भारतीय संस्कृति में रवीन्द्रनाथ टैगोर के योगदान का वर्णन करें ।
प्रश्न – भारतीय संस्कृति में रवीन्द्रनाथ टैगोर के योगदान का वर्णन करें ।
उत्तर – रवीन्द्रनाथ टैगोर भारत के महान् व्यक्तियों में से एक थे । एक साहित्यकार, कवि और विद्वान की दृष्टि से उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की तथा इस क्षेत्र में विश्व के सर्वश्रेठ पुरस्कार, नोबल पुरस्कार को 1911 ई. में अपनी साहित्यिक कृति गीतांजलि के उपलक्ष में प्राप्त किया । इसके अतिरिक्त भी वह विचारक, दार्शनिक, चित्रकार और शिक्षा – विशारद के रूप में भी प्रसिद्ध हुए । इस प्रकार उनकी प्रतिभा बहुमुखी थी । इस कारण, भारतीय संस्कृति को उनकी योगदान जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में रहा ।
रवीन्द्रनाथ का जन्म 1861 ई. में महर्षि देवेन्द्रनाथ टैगोर के यहाँ हुआ । टैगोर परिवार ने केवल आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न परिवार था अपितु शिक्षा और सामाजिक क्षेत्र में भी प्रगतिशील रहा था । रवीन्द्रनाथ के पिता श्री देवेन्द्रनाथ टैगोर स्वयं ब्रह्म समाज के एक अग्रणी नेता, समाज-सुधारक, शिक्षा – विशारद् और त्यागी पुरुष थे जिसके कारण तत्कालीन व्यक्तियों ने उन्हें ‘महर्षि’ का पद देकर सम्मान प्रदर्शित किया था । इस कारण, रवीन्द्रनाथ को शिक्षा और योग्यता विरासत के रूप में अपने पिता और परिवार से प्राप्त हुई । उनकी शिक्षा की उचित व्यवस्था की गयी । 1878 ई. में वह इंगलैंड भी गये ।
इंगलैंड में वे अधिक समय नहीं रहे और वहाँ पर उनका निवास उनके लिए मर्मस्पर्शी रहा । भारत आकर उन्होंने अपनी इंगलैण्ड की यात्रा के संस्मरणों को एक लेख, एक भ्रमणकारी के यूरोप को पत्र में लिखा जिससे उनकी लेखन की प्रतिभा का पता लगा । अतः उस समय से वह लेखन में व्यस्त हो गये । 1881 ई. में उनका काव्यात्मक नाटक, भग्न-हृदय प्रकाशित हुआ जो पर्याप्त लोकप्रिय हुआ । इसके पश्चात् उनके संध्याकालीन- गीत .- प्रकाशित हुए जिन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि वह एक नवीन शैली के कवि थे । रवीन्द्रनाथ ने उपन्यास भी लिखे और उस क्षेत्र में भी उन्होंने ख्याति प्राप्त की। गोरा उनके द्वारा लिखा गया एक श्रेष्ठ उपन्यास स्वीकार किया गया । 1905 ई. में बंगाल-विभाजन-विरोधी आन्दोलन को अपनी लेखनी से शक्तिशाली बनाया । इससे सरकार उनके प्रति शंकालु हो गयी । परन्तु रवीन्द्रनाथ देश-प्रेमी होते हुए भी सक्रिय राजनीति में कभी नहीं आये । वह गाँधीजी की अहिंसात्मक राजनीति से प्रभावित हुए थे। 1919 ई. में जलियाँवाला बाग की घटना से पीड़ित होकर उन्होंने ब्रिटिश सरकार द्वारा दी गयी नाइट की उपाधि को वापस कर दिया । वह उनके देश-प्रेम का प्रमाण था । रवीन्द्रनाथ चित्रकला के भी शौकीन थे और स्वयं चित्र बनाते थे । सम्भवतया, उन्हें सभी ललित कलाओं से प्रेम था । संगीत भी, इस कारण उनका प्रिय विषय था । 1901 ई. में उन्होंने बोलपुर में एक विद्यालय, शान्ति निकेतन की स्थापना की जो प्रकृति के शान्त-वातावरण में मूलतया भारतीय ललित कलाओं की शिक्षा प्रदान करता है । 1941 ई. में श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर का देहान्त हुआ । परन्तु अपनी मृत्यु से पहले वह राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में सम्मान प्राप्त कर चुके थे, यहाँ तक कि महात्मा गाँधी तक उनको गुरुदेव कहकर पुकारते थे । अपनी योग्यता, विचारों और प्रयत्नों से उन्होंने भारतीय संस्कृति को धनवान बनाया और यही उनका उसके लिए योगदान रहा ।
रवीन्द्रनाथ मानवतावादी थे । इस कारण वे संसार के सभी मानवों को समान मानते थे और मनुष्य को ईश्वर की सबसे श्रेष्ठ कृति मानते थे । वे सभी धर्मों की समानता में भी विश्वास करते थे, और मूल आधार पर एकेश्वरवादी थे अर्थात् ईश्वर एक ही है उसका नाम चाहे कुछ भी रखा गया हो । इसी कारण वे धार्मिक मतभेदों में विश्वास नहीं करते थे T मानवतावादी होने के कारण वह व्यक्ति से अपने सामाजिक उत्तरदायित्वों की पूर्ति की भी आशा करते थे । वह प्रत्यक्ष रूप से कभी भी समाज सुधार के कार्य में नहीं लगे परन्तु वह असहायों, निर्धनों और दुर्बलों के प्रति संवेदनशील थे और उनकी उन्नति में सहयोग देना सामाजिक उत्तरदायित्व मानते थे ।
रवीन्द्रनाथ पाश्चात्य संस्कृति के अन्धे अनुकरण के विरोध में रहे । इस क्षेत्र में उनके विचार स्वामी विवेकानन्द की भाँति थे । वे पाश्चात्य और भारतीय संस्कृति का समन्वय चाहते थे । उनके अनुसार पाश्चात्य देशों की वैज्ञानिक अनुसंधान, सामाजिक आदर्श और कार्यशीलता, निस्सन्देह अनुकरणीय है । परन्तु वह पाश्चात्य संस्कृति की भौतिक प्रवृत्ति के विरोध में थे । उनके अनुसार भारतीय संस्कृति की अध्यात्मवाद और मानवता की भावना भी अनुकरणीय है । इस प्रकार वह दोनों संस्कृतियों के लाभप्रद पक्षों पर बल देते हुए उनके समन्वय की आकांक्षा करते थे ।
रवीन्द्रनाथ राष्ट्रप्रेमी थे और भारत की स्वतन्त्रता के पक्ष में थे। उन्होंने बंगाल-विभाजन का विरोध किया था । उस विभाजन के उपरान्त राखी-उत्सव और कलकत्ता विश्वविद्यालय की परीक्षाओं के बहिष्कार का विचार उन्होंने ही प्रस्तुत किया था। उन्होंने राष्ट्रीय एकता, राष्ट्रीय शिक्षा और स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग का समर्थन किया। उन्होंने जलियाँवाला घटना के प्रति खेद प्रकट करते हुए ब्रिटिश सरकार की नाइट की उपाधि को सरकार को वापस कर दिया । गाँधीजी द्वारा चलाये गये ‘सविनय अवज्ञा आन्दोलन’ के समय में उन्होंने यह विचार प्रकट किया था कि ब्रिटेन को भारत को स्वतन्त्रता प्रदान कर देनी चाहिए । वह राष्ट्रीय स्वतंत्रता को आवश्यक मानते थे। उनका कहना था कि ‘दासता को स्वीकार करना असत्य और अन्याय के साथ समझौता करना है जिससे आत्मा मलिन होती है ।’ वह राजनीति में गाँधीजी की नीति के पक्ष में थे । वह भी अच्छे लक्ष्य की पूर्ति के लिए अच्छे साधन अपनाया आवश्यक मानते थे, संघर्ष को ही उचित मानते थे। उनकी राष्ट्रीयता की भावना संकुचित न थी । वह उसके आधार पर किसी प्रकार का नस्ल या राष्ट्र – विभेद और संघर्ष को पसन्द नहीं करते थे । वह सभी राष्ट्रों की स्वतंत्रता और पारस्परिक सहयोग के समर्थक थे । किसी भी राष्ट्र या वर्ग के प्रति घृणा की भावना उनके दर्शन और विचारों का आधार नहीं थी ।
रवीन्द्रनाथ भारतीय संस्कृति के प्रति श्रद्धालु थे यद्यपि वह उसकी दुर्बलताओं को भी समझते थे और अपने तरीके से उन्हें दूर करने के लिए प्रयत्नशील भी रहे । उनका कहना था कि भारतीय संस्कृति का दृष्टिकोण उदार और विशाल है क्योंकि मूलतया उसका विकास प्रकृति के स्वच्छन्द वातावरण में और उसके साथ सहयोग करते हुए हुआ है । इसी कारण भारतीय संस्कृति में सहयोग, समन्वय, उदारता तथा समझौते की प्रवृत्ति मूलरूप से विद्यमान है । इसके विपरीत पाश्चात्य संस्कृति का विकास प्रतिस्पर्धा, संघर्ष और के वातावरण में हुआ है । इसी कारण पाश्चात्य संस्कृति अभी भी प्रतिस्पर्धा और संघर्ष को प्रगति का माध्यम स्वीकार करती है । इस कारण, टैगोर भारतीय संस्कृति, जिसका आधार शान्ति, सहयोग, प्रकृति-प्रेम और अध्यात्मवाद था, में श्रद्धा रखते थे ।
रवीन्द्रनाथ को प्रकृति से बहुत प्रेम था । वह बचपन से ही आकाश, चन्द्र, सूर्य, वन, पक्षी, पशु आदि की निकटता के शौकीन थे । उनकी रचनाओं में चाहे वह कविताएँ हों अथवा चित्र उनका प्रकृति-प्रेम स्पष्ट होता है क्योंकि उनमें अधिकांशतया उनका ही चित्रण किया गया है ।
रवीन्द्रनाथ यद्यपि मूलतया कवि, लेखक और उपन्यासकार अर्थात् साहित्यकार थे और इसी दृष्टि से उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की । परन्तु भारतीय दर्शन, राजनीति, समाज-सुधार तथा विभिन्न ललित कलाओं के विकास से भी उनका नाम जुड़ा रहा । चित्रकला की दृष्टि से ‘चित्रकला की बंगाल – शैली’ के विकास में उनका योगदान रहा । शिक्षा के क्षेत्र में शान्ति-निकेतन विद्यालय की स्थापना उनका एक अमूल्य योगदान है । वह एक राष्ट्रीय संस्था के रूप में है और विभिन्न ललित कलाओं के विकास में उसका एक महत्वपूर्ण योगदान है।
अपने उपरोक्त कार्यों और क्षमता से रवीन्द्रनाथ टैगोर ने आधुनिक भारतीय संस्कृति के संरक्षण और उसके विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में जो ख्याति प्राप्त की उससे भी भारत का मस्तक संसार के सम्मुख ऊँचा हुआ है । इस प्रकार रवीन्द्रनाथ टैगोर भारत राष्ट्र की महान् विभूतियों में से एक थे ।
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