 1148-49 ईस्वी में की गई जिस समय कश्मीर का शासक जयसिंह-II था. सही अर्थों में इसे भारत का प्रथम ऐतिहासिक ग्रन्थ माना जा सकता है.
मेगस्थनीज और उसकी इण्डिका
इण्डिका, चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में सेल्यूकस के प्रतिनिधि मेगस्थनीज द्वारा रचित ग्रन्थ है, जो यद्यपि उपलब्ध नहीं है, लेकिन परवर्ती यूनानी लेखकों; जैसे— डियोडोरस, प्लूटार्क, जस्टिन, स्ट्रेबो, एरियन, प्लिनी, आदि के विवरणों में इसके विभिन्न अंश उद्धृत हैं. इन्हीं उद्धरणों के आधार पर 1846 में डॉ. स्वान बेक ने, 1891 में मैकरेण्डल ने इण्डिका का संकलन किया.
इण्डिका में पाटलिपुत्र नगर तत्कालीन शासक चन्द्रगुप्त मौर्य, उसके व्यक्तिगत जीवन, प्रशासनिक व्यवस्था एवं भारत की तत्कालीन व्यवस्था का चित्रण किया गया है.
प्राकृतिक इतिहास (Natural History)
इस ग्रन्थ में कुल सैंतीस अध्याय हैं, जिसमें छठा भारत व ईरान से सम्बन्धित है. भारत व रोम के मध्य व्यापारिक सम्बन्धों का विस्तृत विवेचन भी इसमें निहित है और इसी प्रसंग में रोम द्वारा भारत को स्वर्ण भेजे जाने पर उसने दुःख प्रकट किया है. इसकी रचना प्लिनी ने की थी.
अन्य ग्रन्थ जो भारत व रोम के मध्य व्यापारिक सम्बन्धों पर प्रकाश डालते हैं—
(1) पेरिप्लस ऑफ दि एरिथ्रियन सी (अज्ञात नाविक द्वारा रचित)
(2) टॉलेमी–भूगोल.
(3) स्ट्रेबो – ज्योग्राफी.
(4) एरियन-इंडिका और एनाबोलस ऑफ एलेक्जेण्डर.

विदेशी यात्रियों के विवरण

फाह्यान ( 399 ई. से 414 ई.)
चीनी यात्री जो बौद्ध सिद्धान्तों के अध्ययन और बौद्ध तीर्थस्थलों की यात्रा के उद्देश्य से स्थल मार्ग द्वारा भारत आया. पश्चिमोत्तर के विभिन्न नगरों व स्थलों का भ्रमण करते हुए 410 ई. में ताम्रलिप्ति के बन्दरगाह से सामुद्रिक मार्ग द्वारा दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों की यात्रा करता हुआ 414 ई. में चीन पहुँचा. फाह्यान द्वारा रचित ग्रन्थ – ‘फोक्योकी’ ( The travels of Fa-hien) है जहाँ इसने अपने ग्रन्थ में गुप्तयुगीन भारत के कई पक्षों का विवेचन किया है. इसने अपने ग्रन्थ में तत्कालीन शासक चन्द्रगुप्त द्वितीय का नामोल्लेख तक नहीं किया. इसने पाटलिपुत्र स्थित अशोक के राजप्रासाद की प्रशंसा करते हुए इसे ‘देवताओं द्वारा कहा है, निर्मित’
ह्वेनसांग ( युवान च्चांग )
प्रसिद्ध चीनी यात्री जिसने बौद्ध धर्म ग्रन्थों के अध्ययन और बौद्ध तीर्थस्थलों की यात्रा के उद्देश्य से (629–45 ई.)तक भारत की यात्रा की. इसने अपने संस्मरणों एवं अनुभव के आधार पर ‘सी-यू- की’ ( Records of the Western World) नामक ग्रन्थ की रचना की, जो हर्षयुगीन इतिहास के विवेचन की दृष्टि से महत्वपूर्ण है. बाद में युवान च्वांग की जीवनी (The Life of Hsuan-Tsiang) हुई हुइली ने लिखी, जो सातवीं शताब्दी का महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्रोत है. इसने नालन्दा व कांची विश्वविद्यालयों में अध्ययन किया तथा इसके समकालीन शासक हर्षवर्धन, पुलकेशिन द्वितीय व पल्लव शासक नरसिंह वर्मन I थे.
इत्सिंग ( 671–695 ई.)
यद्यपि इसका मूल ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, लेकिन जापानी विद्वान् ‘तक्कूसू’ द्वारा रचित ‘ए रिकॉर्ड ऑफ दी बुद्धिष्ट रिलिजन’ नाम से उपलब्ध है, जिसका हिन्दी अनुवाद भारत और मलयद्वीप पुंज में ‘बौद्ध धर्म का प्रसार’ नाम से ज्ञात है. इत्सिंग ने अशोक को पाटलिपुत्र में भिक्षु के रूप में देखने का उल्लेख किया है.

पुरातात्विक स्रोत

अरब एवं मुसलमान लेखकों का विवरण
अरबी एवं मुसलमान लेखकों के विवरण भी भारतीय इतिहास के प्रमुख स्रोत हैं. 8वीं शताब्दी में अरबों की सिन्ध पर विजय होने के साथ ही भारत के अरब से सम्बन्ध जुड़ते चले गए. अरब के लेखकों ने भारत का भ्रमण किया और तत्कालीन परिस्थितियों, प्रशासन का अपने शब्दों में वर्णन किया. इसी तरह तुर्की आक्रमण के समय मुसलमान लेखकों का भारत में आगमन हुआ. मुसलमान लेखकों ने भी भारत का भरपूर वर्णन किया है. इसी श्रेणी के लेखकों में सर्वोपरि स्थान अलबेरूनी का है. अलबेरूनी की तहकीक-ए-हिन्द (Tahqiq-i-hind) ग्यारहवीं शताब्दी के भारत का सर्वोत्तम ऐतिहासिक स्रोत है. अरब एवं मुसलमान लेखकों में प्रमुख रूप से सुलेमान, अलमसूदी, फरिश्ता, मिन्हाजुद्दीन एवं मार्कोपोलो का नाम उल्लेखनीय है.
साहित्यिक स्रोतों द्वारा काल निर्धारण की समस्याएँ
साहित्यिक स्रोत भारतीय इतिहास की जानकारी प्रदान करने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्रोत है, लेकिन मात्र ऐतिहासिक स्रोतों के आधार पर इतिहास की रचना करना असम्भव है. अधिकांश साहित्यिक स्रोत मिथक आख्यान, अतिशयोक्ि एवं धार्मिक कथानकों से भरे हुए हैं, जिसमें ऐतिहासिक तथ्यों को ढूँढ़ पाना सम्भव नहीं है. इसके अतिरिक्त देशी साहित्य में तिथिक्रम का अभाव है. इसके परिणामस्वरूप साहित्यिक स्रोतों द्वारा काल निर्धारण करना मुश्किल कार्य हो जाता है. काल निर्धारण के बगैर इतिहास का कोई महत्व शेष नहीं रह जाता. वैसे भी साहित्यिक स्रोतों में क्षेत्र विशेष की जानकारी समाहित रहती है, पूरे भारत के सन्दर्भ में बहुत ज्यादा जानकारी प्राप्त नहीं होती.
पंचमार्क सिक्के
‘पंचमार्क’, ‘आहत’ अथवा ‘चिह्नित सिक्के’ कहते हैं. पुरातात्विक दृष्टि से भारत के प्राचीनतम सिक्कों को पंचमार्क नाम 1835 ई. में ‘जेम्स प्रिंसेप’ ने इनकी निर्माण शैली के आधार पर दिया. सामान्यतः पंचमार्क सिक्कों का समीकरण साहित्य में उल्लिखित ‘कार्षापण’ के साथ किया गया है. इनमें निर्माण में प्रयुक्त धातु चाँदी है, जिस पर ठप्पे द्वारा पेड़, मछली, हाथी, अर्द्धचन्द्र, वृषभ आदि को अंकित किया गया है. यहाँ उल्लेखनीय है कि अभी तक एक भी स्वर्ण सिक्का नहीं मिला है. इन सिक्कों का समय लगभग 600 B. C. माना गया है..
यूनानी सिक्के
भारत में लेख वाले सिक्कों के प्रचलन का श्रेय हिन्दयूनानी शासकों को है. यद्यपि इन शासकों ने बेक्ट्रिया में सोने के सिक्के चलाये जिन्हें स्ट्रेटर बद्राम (द्रुम) कहा गया है. लेकिन इन्होंने भारत में केवल चाँदी के सिक्के चलाये.
भारत में केवल मिनेण्डर की ईरानी पत्नी एगाथोम्लिया’ के सोने के सिक्के, मिले हैं, जिन्हें भारत के प्राचीनतम स्वर्ण सिक्के कहा जा सकता है. यूनानी शासकों के सिक्कों के अग्रभाग पर शासक की आकृति और पृष्ठ भाग पर यूनानी देवताओं के चित्र के साथ-साथ शासक की उपाधि बेसिलियस बेसिलियोन उत्कीर्ण है.
कुषाणकालीन सिक्के
प्रथम कुषाण शासक कुजुल कडफिसेस ने केवल चाँदी के ही सिक्के चलाये, जबकि भारत में स्वर्ण सिक्कों की सुनियोजित शृंखला प्रारम्भ करने का श्रेय ‘विमकडफिसेस’ को है, क्योंकि इस समय रोम के साथ व्यापार के कारण भारत में पर्याप्त मात्रा में स्वर्ण का आगमन हुआ.
उल्लेखनीय है कि कुषाण शासकों के सिक्कों पर ईरानी व यूनानी देवताओं के चित्रों के साथ-साथ भारतीय देवताओं के चित्र भी उत्कीर्ण हैं. केवल कुजुलकडफिसेस को छोड़कर कनिष्क एकमात्र भारतीय शासक है, जिसके सिक्कों पर बुद्ध का नाम व चित्र उत्कीर्ण है.
गुप्तकालीन सिक्के
गुप्त शासकों में सर्वप्रथम चन्द्रगुप्त प्रथम ने सिक्कों का प्रचलन किया. मुख्य बात यह है कि इन पर उसके साथअपना नाम, रानी का नाम, चित्र भी अंकित हैं. इस रूप में यह भारतीय इतिहास का एकमात्र उदाहरण है (चन्द्रगुप्त कुमार देवी, ऐसा ही उदाहरण इंगलैण्ड के विलियम और मेरी के रूप में ज्ञातव्य है.
समुद्रगुप्त ने पहली बार विस्तृत स्तर पर छः प्रकार के सिक्कों का प्रचलन किया. सिक्कों से ज्ञात होता है कि उसने अश्वमेध यज्ञ किया था, क्योंकि उसके सिक्कों पर ‘अश्वमेधपराक्रमः’ उत्कीर्ण है.
⇒ उल्लेखनीय है कि उसके प्रयाग प्रशस्ति एवं एरण अभिलेख में अश्वमेध यज्ञ करने के साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं. स्कन्दगुप्त के ‘भीतरी स्तम्भ’ लेख में उसे चिरकाल से न होने वाले अश्वमेध यज्ञों को करने वाला कहा है. सिक्कों पर समुद्रगुप्त को सैकड़ों युद्धों का विजेता कहा गया है (समरशत वितत विजयोजित रिपु रजितोदेवम जयति).
गुप्त शासकों में सर्वप्रथम रामगुप्त ने ताम्र सिक्कों का प्रचलन किया, जोकि एरण एवं बेसनगर (मध्य प्रदेश) में मिले हैं.
गुप्त शासकों में सर्वप्रथम चाँदी के सिक्कों का प्रचलन चन्द्रगुप्त द्वितीय ने किया था, जो उसने शक विजय के उपलक्ष्य में उन्हीं के अनुकरण पर सौराष्ट्र के काठियावाड़ क्षेत्र में चलाये तथा सबसे ज्यादा 13 प्रकार के स्वर्ण सिक्कों का प्रचलन कुमारगुप्त-I ने किया था. इन स्वर्ण सिक्कों को गुप्त अभिलेखों में दिनार कहा गया है. सबसे कम वजन के स्वर्ण के सिक्के (शुद्ध) कायगुप्त ( 116 ग्रेन) तथा सबसे अधिक वजन के नरसिंहगुप्त बालादित्य (146 ग्रेन) के हैं.
⇒ उत्खनन में सबसे ज्यादा गुप्त सिक्के राजस्थान में दफीना (बयाना) में मिले हैं, जिसमें सबसे अधिक सिक्के चन्द्रगुप्त द्वितीय के (961 ) हैं…
अभिलेख
वैसे तो सिन्धु सभ्यता में 2467 लिखित साक्ष्य मिले हैं, लेकिन अभी तक सही अर्थों में न पढ़े जाने के कारण इनका कोई वास्तविक महत्व नहीं है. इन्हें पढ़ने का नवीनतम प्रयास नटवर झा ने किया है जिन्होंने इस पर उत्कीर्ण चित्र लिपि को मात्र व्यंजन (सिलेबिक) बताया है तथा यह माना है कि यह वैदिक शब्द (फिलिप्त) ‘निघण्टु’ को उत्कीर्ण करने का प्रयास है. पुरातात्विक स्रोतों में दूसरा महत्वपूर्ण स्थान अभिलेखों का है. कुछ ऐसे अभिलेख भी हैं, जो भारत से बाहर भी पाये गये हैं. इनके द्वारा भारतीय इतिहास पर प्रकाश पड़ता है. भारत से बाहर पाये गये अभिलेखों में प्रमुख रूप से एशिया माइनर का बोगजकोई अभिलेख उल्लेखनीय हैं, जिसमें भारत के अनेक वैदिक देवताओं – इन्द्र, वरुण इत्यादि के बारे में जानकारी प्राप्त होती है.
अशोक से पूर्व के उत्कीर्ण अभिलेख
1. अजमेर के पास ‘बड़ली ग्राम’ से प्राप्त ताम्रपत्र.
2. बांग्लादेश में ‘महास्थान’ से प्राप्त अभिलेख और सहगौरा ताम्रपत्र (उत्तर प्रदेश) अकाल के समय अन्न एकत्रण से सम्बन्धित ).
खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख
निकट उदयगिरि और खण्डगिरि की पहाड़ियों में स्थित गुफा शिशुपालगढ़ प्राचीन कलिंग की राजधानी, भुवनेश्वर के पर चेतिवंश के चौथे शासक खारवेल की विभिन्न उपलब्धियों का विवेचन हुआ है.
खारवेल अभिलेख का प्रारम्भ प्रसिद्ध जैन मन्त्र के साथ हुआ है, जो उसके जैन धर्म का अनुयायी होने का परिचायक है.
इस अभिलेख से ज्ञात होता है कि उत्तरी भारत के नन्द वंश ने कलिंग पर अधिकार किया था, क्योंकि इस अभिलेख में 300 वर्ष पूर्व नन्दराज के इस जगह आने, नहर का निर्माण करवाने, बाह्य नगर में प्रवेश कर यहाँ से जैन मूर्ति लेकर जाने का उल्लेख मिलता है. उसी अभिलेख से पता चलता है कि खारवेल ने डेमेट्रियस बृहस्पतिमित्र व शातकर्णी सातवाहन को पराजित किया था. इसी में त्रिमिर देश संगठन (चेर, चोल, पाण्ड्य) की पराजय का उल्लेख हुआ है.
रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख  (72 शक संवत् या 750 ई.)
इससे ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य के समय सौराष्ट्र के प्रान्तीय शासक पुष्यगुप्त ने सुदर्शन झील का निर्माण करवाया.
अशोक के समय सौराष्ट्र के तुषास्फ ( यवन) ने बाँध की मरम्मत और विस्तार कराया. शक महाक्षत्रप रुद्रदामन ने बाँध का पुनर्निर्माण करवाया.
⇒ इसी अभिलेख में चन्द्रगुप्त मौर्य व अशोक का नाम एक साथ आया है.
⇒ यही एकमात्र अभिलेख है, जिसमें प्राचीन भारत के तीन शासकों अशोक, चन्द्रगुप्त, रुद्रदामन का उल्लेख मिलता है.
⇒ जूनागढ़ अभिलेख से अशोक, चन्द्रगुप्त स्कन्दगुप्त व रुद्रदामन के विषय में जानकारी मिलती है.
प्रयाग प्रशस्ति
अशोक के प्रयाग स्थित स्तम्भ पर समुद्रगुप्त के सन्धिविग्राहक, कुमारामात्य एवं महादण्डनायक ‘हरिषेण’ द्वारा अपने स्वामी और आश्रयदाता समुद्रगुप्त की उपलब्धियों का उत्कीर्ण विवेचन ही प्रयाग प्रशस्ति के रूप में सुविज्ञ है.
अभिलेख की भाषा संस्कृत, लिपि गुप्तकालीन ब्राह्मी एवं शैली चम्पू (गद्य + पद्य) हैं. अभिलेख में उल्लेखित तीन महादण्डनायक – हरिषेण, ध्रुवभूमि ( हरिषेण का पिता), तिल्लभट्टक का वर्णन मिलता है.
उल्लेखनीय है कि इस प्रशस्ति को तिलभट्टक द्वारा अनुष्ठित किया गया था.
समुद्रगुप्त का ‘एरण’ अभिलेख
को प्रभु इस अभिलेख में स्वर्णदान के क्षेत्र में समुद्रगुप्त एवं राघव आदि नरेशों से महान् बताया गया है. समुद्रगुप्त का नाम ‘दत्तदेवी’ बताया गया है जिसे उसने अपने पौरुष एवं पराक्रम से प्राप्त किया था.
इसी में उल्लेखित है कि उसने अपने भोग नगर ( एरकेरण) ऐरण में अपनी यश की वृद्धि के लिए इस स्तम्भ की स्थापना की थी.
रामगुप्त के लेख
रामगुप्त के लेख वेसनगर (विदिशा) से 2 मील की दूरी पर दुर्जनपुर गाँव से उज्जैन प्रतिमाओं पर मिले हैं, जिनमें दो आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभु की तथा एक नौवें तीर्थंकर पुष्पंदत्त की है, इनकी चौकी पर महाराजाधिराज रामगुप्त उत्कीर्ण हैं.
उदयगिरि का शैव गुहा लेख
इस लेख की रचना चन्द्रगुप्त II के समय संधिविग्राहक ‘शैव वीरषेण’ द्वारा की गई जो पाटलिपुत्र का निवासी था जिसकी व्याकरण, दर्शन और राजनीति आदि विषयों में अत्यधिक रुचि थी.
इस अभिलेख से ज्ञात होता है कि वह अपने स्वामी के साथ सम्पूर्ण विजय की अभिलाषा से यहाँ आया था और भगवान् शिव की आसक्ति के कारण इस गुहा का निर्माण करवाया.
स्कन्दगुप्त का जूनागढ़ अभिलेख
इस अभिलेख में सौराष्ट्र के ‘गोप्ता’ (प्रान्तीय शासक) पर्णदत्त के पुत्र चक्रपालित जो गिरनार का अध्यक्ष था, के समय 136 गुप्त संवत् व्यतीत होने पर (136 + 319 = 455 ई.) सुदर्शन झील का बाँध टूट गया था.
137 गुप्त संवत् व्यतीत होने पर चक्रपालित ने अतुलनीय धन व्यय करके इसका पुनर्निर्माण करवाया था तथा 138 गुप्त संवत् व्यतीत होने पर विष्णु मन्दिर का निर्माण करवाया.
इस अभिलेख में उल्लेखित पर्वत रेवतक (उज्जिर्यत) तथा नदी पलासिनी है.
उल्लेखनीय है कि सुदर्शन झील का निर्माण चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में हुआ और स्कन्दगुप्त के समय यह सुदर्शन झील बन गई.
भीतरी स्तम्भ लेख ( स्कन्दगुप्त )
इस अभिलेख में पुष्यमित्रों और हूणों की पराजय का उल्लेख मिलता है. इसी में स्कन्दगुप्त के पूर्वजों की वंशावली भी वर्णित है. जहाँ श्रीगुप्त एवं घटोत्कच के नामों का उल्लेख केवल महाराज के रूप में मिलता है, वहीं चन्द्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त तथा चन्द्रगुप्त-II व कुमारगुप्त-I का उल्लेख महाराजाधिराज के रूप में किया गया है.
मन्दसौर अभिलेख ( दशपुर अभिलेख )
वत्सभट्टी द्वारा विरचित इस अभिलेख में ( मालव संवत् 493) या विक्रम संवत् (436 A.D.) व्यतीत होने पर रेशम बुनकरों की श्रेणी (पट्टवाय) द्वारा जो लाट प्रदेश (गुजरात) से आये थे, के द्वारा कुमारगुप्त-I के समय सूर्य मन्दिर के निर्माण का उल्लेख है.
529 मालव संवत् ( 472 ई.) में बन्धुबर्मन के समय इसके जीर्णोद्धार का उल्लेख मिलता है.
भानुगुप्त का एरण अभिलेख ( 510 A.D.) 191 गुप्त संवत्
इस अभिलेख में भानुगुप्त के सेनापति गोपराज की मृत्यु के बाद उसकी पत्नी द्वारा सती होने का उल्लेख मिलता है.
एहोल प्रशस्ति 
रविकीर्ति जैन द्वारा उत्कीर्ण अभिलेख जिसमें चालुक्य शासक पुलकेशिन द्वितीय की उपलब्धियों तथा हर्ष की पराजय का उल्लेख मिलता है.
स्मारक
इतिहास के पुनर्निर्माण में प्राचीन स्मारकों से भी महत्त्वपूर्ण सहायता मिलती है. पुरातनकालीन भवनों, मन्दिरों, गुफाओं के अवशेष एवं मूर्तियों के आधार पर उस काल के शासन एवं संस्कृति का पता लगाया जा सकता है. मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, तक्षशिला, मथुरा, पाटलिपुत्र, कौशाम्बी इत्यादि स्थानों से प्राप्त अवशेषों के आधार पर यहाँ की नगर-निर्माण शैली का अनुमान लगाया जा सकता है. नालन्दा और विक्रमशिला के खण्डहरों से यहाँ के अतीत के उत्कर्ष की जानकारी मिलती है. मथुरा और तक्षशिला से मिली मूर्तियों से गांधार एवं मथुरा की कला शैली की जानकारी मिलती है. इसी तरह साँची, अजन्ता, भरहुत के स्तूप, एलोरा, बाघ की गुफाएँ, एलिफेन्टा इत्यादि से दक्षिण भारत के मन्दिर, प्राचीनकालीन मूर्तिकला, शिल्पकला एवं चित्रकला के विषय में जानकारी प्राप्त होती है.

हमसे जुड़ें, हमें फॉलो करे ..

  • Telegram ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
  • Facebook पर फॉलो करे – Click Here
  • Facebook ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
  • Google News ज्वाइन करे – Click Here

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *