वैदिककाल
वैदिककाल
आर्यों से सम्बन्धित पुरातात्विक साक्ष्य
आर्यों के सन्दर्भ में अनेक पुरातात्विक साक्ष्य मिले हैं. इराक में सोलहवीं सदी ई. पू. के कुछ साक्ष्य मिले हैं इनमें कस्साइत नामक जाति की वैदिक आर्यों के साथ साम्यता की गई है. इस जाति ने बेबीलोन पर विजय प्राप्त कर वहाँ अपने शासन की स्थापना की इन अभिलेखों में उल्लिखत राजाओं के नाम आर्य राजाओं के सदृश हैं और इनमें इनके देवताओं के नाम सूर्यस, मस्उत आदि बताए गए हैं.
1400 ई. पू. के एशिया माइनर के एक अन्य अभिलेख ‘बोगाजकोई अभिलेख’ में मित्तनी एवं हित्ताइत जातियों द्वारा एक साम्राज्य की स्थापना का उल्लेख है. बोगाजकोई अभिलेख में इन दोनों जातियों द्वारा 1380 ई. पू. में की गई सन्धि की शर्तों का उल्लेख है. सन्धि के साक्षी के रूप में इन्द्र, मित्र, वरुण एवं नासत्य आदि वैदिक देवताओं का उल्लेख है. इससे स्पष्ट होता है कि आर्य 16वीं एवं 15वीं सदी ई. पू. के लगभग पश्चिम एशिया एवं एशिया माइनर में विश्वास करते थे.
आर्यों के मूल निवास सम्बन्धी विभिन्न मान्यताएँ
अधिकांश भारतीय इतिहासकारों ने मध्य एशिया को आर्यों का मूल निवास स्थान के रूप में स्वीकार किया गया है. यद्यपि इस सन्दर्भ में अलग-अलग विद्वानों ने अलग-अलग क्षेत्र बताये हैं.
1. सप्त सैंधव प्रदेश–अविनाश चन्द्र दास, डॉ. सम्पूर्णानन्द
2. ब्रह्मर्षि देश – ( सरस्वती और द्वषद्वती नदियों द्वारा सिंचित) गंगानाथ झा.
3. हिमालय (मानस नामक स्थल) — डॉ. के. के. शर्मा
4. मध्य देश— राजबली पाण्डेय.
5. कश्मीर – एल. डी. कल्ला.
6. मुल्तान में देविका नदी के पास का क्षेत्र – डी. एस. त्रिवेदी.
7. डेन्यूब नदी घाटी- प्रो. गाइल्स एवं अन्य.
8. दक्षिणी रूस–नेहरिंग, ब्रेंडस्टीन, प्रो. मायर्स और प्रो. चाइल्ड ने इस क्षेत्र को पशुपालन एवं कृषि के आधार पर आर्यों का मूल निवास बताया है.
इन विद्वानों के सम्मिलित तर्क के पक्ष :
ऋग्वेद जो आर्यों का प्राचीनतम ग्रन्थ है, में भारतीय क्षेत्रों का ही उल्लेख हुआ है. प्रश्न उपस्थित होता है कि उन क्षेत्रों का उल्लेख क्यों नहीं मिलता जहाँ से आर्य आये और अपने आपको सुस्थापित किया.
ऋग्वेद में सप्त सैंधव प्रदेश को ‘देवकृत योनी’ (देवताओं द्वारा विनिर्मित) बताया गया है. जो इस क्षेत्र के प्रति उनकी आत्मीयता एवं रुझान को स्पष्ट करता है.
वैदिक संस्कृति के विभिन्न शब्द भारत की विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं में बहुलता से प्रयुक्त किये गये हैं. यूरोप व एशिया के क्षेत्रों में प्रयुक्त प्रचलित भाषाओं में कम.
खण्डन – (i) यदि आर्य भारत के मूल निवासी होते तो पहले भारत का पूर्णरूपेण आर्यीकरण करते, जबकि वे मध्य पूर्व तथा दक्षिणी भाग से अपरिचित थे, जबकि इसके विपरीत अफगानिस्तान और ईरान के विषय में इनके ज्ञान अधिक थे.
वैदिक साहित्य में जिस संस्कृत भाषा का प्रयोग हुआ है, उस पर द्राविड़ परिवार की स्पष्टता ज्ञात होती है. बलूचिस्तान में इसी से सम्बन्धित (ब्राहुई ) भाषा का उल्लेख मिलता है. ब्राहुई भाषा के प्रचलन का संकेत यह पुष्ट करता है कि इन क्षेत्रों में इसको बोलने वाले पहले से ही विद्यमान थे.
जिस क्षेत्र में प्रारम्भिक स्तर पर वैदिक सभ्यता से सम्बन्धित साक्ष्य उपलब्ध हैं इसी क्षेत्र में इससे पूर्व की सिन्धु सभ्यता के अवशेष मिले हैं जो आर्यों के यहाँ के निवासी होने पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं.
अन्य मत
(1) उत्तरी ध्रुव – बी. जी. जिलक.
( 2 ) तिब्बत – डी. एन. सरस्वती.
( 3 ) मध्य एशिया– मेक्समूलर.
(4) जर्मनी–पेंका.
आर्यों का मूल निवास स्थान
यद्यपि आर्यों के मूल निवास स्थान का प्रश्न अत्यन्त विवादास्पद है, लेकिन भाषा विज्ञान सम्बन्धी अध्ययन से ज्ञात होता है कि भारोपीय परिवार की विभिन्न भाषाओं का प्रयोग करने वाले लोगों का सम्बन्ध शीतोष्ण जलवायु वाले ऐसे क्षेत्रों से था, जहाँ घास से आच्छादित विशाल मैदान थे. यह निष्कर्ष इस तथ्य पर आधारित है कि भारोपीय परिवार की विभिन्न भाषाओं में भेड़िया, भालू, घोड़े जैसे पशुओं के लिए समान शब्दावली है. प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर ऐसे क्षेत्र की पहचान यूराल पर्वत के दक्षिण (आधुनिक कजाकिस्तान) में मध्य एशियाई इलाके के पास के स्टेपी घास के मैदानों से की गई है तथा इसे ही आर्यों के मूल निवास स्थान के रूप में स्वीकार किया गया है.
ऋग्वैदिक सप्त-सिन्धु प्रदेश
सिन्धु नदी और उसकी छः सहयोगी नदियों के क्षेत्र को सप्त-सिन्धु प्रदेश कहा जाता था. ऋग्वैदिक काल में सप्त-सिन्धु प्रदेश पूर्व में हिमालय और तिब्बत, उत्तर में तुर्किस्तान, पश्चिम में अफगानिस्तान और दक्षिण में अरावली तक विस्तृत था. इस प्रकार ऋग्वैदिक आर्यों की भौगोलिक सीमाएँ सीमित थीं, वे अफगानिस्तान में कुम्भा से गंगा घाटी तक फैली हुई थीं. गंगा-यमुना का दोआब और विन्ध्याचल पर्वत ऐसे अवरोध थे, जिन्हें पार करना उन दिनों सुगम नहीं था. अतः आर्य सप्तसैंधव प्रदेश को ही एक देश मानते थे. सप्त-सिन्धु प्रदेश में ही ऋग्वेद की रचना की गई. शेष भारत से आर्य अनभिज्ञ थे.
दसराज्ञ युद्ध
ऋग्वेद में वर्णित महत्वपूर्ण युद्ध जो भरत (त्रित्सु) जन के राजा सुदास और अन्य दस राजाओं के मध्य परुष्णी नदी के किनारे लड़ा गया.
दस राजाओं में अनु, द्रह्यु, यदु, तुर्वस, पुरु, पक्थ, भलानस, अलिन, शिवि, विषाणिन आदि आर्यों के 10 जन ने भाग लिया. वैसे इसमें अनार्य शासकों के भाग लेने के साक्ष्य भी विहित हैं.
युद्ध का मुख्य कारण सुदास द्वारा विश्वामित्र के स्थान पर वशिष्ठ की पुरोहित पद पर नियुक्ति थी एवं प्रतिक्रिया स्वरूप विश्वामित्र ने पुरु के नेतृत्व में सुदास से प्रतिरोध हेतु इन राजाओं का संघ बनाया, जिसका नेतृत्व पुरु को सौंपा गया और अन्ततोगत्वा सुदास विजयी रहा.
उत्तर वैदिककाल के प्रमुख दार्शनिक शासक
पांचाल नरेश–प्रवाहण जाबालि.
विदेहराज–जनक.
कैकेयराज-अश्वपति.
विदेहराज जऩक की दर्शन गोष्ठी में याज्ञवल्क्य, उद्धालक, अरोणी तथा चक्रायण जैसे ऋषियों ने भाग लिया था, जिसमें जनक ने ब्राह्मणों को परास्त कर दिया और बदले में ब्राह्मणों द्वारा उन्हें ‘राजन्य बन्धु’ की उपाधि दी.
श्वेतकेतु के पिता उद्धालक द्वारा ज्ञान अर्जन हेतु पंचाग्नि विद्या के ज्ञाता पांचाल नरेश प्रवाहण जाबालि के पास जाने का उल्लेख मिलता है, जबकि उद्धालक द्वारा ही वैश्वानर विद्या की प्राप्ति हेतु अश्वपति के पास जाने का उल्लेख हुआ है.
इसी प्रकार गार्गेय ने काशीराज अजातशत्रु से दर्शन सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त किया.
अनुलोम विवाह के उदाहरण :
(1) ब्राह्मण विभद का विवाह राजकन्या कमधु के साथ हुआ.
(2) ब्रह्म ऋषि श्यावश्व का विवाह रथवीति की कन्या दार्म्य के साथ हुआ.
प्रतिलोम विवाह :
(1) ब्रह्मर्षि शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी का विवाह राजा ययाति के साथ हुआ.
(2) महर्षि अंगिरस की पुत्री शाश्वती का विवाह राजा के साथ हुआ.
प्रमुख देवता :
इन्द्र — ऋग्वेद में उल्लेखित सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण देवता, जिसकी प्रशंसा में 250 सूक्त रचे गये हैं. यह मुख्यतः युद्ध के देवता के रूप में विहित है. वज्र इसका प्रमुख अस्त्र है. इसे पुरन्दर अथवा शत्रु के किलों एवं नगरों को नष्ट करने वाला कहा गया है. कुशल रथ योद्धा (रथेष्ट) तथा (वृत्त) कालान्तर में नामक दैत्यों का संहारकर्ता भी कहा गया है. यही वर्षा के रूप में सुस्थापित हुआ.
वरुण — ऋग्वेद में वरुण आकाशीय देवता के रूप में ज्ञात है. इसे नैतिकता का देवता तथा ॠत का एक रक्षक भी कहा गया है (ऋतस्यः गोपा) ‘आग’ के साथ इसका उल्लेख इसके जल देवता होने का संकेत देता है. यही ईरान में ‘अहूरमज्दा’ एवं यूनान में ‘ओरनोज’ के रूप में प्रतिष्ठित हुआ.
वैदिक धर्म और धार्मिक अनुष्ठान
वैदिक युग में लोगों की धर्म में काफी आस्था थी. उन्होंने जगत और जीवन सम्बन्धी विचारों का आध्यात्मिक आधार पर प्रतिपादन किया, जबकि परवर्ती काल में षड्दर्शन में सृष्टि और जीवन की उत्पत्ति के सम्बन्ध में वैज्ञानिक आधार भी प्रस्तुत किए गए. वैदिक साहित्य में ईश्वर एवं दैवीय शक्तियों को सृष्टि की रचना एवं रक्षण के लिए उत्तरदायी माना गया है. आर्य प्रकृति की विभिन्न शक्तियों की पूजा करते थे, लेकिन साथ ही प्रकृति की मूल एकता में विश्वास करते थे. प्रकृति की अनुकूल परिस्थितियों को दैवीय वरदान और प्राकृतिक विपदाओं को दैवीय क्रोध की अभिव्यक्ति समझा जाता था. आकाश के विभिन्न रूपों के लिए विभिन्न देवी देवताओं की कल्पना की गई थी. इन्द्र, मित्र, वरुण और धु को प्रमुख आकाशीय देवता माना गया है. इन्द्र वर्षा के देवता की तरह जाने जाते थे
सभी प्राकृतिक घटनाएँ; जैसे—रात्रि, दिन, वर्षा, मेघ-गर्जन आदि सभी आर्यों के लिए रहस्यमयी थीं. अतः उन्होंने इन्हें अलौकिक माना. बाद में प्रत्येक घटना के लिए एक देव को उत्तरदायी माना और उसका मानवीकरण किया गया और उसकी पूजा प्रारम्भ कर दी गई, लेकिन ऋग्वैदिक आर्यों का ‘अनेक में एक’ में विश्वास था.
वैदिक देवताओं का वर्गीकरण
सामान्यतः वैदिक देवताओं की संख्या तैंतीस है, जो ब्रह्माण्ड के तीन भागों के अनुरूप विभाजित है—
ऋग्वैदिक देवताओं का वर्गीकरण तीन वर्गों में किया गया है. ये तीन वर्ग हैं–(1) पृथ्वीस्थान, (2) वायुस्थान, (3) घुस्थान. पृथ्वी, अग्नि, सोम, बृहस्पति और नदियाँ आदि देवी-देवता प्रथम वर्ग में आते हैं. इन्द्र, अपाम्नपत, आदित्य, रुद्र, अहितबधुन्य, पर्जन्य आदि दूसरे वर्ग के और द्योस, वरुण, मित्र, सूर्य, पूषन, ऊषा आदि तीसरे वर्ग के देवता हैं. यह वर्गीकरण प्राकृतिक आधार पर आधारित हैं.
वर्णाश्रम धर्म
वर्णाश्रम धर्म वर्ण और आश्रम दो शब्दों का समन्वित रूप है. वर्णों के रूप में भारतीय सामाजिक व्यवस्था में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र तथा आश्रम के रूप में ब्रह्म-चर्य, ग्रहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास का उल्लेख मिलता है.
इन विभिन्न वर्णों एवं आश्रमों में निहित कर्तव्यों का पालन करना ही वर्णाश्रम धर्म कहलाता है. जहाँ वर्ण धर्म सामाजिक उन्नयन एवं एकता का परिचायक है. वहीं आश्रम व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के सोपान के रूप में ज्ञात है. इस प्रकार वर्णाश्रम धर्म के माध्यम से प्राचीन मनीषियों ने सामाजिक एवं व्यक्तिगत विकास की संकल्पना प्रस्तुत की.
सूत्र साहित्य (धर्म साहित्य : सूत्र स्मृति)
वैदिक परम्परा के अन्तर्गत कालान्तर में साहित्य के जिस वर्ग का सृजन हुआ. वह सूत्र साहित्य के रूप में सुविज्ञ है.
सूत्र का शाब्दिक अर्थ छोटे-छोटे वाक्य अर्थात् कम-से-कम वाक्यों में अधिक-से-अधिक बात कह देना सूत्र साहित्य की विशेषता है. इसमें न केवल विभिन्न वर्गों के अधिकार, कर्तव्य, विधि-निषेध आदि की परिवर्तित परिवेश में नवीन व्याख्या प्रस्तुत की गई है. साथ ही इन्हें कठोरतापूर्वक लागू करने का विधान भी मिलता है. प्रमुख सूत्रकारों में आपस्तम्भ, बौधायन, अश्वालायन, पाराशर एवं गौतम उल्लेखनीय हैं. यद्यपि इनके द्वारा दी गई व्यवस्थाओं में भी आंशिक परिवर्तन ज्ञातव्य है.
ऋग्वैदिक युग में भौगोलिक विस्तार
ऋग्वैदिक युग में प्रमुख रूप से अफगानिस्तान की कुभा, सुवास्तु, क्रुमु, गोमती और अविभक्त पंजाब की सिन्धु, शतुद्रि, परुष्णी, अस्किनी, विपासा, वितस्ता तथा राजस्थान में प्रवाहित सरस्वती एवं दृषद्वती नदियों का उल्लेख मिलता है. हिमालय एवं उसकी पर्वत श्रृंखलाओं में मुजवंत, अरजिक, सुलेमान तो ज्ञात हैं, लेकिन विंध्याचल नहीं. गंगा और यमुना का अत्यल्प उल्लेख है और प्रमुखता के साथ नहीं है. ये विविध साक्ष्य इस तथ्य के परिचायक हैं कि ऋग्वैदिक युग में यह सभ्यता मूलतः अफगानिस्तान, पंजाब एवं पश्चिमोत्तर राजस्थान तक विस्तृत थी, जिसकी पूर्वी सीमा गंगा-यमुना के दोआब से पूर्व तक स्वीकार्य है.
वैदिक दर्शन
ऋग्वेद में वैदिक दर्शन का प्रारम्भिक स्वरूप अनुभव किया जा सकता है. ऋग्वेद में सृष्टि की उत्पत्ति हिरण्यगर्भ से बताई गई है. एक सूक्त में बताया गया है कि सर्वप्रथम ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति गर्मी या ताप से हुई, तत्पश्चात् क्रमशः ऋतु, सत्य, रात्रि और जल की उत्पत्ति हुई. इसी सूक्त (सृष्टि सूक्त) में ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति से पूर्व की अद्भुत रहस्यमयी स्थितियों का वर्णन है. ऋग्वेद के अनुसार ब्रह्म निष्काम एवं निराकार है. उसे ही इन्द्र, अग्नि, वरुण आदि नामों से जाना जाता है. ऋग्वेद में इस बात पर बल दिया गया है कि ईश्वर एक है पर उसके रूप अनेक हैं. यही ‘एक परमात्मा’ की धारणा कालान्तर में वेदान्त का आधार बनी.
ऋत् की अवधारणा को वैदिक चिन्तन की सर्वोच्च कल्पना माना जाता है. समय की गति नियमित है, दिन के बाद रात होती है और एक मौसम के बाद दूसरा मौसम आता है. मानव को भी नियमित जीवन व्यतीत करना चाहिए और मौसम के अनुसार कार्य करना चाहिए. वरुण को ऋत्का संरक्षक माना गया है, जो प्राकृतिक नियमों का द्योतक है. ऋग्वेद में जिस ब्रह्म की चर्चा की गई है, उसे एक रहस्यमयी शक्ति माना गया है.
वैदिक यज्ञ
वैदिक यज्ञ मुख्यतः तीन प्रकार के माने जाते हैं. प्रथम प्रकार के वे दैनिक यज्ञ हैं, जो गृहकर्माणि कहलाते हैं. गृहकर्माणि यज्ञों में कुछ संस्कारों से सम्बन्धित हैं, जो जन्म विवाह और मृत्यु के अवसरों पर ऋचाओं और प्रार्थना मन्त्रों सहित किए जाते हैं. इसी श्रेणी में पंच महायज्ञ आते हैं, जो प्रत्येक गृहस्थ के लिए आवश्यक हैं, जो निम्नवत् हैं—
1. देवयज्ञ—प्रातः एवं सायं विधिपूर्वक अग्न्याधान करके यह यज्ञ किया जाता है.
2. पितृयज्ञ-पूर्वजों के प्रति किया जाने वाला तर्पण और सम्मान.
3. नृयज्ञ—अतिथियों की सेवा और सम्मान.
4. ब्रह्मयज्ञ – ऋषियों एवं श्रेष्ठजनों के विचारों का अनुसरण.
5. भूतयज्ञ- गाय, कुत्ता, बिल्ली आदि को भोजन देना.
दूसरी श्रेणी के वे यज्ञ हैं, जो त्यौहारों और विशेष अवसरों पर किए जाते हैं. तीसरी श्रेणी के वे यज्ञ होते हैं, जो कई दिनों तक चलते हैं और काफी खर्चीले होते हैं.
ऋग्वेद में विहित दास-दस्यु तथा आर्यों में अन्तर एवं इनके समीकरण की समस्या
ऋग्वेद में दास एवं दस्यु की चर्चा आर्यों के प्रतिद्वन्द्वियों एवं विरोधियों के रूप में मिलती है, जहाँ इन्हें कृष्ण योनि (श्यामवर्ण) अनास, अकृत (आर्यों की यज्ञीय क्रियाओं को न मानने वाले), अव्रत-नियम विहीन, अनास-नासिका रहित, चपटी, नाक वाले, मृग्रवाच जिनकी भाषा समझ से परे हो. कहा गया है. इनकी आर्यों से अलग एवं स्पष्ट पहचान दिखाई देती है, क्योंकि इनकी अपेक्षा आर्य गौरवर्ण, सुसंस्कृत धार्मिक कार्यों में दक्ष विहित किये गये हैं. वैदिक मन्त्रों में इन्द्र द्वारा इनकी प्रताड़ना एवं पराजय सम्बन्धी साक्ष्य स्पष्ट है. इतिहासकारों में दास एवं दस्युओं की पहचान और समीकरण को लेकर पर्याप्त मतभेद है. रोम में आयोजित (कांग्रेस ऑफ ओरियेन्टेलिस्ट) के 19वें अधिवेशन में पढ़े गये एक शोध-पत्र में पं. श्रत्रेश चन्द्र महोपाध्याय ने यह विचार व्यक्त किया है कि इन्हें परम्परागत रूप से असुरों एवं राक्षसों के रूप में विहित कर ऋत विरोधी विक्रतांग तथा दुष्ट प्रकृति में परिकल्पित किया गया है.
अविनाश चन्द्र दास ने यह मान्यता प्रस्तुत की है कि जहाँ आर्य शब्द का प्रयोग स्थाई रूप से आवासित, कृषि, कर्म में प्रवत्त और यज्ञादि करने वाले सुसंस्कृत लोगों के लिए हुआ है. दास, दस्यु वे वैदिक अनार्यजन थे जो असभ्य स्थिति में थे, लूटपाट करते थे और राज्य की धार्मिक क्रियाओं में भाग नहीं लेते थे.
ऋग्वेद में दस्यु शब्द के प्रयोग के ‘मुइर’ ने निम्न निष्कर्ष निकाले हैं—“मैंने ऋग्वेद में उल्लिखित दस्यु अथवा असुरों के नामों का अध्ययन यह जानने के उद्देश्य से किया कि क्या इनमें किसी को भी आर्येत्तर अथवा यहाँ का मूल निवासी माना जा सकता है, परन्तु मैंने पाया कि किसी का भी स्वरूप ऐसा नहीं है.”
राय ने भी इसी प्रकार के विचार का समर्थन किया है-लेकिन अधिक उपयुक्त सम्भावना यह है कि दास एवं दस्यु जहाँ एक ओर यहाँ के मूल निवासी परिगठित रहे होंगे, वहीं आर्यों के असभ्य एवं असंस्कृत लोग भी इसके अन्तर्गत सम्मिलित थे और इन सभी के प्रति सुसंस्कृत आर्यों का द्वेष एवं प्रतिशोध ऋग्वेद में अभिव्यक्त है.
वैदिक युग : पुरातात्विक साक्ष्य
वैदिक तिथि क्रम से मेल खाने वाली संस्कृतियों के भौतिक अवशेषों के काले मृदभाण्ड (Black ware) एवं लाल मृद्भाण्ड (Red ware), ताम्रवर्णी तथा गेरुवर्णी मृद्भाण्ड उल्लेखनीय हैं. उत्तर-वैदिकयुगीन पुरातात्विक साक्ष्यों में धूसर चित्र मृद्भाण्ड (Painted gray ware) तथा उत्तरी काले चमकदार मृद्भाण्ड (N..B.P.W.) परिगठित हैं.
मुख्य बात यह है कि जहाँ ऋग्वेदिक साक्ष्य आर्य सभ्यता के विस्तार क्षेत्र की अपेक्षा गंगा-यमुना के दोआब क्षेत्र में ज्यादा मिले हैं, जबकि उत्तर-वैदिक साक्ष्य उन्हीं सीमाओं से प्राप्त हैं जहाँ इनका विस्तार दिखाई देता है. वैदिक साहित्य में उल्लिखित कृष्ण अयस की पुष्टि अंतरजीखेड़ा से प्राप्त लोह अवशेषों से भी होती है.
संस्कार
संस्कार धर्मशास्त्र का परिभाषित शब्द है, जिसका शाब्दिक अर्थ-शुद्धि, परिष्करण है. यह वह विलक्षण/योग्यता है जिसको अपनाने या करने से व्यक्ति कार्य विशेष के योग्य हो जाता है. भारतीय मनीषियों एवं चिन्तकों ने व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास की जो योजना प्रस्तुत की है, संस्कार इसका प्रथम सोपान है और आश्रम दूसरा.
धर्मशास्त्रों में प्रमुख रूप से 16 संस्कारों का उल्लेख हुआ है, जो गर्भाधान से मृत्यु तक की विभिन्न क्रियाओं से सम्बन्धित हैं.
(1) गर्भाधान संस्कार.
(2) पुंसवन (पुत्र प्राप्ति हेतु सम्पन्न संस्कार).
(3) सीमन्तोन्नयन– दुष्ट शक्तियों एवं बाधाओं से गर्भिणी स्त्री की रक्षा हेतु किया गया संस्कार.
(4) जातकर्म–दुष्ट शक्तियों एवं अनिष्टकारी तत्वों से बच्चे की रक्षा हेतु किया गया संस्कार.
(5) नामकरण.
(6) निष्क्रमण-जन्म से निश्चित अवधि के भीतर जब पहली बार बच्चे को बाहर निकाला जाता है.
(7) अन्नप्राशन.
(8) चूड़ाकरण.
(9) कर्ण भेदन.
(10) उपनयन–उपनयन का शाब्दिक अर्थ होता है-
निकट ले जाना अर्थात् वह प्रक्रिया जब बालक को आचार्य के निकट अध्ययन हेतु ले जाया जाता था. उपनयन के लिए यज्ञोपवीत शब्द का प्रयोग हुआ है, जिसका अर्थ होता है—
यज्ञ का उपवीत धारण करना. इस संस्कार का सम्बन्ध व्यक्ति के बौद्धिक उत्कर्ष से है. यह मुख्यतः बालक के उस चरण का प्रतीक है जब उसका अनियमित अनुत्तरदायी जीवन समाप्त होकर नियमित और अनुशासित जीवन का प्रारम्भ होता था.
(11) विद्यारम्भ.
(12) वेदारम्भ.
(13) गोदान/केशान्त.
(14) समावर्तन.
(15) विवाह.
(16) अन्त्येष्टि.
सभा एवं समिति
सभा एवं समिति वैदिकयुगीन दो महत्वपूर्ण एवं लोकप्रिय संस्थाएँ थीं, जिनका उल्लेख वैदिक साहित्य में अनेक स्थानों पर हुआ है. अथर्ववेद में इन्हें प्रजापति की जुड़वाँ पुत्रियाँ कहा गया है. लेकिन इनके स्वरूप, संगठन कार्य-पद्धति क्षेत्र को लेकर पर्याप्त मतभेद हैं.
‘हिलब्रांट’ ने तो समिति को संस्था एवं सभा को उसके अधिवेशन स्थल के रूप में उल्लिखित किया है. ‘लुडविग’ ने इंगलैण्ड की वर्तमान संसदीय प्रणाली के रूप में सभा को उच्च सदन (House of Lords) तथा समिति को निम्न सदन (House of Commons) के रूप में अभिहित किया है.
एक विद्वान् सभा को ग्राम संस्था एवं समिति को केन्द्रीय संस्था के रूप में स्वीकार करते हैं. वस्तुतः विवाद का कारण यह है कि वैदिक संहिताओं में दोनों का संगठन वैविध्यता स्पष्ट परिलक्षित नहीं है. प्राप्त उल्लेखों के सन्दर्भ में यह सम्भावना अधिक उपयुक्त प्रतीत होती है कि सभा अपेक्षाकृत छोटी संस्था थी, जिसमें विशिष्ट एवं अनुभवी लोगों को सदस्यता प्राप्त थी. ऋग्वेद में उल्लेखित है कि ‘सभेय’ (सभा की सदस्यता के योग्य) अश्व या रथ पर आरूढ़ होकर सभा को जाते थे. पारस्परिक विचार-विमर्श एवं शासक को समय-समय पर सुझाव देने के अतिरिक्त न्याय सम्बन्धी कार्य भी इसके कार्य क्षेत्र के अन्तर्गत आते थे. न्याय के लिए प्रस्तुत अभियुक्त को सभाचार कहा जाता था.
समिति-बड़ी संस्था थी, जिसमें जन के सभी लोग एकत्रित होकर निर्णय लेते थे. यह जहाँ एक ओर शासक की निरंकुशता पर नियन्त्रण रखती थी, वहीं जन से सम्बन्धित विविध विषयों; जैसे—युद्ध, सन्धि, जनकल्याण हेतु नीति-निर्धारण सम्बन्धी कार्य भी करती थी. समिति में स्वतन्त्र एवं खुला वाद-विवाद होता था, ताकि किसी विषय पर बहुमत का निर्णय जाना जा सके. परवर्ती ग्रन्थों में राजनीति के साथ-साथ आध्यात्मिक एवं गूढ़ विषयों पर विचार का उल्लेख भी. मिलता है.
श्वेतकेतु पांचाल जनपद की समिति में उपस्थित हुआ था, जिसमें उसने अध्यात्म विषयक चर्चा में भाग लिया. उल्लेखनीय है कि स्त्रियों को भी इन संस्थाओं में भाग लेने का अधिकार था.
स्त्रियों की स्थिति
⇒ विवाह यौवनावस्था में पहुँचने के काफी बाद होता था.
⇒ कन्याएँ अविवाहित भी रह सकती थीं और अपने माता-पिता के साथ रहती थीं.
⇒ दास एवं दस्युओं के साथ वैवाहिक सम्बन्ध वर्जित थे.
⇒ गन्धर्व विवाह एवं प्रेम विवाहों का भी प्रचलन था.
⇒ सती प्रथा का प्रचलन नहीं था.
⇒ नियोग प्रथा के प्रचलन के प्रमाण मिलते हैं.
⇒ विधवा पुनर्विवाह की विशेष परिस्थितियों में अनुमति थी.
⇒ बहुपत्नीत्व की प्रथा कुलीन वर्ग में थी.
⇒ पर्दा प्रथा नहीं थी और वैश्या प्रथा अज्ञात थी.
⇒ महिलाएँ सार्वजनिक रूप से भोज और नृत्यों में भाग ले सकती थीं.
ऋग्वैदिक आर्थिक जीवन
कृषि एवं पशुपालन ऋग्वैदिक जीवन के मुख्य आधार थे. उन्हें ऋतुओं का पूर्ण ज्ञान था. वे हल के प्रयोग (जुताई), बुवाई, कटाई, रुपाई आदि से परिचित थे. अनेक शब्दों से विदित होता है कि उस समय भू-मापन पद्धति थी और भूमि निजी स्वामित्व वाली थी. लोगों को सिंचाई की जानकारी थी, जो कुओं से की जाती थी. ‘यव’ शब्द सामान्यतः अनाज के लिए प्रयोग में लाया जाता था. परवर्ती काल में यह शब्द जौ के लिए इस्तेमाल में लाया गया.
गाय और बैल मुख्यतः पशुधन थे. गाय को पूजनीय माना जाता था और उसके लिए ‘अधन्या’ शब्द प्रयोग में लाया जाता था, जिसका आशय वध नहीं किए जाने योग्य माना गया है. युद्ध अकसर गायों के लिए होते थे, इसीलिए युद्ध को गाविष्टी कहा जाता था. भेड़ और बकरियाँ भी पाली जाती थीं.
कुछ लोगों ने बढ़ई, चर्मकार, लुहार, नाई, दर्जी, स्वर्णकार आदि का पेशा अपना लिया था. आपसी लेन-देन के लिए बलूता व्यवस्था थी, लेकिन मुद्रा भी प्रचलन में थी. ऋग्वेद में एक सौ मुद्राएँ प्राप्त करने के लिए आहुतियाँ देने का उल्लेख है. निष्क, सतमाल, रज़त और सभ्य का मुद्रा के रूप में प्रयोग किया जाता है.
ऋग्वैदिककाल में अन्तर्देशीय व्यापार था या नहीं इसका कोई निश्चित ब्यौरा नहीं मिला है.
ऋग्वैदिकयुगीन सामाजिक संरचना
वर्ण-व्यवस्था भारतीय सामाजिक संरचना का आधारभूत एवं मौलिक तथा विशिष्ट तत्त्व रही है. यद्यपि ऋग्वेद में चारों वर्णों का उल्लेख मात्र पुरुष सूक्त में ही मिलता है, जहाँ ब्रह्मा के विभिन्न अंगों से विभिन्न वर्णों की उत्पत्ति का विवेचन है. ऐसी मान्यता है कि यह बाद में जोड़ा गया क्षेपक अंश है. ऋग्वेद में इस सूक्त को छोड़कर अन्यत्र केवल ब्राह्मण एवं राजन्य का उल्लेख मिलता है तथा शेष लोगों के लिए विश् शब्द ज्ञातव्य है. ऋग्वेद के ही एक अन्य मन्त्र में अश्विनों से प्रार्थना की गई है कि ब्रह्म, क्षत्र एवं विश की श्रीवृद्धि करें तथा उन्हें बुद्धि, बाहुबल एवं पशुधन प्रदान करें. अतः ऐसा प्रतीत होता है कि गुण एवं कर्म के आधार पर वर्ण विभाजन प्रक्रिया प्रारम्भ हो चुकी थी, लेकिन चतुर्वर्णों के रूप में स्थापित नहीं हुई थी.
वह प्रसिद्ध मन्त्र जिसमें कहा गया है कि “मैं मन्त्र निर्माता हूँ, मेरे पिता भिषज हैं तथा मेरी माता उपल प्रक्षिणी है.” ऋग्वैदिक युग में कर्म एवं व्यवसाय की स्वतन्त्रता का परिचायक है.
प्रारम्भिक वैदिक युग में आर्यों के सामाजिक जीवन की आधारभूत इकाई परिवार थी, जिसका स्वरूप पितृसत्तात्मक था. विभिन्न पारिवारिक सदस्यों के लिए प्रयुक्त ‘नप्तृ’ शब्द का प्रयोग भी संयुक्त परिवार प्रथा के अस्तित्व को दर्शाता है, ऋजाश्रव’ एवं ‘सुःनहशेष’ की कथाएँ परिवार में पिता के निरंकुश व असीमित अधिकारों को पुष्ट करती हैं, परन्तु ऐसे उदाहरण अपवादस्वरूप ही स्वीकार्य हैं, क्योंकि सामान्यतः विभिन्न पारिवारिक सदस्यों के प्रति पिता का व्यवहार वात्सल्यपूर्ण था.
विवाह एक पवित्र एवं धार्मिक संस्कार के रूप में स्वीकार किया जाता था. सामान्यतः विवाह अपने ही वर्ण में होता था तथा इसे वैयक्तिक एवं सामाजिक उन्नयन का सोपान समझा जाता था. पुत्र के महत्त्व के बावजूद सुदीर्घ भारतीय इतिहासकारों में इस समय स्त्रियों की अच्छी स्थिति के संकेत मिलते हैं. अपाला, घोषा, सिकता, लोपामुद्रा, जैसी विदुषियों का उल्लेख मिलता है, जो ऋग्वैदिक मन्त्रों की रचयिता थीं.
‘समनों’ (युवा महोत्सव) के माध्यम से लड़के एवं लड़कियों का परिचय और विवाह सम्बन्धी साक्ष्य इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि विवाह सामान्यतः वयस्क होने पर ही किया जाता था. पुत्र के महत्त्व के कारण नियोग प्रथा का उल्लेख ‘पुरु कुत्सानि’ एवं ‘पुस्डवड़मति’ के रूप में ज्ञात है.
इस प्रकार भारतीय सामाजिक जीवन के कई पक्षों के नियमन की प्रक्रिया इस समय दृष्टिगोचर होती है, जो कालान्तर में भारतीय सामाजिक संरचना के महत्त्वपूर्ण आधार के रूप में दिखाई देती है.
उत्तर-वैदिक युग में सामाजिक परिवर्तन
जहाँ प्रारम्भिक युग में चतुर्वर्ण व्यवस्था स्पष्ट अभि-व्यक्त नहीं है, वहीं उत्तर-वैदिक युग में चारों वर्ण एवं उनके अधिकार, कर्त्तव्य एवं कार्यक्षेत्र का स्पष्ट विवेचन दृष्टव्य है. या यों कहा जा सकता है कि ऋग्वैदिक युग में बीज रूप में प्रारम्भिक वर्ण व्यवस्था न केवल पुष्पित एवं पल्लवित होकर निश्चित स्वरूप ग्रहण करती दिखाई देती है, बल्कि क्रमशः जाति-व्यवस्था में परिवर्तन के संकेत भी मिलते हैं.
यद्यपि इस समय भी परिवार का स्वरूप पितृसत्तात्मक था और संयुक्त परिवार इसका आधार था, लेकिन फिर भी परिवर्ती संहिताओं में कुल शब्द का बहुतायत के साथ प्रयोग व्यक्तिगत परिवारों के अस्तित्व को भी चिह्नित करता है. विभिन्न अनुष्ठान एवं कर्मकाण्डों में पुत्र की अपरिहार्यता के कारण स्त्रियों की स्थिति में गिरावट के संकेत दिखाई देते हैं.
यदि अथर्ववेद में पुत्री के जन्म पर खिन्नता का उल्लेख है, तो मैत्रायणी संहिता में सुरा एवं जुएँ के साथ बुराई के रूप में स्त्री को परिभाषित किया गया है, लेकिन मैत्रेयी एवं गार्गी जैसी विदुषी स्त्रियों का उल्लेख भी है, जो धर्म एवं दर्शन के क्षेत्र में उनकी अभिरुचि एवं सहभागिता के प्रमाण प्रस्तुत करती हैं.
इस युग में अन्य उल्लेखनीय प्रवर्तन संयोग एवं सप्रवहर विवाहों पर प्रतिबन्ध जो धर्मशास्त्रों में और अधिक सुस्थापित होता हुआ प्रतीत होता है. बहुपत्नी परम्परा के साक्ष्य भी इस युग की संहिताओं में स्पष्ट उल्लिखित हैं.
मैत्रायणी संहिता में मनु की दस पत्नियों का उल्लेख है तो याज्ञवल्क्य की दो पत्नियों गार्गी एवं कात्यायनी सुविज्ञ है. सिद्धान्त रूप में एक शासक को चार पत्नियाँ महिषि (मुख्य रानी), वावाता (अधिक प्रिय), परिवृक्ति (उपेक्षित), पालागली रखने का अधिकार है. सामाजिक संरचना में व्यक्ति के जीवन को सुव्यवस्थित विकास से सम्बद्ध करने हेतु आश्रम व्यवस्था की अवधारणा भी आविर्भूत होती दिखाई देती है. यद्यपि संन्यास का स्पष्ट उल्लेख विहित नहीं है.
ऋग्वैदिक युग में धर्म एवं दर्शन
प्रवृत्ति मार्गी- ऋग्वैदिक युग में आर्यों की अभिरुचि पारलौकिक सुख एवं मोक्ष प्राप्ति की अपेक्षा ऐहिक व भौतिक सुखों की ओर थी. ऋग्वेद में ऐसे अनेक मन्त्र विहित हैं, जिनके माध्यम से भौतिक इच्छाओं की पूर्ति का प्रयास दिखाई देता है.
परवर्ती साहित्य में उल्लिखित मोक्ष, कर्म, आत्म-साक्षात्कार एवं सांसारिक पदार्थों की नीरसता जैसी कल्पना भी इस समय करीब-करीब अज्ञात-सी है. अतः प्रारम्भिक वैदिक धर्म का उल्लेखनीय पक्ष. प्रवृत्ति मार्ग को प्रधान मानना है.
बहुदेववाद- वैदिक ऋषियों ने प्रकृति की विभिन्न शक्तियों को देवताओं के रूप में परिकल्पित किया और यही कारण है कि ऋग्वेद में उल्लिखित इन्द्र, वरुण, द्यौस, पृथ्वी, अग्नि, सूर्य, उषा, सोम आदि प्राकृतिक शक्तियों के साथ तादात्म्य सम्बन्ध स्पष्ट दिखाई देता है. इस प्रकार प्रकृति की विभिन्न शक्तियों को देवत्व के रूप में स्वीकार करने के साथ ही उसमें मानकीकरण का आरोप भी दृष्टव्य है, लेकिन ये मनुष्यों की अपेक्षा अधिक सक्षम एवं समर्थ हैं और इनके माध्यम से सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति का प्रयास दृष्टिगत होता है.
यज्ञीय परम्परा–विभिन्न देवताओं का आह्वान कर उनके माध्यम से भौतिक इच्छाओं की पूर्ति के प्रयास हेतु जिस प्रक्रिया का प्रारम्भ हुआ, यज्ञीय परम्परा के रूप में ज्ञात है. प्रारम्भ में इसका स्वरूप सात्विक और सरल था.
बहुदेववाद से एकवाद की ओर विकास-यद्यपि ऋग्वेद में बहुदेववाद सम्बन्धी विश्वास ही मुख्य रूप से अभिव्यक्त है, किन्तु चिन्तन प्रक्रिया के विकास के साथ क्रमशः बहुदेववाद से एकेश्वरवाद की ओर विकास के संकेत मिलते हैं.
इस सन्दर्भ में एक स्थिति यह भी है जब देवता विशेष की आराधना के समय इसे ही सर्वोच्च मान लिया गया और अन्य गौण हो जाते थे. इस प्रवृत्ति को मैक्समूलर ने ‘हीनोथिज्म’ (Henotheism) कहा है.
एकेश्वरवाद सम्बन्धी अवधारणा–एकेश्वरवाद का संकेत ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में मिलता है, जहाँ कहा गया है कि सत्य एक ही है, लेकिन विद्वान् पुरुष इसे कई नामों से जानते हैं.
ऋतू की अवधारणा-ऋग्वैदिक धर्म का एक अन्य पक्ष ऋतू की अवधारणा है, जिसे सृष्टि की नैतिक व्यवस्था के रूप में स्वीकार कर वरुण को उसका रक्षक बताया गया है.
उत्तर-वैदिककालीन धर्म और दर्शन
इस प्रकार वैदिक धर्म मुख्यतः प्रकृति मार्गी था, जिसमें बहुदेववाद की परम्परा ज्ञातव्य है, लेकिन साथ ही एकेश्वरवाद सम्बन्धी संकेत भी दिखाई देते हैं. यद्यपि प्रारम्भिक वैदिक युग की भाँति बहुदेववाद की परम्परा उत्तर-वैदिक युग में स्पष्ट परिलक्षित है, किन्तु अब इन्द्र, वरुण, अग्नि जैसे देवताओं का स्थान गौण हो गया तथा विष्णु एवं रुद्र अधिक महत्त्वपूर्ण हो गये. यहाँ तक कि इनके सम्बन्ध में विभिन्न पुराकथाओं का आविर्भाव भी स्पष्ट दिखाई देता है, जिनका परवर्ती वैष्णव एवं शैव धर्म पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा.
इस समय ऋग्वैदिकयुगीन यज्ञीय सरलता के स्थान पर जटिल यज्ञीय क्रियाओं का प्रारम्भ दिखाई देता है, जिसमें विविध अनुष्ठानों एवं कर्मकाण्डों को विशेष महत्त्व दिया गया है. यहाँ तक कि देवताओं का अस्तित्व एवं अमरत्व भी यज्ञों पर निर्भर माना गया है. फलस्वरूप यज्ञों की अपरिहार्यता धर्म का महत्वपूर्ण अंग बन गया तथा इसी के साथ विशेषज्ञ पुरोहित का प्रधान्य खर्चीलापन और अनुष्ठान धर्म के प्रतीक बन गये.
लोकधर्म की प्रतिष्ठा तथा तन्त्र-मन्त्रीय एवं अन्ध-विश्वासीय परम्पराओं का आरम्भ भी ज्ञातव्य है, जिनका उल्लेख अथर्ववेद में भूत-प्रेत, जादू-टोना, तन्त्र-मन्त्र आदि के रूप में दृष्टिगत होता है. ऐसा माना जाता है कि इन पर अनार्य परम्परा का प्रभाव था, क्योंकि सिन्धु सभ्यता में ताबीजों की प्राप्ति वहाँ इस परम्परा और विश्वास को इंगित करती है.
उत्तर-वैदिकयुगीन धर्म और दर्शन का सबसे उल्लेखनीय पक्ष है उपनिषदों में विहित अद्वैतवाद या एकवाद की अवधारणा जिसके अनुसार प्राणी का सार तत्व आत्मा और जगत् का मूल तत्व ब्रह्म अलग-अलग नहीं है, बल्कि एक ही है. आत्मा और ब्रह्म का यह एकत्व ही अद्वैतवाद कहलाता है, जिसकी अभिव्यक्ति, ‘अहं ब्रह्मास्मि’, ‘तत्वमसि तू’, ‘सर्व खल्विदं ब्रह्मम्’ जैसे महावाक्यों द्वारा दिखाई देती है. ब्रह्म की यह अभिव्यक्ति उपनिषदों में दो रूपों में (सप्रपंच और निष्प्रपंच ब्रह्म) होती है. सप्रपंच ब्रह्म की अवधारणा में इसे अलौकिक गुणों में विभूषित मानकर सृष्टि के कर्त्ता, पालक और संहारक रूप में विहित किया गया है, जबकि निस्प्रपंच ब्रह्म का स्वरूप अनिवर्चनीय है.
तीन आश्रमों का उल्लेख—छान्दोग्य उपनिषद्.
चार आश्रमों का उल्लेख–जाबालोपनिषद्.
सिन्धु सभ्यता और वैदिक संस्कृति में असमानताएँ
हड़प्पा संस्कृति के वासियों को भारत का मूलवासी माना गया है, जबकि वैदिक सभ्यता के लोग मध्य एशिया से भारत आए थे. हड़प्पा सभ्यता नगरीय थी, जबकि वैदिक सभ्यता ग्रामीण थी तथा आन्तरिक और बाह्य व्यापार, शिल्प और उद्योग सिन्धु सभ्यता की अर्थव्यवस्था के मुख्य आधार थे, जबकि वैदिक अर्थव्यवस्था कृषि और पशुपालन पर आधारित थी. हड़प्पा सभ्यता ‘ताम्र-कांस्य’ संस्कृति थी, जबकि आर्य संस्कृति लौह संस्कृति थी. हड़प्पावासी शान्तिप्रिय थे, जबकि आर्य युद्धप्रिय थे. आर्यों को घोड़े का इस्तेमाल अच्छी तरह आता था, जबकि सन्धुि सभ्यता के लोगों को सम्भवतः इसकी जानकारी भी नहीं थी. वैदिक धर्म हड़प्पाकालीन धर्म से भिन्न था. आर्य प्रकृति के स्वरूपों की पूजा करते थे और यज्ञ आदि कर्मकाण्डों में विश्वास करते थे, जबकि हड़प्पावासी शिव, पशुपति, लिंग आदि की पूजा करते थे. प्रकृति पूजा में उनका कोई विश्वास नहीं था. यद्यपि कालीबंगा से अग्निवेदियाँ मिली हैं, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं लगाया जा सकता कि सिन्धु सभ्यता में आर्यों जैसी यज्ञ पद्धति रही होगी. हड़प्पा सभ्यता के लोग गेहूँ, अनाज एवं जौ की रोटी के साथ-साथ सभी पक्षियों एवं गाय और बछड़े सहित सभी पशुओं का मांस खाते थे, जबकि आर्य दूध और मक्खन विशेषतः पसन्द करते थे. हड़प्पावासी मुख्यतः सूती वस्त्र पहनते थे, जबकि आर्य ऊनी वस्त्र पहनते थे.
कर्मयोग की अवधारणा
कर्मयोग, कर्म और योग दो शब्दों का समन्वित रूप है जिसका अर्थ है-सामाजिक दायित्वों का निर्वहन, यह गीता में अभिव्यक्त महत्त्वपूर्ण अवधारणा है, जो मुख्यतः महाभारत के युद्ध के अवसर पर किंकर्तव्यविमूढ़ एवं मोहग्रस्त अर्जुन को अपने कर्त्तव्य के प्रति जागरूक कर निष्काम कर्म के प्रति प्रवृत्त करने के लिए अभिव्यक्त हुआ है. कर्म का नहीं बल्कि कर्मफल के त्याग द्वारा प्रवृत्ति से निवृत्ति के सुन्दर समन्वय का प्रयास है, जो इस अवधारणा में परिलक्षित है.
स्थित प्रज्ञ—गीता में उल्लिखित पूर्ण मानव का आदर्श जिसकी बुद्धि प्रत्येक परिस्थिति में स्थित रहती है. सुख-दुःख, राग-द्वेष, इच्छा-अनिच्छा, जन्म-मृत्यु आदि का जिस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता.
रामायण और महाभारत का सांस्कृतिक महत्व
प्राचीन भारतीय साहित्यिक परम्परा में रामायण एवं महाभारत का विशिष्ट स्थान तथा महत्त्व है, जिसकी तुलना यूनानी महाकाव्यों ‘इलियड’ और ‘ओडेसी’ से की जाती है, लेकिन ज्ञान की विस्तीर्णता, विषय की विविधता, भाषा और शैली का माधुर्य, जीवन के आदर्शों एवं मूल्यों तथा संस्कृति की अभिव्यक्ति की दृष्टि से दोनों ही विश्व की अन्यतम कृतियाँ हैं. ये भारतीय जीवन के प्रकाश स्तम्भ हैं. भारतीय संस्कृति के विभिन्न पक्षों की सम्यक् अभिव्यक्ति दोनों ही ग्रन्थों में विशद रूप में अभिव्यक्त हुई है.
रामायण और महाभारत में विवेचित मूल्य और आदर्शों, आचार-विचार, परम्पराएँ तथा संस्थाएँ शताब्दियों से जनमानस के प्रेरणा स्रोत रहे हैं, जिनकी हमारे जीवन निर्माण में अहम् भूमिका रही है. इनमें उन मूलभूत सिद्धान्तों का चित्रण किया गया है, जिन्होंने देश की संस्कृति को सदैव अनुप्राणित किया है.
महाकाव्यों में उल्लेखित विभिन्न पात्र और उनके द्वारा स्थापित आदर्श आज भी जनमानस के प्रेरणा स्रोत रहे हैं. राम की पितृभक्ति, लक्ष्मण की भ्रातृत्व सेवा, भरत का त्याग, सीता की पतिपरायणता, हनुमान की स्वामिभक्ति, कर्ण की दानवीरता, युधिष्ठिर की सत्यप्रियता, भीष्म की दृढ़ प्रतिज्ञा, कृष्ण का बहुमुखी व्यक्तित्व भारतीय संस्कृति के विभिन्न मूल्यों एवं आदर्शों के ही प्रतिरूप हैं, लेकिन इन चरित्रों के माध्यम से ही इन्हें अभिव्यक्ति प्रदान की गई है.
हमारे राजनैतिक आदर्श क्या हैं? सामाजिक सम्बन्धों का निर्वाह कैसे, जीवन का वास्तविक उदेश्य क्या है? इन सबकी कुंजी रामायण और महाभारत में ढूँढ़ी जा सकती है. चाहे ऐतिहासिक दृष्टि से इन ग्रन्थों में उल्लेखित कथानकों की सत्यता पर कितने प्रश्नचिह्न लगाये जायें. लेकिन जहाँ तक इनके सांस्कृतिक महत्व एवं उपादेयता का प्रश्न है इनकी महत्ता असंदिग्ध एवं निर्विवाद है.
रामायण एवं महाभारत का तुलनात्मक अध्ययन
यद्यपि रामायण और महाभारत दोनों ही भारत के प्राचीनतम महाकाव्य हैं, जिनमें जीवन के विभिन्न पक्षों की विशद् अभिव्यक्ति हुई है. जनमानस पर इनके प्रभाव की दृष्टि से दोनों ही ग्रन्थ महत्वपूर्ण हैं फिर भी विभिन्न क्षेत्रों में विहित मूल्यों, आदर्शों, परम्पराओं एवं जीवन के प्रति दृष्टिकोण का प्रश्न है, दोनों में कुछ आधारभूत अन्तर है.
जहाँ रामायण में आदर्शवाद तथा नैतिक मूल्यों का अपेक्षाकृत उत्कृष्ट रूप में विवेचन मिलता है, वहीं महाभारत में इसमें गिरावट के संकेत मिलते हैं. रामायण मुख्यतः त्याग के आदर्श से अनुप्राणित है, वहीं विभिन्न भाई एक-दूसरे के लिए सर्वस्व समर्पित करने को इच्छुक एवं उत्सुक दिखाई देते हैं, जबकि महाभारत में अपने संकीर्ण स्वार्थों की पूर्ति हेतु उनमें पारस्परिक संघर्ष दिखाई देता है.
रामायण/आदर्श परिवार की झाँकी प्रस्तुत करता है, तो महाभारत में पारिवारिक विघटन के स्पष्ट संकेत मिलते हैं. रामायण में भ्रातृत्व का उच्च आदर्श निरूपित है, तो महाभारत के विभिन्न पात्र इसका उल्लंघन करके पारिवारिक द्वेष के शिकार हैं.
जहाँ तक नारी के प्रति दृष्टिकोण का प्रश्न है, रामायण में अपेक्षाकृत उसके आदर्श रूप की अभिव्यक्ति है. वहीं महाभारत में इसके पतन के चिह्न दिखाई देने लगते हैं. रामायण के पात्र भरत एवं लक्ष्मण सीता के प्रति मातृत्व भाव से अनुप्राणित हैं, तो महाभारत के दुर्योधन एवं दुःशासन अपने ही भाई की पत्नी को भरी सभा में निर्वस्त्र करने का प्रयास करते हैं. रामायण में सीता के रूप में सच्चे पतिव्र धर्म का चित्रण है, तो महाभारत में उसका अभाव है. कर्ण, कुन्ती की कौमार्य अवस्था में हुआ था, तो द्रोपदी के पाँच पति सुविज्ञ हैं.
महाभारतकालीन राजनीति एवं युद्ध में छल-छद्म दिखाई पड़ता है, जहाँ युद्ध में विजय एवं अपने लक्ष्य की प्राप्ति हेतु मान्य परम्पराओं का उल्लंघन किया गया है. भीष्म, कर्ण, दुर्योधन, जयद्रथ, अभिमन्यु आदि का मारा जाना इसके प्रमाण हैं.
जबकि रामायण में अपेक्षाकृत राजनीतिक आदर्शों की अभिव्यक्ति ज्ञातव्य है. राम रावण को निशस्त्र पाकर छोड़ देते हैं.
इस प्रकार रामायण और महाभारत में व्यावहारिक क्रियान्विति के सन्दर्भ में मूलभूत अन्तर दिखाई देते हैं, लेकिन जहाँ तक सैद्धान्तिक विवेचन का प्रश्न है महाभारत में इसके उच्च रूप का विवेचन किया गया है.
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