कार्ल रोजर्स के सामाजिक-आर्थिक सिद्धान्त की विवेचना करें ।
उत्तर – कार्ल रोजर्स (Carl Rogers) का जन्म 8 जनवरी 1902 में ओकपार्क (अमेरिका) में हुआ । उन्होंने एक मनोचिकित्सक का कार्य करते हुए व्यक्तियों की समस्या का निराकरण वास्तविक तरीके से खोज निकाला और स्पष्ट किया कि व्यक्ति का स्व ही केन्द्रीय तत्त्व है । इसके द्वारा ही व्यक्ति अपने वातावरण से अवगत होता है तथा इसी के माध्यम से वह अपने विचारों, संवेगों को आत्मसात् करता है । रोजर्स का सिद्धान्त मानव की सकारात्मक प्रकृति की अवधारणा पर आधारित है । यह विश्वास किया जाता है कि मानव मूल रूप से विवेकशील, सामाजिक, गतिशील, अग्रणी तथा यथार्थवादी है । ये सकारात्मक प्रवृत्तियाँ आत्म-सिद्धि की मूल प्रेरणाएँ समझी जा सकती हैं। कार्ल रोजर्स ने व्यक्तित्व के जिस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है वह घटना विज्ञान पर आधारित है । यह वह विज्ञान है जिसमें व्यक्ति की अनुभूतियों, भावों, मनोवृत्तियों तथा स्वयं अपने बारे में या आत्मन तथा दूसरों के बारे में व्यक्तिगत विचारों का अध्ययन विशेष रूप से किया जाता है। रोजर्स के इस सिद्धान्त को आत्मन सिद्धान्त या व्यक्ति केन्द्रित सिद्धान्त भी कहा जाता है ।
कार्ल रोजर्स ने इस सिद्धान्त को 1947 में अपने क्लीनिक में रोगियों का अध्ययन करके प्रस्तुत किया । उन्होंने इस बात पर बल दिया कि व्यक्ति अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है । उनका विश्वास था कि व्यवहार आवश्यकताओं या चालकों पर निर्भर नहीं करता बल्कि उसके अन्दर विद्यमान उस तीव्र चालक बल पर निर्भर करता है जो उसे विभिन्न तरीकों से व्यवहार करने के लिए बाध्य करता है ।
व्यक्तित्व की व्याख्या के लिए मानवतावादी सिद्धान्त का प्रतिपादन कार्ल रोजर्स एवं अब्राहम मैस्लो की विचारधाराओं से हुआ है। यह सिद्धान्त व्यक्तित्व का विकास में स्व की अवधारणा एवं व्यक्ति की वैयक्तिक अनुभूतियों को ही सर्वाधिक महत्त्व देता है । इस सिद्धान्त के समर्थकों ने मनोविश्लेषण तथा व्यवहारवादियों पर यह आरोप लगाया है कि इन लोगों ने व्यक्ति के विकास को पूर्णतया यांत्रिक प्रक्रिया बना दिया है । रोजर्स एवं मैस्लो का विचार है कि व्यक्ति एक असहाय प्राणी नहीं है कि आन्तरिक मूल प्रवृत्तियाँ और बाह्य पर्यावरण जैसा चाहें वैसा उन्हें बनाते हैं। इनके अनुसार, व्यक्तित्व का विकास इस पर निर्भर करता है कि व्यक्ति किस रूप में स्वयं अपने आपको तथा अपनी अनुभूतियों को समझता है और विश्व के बारे में उसके विचार किस प्रकार के हैं। रोजर्स ने व्यक्तित्व की व्याख्या में आत्म या स्व को सर्वाधिक महत्त्व दिया है। आत्म से तात्पर्य उन सभी विशेषताओं से है जो किसी व्यक्ति में पाई जाती हैं। इसका व्यक्ति के प्रत्यक्षीकरण तथा व्यवहार पर प्रभाव पड़ता है। यह व्यवहार का निर्धारक है। व्यक्ति उसी रूप में व्यवहार करना चाहते हैं जो उनके आत्म से मेल खाते हैं और अवांछित कार्यों को चेतना में नहीं आने देते हैं । इस वास्तविक आत्म के अतिरिक्त रोजर्स ने आदर्श आत्म की भी कल्पना की है। दोनों में जितना ही मेल होगा, व्यक्तित्व उतना ही संगठित होगा । आत्म के विकास पर सामाजिक मूल्यांकन का भी प्रभाव पड़ता है ।
रोजर्स के व्यक्तित्व सिद्धान्त के निम्नांकित भागों में विभक्त किया जा सकता है—
(1) व्यक्तित्व की संरचना (Structure of Personality) — रोजर्स ने अपने सिद्धान्त में व्यक्तित्व संरचना के दो महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर प्रकाश डाला है । ये दो पहलू हैं—
(i) प्राणी ( Organism) — रोजर्स के अनुसार प्राणी एक ऐसा जीव है जो शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक दोनों ही तरह से कार्य करता है । इसमें प्रासंगिक क्षेत्र तथा आत्मन् दोनों ही सम्मिलित होते हैं । रोजर्स का मानना है कि प्राणी सभी तरह की अनुभूतियों का केन्द्र होता है। सभी प्रकार की चेतन तथा अचेतन अनुभूतियों के योग से जिस क्षेत्र का निर्माण होता है उसे प्रासंगिक क्षेत्र कहा जाता है। मानव व्यवहार के होने का कारण यही क्षेत्र होता है न कि कोई बाह्य उद्दीपक । इस क्षेत्र की मुख्य विशेषता यह होती है कि इसके बारे में स्वयं व्यक्ति ही सही-सही जानता है कोई दूसरा व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के क्षेत्र के बारे में नहीं जान सकता है ।
(ii) आत्मन (Self) — आत्मन् प्रासंगित क्षेत्र का एक विशिष्ट भाग होता है। रोजर्स के अनुसार व्यक्ति में आत्मन् नहीं होता है बल्कि स्वयं आत्मन् का अर्थ ही सम्पूर्ण प्राणी से होता है । आत्मन् का विकास शैशवास्था में होता है जब शिशु की अनुभूतियों में या “मुझको” के रूप में धीरे-धीरे विशिष्ट होने लगती हैं। परिणामतः शिशु धीरे-धीरे अपनी पहचान से अवगत होने लगता है। उसे अच्छे-बुरे, सुखद दुखद का ज्ञान होने लगता है । रोजर्स के अनुसार आत्मन् के दो उपतंत्र हैं, जो इस प्रकार हैं—
(अ) आत्म संप्रत्यय (Self Concept) — आत्म-संप्रत्यय से तात्पर्य व्यक्ति के उन सभी पहलूओं एवं अनुभूतियों से होता है जिनसे व्यक्ति अवगत रहता है । आत्म-संप्रत्यय को व्यक्ति कुछ विशेष कथनों के रूप में व्यक्त करता है, जैसे—’मैं’ एक ऐसा व्यक्ति हूँ जो……. । आत्म-संप्रत्यय की दो विशेषताएँ होती है— पहली यह कि आत्म-संप्रत्यय का एक बार निर्माण हो जाने पर उसमें आसान से परिवर्तन नहीं होता। दूसरी विशेषता यह है कि व्यक्ति का आत्म-संप्रत्यय उसके वास्तविक आत्मन् से भिन्न होता है ।
(ब) आदर्श-आत्मन् (Ideal Self) – आदर्श-आत्मन् से तात्पर्य अपने बारे में विकसित की गई ऐसी बात से होता है जिसे वह आदर्श मानता है। दूसरे शब्दों में, आदर्श – आत्मन् में वे सभी गुण आते हैं जो प्रायः धनात्मक होते हैं तथा जिन्हें व्यक्ति आने में विकसित होने की तमन्ना करता है। रोजर्स के अनुसार आदर्श आत्मन् तथा प्रत्याशित आत्मन् में एक सामान्य व्यक्तित्व की दृष्टि से कोई अन्तर नहीं होता है ।
2. व्यक्तित्व की गतिकी (Dynamics of Personality) — रोजर्स ने व्यक्तित्व की गतिकी की व्याख्या करने के लिए एक महत्त्वपूर्ण प्रेरक का वर्णन किया है जिसे वस्तुवादी प्रवृत्ति कहा गया है । यह एक ऐसा अभिप्रेरक होता है जो व्यक्ति को अपने आत्म् को उन्नत बनाने में प्रोत्साहन का कार्य करता है । इस प्रवृत्ति के कुछ मुख्य गुण अग्र प्रकार से हैं —
(1) यह शरीर की देहिक क्रियाओं में सबसे सुदृढ़ होती है । यह व्यक्ति की आवश्कताओं जैसे—भूख, प्यास आदि की आवश्यकता की तो पूर्ति करता ही है साथ ही, शरीर के अंगों की संरचना एवं कार्यों को भी मजबूती प्रदान करता है ।
(2) इस प्रवृत्ति उद्देश्य मात्र तनाव में कमी करना नहीं है बलिक इससे तनाव में वृद्धि भी होती है जिसका सम्बन्ध लक्ष्य प्राप्ति से होता है ।
(3) यह प्रवृत्ति मानव तथा पशुओं दोनों में ही होती है ।
(4) यह प्रवृत्ति एक ऐसी कसौटी के रूप में कार्य करती है जिसके आधार पर जिन्दगी की अनुभूतियों की परख की जा सकती है ।
रोजर्स के अनुसार व्यक्तित्व की दो मुख्य आवश्यकताएँ होती हैं जो लक्ष्य प्राप्ति में महत्त्वपूर्ण योगदान रखती हैं । वे हैं—
(1) अनुरक्षण आवश्यकता (Maintenance Need) — इन आवश्यकताओं के माध्यम से व्यक्ति अपने आपको ठीक ढंग से रखना सीख जाता है । वह अपनी मूल आवश्यकताओं भूख, प्यास, हवा, सुरक्षा की संतुष्टि के प्रति जागरूक रहता है । वह अपने आत्म संप्रत्यय का भी ध्यान रखता है तथा उन अनुभूतियों को कोई महत्त्व नहीं देता जो उसके आत्म संप्रत्यय के अनुकूल नहीं होती ।
(2) संवृद्धि आवश्यकता (Enhancement Need) — यद्यपि व्यक्ति अपने आरम्भ संप्रत्यय को यथावत् बनाए रखना चाहता है फिर भी उसमें अपने आप को पहले से और अधिक उन्नत बनाने की एक प्रेरणा बलवती रहती है। रोजर्स ने इसे संवृद्धि आवश्यकता का नाम दिया है जिसकी अभिव्यक्ति कई रूपों में देखने को मिलती है ।
रोजर्स का मत है कि यूँ तो वस्तुवादी प्रवृद्धि से बहुत सी आवश्यकताओं की उत्पत्ति होती है लेकिन इनमें दो प्रमुख हैं—
स्वीकारात्मक सम्मान से तात्पर्य दूसरों द्वारा स्वीकार किए जाने, दूसरों का स्नेह पाने, उनके द्वारा पसन्द किए जाने से है । इस प्रकार की आवश्यकता का स्वरूप पारस्परिक होता है । यह आवश्यकता दो प्रकार की होती है शर्तपूर्ण तथा शर्तरहित । रोजर्स ने शर्तहित सम्मान पर अधिक बल दिया है ।
आत्म-सम्मान से तात्पर्य यह है कि व्यक्ति स्वयं को सम्मान एवं स्नेह देने की आवश्यकता महसूस करता है । कहने का तात्पर्य यह है कि जब व्यक्ति को महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों से मान-सम्मान मिलता है तो इससे धनात्मक आत्म-सम्मान की भावना प्रबल होती है। इस प्रकार इस आवश्यकता की उत्पत्ति स्वीकारात्मक सम्मान की आवश्यकता से ही होती है ।
संक्षेप में, रोजर्स के अनुसार प्राणी लगातार अपने स्व का विस्तार करने में प्रयासरत रहता है और इस प्रक्रिया में वह अपनी आत्म-सिद्धि की शक्ति को पहचानने लगता है। स्व का विकास वातावरण सम्बन्धी अन्तर वैयक्तिक एवं सामाजिक अनुभवों सम्बन्धी प्रक्रिया के तहत होता है । आत्म-सिद्धि की क्षमता को पहचानने के लिए चार शर्तें हैं जो निम्न हैं—
3. व्यक्तित्व का विकास (Development of Personality) — रोजर्स ने फ्रायड एवं एरिक्सन के समान व्यक्तित्व विकास का वर्णन विभिन्न चरणों या अवस्थाओं में नहीं किया है। उन्होंने व्यक्तित्व विकास में आत्मन् तथा व्यक्तित्व की अनुभूतियों में संगति को महत्त्वपूर्ण माना है । जब इन दोनों में अन्तर आ जाता है तो व्यक्ति में चिन्ता उत्पन्न हो जाती है तथा व्यक्ति इस चिन्ता से बचने के लिए कुछ बचाव प्रतिक्रियाएँ प्रारम्भ कर देता है । ये बचाव प्रतिक्रियाएँ दो प्रकार की होती हैं— विकृति तथा खण्डन । विकृति में व्यक्ति अपनी अनुभूतियों की अनुपयुक्त व्याख्या करता है ताकि वह आत्म संप्रत्यय के अनुकूल दिख सके । खंडन में व्यक्ति विरोधी अनुभूतियों को चेतना में लाने से ही इन्कार कर देता है । परिणामतः व्यक्ति में चिन्ता की मात्रा कम हो जाती है। इन दोनों प्रकार के उपायों का अधिक प्रयोग करने से व्यक्ति में बढ़त का विकास हो जाता है ।
साथ ही, यदि व्यक्ति की अनुभूतियों एवं आत्म संप्रत्यय में कोई अन्तर नहीं होता तो ऐसी स्थिति में एक स्वस्थ व्यक्ति का विकास होता है। इस तरह के व्यक्तित्व को रोजर्स ने पूर्ण सफल व्यक्ति की संज्ञा दी है । रोजर्स के अनुसार पूर्ण सफल व्यक्ति में निम्नलिखित गुण होते हैं—
- ऐसे व्यक्तियों को अपनी क्षमताओं की सही जानकारी होती है जिसका वे उचित प्रयोग करते हैं ।
- ऐसे व्यक्ति अपनी धनात्मक एवं ऋणात्मक दोनों प्रकार की अनुभूतियों की अभिव्यक्ति स्पष्ट तरीके से करते हैं। वे अनुभूतियों का दमन नहीं करते ।
- ऐसे व्यक्ति जिंदगी के प्रत्येक क्षण की सही-सही उपयोग करते हैं तथा प्रत्येक क्षण में वे एक नया अनुभव प्राप्त करते हैं ।
- ऐसे व्यक्ति कोई भी व्यवहार पूर्ण विश्वास के साथ करते हैं। उन्हें अपने व्यवहार की सार्थकता पर पूर्ण विश्वास होता है। ऐसे व्यक्ति व्यवहार करते समय सामाजिक मानकों पर कम ध्यान देते हैं ।
- ऐसे व्यक्ति किसी भी कार्य को करने में पूर्ण स्वतंत्र होते हैं तथा अपने व्यवहार एवं उसके परिणाम के स्वयं जिम्मेदार होते हैं ।
- ऐसे व्यक्ति सृजनात्मक प्रवृत्ति (creative) के होते हैं ।
- इस सिद्धान्त का कक्षागत शिक्षण में विशेष महत्त्व है ।
- इस सिद्धान्त मनोचिकित्सा के क्षेत्र में अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुआ है ।
- इस सिद्धान्त की प्रमुख विशेषता आत्मन् पर बल दिया जाना है जिसके दर्शन हमें व्यक्तित्व के किसी अन्य सिद्धान्त में नहीं होते ।
- इस सिद्धान्त में आन्तरिक संगति पर विशेष बल दिया गया है तथा प्रत्येक संप्रत्यय को ठीक से परिभाषित करने का प्रयास किया गया है ।
- इस सिद्धान्त मानवतावादी आन्दोलन के रूप में हमारे सामने उभर कर आया है जो अपने आप में अनूठा है ।
- इस सिद्धान्त भविष्य के व्यक्तित्व सिद्धान्तवादियों के लिए एक पथ-प्रदर्शक के रूप में कार्य करेगा जो निःसन्देह इस सिद्धान्त के महत्त्व पर प्रकाश डालता है ।
- इस सिद्धान्त फ्रॉयड तथा एरिक्सन के सिद्धान्त से बिल्कुल भिन्न हैं ।
उपरोक्त विशेषताओं के अतिरिक्त इन सिद्धान्त की अपनी कुछ परिसीमाएँ भी हैं, जो इस प्रकार हैं –
- इस सिद्धान्त के संवृद्धि तथा वस्तुवादिता दो प्रमुख आधार हैं लेकिन रोजर्स इन दोनों की कोई संतोषजनक व्याख्या नहीं कर पाये ।
- रोजर्स ने व्यक्तित्व के अध्ययन का सबसे उत्तम तरीका व्यक्ति की अनुभूतियों की परख को माना है। आलोचक उनके इस तरीके को सही नहीं मानते ।
- इस सिद्धान्त की उपचारात्मक कार्यों में उपयोगिता अवश्य प्रमाणित होती है लेकिन इसका आत्म-सिद्धि का संप्रत्यय अस्पष्ट है तथा इससे व्यवहार की सूक्ष्म व्याख्या करने में सहायता की सम्भावना कम ही रहती है ।
- इस सिद्धान्त ने व्यवहारवादियों की कुछ ज्यादा ही उपेक्षा की है जो उचित प्रतीत नहीं होता ।
- इस सिद्धान्त की वैज्ञानिक वैधता भी प्रमाणित नहीं हो पायी है।
इन आलोचनाओं के बावजूद की रोजर्स का व्यक्तित्वं सिद्धान्त व्यक्तित्व के क्षेत्र में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है तथा व्यक्तित्व विकास को एक नए आयाम पर प्रतिष्ठित करने का भरपूर प्रयास करता है जो अपने आप में सराहनीय है।
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