किशोरों में संवेगात्मक जीवन पर प्रकाश डालें ।

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प्रश्न – किशोरों में संवेगात्मक जीवन पर प्रकाश डालें ।
(Throw light on emotional life in adolescence.)
उत्तर – यह परम्परागत विश्वास है कि किशोरावस्था गम्भीर उथल-पुथल (Storm and Stress) की अवस्था है। गम्भीर उथल-पुथल का तात्पर्य संवेगात्मक अवस्था से है। हरलॉक (1978) ने इस अवस्था के संवेगात्मक जीवन के सम्बन्ध में लिखा है कि “किशोरावस्था बढ़ी हुई संवेगात्मक तनाव की अवस्था है जो उसके शारीरिक और ग्रन्थीय परिवर्तनों के कारण इस अवस्था में होता है” (It is a period of heightened emotional tension that comes from the physical and glandular changes taking place at this time) I बाल्यावस्था और प्रौढ़ावस्था की अपेक्षा किशोरावस्था में संवेगात्मकता अस्थिरता और अति संवेगात्मक (Heightened Emotionality) अपेक्षाकृत अधिक होती है । यदि बालकों में संवेगात्मक विकास का अध्ययन किया जाय तो पता चलता है कि बाल्यावस्था और प्रौढ़ावस्था में संवेगात्मक स्थिरता किशोरावस्था की अपेक्षा अधिक पायी जाती है। हरलॉक और उनके अनुयायियों का विचार है कि संवेगात्मक अस्थिरता और अति संवेगात्मकता का मुख्य कारण किशोरावस्था में होने वाले शारीरिक और ग्रन्थीय परिवर्तन हैं। कुछ अन्य मनोवैज्ञानिकों ने सामाजिक सम्बन्धों की व्यापकता को बताया है जिसके कारण समायोजन में जटिलता उत्पन्न होती है और फलस्वरूप संवेगात्मक तनाव, संवेगात्मक अस्थिरता और अन्त में अति संवेगात्मकता के लक्षण उत्पन्न होते हैं। अति संवेगात्मकता या संवेगात्मकता का सभी किशोरों में पाया जाना आवश्यक नहीं है। यह देखा गया है कि जिन किशोरों की शिक्षा-दीक्षा उपयुक्त ढंग से चलती है उनमें इस प्रकार के लक्षण अपेक्षाकृत कम मात्रा में पाये जाते हैं ।
उपर्युक्त कारणों के अतिरिक्त कुछ अन्य कारक भी सार्थक एवं महत्त्वपूर्ण हैं, जैसेअनुपयुक्त पारिवारिक सम्बन्ध, परिवारीजनों का अधिक हस्तक्षेप, विद्यालय की असफलताएँ, नवीन परिस्थितियों में कुसमायोजन, लक्ष्य प्राप्ति में आने वाली कठिनाइयाँ आदि । तीन प्रकार के व्यक्ति विशेष रूप से उसमें संवेगात्मक अस्थिरता और अति संवेगात्मकता के लक्षण उत्पन्न करते हैं। पहले प्रकार के वे हैं जो उसके परिवार से सम्बन्धित होते हैं; दूसरे प्रकार के वे लोग हैं जो उसके विद्यालय से सम्बन्धित होते हैं और तीसरे प्रकार के वे लोग हैं जो इसकी मित्र-मण्डली में आते हैं अथवा उसके साथी समूह के सदस्य हैं । उपर्युक्त के अतिरिक्त प्रत्येक किशोर का कोई न कोई विपरीत सेक्स का व्यक्ति होता है जिससे वह अपने व्यक्तिगत सम्बन्ध बढ़ाना चाहता है । परन्तु जब इनके यह सपने तृप्त नहीं हो पाते हैं तो वे चिन्तित हो उठते हैं और उनमें संवेगात्मक असन्तुलन और तनाव उत्पन्न हो जाता है । हरलॉक (1978) ने किशोरों के संवेगात्मक जीवन का वर्णन करते हुए लिखा है कि किशोरावस्था के प्रारम्भ में संवेग बहुधा तीव्र होते हैं वह अभिव्यक्ति में नियन्त्रित भी नहीं होते हैं, यह संवेग नियमित भी नहीं होते हैं लेकिन विकास के प्रत्येक वर्ष के बढ़ने के साथ-साथ संवेगात्मक अभिव्यक्ति में उन्नति दिखाई देती है (While adolescent’s emotions are often intense, uncontrolled in expression, and irregular, there is generally an improvement in emotional behaviour with each year) ।
इस दिशा में हुए अध्ययनों से यह स्पष्ट है कि किशोरावस्था में अति संवेगात्मकता केवल पूर्व किशोरावस्था में ही अधिक होती है। इसके बाद धीरे-धीरे उनकी गति संवेगात्मकता सामान्य संवेगात्मक अभिव्यक्ति में परिवर्तित होती जाती है । किशोरावस्था की अन्तिम अवधि में भी कुछ नई समस्याएँ उत्पन्न होती हैं जिनके फलस्वरूप संवेगात्मक तनाव पुन: एक बार बढ़ जाता है । इस अवधि की अधिकांश समस्याएँ सेक्स और रांमांस से सम्बन्धित होती हैं। अध्ययनों में यह देखा गया है कि किशोरों का सेक्स और रोमांस का जीवन यदि सामान्य और सरल ढंग से चलता रहता है तो उनका जीवन अति सुखद होता है। कुछ अध्ययनों (W. A. Westley & F. Elkin, 1957; F. Elkin, 1958) मे यह सिद्ध किया गया है कि किशोरावस्था के अन्त में जब उनकी स्कूल की शिक्षा पूरी हो जाती है तो वह अपने भविष्य के सम्बन्ध में सोचकर चिन्तित हो जाते हैं और इस चिन्ता के फलस्वरूप भी कभी-कभी उनमें संवेगात्मक तनाव उत्पन्न हो जाता है ।
कुछ संवेगात्मक प्रतिमान (Some Emotional Patterns)
  1. क्रोध ( Anger ) – पूर्व किशोरावस्था में बालक को उस समय क्रोध अधिक उत्पन्न होता है जब उसे चिडाया जाता है, आलोचना की जाती है या उसके सामने लेक्चर झाड़ा जाता है अथवा जब उसकी हँसी उड़ाई जाती है। कुछ अध्ययनों (R. Lawson & M. H. Marx, 1958; A. Jersild, 1963) में यह देखा गया है कि किशोरों में असहाय और द्वन्द्व (Frustrations) की भावनाएँ उस समय उत्पन होती हैं जब उन्हें वह करने नहीं दिया जाता है जिसे वे करना चाहते हैं। जब अपनी स्वतन्त्रता के विषय में सोचते हैं तब वे देखते हैं कि माता-पिता, संरक्षकों और अध्यापकों आदि के नियन्त्रण में हैं। जैण्डर ( A. Zander, 1968) का विचार है कि किशोरों की आयु जैसे-जैसे बढ़ती जाती है वे यह महसूस करने लग जाते हैं कि अधिक क्रोध अपरिपक्वता की निशानी है। अतः वह अपने क्रोध को नियन्त्रित करना सीखते हैं। किशोरावस्था की अन्तिम अवस्था में क्रोध बहुधा उस समय अधिक और शीघ्र उत्पन्न होता है, जब उनके आत्म-सम्मान (Self-assertion) को आघात पहुँचाता है अथवा जब उसकी आदतजन्य क्रियाओं में बाधा पहुँचती है। एक अध्ययन (M. Powell, 1955) के अनुसार किशोरावस्था में क्रोध कितना अधिक और कितने बार उत्पन्न होगा। यह मुख्यतः किशोर के वातावरण पर निर्भर करता है न कि उसकी आयु आदि पर।
  2. भय (Fear) – किशोरावस्था के प्रारम्भ होने तक किशोर यह समझने लगता है कि बहुत-सी चीजें जिनसे वह डरता था, वह उसके लिए हानिकारक नहीं हैं। इस विचारधारा के कारण उसके बाल्यावस्था के अनेक भय दूर हो जाते हैं। इस अवस्था में उसमें कुछ नये भय उत्पन्न होते हैं; जैसे— अँधेरे में एकान्तवास का भय; रात में अकेले रहने का भय, बड़े समूह के सामने उपस्थित होने का भय आदि । लगभग बारह वर्ष की अवस्था तक पूर्व किशोरावस्था के भय अपनी चरमसीमा पर पहुँच जाते हैं। कुछ अध्ययनों (L. Berkowitz, 1964; J. M: Sattler, 1965) में यह सिद्ध किया गया है कि सोलह वर्ष की अवस्था तक अनेक किशोर यह कहने लगते हैं कि उन्हें भय नहीं लगता है । पश्चात् किशोरावस्था में वास्तविक उद्दीपकों की अपेक्षा काल्पनिक उद्दीपकों का भय अधिक होने लग जाता है ।
  3. ईर्ष्या (Jealousy) – ईर्ष्या को शैशवावस्था का पंवेग समझा जाता है परन्तु यह एक बार पुन: किशोरावस्था के प्रारम्भ में अधिक मात्रा में पाया जाता है । इस अवस्था में किशोर बहुधा उन बालकों से ईर्ष्या रखते हैं जिन्हें अधिक स्वतन्त्रता प्राप्त होती है अथवा जिन्हें उनकी अपेक्षा अधिक सुविधाएँ प्राप्त होती हैं जिनसे वह ईर्ष्या रखता है वह उनका मजाक उड़ाता है, आलोचना करता है, आदि । जर्सील्ड (A. T. Jersild, 1963) ने किशोरों की ईर्ष्या के सम्बन्ध में लिखा है कि “इस अवस्था के किशोर ओर किशोरियाँ यौन सम्बन्धो के सम्बन्ध में ईर्ष्या रखते हैं। यह ईर्ष्या किशोरियों में किशोरों की अपेक्षा अधिक पायी जाती है क्योंकि किशोरियाँ ही सेक्स में समर्पित भूमिका का निर्वाह करती हैं। वह किशोरों से आक्रामक भूमिका की अपेक्षा अवश्य करती हैं । ” (Both buys and girls experience jealousy in their hetro-sexual relationships at this age. In the case of girls, however, the jealousy is likely to be more intense than in the case of boys because it is tney who must play the passive role and not take aggressive steps to hold on to what they want as boys do)
  4. जिज्ञासा (Curiosity)- किशोरावस्था तक बालक की प्राकृतिक जिज्ञासा का दमन वातावरण के प्रतिबन्धों के कारण हो जाता है । किशोरावस्था की वृद्धि के साथ-साथ यह दमन बढ़ता जाता है । किशोरावस्था के नये-नये परिवर्तन अवश्य उसकी जिज्ञासा को उद्दीप्त करने का कार्य करते हैं, अतः केवल कुछ उद्दीपकों के प्रात ही वह जिज्ञासा प्रदर्शित करता है । किशोरावस्था में आयु वृद्धि के साथ-साथ विपरीत लिंग के लोगों के सम्बन्ध में जिज्ञासा बढ़ती जाती है क्योंकि नये लोगों से ही उसे नये अनुभव अधिक और रुचिपूर्ण प्राप्त होते हैं ।
  5. स्नेह (Affection) — बहुधा यह देखा गया है कि किशोर उस व्यक्ति के प्रति अधि क स्नेह प्रदर्शित करते हैं जिससे उसके सुखद सम्बन्ध होते हैं या जो उससे स्नेह करता है, उसकी सुरक्षा करता है । बोसार्ड और बॉल (J. H. S. Bossard & E. S. Boll; 1966) के अनुसार, “एक सामान्य नियम है कि परिवार के सदस्यों और किशोर के मध्य स्नेहपूर्ण सम्बन्ध बाल्यावस्था की अपेक्षा कम शक्तिशाली होते हैं क्योंकि इस किशोरावस्था में परिवार के सदस्यों से यह स्नेहपूर्ण सम्बन्ध कुछ तनावपूर्ण होते हैं” (As a general rule, the affectional relationship with members of the family is less strong adolescent that typically exist at this time) । किशोरावस्था में आयु वृद्धि के साथ-साथ किशोरों का स्नेह विपरीत लिंग के लोगों की ओर केन्द्रित होता चला जाता है । परन्तु यह कोई नियम नहीं है कि हमेशा विपरीत लिंग के लोगों के साथ किशोरों के सम्बन्ध स्नेहपूर्ण ही हों। कई बार वह अपने ही लिंग के परिचित या मित्रों की मण्डली बनाकर उससे ही स्नेह प्राप्त करते हैं । की विवेचना करें ।

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