NCERT Solutions Class 10Th Hindi Chapter – 1 अपठित बोध

WhatsApp Group Join Now
Telegram Group Join Now

NCERT Solutions Class 10Th Hindi Chapter – 1 अपठित बोध

साहित्यिक गद्यांश

अधोलिखित अपठित अवतरण को पढ़कर उसके नीचे दिए प्रश्नों का उत्तर लिखें

1. भारत में बेकारी का मूल कारण है- अत्यधिक आबादी । आज किसी विभाग में यदि दो रिक्त पदों की सूचना दी जाए तो सौ प्रार्थी उपस्थित हो जाते हैं । यह दशा शिक्षित-अशिक्षित पुरुष – नारी सभी वर्गों में है। गाँवों में जिस जगह पर एक व्यक्ति अकेले खेती करता है, उस जगह पर परिवार के अन्य दो-चार सदस्य और मिल जाते हैं। इस प्रकार एक व्यक्ति का कार्य पाँच व्यक्तियों में बँट जाता है, किन्तु इससे उत्पादन में वृद्धि नहीं होती। यदि एक व्यक्ति कार्य करे, तो शेष चार व्यक्ति बेकार रहते हैं। इससे व्यक्तियों की कार्यक्षमता का पूर्ण उपयोग नहीं हो पाता और वे धीरे-धीरे आलसी होते जाते हैं तथा बुरे व्यसनों में फँस जाते हैं। भारत जैसे अधिक जनसंख्या वाले देशों के लिए कुटीर उद्योग अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं; किन्तु एक ओर देश की जनसंख्या दिन दुगुनी बढ़ती जा रही है, तो दूसरी ओर कुटीर उद्योगों का लोप होता जा रहा है। कुटीर उद्योगों में अपेक्षाकृत अधिक लोग कार्यरत रहते हैं। हस्तशिल्प का लोप हो जाने से हस्त-शिल्पियों का वर्ग एकदम बेकार हो गया है ।
शिक्षा का अभाव भी बेकारी का कारण बताया जाता है, किन्तु भारत में यह सर्वथा सत्य नहीं है। यहाँ बेकारों की संख्या में शिक्षित लोगों का प्रतिशत अधिक है। व्यवसायप्रद या उचित शिक्षा के अभाव में यहाँ शिक्षित लोग भी बेकार हैं । प्रति वर्ष विश्वविद्यालयों से स्नातकों और स्नातकोत्तरों की बड़ी भीड़ परीक्षाएँ उत्तीर्ण करके रोजगार दफ्तर के सामने कतारों में खड़ी रहती है। दो वर्ष, चार वर्ष और कभी-कभी आठ-दस वर्ष तक भी किसी को नौकरी नहीं मिलती, क्योंकि क्लर्की के अतिरिक्त कुछ करना उनके बूते की बात नहीं होती और दफ्तरों में क्लर्को या बाबुओं की उतनी जगह रिक्त नहीं होती। इसके विपरीत योजनाओं को कार्यान्वित करने के लिए प्रतिवर्ष सहस्रों नए तकनीशियनों की आवश्यकता रहती हैं कुल माँग का 50% भी मुश्किल से प्राप्त होते हैं शेष स्थान रिक्त पड़े रहते हैं या फिर विदेशों से दुगुने वेतन पर तकनीशियनों को बुलाना पड़ता है। इससे प्रत्यक्ष हानि यह होती है कि योजना कार्य की गति धीमी पड़ जाती है और देश का बहुत-सा धन बाहर चला जाता है।
जातिगत रूढ़ियों से बँधे रहना भी बेकारी के कारणों में से एक है। उदाहरण के लिए ब्राह्मण का बालक भूखों मर जाएगा, किन्तु खेती या अन्य किसी प्रकार दस्तकारी का कार्य करना पसन्द नहीं करेगा।
ग्रामीण लोगों में यह प्रवृत्ति पाई जाती है कि वे अपने गाँव को छोड़कर कहीं बाहर जाना पसंद करते है। गाँव में आधे पेट भोजन करके रहना वे अपने लिए अधिक श्रेयकर समझते हैं। अशिक्षा, आलस्य आदि ऐसे ही कुछ अन्य कारणों से भी बेकारी की समस्या दूर नहीं हो पाती। इस समस्या से मुक्ति पाने के लिए यह आवश्यक है कि हम इस समस्या की जड़ में जाकर इसके कारणों को समझें और उन्हें दूर करें।
(क) भारत में बेकारी का मूल कारण क्या है ? 
उत्तर – भारत में बेकारी का मूल कारण है- अत्यधिक आबादी का होना।
(ख) कुटीर उद्योगों की क्या भूमिका है ? 
उत्तर – कुटीर उद्योग बेकारी को दूर करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर सकते हैं वे लोगों को काम के अवसर प्रदान कर सकते हैं।
(ग) बेकारी बढ़ाने में शिक्षा की क्या भूमिका है ? 
उत्तर – भारत में बेकारी को बढ़ाने में शिक्षा की भी बहुत बड़ी भूमिका है। हमारे देश में शिक्षित बेकारों की संख्या बहुत अधिक है।
(घ) हमारे देश में शिक्षित बेरोजगारों की संख्या अधिक क्यों है ? 
उत्तर – हमारे देश में शिक्षित बेरोजगार बहुत हैं। इसका कारण यह है कि प्रति वर्ष विश्वविद्यालयों से स्नातक और स्नातकोत्तरों को भारी भीड़ उत्तीर्ण होकर निकल रही है। उन सभी को नौकरी नहीं मिल पाती अतः वे बेकारी बढ़ा रहे हैं।
(ङ) ग्रामीण लोगों में क्या प्रवृत्ति पाई जाती है ?
उत्तर – ग्रामीण लोगों में यह प्रवृत्ति पाई जाती है कि वे अपने गाँव को छोड़कर बाहर जाना पसंद नहीं करते। वे आधे पेट भोजन करके रह लेंगे, पर काम करने के लिए बाहर नहीं जाएँगे।
(च) व्यक्ति आलसी क्यों हो जाते हैं ? 
उत्तर – जब व्यक्ति कोई काम नहीं करता या अपनी कार्यक्षमता का पूरा उपयोग नहीं करता तब वह आलसी बन जाता है ।
(छ) तकनीशियनों की क्या स्थिति है ? 
उत्तर – हमारे देश में तकनीशियनों का भारी अभाव है। योजनाओं को क्रियान्वित करने के लिए काफी तकनीशियनों की आवश्यकता बनी रहती है और उनकी उपलब्धता कम है। अतः विदेशी तकनीशियन बुलाए जाते हैं ।
(ज) रूढ़ियाँ बेकारी का कारण क्यों हैं ? 
उत्तर – जातिगत रूढ़ियाँ बेकारी का कारण हैं। एक ब्राह्मण बालक भूखा मर जाएगा, पर खेती या दस्तकारी का काम करना अपनी शान के खिलाफ समझता है
(झ) विलोम शब्द लिखें- उपयोग, उपस्थित
उत्तर – उपयोग – अनुपयोग
उपस्थित – अनुपस्थित
(ञ) अर्थ लिखें- लोप, व्यसन 
उत्तर – लोप – गायब
व्यसन- बुरी आदत, चस्का
(ट) ‘व्यवसायप्रद’ में ‘प्रद’ प्रत्यय की तरह प्रयुक्त है। ‘प्रद’ का प्रयोग करके दो शब्द बनाएँ।
उत्तर – ‘प्रद’ वाले शब्द- लाभप्रद, स्वास्थ्यप्रद ।
(ठ) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखें । 
उत्तर – शीर्षक- भारत में बेकारी की समस्या ।
2. एक दिन बहुत तेज गर्मी पड़ रही थी । एक छोटे से कोटर (वृक्ष के घोंसले) में चातक-पुत्र प्यास से बेहाल हो रहा था। उसने अपने पिता चातक को बताया कि प्यास के मारे उसके प्राण चोंच तक आ गए हैं। पिता ने धैर्य रखने को कहा। उसने पुत्र को कहा कि हम केवल बादलों का जल ही ग्रहण करते हैं । यही हमारे कुल का व्रत है। पुत्र ने पिता की बात का विरोध करते हुए कहा कि ऐसा व्रत पालन करना व्यर्थ है। मैं इस व्रत को तोडूंगा। मेरे प्राण निकल रहे हैं । अतः मैं बादलों के स्थान पर किसी अन्य स्थान से जल ग्रहण करूँगा। पिता ने पूछा, “बताओ तुम और कहाँ से जल ग्रहण करोगे ? क्या उस पोखरी से जल पीओगे, जहाँ से अन्य पशु-पक्षी जल पीते हैं ?” चातक-पुत्र पोखरी के गंदे जल की याद करते ही बेमन हो गया । वह बोला, “मैं गंगाजल ग्रहण करूँगा।” पिता ने उसे कहा कि गंगा जी तो यहाँ से बहुत दूर हैं। वहाँ जाने के लिए पाँच दिन की उड़ान चाहिए। यदि तू नहीं मानता तो जा, पर रास्ते में कहीं और एक बूँद भी पानी मत पीना। चातक-पुत्र उड़ गया ।
बुद्धन बहुत गरीब था । वह पक्षाघात का रोगी था । उसका बेटा गोकुल 15-16 वर्ष का था और वही मजदूरी करके घर का खर्च चलाता था। चातक-पुत्र उड़ते हुए उनके घर के आँगन के बीच नीम के वृक्ष पर विश्राम करने के लिए उतरा। उस दिन गोकुल ने घर लौटने में बहुत देर कर दी। बुद्धन दुःखी हो रहा था । गोकुल पिता के पास आकर रोने लगा। पिता के पूछने पर उसने बताया कि ओवरसियर ने आज मजदूरी देने से साफ इंकार कर दिया, अतः आज घर में खाना नहीं बन सकेगा। पिता ने देरी का कारण पूछा तो गोकुल ने बताया कि उसे रास्ते में एक बटुआ पड़ा हुआ मिला। इसमें काफी रुपये थे। उसे अपने पिता की शिक्षा याद आ गई और वह बटुए के मालिक को ढूँढ़ने लगा। उसे दूर जाती एक गाड़ी दिखाई दी। उसमें महतो बैठे थे। वह भागकर महतो के पास पहुँचा। इसमें आधा घंटा लग गया। बटुआ पाकर महतो बहुत प्रसन्न हुआ। उसके बटुए में पूरे रुपए निकले। महतो ने तो उसको दो रुपए इनाम देने चाहे, पर गोकुल ने साफ इंकार कर दिया। गोकुल ने कहा, “मेरे बप्पा ने किसी से भीख लेने के लिए मना किया है। मुफ्त के रुपए मैं न लूँगा ।”
गोकुल की बातें सुनकर बुद्धन की आँखों से झर-झर आँसू बहने लगे। उसे अपने पुत्र की ईमानदारी पर गर्व हुआ । उसके निर्जीव शरीर में स्फूर्ति आ गई। जब बेटे ने महतो से उधार न माँगने के लिए अपनी भूल का जिक्र किया तो पिता ने कहा, “अच्छा ही किया बेटा, जो तू महतो से रुपये उधार नहीं लाया । यह उधार माँगना भी एक तरह का माँगना ही होता है।” बुद्धन ने बेटे से कहा, ‘जिस तरह चातक अपने प्राण देकर भी मेघ के सिवा किसी दूसरे का जल लेने का व्रत नहीं तोड़ता उसी तरह तू भी ईमानदारी की टेक न छोड़ना । चाहे जितनी बड़ी विपत्ति पड़े, अपनी नीयत न
डुलाना ।”
इस बात को वृक्ष के ऊपर बैठा हुआ चातक-पुत्र सुन रहा था। वह अपनी भूल समझ गया। प्रातः होते ही वह अपने कोटर की दिशा में लौट चला। अब उसकी उड़ान तेज हो गई थी। उसे कोटर तक पहुँचने में सात दिन लग गए। अगले ही दिन बादलों ने ऐसी झड़ी लगा दी थी, कि उसे रास्ते में कई जगह रुकना पड़ा था ।
इस कहानी से यहाँ शिक्षा मिलती है कि हमें कष्ट उठाकर भी अपने व्रत का पालन करना चाहिए । व्रत का फल अवश्य मिलता है।
(क) चातक – पुत्र की क्या दशा थी ? इसका कारण क्या था ?
उत्तर – चातक – पुत्र की यह दशा थी कि वह प्यास से बेहाल हो रहा था। उसकी इस दशा का कारण भयंकर गर्मी पड़ना और वर्षा का न होना था।
(ख) चातक – पुत्र ने क्या निश्चय प्रकट किया ?
उत्तर – चातक-पुत्र ने बादलों की प्रतीक्षा न करके कहीं से भी जल ग्रहण करके अपनी करक व प्यास बुझाने का निश्चय प्रकट किया। क
(ग) बुद्धन कौन था ? उसके पुत्र का क्या नाम था ? 
उत्तर – बुद्धन एक गरीब व्यक्ति था। वह पक्षाघात का रोगी था। उसके पुत्र का नाम गोकुल था l
(घ) गोकुल के रोने का क्या कारण था ?
उत्तर – गोकुल मजदूरी करता था। उस दिन ओवरसियर ने मजदूरी देने से साफ इंकार कर दिया था । अतः वह खाली हाथ लौट आया था। इसी कारण वह रो रहा था ।
(ङ) गोकुल ने क्या कहकर महतो से रुपए लेने से इंकार कर दिया ?
उत्तर – जब बटुआ लौटाने पर महतो ने गोकुल को इनाम में दो यह कहकर उन्हें लेने से इंकार कर दिया – “मेरे बप्पा किसी से भीख लेने से इंकार किया है। मुफ्त के रुपए मैं नहीं लूँगा।”
(च) बुद्धन को पुत्र की किस बात पर हुआ ? 
उत्तर – बुद्धन को अपने पुत्र गोकुल की ईमानदारी एवं स्वाभिमानी प्रवृत्ति पर गर्व हुआ ।
(छ) चातक अपने पिता से क्या कहा और उसने क्या उत्तर दिया ? 
उत्तर – चातक – पुत्र ने अपने पिता से यह कहा कि उसके प्राण चोंच तक आ गए हैं, उसे पानी की जरूरत है। उसके पिता ने उसे कुछ समय तक और धैर्य रखने के लिए कहा ।
(ज) बुद्धन ने गोकुल से क्या कहा ?
उत्तर – बुद्धन ने अपने पुत्र गोकुल से यह कहा कि बेटा तूने महतो से रुपए न लेकर अच्छा ही किया। यह उधार माँगना भी एक तरह से माँगना ही है।
(झ) इस घटना का किस पर क्या असर हुआ ? 
उत्तर – इस घटना का चातक पुत्र पर यह असर पड़ा कि वह अपने कुल के व्रत का महत्त्व समझ गया और अपने कोटर की ओर लौट पड़ा।
(ञ) इस कहानी से क्या शिक्षा मिलती है ?
उत्तर – इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि हमें कष्ट उठाकर भी अपने व्रत का पालन करना चाहिए । व्रत-पालन का सुफल अवश्य मिलता है ।
(ट) लिंग बदलें – मालिक, पुत्र, पिता ।
उत्तर – मालिक – मालकिन
पुत्र – पुत्री
पिता – माता
(ठ) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखें। 
उत्तर – शीर्षक- कोटर और कुटीर
3. शिक्षा को महत्त्वाकांक्षा से मुक्त होना ही चाहिए । महत्त्वाकांक्षा ही तो राजनीति है। महत्त्वाकांक्षा के कारण ही तो राजनीति सबके ऊपर, सिंहासन पर विराजमान हो गई है। सम्मान वहाँ है, जहाँ पद है। पद वहाँ है, जहाँ शक्ति है। शक्ति वहाँ है, जहाँ राज्य है।
इस दौड़ से जीवन में हिंसा पैदा होती है। महत्त्वाकांक्षी चित्त हिंसक चित्त है। अहिंसा के पाठ पढ़ाए जाते हैं। साथ ही महत्त्वाकांक्षा भी सिखाई जाती है। इससे ज्यादा मूढ़ता और क्या हो सकती है ?
अहिंसा प्रेम है। महत्त्वाकांक्षा प्रतिस्पर्धा है। प्रेम सदा पीछे रहना चाहता है। प्रतिस्पर्धा आगे होना चाहती है। क्राइस्ट ने कहा है- ‘धन्य हैं वे, जो पीछे होने में समर्थ हैं।’ मैं जिसे प्रेम करूँगा, उसे आगे देखना चाहूँगा और यदि मैं सभी को प्रेम करूँगा तो स्वयं को सबसे पीछे से पीछे खड़ाकर आनंदित हो उढूँगा। लेकिन प्रतिस्पर्धा प्रेम से बिल्कुल उलटी है। वह तो ईर्ष्या है । वह तो घृणा है । वह तो हिंसा है। वह तो सब भाँति सबसे आगे होना चाहती है ।
इस आगे होने की होड़ की शुरुआत शिक्षालयों में ही होती है और फिर कब्रिस्तान तक चलती है। व्यक्तियों में यही दौड़ है। राष्ट्रों में भी यही दौड़ है। युद्ध इस दौड़ के ही तो अंतिम फल है। यह दौड़ क्यों है ? इस दौड़ के मूल में क्या है ? मूल में है- अहंकार ! अहंकार सिखाया जाता है, अहंकार का पोषण किया जाता है। छोटे-छोटे बच्चों में अहंकार को जगाया और जलाया जाता है। उनके निर्दोष और सरल चित्त अहंकार से विषाक्त किए जाते हैं। उन्हें भी प्रथम होने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। स्वर्ण पदक और सम्मान और पुरस्कार बाँटे जाते हैं । फिर यही अहंकार जीवन भी प्रेत की भाँति उनका पीछा करता है और उन्हें मरते दम तक चैन नहीं लेने देता।
विनय के उपदेश दिए जाते हैं और सिखाया अहंकार जाता है। क्या वह दिन मनुष्य जाति के इतिहास में सबसे बड़े सौभाग्य का दिन नहीं होगा जिस दिन हम बच्चों को अहंकार सिखाना बंद कर देंगे ? अहंकार नहीं, प्रेम सिखाना है। और प्रेम वहीं होता है, जहाँ अहंकार नहीं है ।
इसके लिए शिक्षण की आमूल पद्धति ही बदलनी होगी। प्रथम और अंतिम की कोटियाँ तोड़नी होंगी। परीक्षाओं को समाप्त करना होगा। और इन सबकी जगह जीवन के उन मूल्यों की स्थापना करनी होगी जो कि अहंशून्य और प्रेमपूर्ण जीवन को सर्वोच्च जीवन दर्शन मानने से पैदा होते हैं ।
प्रेम जब प्रतिस्पर्धा की जगह लेता है तब सहज ही सफलता की जगह सत्य की प्रतिष्ठा हो जाती है। सफलता ही जिस जीवन-व्यवस्था में एकमात्र मूल्य है, वहाँ सत्य नहीं हो सकता है। सफलता की केंद्रीय महत्ता ने सफलता के प्राण ही ले लिए हैं। नहीं, सफल हो जाना ही सब कुछ है। मात्र सफलता कोई मूल्य 23 ही नहीं है। एक बुरे बुरे काम में सफल होने के बजाए ए एक शुभ कार्य में असफल होना भी ज्यादा मूल्य की और गौरव की बात है। प्रतिस्पर्धा में सफल होने की
बजाए प्रेम में असफल होना ही कहीं ज्यादा शुभ है। धन में सफल होने की बजाए धर्म में असफल होना भी ज्यादा मूल्यवान नहीं है ?
सत्य के लिए हार जाना भी जीत है। क्योंकि उसके लिए हारने के साहस में ही आत्मा सबल होती है और उन शिखरों को छू पाती है, जो कि परमात्मा के प्रकाश से आलोकित हैं ।
विजय और पराजय अर्थहीन हैं। अर्थ है- मोर्चे का, किस मोर्चे पर विजय या पराजय ? सत्य के या असत्य के, प्रेम के या घृणा के, मनुष्यता के या दानवता के ?
और मैं कहता हूँ कि धन्य हैं वे लोग जो कि असत्य की विजय को छोड़ते हैं और सत्य के साथ पराजय को आलिंगन करते हैं, क्योंकि इस भाँति हारकर भी वे जीत जाते हैं और मिटकर भी उसे पा लेते हैं जो कि अमृत है ।
(क) महत्त्वाकांक्षा को राजनीति कहने का क्या आशय है ?
उत्तर – महत्त्वाकांक्षा को पूरा करने वाले आदमी शक्ति चाहता है। शक्ति राजनीति में है। इसलिए महत्त्वाकांक्षा का दूसरा नाम ही राजनीति है।
(ख) लेखक बच्चों को प्रतियोगिता क्यों नहीं सिखाना चाहता ? 
उत्तर – लेखक बच्चों को प्रतिस्पर्धा में नहीं डालना चाहता। कारण यह है कि इससे बच्चों में अहंकार पैदा होता है। वे ईर्ष्या, घृणा और हिंसा सिखते हैं ।
(ग) लेखक स्वर्ण पदक और सम्मान का विरोध क्यों करता है ?
उत्तर – लेखक के अनुसार स्वर्ण पदक और सम्मान मनुष्य के अहंकार को बढ़ाते हैं। इन्हें पाकर मनुष्य स्वयं को विशिष्ट, ऊँचा और महत्त्वपूर्ण मानने लगता है। इससे उसके जीवन में प्रेम नहीं आ पाता है।
(घ) लेखक सफलता को अंतिम चीज नहीं मानता, क्यों ?
उत्तर – लेखक के अनुसार, सफलता अंतिम चीज नहीं है। सफलता को गलत तरीकों से भी पाया जा सकता है। असली चीज है- सत्य और प्रेम । इन दोनों के मार्ग पर चलते-चलते असफलता भी मिले तो वह असफलता गौरवशाली होती है।
(ङ) लेखक महत्त्वाकांक्षा की जगह कैसी शिक्षा चाहता है ?
उत्तर – लेखक् महत्त्वाकांक्षा की जगह अहंशून्यता और प्रेम की शिक्षा देना चाहता है।
(च) प्रेमी की पहचान क्या है ?
उत्तर – सदा अपने प्रियजनों को अपने से आगे और स्वयं को पीछे रखना प्रेमी व्यक्ति की पहचान है।
(छ) प्रतिस्पर्धा से कौन-से दुर्गुण पैदा होते हैं ?
उत्तर – प्रतिस्पर्धा से आपसी ईर्ष्या पैदा होती है, घृणा पैदा होती है और हिंसा पैदा होती है।
(ज) लेखक शिक्षा में किस प्रकार का परिवर्तन चाहता है ?
उत्तर – लेखक चाहता है कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली में अहंकार जगाने वाली सम्मान से पाने की आकांक्षा की भावनाएँ मन को अस्वस्थ बनाती हैं। इनकी बजाय प्रेम और सहयोग पैदा करने की प्रणाली अपनानी चाहिए।
(झ) दो उर्दू तथा तत्सम शब्द छाँटें ।
उत्तर – उर्दू- ज्यादा, कब्रिस्तान । तत्सम– महत्त्वाकांक्षा, चित्त।
(ञ) दो ऐसे वाक्य छाँटें, जिसमें निपात का प्रयोग हो।
उत्तर – (i) राष्ट्रों में भी यही दौड़ है।
(ii) सफलता ही जहाँ एकमात्र मूल्य है, वहाँ सत्य नहीं हो सकता ।
(ट) महत्त्वाकांक्षी, मूढ़, हिंसक, सफल से भाववाचक संज्ञाएँ बनाएँ ।
उत्तर – महत्त्वाकांक्षी – महत्त्वाकांक्षा ।
मूढ़ – मूढ़ता ।
हिंसक – हिंसा ।
सफल -:सफलता ।
(ठ) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखें ।
उत्तर – शीर्षक– स्पर्धा – मुक्त शिक्षा की आवश्यकता ।
4. पश्चिमी सभ्यता का एक नया आदर्श-पश्चिमी सभ्यता मुख मोड़ रही है। वह एक नया आदर्श देख रही है। अब उसकी चाल बदलने लगी है । वह कलों की पूजा को छोड़कर मनुष्यों की पूजा को अपना आदर्श बना रही है। इस आदर्श के दर्शाने वाले देवता रस्किन और आल्स्टॉय आदि हैं। पाश्चात्य देशों में नया प्रभात होने वाला है। वहाँ के गंभीर विचार वाले लोग इस प्रभात का स्वागत करने के लिए उठ खड़े हुए हैं। प्रभात होने के पूर्व ही उसका अनुभव कर लेने वाले पक्षियों की तरह इन महात्माओं को इस नए प्रभात का पूर्व ज्ञान हुआ है। और, हो क्यों न ? इंजनों के पहिए के नीचे दबकर वहाँ वालों के भाई-बहन नहीं नहीं उनकी सारी जाति पिस गई; उसके जीवन के धुरे टूट गए, उनका समस्त धन घरों से निकलकर एक ही दो स्थानों में एकत्र हो गया। साधारण लोग मर रहे हैं, मजदूरों के हाथ-पाँव फट रहे हैं, लहू चल रहा है। सर्दी से ठिठुर रहे हैं। एक तरफ दरिद्रता का अखंड राज्य है, दूसरी तरफ अमीरी का चरम दृश्य । परंतु अमीरी भी मानसिक दुःखों से विमर्दित हैं। मशीनें बनाई तो गई थीं मनुष्यों का पेट भरने के लिए- मजदूरों को सुख देने के लिए- परंतु वे काली-काली मशीनें ही काली बनकर उन्हीं मनुष्यों का भक्षण कर जाने के लिए मुख खोल रही हैं। प्रभात होने पर ये काली-काली बलाएँ दूर होंगी। मनुष्य के सौभाग्य का सूर्योदय होगा।
शोक का विषय है कि हमारे और अन्य पूर्वी देशों में लोगों को मजदूरी से तो लेशमात्र भी प्रेम नहीं, पर वे तैयारी कर रहे हैं पूर्वोक्त काली मशीनों का आलिंगन करने की। पश्चिम वालों के तो ये गले पड़ी हुई बहती नदी की काली कमली हो रही हैं। वे छोड़ना चाहते हैं, काली काली कमली उन्हें नहीं छोड़ती। देखेंगे पूर्व वाले कितना आनंद अनुभव करते हैं। यदि हममें से हर आदमी अपनी दस उँगलियों की सहायता से साहसपूर्वक अच्छी तरह काम करे तो हम मशीनों की कृपा से बढ़े हुए परिश्रम वालों को वाणिज्य के जातीय संग्राम में सहज ही पछाड़ सकते हैं। सूर्य तो सदा पूर्व ही से पश्चिम की ओर जाता है। * पर, आओ पश्चिम में आने वाली सभ्यता के को हम पूर्व से भेजें। इंजनों की वह मजदूरी किस काम की जो बच्चों, स्त्रियों और कारीगरों को ही भूखा-नंगा रखती है, और केवल सोने, चाँदी लोहे आदि धातुओं का ही पालन करती है। पश्चिम को विदित हो चुका है कि इनसे मनुष्य का दुःख दिन-पर-दिन बढ़ता है। भारतवर्ष जैसे दरिद्र देश में मनुष्य के हाथों की मजदूरी के बदले कलों से काम लेना काल का डंका बजाना होगा। दरिद्र प्रजा और भी दरिद्र होकर मर जाएगी। चेतन से चेतन की वृद्धि होती है। मनुष्य को तो मनुष्य ही सुख दे सकता है। परस्पर चाहते इस कमली को छाती से हैं, परंतु लगाकर
की निष्कपट सेवा हीसे मनुष्य जाति का कल्याण हो सकता है।
(क) पश्चिमी सभ्यता किससे मुँह मोड़ रही है ?
उत्तर – पश्चिमी सभ्यता मशीनीकरण से मुँह मोड़ रही है।
(ख) ‘कलों की पूजा का क्या आशय है ?
उत्तर – मशीनों की पूजा, अर्थात् मशीनों को अपनाना।
(ग) ‘मनुष्यों की पूजा का क्या अर्थ है ?
उत्तर – मनुष्यों की पूजा का आशय है- मनुष्य के श्रम तथा शक्ति को महत्त्व देना ।
(घ) पश्चिमी देशों को नए प्रभात का ज्ञान क्यों हुआ है ?
उत्तर – मशीनों और इंजनों के क्रूर शोर तथा उत्पात को को देखकर उन्हें नए प्रभात की बात सूझी।
(ङ) पश्चिमी देशों में धन के कारण कौन-सी बुराई सामने आई ?
उत्तर – पश्चिमी देशों में धन की वृद्धि के कारण अमीर और गरीब की खाई बहुत चौड़ी हो गई। गरीब भूखे तड़पने लगे और अमीर मानसिक दुखों से पागल होने लगे।
(च) लेखक किसे शोक का विषय मानता है ?
उत्तर – लेखक भारत द्वारा मशीनीकरण को अपनाने को शोक का विषय मानता है।
(छ) लेखक भारत में उत्पादन को किस प्रकार बढ़ाने का पक्षधर है ?
उत्तर – लेखक भारत में मानवीय परिश्रम के सहारे उत्पादन को बढ़ाने का पक्षधर है।
(ज) मशीनीकरण से भारत में क्या हानि होने की संभावना है ?
उत्तर – मशीनीकरण से भारत की जनता और अधिक दरिद्र होकर मर जाएगी ।
(झ) लेखक धन पूजा का विरोधी क्यों है ?
उत्तर – लेखक धन की पूजा का विरोधी इसलिए है क्योंकि इससे मनुष्य नास्तिक बनता है।
(ञ) ‘चरम दृश्य’ का अर्थ स्पष्ट करें।
उत्तर – सबसे अधिक बढ़ा हुआ दृश्य ।
(ट) ‘आनंद-मंगल’ का विग्रह करके समास का नाम लिखें ।
उत्तर – आनंद और मंगल द्वंद्व समास ।
(ठ) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखें।
उत्तर – शीर्षक- मजदूरी की महिमा ।
5. भारत वर्ष बहुत पुराना देश है। उसकी सभ्यता और संस्कृति भी बहुत पुरानी है। भारतवासियों को अपनी सभ्यता और संस्कृति पर बड़ा गर्व है। वैज्ञानिक आविष्कारों द्वारा प्राप्त नए साधनों को अपनाते हुए भी जब अनेक अन्य देशवासी अपने पुराने रहन-सहन और रीति-रिवाज को बदलकर नए तरीके से जीवन बिताने लगे तब भी भारतवासी अपनी पुरानी सभ्यता और संस्कृति पर डटे रहे और बहुत काल तक यह देश ऋषि मुनियों का देश ही कहलाता रहा । विश्व के मान-जीवन के उस नए दौर का असर पूर्ण रूप से भारतवासियों पर पड़ा नहीं।
हवाई जहाज की सैर की सुविधा के मिलने के बाद भी पैदल की जाने वाली तीर्थ यात्राएँ होती रहीं। पाँच नक्षत्रवाले होटलों में ‘शावरबाथ’ की सुविधाओं के होते हुए भी गंगा स्नान और संध्या वंदन का दौर चलता ही रहा । कारण यह है कि जब जीवन में उन्नति के लिए अन्य देशवासी नए आविष्कारों और उनके द्वारा प्रदान की गई सुविधाओं के पीछे भाग रहे थे, तब भी भारतवासियों का अपने रीति-रिवाज और रहन-सहन पर पूरा विश्वास था और संपूर्ण रूप से नए आविष्कारों का शिकार होना नहीं चाहते थे। इसका कारण यह भी था कि विज्ञान के आविष्कारों के नाम से जीवन को आसान बनवाने वाली सुविधाओं को अपने देहाती ढंग से प्राप्त करके जीवन का तरीका प्राचीन काल से भारतवासी जानते थे ।
इसी भाँति छोटी क्षेत्रफल वाली जमीन को जोतने की बात तो अलग है। पर आज ट्रैक्टरों का इस्तेमाल करके विशाल क्षेत्रफल वाली भूमि को भी थोड़ी ही देर में आसानी से जोत डालने की सुविधा तो है। इसका मतलब यह नहीं था कि हमारे पूर्वज इस प्रकार की सुविधाओं के अभाव से विशाल क्षेत्रफल वाली भूमि को जोतते ही नहीं थे। उस जमाने में भी उस समय पर प्राप्त सामग्रियों का इस्तेमाल करके विशाल से विशाल भूमि को भी जोत डालते थे। वे विशाल जमीन के चारों ओर सबसे पहले एक छोटे से द्वार मात्र को छोड़कर आट लगाते थे। पूरी जमीन पर जंगली पौधे अपने आप उग लेंगे ही। फिर सिर्फ एक रात्रि मात्र के लिए away जमीन पर जंगली सूअरों को भगाकर द्वार बंद कर देते थे। पौधों की जड़ को खाने के उत्साह से जंगली सूअर जमीन खोदने लगेंगे। सुबह देखने पर पूरी जमीन जोतने के बराबर हो जाएगी। बाद में सूअरों को भगाकर जमीन समतल कर लेते थे और खेती बारी करते थे। उस कार्य के पीछे विज्ञान का योगदान नाम मात्र न था। यह कहना अत्युक्ति न होगी कि ट्रैक्टर नाम के इस नए आविष्कार के प्रेरक तो जंगली सूअर ही थे। कहने का तात्पर्य यह है कि प्राकृतिक साधनों का पूरा फायदा उठाना हमारे पूर्वज खूब जानते थे। बाद में वैज्ञानिकों ने जो सुविधाएँ प्रदान की थी, उनमें से अधिकांश को पूर्वकाल में ही प्रकृति पर निर्भर होकर हमारे पूर्वजों ने पा लिया था । यही कारण था कि नए आविष्कारों पर उन्हें इतना विस्मय न था जितना अन्य देशवासियों को था। यही कारण था कि हम अपनी पुरानी सभ्यता और संस्कृति पर डटे रहे।
चिकित्सा और औषधियों के मामलों पर भी बात यही थी । रोगों से छुटकारा पाने के लिए जो काम आज दवा की गोलियाँ किया करती हैं, उसे जंगली बूटियाँ करती थीं। मृत व्यक्ति को जीवित कराने के लिए भी बूटियाँ उपलब्ध थीं। श्रीमद वाल्मीकि रामायण में संजीवनी बूटी का जो उल्लेख हुआ है, वह इस बात का साक्षी है। प्राचीन काल के सिद्ध जो थे, वे तपश्चर्या करने के साथ-साथ वैद्य का काम भी किया करते थे। पहाड़ियों में विचरण करना और विशिष्ट प्रकार की दवा बूटियों को ढूँढ़ लेना भी उनका काम था। विभिन्न प्रकार के रोगों के निवारण के लिए तरह-तरह को बूटियों को खोज रखा था उन्होंने। आज भी भारत के पहाड़ी इलाकों में बसे घने जंगलों में विभिन्न प्रकार के रोगों के लिए बूटियों का होना वैज्ञानिकों द्वारा मान लिया गया है ।
(क) आज तीर्थ यात्राएँ किस प्रकार संपन्न की जाती हैं ?
उत्तर – पैदल चलकर |
(ख) शावरबाथ और संध्या वंदन शब्दों का अर्थ स्पष्ट करें।
उत्तर – शावरबाथ- फव्वारे द्वारा किया गया स्नान
संध्या- वंदन- सायंकाल होने वाली पूजा-अर्चना ।
(ग) ट्रैक्टर के आविष्कार की प्रेरणा किस से मिली ?
उत्तर – ट्रैक्टर के आविष्कार के प्रेरक जंगली सूअर थे ।
(घ) रामायण में संजीवनी बूटी का प्रयोग किस पात्र पर किया गया ?
उत्तर – संजीवनी बूटी का प्रयोग लक्ष्मण पर किया गया ।
(ङ) साक्षी व तपश्चर्या शब्दों का अर्थ बताएँ ।
उत्तर – साक्षी – गवाह
तपश्चर्या – तप करने की क्रिया, तपस्या करना।
(च) ‘आट लगाना’ का क्या अर्थ है ?
उत्तर – आट लगाना अर्थात् बाड़ लगाना, घेराबंदी करना ।
(छ) भारतीय जन अपनी प्राचीन रीतियों को क्यों अपनाते चले आ रहे हैं ?
उत्तर – भारतीय जन अपनी रीतियों पर आस्था रखने के कारण ही उन्हें आज तक अपनाते चले आ रहे हैं ।
(ज) प्राचीन भारत में दवा की गोलियों की बजाए किससे काम लिया जाता था ?
उत्तर – जड़ी-बूटियों और प्रभावकारी वनस्पतियों से।
(झ) संजीवनी बूटी किसे कहा जाता था ?
उत्तर – वह बूटी, जिसे खाकर मरा हुआ मनुष्य भी जीवित हो उठता है।
(ञ) ‘भारतवासी’ का विग्रह करके समास का नाम लिखें ।
उत्तर – भारत का वासी; तत्पुरुष समास ।
(ट) ‘रहन-सहन’ में कौन-सा समास है ?
उत्तर – द्वंद्व समास ।
(ठ) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखें ।
उत्तर – शीर्षक- महान भारतीय संस्कृति ।
6. एक आदमी को व्यर्थ बक-बक करने की आदत है। यदि वह अपनी आदत को छोड़ता है, तो वह अपने व्यर्थ बोलने के अवगुण को छोड़ता है। किंतु साथ ही और अनायास ही वह मितभाषी होने के सद्गुण को अपनाता चला जाता है । यह तो हुआ ‘हाँ’ पक्ष का उत्तर । किन्तु एक-दूसरे आदमी को सिगरेट पीने का अभ्यास है। वह सिगरेट पीना छोड़ता है और उसके बजाय दूध से प्रेम करना सीखता है, तो सिगरेट पीना छोड़ना एक अवगुण को छोड़ना है और दूध से प्रेम जोड़ना एक सद्गुण को अपनाना है। दोनों ही भिन्न वस्तुएँ हैं पृथक-पृथक ।
अवगुण को दूर करने और सद्गुण को अपनाने के प्रयत्न में, मैं समझता हूँ कि अवगुणों को दूर करने के प्रयत्नों की अपेक्षा सद्गुणों को अपनाने का ही महत्त्व अधिक है। किसी कमरे में गंदी हवा और स्वच्छ वायु एक साथ रह ही नहीं सकती। कमरे में हवा रहे ही नहीं, यह तो हो ही नहीं सकता । गंदी हवा को निकालने का सबसे अच्छा उपाय एक ही है- सभी दरवाजे और खिड़कियाँ खोलकर स्वच्छ वायु को अन्दर आने देना ।
अवगुणों को भगाने का सबसे अच्छा उपाय है, सद्गुणों को अपनाना ।
ऐसी बातें पढ़-सुनकर हर आदमी वह बात कहता सुनाई देता है जो किसी समय बेचारे दुर्योधन के मुँह से निकली थी-
“धर्म जानता हूँ, उसमें प्रवृत्ति नहीं। अधर्म जानता हूँ, उससे निवृत्ति नहीं।” एक आदमी को कोई कुटेव पड़ गई- सिगरेट पीने की ही सही । अत्यधिक सिनेमा देखने की ही सही । बेचारा बहुत संकल्प करता है, बहुत कसमें खाता है कि अब सिगरेट न पीऊँगा, अब सिनेमा देखने न जाऊँगा, किन्तु समय आने पर जैसे आप-ही- आप उसके हाथ सिगरेट तक पहुँच जाते हैं और सिगरेट उसके मुँह तक। बेचारे के पाँव सिनेमा की ओर जैसे आप ही आप बढ़े चले जाते हैं। क्या सिगरेट न पीने का और सिनेमा न देखने का उसका संकल्प सच्चा नहीं ? क्या उसने झूठी कसम खाई है ? क्या उसके संकल्प की दृढ़ता में कमी है ? नहीं, उसका संकल्प तो उतना ही दृढ़ है जितना किसी का हो सकता है। तब उसे बार-बार असफलता क्यों होती है ? शायद असफलता का कारण इसी संकल्प में छिपा है ।
हम यदि अपने संकल्प-विकल्पों द्वारा अपने अवगुणों को बलवान न बनाएँ तो हमारे अवगुण अपनी मौत आप मर जाएँगे।
आपकी प्रकृति चंचल है, आप अपने ‘गंभीर स्वरूप’ की भावना करें। यथावकाश अपने मन में ‘गंभीर स्वरूप’ का चित्र देखें । अचिरकाल से ही आपकी प्रकृति बदल जाएगी।
(क) गंदी हवा को दूर करने का सर्वोत्तम उपाय क्या है ?
उत्तर – गंदी हवा को दूर करने का सर्वोत्तम उपाय है— स्वच्छ हवा को आने देना।
(ख) अवगुण को दूर करने का सर्वोत्तम उपाय क्या है ?
उत्तर – अवगुण को दूर करने का सर्वोत्तम उपाय है- सद्गुणों को अपनाना ।
(ग) लेखक अवगुणों को छोड़ने का संकल्प क्यों नहीं कराना चाहता ?
उत्तर – लेखक अवगुणों को छोड़ने का संकल्प इसलिए नहीं कराना चाहता क्योंकि उससे अवगुण और पक्के होते हैं। उससे अवगुण चिंतन के केन्द्र में आ जाते हैं।
(घ) चंचल स्वभाव को छोड़ने के लिए क्या करना चाहिए ?
उत्तर – चंचल स्वभाव को छोड़ने के लिए अपने सामने अपने गंभीर रूप की भावना करनी चाहिए।
(ङ) ‘अनायास’ का अर्थ स्पष्ट करें।
उत्तर – बिना प्रयास किए, स्वयंमेव ।
(च) मितभाषी का विपरीतार्थक लिखें।
उत्तर – अतिभाषी, वाचाल ।
(छ) ‘पृथक्’ और ‘अभ्यास’ के कौन-कौन से पर्यायवाची शब्द प्रयुक्त हुए हैं ?
उत्तर – पृथक्- भिन्न
अभ्यास – आदत ।
(ज) सद्गुण और प्रवृत्ति के विलोम लिखें।
उत्तर – सद्गुण-दुगु
प्रवृत्ति- निवृत्ति ।
(झ) अनायास का संधिच्छेद करें।
उत्तर – अन् + आयास ।
(ञ) महत्त्व में प्रयुक्त प्रत्यय अलग करें ।
उत्तर – त्व ।
(ट) ‘यथावकाश’ में कौन-सा समास है ?
उत्तर – अव्ययीभाव ।
(ठ) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखें।
उत्तर – शीर्षक- सद्गुणों को अपनाने के उपाय।
7. साहस की जिंदगी सबसे बड़ी जिंदगी होती है। ऐसी जिंदगी की सबसे बड़ी पहचान यह है कि वह बिल्कुल निडर, बिल्कुल बेखौफ होती है। साहसी मनुष्य की पहली पहचान यह है कि वह इस बात की चिंता नहीं करता कि तमाशा देखने वाले लोग उसके बारे में क्या सोच रहे हैं। जनमत की उपेक्षा करके जीने वाला आदमी दुनिया की असली ताकत होता और मनुष्यता को प्रकाश भी उसी आदमी से मिलता है । अड़ोस-पड़ोस को देखकर चलना, यह साधारण जीव का काम है। क्रांति करने वाले लोग अपने उद्देश्य की तुलना न तो पड़ोसी के उद्देश्य से करते हैं और न अपनी चाल को ही पड़ोसी की चाल देखकर मद्धिम बनाते हैं । साहसी मनुष्य उन सपनों में भी रस लेता है जिन सपनों का कोई व्यावहारिक अर्थ नहीं है।
साहसी मनुष्य सपने उधार नहीं लेता, वह अपने विचारों में रमा हुआ अपनी ही किताब पढ़ता है। झुंड में चलना और झुंड में चरना, यह भैंस और भेड़ का काम है। सिंह तो बिल्कुल अकेला होने पर भी मगन रहता है।
अर्नाल्ड बेनेट ने एक जगह लिखा है कि जो आदमी यह महसूस करता है कि किसी महान निश्चय के समय वह साहस से काम नहीं ले सका, जिंदगी की चुनौती को कबूल नहीं कर सका, वह सुखी नहीं हो सकता। बड़े मौके पर साहस नहीं दिखाने वाला आदमी बराबर अपनी आत्मा के भीतर एक आवाज सुनता रहता है। एक ऐसी आवाज जिसे वही सुन सकता है और जिसे वह रोक भी नहीं सकता। यह आवाज उसे बराबर कहती रहती है, “तुम साहस नहीं दिखा सके, तुम कायर की तरह भाग खड़े हुए।” सांसारिक अर्थ में जिसे हम सुख कहते हैं उसका न मिलना, फिर भी, इससे कहीं श्रेष्ठ है कि मरने के समय हम अपनी आत्मा से यह धिक्कार सुनें कि तुममें हिम्मत की कमी थी, कि तुममें साहस का अभाव था, कि तुम ठीक वक्त पर जिंदगी से भाग खड़े हुए।
जिंदगी को ठीक से जीना हमेशा ही जोखिम झेलना है और जो आदमी सकुशल जीने के लिए जोखिम का हर जगह पर एक घेरा डालता है, वह अंततः अपने ही
घेरों के बीच कैद हो जाता है और जिंदगी का कोई मजा उसे नहीं मिल पाता क्योंकि जोखिम से बचने की कोशिश में रहता है ।
भोजन का असली स्वाद उसी को मिलता है जो कुछ दिन बिना खाए भी रह सकता है। ‘त्यक्तेन भुंजीथा’, जीवन का भोग त्याग के साथ करो, यह केवल परमार्थ का ही उपदेश नहीं है क्योंकि संयम से भोग करने पर जीवन से जो आनंद प्राप्त होता है, वह निरा भोगी बनकर भोगने से नहीं मिल पाता।
बड़ी चीजें बड़े संकटों में विकास पाती हैं, बड़ी हस्तियाँ बड़ी मुसीबतों में पलकर दुनिया पर कब्जा करती हैं, अकबर ने तेरह साल की उम्र में अपने बाप के दुश्मन को परास्त कर दिया था जिसका एकमात्र कारण यह था कि अकबर का जन्म रेगिस्तान में हुआ था, और वह भी उस समय, जब उसके बाप के पास एक कस्तूरी को छोड़कर और कोई दौलत नहीं थीं
महाभारत में देश के प्रायः अधिकांश वीर कौरवों के पक्ष में थे। मगर फिर भी जीत पांडवों की हुई क्योंकि उन्होंने लाक्षागृह की मुसीबत झेली थी, क्योंकि उन्होंने वनवास के जोखिम को पार किया था ।
(क) किसे सबसे बड़ी जिंदगी बताया गया है ? इसकी क्या पहचान है ?
उत्तर – साहस की जिंदगी को सबसे बड़ी जिंदगी बताया गया है। इसकी पहचान यह है कि वह बिल्कुल निडर और बेखौफ होती है।
(ख) साहसी मनुष्य कौन होता है ?
उत्तर – साहसी मनुष्य वह होता है, जो दूसरों की चिंता नहीं करता। वह जनमत की उपेक्षा करके जीता है ।
(ग) झुंड में कौन रहता है ?
उत्तर – झुंड में चलना और चरना भैंस, भेड़ों का काम है। शेर तो बिल्कुल अकेला होने पर भी मगन रहता है ।
(घ) अर्नाल्ड बेनेट ने क्या लिखा है ?
उत्तर – अर्नाल्ड बेनेट ने लिखा है कि वही आदमी सुखी रह सकता है जो जिंदगी की चुनौती को कबूल करता है और किसी निश्चय के समय साहस से काम लेता है।
(ङ) जिंदगी को ठीक से जीना क्या है ?
उत्तर – जिंदगी को ठीक से जीना हमेशा जोखिम झेलना है। जोखिम से बचने वाले आदमी को जिंदगी का मजा नहीं मिल पाता।
(च) भोजन का असली स्वाद किसे मिलता है ?
उत्तर – भोजन का असली स्वाद उसे मिलता है जो कुछ दिन बिना खाए भी रह सकता हो ।
(छ) जीवन का भोग किस प्रकार करना चाहिए ?
उत्तर – जीवन का भोग त्याग के साथ करना चाहिए । संयम के साथ भोग करने पर जो आनंद मिलता है वह निडर भोगी को नहीं मिल सकता ।
(ज) बड़ी चीजें कब विकास पाती हैं ?
उत्तर – बड़ी चीजें बड़े संकटों में विकास पाती हैं। उनका विकास मुसीबतें झेलने के पश्चात् होता है।
(झ) अकबर महान क्यों बन सका ?
उत्तर – अकबर इसलिए महान बन सका क्योंकि उसका जन्म रेगिस्तान में हुआ था । वह अभावों के मध्य पलकर बड़ा हुआ था ।
(ञ) पांडवों को जीत क्यों हासिल हो सकी ?
उत्तर – पांडवों के पास वीरों की संख्या कम थी फिर भी उन्हें जीत इसलिए हासिल हुई क्योंकि उन्होंने लाक्षागृह की मुसीबत झेली थी और वनवास के जोखिम को पार किया था ।
(ट) उपसर्ग-प्रत्यय अलग करो – सांसारिक, अभाव ।
उत्तर – सांसारिक इक (प्रत्यय),
अभाव – अ (उपसर्ग)
(ठ) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखें।
उत्तर – शीर्षक- ‘साहस की जिंदगी’
8. यदि साहित्य समाज का दर्पण होता तो संसार को बदलने की बात न उठती। कवि का काम यथार्थ जीवन को प्रतिबिंबित करना ही होता तो वह प्रजापति का दर्जा न पाता। वास्तव में प्रजापति ने जो समाज बनाया है, उससे असंतुष्ट होकर नया समाज बनाना कवि का जन्मसिद्ध अधिकार है ।
कवि की यह सृष्टि निराधार नहीं होती। हम उसमें अपनी ज्यों-की-त्यों आकृति भले ही न देखें, पर ऐसी आकृति जरूर देखते हैं जैसी हमें प्रिय है, जैसी आकृति हम बनाना चाहते हैं । कवि अपनी रुचि के अनुसार जब विश्व को परिवर्तित करता है तो यह भी बताता है कि विश्व से उसे असंतोष क्यों है । वह यह भी बताता है कि विश्व में उसे क्या रुचता है जिसे वह फलता-फूलता देखना चाहता है। उसके चित्र के चमकीले रंग और पार्श्व-भूमि की गहरी काली रेखाएँ– दोनों ही यथार्थ जीवन से उत्पन्न होते हैं। इसलिए प्रजापति कवि गंभीर यथार्थवादी होता है, ऐसा यथार्थवादी जिसके पाँव वर्तमान की धरती पर हैं और आँखें भविष्य के क्षितिज पर लगी हुई हैं।
इसलिए मनुष्य साहित्य में अपने सुख-दुःख की बात ही नहीं सुनता, वह उसमें आशा के स्वर भी सुनता है। साहित्य थके हुए मनुष्य के लिए विश्रांति ही नहीं है, वह उसे आगे बढ़ने के लिए उत्साहित भी करता है ।
पंद्रहवीं-सोलहवीं सदी में हिंदी साहित्य ने यही भूमिका पूरी की थी। सामंती पिंजड़े में बंद मानव-जीवन की मुक्ति के लिए उसने वर्ण और धर्म के सींचों पर प्रहार किए थे। कश्मीरी ललदेद, पंजाबी नानक, हिंदी सूर-तुलसी-मीरा- कबीर, बंगाली चंडीदास, तमिल तिरुवल्लुवर आदि-आदि गायकों ने आगे-पीछे समूचे भारत में उस जीर्ण मानव-संबंधों के पिंजड़े को झकझोर दिया था। इन गायकों की वाणी ने पीड़ित जनता के मर्म को स्पर्श कर उसे नए जीवन के लिए बटोरा, उसे आशा दी, उसे संगठित किया और जहाँ-तहाँ जीवन को बदलने के लिए संघर्ष के लिए आमंत्रित भी किया ।
सत्रहवीं और बीसवीं सदी में बंगाली रवींद्रनाथ, हिंदी भारतेंदु, तेलगु वीरेशलिंगम्, तमिल भारती, मलयाली वल्लतोल आदि-आदि ने अंग्रेजी राज और सामंती अवशेषों के पिंजड़े पर फिर प्रहार किया। एक बार फिर उन्होंने भारत की दुःखी जनता को बटोरा, उसे संगठित किया, उसकी मनोवृत्ति बदली, उसे सुखी स्वाधीन जीवन की तरफ बढ़ने के लिए उत्साहित किया ।
साहित्य का पांचजन्य समर-भूमि में उदासीनता का राग नहीं सुनाता । वह मनुष्य को भाग्य के आसरे बैठने और पिंजड़े में पंख फड़फड़ाने की प्रेरणा देने वालों के वह पंख कतर देता है। वह कायरों और पराभव प्रेमियों को ललकारता हुआ एक bag बार उन्हें भी समर-भूमि में उतरने के लिए बुलावा देता है।
(क) ‘साहित्य समाज का दर्पण है’- आशय स्पष्ट करें।
उत्तर – इसका आशय है- साहित्य में समाज का सच्चा रूप झलकता है।
(ख) कवि दर्पणकार नहीं, प्रजापति है— आशय स्पष्ट करें।
उत्तर – कवि केवल समाज का ज्यों-का-ज्यों चित्रण नहीं करता, अपितु उसका नव-निर्माण करता है।
(ग) प्रजापति के दो पर्यायवायी लिखें।
उत्तर – विधाता, रचयिता ।
(घ) ‘असंतुष्ट’ में किन उपसर्गों का प्रयोग हुआ है ?
उत्तर – अ, सम्।
(ङ) ‘पराधीन’ का विलोम लिखें।
उत्तर – स्वाधीन।
(च) कवि को प्रजापति बनने की जरूरत क्यों पड़ती है ?
उत्तर – कवि मानव-संबंधों में कमी देखकर उसे अपनी कल्पना और रचना-शक्ति से ठीक करना चाहता है। इसलिए उसे प्रजापति बनने की आवश्यकता पड़ती है।
(छ) ‘पंख फड़फड़ाने’ का क्या आशय है ?
उत्तर – मुक्ति के लिए प्रयत्न करना।
(ज) बीसवीं सदी के साहित्यकारों ने समाज को किसलिए उत्साहित किया ?
उत्तर – इस सदी के साहित्यकारों ने समाज को स्वाधीनता के लिए उत्साहित किया ।
(झ) ‘पंख फड़फड़ाने’ का विपरीतार्थक मुहावरा कौन-सा है ?
उत्तर – पंख कतरना ।
(ञ) साहित्य का पांचजन्य’ का अर्थ स्पष्ट करें।
उत्तर – रूपक ।
(ट) ‘मानव-संबंध’ में कौन-सा समास है ?
उत्तर – तत्पुरुष समास ।
(ठ) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखें।
उत्तर – शीर्षक- कवि : समाज-निर्माता – प्रवक
9. जल और मानव जीवन का संबंध अत्यंत घनिष्ठ है। वास्तव में जल ही जीवन है । विश्व की प्रमुख संस्कृतियों का जन्म बड़ी-बड़ी नदियों के किनारे ही हुआ है। बचपन से ही हम जल की उपयोगिता, शीतलता और निर्मलता के कारण उसकी ओर आकर्षित होते रहे हैं। किंतु नल के नीचे नहाने और जलाशय में डुबकी लगाने में जमीन-आसमान का अंतर है। हम जलाशयों को देखते ही मचल उठते हैं, उसमें तैरने के लिए। आज सर्वत्र सहस्त्रों व्यक्ति प्रतिदिन सागरों, नदियों और झीलों में तैरकर मनोविनोद करते हैं और साथ ही अपना शरीर भी स्वस्थ रखते हैं। स्वच्छ और शीतल जल में तैरना तन को स्फूर्ति ही नहीं मन को शांति भी प्रदान करता है ।
तैराकी आनंद की वस्तु होने के साथ-साथ हमारी आवश्यकता भी है। नदियों के आसपास गाँव के लोग सड़क मार्ग न होने पर एक-दूसरे से तभी मिल सकते हैं जब उन्हें तैरना आता हो अथवा नदियों में नावें हों । प्राचीन काल में नावें कहाँ थीं? तब तो आदमी को तैरकर ही नदियों को पार करना पड़ता था। किंतु तैरने के लिए आदिम मनुष्य को निश्चय ही प्रयत्न और परिश्रम करना पड़ा होगा, क्योंकि उसमें अन्य प्राणियों की भाँति तैरने की जन्मजात क्षमता नहीं है । जल में मछली आदि जलजीवों को स्वच्छंद विचरण करते देख मनुष्य ने उसी प्रकार तैरना सीखने का प्रयत्न किया और धीरे-धीरे उसने इस कार्य में इतनी निपुणता प्राप्त कर ली कि आज तैराकी एक कला के रूप में गिनी जाने लगी है। विश्व में जो भी खेल प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाती हैं, उनमें तैराकी प्रतियोगिता अनिवार्यत रूप से सम्मिलित की जाती है ।
वस्तुतः तैराकी अपने आप में एक कला है, व्यायाम है और खेल तथा मनोरंजन का प्रिय साधन भी, यानी आम के आम गुठलियों के दाम । यदि आप तैरना जानते हैं तो नदी के किनारे खड़े होकर नाव की प्रतीक्षा करने की जरूरत नहीं । तैरिए, नदी पार कीजिए और अपना स्वास्थ्य भी बनाइए। इतना ही नहीं तैराकी प्रतियोगिताओं में भाग लेकर आप विजय और ख्याति का अपार आनंद भी प्राप्त कर सकते हैं ।
आज तैराकी के चार प्रकार प्रचलित हैं- फ्री स्टाइल, बैक स्ट्रोक, ब्रेस्ट और बटरफ्लाई स्ट्रोक । फ्री स्टाइल स्ट्रोक (खुली तैराकी) में तैराक पहले दाहिनी भुजा और फिर बाई भुजा को आगे-पीछे करते पानी को काटते हुए अपने शरीर को आगे बढ़ाता है। पीठ के बल तैरने को बैक स्ट्रोक कहा जाता है और छाती के बल तैरना ब्रेस्ट स्ट्रोक कहलाता है। ब्रेस्ट स्ट्रोक में दोनों भुजाओं का एक साथ संचालन करते हुए छाती के बल अपने शरीर को आगे बढ़ाया जाता है । बटरफ्लाई का अर्थ है ‘तितली’ । इस स्ट्रोक का काफी ढंग तितली के उड़ने से मिलता-जुलता है।
आजकल तो राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तैराकी प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जा रहा है। छोटी आयु की राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं को चार वर्गों में बाँटा जाता है। दस साल से कम दस से बारह बारह से पंद्रह, पंद्रह से सत्रह साल । इसके अतिरिक्त दो सौ और चार सौ मीटर मेडली, सौ और दो सौ मीटर फ्री स्टाइल रिले, डाइविंग और वाटर पोलो आदि प्रतियोगिताएँ हैं।
आज भारत के प्रत्येक राज्य में तैराकी के प्रति उत्साह दिखाई देता है। आवश्यकता है इस उमंग को, इस जोश को उचित मार्गदर्शन की। तैराकी की लोकप्रियता का अनुमान तो इसी बात से लगाया जा सकता है कि भारतीय खेल प्राधिकरण ने स्कूल, कॉलेज के छात्रों को प्रशिक्षण देने की जो योजना शुरू की है, उसमें इस खेल के प्रति सबसे अधिक उत्साह रहा है। स्कूल और कॉलेज के नए प्रतिभाशाली खिलाड़ियों में कुछ कर गुजरने की क्षमता है। हमारी सरकार ने खिलाड़ियों का उत्साह बढ़ाने के लिए कई पुरस्कार योजनाएँ शुरू की हैं। यदि हमें अपने तैराकों को विश्व के श्रेष्ठ तैराकों के समकक्ष खड़ा करना है तो निश्चय ही इसके लिए भारत के छोटे-छोटे गाँवों में छिपे हुए बाल-तैराकों को आगे लाना होगा जो अभी वहाँ के पोखर-तालाबों में ही धमाचौकड़ी मचा कर संतुष्ट हो जाते हैं। समुचित पोषण, समुचित प्रशिक्षण, प्रोत्साहन मिलने पर इनमें से अनेक अपने देश के लिए तैराकी में नए-नए कीर्तिमान स्थापित कर सकेंगे।
निस्संदेह तैराकी एक संपूर्ण व्यायाम है। जल का सुखद स्पर्श तन-मन की थकान मिटा कर नव-स्फूर्ति प्रदान करता है। डॉक्टरों को य तो यहाँ तक कहना है कि तैराकी सबसे अच्छा व्यायाम है, इसलिए इसे दैनिक जीवन का अनिवार्य अंग बना लेना चाहिए । २
(क) जल और जीवन में क्या संबंध है ?
उत्तर – जल और जीवन में अत्यंत घनिष्ठ संबंध है। जीवन को चलाए रखने के लिए जल की आवश्यकता होती है। कहा गया है- जल ही जीवन है।
(ख) आज तैराकी के कौन-कौन से रूप प्रचलित हैं ?
उत्तर – आज तैराकी चार के रूप प्रचलित हैं— फ्री स्टाइल, बैक स्ट्रोक, ब्रेस्ट स्ट्रोक और बटरफ्लाई स्ट्रोक।
(ग) बैक स्ट्रोक और ब्रेस्ट स्ट्रोक तैराकी में क्या अंतर है ?
उत्तर – बैक स्ट्रोक में पीठ के कहलाता है। के बल तैरा जाता है जबकि छाती के बल तै तैरना ब्रेस्ट स्ट्रोक
(घ) सरकार तैराकी को कैसे प्रोत्साहित कर रही है ?
उत्तर – सरकार ने तैराकी को प्रोत्साहित करने के लिए स्कूल एवं कॉलेजों में छात्र-छात्राओं को विशेष प्रशिक्षण दिला रही है।
(ङ) तैरने से हमें क्या मिलता है ?
उत्तर – तैरने से हमें आनंद के साथ-साथ स्फूर्ति और मन की शांति मिलती है।
(च) मनुष्य ने किन्हें देखकर तैरना सीखा होगा? क्या इसमें उसे सफलता मिली ?
उत्तर – मनुष्य ने जल में मछली आदि जल जीवों को स्वच्छंद विचरण करते देखकर तैरना सीखने का प्रयत्न किया होगा। धीरे-धीरे इस काम में उसने निपुणता प्राप्त कर ली ।
(छ) तैराकी अपने आप में कला कैसे है ?
उत्तर – तैराकी एक कला है । तैरना किसी कलाकारी से कम नहीं है। यह व्यायाम, खेल तथा मनोरंजन का साधन भी है ।
(ज) आजकल तैराकी की क्या स्थिति है ?
उत्तर – आजकल तैराकी की अच्छी स्थिति है। अब राष्ट्रीय स्तर पर तैराकी प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जा रहा है।
(झ) तैराकी एक संपूर्ण व्यायाम कैसे है ?
उत्तर – तैराकी एक संपूर्ण व्यायाम हैं। इससे हमारे शरीर के सभी अंगों का व्यायाम हो जाता है। इससे शरीर की थकान मिटकर स्फूर्ति का संचार होता है।
(ञ) ‘राष्ट्रीय’ शब्द में किस प्रत्यय का प्रयोग है ? उससे एक अन्य शब्द बनाएँ ।
उत्तर – ‘राष्ट्रीय’ में ‘ईय’ प्रत्यय का प्रयोग है।
ईय’ प्रत्यय वाला अन्य शब्द है- भारतीय
(ट) विलोम शब्द लिखें- स्वस्थ, शीतलता
उत्तर – स्वस्थ – अस्वस्थ
शीतलता – उष्णता
(ठ) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखें ।
उत्तर – शीर्षक– ‘तैराकी : एक कला’
10. तुम्हें क्या करना चाहिए, इसका ठीक-ठीक उत्तर तुम्हीं को देना होगा, दूसरा कोई नहीं दे सकता। कैसा भी विश्वास पात्र मित्र हो, तुम्हारे इस काम को वह अपने ऊपर नहीं ले सकता। हम अनुभवी लोगों की बातों को आदर के साथ सुनें, बुद्धिमानों की सलाह को कृतज्ञतापूर्वक मानें, पर इस बात को निश्चित समझकर कि हमारे कामों से ही हमारी रक्षा व हमारा पतन होगा, हमें अपने विचार और निर्णय की स्वतंत्रता को दृढ़तापूर्वक बनाए रखना चाहिए। जिस पुरुष की दृष्टि सदा नीची रहती है, उसका सिर कभी ऊपर न होगा। नीची दृष्टि रखने से यद्यपि रास्ते पर रहेंगे, पर इस बात को न देखेंगे कि यह रास्ता कहाँ ले जाता है। चित्त की स्वतंत्रता का मतलब चेष्टा की कठोरता या प्रकृति की उग्रता नहीं है। अपने व्यवहार में कोमल रहो और अपने उद्देश्यों को उच्च रखो, इस प्रकार नम्र और उच्चाशय दोनों बनो। अपने मन को कभी मरा हुआ न रखो। जो मनुष्य अपना लक्ष्य जितना ही ऊपर रखता है, उतना ही उसका तीर ऊपर जाता है ।
संसार में ऐसे-ऐसे दृढ़ चित्त मनुष्य हो गए हैं जिन्होंने मरते दम तक सत्य की टेक नहीं छोड़ी, अपनी आत्मा के विरुद्ध कोई काम नहीं किया। राजा हरिश्चंद्र के ऊपर इतनी-इतनी विपत्तियाँ आईं, पर उन्होंने अपना सत्य नहीं छोड़ा। उनकी प्रतिज्ञा यही रही
“चंद्र टरै, सूरज टरै, टरै जगत व्यवहार ।
पै दृढ़ श्री हरिश्चंद्र कौ, टरै न सत्य विचार ।।”
महाराणा प्रतापसिंह जंगल-जंगल मारे-मारे फिरते थे, अपनी स्त्री और बच्चों को भूख से तड़पते देखते थे, परन्तु उन्होंने उन लोगों की बात न मानी जिन्होंने उन्हें अधीनतापूर्वक जीते रहने की सम्मति दी, क्योंकि वे जानते थे कि अपनी मर्यादा की चिंता जितनी अपने को हो सकती है उतनी दूसरे को नहीं। इतिहासकार एक श कहता है- “प्रत्येक मनुष्य का भाग्य उसके हाथ में है। प्रत्येक मनुष्य अपना जीवन निर्वाह श्रेष्ठ रीति से कर सकता है। यही मैंने किया है और यदि अवसर मिले तो यही करूँ। इसे चाहे स्वतंत्रता कहो, चाहे आत्म-निर्भरता कहो, चाहे स्वावलंबन कहो, जो कुछ कहो, यह वही भाव है जिससे मनुष्य और दास में भेद $ जान पड़ता है, यह वही भाव जिसकी प्रेरणा से म-लक्ष्मण ने ने घर से निकल बड़े-बड़े पराक्रमी वीरों पर विजय प्राप्त की, यह वही भाव है जिसकी प्रेरणा से हनुमान ने अकेले सीता की खोज की, यह वही भाव जिसकी प्रेरणा से कोलंबस ने अमरीका समान बड़ा महाद्वीप ढूँढ निकाला। चित्त की इसी वृत्ति के बल पर कुंभनदास ने अकबर के बुलाने पर फतेहपुर सीकरी जाने से इनकार किया और कहा था –
“मोको कहा सीकरी सों काम ।”
इस चित्त-वृत्ति के बल पर मनुष्य इसलिए परिश्रम के साथ दिन काटता है और दरिद्रता के दुख को झेलता है। इसी चित्त-वृत्ति के प्रभाव से हम प्रलोभनों का निवारण करके करके उन्हें सदा पदद-दलित करते हैं. कु हैं, कुमंत्रणाओं का तिरस्कार करते हैं और शुद्ध चरित्र के लोगों से प्रेम और उनकी रक्षा करते हैं।
(क) मन को मरा हुआ रखने का क्या आशय है ?
उत्तर – मन का उत्साहहीन, निराश, उदास और पराजित बनाए रखना।
(ख) किसका तीर ऊपर जाता है और क्यों ?
उत्तर – जिसका लक्ष्य जितना ऊँचा होता है, उसका तीर उतना ही ऊपर जाता है। लक्ष्य ऊँचा रखने से ऊपर-ही-ऊपर बढ़ने अवसर प्राप्त होते हैं ।
(ग) लेखक नीची दृष्टि न रखने की सलाह क्यों देता है ?
उत्तर – नीची दृष्टि रखने से मनुष्य न तो उन्नति कर पाता है और न ही उच्च दिशा की ओर पाँव रख पाता है ।
(घ) नीची दृष्टि रखने के क्या लाभ हैं ?
उत्तर – नीची दृष्टि का लाभ यह है कि इससे मनुष्य सदा सही रास्ते पर चलता रहता है।
(ङ) कोलंबस और हनुमान ने किस गुण के बल पर महान कार्य किए ?
उत्तर – आत्मनिर्भरता के बल पर ।
(च) मनुष्य किस आधार पर प्रलोभनों को पद- दलित कर पाते हैं ?
उत्तर – आत्मनिर्भरता के आधार पर।
(छ) ‘टेक’ के लिए किस पर्यायवाची शब्द का प्रयोग किया गया है ?
उत्तर – प्रतिज्ञा।
(ज) ‘विश्वासपात्र’ तथा ‘पतन’ के विलोम शब्द लिखें ।
उत्तर – विश्वासपात्र – विश्वासघाती,
पतन – उत्थान।
(झ) सिर ऊपर होने’ का किसी वाक्य में प्रयोग करें ।
उत्तर – अच्छे चरित्र के लोगों का सिर सदा ऊपर रहता है।
(ञ) ‘सम्मति’ में कौन-सा उपसर्ग है ?
उत्तर – सम् ।
(ट) ‘आत्म-निर्भरता का पर्यायवाची शब्द खोजें ।
उत्तर – स्वावलंबन, स्वतंत्रता ।
(ठ) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखें ।
उत्तर – शीर्षक- आत्मनिर्भरता की महिमा ।
11. दुनिया का सबसे सुंदर माना जाने वाला शहर ‘पेरिस’ एक रेखागणित की तरह था। चारों ओर फैले खेत, जिसके हर हिस्से का अपना ही रंग-कुछ हरे या भूरे तो कुछ पीले और उनके बीच खपरैल की लाल छतें फिर बीच से गुजरने वाला रास्ता एक साक्षात् चित्र की तरह।
फ्रांस और फ्रेंच लोगों के बारे में हमने सिर्फ सुना था, सच्चाई अब ढूँढ़ निकालनी थी। कितनी ही बातें कहीं सुनी जाती हैं पर हम जब तक वहाँ जीते नहीं तब तक उसका अर्थ समझ पाना मुश्किल होता है। मन में शक, उत्सुकता और कौतूहल का तूफान उठ रहा था । यद्यपि दो विभिन्न जगहों की तुलना हो ही नहीं सकती, पर फ्रांस की गोद में पेरिस के सिवाय भी बिन देखे-सुने अनेक अनमोल रत्न छुपे हैं। दक्षिण फ्रांस तो पृथ्वी का स्वर्ग ही है। लोग पेरिस को ही फ्रांस समझ लेते हैं लेकिनि पेरिस की आबादी में ज्यादा प्रतिशत विदेशियों का है जो यहाँ आकर बस गए हैं और सही ढंग से उनमें समा गए हैं। जब फ्रांस ‘वर्ल्ड कप’ जीतता है तो उल्लास मनाने वालों की भीड़ में सिर्फ खास फ्रेंच ही नहीं होते हैं, उनमें होते हैं- अलबेरियन, मोरक्कन, टयूनिशीयन और कई अफ्रीकी देशों के लोग! यह फ्रांस की अपनी बहुराष्ट्रीय संस्कृति है।
फिर-से घर बसाते समय ध्यान आया कि भाषा हमें हर पल बोध कराती है कि हम विदेशी हैं लगा, यदि हमें यहाँ जीना है तो इनकी भाषा सीखनी होगी और खुद को इनकी संस्कृति में ढालना होगा। उनमें से एक बनना होगा वरना हम तो चिड़ियाघर के एक और नमूने बनकर रह जाएँगे। एक बार अपना देश छोड़ा तो हम अपने लोगों के लिए परदेश बन जाते हैं और अब इस देश में भी यदि विदेशी बनकर रहना पड़े तो हमारी स्थिति न घर की न घाट की हो जाएगी ।
हमने सुना था कि फ्रेंच अंग्रेजी जान कर भी बोलना नहीं चाहते। परंतु असल बात यह है कि फ्रेंच लोगों को अंग्रेजी बोलने की कोई वजह ही नहीं है। फ्रेंच भाषा अपने-आप में संपूर्ण स्वावलंबी है। विज्ञान के साथ वह भी अपना आविष्कार करती आई है। उसे अंग्रेजी की जरूरत क्यों हो ? यदि इस बात का गर्व इनको हो भी तो उसमें बुराई क्या ? स्कूल में विदेशी भाषाएँ सिखाई जाती हैं लेकिन फ्रेंच स्वभावतः आलसी होते हैं वे आपकी भाषा सीखने से बेहतर आपको अपनी भाषा सिखाना चाहते हैं। इस तरह पहले थोड़ी मेहनत उठाने के बाद उनका काम सहज हो जाता है। वे घमंडी नहीं, शर्मीले होते हैं और शायद यही कारण होगा कि वे आपकी फ्रेंच गलतियों पर हँसते नहीं बल्कि आपको प्रोत्साहन देते हैं और प्रशंसा भी करते हैं। ऐसे वातवरण में हमारे लिए भाषा सीखना काफी सरल बनता गया।
(क) लेखक की स्थिति ‘घर की न घाट की कब हो सकती थी ?
उत्तर – यदि लेखक न तो फ्रेंच भाषा सीखता और न ही वहाँ की संस्कृति में ढलता तो उसकी स्थिति उस गधे जैसी हो जाती, जो न घर का रहा, 2 घाट का। अर्थात् तब वह न तो ठीक तरह से भारतीय हो पाता, न फ्रेंच । वह सबसे अलग-थलग पड़ जाता है।
(ख) फ्रेंच लोग अंग्रेजी भाषा बोलना क्यों नहीं जानते ?
उत्तर – फ्रेंच लोग अंग्रेजी भाषा न तो बोलना जानते हैं, न चाहते हैं। उन्हें इसकी कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। उनकी अपनी भाषा पूरी तरह से स्वावलंबी और संपूर्ण है। सारा ज्ञान-विज्ञान और विकास फ्रेंच भाषा में उपलब्ध है। इसलिए वे अंग्रेजी किसलिए सीखें ?
(ग) फ्रांस की संस्कृति को बहुराष्ट्रीय क्यों कहा गया है ?
उत्तर – लेखक ने फ्रांस की संस्कृति को बहुराष्ट्रीय इसलिए कहा है क्योंकि यहाँ काफी संख्या में विदेशी नागरिक आकर बस गए हैं। वे बस ही नहीं गए, बल्कि यहाँ रच-बस गए हैं। इसलिए फ्रांस द्वारा विश्व कप जीतने पर यहाँ बसे अलबेरियन, मोरक्कन, टयूनिशीयन और अफ्रीकी देशों के लोग भी प्रसन्न होते हैं।
(घ) पेरिस की जनसंख्या के स्वरूप पर प्रकाश डालें।
उत्तर – पेरिस में कुल जनसंख्या का अधिकांश भाग विदेशियों का है। यहाँ बसे विदेशी स्थायी रूप से यहाँ बस गए हैं। वे यहाँ की संस्कृति में रच-बस गए हैं ।
(ङ) पेरिस की संरचना के बारे में लेखक की क्या टिप्पणी है ?
उत्तर – पेरिस की भौगोलिक संरचना रेखागणित के समान है। उसमें चारों ओर फैले खेत हैं। उन खेतों में हर हिस्से का रंग अपनी ही तरह का है- हरा, भूरा, पीला। बीच-बीच में खपरैल की लाल छतें सुशोभित हैं। उनके बीच से गुजरते रास्ते चित्र के समान प्रतीत होते हैं ।
(च) लेखक ने फ्रेंच भाषा के समर्थन में कौन-से तर्क दिए हैं ?
उत्तर – लेखक ने फ्रेंच भाषा के समर्थन में निम्नांकित तर्क दिए हैं –
(i) फ्रेंच अपने आप में संपूर्ण और स्वावलंबी भाषा है।
(ii) वह विज्ञान के आविष्कार करने में समर्थ है। किलपकते
(छ) फ्रेंच लोगों के स्वभाव पर टिप्पणी करें ।
उत्तर – फ्रेंच लोग स्वभाव से आलसी, शर्मीले और सहयोगी होते हैं। वे उदार हृदय से विदेशियों की सहायता करते हैं। वे फ्रेंच ठीक से न बोलने पर विदेशियों की मजाक नहीं उड़ाते बल्कि उन्हें प्रोत्साहन देते हैं ।
(ज) उल्लास के दो पर्यायवाची लिखें।
उत्तर – प्रसन्नता, आह्लाद ।
(झ) इस गद्यांश से ऐसे दो वाक्य खोजें जिसमें निपात का प्रयोग हुआ हो।
उत्तर – (i) धीरे-धीरे भाषा पर काबू आने लगा, जान-पहचान बढ़ी और साथ ही नौकरी उत्तर-भी मिली ।
(ii) कई बार तो कम तनख्वाह की नौकरी करने से ज्यादा मुनाफा, इस सरकारी अनुदान से हो जाता है।
(ञ) ‘घर की न घाट की लोकोक्ति का एक वाक्य में प्रयोग करें।
उत्तर – इस वर्ष न तो मैं इंजीनियरिंग में प्रवेश पा सका, न कॉलेज में प्रवेश ले पाया ।  न मैं घर का रहा, न घाट का ।
(ट) सुंदर, संपूर्ण, स्वावलंबी से भाववाचक संज्ञा बनावें।
उत्तर – सुंदर – सुंदरता ।
संपूर्ण – संपूर्णता ।
स्वावलंबी – स्वावलंबन ।
(ठ) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखें।
उत्तर – शीर्षक- पेरिस- एक बहुराष्ट्रीय नगर ।
12. हम जिस तरह भोजन करते हैं, गाछ-बिरछ भी उसी तरह भोजन करते हैं। हमारे दाँत कठोर हैं, कठोर चीज खा सकते हैं। नन्हें बच्चों के दाँत नहीं होते। वे केवल दूध पी सकते हैं। गाछ-बिरछ के भी दाँत नहीं होते, इसलिए वे केवल तरल द्रव्य या वायु से भोजन ग्रहण करते हैं। गाछ-बिरछ जड़ द्वारा माटी से रसपान करते हैं। चीनी में पानी डालने पर चीनी गल जाती है। माटी में पानी डालने पर उसके भीतर बहुत-से द्रव्य गल जाते हैं। गाछ-बिरछ वे ही तमाम द्रव्य सोखते हैं। जड़ों को पानी न मिलने पर पेड़ का भोजन बंद हो जाता है, पेड़ मर जाता है।
खुर्दबीन से अत्यंत सूक्ष्म पदार्थ स्पष्टतया देखे जा सकते हैं। पेड़ की डाल अथवा जड़ का इस यंत्र द्वारा परीक्षण करके देखा जा सकता है कि पेड़ में हजारों-हजार नल हैं। इन्हीं सब नलों के द्वारा माटी से पेड़ के शरीर में रस का संचार होता है। इसके अलावा गाछ के पत्ते हवा से आहार ग्रहण करते हैं। पत्तों में अनगिनत छोटे-छोटे मुँह होते हैं। खुर्दबीन के जरिए अनगिनत मुँह पर अनगिनत होंठ देखे जा सकते हैं। जब आहार करने की जरूरत न हो तब दोनो होंठ बंद हो जाते हैं। जब हम श्वास लेते हैं और उसे बाहर निकालते हैं तो एक प्रकार की विषाक्त वायु बाहर निकलती है उसे ‘अंगारक’ वायु कहते हैं। अगर यह जहरीली हवा पृथ्वी पर इकट्ठी होती रहे तो तमाम जीव-जंतु कुछ ही दिनों में उसका सेवन करके नष्ट हो सकते हैं। “जरा विधाता की करुणा का चमत्कार तो देखो जो जीव-जंतुओं के लिए जहर है, गाछ-बिरछ उसी का सेवन करके उसे पूर्णतया शुद्ध कर देते हैं। पेड़ के पत्तों पर जब सूर्य का पड़ता है, तब पत्ते सूर्य ऊर्जा के सहारे ‘अंगारक’ वायु से अंगार निःशेष कर डालते हैं और यही अंगार ि बिरछ Fys के शरीर में प्रवेश करके उसका संवर्द्धन करते हैं।” पेड़-पौधे प्रकाश चाहते हैं । प्रकाश न मिलने पर बच नहीं सकते। गाछ-बिरछ की सर्वाधिक कोशिश यही रहती है कि किसी तरह उन्हें थोड़ा-सा प्रकाश मिल जाए। यदि खिड़की के पास गमले में पौधे रखो, तब देखोगे कि सारी पत्तियाँ व डालियाँ अंधकार से बचकर प्रकाश की ओर बढ़ रही हैं। वन में जाने पर पता लगेगा कि तमाम गाछ-बिरछ इस होड़ में सचेष्ट हैं कि कौन जल्दी से सर उठाकर पहले प्रकाश को झपट ले । बेल-लताएँ छाया छ में पड़ी रहने से प्रकाश के अभाव में मर जाएँगी। इसीलिए वे RE पेड़ों से लिपटती हुई, निरंतर ऊपर की ओर अग्रसर होती रहती हैं।
अब तो समझ गए होंगे कि प्रकाश ही जीवन का मूलमंत्र है। सूर्य-किरण का परस पाकर ही पेड़ पल्लवित होता है। गाछ-बिरछ के रेशे – रेशे में सूरज की किरणें आबद्ध हैं। ईंधन को जलाने पर जो प्रकाश व ताप बाहर प्रकट होता है वह सूर्य मी ऊर्जा है।
(क) पेड़ की मृत्यु कब होती है ?
उत्तर – जड़ों को पानी न मिलने पेड़ का भोजन बंद हो जाता र मृत्यु हो जाती है।
(ख) वृक्ष जल किस प्रकार पीते हैं ?
उत्तर – वृक्ष जड़ों और डालों में उगे असंख्य नलों द्वारा ज जल ग्रहण करते हैं।
(ग) वृक्ष वायु का सेवन किस प्रकार करते हैं ?
उत्तर – वृक्ष के पत्तों पर असंख्य मुँह होते हैं। वे उन्हीं के द्वारा साँस लेकर वायु का सेवन  करते हैं।
(घ) ‘गाछ-बिरछ का क्या अर्थ है ?
उत्तर – पेड़-पौधे।
(ङ) गाछ-बिरछ किस प्रकार भोजन ग्रहण करते हैं ?
उत्तर – गाछ-बिरछ जल और वायु द्वारा भोजन ग्रहण करते हैं
(च) ‘अंगारक’ वायु किसे कहते हैं ?
उत्तर – मुँह से निकलने वाली साँस के साथ निकलने वाली वायु को ‘अंगारक वायु’ कहते हैं ।
(छ) ‘सूर्य’ के दो पर्यायवाची लिखें।
उत्तर – सूरज, दिनकर
(ज) ‘श्वास’ का तद्भव लिखें ।
उत्तर – साँस ।
(झ) ‘गाछ-बिरछ’ और ‘सूर्य-किरण’ में कौन-सा समास है ?
उत्तर – गाछ-बिरछ- द्वंद्व समास ।
सूर्य-किरण- तत्पुरुष समास।
(ञ) ‘गाछ-बिरछ शब्द-युग्म के लिए और कौन-सा शब्द-युग्म प्रयुक्त किया गया है ?
उत्तर – पेड़-पौधे।
(ट) ‘संवर्द्धन’ में कौन-सा उपसर्ग प्रयुक्त हुआ है ?
उत्तर – सम् ।
(ठ) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखें।
उत्तर – शीर्षक- पेड़ों का जीवन ।
13. प्राचीन भारत के इतिहास के पन्नों को पलटें तो नारियों की गौरवमयी गाथाएँ भरी पड़ी हैं। हमारे पूर्वजों का कथन है कि ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यते रमन्ते तत्र देवता’। यहाँ पूजा से तात्पर्य उनकी मान-मर्यादा और अधिकारों की रक्षा करने से है। उन्हें लक्ष्मी और गृह-देवियों के नाम से संबोधित किया जाता था । पुरुष के समान ही उन्हें शिक्षा मिलती थी । जीवन के बड़े से बड़ा धार्मिक अनुष्ठान उनके बिना पूरा नहीं होता था। देवासुर संग्राम में कैकयी के अद्वितीय कौशल को देखकर दशरथ भी चकित हो गये थे। मैत्रेयी शकुंतला, सीता, अनुसूया, दमयंती, सावित्री आदि स्त्रियाँ इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।
समय परिवर्तनशील है। आज के समय में मानव लड़की की अपेक्षा लड़के को अधिक महत्त्व देता है। ईश्वर ने पुरुष को नारी की अपेक्षा अधिक शक्ति प्रदान की है। यह स्वयं को नारी का संरक्षक मानता है। पुरुष प्रायः धन का अर्जन करता है तथा ‘नारी’ घर का दायित्व संभालती है। वर्तमान युग में भी पुरुष को नारी की अपेक्षा अधिक स्वतंत्रता प्राप्त है। भारत में ही नहीं अपितु विश्व के विकसित देशों में भी नारी की स्थिति शोचनीय है। उन्हें उचित सम्मान नहीं मिलता। जितना अधिक देश विकसित है उतनी ही नारी की स्थिति दयनीय है। कारण उन देशों में नारी घर से बाहर निकलती है। बाहर निकलने का परिणाम यह होता है कि उसको पुरुषों के अहम् से पग-पग पर जूझना पड़ता है। हमारा समाज पुरुष प्रधान है। यहाँ जो भी नियम बनाए जाते हैं वे के द्वारा ही पुरुष बनाए जाते हैं । अतः कैसे संभव है कि वे नियम अपने विरुद्ध बनाए। नारी के उत्थान और पतन के पीछे भी पुरुष का ही हाथ होता है। अतः नारी की हमारे समाज में क्या स्थिति होगी यह स्वयं ही परिभाषित है। भारत के गाँवों में स्त्रियों को पिता, पति अथवा पुत्र के अधीन रहना पड़ता है। ग्रामीण स्त्रियाँ प्रायः तंगी का शिकार होती हैं। उनके स्वास्थ्य और शिक्षा के विषय में भी अधिक ध्यान नहीं दिया जाता है ।
वास्तव में, आधुनिक युग में कहने के लिए लड़का-लड़की एक समान है किंतु इसके पीछे भी रहस्य कुछ और ही है। यदि यह सच होता तो असंख्य मादा भ्रूणों को गर्भ में नष्ट नहीं किया जाता। इसके परिणाम यह निकल रहे हैं कि लड़का-लड़की के प्रतिशत में काफी अंतर आ रहा है। इसका सीधा प्रभाव प्रकृति के संतुलन पर पड़ता है। पिछली शताब्दी में गुजरात में ‘दूधपीती प्रथा के अंतर्गत सदयजात लड़कियों को दूध से भरे पात्र में डुबोकर मार दिया जाता था। परंतु इससे भी अधिक दुख का विषय है कि आजकल तो अधिकांश लड़कियों की जन्म से पहले ही हत्या कर दी जाती है। गर्भपात को कानून की दृष्टि से अपराध नहीं माना जाता । ऐसी विषम स्थिति में लड़का-लड़की को एक समान कहने वाली बात हास्यास्पद लगती है। अधिकांश माता-पिता लड़कियों को ‘बोझ’ के रूप में देखते हैं। दहेज प्रथा की भयावहता लड़की के जीवन के आकाश में जाती है। लड़कियाँ भी घर से बाहर निकल कर अपने आप धूमकेतु बनकर छा को असुरक्षित अनुभव करती हैं। हैं। अनेक लड़कियाँ तो विवाह के पश्चात जीवन-भर तनाव सहने को विवश हो जाती हैं। यह स्थिति केवल अशिक्षित लड़कियों की ही नहीं बल्कि शिक्षित लड़कियों की भी है।
यह हर्ष का विषय है कि आधुनिक नारी की स्थिति में परिवर्तन आ रहा है। वह शिक्षित हो रही है। आर्थिक तौर पर मजबूत हो रही है। घर से बाहर निकल रही है। पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है। वह अपने अस्तित्व और गौरव को पहचान रही है। अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को वापिस ला रही है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात से आज तक नारी विभिन्न क्षेत्रों में दिन पर दिन अपनी प्रतिभा का परिचय दे रही है किंतु इतने होने पर भी वह पुरुष के समान नहीं बन पाई है यह कार्य कोई एक दिन में तो होगा नहीं इसमें समय लगेगा। आशा की जा सकती है कि वह भी जरूर आएगा जब वह पुरुष के बराबर अपना स्थान बना लेगी।
(क) हमारे पूर्वजों ने नारी के बारे में क्या कहा है ?
उत्तर – हमारे पूर्वजों ने नारी को सम्मानजनक स्थान देते हुए कहा है कि जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ देवता निवास करते हैं। सभी धार्मिक अनुष्ठानों में नारी की उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती थी ।
(ख) आज के समय में नारी संबंधी दृष्टिकोण में क्या परिवर्तन आया है ?
उत्तर – आज के समय में नारी संबंधी दृष्टिकोण में यह परिवर्तन आया है कि लड़की के स्थान पर लड़के को अधिक महत्व दिया जाने लगा है। पुरुष को अधिक सशक्त माना जाने लगा है।
(ग) हमारे समाज में किसकी प्रधानता बनाए धानता है ? इसका क क्या प्रभाव देखने में आता है ?
उत्तर – हमारे समाज में पुरुष की प्रधानता है। समाज के सारे नियम पुरुषों द्वारा गए हैं। पुरुषों ने अपने स्वार्थ सिद्धि वाले नियम बनाए हैं। नारी हमेशा तंगी की शिकार रहती है।
(घ) वर्तमान समय में लड़कियों की क्या दशा है ?
उत्तर – वर्तमान समय में अधिकांश माता-पिता लड़कियों को बोझ के रूप में में देखते हैं । दहेज का भयावह रूप भी लड़की के जीवन को बर्बाद करता है। लड़कियाँ स्वयं को असुरक्षित अनुभव करती है।
(ङ) किस बात को हर्ष का विषय बताया गया है और क्यों ?
उत्तर – इस बात को हर्ष का विषय बताया गया है कि अब नारी की स्थिति में परिवर्तन आ रहा है। अब नारी शिक्षित होकर आर्थिक तौर पर मजबूत बन रही है। वह घर से बाहर निकलकर पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रही है। वह खोई प्रतिष्ठा पुनः पा रही है ।
(च) विश्व भर में नारी की क्या स्थिति है ?
उत्तर – भारत सहित विश्व भर में नारी की स्थिति शोचनीय है। विकसित देशों तक में नारी की उचित सम्मान नहीं मिलता। उसे पग-पग पर पुरुष के अहं से जूझना पड़ता है।
(छ) क्या लड़के-लड़की को एक समान माना जाता है ? अपने कथन के पक्ष में एक तर्क दें ।
उत्तर – हमारे समाज में लड़के-लड़की को एक समान नहीं माना जाता, भले कहा कुछ भी जाए। असंख्य मादा भ्रूणों को गर्भ में ही नष्ट कर दिया जाता है। लड़की के जन्म लेने पर भी उसे मारने के प्रयास किए जाते हैं।
(ज) नारी की संवैधानिक और वास्तविक स्थिति में क्या अंतर दिखाई देता है ?
उत्तर – नारी की संवैधानिक स्थिति यह है कि उसे पुरुष के समान ही अधिकार प्राप्त हैं। पर व्यावहारिक रूप में नारी को आज भी पुरुषों पर आश्रित रहना पड़ता है।
(झ) नारी पर पाश्चात्य सभ्यता का क्या दुष्प्रभाव पड़ रहा है ?
उत्तर – नारी पाश्चात्य सभ्यता की अंधाधुंध नकल कर रही है और अपने मूल संस्कारों को भूल रही है। वह फैशन की चकाचौंध में अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह नहीं कर पा रही है।
(ञ) विलोम शब्द लिखें- असुरक्षित, निर्दोष ।
उत्तर – असुरक्षित – सुरक्षित
निर्दोष –  सदोष (दोषी)
(ट) प्रत्यय अलग करके लिखें- विकसित, आर्थिक ।
उत्तर – विकसित इत (प्रत्यय)
आर्थिक – इक (प्रत्यय)
(ठ) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखें ।
उत्तर – शीर्षक- नारी की स्थिति
14. हँसी भीतरी आनंद का बाहरी चिह्न है। जीवन की सबसे प्यारी और उत्तम-से-उत्तम वस्तु एक बार हँस लेना तथा शरीर को अच्छा रखने की अच्छी-से-अच्छी दवा एक बार खिलखिला उठना है। पुराने लोग कह गए हैं कि हँसो और पेट फुलाओ। हँसी कितने ही कला-कौशलों से भली है। जितना ही अधिक आनंद से हँसोगे उतनी ही आयु बढ़ेगी। एक यूनानी विद्वान कहता है कि सदा अपने कर्मों पर झींखने वाला हेरीक्लेस बहुत कम जिया, पर प्रसन्न मन डेमाक्रीटस 109 वर्ष तक जिया । हँसी-खुशी ही जीवन है। जो रोते हैं, उनका जीवन व्यर्थ है। कवि कहता है- जिंदगी जिंदा दिली का नाम है, मुर्दादिल खाक जिया करते हैं।
मनुष्य के शरीर के वर्णन पर एक विलायती विद्धान ने एक पुस्तक लिखी है। उसमें वह कहता है कि उत्तम सु-अवसर की हँसी उदास-से-उदास मनुष्य के चित्त को प्रफुल्लित कर देती है । आनंद एक ऐसा प्रबल इंजन है कि उससे शोक और दुःख की दीवारों को ढाह सकते हैं। प्राण-रक्षा के लिए सदा सब देशों में उत्तम-से-उत्तम उपाय चित्त को प्रसन्न रखना है। सुयोग्य वैद्य अपने रोगी के कानों में आनंदरूपी मंत्र सुनाता है।
एक अंग्रेज डॉक्टर कहता है कि किसी नगर में दवाई लदे हुए बीस गधे ले जाने से एक हँसोड़ आदमी को ले जाना अधिक लाभकारी है। डॉक्टर हस्फलेंड ने एक पुस्तक में आयु बढ़ाने का उपाय लिखा है। वह लिखता है कि हँसी बहुत उत्तम चीज है, इससे अच्छी औषधि और नहीं है। एक रोगी ही नहीं, सबके लिए हँसी शरीर के स्वास्थ्य का शुभ संवाद देने वाली वाली है। वह एक साथ ही शरीर और मन को प्रसन्न करती है। पाचन-शक्ति बढ़ाती है, रक्त को चलाती और पसीना लाती है। हँसी एक शक्तिशाली दवा है । एक डॉक्टर कहता है कि वह जीवन की मीठी मदिरा है। डॉक्टर ह्युंड कहता है कि आनंद से बढ़कर बहुमूल्य वस्तु मनुष्य के पास और नहीं है। उक्त कारलाइल एक राजकुमार था। संसार त्यागी हो गया था। वह कहता है कि जो जी से हँसता है, वह कभी बुरा नहीं होता। जी से हँसो, तुम्हें अच्छा लगेगा। अपने मित्र को हँसाओ, वह अधिक प्रसन्न होगा। शत्रु को हँसाओ, तुम से कम घृणा करेगा । एक को हँसाओ, उसका दुख शथक अनजान को हँसाओ, तुम पर वह भर भरोसा करेगा। उदास को हर घटेगा । एक निराश को हँसाओ, उसकी आशा बढ़ेगी। एक बूढ़े को हँसाओ, वह अपने को जवान समझने लगेगा। एक बालक को हँसाओ, उसके स्वास्थ्य में वृद्धि होगी। वह प्रसन्न और प्यारा बालक क बनेगा। पर हमारे जीवन का उद्देश्य केवल हँसी ही नहीं है, हमको बहुत काम करने हैं। तथापि उन कामों में, कष्टों में और चिंताओं में एक सुंदर आंतरिक हँसी जैसी बड़ी प्यारी वस्तु भगवान् ने दी है।
हँसी सबको भली लगती है। मित्र-मंडली में हँसी विशेषकर प्रिय लगता है। जो मनुष्य हँसते नही उन्हें ईश्वर बचाये। जहाँ तक बने हँसी से आनंद प्राप्त करो। प्रसन्न लोग कोई बुरी बात नहीं करते। हँसी बैर और बदनामी की शत्रु है और भलाई की सखी है। हँसी स्वभाव को अच्छा करती है। जी बहलाती है और बुद्धि को निर्मल करती है। हँसी सजे-सजाए घर के समान है। मनुष्य रोने के लिए नहीं बनाया गया। हँसने के लिए ही आदमी बना है। मनुष्य खूब जोर से हँस सकता है, पशु-पक्षी को ईश्वर ने वह शक्ति नहीं दी। मनुष्य हँसने मुस्काने, गीत गाने और स्तुति करने के लिए बनाया गया है। हँसी भय भगाती है, दुःख मिटाती है, निराशा को घटाती है ।
(क) मनुष्य के शरीर पर विलायती विद्वान ने क्या लिखी है ?
उत्तर – विलायती के अनुसार उत्तम अवसर की हँसी उदास मनुष्य को प्रफुल्लित कर देती है और आनंद से दुख शोक की दीवार ढह जाती है।
(ख) डॉक्टर हस्फलेंड ने आयु बढ़ाने का क्या उपाय लिखा है ?
उत्तर – डॉक्टर ने लिखा है कि हँसी पाचन के लिए बहुत उत्तम चीज है, इससे अच्छी औषधि और नहीं है। हँसी सभी रोगियों के लिए उत्तम है।
(ग) यूनानी विद्धान ने क्या लिखा है ?
उत्तर – यूनानी विद्धान के अनुसार अपने कर्मों पर खीझने वाला हेरीक्लेस बहुत कम जिया और प्रसन्न मन डेमाक्रीटस 109 वर्ष तक जिया ।
(घ) हँसी किस प्रकार स्वास्थ्यवर्धक होती है ?
उत्तर – हँसी एक साथ ही शरीर और मन को प्रसन्न करती है, पाचन शक्ति बढ़ाती है तथा जीवन के लिए शक्तिशाली दवा है।
(ङ) हँसी भीतरी आनंद को कैसे प्रकट करती है ?
उत्तर – हँसी भीतरी आनंद का बाहरी चिह्न है। हँसी जीवन में उल्लास, उमंग और प्रसन्नता का संचार करती है। हँसी शरीर और मन को स्वस्थ बनाती है ।
(च) पुराने समय में लोगों ने हँसी को महत्त्व क्यों दिया ?
उत्तर – जिस तरह कला आनंद का संचार करती है उसी तरह हँसी भी आनंद का संचार करती है। हँसी अनेक कला-कौशलों से अच्छी है। हँसी-प्रदत्त आनंद आयु को बढ़ाता है।
(छ) हँसी को एक शक्तिशाली इंजन की तरह क्यों माना गया है ?
उत्तर – हँसी से प्राप्त आनंद के शक्तिशाली इंजन से शोक और दुख की दीवारों को ढाया जा सकता है।
(ज) इस गद्यांश में हँसी का क्या महत्व बताया गया है ?
उत्तर – प्रसन्न व्यक्ति स्वस्थ रहता है। उसके मन मे सदैव उमंग, उत्साह और उल्लास रहता है। प्रसन्नचित्त व्यक्ति सदैव अपने कार्यों को कुशलता से पूरा करता है, मित्रों में लोकप्रिय होकर अपने शत्रुओं को भी मित्र बना लेता है ।
(झ) हँसी सभी के लिए उपयोगी किस प्रकार है ?
उत्तर – हँसी सबके लिए उपयोगी है। हँसी उदास और निराश व्यक्ति में प्रसन्नता और आशा का संचार करती है, बालक के स्वास्थ्य में वृद्धि करती है, शत्रु के मन में घृणा कम करती है और वृद्ध व्यक्ति में नए जीवन का संचार करती है।
(ञ) ‘मित्र-मंडली’ का समास विग्रह करें और समास का नाम भी बताएँ ।
उत्तर – मित्र मंडली- ‘मित्रों की मंडली’ – तत्पुरुष समास ।
(ट) ‘प्रफुल्लित’ शब्द में प्रयुक्त प्रत्यय अलग करें।
उत्तर – प्रफुल्लित – प्रफुल्ल + इत (प्रत्यय) ।
(ठ) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखें। 
उत्तर – शीर्षक- हँसी-खुशी या हँसी-आनंद का स्रोत ।
15. शास्त्री जी की एक सबसे बड़ी विशेषता थी कि वे एक सामान्य परिवार में पैदा हुए थे, सामान्य परिवार में ही उनकी परवरिश हुई और जब वे देश के प्रधानमंत्री जैसे महत्त्वपूर्ण पद पर पहुँचे, तब भी वह सामान्य ही बने रहे।’ विनम्रता सादगी और सरलता उनके व्यक्तित्व में एक विचित्र प्रकार का आकर्षण पैदा करती थी । इस दृष्टि से शास्त्री जी का व्यक्तित्व बापू के अधिक करीब था और कहना न होगा कि बापू से प्रभावित होकर ही सन् 1921 में उन्होंने अपनी पढ़ाई छोड़ी थी। शास्त्री जी पर भारतीय चिंतकों, डॉ० भगवानदास तथा बापू का कुछ ऐसा प्रभाव रहा कि वह जीवन-भर उन्हीं के आदर्शों पर चलते रहे तथा औरों को इसके
लिए प्रेरित करते रहे। शास्त्री जी के सम्बन्ध में मुझे बाइबिल की वह उक्ति बिल्कुल सही जान पड़ती है कि विनम्र ही पृथ्वी के वारिस होंगे।
शास्त्री जी ने हमारे देश के स्वतंत्रता संग्राम में तब प्रवेश किया था, जब वे एक स्कूल में विद्यार्थी थे और उस समय उनका उ उनकी उम्र 17 वर्ष थी । गाँधीजी के आह्वान पर वे स्कूल छोड़कर बाहर आ गए थे। इसके बाद काशी विद्यापीठ में उन्होंने अपनी शिक्षा पूरी की। उनका मन हमेशा देश की आजादी और सामाजिक कार्यों की ओर लगा रहा । परिणाम यह हुआ म यह हुआ कि सन 1926 में सन् 1926 में वे ‘लोक सेवा मंडल’ में शामिल हो गए, जिसके वे जीवन-भर सदस्य रहे । इसमें शामिल होने के बाद से शास्त्रीजी ने गाँधीजी के विचारों के अनुरूप अछूतोद्धार के काम में अपने आपको लगाया। यहाँ से शास्त्रीजी के जीवन का एक नया अध्याय प्रारम्भ हो गया। सन् 1930 में जब ‘नमक कानून तोड़ो आंदोलन शुरू हुआ, तो शास्त्रीजी ने उसमें भाग लिया जिसके परिणामस्वरूप उन्हें जेल जाना यहाँ से शास्त्रीजी की CM पड़ा। यहाँ से जेल-यात्रा की जो शुरूआत हुई वह सन् 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन तक निरंतर चलती रही। इन 12 वर्षों के दौरान वे सात बार जेल गए। इसी से यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि उनके अंदर देश की आजादी के लिए कितनी बड़ी ललक थी। दूसरी जेल-यात्रा उन्हें सन् 1932 में किसान आंदोलन में भाग लेने के लिए करनी पड़ी। सन् 1942 की उनकी जेल यात्रा 3 वर्ष की थी, जो 262 सबसे लम्बी जेल-यात्रा थी ।
इस दौरान शास्त्रीजी जहाँ एक ओर गाँधीजी द्वारा बताए गए रचनात्मक कार्यों में लगे हुए थे, वहीं दूसरी ओर पदाधिकारी के रूप में जनसेवा के कार्यों में भी लगे रहे। इसके बाद के 6 वर्षों तक वे इलाहाबाद की नगरपालिका से किसी-न-किसी रूप से जुड़े रहे। लोकतंत्र की इस आधारभूत इकाई में कार्य करने के कारण वे देश की छोटी-छोटी समस्याओं और उनके निराकरण की व्यावहारिक प्रक्रिया से अच्छी तरह परिचित हो गए थे। कार्य के प्रति निष्ठा और मेहनत करने की अद्भ्य क्षमता के कारण सन् 1937 में वे संयुक्त प्रांतीय व्यवस्थापिका सभा के लिए निर्वाचित हुए। सही मायने में यहीं से शास्त्रीजी के संसदीय जीवन की शुरूआत हुई, जिसका समापन देश के प्रधानमंत्री पद तक पहुँचने में हुआ ।
(क) किस गुण के कारण शास्त्रीजी का जीवन गाँधीजी के करीब था ?
उत्तर – सादगी और सरलता के कारण ।
(ख) शास्त्रीजी 1942 में किस सिलसिले में जेल गए ?
उत्तर – भारत छोड़ो आंदोलन के सिलसिले में ।
(ग) शास्त्रीजी ने स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने की शुरुआत कब से की ?
उत्तर – 14 वर्ष की उम्र में विद्यार्थी जीवन से ।
(घ) ‘विनम्र ही पृथ्वी के वारिस होंगे’ – का क्या आशय है ?
उत्तर – पृथ्वी के अंत में विनम्र लोग ही बचेंगे। वे ही धरती के सब सुखों का भोग करेंगे।
(ङ) शास्त्रीजी के चरित्र की सबसे बड़ी विशेषता क्या थी ?
उत्तर – शास्त्रीजी के चरित्र की सबसे बड़ी विशेषता यह थी— उनकी सादगी और सरलता ।
(च) शास्त्रीजी के व्यक्तित्व को आकर्षक बनाने वाले गुण कौन-कौन से थे ?
उत्तर – शास्त्रीजी के व्यक्तित्व को आकर्षक बनाने वाले गुण थे – विनम्रता, सादगी और सरलता ।
(छ) कौन-से सन् में शास्त्रीजी संसद सभा के सदस्य बने ?
उत्तर – सन् 1937 में
(ज) शास्त्रीजी ने जनसेवक के रूप में किस नगर की सेवा की ?
उत्तर – इलाहाबाद नगरपालिका की ।
(झ) इस अनुच्छेद से तत्सम तथा उर्दू के दो-दो शब्द छाँटकर लिखें।
उत्तर – तत्सम– रचनात्मक, महत्त्वपूर्ण,
उर्दू- वारिस, परवरिश
(ञ) ‘ललक’ के दो पर्यायवाची लिखें ।
उत्तर – उत्सुकता, व्यग्रता ।
(ट) ‘अछूतोद्धार’ का विग्रह करके समास का नाम लिखें ।
उत्तर – अछूतों का उद्धार; तत्पुरुष समास ।
(ठ) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखें।
उत्तर – शीर्षक- कर्मयोगी लालबहादुर शास्त्री ।

वर्णनात्मक गद्यांश

अधोलिखित अपठित अवतरण को पढ़कर उसके नीचे दिए प्रश्नों का उत्तर लिखें –

1. मनुष्य, पृथ्वी पर मानव जीवन के प्रारंभ से ही प्रकृति के साथ संघर्षरत है। मानव प्रकृति का ही पुत्र है। वह अपने जीवन की विभिन्न अवस्थाओं में प्राकृतिक नियमों से जुड़ा है परंतु प्रकृति को वश में कर लेने की उसकी सतत् चेष्टा रही है। मनुष्य जिसे अपनी विजय और प्रगति मानता है, ‘इकोलोजी’ अर्थात् परिमंडल विज्ञान की चर्चाओं से स्पष्ट है कि वह उसकी पराजय तथा आत्महनन की गाथा है ।
मनुष्य विगत दो-तीन सौ वर्षों से प्राकृतिक संतुलन बिगाड़ने में बड़ी तेजी से आगे बढ़ा है, जो अव्यावहारिक है। आहार के नाम पर हम विष खा रहे हैं जो हमें सामूहिक क आत्महत्या की की ओर ले जा रहा है। विश्व में वन संपत्ति अति तीव्र गति से कम हो रही है। भारत के पूर्वांचल के राज्यों, तराई, उत्तर प्रदेश तथा कश्मीर में वनों की कटाई से भूमि अरक्षित हो रही है, बाढ़ों को बढ़ावा मिल रहा है तथा ऋतु चक्र बदल रहा है।
हमारी सरकारें इस बर्बादी के रास्ते पर चल रही हैं। यदि बीस वर्ष पूर्व कोई राज्य सा पेड़ कटान से दस लाख रुपये अर्जित करता था तो वह अब बीस गुणा कमाना चाहता है। हाँ, पहाड़ी क्षेत्रों में ‘चिपको आंदोलन’ के तहत कुछ रो अवश्य हो रहा है। नए पेड़ कितने लग रहे हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में वन अधिकारी कंधे झटका देते हैं। सुई जैसी पत्तियों वाले ‘फर’ जैसे पौधे तो उगाए ही नहीं जा सकते। परिणामस्वरूप सदियों में पनपे घने प्राकृतिक वन न दस-बीस वर्षों में ही काटे जा चुके हैं। पहाड़ियाँ कुरूप और नंगी हो गई हैं।
लेखक को अपनी कश्मीर यात्रा से वापसी के समय ज्ञात हुआ कि जहाँ तीन वर्ष पहले एक करोड़ की आमदनी होती थी वहाँ अब तीन करोड़ रुपए की होती है और अब नौ-दस हजार फुट की ऊँचाई पर ही जंगल बचे हैं। कुछ वर्षों बाद हम चौदह हजार फुट तक पहुँच जाएँगे और उसके ऊपर केवल बर्फ से ढके पर्वत हैं, वृक्ष नहीं। तब हम क्या करेंगे ? इसका उत्तर नहीं है। स्वार्थी लोग लाखों  रुपया अपनी जेबों में भूमि संरक्षण के नाम पर भी भर रहे हैं।
अपनी जरूरतों के लिए प्रकृति के साथ यह खिलवाड़ दिल दहला देने वाला है। हमारे देश में बहुत कम लोग ही जीवन की सुधरी अवस्था तक पहुँचे हैं कि लकड़ी, बिजली, पानी, अनाज, लोहा, कागज, कोयला, पेट्रोल, मकान, स्कूल सब कम पड़ने लगा है। फिर सब लोगों की अवस्था सुधारने तक तो सृष्टि का संतुलन पूरी तरह नष्ट हो जाएगा। हम कब तक धरती, नदियों, पहाड़ों, जंगलों, ऋतुओं को दूषित और विकृत करते रहेंगे ? क्या प्रकृति हम से इसका बदला नहीं लेगी? इसी उधेड़बुन में लेखक ने आसमान की ओर देखा तो पाया कि छँटे हुए बादल फिर उमड़ आए । ओले पड़ने लगे। शीघ्र सारी घाटी ओलों से ढँक गई। जून के अंतिम सप्ताह में कश्मीर में पत्थरों जैसी सख्त बर्फ पड़ रही थी । गुलमर्ग, पहलगांव तथा श्रीनगर के सब लोग इस मौसम को असामान्य बता रहे थे। सब जगह एक ही आवाज थी- इस साल कहद (अकाल) पड़ेगा।
लेखक सोच रहा था कि मनुष्य प्रकृति के साथ कितना अधिक हस्तक्षेप करेगा, पर्यावरण को जितना अधिक दूषित करेगा, प्रकृति संपदा का जितना विनाश करेगा, उतने ही अधिक बाढ़ें आएँगी। विषैले जल से बीमारियाँ फैलेंगी। पहाड़ों के पत्थर टूट कर गिरेंगे, मौसम कुछ के कुछ होंगे और हम अपनी मौत का सामान इकट्ठा करते रहेंगे ।
(क) मनुष्य का प्रकृति के साथ क्या संबंध है ? 
उत्तर – मनुष्य प्रकृति का पुत्र है। वह जीवन की विभिन्न अवस्थाओं में प्रकृति के साथ जुड़ा है।
(ख) प्राकृतिक संतुलन बिगड़ने का क्या दुष्परिणाम हो रहा है ?
उत्तर – प्राकृतिक संतुलन बिगड़ने के कारण हम आहार के नाम पर विष खा रहे हैं। वन-संपत्ति तीव्र गति से कम हो रही है।
(ग) किस कारण प्राकृतिक संपदा नष्ट हो रही है ?
उत्तर – प्राकृतिक संपदा को नष्ट करने में सरकारें अधिक दोषी हैं। वे पेड़ों के कटान से अधिकाधिक धन अर्जित करना चाह रही हैं। स्वार्थी लोग भी अपनी जेबें भर रहे हैं ।
(घ) लेखक को कश्मीर – यात्रा की वापिसी पर क्या बात पता चली ? 
उत्तर – लेखक को कश्मीर – यात्रा से वापसी पर यह बात पता चली कि पेड़ों के कटान से जहाँ तीन वर्ष पहले एक करोड़ की आमदनी होती थी अब वह तीन करोड़ रुपए होती है। अब 9-10 फुट की ऊँचाई पर ही वृक्ष बचे हैं
(ङ) किस-किस चीज की कमी पड़ने लगी है और क्यों ?
उत्तर – 1 -लकड़ी, बिजली, पानी, अनाज, लोहा, कागज, कोयला, पेट्रोल, मकान और स्कूल आदि की कमी अभी से पड़ने लगी है, जबकि हम पूरी तरह से विकसित भी नहीं हो पाए हैं।
(च) प्रकृति के साथ मनुष्य का हस्तक्षेप करना क्या-क्या मुसीबतें लाएगा ? 
उत्तर – प्रकृति के साथ हस्तक्षेप करना पर्यावरण को प्रदूषित करेगा, प्राकृतिक संपदा का विनाश करेगा, पहाड़ों के पत्थर टूट कर गिरेंगे, मौसम अनियमित हो जाएगा।
(छ) ‘पर्यावरण’ शब्द किससे मिलकर बना है ? 
उत्तर – ‘पर्यावरण’ शब्द ‘परि + आवरण’ से मिलकर बना है।
(ज) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखें। 
उत्तर – शीर्षक- पर्यावरण और हम
2. हम अक्सर शिकायत किया करते हैं- समय के अभाव की, समय न मिलने की । पत्र का उत्तर न दे सका- समयाभाव के कारण, कसरत नहीं कर सकता, समय न मिलने के कारण और लिख-पढ़ नहीं पाता, समय की कमी के कारण। किंतु यदि हम सही ढंग से आत्म-विश्लेषण करें तो हम पाएँगे कि हमारी ये शिकायतें अक्सर गलत होती हैं। हम अपने को समझ नहीं पाते और तभी ऐसी शिकायतें करते हैं। यह हमारा आलस्य है, जो सदैव समय के अभाव की दुहाई दिया करता है। वस्तुतः कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं, जो व्यस्तताओं के बीच भी उन कामों को न कर सके, जिसे वह करने पर उतारू है, जिसे करना वह अनिवार्य मानता है। नेहरू जी कितना व्यस्त रहते थे। भारत के प्रधानमंत्री के नाते उन पर कितना  दायित्व था। कुछ दिन पहले उनके साथ काम करने वाले एक सज्जन से बात करने का सौभाग्य मिला। बताने लगे, “नेहरू जी के पास रोज इतनी सारी फाइलें जाती थीं किंतु दूसरे दिन वे उन सभी को निबटा कर वापस भेज देते। जहा तक बस चलता एक दिन की भी दर ने कर दिन की भी देर न करते । जरा सोचिए, उनकी व्यस्तता को जो दिन भर न जाने कितने आदमियों से मुलाकात करते थे, कितनी गंभीर समस्याओं पर सहकर्मियों से विचार-विमर्श करते थे, कितनी सभा-सोसाइटियों में जाते थे, फिर भी वे अपने व्यस्त जीवन में से कुछ समय अपने दैनिक व्यायाम और मनोरंजन के लिए भी निकाल ही लेते थे ।
गाँधी और नेहरू दोनों का जीवन प्रमाणित करता है कि यदि हम अपना समय सोच-समझकर विभाजित कर लें और फिर उस पर दृढ़ता से आचरण करें तो अपने निश्चित व्यवसाय के अतिरिक्त भी, अन्य अनेक कार्यों के लिए हमें पर्याप्त समय मिल जाएगा। समय की कमी की शिकायत फिर कभी नहीं रहेगी। हाँ, इसके लिए हमें सतत सचेष्ट और जागरूक अवश्य रहना पड़ेगा ।
किसी ने ठीक ही कहा है कि समय धन के समान है। अतः सावधानी और सतर्कता से हम अपने धन का हिसाब तो रखें पर समय के हिसाब में थोड़ा ज्यादा ही सावधानी बरतें। कारण, धन तो आता-जाता रहता है किंतु गया समय फिर वापस नहीं आता। समय का बजट बनाना जिसने सीख लिया उसने जीने की कला सीख ली, सुख और समृद्धि के भंडार की कुंजी प्राप्त कर ली। समय-विभाजन के अनुसार काम करने पर हम देखेंगे कि हमारे जीवन की व्यस्तता के बीच भी कितनी निश्चितता आ जाती है। सभी काम सुचारू रूप से निश्चित समय पर अनायास होते चलते हैं। कसरत के लिए समय निकल आता है, आध्यात्मिक मनन-चिंतन के लिए भी और पठन-पाठन के लिए भी ।
(क) हम प्रायः क्या शिकायत किया करते हैं ?
उत्तर – हम प्रायः समय के अभाव अर्थात् कमी की शिकायत करते रहते हैं।
(ख) हमारी यह शिकायत असत्य क्यों होती है ?
उत्तर – हमारी समयाभाव की शिकायत असत्य इसलिए होती है क्योंकि हम न तो स्वयं को समझ पाते हैं और न समय का सही नियोजन कर पाते हैं। हम व्यस्तता के बीच भी अपना काम भली प्रकार निपटा सकते हैं।
(ग) नेहरूजी की किस विशेषता का उल्लेख किया गया है ?
उत्तर – नेहरूजी काम की भारी व्यस्तता के बीच से भी अपने दैनिक व्यायाम और मनोरंजन के लिए समय निकाल लेते थे। वे समय-नियोजन करना चाहते थे।
(घ) गाँधीजी और नेहरूजी का जीवन क्या प्रमाणित करता है ?
उत्तर – गाँधीजी और नेहरूजी का जीवन यह प्रमाणित करता है कि यदि हम अपना समय का सोच-समझकर सही विभाजन कर लें और उस पर दृढ़तापूर्वक आचरण करें तो हमें अपने सभी कार्यों के लिए पर्याप्त समय मिल जाएगा।
(ङ) समय को किसके समान बताया गया है और क्यों ? 
उत्तर – समय को धन के समान बताया गया है क्योंकि दोनों कीमती हैं दोनों का हिसाब-किताब रखना आवश्यक है।
(च) समय-विभाजन का क्या लाभ है ?
उत्तर – समय-विभाजन का यह लाभ है कि इससे हमें निश्चितता आती है, सभी काम सुचारु रूप से होते चले जाते हैं।
(छ) विलोम शब्द लिखें- सचेष्ट, निश्चित ।
उत्तर – सचेष्ट- निश्चेष्ट
निश्चित–अनिश्चित
(ज) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखें। 
उत्तर – शीर्षक- समय-नियोजन
3. आज वसंतपंचमी है और सबने मिलकर सांस्कृतिक संध्या का आयोजन किया है। अनामिका व देवर्षि इंडियन रेस्ट्रां से खस्ता कचौड़ी, चाट और रसमलाई ले आए। सर्वप्रथम देवर्षि ने ‘रिमझिम गिरे सावन’ और ‘मेरे नैना सावन भादों’ गीत गाए । तत्पश्चात् अनामिका ने ‘मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है— कविता गाकर सुनाई। वसंत ने अटल जी व मुशर्रफ के चुटकुले सुनाए । नीलम ने बच्चों के हास्यास्पद प्रसंग सुनाए । मैंने वसंत ऋतु पर स्वरचित कविता- ‘पहन शाटिका पीली-पीली, वसंत ने रंगमंच सजाया । युवा प्रकृति का पा संदेशा, ऋतुराजा प्रियतम आया’ एवं कुछ शेर सुनाए । रात्रि के ग्यारह बज गए थे। अतः हम लोग विदा लेकर वापस चल दिए। देवर्षि के आवास तक पहुँचते-पहुँचते बारह बज गए रात्रि वसंत सम गमक रही थी ।
आज होली का त्योहार है। मेरे मन में भारत की होली की मीठी यादें रह-रह कर आ रही हैं। देवर्षि ने बताया है अटलांटा में भारतीयों की संख्या बहुत अधिक है परंतु यहाँ घर-घर या मुहल्ले मुहल्ले में होली न खेलकर तीन स्थानों पर इकट्ठे होकर होली खेली जाती है। इंडियन ग्लोबल मॉल’ में होली का आयोजन उच्च स्तर पर होता है। ‘अमेरिकन इंडियन कल्चरल एसोसिएशन के सभी उत्सव भी इसी मॉल में होते हैं। ‘शक्ति पीठ देवी मंदिर’ में भी होली खेलने के लिए लोग एकत्रित होते हैं। उत्तरांचल एसोसिएशन व विश्व हिंदू परिषद् ने मिलकर होली मिलन का आयोजन एक पार्क किराए पर लेकर किया था। वहाँ होली खेलने का कार्यक्रम दोपहर बारह से चार बजे के मध्य था। हम लोग वहीं होली खेलने गए थे। वहाँ खूब रंग खेला गया और जमकर पीना, खाना और नाचना-गाना हुआ । सभी वर्ग, आयु एवं लिंग के लोग मस्त होकर यहाँ भारतीय संस्कृति की स्थापना कर रहे थे ।
अगले दिन इंडियन ग्लोबल मॉल के शिवमंदिर में कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया। वहाँ बारह कवयित्रियाँ व कवि उपस्थित थे। मैं अकेली भारत से आई थी, बाकी कविगण स्थानीय थे। सीमा पाठक नामक एक नवोदित कवयित्री का प्रयास बहुत अच्छा था। मैंने अपने दो गीत गाकर प्रस्तुत किए और बैठने लगी, तो सबने और गाने का आग्रह किया। सबके आग्रह पर एक गीत और सुनाया। रात के दस बजे सूक्ष्म जलपान के साथ कार्यक्रम समाप्त हुआ ।
अमेरिका में अन्य उन स्थानों पर भी, जहाँ पर भारतीयों की संख्या अधिक है, होली का आयोजन धूमधाम से होने लगा है। मुझे यह जानकर अत्यंत आश्चर्य alway Shyam हुआ और प्रसन्नता भी कि हिंदुओं के इस रंगारंग पर्व पर विदेश में लोग बिना
जाति-धर्म, वर्ण, देश-प्रदेश की भावना का विचार किए सम्मिलित होने लगे हैं । साथ ही हृदय में यह सोचकर कसक भी उठी कि बचपन में हम जितने उत्साह से हिंदू-मुसलिम का विचार किए बिना होली खेला करते थे, वह भावना अब भारत में समाप्त हो रही है। दंगे की आशंका ने त्योहार का रंग फीका कर दिया है।
(क) वसंत पंचमी का उत्सव कहाँ : और कैसे मनाया गया ? 
उत्तर – वसंत पंचमी का उत्सव अटलांटा में मनाया गया। लेखिका के परिजनों ने मिलकर सांस्कृतिक संध्या का आयोजन किया। देवर्षि ने ‘रिमझिम गिरे सावन’ और ‘मेरे नैना सावन भादों’ गीत सुनाए। अनामिका ने एक कविता गाई। वसंत ने चुटकुले सुनाए । नीलम ने बच्चों के मनोरंजक प्रसंग सुनाए। कवयित्री ने वसंत तो पर कविता सुनाई। बाद में कचौड़ी, चाट और रसमलाई मँगाई गई। यह उत्सव रात के ग्यारह बजे तक चला।
(ख) अटलांटा में होली कैसे और कहाँ खेली जाती  है ?
उत्तर – अटलांटा में भारतवासी घर-घर होली न खेलकर तीन स्थानों पर इकट्ठे होकर खेलते हैं। ये तीन स्थान हैं
इंडियन ग्लोबल मॉल ।
शक्ति पीठ देवी मंदिर ।
उत्तरांचल एसोसिएशन तथा विश्वहिंदू परिषद् द्वारा किराए के स्थान पर ।
(ग) लेखिका किस कार्यक्रम में होली खेलने पहुँची ? वहाँ किस प्रकार होली मनाई गई ?
उत्तर – लेखिका उत्तरांचल एसोसिएशन तथा विश्व हिंदू परिषद् द्वारा आयोजित कार्यक्रम में होली खेलने पहुँची। वहाँ दोपहर 12 से 4 बजे तक खूब रंग खेला गया। बाद में लोगों ने खूब खाया-पिया और नाच-गाना किया |
(घ) इंडियन ग्लोबल मॉल के शिव मंदिर में हुए कवि-सम्मेलन पर एक रिपोर्ट लिखें। 
उत्तर – इंडियन ग्लोबल मॉल के शिवमंदिर में एक कवि-सम्मेलन का आयोजन किया गया। होली के अवसर पर आयोजित इस सम्मेलन में बारह कवयित्रियाँ तथा कवि उपस्थित थे। लेखिका भारत से गई थीं। शेष कवि स्थानीय थे। उस सम्मेलन में सीमा पाठक ने बहुत अच्छा काव्यपाठ किया। लेखिका से भी बहुत गीत सुने गए। कार्यक्रम के अंत में खूब खाना-पीना हुआ।
(ङ) लेखिका को किस बात पर आश्चर्य और प्रसन्नता है ? 
उत्तर – लेखिका को इस बात पर हैरानी और खुशी है कि अमेरिका में जहाँ-जहाँ भारतीयों की संख्या अधिक है वहाँ-वहाँ बहुत धूमधाम से होली खेली जाती है। इस पर्व में जाति-धर्म, वर्ण और देश-परदेश का विचार किए बिना लोग एकत्र होते हैं ।
(च) लेखिका के हृदय में किस बात की कसक है ? 
उत्तर – लेखिका के दिल में इस बात की कसक है कि अब भारत में पहले की तरह हिंदू-मुसलमान का भेद किए बिना होली नहीं खेली जाती। अब दंगों की आशंका से यह उत्सव फीका हो जाता है ।
(छ) ‘देश-परदेश’ और ‘मुहल्ले-मुहल्ले’ का विग्रह करके समास का नाम लिखें । 
उत्तर – देश-परदेश- देश और परदेश – द्वंद्व समास । मुहल्ले-मुहल्ले- प्रत्येक मुहल्ले अव्ययीभाव समास
(ज) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखें।
उत्तर – शीर्षक- अटलांटा में वसंत और होली ।
4. आतंकवादी हमलों की खुफिया सूचना के मद्देनजर अभूतपूर्व सुरक्षा व्यवस्था के बीच विविधता में एकता प्रदर्शित करने वाली रंग बिरंगी झाँकियाँ व वीर जवानों की रोमांचित कर देने वाली परेड के बीच देश ने शुक्रवार को अपना 58वाँ गणतंत्र दिवस मनाया । भारतीय गणतंत्र के इतिहास में पहली बार राजपथ पर सेना की एक टुकड़ी का नेतृत्व एक विदेशी ने किया। श्रीनगर के बख्शी स्टेडियम और हाल में हिंसा का केन्द्र बने असम में कड़ी सुरक्षा के बीच शांतिपूर्ण ढंग से रंगारंग कार्यक्रम के साथ अन्य राज्यों में भी गणतंत्र दिवस पूरे उल्लास से मनाया गया ।
साफ मौसम और खिली धूप में जश्न राजपथ पर देश की सशस्त्र सेनाओं की ताकत और तेजी से प्रगति कर रहे राष्ट्र की अनुपम झलक ने लोगों का मन मोह लिया। राष्ट्रपति डॉ० कलाम ने राष्ट्रीय ध्वज फहराया व परेड की सलामी ली। इससे पहले अमर जवान ज्योति पर प्रधानमंत्री डॉ० मनमोहन सिंह की अगुआई में राष्ट्र ने शहीदों को श्रद्धांजलि दी। हेलीकॉप्टर ध्रुव ने जब आकाश से फूलों की वर्षा की तो दर्शकों की खुशी का ठिकाना नहीं रहा।
मलेशिया के एक राज्य जोहर के सुल्तान के प्रपौत्र कैप्टन टुंकू इस्माइल इब्राहिम ने 61 घुड़सवारी रेजीमेंट की कमान संभाली और राजपथ पर राष्ट्रपति को सलामी देकर नया इतिहास रचा। डॉ० कलाम ने उन मिसाइलों को गर्व से देखा जिनमें से अधिकतर की संकल्पना में खुद उनकी मेधा जुड़ी हुई थी। जबकि इस बार के मुख्य अतिथि रूसी राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन रूस निर्मित सुखोई विमानों की त्रिशूल की आकृति के साथ आकाश में हुई गर्जना से गदगद दिखाई दिए। इसी तरह रूस के सहयोग से तैयार ब्रह्मोस मिसाइल गुजरता देख भी पुतिन उत्साहित दीख पड़े। ब्रह्मोस के अलावा टी 72 टैंकों, बोफोर्स तोपों, बहुनलीय राकेट प्रणाली पिनाक, टैक्टिकल कंट्रोल राडार, परमाणु हमले को बेअसर करने वाली मोबाइल प्रणाली, पीएमएस ब्रिज वाहन, आर्मी वाइड एरिया नेटवर्क और बख्तरबंद वाहनों के प्रदर्शन देशवासियों को उनकी सुरक्षा का पूरा भरोसा दिलाने में सफल रहे। सैन्य खेलों के प्रतीक चिह्न ब्रोबो ने अपनी मतवाली चाल से दर्शकों का मन मोह लिया। । राजपथ उस समय तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज गया, हाथियों पर सवार होकर बहादुर बच्चे गर्व से सीना तानकर गुजरे।
झाँकियों का सिलसिला गोवा के पारंपरिक घरों की झाँकी से शुरू हुआ । दिल्ली की झाँकी में स्त्री-शक्ति का प्रदर्शन किया गया था। राज्यों व 18 मंत्रालयों की झाँकी एक-एक कर दर्शकों के सामने से गुजरी। स्कूली बच्चों के थीम बेस्ड मनमोहक नृत्य को देख बच्चों के साथ-साथ बड़े भी झूम उठे। मिलिट्री पुलिस दिए कोर की श्वेत अश्व टुकड़ी ने मोटर साइकिल सवार होकर ऐसे करतब दिखाए कि लोगों की साँस ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे रह गई। परेड का समापन वायुसेना के फ्लाई पास्ट से हुआ।
(क) अभूतपूर्ण सुरक्षा की व्यवस्था कब, कहाँ और क्यों की गई थी ? 
उत्तर – भारत के 58वें गणतंत्र दिवस समारोह के दौरान अभूतपूर्व सुरक्षा व्यवस्था की गई थी क्योंकि आतंकवादी हमलों की आशंका थी।
(ख) किस बात ने लोगों का मन मोह लिया ? 
उत्तर – देश की सशस्त्र सेनाओं की ताकत और तेजी से प्रगति कर रहे राष्ट्र की अनुपम झलक ने लोगों का मन मोह लिया।
(ग) राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री ने क्या-क्या किया ? 
उत्तर – राष्ट्रपति ने राष्ट्रीय ध्वज फहराया और परेड की सलामी ली। प्रधानमंत्री ने जवान ज्योति पर राष्ट्र के शहीदों को श्रद्धांजलि दी।
(घ) रूस के राष्ट्रपति का नाम तथा उनके गद्गद् होने के कारण बतावें । 
उत्तर – रूस के राष्ट्रपति का नाम ब्लादिमिर पुतिन है। वे रूस निर्मित सुखोई विमानों की त्रिशूल की आकृति के साथ आकाश में हुई गर्जना को सुनकर गद्गद् हो गए ।
(ङ) किन-किन अस्त्र-शस्त्रों ने लोगों को सुरक्षा विश्वास दिलाया। 
उत्तर – ब्रह्मोस, टी-72 टैंक, बोफार्स तोप, बहुनलीय रॉकेट प्रणाली पिनाक, राडार, मोबाइल प्रणाली, ब्रिज वाहन, आर्मी नेटवर्क बख्तर बंद वाहनों ने लोगों को उनकी सुरक्षा का विश्वास दिलाया।
(च) इस गद्यांश में झाँकियों के बारे में क्या बताया गया है ?
उत्तर – झाँकियों में सबसे पहले गोवा की झाँकी थी, जिसमें पारंपरिक घरों को दिखाया गया था। फिर दिल्ली की झाँकी थी, जिसमें स्त्री-शक्ति का प्रदर्शन था। कुल 118 राज्यों तथा 8 मंत्रालयों की झाँकियाँ प्रदर्शित की गई थीं।
(छ) ‘घुड़सवार’ शब्द का विग्रह करें और समास का नाम बताएँ । 
उत्तर – घुड़सवार- घोड़े पर सवार त तत्पुरुष समास ।
(ज) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखें।
उत्तर – शीर्षक- भारत का 58वाँ गणतंत्र दिवस समारोह ।
5. आत्मनिर्भरता का अर्थ है- अपने ऊपर निर्भर रहना, जो व्यक्ति दूसरे के मुँह को नहीं ताकते वे ही आत्मनिर्भर होते हैं। वस्तुतः आत्मविश्वास के बल पर कार्य करते रहना आत्मनिर्भरता है। आत्मनिर्भरता का अर्थ है- समाज, निज तथा राष्ट्र की आवश्यकताओं की पूर्ति करना । व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र में आत्मविश्वास की भावना, आत्मनिर्भरता का प्रतीक है। स्वावलंबन जीवन की सफलता की पहली सीढ़ी है। सफलता प्राप्त करने के व्यक्ति को स्वावलंबी होना चाहिए। करने के लिए स्वावलंबन व्यक्ति, समाज, राष्ट्र के जीवन के जीवन में सर्वांगीण सफलता प्राप्ति का महामंत्र है। स्वावलंबन जीवन का अमूल्य आभूषण है, वीरों तथा कर्मयोगियों का इष्टदेव है, सर्वांगीण उन्नति का आधार है।
जब व्यक्ति स्वावलंबी होगा, उसमें आत्मनिर्भरता होगी, तो ऐसा कोई कार्य नहीं जिसे वह न कर सके। स्वावलंबी मनुष्य के सामने कोई भी कार्य आ जाए, वह अपने दृढ़ विश्वास से अपने आत्मबल से उसे अवश्य ही संपूर्ण कर लेगा । स्वावलंबी मनुष्य जीवन जीवन में कभी भी असफलता का मुँह नहीं देखता। वह जीवन के हर क्षेत्र में निरंतर कामयाब होता जाता है। सफलता तो स्वावलंबी मनुष्य की देश के हर दासी बनकर रहती है। जिस व्यक्ति का स्वयं अपने आप पर ही विश्वास नहीं, वह भला क्या कर पाएगा ? परंतु इसके विपरीत जिस व्यक्ति में आत्मनिर्भरता होगी, वह कभी किसी के सामने नहीं झुकेगा | वह जो करेगा सोच-समझ कर धैर्य से करेगा। मनुष्य में सबसे बड़ी कमी स्वावलंबन का न होना है। सबसे बड़ा गुण भी मनुष्य की आत्मनिर्भरता ही है।
आत्मनिर्भरता मनुष्य को श्रेष्ठ बनाती है। स्वावलंबी मनुष्य को अपने आप पर विश्वास होता है जिससे वह किसी के भी कहने में नहीं आ सकता । यदि हमें कोई काम सुधारना है तो हमें किसी के अधीन नहीं रहना चाहिए बल्कि उसे स्वयं करना चाहिए। एकलव्य स्वयं के प्रयास से धनुर्विद्या में प्रवीण बना। निपट, दरिद्र विद्यार्थी लाल बहादुर शास्त्री भारत के प्रधानमंत्री बने । साधारण से परिवार में जन्मे जैल प्रा सिंह स्वावलंबन के सहारे ही भारत के राष्ट्रपति बने। जिस प्रकार अलंकार काव्य की शोभा बढ़ाते हैं, सूक्ति भाषा को चमत्कृत करती है, गहने नारी का सौंदर्य बढ़ाते हैं उसी प्रकार आत्मनिर्भरता मानव में अनेक गुणों की प्रतिष्ठा करती है ।
(क) आत्मनिर्भर व्यक्ति से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर – जो व्यक्ति स्वयं पर निर्भर रहकर समाज और राष्ट्र की आवश्यकताओं को पूरा 14 कर, किसी भी बात के लिए दूसरों की मदद की अपेक्षा न करे, उसे ही आत्मनिर्भर व्यक्ति कहा जाता है।
(ख) आत्मनिर्भरता का प्रतीक क्या है ?
उत्तर – व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र में आत्मविश्वास की भावना आत्मनिर्भरता का प्रतीक है।
(ग) सफलता तो स्वावलंबी मनुष्य की दासी बनकर रहती है।’ कैसे ? 
उत्तर – स्वावलंबी मानव अपने प्रत्येक कार्य को पूर्ण कर सफलता प्राप्त करता है। सफलता स्वावलंबी व्यक्ति के कदम चूमती है।
(घ) एकलव्य और लाल बहादुर शास्त्री के उदाहरण लेखक ने किस संदर्भ में दिए हैं ? 
उत्तर – लेखक ने इन उदाहरणों के माध्यम से बताना चाहा है कि स्वावलंबी मनुष्य अपना कर्म एकनिष्ठ होकर करता है और उसी के बल पर उसे सिद्धि प्राप्त होती है।
(ङ्) आत्मनिर्भरता मनुष्य को श्रेष्ठ किस प्रकार बनाती है ?
उत्तर – आत्मनिर्भर मनुष्य को अपने पर पूर्ण विश्वास होता है । वह किसी के दबाव में न आकर स्वयं अपना कार्य करता है। वह किसी के समक्ष नतमस्तक नहीं होता ।
(च) ‘आत्म’ शब्द में ‘निर्भरता’ जोड़कर ‘आत्मनिर्भरता’ बना। इसी प्रकार ‘आत्म’ में कुछ और जोड़कर दो शब्द बनाएँ। ध्यान रहे कि वे शब्द उपर्युक्त अनुच्छेद में न हों।
उत्तर – आत्मसंतोष, आत्मसम्मान ।
(छ) ‘सफल’ और ‘कोशिश’ शब्दों के लिए अनुच्छेद में प्रयुक्त किए गए शब्दों को छाँटकर लिखें ।
उत्तर – सफल- कामयाब, कोशिश – प्रयास ।
(ज) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखें |
उत्तर – शीर्षक– आत्मनिर्भरता।
6. प्रारम्भ में विवेकानन्द को भारत में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त नहीं हुआ पर जब उन्होंने अमेरिका में नाम कमा लिया तो भारतवासी दौड़े मालाएँ लेकर स्वागत करने रवीन्द्रनाथ ठाकुर को भी जब नोबल पुरस्कार मिला तो बंगाली लोग दौड़े यह राग अलापते हुए- “अमादेर ठाकुर | अमादेर सोनार कंठोर सुपूत….” । दक्षिण भारत में कुछ समय पहले तक भरतनाट्यम् और कथकली को कोई नहीं पूछता था, पर जब उसे विदेशों में मान मिलने लगा तो आश्यर्च से भारतवासी सोचने लगे, “अरे, हमारी संस्कृति में इतनी अपूर्व चीजें भी पड़ी थीं क्या…. !” यहाँ के लोगों को अपनी खूबसूरती नहीं नजर आती, मगर पराए के सौन्दर्य को देख कर मोहित हो जाते हैं। जिस देश में जन्म पाने के लिए मैक्समूलर ने जीवन भर प्रार्थना की उस देश के निवासी आज जर्मनी और विलायत जाना स्वर्ग जाने जैसा अनुभव करते हैं। ऐसे लोगों को प्राचीन “गुरु शिष्य सम्बन्ध” की महिमा सुनाना गधे को गणित सिखाने जैसा व्यर्थ प्रयास ही हो सकता है ।
एक बार सुप्रसिद्ध भारतीय पहलवान गामा बम्बई आए। उन्होंने विश्व के सारे पहलवानों को कुश्ती में चैलेंज दिया। अखबारों में यह समाचार प्रकाशित होते ही एक फारसी पत्रकार ने उत्सुकतावश उनके निकट पहुँच कर उनसे पूछा- “साहब, विश्व के किसी भी पहलवान से लड़ने के लिए आप तैयार हैं तो आप अपने अमुक शिष्य से ही लड़कर विजय प्राप्त करके दिखाएँ। गामा आजकल के शि शिक्षा-क्रम में रंगे नहीं थे। इसलिए उन्हें इन शब्दों ने हैरान कर दिया। वे मुँह फाड़कर उस पत्रकार का चेहरा ताकते ही रह गए। बाद में धीरे से कहा- “भाई साहब, मैं हिन्दुस्तानी हूँ। हमारा अपना एक निजी रहन सहन है। शायद इससे आप परिचित नहीं हैं। जिस लड़के का आपने नाम लिया, वह मेरे पसीने की कमाई, मेरा खून है और मेरे बेटे से भी अधिक प्यारा है। इसमें और मुझमें फरक ही कुछ नहीं है। मैं लड़ा या वह लड़ा, दोनों बराबर ही होगा। हमारी अपनी इस परम्परा को आप समझने की चेष्ट करें। हम लोगों का वंशपरम्परा से शिष्यपरम्परा ही अधिक प्रिय है। ख्याति और प्रभाव से हम सदा यही चाहते हैं कि हम अपने शिष्यों से कम प्रमुख रहें । यानी हम यही चाहेंगे कि संसार में जितना नाम मैनें कमाया उससे कहीं अधिक मेरे शिष्य कमाएँ। मुझे लगता है, आप हिन्दुतानी नहीं हैं ।
भारत में गुरुशिष्य सम्बन्ध का वह भव्य रूप आज साधुओं, पहलवानों और संगीतकारों में ही थोड़ा बहुत सही, पाया जाता है। भगवान रामकृष्ण बरसों योग्य शिष्य को पाने के लिए प्रार्थना करते रहे। उनके जैसे व्यक्ति को भी उत्तम शिष्य के लिए रो रोकर प्रार्थना करनी पड़ी थी। इसी से समझा जा सकता है कि एक गुरु के लिए उत्तम शिष्य कितना महँगा और महत्त्वपूर्ण है। संतानहीन रहना उन्हें दुःख नहीं देता पर बगैर शिष्य के रहने के लिए वे एकदम तैयार नहीं होते। इस सम्बन्ध में भगवान ईसा का एक कथन सदा स्मरणीय है। उन्होंने कहा था- “मेरे अनुयायी लोग मुझसे कही अधिक महान हैं और उनकी जूतियाँ होने की योग्यता भी मुझमें नहीं है। यही बात है, गाँधी जी बनने की क्षमता जिनमें है उन्हें गाँधी जी अच्छे लगते हैं और वे ही उनके पीछे चलते भी हैं। विवेकानन्द की रचना सिर्फ उन्हें पसन्द आएगी जिनमें विवेकानन्द बनने की अद्भुत शक्ति निहित है।
(क) भारत में विवेकानन्द को सम्मान कब मिला ? 
उत्तर – विवेकानन्द को जब अमेरिका और इंग्लैण्ड में सम्मान मिला तो भारत लौटने पर उन्हें भारतीयों से भी सम्मान प्राप्त हुआ ।
(ख) मैक्समूलर ने किस देश में जन्म पाने की प्रार्थना की और क्यों ? 
उत्तर – मैक्समूलर ने भारत में जन्म पाने के लिए जीवन भर प्रार्थना की। वे भारतीय संस्कृति और अध्यात्म से बहुत अधिक प्रभावित थे
(ग) गामा ने पत्रकार से क्या कहा ?
उत्तर – गामा ने पत्रकार से कहा कि भारतीय गुरु चाहते हैं कि उनके शिष्यों की ख्याति उनसे भी अधिक हो। वे उन्हें सदैव अपने से आगे बढ़ते हुए देखना चाहते हैं।
(घ) भारत में गुरु-शिष्य सम्बन्ध का भव्य रूप कहाँ देखने को मिलता है ? 
उत्तर – भारत में गुरु-शिष्य सम्बन्ध का भव्य रूप पहलवानों, संगीतकारों और साधुओं में ही देखने को मिलता है।
(ङ) गुरु-शिष्य के संबंध में भगवान ईसा ने क्या कहा था ? 
उत्तर – गुरु-शिष्य के संबंध में भगवान ईसा ने कहा था कि “मेरे अनुयायी लोग मुझसे कही अधिक महान हैं और उनकी जूतियाँ होने की योग्यता भी मुझमें नहीं है।
(च) उपरोक्त गद्यांश में से कोई दो विशेषण छाँटें ।
उत्तर – (i) अपूर्व (ii) अधिक ।
(छ) विलोम शब्द लिखें- योग्य, दुःख । 
उत्तर – अयोग्य, सुख ।
(ज) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखें। 
उत्तर – शीर्षक- भारतीय संस्कृति में गुरु-शिष्य सम्बन्ध।
7. मनुष्य की पूरी जाति, मनुष्य की पूरी सभ्यता और संस्कृति अधूरी है क्योंकि नारी ने उस संस्कृति के निर्माण में कोई भी दान, कोई भी कंट्रीब्यूशन नहीं किया। नारी कर भी नहीं सकती थी। पुरुष ने उसे करने का कोई मौका भी नहीं दिया। हजारों वर्षों तक स्त्री पुरुष से नीचे और छोटी और हीन समझी जाती रही है। कुछ तो देश ऐसे थे जैसे चीन में हजारों वर्ष तक यह माना जाता रहा कि स्त्रियों के भीतर कोई आत्मा नहीं होती। इतना ही नहीं, स्त्रियों की गिनती जड़ पदार्थों के साथ की जाती थी। आज से सौ बरस पहले चीन में अपनी पत्नी की हत्या पर किसी पुरुष को, किसी पति को कोई भी दंड नहीं दिया जाता था क्योंकि पत्नी उसकी संपदा थी । वह उसे जीवित रखे या मार डाले, इससे कानून का और राज्य का कोई संबंध नहीं। भारत में भी स्त्री को पुरुषों की समानता में कोई अवसर जीने का मौका नहीं मिला । पश्चिम में भी वही बात थी। चूँकि सारे शास्त्र और सारी सम्यता और सारी शिक्षा पुरुषों ने निर्मित की है इसलिए पुरुषों ने अपने आप को बिना किसी से पूछे श्रेष्ठ मान लिया है, स्त्री को श्रेष्ठता देने का कोई कारण नहीं । स्वभावतः इसके घातक परिणाम हुए।
सबसे बड़ा घातक परिणाम हो यह हुआ कि स्त्रियों के जो भी गुण थे वह सभ्यता के विकास में सहयोगी न हो सके। सभ्यता अकेले पुरुषों ने विकसित की। अकेले पुरुष के हाथ से जो सभ्यता विकसित होगी उसका अंतिम परिणाम युद्ध के सिवाय और कुछ भी नहीं हो सकता। अकेले पुरुष के गुणों पर जो जीवन निर्मित होगा वह जीवन हिंसा के अतिरिक्त और कहीं नहीं ले जा सकता । पुरुषों की प्रवृत्ति में, पुरुष के चित्त में ही हिंसा का क्रोध का युद्ध का कोई अनिवार्य हिस्सा है।
(क) भारत में पुरुषों को नारी से श्रेष्ठ क्यों मान लिया गया ?
उत्तर – भारतीय संस्कृति और सभ्यता का निर्माण पुरुषों ने किया, इसलिए पुरुषों को ही अधिक महत्त्व दिया । नारी को नीचा माना गया।
(ख) पुरुष-प्रधान समाज का क्या कुपरिणाम हुआ ?
उत्तर – पुरुष-प्रधान समाज का दुष्परिणाम यह हुआ कि समाज में एक-पर- एक अनेक युद्ध हुए। सारी सभ्यता क्रोध और हिंसा से भर गई।
(ग) पुरुषों द्वारा विकसित समाज युद्धों की ओर क्यों ले जाता है ? 
उत्तर – पुरुषों के व्यक्तित्व में हिंसा, क्रोध और युद्ध का अनिवार्य तत्व है। इसलिए उनके द्वारा निर्मित संस्कृति युद्धमय ही होगी।
(घ) लेखक ने मनुष्य की सभ्यता और संस्कृति को अधूरा क्यों कहा है ? 
उत्तर – लेखक ने मनुष्य की सभ्यता और संस्कृति को अधूरा इसलिए कहा है क्योंकि इसके निर्माण में स्त्रियों अपना योगदान नहीं दिया ।
(ङ) चीन में नारी के प्रति कैसी दृष्टि थी ? 
उत्तर – चीन में हजारों वर्षों तक नारी की गिनती जड़ पदार्थों के रूप में एवं आत्मा विहीन के रूप में की। इसलिए वह पत्नी को अपनी संपत्ति मानता था । यदि वह उसे मार डालता था तो भी दंडित नहीं होता था ।
(च) नारी ने संस्कृति के निर्माण में अपना योगदान क्यों नहीं दिया ? 
उत्तर – नारी संस्कृति के निर्माण में स्त्रियों को पुरुषों ने मौका नहीं दिया और उसे हीन और जड़ पदार्थ समझा गया। उसे पुरुषों के समान नहीं माना गया।
(छ) मनुष्य तथा चित्त के दो-दो पर्यायवाची लिखें । 
उत्तर – मनुष्य- मानव, मनुज ।
चित्त- हृदय, दिल, मन ।
(ज) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दें।
उत्तर – शीर्षक- पुरुष द्वारा निर्मित अधूरी संस्कृति |
8. पूनम की चाँदनी के मनोहर वातावरण में महाबलिपुरम शांत है, पर भाववर्मा बड़बड़ाता है उसे लगता है कि पहाड़ के रथ-पथ पर अभी भी कोई टुक-टुक करके अपना नाम खोद रहा है। उसके मन का पाप बोलता है। भाववर्मा चिल्लाता है। उसे लगता है कि प्रतिभा और अभ्यास अपनी मूर्तियाँ बना रहे हैं (जबकि वह उन्हें पहाड़ी से गिराकर मार चुका था ) । पत्नी रेखा उसे समझाकर सोने के लिए कहती है, पर भाववर्मा को भला चैन कहाँ ? वह बिस्तर पर करवटें बदलता है, फिर थककर सो जाता है।
पल्लव वंश का राजा महेंद्रवर्मन कांचीपुर से महाबलिपुरम आ रहे हैं। भाववर्मा को महाबलिपुरम का निर्माता समझा जाता था । भाववर्मा महेंद्रवर्मन का कोई दूर का संबंधी था । कला और विद्वता के लिए वह राजगुरु के रूप में सम्मानित था | पल्लव राजा जैन थे पर महेंद्रवर्मन ने हिंदू धर्म ग्रहण कर लिया था। उसने ‘महाभारत’ को स्थाई रूप देने के लिए महाबलिपुरम का निर्माण करवाना चाहा। यह काम उसने भाववर्मा को सौंपा था। राजा ने भाववर्मा से कहा था- “तुम प्रस्तर भूमि पर महाभारत रचो, जो तब तक रहे जब तक भूमि है। धन की फिक्र न करो, व्यय की चिंता मत करो, काम पर लग जाओ।” राजा ने काम में सहायता के लिए अभ्यास और प्रतिभा नामक कलाकार दंपत्ति का सुझाया। यद्यपि भाववर्मा को कीर्ति का नया क्षेत्र मिला था, पर वह ईर्ष्या से भर गया, क्योंकि वह नहीं चाहता था कि उसके जीते-जी महाराज किसी और कलाकार की प्रशंसा करें। भाववर्मा ने कांचीपुर के जगत प्रसिद्ध मंदिर बनाए थे। वह अपनी कल्पना और कला के लिए प्रसिद्ध तो था ही, पर अपने अभिमान के लिए बदनाम भी था । वह ईर्ष्यालु था। भाववर्मा स्वप्नद्रष्टा था, पर वह स्रष्टा न था । वह कला-प्रेरक था, पर स्वयं कलाकार न था। बहुत सोचने-विचारने के बाद उसने अभ्यास और प्रतिभा की सहायता ली । वे अभी नौजवान थे। पत्नी प्रतिभा नित्य नए-नए भाव सुझाती और पति अभ्यास दिन-रात मूर्तियाँ गढ़ता रहता। उन्हें न खाने की चिंता थी, न सोने की। वे तन्मयतापूर्वक काम मे लगे हुए थे। इस तरह तीन वर्ष बीत गए। मूर्तियाँ बन रही थी, पर अभी काम में कोई क्रम न था । भाववर्मा स्वयं कुछ नहीं कर रहा था। उसके मन-मस्तिष्क में महाभारत की कोई स्पष्ट योजना न थी ।
समुद्र के किनारे अभ्यास और कई कलाकारों के साथ पाँच पांडवों के लगा। द्रौपदी के रथ का निर्माण तो स्वयं प्रतिभा की निगरानी में हो रहा था । दोनों खूब काम करते और खूब आनंद भी मनाते । उनका प्रेम आदर्श प्रेम समझा जाता था। रथों का काम पूरा हो गया। वे एक ऐसे मंदिर के बनाने में जुट गए जिसकी भव्यता पर महान समुद्र भी साष्टांग किया करे। वे इसके निर्माण में सफल रहे। भाववर्मा उनकी सफलता से जल रहा था। उसने उन दोनों को वहाँ से हटा कर अन्यत्र काम करने को कहा। यद्यपि उन्हें यह अच्छा न लगा पर वे मन मारकर एक अन्य पहाड़ी पर काम करने लगे ।
(क) भाववर्मा किस मनःस्थिति में बड़बड़ाता है ? 
उत्तर – भाववर्मा विक्षिप्त मनःस्थिति में बड़बड़ाता है। उसके हाथों अभ्यास और प्रतिभा की हत्या हो गई थी। उसके मन में पाप बोध था। उसे स्वप्न में भी अभ्यास- प्रतिभा मूर्तियाँ बनाते प्रतीत होते हैं।
(ख) भाववर्मा कौन था ? 
उत्तर – भाववर्मा एक कलाकार और विद्वान के रूप में जाना-पहचाना जाता था। उसे महाबलिपुरम का निर्माता माना जाता था। वह राजा महेंद्रवर्मन का कोई दूर का संबंधी भी था ।
(ग) महेंद्रवर्मन कौन थे ? उन्होंने किसको क्या काम सौंपा ?
उत्तर – महेंद्रवर्मन पल्लव वंश के राजा थे। वे थे तो जैन पर उन्होंने हिंदू धर्म स्वीकार कर लिया था। उन्होंने ‘महाभारत’ को स्थायी रूप देने का काम भाववर्मा को सौंपा। वे उससे प्रस्तर भूमि पर महाभारत की रचना करवाना चाहते थे ।
(घ) भाववर्मा कब और क्यों ईर्ष्यालु हो उठा ?
उत्तर – जब महेंद्रवर्मन ने महाबलिपुरम के निर्माण कार्य में अभ्यास और प्रतिभा का परामर्श भाववर्मा को दिया और उनकी कला की प्रशंसा की तो भाववर्मा ईर्ष्यालु हो उठा। वह नहीं चाहता था कि उसके जीते-जी महाराज किसी और कलाकार की प्रशंसा करें।
(ङ) अभ्यास और प्रतिभा कौन थे ?
उत्तर – अभ्यास और प्रतिभा नौजवान कलाकार थे। वे दोनों पति-पत्नी थे । प्रतिभा नित्य नए-नए भाव सुझाती थी और पति अभ्यास दिन-रात मूर्तियाँ गढ़ता रहता था । वे तन्मयतापूर्वक काम में लगे रहते थे।
(च) अभ्यास किस काम में व्यस्त था ? वह क्या बनाना चाह रहा था ?
उत्तर – अभ्यास अन्य कलाकारों के साथ पांडवों के रथ बनाने के काम में व्यस्त था। रथों के निर्माण के बाद वे एक ऐसे मंदिर के निर्माण में जुट गए जिसके प्रकार पर महान समुद्र भी साष्टांग किया करे । वह ऐसा मंदिर ही बनाना चाह रहा था।
(छ) विलोम शब्द लिखें- सफलता, कीर्ति ।
उत्तर – सफलता – असफलता
कीर्ति – अपकीर्ति
(ज) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखें।
उत्तर – शीर्षक – महाबलिपुरम
9. ताजमहल भारत का ही नहीं, संसार भर का लोकप्रिय आकर्षण केंद्र है । कला-संस्कृति के अखंड प्रेमी शाहजहाँ ने इस भवन को अपनी प्रिय बेगम मुमताज की याद में बनवाया था। इसका निर्माण संगमरमर के श्वेत पत्थरों से किया गया ।
ताजमहल के निर्माण में जो जन-धन-श्रम लगा, उसके आँकड़े चौंका देने वाले हैं। इसका निर्माण सत्रह वर्ष की अवधि में हुआ तथा बीस हजार श्रमिक कारीगरों ने अपने जी-तोड़ परिश्रम से इसे बनाया। इसके अद्वितीय शिल्प तथा तकनीक के लिए विदेश के भी कई इंजीनियरों को आमंत्रित किया गया। संगमरमर के श्वेत पत्थरों तथा संगमूसा के काले पत्थरों से निर्मित इस महल पर उस समय सात करोड़ रुपए खर्च हुए थे ।
ताजमहल यमुना के किनारे पर स्थित है। इसकी वास्तुकला संसार-भर में बेजोड़ है। इसका प्रवेश-द्वार लाल पत्थर का का बना हुआ है, जिस पर कुरान की आयतें खुदी हुई हैं। यमुना के किनारे की नारे की एक तरफ को छा तरफ को छोड़कर शेष तीनों दिशाओं में सुंदर, व्यवस्थित उपवन हैं जिन पर बैठकर दर्शक ताजमहल की सुंदरता को नयन भरकर निहारते हैं। महल के प्रवेश द्वार से आगे चलकर मार्ग में दोनों ओर वृक्षों की कतारें हैं और जल के फव्वारे हैं, जो सहज ही अपनी झीनी-झीनी फुहारों से पर्यटकों को आनंदित कर देते हैं। वहीं निर्मल जल के सरोवर हैं, जिनमें सुंदर सुवर्णमय मछलियाँ, तैरती रहती हैं। उन्हीं सरोवरों के सामने सीमेंट के बड़े-बड़े बेंच हैं, जिनपर बैठकर सरोवर और महल दोनों के अनुपम सौंदर्य को निहारा जा सकता है।
ताजमहल का संपूर्ण भवन जिस धरती पर अवस्थित है, उसके नीचे संगमरमर का विशाल चबूतरा है, जिसके चारों कोनों पर श्वेत, पत्थरों की ऊँची-ऊँची चार प्रामीनारें हैं। इन मीनारों के ठीक मध्य ताजमहल का गुंबद है, जिसकी ऊँचाई लगभग 280 फुट है। यह गुंबद विश्व का सबसे ऊँचा और भव्य गुंबद है। इसके चारों ओर कुरान की आयतें खुदी हुई हैं। मीनारों पर भी पच्चीकारी का महीन काम हुआ है।
(क) गुंबद का आशय क्या है ?
उत्तर – गोलाकार छत वाली इमारत ।
(ख) ताजमहल के निर्माण में कितना समय और धन लगा ?
उत्तर – ताजमहल के निर्माण में सत्रह वर्ष का समय और सात करोड़ रुपए लगे ।
(ग) शाहजहाँ के लिए किस विशेषण का प्रयोग किया गया है ?
उत्तर – कला-संस्कृति का अखंड प्रेमी ।
(घ) ताजमहल किस पत्थर से निर्मित हुआ है ?
उत्तर – ताजमहल सुंदर सफेद संगमरमर के पत्थरों से बनाया गया है।
(ङ) सुवर्णमय शब्द का अर्थ लिखें।
उत्तर – सोने के रंग का; सोने में ढला हुआ ।
(च) ‘श्वेत’ का विलोम लिखें।
उत्तर – श्याम ।
(छ) ‘अनुपम’ में कौन-सा समास है ?
उत्तर – नंञ्-तत्पुरुष ।
(ज) उपर्युक्त अवतरण का उचित शीर्षक लिखें।
उत्तर – शीर्षक- अखंड प्रेम का प्रतीक – ताजमहल
10. आज जब सारी दुनिया में गए भारतीय अपने मातृदेश की ओर देख रहे हैं और चाहते हैं कि अपने देश, और संस्कृति के साथ-साथ जुड़ाव और प्रगाढ़ हो तो ब्रिटेन के भारतीय इस स्थिति से अपने को अलग अलग कैसे रख सकते हैं। भारत के ब्रिटेन के साथ ऐतिहासिक संबंध रहे हैं। इसके चलते भारतीय मूल के लोग बड़ी संख्या में ब्रिटेन में हैं। यहाँ तक कई नगरों में वे बहुसंख्यक हो गए हैं जैसे लेस्टर में । उनके सामने सवाल यह था कि वे किस तरह अपनी संस्कृति, अपनी पहचान, अपनी विशिष्टता को बनाए रखें। इसके लिए जरूरी था कि अपनी भाषा को बचाया जाए और अगली पीढ़ी को अपनी विरासत सौंपी
जाए ।
जहाँ तक हिंदी की स्थिति है, आज से लगभग 14 वर्ष पूर्व किए गए अपने हिंदी संबंधी सर्वेक्षण में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्राध्यापक सत्येंद्र श्रीवास्तव ने स्पष्ट किया था कि हिंदी का अपना कोई क्षेत्र या सीमा नहीं है अर्थात् हिंदी के लोग किसी क्षेत्र विशेष में नहीं रहते जैसे कि गुजराती, पंजाबी या बंगला भाषी, परंतु हिंदी भाषियों में अपनी भाषा को साहित्यिक और शैक्षणिक क्षेत्र में जीवंत रखने की ललक दिखाई देती है ।
हिंदी एक संपर्क भाषा के रूप में भारत में भी इस्तेमाल की जाती है और विदेशों में रहने वाले भारतीय भी आपसी आत्मीय बातचीत के लिए हिंदी का इस्तेमाल करते हैं। ब्रिटेन में पाकिस्तान भी बड़ी संख्या में हैं। वे अपनी बातचीत में उर्दू का प्रयोग करते हैं जो बोलचाल की भाषा की दृष्टि से हिंदी से भिन्न नहीं हैं। अतः बोलचाल की दृष्टि से पंजाबी, गुजराती, बंगाली, दक्षिण भारतीय और दक्षिण एशिया के विभिन्न देशों से आए लोग हिंदी का ही संपर्क भाषा के रूप में इस्तेमाल करते हैं ।
50-60 के दशक में कामगारों के रूप में बड़ी संख्या में कामगारों का आना हुआ। साउथहॉल जैसे क्षेत्र भारतीय क्षेत्र के रूप में विख्यात होने लगे। जे. एम. कौशल, धर्मेंद्र गौतम (सं-प्रवासी) डॉ. श्याम मनोहर पांडे, प्रेमचंद सूद जैसे लोगों ने मानस सम्मेलन आदि के द्वारा हिंदी के पौधे को सींचना शुरू किया और हिंदी के वृक्ष के तने विविध क्षेत्रों में फैलने लगे 90 के दशक में तो सक्रियता इस कदर बढ़ी की विश्व हिंदी के मानचित्र पर ब्रिटेन एक महत्त्वपूर्ण केंद्र के रूप में उभरा। विदेशों में मारिशस के बाद शायद ब्रिटेन ही ऐसी जगह है जहाँ हिंदी साहित्यय-सृजन की दृष्टि से सक्रियता सर्वाधिक है।
(क) ब्रिटेन में हिंदीभाषियों की क्या स्थिति है ?
उत्तर – ब्रिटेन में हिंदीभाषी किसी एक विशेष क्षेत्र में एकत्र न होकर सब प्रदेशों में फैले हुए हैं। गुजरातियों, पंजाबियों के समान उनकी विशेष कॉलोनियाँ नहीं हैं। परंतु ब्रिटेन में रहने वाले सभी भारतीय, चाहे वे गुजराती, पंजाबी, बंगाली या दक्षिण भारतीय हों, आपस में हिंदी में वार्ता करते हैं। उनकी संपर्क भाषा हिंदी है ।
(ख) ब्रिटेन के भारतीयों के सामने कौन-सा सवाल खड़ा था ?
उत्तर – ब्रिटेन के भारतीयों के सामने मुख्य प्रश्न अपनी पहचान और संस्कृति को बचाने का है। इसके लिए वे अपनी भाषा को बचाकर रखना चाहते हैं ताकि वे उसे अपनी भावी पीढ़ी को दे सकें।
(ग) ब्रिटेन में भारतीयों की स्थिति पर प्रकाश डालिए ।
उत्तर – ब्रिटेन में भारतीयों की जनसंख्या काफी है। कई नगरों में तो वे बहुसंख्यक हो गए हैं। लेस्टर नगर में उनकी संख्या शेष निवासियों से अधिक हो गई है।
(घ) विदेशों में हिंदी को किस रूप में प्रयुक्त किया जाता है ?
उत्तर – विदेशों में हिंदी को संपर्क भाषा के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। भारतीय मूल के सभी विदेशी आपस में हिंदी के माध्यम से बातचीत करते हैं ।
(ङ) ब्रिटेन में हिंदी का विकास किन-किन महानुभावों ने किया ?
उत्तर – ब्रिटेन में हिंदी का विकास जे. एम. कौशल, धर्मेंद्र गौतम, डॉ० श्याम मनोहर पांडे, प्रेमचंद सूद जैसे लोगों ने किया। उन्होंने मानस-सम्मेलन करके हिंदी के पौधे को सींचना शुरू किया, जो कि बाद में विविध क्षेत्रों में फैलने-फलने लगा।
(च) भारत के अतिरिक्त अन्य किन देशों में हिंदी में साहित्य-सृजन होता है ?
उत्तर – भारत के अतिरिक्त मारिशस और ब्रिटेन में हिंदी में साहित्य-रचना होती है ।
(छ) जीवंत, भारतीय, सक्रियता के विलोम लिखें।
उत्तर – जीवंत – मृत
भारतीय-अभारतीय
सक्रियता- निष्क्रियता
(ज) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दें।
उत्तर – शीर्षक- ब्रिटेन में हिंदी की स्थिति ।
11. हमारी संस्था का मूल ही ‘सत्य का आग्रह’ है। इसलिए पहले सत्य को ही लेता हूँ। इस सत्य की आराधना के लिए ही हमारा अस्तित्व, इसी के लिए हमारी प्रत्येक प्रवृत्ति और इसी के लिए हमारा प्रत्येक श्वासोच्छ्वास होना चाहिए। ऐसा करना सीख जाने पर दूसरे सब नियम सहज में हमारे लग सकते हैं। उनका पालन भी सरल हो सकता है। सत्य के बिना किसी भी नियम का शुद्ध पालन असत्य है । साधारणतः सत्य का अर्थ सच बोलना मात्र समझा जाता है, लेकिन हमने विशाल अर्थ में ‘सत्य’ शब्द का प्रयोग किया है। विचार में, वाणी में और आचार में सत्य का होना ही सत्य है। इस सत्य को संपूर्णतः समझने वाले के लिए जगत में और कुछ जानना बाकी नहीं रहता । उसमें जो न समाए वह सत्य नहीं है, ज्ञान नहीं है। तब फिर उससे सच्चा आनन्द तो हो ही कहाँ से सकता है ? यदि हम इस कसौटी का उपयोग करना सीख जाएँ तो हमें यह जानने में देर न लगेगी कि कौन प्रवृत्ति उचित है; कौन त्याज्य है, क्या देखने योग्य है; क्या नहीं, क्या पढ़ने योग्य है; क्या नहीं ।
पर यह पारसमणि रूप कामधेनु सत्य पाया कैसे जाए ? इसका जवाब भगवान ने दिया है— ‘अभ्यास और वैराग्य से’। फिर भी हम पाएँगे कि एक के लिए जो सत्य है, वह दूसरे के लिए असत्य हो सकता है। इसमें घबराने की बात नहीं है। जहाँ से शुद्ध प्रयत्न है, वहाँ भिन्न जान पड़ने वाले सब सत्य एक ही पेड़ के असंख्य भिन्न दिखाई देने वाले पत्तों के समान हैं। परमेश्वर ही क्या हर आदमी को भिन्न दिखाई नहीं देता ? फिर भी हम जानते हैं कि वह एक ही है। पर सत्य नाम ही परमेश्वर का है, अतः जिसे जो सत्य लगे तदनुसार वह बरते तो उसमें दोष नहीं इतना ही नहीं, बल्कि वही कर्त्तव्य है। फिर उसमें भूल होगी भी तो वह अवश्य सुधर जाएगी, क्योंकि सत्य की खोज के साथ तपश्चर्या होती है अर्थात् आत्म-कष्ट सहन की बात होती है, उसके पीछे मर-मिटना होता है, अतः उसमें स्वार्थ की तो गंध तक भी नहीं होती। ऐसी निःस्वार्थ खोज में लगा हुआ आज तक कोई गलत रास्ते पर नहीं गया । भटकते ही वह ठोकर खाता है और फिर सीधे रास्ते चलने लगता है । सत्य की आराधना भक्ति है, और भक्ति ‘सिर हथेली पर लेकर चलने का सौदा’ है अथवा वह ‘हरि का मार्ग है, जिसमें कायरता की गुंजाइश नहीं है, जिसमें ‘हार’ नाम की कोई चीज है ही नहीं। वह तो ‘मर कर जीने का मंत्र’ है। सब बालक, बड़े, स्त्री-पुरुष चलते-फिरते, उठते-बैठते, खाते-पीते, खेलते-कूदते…. सारे काम करते हुए यह रटन लगाए रहे और ऐसा करते-करते निर्दोष निद्रा लिया करे तो कितना अच्छा हो । यह सत्य रूपी परमेश्वर मेरे लिए रतन चिंतामणि सिद्ध हुआ है। हम सभी के लिए वैसा ही सिद्ध हो ।
सत्य का, अहिंसा का मार्ग जितना सीधा है; उतना तंग भी, खाँड़े की धार पर चलने के समान है। नट जिस डोर पर सावधानी से नजर रखकर चल सकता है, सत्य और अहिंसा की डोर उससे भी पतली है। जरा चूके कि नीचे गिरे। पल-पल साधना से ही उसके दर्शन होते हैं। लेकिन सत्य के संपूर्ण दर्शन तो इस देह से असंभव है। उसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है। क्षणभंगुर देह द्वारा शाश्वत धर्म का साक्षात्कार संभव नहीं होता। अतः अंत में श्रद्धा के उपयोग की आवश्यकता तो रह ही जाती है। इसी से अहिंसा जिज्ञासु के पल्ले पड़ी । जिज्ञासु के सामने यह सवाल पैदा हुआ कि अपने मार्ग में आने वाले संकटों को सहे या उसके निमित्त जो नाश करना पड़े, वह करता जाए और आगे बढ़े। उसने देखा कि नाश करते चलने पर वह आगे नहीं बढ़ता, दर-का-दर पर ही रह जाता है। संकट सहकर आगे तो बढ़ता है। पहले नाश में उसने देखा कि जिस सत्य की उसे तलाश है; वह बाहर नहीं है, बल्कि भीतर है। इसलिए जैसे-जैसे नाश करता जाता है, वैसे-वैसे वह पीछे रहता जाता है और सत्य दूर हटता जाता है।
(क) साधारण तौर पर हम सत्य का क्या अर्थ समझते हैं ?
उत्तर – साधारण तौर पर हम सत्य का अर्थ केवल सच बोलना ही समझते हैं।
(ख) लेखक ने सत्य को क्या-क्या रूप दिया है ?
उत्तर – लेखक ने सत्य को ‘पारसमणि’ तथा ‘कामधेनु’ का रूप दिया है।
(ग) सत्य एवं अहिंसा के मार्ग को खाँड़े की धार क्यों कहा गया है ?
उत्तर – सत्य एवं अहिंसा के मार्ग को खाँड़े की धार इसलिए कहा है, क्योंकि इस मार्ग पर चलने के लिए सावधानी की जरूरत पड़ती है।
(घ) लेखक के लिए सत्य रूपी परमेश्वर क्या सिद्ध हुआ ?
उत्तर – लेखक के लिए सत्य रूपी परमेश्वर रत्न चिंतामणि सिद्ध हुआ।
(ङ) शाश्वत धर्म का साक्षात्कार संभव क्यों नहीं है ?
उत्तर – शाश्वत धर्म का साक्षात्कार इसलिए संभव नहीं है, क्योंकि मानव जीवन क्षणभंगुर है।
(च) ‘सिर हथेली पर लेकर चलना’ मुहावरे का अर्थ स्पष्ट करें।
उत्तर – ‘सिर हथेली पर लेकर चलने’ का अर्थ है- मरने के लिए तैयार रहना।
(छ) दो पुनरूक्त शब्द-युग्म छाँट कर लिखें ।
उत्तर – ‘पल-पल’, जैसे-जैसे ।
(ज) गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखें ।
उत्तर – शीर्षक- सत्य और अहिंसा ।
12. जो मनुष्य साहित्य, संगीत और कला से हीन है, वह तुच्छ तथा सींग रहित पशु के सदृश है। बुद्धिमान वही है जो साहित्य, संगीत और कला का व्यसनी हो, अन्यथा वह इस धरती पर भार के समान है। अपनी उदर- पूर्ति के साधन प्राप्त करने में ही मूर्ख अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझता है । किसी भी समाज या देश में ऐसे लोगों से क्या लाभ हो सकता है, और फिर ये अधिक संख्या में हो तो वे समाज या देश के लिए कहाँ तक हितकर सिद्ध हो सकते हैं- यह एक विचारणीय प्रश्न है। ऐसे लोगों पर यदि परिवार का भार है तो क्या वे परिवार को सही दिशा दे सकेंगे मार्गदर्शन कर सकेंगे। वे माता-पिता के रूप में जाकर अपनी संतान को क्या शिक्षा प्रदान कर सकेंगे। और फिर…… मनुष्य और में पशु अंतर क्या रह गया। ज्ञान ही एक ऐसा विशेष एवं अनुपम तत्व है, जो उसे पशुता से पृथक करता है। अन्यथा वह पशु कोटि में गणना करने योग्य है। मनुष्य अपने स्वार्थ में अति पटु होता है तो पशु-पक्षी भी हानि या अपने लाभ को सम्यक प्रकार से जानते हैं। संतति-प्रेम मनुष्यों तथा पशु-पक्षियों में समान रूप से पाया जाता है। गाय-भैंस भी अपने बच्चे को प्यार दुलार करती है। संगीत में ऐसी मनमोहक शक्ति है कि उसकी ओर सभी समान रूपेण आकृष्ट होते हैं। एक बधिक के वश में मृग भी सुगमता से नहीं आ जाता और संगीत सुनकर वह इतना आनंद-विभोर हो जाता है कि वह आँखें मूँद लेता है। बधिक वाण मारकर उसकी जान ले लेता है। कलाकार तथा गुणवान मनुष्य का सम्मान सर्वत्र होता है। मूर्ख व्यक्ति का कोई समादर नहीं करता है। सारांश यह है कि अनेक गुण तथा व्यवहार ऐसे हैं, जो मनुष्यों की तरह से ही पशुओं में पाए जाते हैं। पशुओं-पक्षियों में भी एकता पाई जाती है। उदाहरणार्थ एक बंदर कहीं फँस जाए तो उसे बचाने के लिए अनेक वानर वहाँ एकत्रित हो जाते हैं। केवल शिक्षा या ज्ञान ही एक ऐसा सूक्ष्म तत्व है, जो मनुष्य को पशुओं से श्रेष्ठ प्रमाणित करता है।
साक्षर होना मनुष्य के लिए कितना आवश्यक है। शासन की ओर से सभी के लिए समान रूप से शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार है। भारत में शिक्षा की समुचित व्यवस्था रही है। हमारा देश भारत सैकड़ों वर्ष दासता की जंजीरों में जकड़ा रहा। इससे हमारी विचारधारा तथा प्रयत्न निष्क्रिय हो गए। ब्रिटिश शासन काल में शिक्षा-व्यवस्था की जो दशा हुई उससे भली प्रकार सभी सुपरिचित हैं। उन लोगों का तो यही विचार था कि भारतीय संस्कृति और साहित्य का मूल्योच्छेदन ही कर दिया जाए और इस विचार को उन्होंने कार्य रूप में परिणत करने का भरसक प्रयत्न किया।
साहित्य ही समाज का दर्पण होता है। साहित्य तथा संस्कृति पर कुठाराघात होने पर उस जाति या उस देश के निवासियों का कोई अस्तित्व ही नहीं रह जाता। जहाँ साक्षर व्यक्ति होंगे, बुद्धिजीवी होंगे, वहाँ साहित्य सुसमृद्ध होगा और उसका अस्तित्व व्यापक होता जाएगा। वहाँ की सभ्यता तथा संस्कृति सुविकसित होगी। उस समय विद्यालय बहुत ही कम थे और विद्यार्थियों के शिक्षा प्राप्त करने हेतु मीलों पैदल चलना पड़ता था। उच्च शिक्षा प्राप्त कराने की न कोई सुविधाएँ थी और न कोई साधन । परिणाम यह हुआ कि निरक्षरता में वृद्धि होने लगी। समुचित शिक्षा के अभाव में स्वतंत्र चिंतन करने की क्षमता और बुद्धि कौशल का अभाव हो गया। राष्ट्र के कल्याण के प्रति उदासीनता होना स्वाभाविक ही था । साक्षर मनुष्य ही अपने बच्चों का भविष्य निर्मित कर सकता है। निरक्षर युवक देश के सुयोग्य नागरिक नहीं बन सकते।
(क) साहित्य-कला विहीन मनुष्य कैसा होता है ?
उत्तर – साहित्य, संगीत और कला से विहीन मनुष्य तुच्छ और सींग रहित पशु के समान होता है।
(ख) कौन-सा प्रश्न विचारणीय है ?
उत्तर – यह प्रश्न विचारणीय है कि केवल अपने उदर की पूर्ति में लगे लोग भला समाज का क्या भला कर सकते हैं। देश के लिए भला उनका क्या उपयोग है ।
(ग) संगीत में कैसी शक्ति होती है ?
उत्तर – संगीत में बड़ी मनमोहक शक्ति होती है। संगीत की ओर सभी आकृष्ट होते हैं । मृग तक संगीत सुनकर इतना आनंद विभोर हो जाता है कि शिकारी उसकी जान तक ले लेता है ।
(घ) शिक्षा का क्या अधिकार है ?
उत्तर – सभी को शिक्षा पाने का समान अधिकार है। शासन की ओर से शिक्षा की समुचित व्यवस्था की गई है ।
(ङ) साहित्य समाज का दर्पण कैसे है ?
उत्तर – समाज में जो कुछ घटित हो रहा होता है उसका प्रतिबिंब साहित्य में झलकता है। साहित्य और समाज एक-दूसरे के पूरक हैं।
(च) साक्षर मनुष्य क्या कर सकता है ?
उत्तर – साक्षर मनुष्य ही अपने बच्चों का भविष्य निर्मित कर सकता है। वही देश का सुयोग्य नागरिक बन सकता है।
(छ) भाववाचक संज्ञा बनाएँ- पशु, दास ।
उत्तर – पशु- पशुता, पशुत्व
दास – दासता, दासत्व
(ज) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखें ।
उत्तर – शीर्षक- साहित्य और संगीत का महत्व ।
13. वृक्षों में भी पीपल या अश्वत्थ का विशेष महत्त्व है। यह हिमालय की ऊँचाइयों को छोड़कर सर्वत्र पाया जाता है। यह बरगद का भाई है, कभी-कभी बरगद-पीपल है दोनों के लिए अश्वत्थ शब्द का प्रयोग हुआ पर बरगद से पीपल इसलिए विशिष्ट है कि यह सर्वांग मनोहर है, विशेषकर इसमें जब नए किसलय निकलते हैं और बिना किसी हवा के संस्पर्श के हिलते दीखते हैं, तो ऐसा लगता है कि हजार- हजार छोटी-छोटी झंडियाँ किसी विशेष आगमन की सूचना देती हैं। पलाश के फूल तो अंगारे की तरह दिखते हैं, पर पीपल के नए पल्लव ऐसे मनोहर होते हैं कि हजार-हजार पक्षी दौड़-दौड़ कर आते हैं। उस पीपल की बात करना चाहता हूँ।
पीपल का पेड़ भारत का दुर्निवार पेड़ है, इसे कोई लगाए न लगाए, कहीं उग जाता है। पुराने मकानों की संधियों में, जहाँ चिड़िया पीपल का गोदा खाकर उसके बीज बिखेर जाती है, पीपल उग आता है। किसी-किसी पेड़ की डाली पर बीज पड़ जाता है, पीपल उग आता है और अपनी जड़े दूर-दूर फैलाता चला जाता है। गाँवों में लोग इसे काटते हुए डरते हैं। पीपल का पेड़ बड़ा पवित्र है । पीपल के पत्तों पर लोग रामनाम लिखते हैं। पीपल की छाँह में गाँवों में पंचायत जुटती थी, ताकि लोग वहाँ झूठ न कहे। पीपल सत्य है, क्योंकि निरंतरता है। गाँवों में हमारी ओर पीपल को वासुदेव कहते हैं- वासुदेव श्रीकृष्ण ने गीता में अपने को वृक्षों में अश्वत्थ अर्थात पीपल ही घोषित किया है। पीपल सृष्टि का अनविच्छिन्न प्रवाह है। पीपल का पेड़ ढह जाए, उसका बीज वहीं और कई जगह और उग आता है। पीपल के पेड़ की जड़ों पर सिर टेके श्रीकृष्ण ने जरा का तीर झेला और अपनी लीला समेटी ।
(क) गीता में पीपल का स्मरण किस रूप में किया गया है ?
उत्तर – गीता में पीपल को सब पेड़ों में पवित्र तथा श्रीकृष्ण के अवतार के रूप में याद किया गया है ।
(ख) गाँवों में लोग पीपल को काटने से क्यों डरते हैं ?
उत्तर – गाँवों के लोग पीपल को पवित्र मानते हैं। इसलिए वे इसे काटने से डरते हैं।
(ग) पीपल की समानता किस पेड़ से की जाती है ?
उत्तर – बरगद से ।
(घ) पीपल को दुर्निवार क्यों कहा गया है ?
उत्तर – पीपल के पेड़ को हटाना कठिन है। इसलिए उसे दुर्निवार कहा गया है।
(ङ) ‘विशिष्ट’ के दो पर्यायवाची लिखें ।
उत्तर – विलक्षण, अनोखा, अद्भुत, अनुपम ।
(च) ‘पाँच-छ:’ में कौन-सा समास है ?
उत्तर – पाँच या छ:- द्वंद्व समास ।
(छ) ‘रामनाम’ का विग्रह करें।
उत्तर – राम का नाम ।
(ज) उपर्युक्त अवतरण का उचित शीर्षक लिखें।
उत्तर – शीर्षक- पीपल का पवित्र वृक्ष।
14. हमारा अस्तित्व, हमारी प्रवृत्तियाँ तथा जीवन का प्रत्येक क्षण सत्य की आराधना के लिए होना चाहिए। ऐसा होने पर सारे नियम प्राप्त हो जाते हैं तथा उनका पालन आसान बन जाता है। सत्य हमारी वाणी, विचार तथा आचार में होना चाहिए। सत्य ही जगत का सार है तथा सत्य की प्राप्ति सच्चा आनंद है। सत्य से ही हमें उचित-अनुचित का ज्ञान होता है ।
सत्य को अभ्यास तथा वैराग्य से प्राप्त किया जा सकता है। ‘सत्य’ नाम ही परमेश्वर है। सत्य की खोज के साथ तपश्चर्या, आत्म कष्ट तथा मर मिटना होता है। वहाँ स्वार्थ नहीं होता । अतः स्वयं ही भूल सुधार हो जाती है। जिस प्रकार परमात्मा के सब को अलग-अलग रूप दिखाई देते हैं उसी प्रकार सत्य भी सब के लिए भिन्न हो सकते हैं ।
सत्य की आराधना भक्ति है। भक्ति हरि का मार्ग है, उसमें कायरता नहीं होती, हार नहीं होती, वह तो सिर हथेली पर लेकर चलने का सौदा है। व वह तो मर मिटना है। सत्य रूपी परमेश्वर रत्न चिंतामणि है। सत्य और अहिंसा का मार्ग सीधा परन्तु तंग है। खाँडे की धार पर चलने के समान है। वह पल-पल साधना से ही प्राप्त होता है। यह शरीर क्षण भंगुर है। इससे संपूर्ण सत्य-शाश्वत धर्म का दर्शन असंभव है। मार्ग में आने वाले संकटों को सहने से जिज्ञासु आगे बढ़ सकता है। परन्तु संकटों का नाश करने से वह वहीं का वहीं रहता है। नाश करने से सत्य दूर भागता है ।
चोर चोरी को ही कर्तव्य मानता है। एक जगह रोक देने से वह दूसरी जगह चोरी करता है। क्यों न ? चोर का उपद्रव सह लिया जाए ? वह भी तो हम में से है। चोर समझ जाएगा। परन्तु उपद्रव सहना कायरता है। अतः चोर को अपनाकर समझाना चाहिए। यह अहिंसा है। अहिंसा में उत्तरोत्तर दुख उठाने तथा अटूट धैर्य परीक्षा है। चोर के साहूकार बन जाने पर हमें सत्य के दर्शन होते हैं। संकट सहने से हम जगत को मित्र बनाते हैं । सत्य की महिमा समझते हैं, सुख शांति, नम्रता तथा साहस बढ़ाते हैं। हम शाश्वत, अशाश्वत और कर्तव्य का भेद जान जाते हैं गर्व, परिग्रह तथा दैहिक मैल घटते हैं ।
अहिंसा स्थूल वस्तु नहीं है। केवल किसी को न मारना ही अहिंसा नहीं है बल्कि कुविचार, उतावली, मिथ्या भाषण, द्वेष, किसी का बुरा चाहना तथा अधिक संग्रह भी हिंसा है। हमारी देह अपनी नहीं बल्कि किसी की धरोहर है। हमें इसका उपयोग करते हुए आगे बढ़ना चाहिए ।
सत्य की खोज के बिना अहिंसा असंभव है। सत्य और अहिंसा दोनों परस्पर ओत-प्रोत हैं। यदि अहिंसा साधन है तो सत्य साध्य है। सत्य परमेश्वर है तो अहिंसा परमधाम है। यदि हम साधन की चिंता करते रहें तो साध्य पा ही लेंगे । मार्ग के संकटों से घबराना नहीं चाहिए बल्कि विश्वास रखें। सत्य ही परमेश्वर है और उसे अहिंसा के मार्ग द्वारा पाया जा सकता है। यदि हम अहिंसा का मार्ग नहीं छोड़ें तो सत्य स्वरूप परमेश्वर हमें इसके पालन हेतु बल भी प्रदान करेगा।
(क) किसे परमेश्वर कहा गया है और उसे कैसे पाया जा सकता है ?
उत्तर – सत्य को ही परमेश्वर कहा गया है। इसे अहिंसा के मार्ग पर के मार्ग पर चलकर पाया जा सकता है।
(ख) सत्य को जीवन में अपनाने से क्या-क्या लाभ होते हैं ?
उत्तर – सत्य को जीवन में अपनाने से अनेक लाभ हैं
– इससे सारे नियम प्राप्त हो जाते हैं तथा उनका पालन भी आसान हो जाता है।
– इससे सच्चा आनंद प्राप्त होता है ।
– सत्य से उचित अनुचित का ज्ञान हो जाता है ।
(ग) सत्य को किस प्रकार बताया गया है ?
उत्तर – सत्य में कायरता और हार-जीत की भावना नहीं होती। यह सिर हथेली पर रखकर चलने का सौदा है। यह चिंतामणि के समान है ।
(घ) चोर के साथ कैसा व्यवहार करने को कहा गया है ?
उत्तर – चोर को अपनाकर समझाना चाहिए। वह भी हममें से एक है। उसे अहिंसा से समझाने में दुख उठाना पड़ सकता है। पर वह उत्तरोत्तर सुधर
जाएगा ।
(ङ) अहिंसा के बारे में क्या कहा गया है ?
उत्तर – अहिंसा कोई स्थूल वस्तु नहीं है। केवल किसी को न मारना ही अहिंसा नहीं है, बल्कि हमें अपने में बुरे विचार, मिथ्या भाषण, किसी का बुरा चाहना तथा अधिक संग्रह भी नहीं करना चाहिए ।
(च) हमें क्या विश्वास रखना चाहिए ?
उत्तर – हमें यह विश्वास रखना चाहिए कि सत्य ही परमेश्वर है और अहिंसा परमधाम है। हमें अहिंसा का मार्ग नहीं छोड़ना चाहिए। इससे सत्य रूप परमेश्वर स्वयं मिल जाएगा।
(छ) इस गद्यांश से दो ऐसे शब्द-युग्म छाँटें जिनमें विलोम शब्द भी आए हों।
उत्तर – शाश्वत – अशाश्वत
कर्तव्य- अकर्तव्य
(ज) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखें ।
उत्तर – शीर्षक- सत्य और अहिंसा ।
15. परियोजना शिक्षा का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण अंग है। इसे तैयार करने में किसी खेल की तरह का ही आनंद मिलता जाता है। इस तरह परियोजना तैयार करने का अर्थ है— खेल-खेल में बहुत कुछ सीख जाना । उदाहरण के लिए, दशहरे की परियोजना को ही लें। यदि आपको कहा जाए कि इस पर निबंध लिखिए, तो आपको शायद उतना आनंद नहीं आएगा। लेकिन यदि आपसे कहा जाय कि अखबारों में छपे अलग-अलग शहरों के दशहरे के चित्र काट कर अपनीं कॉपी में चिपकाइए और लिखिए कि कौन-सा चित्र, किस शहर के दशहरे का है, तो शायद आपको बहुत आनंद आएगा। तो इस तरह से चित्र इकट्ठे करके चिपकाना भी एक शैक्षिक परियोजना है। यह एक प्रकार की फोटो-फीचर परियोजना कहलाएगी। इस तरह से न केवल आपने चित्र काटे और चिपकाए, बल्कि कई शहरों में मनाए जाने वाले दशहरे के तरीकों को भी जाना ।
परियोजना पाठ्य-पुस्तक से प्राप्त जानकारियों के अलावा भी आपको देश-दुनिया की बहुत सारी जानकारियाँ प्रदान करती है। यह आपको तथ्यों को जुटाने तथा उन पर विचार करने का अवसर प्रदान करती है। इससे आप में नए-नए तथ्यों के प्रति जिज्ञासा और उन पर अपने विचार प्रकट करने के कौशल का विकास होता है। इससे आप में एकाग्रता का विकास होता है । लेखन संबंधी नई-नई शैलियों का विकास होता है। आप में चिंतन करने तथा किसी पूर्व घटना से वर्तमान घटना को जोड़कर देखने की शक्ति का विकास होता है ।
परियोजना कई प्रकार से तैयार की जा सकती है। हर व्यक्ति इसे अलग ढंग से, अपने तरीके से तैयार कर सकती है। ठीक उसी प्रकार जैसे हर व्यक्ति का बातचीत करने का रहने का, खाने-पीने का अपना अलग तरीका होता है। ऐसा निबंध, कहानी, कविता लिखते या चित्र बनाते समय भी होता है। लेकिन ऊपर कही गई बातों के आधार पर यहाँ हम परियोजना को मोटे तौर पर दो भागों में बाँट सकते हैं- एक तो वे परियोजनाएँ जो समस्याओं के निदान के लिए तैयार की जाती हैं और दूसरी वे जो किसी विषय की समुचित जानकारी प्रदान करने के लिए तैयार की जाती हैं ।
समस्याओं के निदान के लिए तैयार की जाने वाली परियोजनाओं में संबंधित समस्या से जुड़े सभी तथ्यों पर प्रकाश डाला जाता है और उस समस्या के समाधान के लिए सुझाव भी दिए जाते हैं। इस तरह की परियोजनाएँ, प्रायः सरकारी अथवा संगठनों द्वारा किसी समस्या पर कार्य योजना तैयार करते समय बनाई जाती है ।
किन्तु दूसरे प्रकार की परियोजना को आप आसानी से तैयार कर सकते हैं। इसे शैक्षिक परियोजना भी कहा जा सकता है। इस तरह की परियोजनाएँ तैयार करते समय आप संबंधित विषय पर तथ्यों को जुटाते हुए, बहुत सारी नई-नई बातों से अपने आप परिचित भी होते हैं ।
(क) परियोजना क्या है ? इसमें क्या मिलता है ?
उत्तर – परियोजना शिक्षा का बहुत महत्त्वपूर्ण अंग है। यह एक पूर्ण विचार योजना होती है। इसे तैयार करने में आनंद मिलता है ।
(ख) शैक्षिक परियोजना क्या है ?
उत्तर – शैक्षिक परियोजना में संबंधित विषय पर तथ्यों को जुटाते हुए, चित्र इकट्ठे करके एक स्थान पर चिपकाए जाते हैं। इन नई-नई बातों की जानकारी दी जाती है।
(ग) परियोजना हमें क्या प्रदान करती है ?
उत्तर – परियोजना हमें हमारी समस्याओं का निदान प्रदान करता है। इसे तैयार करने में हमें खेल जैसा आनंद मिलता है ।
(घ) परियोजना किस प्रकार तैयार की जा सकती है ?
उत्तर – परियोजना कई प्रकार से तैयार की जाती है। हर व्यक्ति इसे अपने ढंग से तैयार कर सकता है। परियोजनाएँ दो प्रकार की होती हैं :
(i) समस्या का निदान करने वाली परियोजना,
(ii) विषय की समुचित जानकारी देने वाली परियोजना |
(ङ) समस्या का निदान करने वाली परियोजना कैसी होनी चाहिए ?
उत्तर – समस्या का समाधान करने वाली परियोजना में संबंधित समस्या से जुड़े सभी तथ्यों पर प्रकाश डाला जाता है और समस्या के समाधान के सुझाव भी दिये जाते हैं।
(च) ‘परियोजना’ शब्द किस प्रकार बना है ?
उत्तर – ‘परियोजना’ शब्द ‘परि’ उपसर्ग के योग से बना है (परि + योजना)
(छ) दो ऐसे शब्द लिखें जिनमें ‘परि’ उपसर्ग का प्रयोग किया गया हो ।
उत्तर – ‘परि’ परसर्ग से बने दो अन्य शब्द- परिकल्पना, परिकथा
(ज) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखें।
उत्तर – शीर्षक : परियोजना का स्वरूप

हमसे जुड़ें, हमें फॉलो करे ..

  • Telegram ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
  • Facebook पर फॉलो करे – Click Here
  • Facebook ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
  • Google News ज्वाइन करे – Click Here

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *