मध्ययुगीन भारतीय आर्य भाषाओं का विकास दिखाते हुए उनकी विशिष्ट रचनाओं का भी उल्लेख कीजिए।

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प्रश्न – मध्ययुगीन भारतीय आर्य भाषाओं का विकास दिखाते हुए उनकी विशिष्ट रचनाओं का भी उल्लेख कीजिए। 
उत्तर – मध्ययुगीन भारतीय आर्य भाषाओं का समय 500 ई. पू. से 1000 ई. तक माना गया है। अनेक विद्वानों की मान्यता है कि इस काल में संस्कृत का पराभव होकर प्राकृत का प्रभाव और प्रसार बढ़ा। संस्कृत के प्राचीन युग में प्राकृत जन-साधारण की बोलचाल की भाषा थी। इसी कारण उसमें साहित्य की रचना नहीं हुई। प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों में उनका प्रयोग निम्न वर्ग, सेवक, नारी आदि द्वारा बोली जाने वाली अशिष्ट भाषा के उदाहरण के रूप में ही कहीं-कहीं मिलता है। परन्तु यह भाष जनता अपनी मूल भाषा, वैदिक भाषा से सदैव निकट सम्पर्क स्थापित करने का प्रयत्न किया- ये हम पिछले प्रश्न में बता आये हैं। मध्ययुग में आकर इस भाषा ने क्रमशः साहित्यिक रूप धारण किया और इसका विकास तीव्र गति से हुआ। अपने 1500 वर्षों के जीवन में इसके रूपों में तीन प्रमुख परिवर्तन हुए। इनमें पहला रूप पालि, दूसरा रूप साहित्यिक प्राकृत तथा तीसरा रूप अपभ्रंश कहलाया। कुछ विद्वान इन रूपों को क्रमशः प्रथम प्राकृत, द्वितीय प्राकृत और तृतीय प्राकृत भी कहते हैं। समष्टि रूप से हम मध्य युग को ‘प्राकृत-युग’ के नाम से सम्बोधित कर सकते हैं। प्राकृत-युग कहने से स्पष्ट हो जाता है कि इस काल की भाषा के तीनों रूप संस्कृत से उत्पन्न न होकर वैदिक भाषा की परम्परा में ही रहे। उन्होंने संस्कृत से प्रेरणा ग्रहण कर उसके शब्द-भण्डार का उपयोग तो किया, परन्तु अपनी प्रकृति अक्षुण्ण बनाए रखा। यहाँ ‘प्राकृत’ शब्द से हमारा अभिप्राय जन – सामान्य की बोलचाल की भाषा से है, न कि साहित्य की प्राकृत, पाली आदि भाषाओं से | हिन्दी इस परम्परा की अन्तिम कड़ी है। अतः जो विद्वान हिन्दी को एकदम संस्कृत बना देना चाहते हैं, वे यह भूल जाते हैं कि अपनी परम्परानुसार हिन्दी संस्कृत से भिन्न है । वह भाषा की उस परम्परा की उत्तराधिकारिणी है जो जन-साधारण की भाषा रही है, इसलिए यदि हिन्दी को वर्तमान राष्ट्रभाषा के उपयुक्त बनाना है तो हमें संस्कृत का मोह छोड़कर उसका रूप जन-साधारण की भाषा का ही रखना पड़ेगा। वस्तुतः साहित्यिक प्राकृत धार्मिक प्रतिद्वन्द्विता के कारण एक कृत्रिम भाषा के रूप में ही विकसित हुई थी और संस्कृत से पूर्णरूपेण प्रभावित थी। उसका व्याकरण और शब्द-भण्डार संस्कृत से प्रभावित था। अन्तर केवल इतना था कि प्राकृत में संस्कृत के शब्दों का रूप विकृत कर दिया गया था और उसका व्याकरण अपेक्षाकृत अधिक संक्षिप्त और सरल था। उसमें लोक भाषा का विकसनशीलता वाला गुण या रूप नहीं मिलता। हिन्दी प्राकृत या अपभ्रंश से विकसित न होकर उस युग की जन-साधारण की बोलचाल की भाषा से ही विकसित हुई थी।
विद्वानों ने प्राकृत के उपर्युक्त तीनों रूपों के आधार पर मध्य युग को तीन कालों में विभाजित किया है —
1. आदिकाल प्रथम प्राकृत अथवा पालि (500 ई. पू. तक ) ।
2. मध्यकाल – साहित्यिक प्राकृत भाषाएँ अथवा दूसरी प्राकृत ( 1 ई. से 500 ई. तक ) ।
3. उत्तरकाल— तीसरी प्राकृत अथवा अपभ्रंश भाषाएँ (500 ई. से 1000 ई. तक ) ।
आदिकाल – प्रथम प्राकृत
बोलचाल की भाषा का सबसे प्राचीन उपलब्ध हल्का सा रूप हमें अशोक के शिलालेखों तथा प्रचीन बौद्ध और जैन ग्रन्थों में मिलता है। इस काल में भी बोली-भेद था। इन धर्मग्रनथों की भाषा से यह स्पष्ट होता है कि उस समय उत्तर भारत में बोली के तीन भिन्न रूप थे – पूर्वी, पश्चिमी और पश्चिमोत्तरी । दक्षिणी रूप का कोई उल्लेख नहीं मिलता। परन्तु इन धर्मग्रन्थों की भाषा को देखने से यह नहीं प्रतीत होता है कि वह किसी बोली का प्रथम साहित्यिक रूप हो । इस विषय में डॉ. धीरेन्द्र वर्मा का मत है— ” मध्यकाल के उदाहरण अधिक मात्रा में पहले-पहल अशोक की धर्मलिपियों (शिलालेखों) में पाये जाते हैं। यहाँ यह प्राकृतिक प्रारम्भिक अवस्था में नहीं है, किन्तु पूर्ण विकसित रूप में है।” इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि “यह भाषा इससे पहले ही साहित्यिक रूप प्राप्त कर चुकी थी। बौद्धों की पालि ही उसका प्रथम साहित्यिक रूप नहीं था। परन्तु उस सम्भावित पहले रूप के प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। इस भाषा को जब बौद्ध मत के प्रभाव से साहित्यिक और धार्मिक रूप प्राप्त हुआ तो यह ‘पालि’ कहलाने लगी। पालि शब्द की उत्पत्ति संस्कृत ‘पंक्ति’ शब्द से हुई है।” पहले ‘त्रिपिटक’ की मूल पंक्तियों के लिए इसका प्रयोग होता था। पंक्ति से पंति = पत्ती = पट्टी = पाटी = पालि यह रूप हुआ है। इस पालि को पंक्ति, मागधी या मागधी निरुक्ति भी कहते थे । बौद्ध लोग पालि को आदि भाषा मानते थे। उनका कहना है’आदि काल में उन्नत मनुष्य गण, ब्रह्मगण, बुद्धगण एवं वे व्यक्तिगत जिन्होंने कभी कोई शब्दालाप नहीं सुना, जिसके द्वारा भाव – प्रकाशन किया करते थे, वही मागधी भाषा मूल भाषा है।” बौद्धों का यह आग्रह धार्मिक आग्रह मात्र है। सभी धर्मों के अनुयायी अपने धर्म-ग्रन्थों की भाषा को ही विश्व की आदि भाषा मानते आये हैं।
‘प्राकृत’ शब्द के दो अर्थ माने गये हैं— पहला, जनभाषा ( प्रकृति जनानां भाषा प्राकृतम्), दूसरा प्रकृति या मूल से उत्पन्न, अर्थात् संस्कृत की पुत्री । पहले अर्थ के अनुसार वेद से पहले भी प्राकृतें थीं, जिनमें से एक आगे चलकर ऋग्वेदीय साहित्यिक भाषा बन गई। सामान्य बोलचाल की प्राकृत भाषाएँ अपने साहित्यिक रूपों से प्रभावित होती थीं और उन्हें प्रभावित करती थीं। वेदों में अनेक प्राकृत शब्द और प्रयोग मिलते हैं। कुछ विद्वान प्राकृत को संस्कृत से प्राचीन मानते हैं। काव्यालंकार के टीकाकार नमिसाधु ने प्राकृत को जन-सामान्य का सहज वाग्व्यापार (परस्पर बोलचाल का साधन) माना है। इसमें व्याकरण के नियमों का पालन आवश्यक नहीं था। इस प्रकार जनसामान्य की भाषा को ‘प्राकृत’ कहा जा सकता है। अपभ्रंश के काव्य ‘गउडबहो’ (गरुड़ वध) के रचयिता वाक्पतिराय ने प्राकृत को समस्त भाषाओं का उद्गम और अन्त माना था।
पालि की उत्पत्ति के विषय में चन्द्रबली पाण्डेय का मत दृष्टव्य है। आप कहते हैं – “प्राकृतों के महत्त्व का प्रधान कारण यह हुआ कि व्रात्यों में दो ऐसे पंथ निकल आये जो परम्परा के पालन करने अथवा ब्राह्मण भक्त बनने में उतने प्रसन्न न थे, जितना कि अपना मार्ग निकालने या मनुष्य मात्र को निर्वाण दिलाने में मग्न | निदान उन्होंने द्विजी को त्याग ‘मानुषी’ को अपना लिया। आरम्भव में ‘मागधी’ का व्यवहार रहा, पर सम्प्रदाय की माँग उससे पूरी न हो सकी। मागधी थी भी मानुषी भाषा। स्वयं गौतम की प्राकृत वाणी उससे भिन्न थी। मागधी पालि से सर्वथा भिन्न मगध देश की भाषा थी। इसी कारण बौद्ध ग्रन्थों में मागधी को ‘मानव भाषा’ कहा है और पालि को ‘देवगणों की भाषा’। जब बौद्धों को एक व्यापक राष्ट्रभाषा की आवश्यकता पड़ी, तब उनकी दृष्टि भाषा के शिष्ट तथा चलित रूप पर पड़ी। उसके शिष्ट रूप का ग्रहण तो इसलिए असम्भ था कि वह द्विजों की वाणी थी और जनता से कुछ दूर थी। मागधी का प्रचार इसलिए असम्भव था कि वह प्रान्तीय तथा अति सामान्य भाषा थी। निदान निश्चित हुआ कि देववाणी के चलित या मानुषी रूप को ग्रहण किया जाय।” पालि के प्रकृति – विवेचन से प्रकट होता है कि पालि पंक्ति या लिखित भाषा थी। अतः हम उसे कहीं की चलित अर्थात् बोलचाल की भाषा नहीं कह सकते। हाँ, इतना अवश्य कह सकते हैं कि वह ब्रह्मर्षिदेश और अन्तर्वेद की चलित भाषा के आधार पर बनी थी और साम्प्रदायिक आग्रह के कारण कुछ मागधी भी हो गई थी। बौद्धकाल की वही राजभाषा थी और चलित राष्ट्रभाषा भी। पालि के विषय में अभी तक यह विवाद चल रहा है कि वह पूर्वी प्रदेश की भाषा थी या पश्चिमी प्रदेश की ? उसके कृत्रिम रूप का यह एक प्रबल प्रमाण है। अधिकांश विद्वानों ने उसे पश्चिमी प्रदेश की ही भाषा माना है क्योंकि गौतम बुद्ध पूर्वी भारत के निवासी थे अतःपालि को उनकी मातृभाषा या जन-सामान्य की भाषा नहीं माना जा सकता।
पालि में बौद्धधर्म के मूलग्रन्थ, अन्य टीकाएँ तथा पर्याप्त कथा – साहित्य, काव्य, कोश, व्याकरण आदि हैं। धम्मपद एवं जातक-पालि के प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं। इस भाषा में भी बोली-भेद है। एक ही शब्द के अनेक रूप मिलते हैं। स् का सर्वत्र अस्तित्व और श का अभाव, र्का अस्तित्व और लू से भेद, इस बात को प्रमाणित करते हैं कि यह पश्चिमी भाग की भाषा है। त्रिपिटक के भी सभी अंश एक ही समय के लिखे हुए नहीं हैं ।
अशोकी प्राकृत – अशोक के शिलालेख भारत के सभी भागों में पाये जाते हैं। इनकी भाषा का समष्टि रूप से नाम ‘अशोकी प्राकृत’ पड़ गया है। इनमें उत्तर-पश्चिमी, मध्यदेशी और पूर्वी बोलियों के रूप मिलते हैं। सम्भव है, इन लेखों का मूल अर्द्ध मागधी में रहा हो और जिन-जिन प्रदेशों में ये शिलालेख खोदे गये हों, वहीं की बोलियों में उनका अनुवाद कर दिया गया हो। डाक्टर श्यामसुन्दरदास भी उस काल में चार बोलियों का अस्तित्व स्वीकार करते हैं। इन लेखों की लिपियाँ भी दो -ब्राह्मी और खरोष्ठी |
पालि और अशोकी प्राकृत की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
1. प्राचीन काल की ऋ, ऌ, ऐ और औ ध्वनियों का लोप ।
2. ऐ और औ के स्थान पर ए और ओ का प्रयोग ।
3. संयुक्त व्यंजनों की अनुरूपता; जैसे- धर्म का धम्म
4. विसर्ग और अन्तिम व्यंजनों का लोप ।
5. ‘र’ ध्वनियों के साथ आने वाली ‘त’ वर्गीय ध्वनियाँ क्रमश: ट वर्ग में बदल गईं, जैसे- प्रथम = पठम।
6. प के स्थान पर ज और व के स्थान पर ब का प्रयोग।
7. केवल एक स् का प्रयोग ।
8. संगीतात्मक स्वराघात का लोप-बलात्मक स्वराघात की प्रवृत्ति ।
9. द्विवचन का लोप ।
10. संज्ञाओं में अकारान्त की प्रवृत्ति ।
11. कालों, कारकों और वाच्यों के अपेक्षाकृत कम रूपों का प्रयोग।
12. क्रियार्थक संज्ञा का अधिक प्रयोग।
मध्यकाल – दूसरी या साहित्यिक प्राकृत 
पालि के उपरान्त दूसरी प्राकृत अथवा साहित्यिक प्राकृत के दर्शन होते हैं। उसमें प्रचुर साहित्य की रचना हुई, अतः विद्वानों ने उसे ‘साहित्यिक प्राकृत’ के नाम से पुकारा। भरत मुनि ने सात प्राकृतों का उल्लेख किया है- शौरसेनी, मागधी, अर्द्धमागधी, दक्षिणात्या, बाल्हीकी, आवन्ती और प्राच्या । इनमें से स्थान – वेद के नाम से इसके चार प्रमुख रूप मिलते हैं- महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी और अर्द्धमागधी । परन्तु और भी गहराई से देखने पर इस काल की प्राकृतों के अन्य अनेक रूप मिलते हैं, जो कि निम्नलिखित हैं –
1. पैशाची प्राकृत
2. खेतानी प्राकृत
3. केकय प्राकृत
4. खश प्राकृत
5. पालि मागधी
6. लाटी प्राकृत ।
इस प्रकार कुल प्राकृतों की संख्या दस के लगभग पहुँच जाती है। ये भारत के भिन्न-भिन्न प्रदेशों की भाषाएँ थीं। उपर्युक्त चार प्रमुख प्राकृतों के अतिरिक्त भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेश में पैशाची प्राकृत का बहुत प्रभाव रहा है। इसका विवेचन आगे चलकर प्रसंगानुकूल किया जायेगा। डॉ. बाबूराम सक्सेना ने छ: और प्राकृतों का उल्लेख किया है। आपका मत है-इन प्रधान प्राकृतों के अलावा नाटकों में जहाँ-तहाँ अन्य प्राकृतों के कुछ अवतरण और व्याकरणों में उनके कुछ लक्षण मिलते हैं। मृच्छकटिक में शांकारी, टक्की और अन्यत्र शायरी और चाण्डाली पाई जाती है। आभीरिका और अवन्ती का भी उल्लेख मिलता है। इनमें से प्रथम दो मागधी के ही कोई भेद हैं। शाबरी और चाण्डाली नामों से जाति-विशेष की भाषा का भास होता है पर ये मागधी की ही विशेष बोलियाँ धीं। इसी तरह आभीरिका अहीर जाति की बोली रही होगी। आवन्ती उज्जैन की प्राकृत थी । “
अब हम पहले चार प्रमुख प्राकृतों का विवेचन कर लें; यथा—
महाराष्ट्री–साम्प्रदायिकों अर्थात् बौद्ध विद्वानों ने जहाँ मागधी और अर्द्ध-मागधी पर जोर दिया है, वहाँ वैयाकरणों ने महाराष्ट्री को ही मूल प्राकृत माना है। वैयाकरणों ने उसी को प्रमुख और आदर्श प्राकृत मानकर उसी के आधार पर प्राकृत के सामान्य लक्षण निर्धारित किये थे। हार्नली उसे एक जनपदीय या प्रादेशिक भाषा न मान, उत्तर भारत की राष्ट्रभाषा मानते हैं। संस्कृत के सत्रहवीं शताब्दी के विद्वान श्रीराम शर्मा ने तो उसे ‘हेतु भाषा’ माना है। ‘प्राकृत प्रकाश’ में भी महाराष्ट्री को ही प्रमुख माना गया है। वररुचि ने तो महाराष्ट्री का निरूपण कर शेष प्राकृतों का परिचय उसी के आधार पर दे दिया है।
मागधी मागधी का प्रचार मगध (आधुनिक बिहार) में था । संस्कृत के नाटकों में नीच पात्र इसी भाषा का प्रयोग करते थे। संसार के लगभग सभी बौद्ध पालि को ही मागधी के नाम से जानते हैं। प्राचीन काल में अवध से लेकर अंग (दक्षिण बिहार) तक के लोगों को ‘प्राच्य’ कहा जाता था। इस भाषा का विकास दो रूपों में हुआ— पश्चिमी प्राच्या और पूर्वी प्राच्या प्राकृत वैयाकरणों ने पश्चिमी प्राच्या को अर्द्धमागधी और पूर्वी प्राच्या को मागधी नाम दिया है। बौद्धों की पालि और मागधी प्राकृत का परस्पर कोई वास्तविक सम्बन्ध नहीं रहा है, क्योंकि मागधी के कुछ लक्षण पालि में अपवाद स्वरूप मिलते हैं, उनका प्राचुर्य नहीं है, दूसरे, मागधी प्राकृत में साहित्य का अभाव है। उसका प्रयोग केवल नाटकों में निम्न स्तर के पात्रों की बोली के रूप में और व्याकरणों में उदाहरण के रूप में किया गया है। अतः साहित्यिक प्राकृतों में मागधी का कोई महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं माना जा सकता। इसका महत्त्व केवल इस कारण है कि इससे मध्य और पूर्वी बिहार की बोलियों का विकास हुआ है ।
अर्द्ध-मागधी- इसकी स्थिति पश्चिम में शौरसेनी और पूर्व में मागधी के मध्य मानी गई है। प्राचीन काल में इस भाषा का प्रभुत्व और महत्त्व इस कारण बढ़ा, क्योंकि महावीर स्वामी ने इस बोल में अपने सम्प्रदाय का प्रचार किया था। गौतम बुद्ध की भी यही मातृभाषा थी। अशोक के शिलालेखों में इसकी विशेषताएँ मिलती है। डॉक्टर सक्सेना तो इसी को अशोक के शिलालेखों की मूल भाषा मानते हैं। मागधी के भी कुछ लक्षण इसमें मिलते हैं। अशोक के समय यह राजभाषा थी, इस कारण तत्कालीन अन्य भाषाओं पर इसका प्रभाव दिखाई पड़ता है। जैनों का तो यह मत है कि इसी से प्राणिमात्र की सम्पूर्ण भाषाएँ उत्पन्न हुई थीं। महावीर स्वामी ने इसे सर्वबोध्य बनाने के लिए इसमें अन्य अनेक भाषाओं के सामान्य शब्दों का प्रयोग किया था। यह भाषा मागधी और शौरसेनी के बीच वाले प्रदेश की भाषा थी। इस कारण कुछ विद्वान् इसकी उत्पत्ति इन दोनों के मिश्रण से मानते हैं। परन्तु वास्तविकता दूसरी है। यह कुछ अंशों में तो मागधी और महाराष्ट्री प्राकृतों से मिलती है परन्तु शौरसेनी से तो इसमें बहुत बड़ा भेद है। ऋमदीश्वर का मत है कि महाराष्ट्री के मिश्रण से इसकी उत्पत्ति हुई। अस्तु, यह सिद्ध हो जाता है कि शौरसेनी से इसका कोई सम्बन्ध नहीं रहा। कुछ विद्वानों का मत है कि अर्द्धमागधी से ही कालान्तर में अर्द्ध-मागधी अपभ्रंश और उससे वर्तमान समय की पूर्वी हिन्दी अर्थात् अवधी, बघेली आदि बोलियाँ विकसित हुई हैं।
शौरसेनी–डाक्टर सक्सेना इसे प्राकृतों में सबसे समृद्ध मानते हैं। उनका मत है कि यह संस्कृत की समकक्ष स्टैण्डर्ड भाषा थी। इसका प्रसार क्षेत्र अधिक विस्तृत था। यह मध्यप्रदेश की प्राकृत थी। डॉ. हरदेव बाहरी इसी को समस्त पश्चिमी हिन्दी की बोलियों की जननी मानते हैं। शूरसेन देश (ब्रजमण्डल) में प्रचलित होने के कारण यह शौरसेनी कहलाई। मध्यप्रदेश में ही साहित्यिक संस्कृत का अभ्युदय हुआ था, और यहीं की बोलचाल की भाषा से शौरसेनी का विकास हुआ। महाराष्ट्री काव्य की भाषा रही। अन्य प्राकृत राजनीतिक अथवा साम्प्रदायिक प्रभुत्व के कारण कुछ समय तक प्रधानता पाती रहीं, परन्तु कालान्तर में इस प्रभुत्व के समाप्त हो जाने पर उनका महत्त्व भी घट गया। शौरसेनी का मध्यप्रदेश की धार्मिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक भाषा, संस्कृत से घनिष्ठ सम्बन्ध था, इसी कारण उसका व्यापक प्रचार हुआ। वैयाकरणों ने उसे ही अन्य प्राकृतों की ‘प्रकृति’ कहा है। वास्तव में वही भारत की प्रचलित राष्ट्रभाषा थी। उसी के सहारे सामान्य जनता परस्पर भाव-विनिमय किया करती थी।
पैशाची प्राकृत-वररुचि ने प्राकृतों के अन्तर्गत चार भाषाएँ गिनाई हैं—महाराष्ट्री पैशाची, मागधी और शौरसेनी हेमचन्द्र भी चार रूप मानते हैं- आर्य अर्थात् अर्द्धमागधी, चूलिका, पैशाचिका और अपभ्रंश । ‘प्राकृत-लक्षणम्’ में षड् भाषाएँ मानी गयी हैं। ‘पिशाचिकी’ का भी उल्लेख है। भरत मुनि ने इसे ‘वाल्हीका’ कहा है। इनमें से पैशाची को अमर बना देने में शालिवाहन राजा के राजकवि गुणाढ्य का सबसे बड़ा हाथ रहा है। उसने अपनी ‘वृहत्कथा’ ‘बड्ड कहा’ के नाम से पैशाची में ही लिखी थी। इसी के कारण काव्य और वाङ्मय में उसकी चर्चा नित्य होती रही। भाषा चतुष्टय एवं षड्भाषाओं में भी उसे स्थान मिला। कश्मीर का उत्तरी प्रान्त पिशाच कहलाता था। ‘बड्ड कहा’ वहीं लिखी गयी थी। अतः पैशाची कश्मीर की भाषा थी। कुछ लोग इसे पश्चिमोत्तर प्रदेश की तथा कुछ राजपूताना और मध्य भारत की भाषा भी मानते हैं। वैयाकरणों ने पैशाची के अनेक उपभेदों का उल्लेख किया है। पैशाची के लक्षण प्राकृत व्याकरणों में पाए जाते हैं। मार्कण्डेय और राजशर्मा ने इसका विशेष उल्लेख किया है। उसके अनुसार पैशाची की मुख्य लक्षण यह है कि संस्कृत स्वरों के बीच में आने वाले सघोष स्पर्ष वर्ण अघोष हो जाते हैं, गगनं = गकनं, मेघों = मेखों आदि।
तीसरी प्राकृत या अपभ्रंश भाषाएँ
दूसरी प्राकृति का विकास होते-होते उस भाषा की उत्पत्ति हुई, जिसे साहित्यिक अपभ्रंश कहते हैं। अपभ्रंश का अर्थ है- भ्रष्ट हुई, बिगड़ी हुई भाषा संस्कृत वैयाकरणों ने संस्कृत से भिन्न समस्त भाषाओं को ‘अपभ्रष्ट’ कहा है, किन्तु आधुनिक विद्वान् अपभ्रंश का रूढार्थ ‘आभीरों आदि की भाषा’ मानते हैं। इसका विकास बोलचाल की ग्रामीण भाषा के रूप में हुआ था। भाशाशास्त्री जिसे विकास कहते हैं, उसे ही वैयाकरण भ्रष्ट होना या बिगड़ना कहते हैं। जब प्राकृत को भी व्याकरण से जकड़ दिया गया तो वह संस्कृत के समान स्थिर हो गयी, परन्तु जनसाधारण की भाषा बराबर आगे विकसित होती रही। लोग जो प्राकृत या बोलचाल की भाषा बोलते थे, उसका विकास बन्द नहीं हुआ। साहित्यिक प्राकृत के आचार्यों ने इसी भाषा को अपभ्रंश कहा है।
‘प्रारम्भ में अपभ्रंश शब्द किसी भाषा के लिए प्रयुक्त नहीं होता था। साक्षर लोग निरक्षरों की भाषा के शब्दों को अपभ्रंश, अपशब्द या अपभ्रष्ट कहा करते थे। ” – श्यामसुन्दरदास
एक ओर तो मध्यवर्ती भाषाओं (पालि, शौरसेनी तथा अन्य प्राकृतों) का रूप होकर साहित्य में अवरुद्ध होता चला गया और दूसरी ओर साधारण जनता भाषा के प्रचलित और प्रादेशिक रूपों को निरन्तर अपनाती रही। इस नवीन लक्षणवती भाषा का नाम अपभ्रष्ट या अपभ्रंश पड़ गया। आचार्य दण्डी काव्य में आभीरादि की वाणी को अपभ्रंश कहते हैं। उन्होंने उसे वाङ्मय का अंग भी माना है। भरत मुनि ने इस ‘उकार बहुला’ भाषा का विधान तो कर दिया, पर नाटककारों ने इसे महत्त्व नहीं दिया। 10वीं शताब्दी में राजशेखर ने अपभ्रंश कवियों को पश्चिम की प्रचलित भाषा थी। चन्द्रबली पाण्डेय अपभ्रंश की उत्पत्ति के विषय में लिखते हैं—“ शकादिक पिशाचों ने शूरसेन को अपना प्रान्त बना लिया। उनके सम्पर्क में आने से शौरसेनी की शुद्धता जाती रही। उसमें भी कुछ पैशाची का मेल हो गया। आभीर, गुर्जर प्रभृति जातियों के जम जाने से शौरसेनी में जो विकास उत्पन्न हुए, उन्हें लक्ष्य करके इस भ्रष्ट भाषा का नाम अपभ्रष्ट पड़ा। यही अपभ्रष्ट भाषा आगे चलकर अवहट्ट  के रूप में प्रचलित हुई । “
धीरे-धीरे जब इस नवीन भाषा ने साहित्यिक प्रभुत्व प्राप्त कर लिया तो यह उत्तर भारत की राष्ट्रभाषा बन गई। इसके राष्ट्रभाषा बनने के करण निम्नलिखित थे(1) उसका राष्ट्रभाषा की परम्परागत भाषा के वश में होना । (2) उस पैशाची भाषा से लगाव रखना जो कभी अपभ्रंश – भाषी प्रान्तों की राजभाषा थी और शकादिकों के साथ देश के अनेक भागों में फैल गई थी। (3) यह सहसा राज्याश्रय को प्राप्त कर राजपूतों के साथ देश-देशान्तरों में फैल गई। इसकी इसी लोकप्रियता को देखकर विद्यापति ने अपने ‘कीर्तिलता’ नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ का इसी भाषा में निर्माण किया था। यह देश के एक बड़े भू-खण्ड की भाषा थी। शौरसेनी भी इससे प्रभावित थी । वस्तुतः यह मध्य प्रदेश, राजस्थान, पंचनद और गुजरात की साहित्यिक भाषा थी। गुजराती नागर ब्राह्मणों के साथ यह दक्षिण में पहुँच गई थी। अपभ्रंश की अनेक विद्वान वर्तमान हिन्दी की जननी मानते हैं। आरम्भ में तुर्कों ने इसे ‘रेखता’ नाम दिया। रेखता का अर्थ ‘अपभ्रंश’ भी माना जाता है। राजपूतों के उदय से संस्कृत का प्रभाव पुनः बढ़ा। अपभ्रंश उसके समक्ष ठहरने में समर्थ थी। संस्कृत उसे भी समेट कर आगे बढ़ना चाहती थी, परन्तु मुस्लिम प्रभुत्व बढ़ जाने से फारसी ने उसे आ दबोचा। संस्कृत घिर गई और अपभ्रंश हिन्दी के रूप में आगे बढ़ी।” – चन्द्रबली पाण्डेय
विद्वानों ने अपभ्रंश के कई भेद माने हैं। मार्कण्डेय तीन प्रकार की अपभ्रंश मानते हैं- नागर, ब्राचड़ और उपनागर। कुछ विद्वानों का मत है कि स्थान – भेद के अनुसार प्राकृत के जितने भेद थे, उतने ही अपभ्रंशों के हुए – यह सम्भव हो सकता है । परन्तु शास्त्रों में जिन भाषा को अपभ्रंश की संज्ञा दी गई है, वह एक विस्तृत और व्यापक राजभाषा थी। इसका प्रसार सन्धि से लेकर बिहार तक था । बहुत-सी प्राकृतें तो कुछ दिन जीवित रह कर लुप्त हो गईं। शौरसेनी अपभ्रंश उस समय सर्वव्यापक भाषा थी । विद्यापति की ‘अवहट्ट’ शौरसेनी अपभ्रंश का ही नया रूप मानी जाती है। इस प्रकार यह अपभ्रंश उस समय के समस्त आर्यों की राष्ट्रभाषा थी, जिसका प्रसार डॉक्टर श्यामसुन्दर दास के शब्दों में, गुजरात और पश्चिमी पंजाब से लेकर बंगाल तक था । विद्यापति की ‘अवहट्ट’ उसका ही विकसित रूप थी।
उपर्युक्त विशेषताओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि साहित्यिक अपभ्रंश जन-साधारण की बोलचाल की भाषा से प्रभावित हो, जनभाषा की ओर बढ़ रही थी। जनभाषा का रूप प्राय: वियोगात्मक रहा है और अब भी है। अपभ्रंश धीरे-धीरे संयोगात्मक रूप से वियोगात्मक रूप की ओर बढ़ती हुई अपने कृत्रिम रूप को छोड़ती जा रही थी ।
इस प्रकार अपभ्रंश अपना कृत्रिम एवं दुरुह रूप त्याग जनभाषा के अधिकाधिक समीप आती जा रही थी; और उसका वही लौकिक विकसित रूप आगे चलकर आधुनिक उत्तर भारतीय साहित्यक भाषाओं के रूप में मूर्तिमान हुआ। इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि जन-सामान्य की भाषाएँ अपभ्रंश के उस सरस रूप को आत्मसात् करती हुई साहित्य के क्षेत्र में प्रवेश पाने लगी थीं।
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