पियाजे की भाषा विकास अथवा संज्ञानात्मक विकास की प्रक्रिया स्पष्ट कीजिए

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प्रश्न – पियाजे की भाषा विकास अथवा संज्ञानात्मक विकास की प्रक्रिया स्पष्ट कीजिए |
उत्तर – ज्यां पियाजे (J. Piaje) (1896-1980)
इस सदी में में स्विस (Switzerland) निवासी मनोवैज्ञानिक ज्यां पियाजे ने अपने शोध प्रयोगों द्वारा बाल-मनोविज्ञान सम्बन्धी क्रान्तिकारी सिद्धान्त प्रतिपादित किए हैं। पियाजे ने बच्चों के मन की परतों को उधेड़ा और उनके सीखने की प्रक्रिया की सूक्ष्म व्याख्या की है। पियाजे के क्रान्तिकारी विचारों ने शिक्षाविदों को शिक्षाक्रम, पाठ्य पुस्तकों और शिक्षण सामग्री सम्बन्धी प्रचलित अवधारणाओं में मूलभूत परिवर्तन करने को उत्प्रेरित किया है।
बचपन और किशोरावस्था के दौरान उन्होंने ऊँचे दर्जे की बौद्धिक प्रौढ़ता का परिचय दिया। जब वे दस वर्ष के थे तो पब्लिक पार्क में देखी गोरैया पर उनका पहला विवरणात्मकं खेल छपा था। 15 वर्ष की उम्र में जेनेवा के संग्रहालय में मोलस्क विभाग के क्यूरेटर बने। 18 वर्ष की उम्र में नेक्टाल विश्वविद्यालय से डिग्री प्राप्त कर ली। अगले तीन वर्षों में प्राकृति विज्ञान विषय में डाक्टरेटर की डिग्री ली। 21 वर्ष की उम्र तक पियाजे के 20 शोध लेख प्रकाशित हो चुके थे। पियाजे ने लगभग 40 पुस्तकें लिखी हैं, जिनमें अधिकांश बालक के सीखने सम्बन्धी हैं।
प्रकृति विज्ञान के अध्ययन से मनोविज्ञान का अध्ययन – प्रकृति विज्ञान के अलावा पियाजे ने समाजाशास्त्र, धर्म एवं दर्शनशास्त्र का गहन अध्ययन किया । दर्शनशास्त्र से ही उनकी रुचि ज्ञान-मीमांसा (एपिस्टेमोलोजी) की ओर प्रवृत्त हुई । प्राणि – विज्ञान तो पियाजे का आधार था ही। उन्होंने सोचा कि क्यों न ज्ञान – मीमांसा सम्बन्धी समस्याओं के समाधान हेतु जीव-विज्ञान के सिद्धान्तों का उपयोग किया जाए। वस्तुतः ज्ञान-मीमांसा व प्राणि – विज्ञान के मध्य किसी सेतु की तलाश करते-करते वे मनोविज्ञान के लोक में जा पहुँचे।
बच्चों का संज्ञानात्मक विकास– डाक्टरेट करने के पश्चात् पियाजे मनोविज्ञान का अध्ययन करने की इच्छा से यूरोप की प्रयोगशालाओं, क्लिनिक एवं विश्वविद्यालयों में गए। इसी बीच कुछ अर्से तक पेरिस में अल्फ्रेड बिने (Alfred Binnet) की प्रयोगशाला में उन्होंने काम किया। फ्रेंच स्कूली बच्चों की बुद्धि परीक्षा लेते-लेते जिस बात ने उनका ध्यान खींचा, वह थी बच्चों के गलत उत्तर । पियाजे सोचने लगे कि बच्चे गलत उत्तर क्यों देते हैं, बच्चे सोचते कैसे हैं ? ज्ञान कैसे हासिल करते हैं ? पियाजे की इसी जिज्ञासा ने संज्ञानात्मक विकास (Cognitive Development) के लिए महान् कार्य की ओर उन्हें प्रेरित किया।
पियाजे ने बच्चों की गतिविधियों का बहुत नजदीकी से बारीक अध्ययन किया। बच्चे चाहे घरों में हों या स्कूलों में, जिन क्षणों में अत्यन्त सहज व स्वाभावित रूप से पढ़ते-लिखते, खेलते-खाते पियाजे उन्हें घण्टों तक अनथक रूप से देखते रहते । विभिन्न आयु वर्ग के बच्चों की हरकतें अनवरत रूप से देखने और मिनट-दर- मिनट उनका लेखा-जोखा रखने का काम अत्यन्त कठिन था, पर पियाजे वर्षों तक इसे अभिरुचि व आनन्दपूर्वक करते रहे। तब उन्होंने मानव मस्तिष्क के एक सर्वथा अनछुए क्षेत्र के सम्बन्ध में एक नई दृष्टि दुनिया के सामने रखी, जिसे …………(कॉग्निटिव डेवलपमेंट) के नाम से जानते हैं ।
पियाजे का कहना है कि बुद्धि का विकास जन्म के…..
ज्यो-ज्यों शरीर एवं अवयवों का विकास होता रहता है त्यों-त्यों स्वभाव ………… होती रहती है। लेकिन इस विकास के लिए उपर्युक्त क्रियाएँ जरूरी हैं। ……… साथ ही अंग एवं अवयव संचालन आदि दैहिक क्रियाओं से लैस होकर आता है, ………..आगे चलकर उन्हें सोचने-विचारने का एक पूरा तन्त्र प्रदान करता है ।
मानसिक विकास के चरण– बच्चे जन्म से लेकर किशोरावस्था तक किस तरीके से सोचते हैं, इस पक्ष पर पर्याप्त खोज करने के पश्चात् पियाजे ने बच्चों के विभिन्न आयु वर्ग के बीच उनके मानसिक विकास की क्रमिकता को देखा, परखा और उसे चार चरणों में विभाजित किया।
पहला चरण – जन्म से लेकर दो वर्ष की आयु तक के चरण में इन्द्रियों के जरिये बच्चा प्राथमिक अनुभव प्राप्त करता है। बाहरी वातावरण और उसकी इन्द्रियों के बीच पारस्परिक आदान-प्रदान होने से इस चरण में मानसिक क्रियायें घटित होती हैं। प्रारम्भ में चीजों का होना न होना उसके लिए कोई अर्थ नहीं रखता। किसी वस्तु को देखते-देखते जब वह चीज आँखों से ओझल हो जाती है तो बच्चे के लिए उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। शैशवावस्था में बच्चा शुद्ध तात्कालिक अनुभवों तक सीमित रहता है। इन्द्रिय एवं गतिबोध के इस प्रारम्भिक चरण की समाप्ति अनुभवों तक सीमित रहता है। इन्द्रिय एवं गतिबोध के इस प्रारम्भिक चरण की समाप्ति तक चारों ओर के वातावरण में वह निरन्तर अनुभव करने लगता है। बगैर भाषा के अपने अनुभवों को व्यक्त करने का इन्द्रियों के अतिरिक्त उसके पास कोई और तरीका नहीं होता। वस्तुओं को एकदम देखता जायेगा, भूख लगेगी तो चीखेगा। इस भय में होने वाली समस्त इन्द्रिय एवं अवयव सम्बन्धित क्रियायें ही उसकी बौद्धिक क्रियायें होंगी।
दूसरा चरण (दो से सात वर्ष) – इस चरण में बच्चे की सोचने की क्षमता में परिवर्तन आता है। अपने चारों ओर देखने वाली चीजों के बारे में वह सोचना शुरू करता है। प्रतीकों (Symbols) का सहारा लेने लगता है। अनेक प्रकार के प्रतीकों उसकी याददाश्त में जुड़ते जाते हैं। शब्दों का उच्चारण करने लगता है। कई बार तो एक ही शब्द कई वस्तुओं के लिये व्यवहार में लाता है। अन्तः बोध के इस दूसरे चरण में बच्चे की पहचान क्षमता में परिवर्तन आने लगता है। शब्दज्ञान में भारी वृद्धि होती है। न सिर्फ शब्दों की समझ बढ़ती है अपितु वह स्वतः उनका प्रयोग भी करने लगता है। दो वर्ष का औसत बच्चा 200-300 शब्दों की समझ रखता है। जबकि पाँच वर्ष की उम्र तक शब्द में 100 प्रतिशत वृद्धि देखने में आती है। दो वर्ष का बच्चा एक या दो शब्दों का वाक्य बोलता है जबकि साल भर के अन्दर – अन्दर आठ से दस शब्दों का वाक्य बोलने की क्षमता अर्जित कर लेता है और वह भी व्याकरण की दृष्टि से बिल्कुल सही ।
भाषा शिक्षण को लेकर इस चरण में बच्चे में जबरदस्त परिवर्तन देखा जाता है, बड़े बुजुर्गों से बातचीत करना, छोटे-छोटे गीत गाना और इस प्रकार स्वयं को सम्प्रेषित करना बच्चा सीखता है। उसके भाषायी विकास के लिये अभिभावक को अधिकाधिक सहायता करनी चाहिये। इस आयु के दौरान भाषा ज्ञान में रही कमी आगे के वर्षों में भी देखने को ? मिलती है । इसका यह आ नहीं कि बच्चों को भाषा ज्ञान हेतु शिक्षण दिया जाये। इस उमर के बच्चे खिलौनों को वास्तविक मानते हैं। तरह-तरह के बे- सिर – पैर की बातें बनाते हैं, अकेले बैठे घण्टों अपने आप से बातें करते रहते हैं। पियाजे इसे ‘कलेक्टिव मोनोलॉग’ कहते हैं। ऐसे बच्चों से कहानी सुनाने को कहें तो अनेकानेक काहानियाँ सुना देंगे। बोलते समय आप महसूस करेंगे कि वे अपने आप में खोये हुए हैं उनका सोचना, उनका बोलना नितान्त स्वकेन्द्रित है। दूसरे की बातों में उनकी रुचि नहीं होती। वस्तुतः ‘कलेक्टिव मोनोलॉग’ भाषिक अभ्यास की एक पद्धति है जिसके द्वारा किसी और की प्रतीक्षा किये बगैर बच्चे स्वतः बातचीत में व्यस्त रहते हैं। भाषिक अभिव्यक्ति की क्षमता का जहाँ तक प्रश्न है, इस चरण में बच्चे सर्वाधिक ग्राह्य रहते हैं। वे एक ख्याली दुनिया में खोये रहते हैं। यथार्थ का उनके लिए विशेष अर्थ नहीं। यही कारण है कि नाटे व चौड़े गिलास की बजाय, पतले व लम्बे गिलास में उन्हें दूध ज्यादा नजर आयेगा और वे उसी को चुनेंगे। दूध की मात्रा को लेकर कमी-वेशी की बात आप बच्चे को समझाना चाहेंगे तो उनकी समझ में नहीं आयेगी। इस वय के बच्चे की मन:स्थिति को समझते हुए यदि आप कुछ शैक्षिक सामग्री देना चाहें तो काफी सावधानी बरतने की जरूरत है।
इस आयु वर्ग का बालक स्वच्छन्ता प्रिय और अत्यन्त कल्पनाशील होता है। यह सच है कि उसके तर्क में निरन्तर कमी होती है पर सृजनात्मक कार्यों एवं समस्याओं के मौलिक समाधान की दृष्टि से आत्मबोध का यह काल सर्वाधिक उर्वर काल माना जाता है। कल्पनाशील की प्रचुरता बच्चों को यथार्थ की सीमाओं से मुक्त रखती है। परिणामतः वे अधिक सृजनशील होते हैं।
तीसरा चरण ( सात से ग्यारह वर्ष ) इस चरण में पियाजे के अनुसार बच्चे अधिक ब्यवहारशील एवं यथार्थ होते हैं। वे सच्चाई को समझ जाते हैं। पारिवारिक रिश्ते उनकी समझ में आने लगते हैं तथा छोटे-छोटे गिलास व पानी के अनुपात का मर्म उन्हें समझ आने लगता है। अब वे किसी चीज को नाप- तौल सकते हैं ताकि कोई उन्हें मूर्ख न बना सके। उन्हें स्वप्न और वास्तविकता का फर्क तो समझ में आ जाता है पर वास्तविक स्थितियों से उन्हें क्या निष्कर्ष निकालना चाहिए, यह समझ में नहीं आता। पाँच वर्ष के बच्चे से पूछें कि स्वप्न क्या होता है तो बोलेगा कि वे जो बिस्तर पर लेटने पर आता है और मूवी की तरह देखा जाता है। यही बात नौ वर्ष वाले से पूछो तो कहेगा-दिमाग के अन्दर बनने वाले मानसिक बिम्ब को स्वप्न कहते हैं ।
मूर्त क्रियाओं के इस चरण में बच्चों का सोचना- विचारता क्रमश: अभिधात्मक होने लगता है। है। इस वय में बच्चों को स्कूल में पढ़ने भेजना अधिक लाभप्रद होता है। जहाँ उन्हें तरह-तरह के कौशल सीखने का अवसर सुलभ होता है।
चौथा चरण (ग्यारह से सोलह वर्ष )– इस चरण में, जो किशोरावस्था के आस-पास का समय होता है, बच्चे किसी भी विषय के सम्बन्ध में सामान्य रीति से सोचना शुरू कर देते हैं। उनके सोचने में तर्क स्वतः आ जाता है, सम्बद्धता, क्रमबद्धता, बातों की बारीकी, छल-छन्द आदि वे समझने लगते हैं। प्रतीकात्मक शब्दों, उपमाओं व रूपकों का आशय भी जान जाते हैं।
पियाजे के द्वारा प्रतिपादित संज्ञानात्मक विकास के उक्त चरणों में एक बात समान रूप से सर्वत्र विद्यमान है और वह है क्रिया (एक्टीविटी) | सीखने में क्रिया की आधारिक भूमिका है। पियाजे के इन विचारों को शिक्षा की रूपरेखा बनाते समय मुख्यतया प्रत्येक कक्षा के पाठ्यक्रम के निर्माण के समय ध्यान में रखा जाना चाहिए।
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