सामाजिक परिवर्तन में स्कूल के योगदान का वर्णन करें ।
उत्तर – स्कूल शब्द की उत्पत्ति एक ग्रीक शब्द ‘Skhole’ से हुई है । इस शब्द का अर्थ है—‘अवकाश’ (Leisure) । प्राचीन यूनान ( Greece) में अवकाश के स्थानों को ही स्कूल के नाम से पुकारा जाता था । अवकाश शब्द का स्पष्टीकरण करते हुए ए. एफ. लीच (A. F. Leach) ने लिखा है, “वाद-विवाद या वार्ता के स्थान जहाँ एथेन्स (Athens) के नौजवान अपने अवकाश के समय खेल-कूद, व्यायाम और युद्ध के प्रशिक्षण में व्यतीत करते थे । धीरे-धीरे ये स्थान दर्शन तथा उच्च कक्षा के स्कूलों में बदल गए । एकेडमी (Academy) के सुन्दर बागों में व्यतीत किए जाने वाले अवकाश के माध्यम से वर्तमान स्कूल का विकास हुआ।”
स्कूल एक सामाजिक संस्था के रूप में : विद्यालय समाज का निर्माता (School an Organisation of Society : School as Builder of the Society) — भारतीय शिक्षा आयोग (1964) ने अनुभव किया, “भारत के भाग्य का निर्माण इस समय उसकी कक्षाओं में हो रहा है । हमारा विश्वास है कि यह कोई चमत्कारी शक्ति अथवा आलंकारिक (Rhetoric) नहीं है । विज्ञान और आत्म-ज्ञान पर आधारित इस दुनिया में शिक्षा ही लोगों की खुशहाली, कल्याण तथा सुरक्षा के स्तर का निर्धारण करती है। हमारे स्कूलों और कॉलेजों से निकलने वाले विद्यार्थियों की योग्यता तथा संख्या पर ही राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के उस महत्त्वपूर्ण कार्य की सफलता निर्भर रहेगी, जिसका प्रमुख लक्ष्य हमारे रहन-सहन का स्तर ऊँचा उठाना है ।
विद्यालय समाज की एक महत्त्वपूर्ण संस्था है । इस संस्था द्वारा ही समाज उन्नति के पथ पर अग्रसर होता है। विद्यालय एक ऐसा स्थान है, जहाँ पर कल के नागरिक, जिन पर राष्ट्र तथा समाज का भावी भार है, शिक्षा प्राप्त करते हैं ।
विद्यालय बच्चों के लिए इस प्रकार के वातावरण की सृष्टि करता है जिसमें पलकर वे अच्छे नागरिक बन सकें, अपने तथा समाज के जीवन को सुखमय बना सकें । विद्यालय बच्चों के आचार, विचार तथा चरित्र पर बहुत ही महत्त्वपूर्ण प्रभाव डालता है ।
समाज के प्रति स्कूल के महत्त्व, कार्य तथा स्वरूप के बारे में विद्वानों के मत –
- एच. जी. वेल्स (H. G. Wells) का कहना है, “ऐसा समाज बिगड़ा हुआ समाज ही माना जाएगा जिसके विद्यालय सुचारू रूप से नहीं चलाए जाते । दूसरे शब्दों में विद्यालय ही समाज की उन्नति तथा अवनति का सूचक है । “
- जॉन ड्यवी (John Deway) ने कहा है, “जो कुछ सबसे श्रेष्ठ और बुद्धिमान माता-पिता अपने बालक के लिए चाहते हैं वही समाज अपने बालकों के लिए चाहता है । हमारे विद्यालयों के लिए कोई अन्य आदर्श संकुचित और अप्रिय है और यदि इस पर व्यवहार किया जाए तो यह हमारे जनतन्त्र को नष्ट करेगा ।”
- टी. पी. नन (T. P. Nunn) के अनुसार, “स्कूल को मुख्य रूप से इस प्रकार का स्थान नहीं समझना चाहिए जहाँ निश्चित ज्ञान को सिखाया जाता है वरन् ऐसा स्थान जहाँ बालकों को कुछ विशेष प्रकार के क्रियाशीलनों में अनुशासित किया जाता है । ये क्रियाशीलन इस सुविस्तृत विश्व में अत्यन्त स्थायी महत्त्व के हैं । “
- जे. बी. रॉस (J. B. Ross) के शब्दों में, “स्कूल वे संस्थाएँ हैं, जिनको समाज ने इस दृष्टि से स्थापित किया है कि समाज को सुव्यवस्थित तथा योग्य सदस्यता के लिए बालकों की तैयारी में सहायता मिले । “
- एस. बालाकृष्णन् जोशी (S. Balakrishnan Joshi) के शब्दों में, “विद्यालय को सारे सामाजिक जीवन का ‘सुन्दर सार’ कहा जाता है, क्योंकि इसमें समाज का प्रत्येक अंग, जिससे समाज बनता है, सम्मिलित है । वास्तव में विद्यालय समाज का एक छोटा, किन्तु आदर्श अंग है, जिसमें समाज के क्रियाकलाप बच्चों की योग्यतानुसार उनके सामने रखे जाते हैं । विद्यालय का वातावरण शुद्ध, पवित्र तथा कपटरहित होना चाहिए ताकि बच्चों में सद्गुणों की सृष्टि तथा विकास हो सके । सदा इस बात पर जोर दिया जाना चाहिए कि बच्चे आपस में प्रेमपूर्वक रहें। सारांश में, एक सुसंचालित विद्यालय एक सुखी परिवार, एक पवित्र मन्दिर, एक सामाजिक केन्द्र, लघु रूप में एक राज्य और मनमोहक वृन्दावन है, जिसमें छात्रों का सुन्दर प्रशिक्षण होता है । “
- जॉन ड्यूवी (John Dewey) ने लिखा है, “विद्यालय एक ऐसा विशिष्ट वातावरण है, जहाँ जीवन के कुछ गुणों और कुछ विशेष प्रकार की क्रियाओं तथा व्यवसायों की शिक्षा इस उद्देश्य से दी जाती है कि बालक का विकास वांछित दिशा में हो।”
विद्यालय बाह्य जीवन का एक संक्षिप्त रूप है। प्रोफसेर ड्यूबी के अनुसार विद्यालय का कार्य समाज़ के कार्यकलापों को सरल, शुद्ध और सन्तुलित ढंग से प्रस्तुत करना है ताकि बच्चा उन्हें सरलता से सीख सके । अतः समाज के जटिल कार्यों को उसके सामने सरल एवं क्रमिक रूप में प्रस्तुत किया जाना चाहिए ।
के. जी. सैयदेन के अनुसार विद्यालय प्रबल जीवन का केंन्द्र है। यह चारों ओर के जीवन की वास्तविकताओं से निकट से सम्बन्धित है और वह उसकी अत्युत्तम और महत्त्वपूर्ण विशेषताओं को प्रदर्शित करता है जो बालक को सरलतापूर्वक आकर्षित करती हैं ।
परम्परागत स्कूल तथा वर्तमान स्कूल (Traditional School and Modern School ) –
परम्परागत स्कूल – एच. जी. वेल्स ने कहा है, “यदि तुम यह अनुभव करते हो कि राष्ट्र शीघ्रता से विनाश की ओर जा रहा है तो तुम्हें अपने मन और मस्तिष्क को प्राइवेट स्कूलों पर लगाना होगा ।” यह बात इंग्लैण्ड के तात्कालिक व्यक्तिगत विद्यालयों को देखकर कही गयी थी, वहाँ के वर्तमान काल के स्कूलों पर यह बात चरितार्थ नहीं होती, परन्तु यह बात हमारे अधिकांश व्यक्तिगत तथा सार्वजनिक विद्यालयों के लिए पूर्णरूपेण सत्य है ।
भूतकाल में स्कूल को ज्ञान का उत्पादन स्थान समझा जाता था और यह ज्ञान पुस्तकीय, यान्त्रिक और रूढ़िगत होता था, शिक्षा की एकरूपता के कारण बच्चे की व्यक्तिगत आवश्यकताओं को ध्यान में नहीं रखा जाता था । स्कूलों में कण्ठस्थ करने को ही प्राथमिकता दी जाती थी | बच्चों को बेजान जानवरों की तरह समझा जाता था । स्कूलों में शिक्षा देने का प्रमुख साधन ‘डण्डा’ ही था । स्कूलों में ‘भय’ का वातावरण रहता था ।
अध्यापक को ‘पुलिसमैन’ और कवायद कराने वाला समझा जाता था। पाठ्यक्रम सहभागिनी क्रियाओं की ओर कोई महत्त्व नहीं दिया जाता था । माता-पिता का सहयोग प्राप्त करने के लिए कोई प्रयत्न नहीं किए जाते थे ।
पेस्टालॉजी ने ठीक ही लिखा है कि “हमारे अपने अवैज्ञानिक स्कूल बालकों को उनके प्राकृतिक जीवन से दूर कर देते हैं, स्वतन्त्रता को निरंकुशता से रोक देते हैं और उन्हें अनाकर्षक बातों को याद करने के लिए भेड़ों के समान हाँकते हैं और घण्टों, दिनों, सप्ताहों, महीनों और वर्षों तक दर्दनाक जंजीरों से बाँध देते हैं ।
वर्तमान विद्यालय के कार्य – स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत के वर्तमान विद्यालयों के कार्यों में अत्यधिक परिवर्तन आ गया है। हमारा देश जनतान्त्रिक आदर्शों पर विश्वास करने वाला है। देश के नागरिकों पर जनतान्त्रिक दृष्टिकोण उनके ऊपर उत्तरदायित्व डालता है । यह प्रेम, सहयोग, सहनशीलता, पक्षपातरहित, सत्यवादिता और समान भावनाओं पर आधारित रहता है। हमारा देश अनेक विश्वासों, जातियों और समुदायों का देश है । यदि जनतन्त्र को जीवित रखना है तो शिक्षा में उन निश्चित गुणों को जीवित रखना होगा जो इसके जीवित रहने के लिए अनिवार्य हैं। किसी व्यक्ति को जिस समुदाय का वह सदस्य हो, वहाँ स्वतन्त्रता एवं प्रभावपूर्ण ढंग से कार्य करने का अवसर दिया जाना चाहिए । शिक्षा एक शिक्षा सामाजिक क्रिया है। डॉ. राधाकृष्णन् के मतानुसार सम्पूर्ण शिक्षा सामाजिक है, तकनीकी दक्षता एवं सास्कृतिक परम्पराओं को एक पीढ़ी को देने का साधन है । उस शिक्षा का कोई महत्त्व नहीं, जो किसी व्यक्ति को समाज में मेल और सहयोग के साथ रहने के लिए सहायक नहीं होती रवीन्द्रनाथ टैगोर इस प्रकार कहते हैं, “सच्ची शिक्षा वह है जो हमें न केवल ज्ञान प्रदान करती है, वरन् हमारा अपने चारों ओर के अस्तित्व के साथ समन्वय करती है । ”
शिक्षा के परम्परागत ‘तीन आर’ का स्थान ‘सात आर’ ने ले लिया है; जैसे— पढ़ना, लिखना, गणित, मनोरंजन, कर्त्तव्य, उत्तरदायित्व और सम्बन्ध (Reading, Writing, Arithmetic, Recreation, Responsibilities, Rights and Relationships) ।
वर्तमान स्कूल बच्चों की मानसिक, शारीरिक, सौन्दर्यात्मक, आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की पूर्ति का प्रयास करता है । थियोडोर रूजवेल्ट ने लिखा है, “हमारे राष्ट्र के लिए जो भी कार्य किया गया या किया जा सकता है उसमें सर्वश्रेष्ठ कार्य उन बच्चों के शरीर, मस्तिष्क और सबसे अधिक चरित्रों को शिक्षित करना है तथा उन्हें आध्यात्मिक और चारित्रिक प्रशिक्षण देना है जिन्हें आने वाले कुछ वर्षों में राष्ट्र के भाग्य का निर्णायक होना है।”
स्कूल को परिवार की ‘लम्बी बाँह’ कहा गया है। अध्यापक ‘मित्र, दार्शनिक और मार्गदर्शक’ का कार्य करता है, बच्चे के लिए पर्याप्त अवसर प्रस्तुत किए जाते हैं, जिससे वह अपनी आयु के बच्चों के साथ सहयोग के आधार पर खेल और व्यवहार कर सके ।
बच्चों के वैयक्तिक भेदों को देखा जाता है और उनके लिए विभिन्न प्रकार के पाठ्यक्रम प्रस्तुत किए जाते हैं। विद्यालय पाठ्यक्रम को क्रियाकलापों की दृष्टि से देखा जाता है न कि विषयों की दृष्टि से । अंग्रेजी, गणित और हिन्दी जैसे विषयों के अतिरिक्त विद्यालय के पाठ्यक्रम में सहभागिनी क्रियाओं को भी स्थान मिलता है । इस पाठ्यक्रम सहगामिनी क्रियाओं का अन्य विषयों की तरह ही महत्त्वपूर्ण समझा जाता है ।
नवीन शिक्षा प्रणाली; जैसे— डाल्टन विधि, योजना विधि, ह्यूरिस्ट विधि, मॉण्टेसरी विधि आदि ने हमारी शिक्षण पद्धति में अत्यधिक परिवर्तन कर दिया है ।
वर्तमान स्कूलों के सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख कार्य (Main Functions of the Present Day School in Social Change ) – वर्तमान स्कूलों के कार्यों का संक्षेप में वर्णन इस प्रकार दिया जा सकता है—
- सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार ( According to the Needs of Society ) — इसे समाज की आवश्यकताओं और समस्याओं पर आधारित होना चाहिए । समाज के सभी महत्त्वपूर्ण क्रियाकलाप स्कूल के कार्यक्रमों में प्रदर्शित होने चाहिए । स्कूल को बाह्य जीवन के विभिन्न पक्षों से सम्बन्धित होना चाहिए ।
- चयनात्मक वातावरण ( Selective Environment) — स्कूल को चयनात्मक वातावरण प्रस्तुत करना चाहिए। बाहरी जीवन के वास्तविक महत्त्वपूर्ण एवं जटिल कार्यों को सन्तुलित, शुद्ध एवं सरल रूप में स्कूल जीवन में प्रस्तुत करना चाहिए, भूतकाल के विसंगत एवं अप्रचलित अनुभवों को त्याग देना चाहिए।
- लोकतन्त्रीय मूल्यों का विकास (Development of Democratic Values)स्कूल को अपने विभिन्न कार्यों द्वारा छात्रों को लोकतान्त्रिक समाज के लिए तैयार करना चाहिए। उन्हें ‘सहयोग के साथ रहने की कला’ से अवगत कराना चाहिए और जाति, रंग व वर्ग-भेद से होने वाली बुराइयों से भी अवगत कराना चाहिए। प्रजातान्त्रिक एवं धर्मनिरपेक्ष समाज के उत्तरदायी सदस्यों के कर्त्तव्यों एवं अधिकारों का भी विद्यार्थी को ज्ञान कराना चाहिए ।
- उपयुक्त राष्ट्रीयता (Appropriate Nationality) — इसे उचित प्रकार की राष्ट्रीयता की भावना छात्रों में उत्पन्न करनी चाहिए ।
- छात्रों की विभिन्न रुचियों का विकास (Development of Children’s Interests ) — इसे छात्रों की विभिन्न प्रकार की रुचियों और रुझानों की आवश्यकताओं की पूर्ति करनी चाहिए ।
- व्यावसायिक क्षमता का विकास (Development of Vocational Capacity)— इसे छात्रों की व्यावसायिक आवश्यकताओं की भी पूर्ति करनी चाहिए ।
- चरित्र निर्माण – इसे छात्रों को चारित्रिक एवं आध्यात्मिक शिक्षा भी देनी चाहिए ।
- स्व – अनुशासन – स्कूल स्व- अनुशासन पर बल दे ।
- क्रियाओं का केन्द्र (Hub of Activities ) – स्कूल प्रयोगशाला, फार्म तथा पुस्तकालय आदि क्रियाकलापों का केन्द्र बनें ।
- मानवीय मूल्यों का विकास (Development of Human Relations) — स्कूल स्वस्थ मानवीय सम्बन्ध पर बल दें ।
- सेवा केन्द्र (Community Centre) — स्कूल समुदाय सेवा का केन्द्रक बनें ।
- प्रौढ़ शिक्षा का प्रसार (Spread of Adult Education) — भारत में अधिकांश लोग गाँवों में रहते हैं । वे अशिक्षित भी हैं । अतः गाँव के स्कूलों पर विशेष उत्तरदायित्व है कि वे यहाँ शिक्षा का प्रसार करें और गाँव के अन्धकार को दूर करें । ऐसा तभी हो सकता है, जबकि इन स्कूलों के पाठ्यक्रम में विशेष परिवर्तन हो ।
- ग्रामीणों में जागरूकता (Awareness in Villages ) — समय-समय पर स्कूलों के छात्रों तथा अध्यापकों को ग्रामीणों के पास जाकर उन्हें स्वास्थ्य के सामान्य सिद्धान्तों का भी परिचय कराना चाहिए ।
- अध्यापक की भूमिका (Role of Teachers) — प्रौढ़ शिक्षा के प्रसार के लिए विद्यालय के अध्यापकों को पूरा प्रयत्न करना चाहिए । यह कार्य प्रदर्शनी, समाचार-पत्रों, नाटक और ग्राम्य पुस्तकालयों द्वारा किया जा सकता है।
निष्कर्ष – एस. बालकृष्णन् जोशी के विचार एक आदर्श स्कूल का इस प्रकार चित्र प्रस्तुत करते हैं— स्कूल ईंट और गारे की बनी हुई इमारत नहीं है। स्कूल बाजार नहीं है । जहाँ विभिन्न योग्यताओं वाले अनिच्छुक व्यक्तियों को ज्ञान प्रदान किया जाता है। स्कूल रेल का प्लेटफार्म नहीं है जहाँ विभिन्न उद्देश्यों से विभिन्न व्यक्तियों की भीड़ जमा होती है। स्कूल कठोर सुधारगृह नहीं है, जहाँ किशोर अपराधियों पर कड़ी निगरानी रखी जाती है। स्कूल अध्यात्मिक संगठन है, जिसका अपना स्वयं का विशिष्ट व्यक्तित्व है। स्कूल गतिशील सामुदायिक केन्द्र है, जो चारों ओर जीवन और शक्ति का संचार करता है। स्कूल एक आश्चर्यजनक भवन है, जिसका आधार सद्भावना है; जैसे— जनता की सद्भावना, माता-पिता की सद्भावना, छात्रों की सद्भावना । सारांश में, एक सुसंचालित विद्यालय – एक सुखी परिवार, एक पवित्र मन्दिर, एक सामाजिक केन्द्र, लघु रूप में एक राज्य और मनमोहक वृन्दावन है, जिसमें इन सब गुणों का सुन्दर मिश्रण होता है ।
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