NCERT Solutions Class 10Th Hindi Chapter – 2 निबंध-लेखन
NCERT Solutions Class 10Th Hindi Chapter – 2 निबंध-लेखन
निबंध – लेखन
1. मेरे जीवन का लक्ष्य
भूमिका, मेरा लक्ष्य, लक्ष्य क्यों तैयारी ।
उत्तर – भूमिका – प्रत्येक मानव का कोई-न-कोई लक्ष्य होना चाहिए । बिना लक्ष्य के मानव उस नौका के समान है जिसका कोई खेवनहार नहीं है। ऐसी नौका कभी भी भँवर में डूब सकती है और कहीं भी चट्टान से टकराकर चकनाचूर हो सकती है। लक्ष्य बनाने से जीवन में रस आ जाता है।
मेरा लक्ष्य- मैंने यह तय किया है कि मैं पत्रकार बनूँगा। आजकल सबसे प्रभावशाली स्थान है – प्रचार माध्यमों का । समाचार-पत्र, रेडियों, दूरदर्शन आदि चाहें तो देश में आमूल-चूल बदलाव ला सकते हैं। मैं भी ऐसे महत्त्वपूर्ण स्थान पर पहुँचना चाहता हूँ जहाँ से मैं देशहित के लिए बहुत कुछ कर सकूँ। पत्रकार बनकर मैं देश को तोड़ने वाली ताकतों के विरूद्ध संघर्ष करूँगा, समाज को खोखला बनाने वाली कुरीतियों के खिलाफ जंग छेडूंगा और भ्रष्टाचार का भण्डाफोड़ करूँगा ।
लक्ष्य. क्यों- मेरे पड़ोस में एक पत्रकार रहते हैं- श्री प्रभात मिश्र । वे इंडियन एक्सप्रेस के संवाददाता तथा भ्रष्टाचार विरोधी विभाग के प्रमुख पत्रकार हैं। उन्होंने पिछले वर्ष गैस एजेन्सी की धाँधली को अपने लेखों द्वारा बंद कराया था। उन्हीं के लेखों के कारण हमारे शहर में कई दीन-दुखी लोगों को न्याय मिला है। उन्होंने बहू को जिन्दा जलाने वाले दोषियों को जेल में भिजवाया, नकली दवाई बेचने वाले का लाइसेंस रद्द करवाया, प्राइवेट बस वालों की मनमानी को रोका तथा बस-सुविधा को सुचारु बनाने में योगदान दिया। इन कारणों से मैं उनका बहुत आदर करता हूँ। मेरा भी दिल करता है कि मैं उनकी तरह श्रेष्ठ पत्रकार बनूँ और नित्य बढ़ती समस्याओं का मुकाबला करूँ । “
मुझे पता है कि पत्रकार बनने में खतरे हैं तथा पैसा भी बहुत नहीं है। परन्तु मैं पैसा के लिए या धन्धे के लिए पत्रकार नहीं बनूँगा। मेरे जीवन का लक्ष्य होगा- समाज की कुरीतियों और भ्रष्टाचार को समाप्त करना । यदि मैं थोड़ी-सी बुराइयों को भी हटा सका तो मुझे बहुत संतोष मिलेगा। मैं हर दुखी को देखकर दुखी होता हूँ, हर बुराई को देखकर उसे मिटा देना चाहता हूँ। मैं स्वस्थ समाज देखना चाहता हूँ। इसके लिए पत्रकार बनकर हर दुख-दर्द को मिटा देना मैं अपना धर्म समझता हूँ । तैयारी – केवल सोचने भर से लक्ष्य नहीं मिलता है। मैंने इस लक्ष्य को पाने के लिए कुछ तैयारियाँ भी शुरू कर दी हैं। मैं दैनिक समाचार पत्र पढ़ता हूँ रेडियो-दूरदर्शन के समाचार तथा अन्य सामाजिक विषयों को ध्यान से सुनता हूँ।
मैंने हिन्दी तथा अंग्रेजी भाषा का गहरा अध्ययन करने की कोशिशें भी शुरू कर दी हैं ताकि लेख लिख सकूँ । वह दिन दूर नहीं, जब मैं पत्रकार बनकर समाज की सेवा करने का सौभाग्य पा सकूँगा ।
2. दहेज प्रथा
भूमिका, बुराई, दुष्परिणाम, रोकने के उपाय
उत्तर – भूमिका – विवाह के अवसर पर कन्या पक्ष द्वारा वर पक्ष को उपहार के रूप में जो भेंट दी जाती है, उसे ‘दहेज’ कहते हैं। यह प्रथा अत्यंत प्राचीनकाल से चली आ रही है। आज यह प्रथा बुराई का रूप धारण कर चुकी है, परंतु मूल रूप में यह बुराई नहीं है।
बुराई – प्रश्न उठता है कि दहेज को बुराई क्यों कहा जाता है ? विवाह के समय प्रेम का उपहार देना बुरा कैसे है ? क्या एक पिता अपनी कन्या को खाली हाथ विदा कर दे ? नहीं। अपनी प्यारी बिटिया के लिए धन, सामान, वस्त्र आदि देना प्रेम का प्रतीक है। परंतु यह भेंट प्रेमवश दी जानी चाहिए, मजबूरी में नहीं दूसरे, दहेज अपनी शक्ति के अनुसार दिया जाना चाहिए, धाक जमाने के लिए नहीं। तीसरे, दहेज दिया जाना ठीक है, माँगा जाना ठीक नहीं। दहेज को बुराई वहाँ कहा जाता है, जहाँ माँग होती है। दहेज प्रेम का उपहार है, जबरदस्ती खींच ली जाने वाली संपत्ति नहीं ।
दुर्भाग्य से आजकल दहेज की जबरदस्ती माँग की जाती है। दूल्हों के भाव लगते हैं। बुराई की हद यहाँ तक बढ़ गई है कि जो जितना शिक्षित है, समझदार है, उसका भाव उतना ही तेज है। आज डॉक्टर, इंजीनियर का भाव दस-पंद्रह लाख, आई० ए० एस० का चालीस-पचास लाख, प्रोफेसर का आठ-दस लाख, ऐसे अनपढ़ व्यापारी, जो खुद कौड़ी के तीन बिकते हैं, उनका भी भाव कई बार लाखों तक जा पहुँचता है। ऐसे में कन्या का पिता कहाँ मरे ? वह दहेज की मंडी में से योग्यतम वर खरीदने के लिए धन कहाँ से लाए ? बस यहीं से बुराई शुरू हो जाती है।
दुष्परिणाम- दहेज प्रथा के दुष्परिणाम अनेक हैं। या तो कन्या के पिता को लाखों का दहेज देने के लिए घूस, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, काला बाजार आदि का सहारा लेना पड़ता है, या उसकी कन्याएँ अयोग्य वरों के मत्थे मढ़ दी जाती हैं । मुंशी प्रेमचंद की ‘निर्मला’ दहेज के अभाव में बूंढे तोताराम के साथ ब्याह दी गई । परिणाम क्या हुआ ? तोताराम की हरी भरी जिंदगी श्मशान में बदल गई। स्वयं निर्मला भी तनावग्रस्त होकर चल बसी। हम रोज समाचार पत्रों में पढ़ते हैं कि अमुक शहर में कोई युवती रेल के नीचे कट मरी, किसी बहू को ससुराल वालों ने जलाकर मार डाला, किसी ने छत से कूदकर आत्महत्या कर ली। ये सब घिनौने परिणाम दहेज रूपी दैत्य के ही है।
रोकने के उपाय- हालाँकि दहेज को रोकने के लिए समाज में संस्थाएँ बनी हैं, युवकों से प्रतिज्ञा-पत्रों पर हस्ताक्षर भी लिए गए हैं, कानून भी बने हैं, परंतु
समस्या ज्यों-की-त्यों है। सरकार ने ‘दहेज निषेध अधिनियम के अंतर्गत दहेज के दोषी को कड़ा दंड देने का विधान रखा है। परंतु वास्तव में आवश्यकता है१ जन-जागृति की। जब तक युवक दहेज का बहिष्कार नहीं करेंगे और युवतियाँ दहेज-लोभी युवकों का तिरस्कार नहीं करेंगी, तब तक यह कोढ़ चलता रहेगा। हमारे साहित्यकारों और कलाकारों को चाहिए कि वे युवकों के हृदयों में दहेज के प्रति तिरस्कार जगाएँ । प्रेम-विवाह को प्रोत्साहन देने से भी यह समस्या दूर हो सकती है।
3. दूरदर्शन का प्रभाव
भूमिका, लाभ, हानियाँ, निष्कर्ष ।
उत्तर – भूमिका- आधुनिक वैज्ञानिक आविष्कारों में सबसे अधिक आकर्षक यंत्र हैदूरदर्शन। इसके माध्यम से दूर स्थान से प्रसारित ध्वनि चित्र सहित दर्शकों के पास पहुँच जाती है। दूरदर्शन का प्रभाव रेडियो से अधिक स्थायी है। पिछले दो दशकों में दूरदर्शन ने भारत में बहुत लोकप्रियता प्राप्त की है।
लाभ- भारत जैसे विशाल देश में दूरदर्शन की महत्ता असंदिग्ध है। आज हमारे देश के सामने अनेकानेक समस्याएँ मुँह बाए खड़ी हैं। दूरदर्शन के माध्यम से उन समस्याओं की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट कर उनके समाधान की दिशा में प्रयत्न किया जा सकता है। ज्ञान-विज्ञान, समाज-शिक्षा तथा खेती-बाड़ी संबंधी विषयों के संबंध में जानकारी द्वारा लोगों का ज्ञानवर्धन किया जा सकता है। देश में मद्यपान के कुप्रभावों, परिवार नियोजन की आवश्यकता, भारतीय जीवन में विविधता होते हुए भी एकता इत्यादि विषयों पर विभिन्न कार्यक्रम दिखाकर लोगों को अधिक जागरूक बनाया जा सकता है। इस दिशा में हमारा दूरदर्शन अब रुचि लेने लगा है, यह प्रसन्नता का विषय है।
दूरदर्शन के द्वारा जनसामान्य को शिक्षित बनाया जा सकता है तथा अपेक्षित कार्यक्रमों के द्वारा जहाँ लोगों को मनोरंजन किया जा सकता है, वहाँ उनके दृष्टिकोण को वैज्ञानिक तथा स्वस्थ बनाया जा सकता है।
हानियाँ- दूरदर्शन की हानियाँ जितनी पाश्चात्य देशों में प्रकट होकर सामने आई हैं, उतनी अभी भारत में नहीं आई हैं। वहाँ दूरदर्शन के कारण सामाजिक जीवन जड़ हो गया है। लोग दूरदर्शन के कार्यक्र के बारे में तो जानते हैं, परंतु अपने पड़ोसी के बारे में नहीं जानते। वहाँ आत्म-सीमितता और अकेलेपन का दोष बढ़ता जा रहा है।
दूरदर्शन से एक हानि यह भी है कि यह देखने वाले व्यक्ति को पंगु-सा बना देता है। सब कुछ चलचित्रों के माध्यम से उसके पास घर में ही पहुँच जाता है और वह चुपचाप कुर्सी पर बैठा अथवा बिस्तर पर लेटा उसका दर्शक मात्र रह जाता है। घटनाएँ उस तक पहुँच जाती हैं परंतु स्वयं वह उन्हें देखने का वास्तविक अनुभव प्राप्त नहीं कर सकता। वह देखता है कि किन्हीं दूर देशों में युद्ध में बम-वर्षा हो रही है अथवा गोलियाँ चल रही हैं या दो देशों के खिलाड़ी खेल रहे हैं, रन या गोल बन रहे हैं, मैदान में उपस्थित दर्शक तालियाँ बजा रहे हैं, परंतु इस प्रक्रिया को वह मात्र देख सकता है, स्वयं उसमें भागीदार नहीं बन सकता
निष्कर्ष- दूरदर्शन से आत्म-सीमितता, जड़ता, पंगुता, अकेलापन आदि दोष बढ़े हैं। कई देशों में दूरदर्शन के कारण अपराध भी बढ़े हैं। परंतु इसमें दोष दूरदर्शन का नहीं, कार्यक्रम प्रसारण-समिति का है। दूरदर्शन तो हमारे हाथ में एक ऐसा सशक्त साधन है, जिसके समुचित उपयोग से हम जीवन को और अधिक सुखद, स्वस्थ और सुंदर बना सकते हैं ।
4. हमारे प्रिय नेता (राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी)
भूमिका जीवन परिचय एवं शिक्षा भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के कर्णधार, गाँधी जी की मृत्यु, उपसंहार।
उत्तर – भूमिका- भारत ऋषियों, मुनियों, संतों एवं महात्माओं का देश है। विकट एवं संकटकाल से देश को उबारने में ऐसे ही महापुरुषों का योगदान रहा है। भारत माँ को पराधीनता की बेड़ियों से छुड़ाने के लिए महात्मा गाँधी का जन्म हुआ। इन्होंने अहिंसा एवं सत्य के बलबूते महान साम्राज्यवादी ब्रिटिश शासन से भारत को मुक्ति दिला दी।
जीवन-परिचय एवं शिक्षा – महात्मा गाँधी का पूरा नाम ‘मोहन दास करमचंद गाँधी’ था। इनका जन्म 2 अक्टूबर 1869 ई० में गुजरात (काठियावाड़) के पोरबंदर नामक स्थान में हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गाँव में ही सम्पन्न हुई। इन्होंने राजकोट से हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की। बाद में इन्होंने विलायत से बैरिस्ट्री की परीक्षा पास की। सन् 1893 ई० में गाँधी जी एक कम्पनी के मुकदमे की पैरवी करने के लिए दक्षिण अफ्रीका में एक वकील के रूप में गए। इन्होंने वहाँ के काले कानूनों के विरूद्ध सत्याग्रह किया, जिसमें उन्हें सफलता भी मिली।
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के कर्णधार- सन् 1916 ई० में गाँधी जी स्वदेश लौटे। उन दिनों गोपालकृष्ण गोखले कांग्रेस के एक गणमान्य सदस्य थे। उनकी अपील पर गाँधी जी कांग्रेस में शामिल हो गए ।
1920 ई० में उन्होंने असहयोग आंदोलन प्रारंभ किया जिसमें भारत के प्रत्येक नागरिक ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अपना समर्थन दिया। 1929 ई० में गाँधी जी ने रावी नदी के किनारे कांग्रेस के अधिवेशन में पूर्ण स्वतंत्रता की घोषणा कर दी । 1930 ई० में इन्होंने नमक कानून के विरूद्ध दांडी यात्रा प्रारंभ की। 1942 ई० में गाँधी जी ने ‘भारत छोड़ो आंदोलन चलाया जिसमें गाँधी जी के प्रयासों से ब्रिटिश शासक देश को स्वतंत्र करने को राजी हो गए। फलतः 15 अगस्त 1947 ई० को भारत स्वतंत्र हो हो गया।
गाँधी जी की मृत्यु – 30 जनवरी 1948 को नाथूराम गोडसे ने सायं प्रार्थना सभा में गाँधी जी की हत्या कर दी। इनके आकस्मिक निधन से सारा देश शोक के सागर में डूब गया।
उपसंहार- गाँधी जी के नश्वर शरीर का अंत हो जाने के बाद भी उनके आदर्श एवं उपदेश हमारे मध्य हैं, जो समय-समय पर हमारा मार्गदर्शन करते रहेंगे । इनके शांति व अहिंसा के सिद्धांतों के कारण आज सारा विश्व इन्हें श्रद्धा से नमन करता है। ये केवल बच्चों के ही नहीं सम्पूर्ण भारत की जनता के ‘बापू’ हैं ।
5. पर्यावरण प्रदूषण
अथवा प्रदूषण : कारण और निवारण
भूमिका, प्रदूषण का अर्थ, प्रदूषण के प्रकार, कारण, दुष्परिणाम, प्रदूषण रोकने के उपाय।
उत्तर – भूमिका – विज्ञान के इस युग में मानव को जहाँ कुछ वरदान मिले हैं, वहाँ कुछ अभिशाप भी मिले हैं। प्रदूषण भी एक ऐसा अभिशाप है जो विज्ञान की कोख से जन्मा है और जिसे सहने के लिए अधिकांश जनता मजबूर है।
प्रदूषण का अर्थ- प्रदूषण का अर्थ है- प्राकृतिक संतुलन में दोष पैदा होना। न शुद्ध वायु मिलना, न शुद्ध जल मिलना, न शुद्ध खाद्य पदार्थ मिलना, न शांत वातावरण मिलना । प्रदूषण कई प्रकार का होता है। प्रमुख प्रदूषण हैं- वायु-प्रदूषण, जल-प्रदूषण और ध्वनि-प्रदूषण।
प्रदूषण के प्रकार –
वायु प्रदूषण – महानगरों में यह प्रदूषण अधिक फैला हुआ है। वहाँ चौबीसों घंटे कल-कारखानों का धुआँ, मोटर वाहनों का काला धुआँ इस तरह फैल गया है कि स्वस्थ वायु में साँस लेना दूभर हो गया है। मुबंई की महिलाएँ धोए हुए वस्त्र छत से उतारने जाती हैं तो उन पर काले-काले कण जमे हुए पाती हैं। ये कण साँस के साथ मनुष्य के फेफड़ों में चले जाते हैं और असाध्य रोगों को जन्म देते हैं। यह समस्या वहाँ अधिक होती है जहाँ सघन आबादी होती है, वृक्षों का अभाव होता है और वातावरण तंग होता है ।
जल-प्रदूषण- कल-कारखानों का दूषित जल नदी-नालों में मिलकर भयंकर जल-प्रदूषण पैदा करता है। बाढ़ के समय तो कारखानों का दुर्गंधित जल सब नदी-नालों में घुल-मिल जाता है। इससे अनेक बीमारियाँ पैदा होती हैं।
ध्वनि प्रदूषण – मनुष्य को रहने के लिए शांत वातावरण चाहिए। परंतु आजकल कल-कारखानों का शोर, यातायात का शोर, मोटर गाड़ियों की चिल्ल-पों, लाउडस्पीकरों की कर्णभेदी ध्वनि ने बहरेपन और तनाव को जन्म दिया हैं।
प्रदूषण के कारण- प्रदूषण को बढ़ाने में कल-कारखाने, वैज्ञानिक साधनों का अधिकाधिक उपयोग, फ्रिज, कूलर, वातानुकूलन, ऊर्जा संयंत्र आदि दोषी हैं। प्राकृतिक संतुलन का बिगड़ना भी मुख्य कारण है। वृक्षों को अंधाधुंध काटने से मौसम का चक्र बिगड़ा है। घनी आबादी वाले क्षेत्रों में हरियाली न होने से भी प्रदूषण बढ़ा है।
दुष्परिणाम– उपर्युक्त प्रदूषणों के कारण मानव के स्वस्थ जीवन को खतरा पैदा हो गया है। खुली हवा में लंबी साँस लेने तक को तरस गया है आदमी । गंदे जल के कारण कई बीमारियाँ फसलों में चली जाती हैं जो मनुष्य के शरीर में पहुँचकर घातक बीमारियाँ पैदा करती हैं। भोपाल गैस कारखाने से रिसी गैस के कारण हजारों लोग मर गए, कितने ही अपंग हो गए । पर्यावरण प्रदूषण के कारण न समय पर वर्षा होती है, न सर्दी-गर्मी का चक्र ठीक चलता है। सूखा, बाढ़, ओला आदि प्राकृतिक प्रकोपों का कारण भी प्रदूषण है।
प्रदूषण रोकने के उपाय – विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों से बचने के लिए हमें अधिक-से-अधिक वृक्ष लगाना चाहिए ताकि हरियाली अधिक हो। सड़कों के किनारे घने वृक्ष हों। आबादी वाले क्षेत्र खुले हों, हवादार हों, हरियाली से ओतप्रोत हों। कल-कारखाने को आबादी से दूर रखना चाहिए और उनसे निकले प्रदूषित मल को नष्ट करने के उपाय सोचने चाहिए।
6. समाचार पत्र का महत्व
अथवा, समाचार-पत्र ज्ञान का सशक्त माध्यम ।
एक सामाजिक कड़ी, लोकतंत्र के प्रहरी, व्यापार का विस्तार, ज्ञान-वृद्धि का साधन, मनोरंजन का साधन, जन-सुविधा।
उत्तर – एक सामाजिक कड़ी- समाचार-पत्र वह कड़ी है, जो हमें दुनिया से जोड़ती है। जब हम समाचार-पत्र में देश-विदेश की खबरें पढ़ते हैं, तो हम पूरे विश्व के अंग बन जाते हैं। उससे हमारे हृदय का विस्तार होता है।
लोकतंत्र के प्रहरी- समाचार-पत्र लोकतंत्र का सच्चा पहरेदार है। उसी के माध्यम से लोग अपनी इच्छा, विरोध और आलोचना प्रकट करते हैं। यही कारण है कि राजनीतिज्ञ समाचार-पत्रों से बहुत डरते हैं। नेपोलियन ने कहा- ‘मैं लाखों विरोधियों की अपेक्षा तीन विरोधी समाचार पत्रों से अधिक भयभीत रहता हूँ। समाचार-पत्र जनमत तैयार करते हैं। उनमें युग का बहाव बदलने की ताकत होती है। राजनेताओं को अपने अच्छे-बुरे कार्यों का पता इन्हीं से चलता है।
व्यापार का विस्तार- समाचार-पत्र व्यापार को बढ़ाने में परम सहायक सिद्ध हुए हैं। विज्ञापन की सहायता से व्यापारियों का माल देश में ही नहीं विदेशों में भी
बिकने लगता है। रोजगार पाने के लिए भी अखबार उत्तम साधन है। हर की बेरोजगार का सहारा अखबार में निकले नौकरी के विज्ञापन होते हैं। इसके अतिरिक्त सरकारी या गैर-सरकारी फर्मों अपने लिए कर्मचारी ढूँढ़ने के लिए अखबारों का सहारा लेती हैं। व्यापारी नित्य के भाव देखने के लिए तथा शेयरों का मूल्य जानने के लिए अखबार का मुँह जोहते हैं।
ज्ञान-वृद्धि का साधन- जे० पार्टन का कहना है- समाचार पत्र जनता के लिए विश्वविद्यालय हैं।’ उनसे हमें केवल देश-विदेश की गतिविधियों की जानकारी ही नहीं मिलती, अपितु महान विचारकों के विचार पढ़ने को मिलते हैं। उनसे विभिन्न त्योहारों और महापुरुषों का महत्व का पता चलता है। महिलाओं को घर-गृहस्थी सम्हालने के नये-नये नुस्खे पता चलते हैं। प्रायः अखबार में ऐसे कई स्थाई स्तंभ होते हैं, जो हमें विभिन्न जानकारियाँ मिलती हैं।
मनोरंजन का साधन- आजकल अखबार मनोरंजन के क्षेत्र में भी आगे बढ़ चले हैं। उसमें नयी-नयी कहानियाँ, किस्से, खेलकूद, दूरदर्शन, भविष्य-कथन, मौसम आदि की अनेक जानकारियाँ देती हैं ।
जन-सुविधा- समाचार पत्र के माध्यम से आप मनचाहे वर-वधू ढूँढ़ सकते हैं । अपना मकान, गाड़ी, वाहन खरीद-बेच सकते हैं। खोये गए बंधु को बुला सकते हैं। अपना परीक्षा परिणाम जान सकते हैं। इस प्रकार समाचार पत्रों का महत्व बहुत अधिक हो गया है ।
7. बेरोजगारी की समस्या
भूमिका, अर्थ, कारण, दुष्परिणाम, समाधान ।
उत्तर – भूमिका- आज भारत के सामने अनेक समस्या चट्टान बनकर प्रगति का रास्ता रोके खड़ी हैं। उनमें से एक प्रमुख समस्या है – बेरोजगारी। महात्मा गाँधी ने इसे ‘समस्याओं की समस्या’ कहा था ।
बेरोजगारी का अर्थ- बेरोजगारी का अर्थ है- योग्यता के अनुसार काम का न होना। भारत में मुख्यतयाः तीन प्रकार के बेरोजगार हैं। एक वे, जिनके पास आजीविका का कोई साधन नहीं है। वे पूरी तरह खाली बैठे रहते है। दूसरे जिनके पास कुछ समय काम होता है, परन्तु मौसम या काम का समय समाप्त होते ही वे बेकार हो जाते हैं। ये आंशिक बेरोजगार कहलाते हैं। तीसरे वे, जिन्हें योग्यता के अनुसार काम नहीं मिला। जैसे कोई एम० ए० करके रिक्शा चला रहा है या बी० ए० करके पकौड़े बेच रहा है ।
कारण- बेरोजगारी का सबसे बड़ा कारण है- जनंसख्या विस्फोट | इस देश में रोजगार देने की जितनी योजनाएँ बनती हैं, वे सब अत्यधिक जनसंख्या बढ़ने के कारण बेकार हो जाती हैं। एक अनार सौ बीमार वाली कहावत यहाँ पूरी तरह अचरितार्थ होती है। बेरोजगारी का दूसरा कारण है- युवकों में बाबूगिरी की होड़। नवयुवक हाथ का काम करने में अपना अपमान समझते हैं। विशेषकर पढ़े-लिखे युवक दफ्तरी जिंदगी पसंद करते हैं। इस कारण वे रोजगार कार्यालय की धूल फाँकते रहते हैं। बेकारी का तीसरा बड़ा कारण है- दूषित शिक्षा प्रणाली । हमारी शिक्षा-प्रणाली नित नए बेरोजगार पैदा करती जा रही है। व्यावसायिक प्रशिक्षण का हमारी शिक्षा में अभाव है। चौथा कारण है- गलत योजनाएँ । सरकार को चाहिए कि वह लघु उद्योगों को प्रोत्साहन दे। मशीनीकरण को उस सीमा तक बढ़ाया जाना चाहिए जिससे कि रोजगार के अवसर कम न हों। इसीलिए गाँधी जी ने मशीनों का विरोध किया था, क्योंकि एक मशीन कई कारीगरों के हाथों को बेकार बना डालती है। सोचिए, अगर साबुन बनाने का लाइसेंस बड़े उद्योगों को न दिया जाए तो उससे हजारों-लाखों युवक यह धंधा अपनाकर अपनी आजीविका पा सकते हैं।
दुष्परिणाम – बेरोजगारी के दुष्परिणाम अतीव भयंकर हैं। खाली दिमाग शैतान का घर । बेरोजगार युवक कुछ भी गलत-शलत करने पर उतारू हो जाता है। वही शांति को भंग करने में सबसे आगे होता है। शिक्षा का माहौल भी वही बिगाड़ते हैं जिन्हें अपना भविष्य अंधकारमय लगता है।
समाधान- बेकारी का समाधान तभी हो सकता है, जब जनसंख्या पर रोक लगाई जाय। युवक हाथ का काम करें। सरकार लघु उद्योगों को प्रोत्साहन दे । शिक्षा व्यवसाय से जुड़े तथा रोजगार के अधिकाधिक अवसर प्राप्त हो ।
8. परोपकार अथवा परहित सरिस धरम नहिं भाई ।
परोपकार का अर्थ, परोपकार से लाभ, परोपकार की शर्तें, निष्कर्ष ।
उत्तर – परोपकार की महत्ता बताते हुए कबीर ने कहा है –
वृक्ष कबहुँ नहिं फल भखै, नदी न संचै नीर ।
परमारथ के कारने साधु न धरा सरीर ।।
परोपकार का अर्थ- परोपकार अर्थात् दूसरों की निःस्वार्थ भलाई करना। इससे बढ़कर कोई दूसरा धर्म नहीं होता। पुराणों में महाभारतकार महाकवि व्यास ने दो ही मुख्य बातें कही है- परोपकार से पुण्य होता है और परपीड़न से पाप। उ सचमुच दूसरों की निःस्वार्थ भलाई से बढ़कर मनुष्य जीवन की कोई और सार्थकता नहीं है। केवल अपने लिए तो नालियों के कीड़े मकोड़े भी जी लेते हैं किंतु मनुष्य तो वह है जो सभी जीवों के लिए जीता और मरता है। विषा परोपकार मानव जीवन का धर्म है। परोपकार को नैतिक गुण कहा गया है। इसमें छल-कपट और स्वार्थ- साधना की लिप्सा नहीं रहती।
परोपकार से लाभ- परोपकार मनुष्य में उच्च भावनाओं का विकास करता है। इससे मनुष्य का मानसिक उत्थान होता है। परोपकारी तुच्छ स्वार्थ एवं छल-प्रपंच से ऊपर उठकर ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ के आदर्श को अपने जीवन में अपनाता है तथा लोगों का प्रिय पात्र बनता है ।
मानव जीवन की सार्थकता परोपकार में ही है। यही मनुष्य में ईश्वरीय गुणों का विकास करता है और समाज में “सत्यं शिवं सुन्दरम्” की भावना का प्रसार करता है, तुलसी ने भी कहा है “परहित सरिस धरमु नहिं भाई”।
परोपकार की शर्तें – परोपकार करने के पहले आवश्यक है कि परोपकारी का जीवन प्रेम से भरा हुआ हो। जो स्वयं समृद्ध होगा, वही कुछ दे सकेगा। दूसरे, जिसका हमें उपकार करना है, उसके प्रति आत्मीयता होनी चाहिए । पराया मानकर किया गया उपकार दंभ को जन्म देता है ।
निष्कर्ष – अगर सही अर्थों में मनुष्य बनना है, क्षुद्र स्वार्थों का परित्याग कर मानवीय गुणों से अपने को पूर्ण करना है तो व्यक्ति को परोपकार की भावना अवश्य ही अपनानी होगी।
9. खेल कूद का महत्त्व
भूमिका, खेलों के विविध रूप, जीवन में खेलकूद का महत्त्व, उपसंहार ।
उत्तर – भूमिका- स्वामी विवेकानंद के अनुसार, ‘स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का निवास होता है। शारीरिक और मानसिक बल में सुंदर और उपयुक्त संतुलन बनाए रखने का एकमात्र साधन है- ‘खेल’ । खेल हमारे जीवन के सर्वांगीण विकास के साधन हैं। खेल मनुष्य के शारीरिक विकास के तो सर्वस्वीकृत तथा सर्वमान्य साधन हैं; साथ ही खेल के मैदान में हम अनुशासन, संगठन, आज्ञा-पालन, साहस, आत्मविश्वास तथा एकाग्रचित्तता जैसे गुणों को भी प्राप्त करते हैं। जो व्यक्ति अपने में इन गुणों का विकास कर लेता है वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विजय प्राप्त कर लेता है। अच्छे स्वास्थ्य के अनेक साधन हैं, जैसे- व्यायाम, खेलकूद, जिम्नास्टिक आदि । व्यायाम तथा जिम्नास्टिक से शरीर स्वस्थ तो अवश्य रहता है परंतु इनसे मनोरंजन नहीं होता। ये दोनों साधन नीरस हैं। इसके विपरीत खेलों से व्यायाम के साथ-साथ मनोरंजन भी होता है। यही कारण है कि विद्यार्थियों की रुचि व्यायाम की अपेक्षा खेलकूद में अधिक होती है। वे खेलकूद में भाग लेकर अपना स्वास्थ्य ठीक रखते हैं।
खेलकूद के विविध रूप- खेलकूद और व्यायाम का क्षेत्र बहुत व्यापक है तथा इसके अनेकानेक रूप हैं। रस्साकशी, कबड्डी, खो-खो, ऊँची कूद, लम्बी कूद, तैराकी, हॉकी, फुटबॉल, क्रिकेट, बैडमिन्टन, टेनिस, स्कैटिंग आदि खेलकूद के विविध रूप हैं। इनसे शरीर में रक्त का तीव्र संचार होता है और अधिक ऑक्सीजन के कारण प्राण-शक्ति बढ़ती है, इसलिए ये शरीर को पुष्ट बनाने के लिए कुछ नियमित व्यायाम करते हैं; जैसे- प्रातः काल खुली वायु में घूमना या दौड़ना, रस्सी कूदना, दण्ड और बैठकें लगाना, मुगदर घुमाना अथवा योगासनों द्वारा शरीर-साधना करना ।
खेलकूद का महत्त्व- मानसिक विकास की दृष्टि से खेलकूद बहुत महत्त्वपूर्ण है। खेलकूद से पुष्ट और स्फूर्तिमय शरीर ही मन को स्वस्थ बनाता है। खेलकूद हमारे मन को प्रफुल्लित और उत्साहित बनाए रखते हैं। खेलों से नियम पालन का स्वभाव विकसित होता है और मन एकाग्र होता है। शिक्षा प्राप्ति में ये सभी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
खेलकूद चारित्रिक विकास में भी योग देते हैं। खेलकूद में सहिष्णुता, धैर्य और साहस का विकास होता है तथा सामूहिक स सद्भाव और भाईचारे की भावना पनपती है। इन चारित्रिक गुणों से एक मनुष्य ही सही अर्थों में शिक्षित और श्रेष्ठ नागरिक बनता है। शिक्षा प्राप्ति के मार्ग में आने वाली कठिनाइयों को भी हम खेल में आने वाले अवरोधों की भाँति हँसते-हँसते पार कर लेते हैं और सफलता की मंजिल तक पहुँच जाते हैं। इस प्रकार जीवन की अनेक घटनाओं को हम खिलाड़ी की भावना से ग्रहण करने के अभ्यस्त हो जाते हैं ।
उपसंहार- आज देश-विदेश में अनेक स्तरों पर खेलों का आयोजन किया जाता है। राष्ट्रीय, एशियाई और ओलंपिक खेलों का नियमित आयोजन होता है। आज भारत के युवाओं को अपनी रुचि के खेलों में भाग लेना चाहिए । इनसे वे स्वास्थ्य प्राप्ति के साथ-साथ अपने देश का नाम भी उज्ज्वल कर सकते हैं। एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीतने वाले सतपाल तथा पी० टी० उषा आदि का बहुत ही मान-सम्मान हुआ। ओलंपिक में लिएंडर पेस, कर्णम मल्लेश्वरी तथा राज्यवर्द्धन राठौर द्वारा पदक जीतने पर भी देश में खुशी की लहर दौड़ गई। प्रत्येक भारतीय का कर्तव्य है कि वह अपने जीवन में किसी न किसी खेलकूद में श्रेष्ठता लाने का प्रयास करे।
10. समय अमूल्य धन है
अथवा, समय का सदुपयोग
अथवा, का वर्षा जब कृषि सुखाने
अथवा, फिर पछताय होत क्या जब चिड़ियाँ चुग गई खेत ।
समय का महत्व, समय का सदुपयोग आवश्यक समय की अगवानी आवश्यक, उचित समय पर उचित कार्य ।
उत्तर – समय का महत्व- फ्रैंकलिन का कथन है- ‘तुम्हे अपने जीवन से प्रेम है, तो समय को व्यर्थ मत गँवाओं क्योंकि जीवन इसी से बना है।’ समय ही तो जीवन है। ईश्वर एक बार एक ही क्षण देता है और दूसरा क्षण देने से पहले उसको छीन लेता है। समय ही एक ऐसी वस्तु है जिसे खोकर पुनः प्राप्त नहीं किया जा सकता है। समय का कोई मोल नहीं हो सकता । श्रीमन्नारायण ने लिखा है- ‘समय धन से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है। हम रुपया-पैसा तो कमाते ही हैं और जितना अधिक परिश्रम करें उतना ही अधिक धन कमा सकते हैं। परंतु क्या हजार परिश्रम करने पर भी चौबीस घंटों में एक भी मिनट बढ़ा सकते हैं ? इतनी मूल्यवान वस्तु का धन से फिर क्या मुकाबला!’ इससे समय की महत्ता पर स्पष्ट प्रकाश पड़ता है।
समय का सदुपयोग आवश्यक- समय के सदुपयोग का अर्थ है- उचित कार्य पूरा कर लेना। जो लोग आज का काम कल पर और कल का काम परसों पर टालते ते हैं, वे एक प्रकार से अपने लिए जंजाल खड़ा करते चले जाते हैं। मरण को टालते-टालते एक दिन सचमुच मरण आ न सचमुच मरण आ ही जाता है। जो व्यक्ति उपयुक्त समय पर कार्य नहीं करता, वह समय को नष्ट करता हैं । एक दिन ऐसा आता an है, जबकि समय उसको नष्ट कर देता है। जो छात्र पढ़ने के समय नहीं पढ़ते, वे परिणाम आने पर रोते हैं ।
समय की अगवानी आवश्यक- समय रुकता नहीं है। जो समय के निकल जाने पर उसके पीछे दौड़ते हैं, वे जिंदगी में सदा घिसटते-पिटते रहते हैं। समय सम्मान माँगता है। इसलिए कबीर ने कहा है।
उचित समय पर उचित कार्य –
काल करै सो आज कर आज करै सो अब ।
पल में प्रलय होयेगा बहुरी करेगा कब ।।
जो व्यक्ति समय का सम्मान करना जानती है, वह अपनी शक्ति को कई गुना बढ़ा लेती है। यदि सभी गाड़ियाँ अपने निश्चित समय से चलने लगें तो देश में कितनी कार्यकुशलता बढ़ जायगी । यदि कार्यालय के कार्य ठीक समय पर संपन्न हो जाय, कर्मचारी समय के पाबंद हों तो सब कार्य सुविधा से हो सकेंगे। यदि रोगी को ठीक समय पर दवाई न मिले तो उसकी मौत भी हो सकती है। अतः हमें समय की गंभीरता को समझना चाहिए। गाँधी जी एक मिनट देरी से आने वाले व्यक्ति को क्षमा नहीं करते थे। आप ही सोचिए, सृष्टि का यह चक्र कितना नियमित है, कितना समय का पाबंद है ? यदि एक भी दिन धरती अपनी धुरी पर घूर्णन में देरी कर जाए तो परिणाम क्या होगा? विनाश और महाविनाश । अतः हमें समय की महत्ता को समझना चाहिए ।
11. कम्प्यूटर आज की जरूरत
भूमिका, आधुनिक उपकरण कम्प्यूटर, निर्दोष-गणक, संचार व्यवस्था, उपसंहार ।
उत्तर – भूमिका– वर्तमान युग कम्प्यूटर-युग है। यदि भारतवर्ष पर नजर दौड़ाकर देखें तो हम पाएँगे कि आज जीवन के लगभग सभी क्षेत्रों में कम्प्यूटर का प्रवेश हो गया है। बैंक, रेलवे स्टेशन, हवाई अड्डे, डाकखाने, बड़े-बड़े उद्योग, कारखाने, व्यवसाय, हिसाब-किताब, रुपए गिनने की मशीनें तक कम्प्यूटरीकृत हो गई हैं। अब भी यह कम्प्यूटर का प्रारंभिक प्रयोग है। आने वाला समय इसके विस्तृत फैलाव का संकेत दे रहा है।
आधुनिक उपकरण कम्प्यूटर- इस पागल गति’ को सुव्यवस्था देने की समस्या आज की प्रमुख समस्या है। कहते हैं, आवश्यकता आविष्कार की जननी है। इस आवश्यकता ने अपनी अव्यवस्था को व्यवस्था में बदल सकता है। हड़बड़ी में होने वाली मानवीय भूलों के लिए कम्प्यूटर रामबाण औषधि है। क्रिकेट के मैदान में अम्पायर की निर्णायक भूमिका हो, या लाखों-करोड़ों-अरबों की लम्बी-लम्बी गणनाएँ, कम्प्यूटर पलक झपकते ही आपकी समस्या हल कर सकता है। पहले है. इन कामों के करने वाले कर्मचारी हड़बडाकर काम करते थे; एक भूल से # घबडाकर और अधिक गड़बड़ी करते थे। परिणामस्वरूप काम कम, तनाव अधिक होता था। अब कम्प्यूटर की सहायता से काफी सुविधा हो गई है।
निर्दोष-गणक – कम्प्यूटर ने फाइलों की आवश्यकता कम कर दी है। कार्यालय की सारी गतिविधियाँ फ्लॉपी में बंद हो जाती है। इसलिए फाइलों के स्टोरों की जरूरत अब नहीं रही। अब समाचार पत्र भी इन्टरनेट के माध्यम से पढ़ने की व्यवस्था हो गई है। विश्व के किसी कोने में छपी पुस्तक, फिल्म, घटना की जानकारी इंटरनेट पर ही उपलब्ध है। एक समय था, जब कहते थे कि विज्ञान ने संसार को कुटुम्ब बना दिया है। कम्प्यूटर ने तो मानो उस कुटुम्ब को अपने कमरे में उपलब्ध करा दिया है। संभव है, कम्प्यूटर की सहायता से आप मनचाहे सवाल का जवाब दूरदर्शन या इंटरनेट से ले पाएँ । शारीरिक रूप से न सही, काल्पनिक रूप से जिस मौसम का, जिस प्रदेश का आनंद उठाना चाहें, उठा सकें ।
संचार व्यवस्था – आज टेलीफोन, रेल, फ्रिज, वाशिंग मशीन आदि उपकरणों के बिना नागरिक जीवन जीना कठिन हो गया है। इन सबके निर्माण या क्रियान्वयन में कम्प्यूटर का योगदान महत्त्वपूर्ण है। रक्षा-उपकरणों, हजारों मील की दूरी पर ॐ सटीक निशाना बाँधने, सूक्ष्म-से-सूक्ष्म वस्तुओं को खोजने में कम्प्यूटर का अपना महत्त्व है।
उपसंहार- आज कम्प्यूटर ने मानव जीवन को सुविधा, सरलता, सुव्यवस्था और सटीकता प्रदान की है। अतः इसका महत्त्व बहुत अधिक है।
12. भारत की जनसंख्या वृद्धि भारत
भूमिका, कारण, हानि, नियंत्रण के लिए आवश्यक उपाय ।
उत्तर – भूमिका- भारत की आबादी विश्व की कुल आबादी का 16 प्रतिशत है। परंतु उसके पास विश्व की कुल भूमि का केवल 2 प्रतिशत ही है। इस कारण भारत की भूमि पर जनसंख्या का घनत्व अत्यधिक बढ़ गया है। यहाँ साधन और सुविधाएँ तो सीमित हैं, लेकिन खाने वाले निरंतर बढ़ रहे हैं। रोज-रोज़ बढ़ने वाली यह भीड़ भारत के लिए चिंताजनक बनती जा रही है।
कारण – भारत में जनसंख्या बढ़ने का मुख्य कारण मृत्य-दर में कमी है। जन्म-दर पर नियंत्रण न रख पाना दूसरा बड़ा कारण है। यद्यपि भारत ने सबसे पहले परिवार-नियोजन कार्यक्रम चलाए, फिर भी जन्म-दर की गति को प्रभावी ढंग से रोका नहीं जा सका। यहाँ की जनता अंधविश्वासी है, गरीब और अनपढ़ है । इस कारण वह जनसंख्या घटाने का महत्व नहीं समझती । आश्चर्य यह है कि गरीब, अनपढ़ और धार्मिक लोगों में अधिक जन्म-दर है, जबकि वे बच्चों के पालन-पोषण में असमर्थ हैं। इसी कारण भारत में सर्वाधिक भूख, बीमारी, कुपोषण, गंदगी और परेशानियाँ हैं। यहाँ के महानगर विश्व के गंदे महानगरों में गिने जाते हैं। यहाँ प्रदूषण का यह हाल है कि छोटे-छोटे नगरों में भी साँस लेना कठिन होता जा रहा है।
हानि – जनसंख्या- दबाव के कारण बेरोजगारों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। इस कारण अपराध बढ़ रहे हैं। यद्यपि देश में प्रगति हो रही है। नए स्कूल, अस्पताल, कार्यालय खुल रहे हैं, परंतु जनसंख्या की बाढ़ में सब व्यवस्थाएँ धरी-की-धरी रह जाती हैं। परिणामस्वरूप आज भारत एक भीड़ में बदल गया है। सर्वाधिक सड़क दुर्घटनाएँ हो रही हैं। कहीं लोग मेलों में दबकर मर रहे हैं तो कहीं भागदौड़ में ।
नियंत्रण के लिए आवश्यक उपाय- जनसंख्या पर नियंत्रण पाना आज भारत की प्रमुखतम चुनौती बन चुकी है। इसके लिए आवश्यक है- शिक्षा का प्रसार, सीमित परिवार के महत्त्व का ज्ञान तथा गर्भ निरोधक उपायों का और अधिक प्रचलन करना। सरकार इस दिशा में अग्रसर है, किंतु समाज के सहयोग के बिना ये काम संभव नहीं हैं। आज हमें दो बच्चों के नारे को और अधिक सीमित करना होगा। चीन की तरह एक ही बच्चे से संतुष्ट होना पड़ेगा। तभी भारत भूमि रहने योग्य बनी रह सकेगी।
13. राष्ट्रीय एकता
अर्थ और महत्त्व, भारत में विभिन्नता, अनेकता में एकता, राष्ट्रीय एकता के बाधक तत्त्व, परस्पर संघर्ष के दुष्परिणाम, स समाधान ।
उत्तर – अर्थ और महत्त्व- राष्ट्रीय एकता का तात्पर्य है- राष्ट्र के सब घटकों में भिन्न विचारों और भिन्न आस्थाओं के होते हुए भी आपसी प्रेम, एकता और भाईचारे का बना रहना। ‘एकता’ शब्द ‘अविरोध’ को प्रकट करता है। अर्थात् देश में भिन्नताएँ हों, फिर भी सभी नागरिक राष्ट्र-प्रेम से ओतप्रोत हों। देश के नागरिक पहले ‘भारतीय’ हों, फिर हिंदू या मुसलमान। राष्ट्रीय एकता का भाव देश रूपी भवन में सीमेंट का काम करता है। जैसे जैसे भवन में ईंट, लोहा, बजरी आदि भिन्न-भिन्न पदार्थ होते हैं, और सीमेंट उन्हें जोड़े रहता है। उसी प्रकार राष्ट्रीय एकता का क भाव समूचे राष्ट्र को शक्तिशाली, शांत और समृद्ध बनाता है।
भारत में विभिन्नता- भारत अनेकताओं का देश है। यहाँ अनेक धर्मों, जातियों, वर्गों, संप्रदायों और भाषाओं के लोग निवास करते है हैं। यहाँ के लोगों का रहन-सहन, खान-पान और पहनावा भी भिन्न है। भौगोलिक, सामाजिक और आर्थिक असमानताएँ भी कम नहीं हैं।
अनेकता में एकता – भारत में विभिन्नता होते हुए भी एकता या अविरोध विद्यमान है। यहाँ सभी जातियाँ घुल-मिलकर रहती रही हैं। यहाँ प्रायः लोग एक-दूसरे के धर्म का आदर करते हैं। आदर न भी करें तो दूसरे के प्रति सहनशील हैं। भारत की यह दृढ़ मान्यता है कि ‘एकं सत्यं विप्राःबहुधा वदन्ति ।’ अर्थात् सत्य एक है । उस तक पहुँचने के मार्ग भिन्न-भिन्न हैं। गीता में उसी दृष्टि को श्रेष्ठ कहा गया 1 है जो अनेकता में से एकता को पहचानती है।
राष्ट्रीय एकता के बाधक तत्त्व- भारत की राष्ट्रीय एकता के लिए अनेक खतरे हैं। सबसे बड़ा खतरा है- कुटिल राजनीति । यहाँ के राजनेता ‘वोट बैंक’ बनाने के लिए कभी अल्पसंख्यकों में अलगाव के बीज बोते हैं, कभी आरक्षण के नाम पर पिछड़े वर्गों को देश की मुख्य धारा से अलग करते हैं। कभी किसी विशेष जाति, प्रांत या भाषा के हिमायती बनकर देश को तोड़ते हैं। जम्मू काश्मीर का विशेष दर्जा हो, खालिस्तान की माँग हो, आसाम या गोरखालैंड की पृथक्ता का आंदोलन हो, सबसे ऊपर वोट के प्रेत मँडराते नजर आते हैं । इस देश के हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई सभी परस्पर प्रेम से रहना चाहते हैं, लेकिन भ्रष्ट राजनेता उन्हें बाँटकर रखना चाहते हैं। राष्ट्रीय एकता में अन्य बाधक तत्त्व हैंगतिविभिन्न धार्मिक नेता, जातिगत असमानता, आर्थिक असमानता आदि ।
परस्पर संघर्ष के दुष्परिणाम- जब देश में कोई भी दो राष्ट्रीय घटक संघर्ष करते हैं तो उसका दुष्परिणाम पूरे देश को भुगतना पड़ता है। मामला आरक्षण का हो या अयोध्या के राम-मंदिर का, उसकी गूँज पूरे देश के जनजीवन को कुप्रभावित करती है। इतिहास प्रमाण है। आरक्षण के नाम पर देशभर में युवक जले, सड़कें रुकीं, संपत्तियाँ नष्ट हुई । अयोध्या का प्रकरण देश की सीमाओं को पार करके विदेशों में रह-रहे लोगों को भी कँपा
गया ।
समाधान– प्रश्न यह है कि राष्ट्रीय एकता को बल कैसे मिले ? संघर्ष का शमन कैसे हो ? इसका एकमात्र उत्तर यही है कि –
शांति नहीं तब तक जब तक हो ।
सुखभाग न सबका सम हो ।
नहीं किसी को बहुत अधिक हो
नहीं किसी को कम हो ।। (कुरूक्षेत्र से)
अर्थात् देश में सभी असमानता लाने वाले कानूनों को समाप्त किया जाए। मुस्लिम पर्सनल लॉ, हिंदू कानून आदि अलगाववादी कानूनों को तिलांजलि दी जाए। उसकी जगह एक राष्ट्रीय कानून लागू किया जाए। सब नागरिकों को एक-समान अधिकार प्राप्त हों। किसी को किसी नाम पर भी विशेष सुविधा या विशेष दर्जा न दिया जाय। भारत में तुष्टिकरण की नीति बंद हो ।
राष्ट्रीय एकता को बनाने का दूसरा उपाय यह है कि हृदयों में परस्पर आदर का भाव जगाया जाए। यह काम साहित्यकार, कलाकार, विचारक और पत्रकार कर सकते हैं। वे अपनी लेखनी और कला से देशवासियों को एकता का मंत्र पढ़ा सकते हैं।
14. भारत प्यारा देश हमारा
अथवा, मेरा देश भारत
प्रस्तावना, प्राकृतिक बनावट व सम्पदा, गौरवपूर्ण अतीत, धार्मिक सहिष्णुता और सौहार्द्य, उपसंहार ।
उत्तर – प्रस्तावना – हमारा देश भारत है। हम इसकी संतान हैं। इस देश का नाम भारत क्यों पड़ा ? इसके लिए अलग-अलग मान्यताएँ हैं। ब्राह्मण पुराण के अनुसार प्रजा का भरण-पोषण करने के कारण मनु भरत कहलाए और मनु द्वारा पालित-पोषित होने के कारण यह देश भारत कहलाया। यह भी प्रचलित है कि दुष्यन्त के प्रतापी पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा ।
प्राकृतिक बनावट व सम्पदा- भारत की प्राकृतिक बनावट व सम्पदा अद्भुत है। लगता है कि प्रकृति देवी ने स्वयं इसकी रचना की है। उत्तर में बर्फ से ढकी हिमालय की पर्वत-श्रेणियाँ हैं जो इस देश का मुकुट बनी हुई हैं। दक्षिण में हिन्द महासागर हिलोरें लेता है। ऐसा लगता है जैसे वह इस देश के चरणों को धो रहा है। हिमालय से निकलने वाली नदियाँ- गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र, रावी, झेलम आदि सदैव जलराशि से पूर्ण रहती हैं और देश की धरती को शस्य श्यामल बनाती हैं । गंगा, यमुना और सतलुज के उपजाऊ मैदान दुनिया में दूसरे नहीं हैं। विभिन्न ऋतुएँ इसकी प्राकृतिक छटा को निखारती रहती है। ऐसा लगता है कि भारत देवी हमेशा अपना परिधान बदलती है और नित्य नये सुगन्धित आवरण से अपनी सज्जा करती रहती है । यह हमारा सौभाग्य है कि प्रकृति की इस क्रीड़ास्थली भारत में हमारा जन्म हुआ है।
गौरवपूर्ण अतीत- हमारे देश का अतीत बहुत गौरवपूर्ण रहा है। इस देश में बड़े-बड़े ज्ञानी-ध्यानी, ऋषि-मुनि और महात्मा हुए हैं जिन्होंने दुनिया को ज्ञान-सूर्य का दर्शन कराया। संसार में सभ्यता और संस्कृति का प्रवर्तन हमारे यहाँ से हुआ। हमारे देश में महावीर, गौतम बुद्ध, मर्यादा पुरुषोत्तम राम, गीतायोगी कृष्ण जैसे महापुरुष हुए। यह बड़े-बड़े कवियों- तुलसी, सूरदास, कबीर, रहीम, रसखान, बिहारी, भूषण,
जयशंकर प्रसाद, मैथिलीशरण गुप्त, निराला और पंत- की जन्मभूमि रहा है। हमारे देश के प्रचुर धन-धान्य से देश-विदेश सभी लाभान्वित होते रहे हैं।
धार्मिक सहिष्णुता और सौहार्द्य- यहाँ कई जातियाँ आईं और इसकी धरती पर हिलमिल गई। हमारे देश में विभिन्न जाति, वर्ण व संप्रदाय के लोग मिलकर रहते हैं। कहीं मन्दिरों के घण्टे-घड़ियाल बज रहे हैं, तो कहीं मस्जिदों में अजान दी जा रही है। यह विविध धर्मों का देश है। धार्मिक सहिष्णुता और सौहार्द का जैसा संगम यहाँ देखने की मिलता है, वैसा अन्यत्र मिलना दुर्लभ है। संसार के इतिहास में कई सभ्यताएँ पनपीं और अस्त हो गई, लेकिन भारत की सभ्यता अभी तक मुखर है । उपसंहार- ऐसे गौरवपूर्ण देश के वासी होने के नाते हमारा कर्तव्य हो जाता है कि हम इसकी उन्नति के लिए सतत् सजग रहें। आपसी फूट और वैमनस्य की जड़ें उखाड़ कर फेंक दें । भाषा और संस्कृति के झगड़े इस देश की विरासत नहीं हैं। विदेशियों ने अपनी कूटनीति के कारण देश को खंड-खंड करना चाहा है, हमें एकता का बिगुल बजाकर भारत को संसार का शिरोमणि बनाना है।
15. मुन के हारे हार है, मन के जीते जीत
मन की शक्ति, दृढ़ संकल्प, संघर्ष की क्षमता, सत्य और न्याय का आदर्श आवश्यक, विजय के लिए धैर्य की आवश्यकता ।
उत्तर – मन की शक्ति – मन बहुत बलवान है। शरीर की सब क्रियाएँ मन पर ही निर्भर करती हैं। यदि मन में शक्ति, उत्साह और उमंग हो तो शरीर भी तेजी से कार्य करता है। अतः व्यक्ति की हार-जीत उसके मन की दुर्बलता – सबलता पर निर्भर है। दृढ़ संकल्प – यदि मन में दृढ़ संकल्प हो, तो दुनिया का कोई संकट व्यक्ति को रोक नहीं सकता। एक कहावत है- ‘जाने वाले को किसने रोका है’ ? अर्थात् जिसके मन में जाने का संकल्प हो तो कोई भी परिस्थिति उसे जाने से रोक नहीं सकती। विषम परिस्थितियों में से भी संकल्पवान व्यक्ति रास्ता निकाल लेता है । संघर्ष की क्षमता- किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए व्यक्ति का दृढ़ – संकल्प होना जरूरी है। गुलामी और आतंक के वातावरण में क्रांतिकारी किस प्रकार विद्रोह का बिगुल बजा लेते हैं ? सूखी रोटियाँ खाकर और कठोर धरती का शय्या बनाकर भी देश को आजाद कराने का कार्य कैसे कर पाए महाराणा प्रताप ? वह कौन-सा बल था, जिसके आधार पर मुट्ठीभर हड्डियों वाले महात्मा गाँधी विश्व-विजयी अंग्रेजों को देश से बाहर कर सके । निश्चय ही यह थी-मन की सबलता ।
सत्य और न्याय का आदर्श आवश्यक- मन की सबलता के लिए सत्य, न्याय और कल्याण के भाव का होना जरूरी है। जिसके मन में सत्य की शक्ति नहीं है, जो न्याय के पक्ष में नहीं है, उसके मन में तेज नहीं आ पाता । अनुचित कार्य करने वाला व्यक्ति का आधा मन यूँ ही हार बैठता है। उसके मन में एक छिपा हुआ चोर होता है, जो उसे कभी सफल नहीं होने देता।
विजय के लिए धैर्य की आवश्यकता – मन की स्थिरता, दृढ़ता और धैर्य ऐसे गुण, हैं जो व्यक्ति को विजय की ओर अग्रसर करते हैं। संकटों की बाढ़ में जो बह जाते हैं, रोने-चिल्लाने लगते हैं, वे कायरों-सा जीवन जीते हुए नष्ट हो जाते हैं। संकटों की उत्ताल तरंगों को सहर्ष झेलकर जो युवक कर्तव्य मार्ग पर चलते रहते हैं, वे ही विजयी होते हैं। कर्मठ युवक का धर्म तो कवि के शब्दों में ऐसा होना चाहिए –
जब नाव जल में छोड़ दी
तूफान ही में मोड़ दी
दे दी चुनौती सिंधु को
फिर धार क्या मँझधार क्या ?
कार्य करने से पूर्व ही यदि व्यक्ति का मन स्थिर न हो तो फिर विजय प्राप्त हो ही नहीं सकती। बीमार और पराजित मन को हर बाधा अपना शिकार बनाती है अतः यह बात पूरी तरह सच है कि जीत या हार मन की स्थिति पर निर्भर है
16. मेरी प्रिय पुस्तक
भूमिका, विषय वस्तु, उपयोगिता, उपसंहार
उत्तर – भूमिका- मुझे श्रेष्ठ पुस्तकों से अत्यधिक प्रेम है। पुस्तकें मेरे जीवन की सच्ची संगिनी है। यों मुझे अनेक पुस्तकें पसंद हैं, लेकिन जिसने मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया, वह है तुलसीदास की ‘रामचरितमानस’ । यह वह पुस्तक है, जिसकी छाप मेरे जीवन के प्रत्येक व्यवहार पर अंकित है।
विषय वस्तु – ‘रामचरितमानस’ में दशरथ पुत्र राम की जीवन-कथा का वर्णन है इसमें राम के जन्म, शिक्षण, विवाह, वनवास, सीता-हरण, रावण-संहार और राजतिलक का अत्यंत सजीव, स्वाभाविक और सुंदर वर्णन हुआ है। श्रीराम के जीवन की प्रत्येक लीला मन को भाने वाली है। उन्होंने किशोर अवस्था में ही राक्षसों का वध और यज्ञ- रक्षा का कार्य जिस कुशलता से किया है, वह मेरे लिए अत्यंत प्रेरणादायक है। उनकी वीरता और कोमलता के सामने मेरा हृदय श्रद्धा से झुक जाता है। सीता स्वयंवर के दृश्य में रावण, अन्य राजागण तथा परशुराम का व्यवहार अत्यंत रोचक है।
रामचरितमानस में मार्मिक स्थलों का वर्णन तल्लीनता से हुआ है। राम-वनवास, दशरथ-मरण, सीता-हरण, लक्ष्मण-मूर्छा, भरत-मिलन आदि के प्रसंग दिल को छूने वाले हैं। इन अवसरों पर मेरे नयनों में आँसुओं की धार उमड़ आती है। विशेष रूप से राम और भरत का मिलन हृदय को छूने वाला है।
उपयोगिता– इस पुस्तक में तुलसीदास ने मानव के आदर्श व्यवहार को अपने पात्रों के जीवन में साकार होते दिखाया है। राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। वे आदर्श राजा, आदर्श पुत्र, आदर्श पति और आदर्श भाई हैं। भरत और लक्ष्मण आदर्श भाई हैं। उनमें एक-दूसरे के लिए सर्वस्व त्याग की भावना प्रबल है । सीता आदर्श पत्नी है। हनुमान आदर्श सेवक है। पारिवारिक जीवन की मधुरता का जैसा सरस वर्णन इस पुस्तक में है, वैसा अन्यत्र कहीं नहीं मिलता।
उपसंहार- यह पुस्तक केवल धार्मिक महत्त्व की नहीं है। इसमें मानव को प्रेरणा देने की असीम शक्ति है। इसमें राजा, स्वामी, दास, मित्र, पति, नारी, स्त्री, पुरुष सभी को अपना जीवन उज्ज्वल बनाने की शिक्षा दी गई है। राजा के बारे में उनका वचन है –
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी । सो नृप अवस नरक अधिकारी ।
इसी भाँति श्रेष्ठ मित्र के गुणों का वर्णन करते हुए वे कहते हैं
निज दुख गिरि सम रज करि जाना । मित्रक दुख-रज मेरु समाना।
जे न मित्र दुख होहिं दुखारी । तिन्हहिं विलोकत पातक भारी ।।
तुलसीदास ने प्रायः जीवन के सभी पक्षों पर सूक्तियाँ लिखी हैं। उनके इन अनमोल वचनों के कारण यह पुस्तक अमरता को प्राप्त हो गई है। रामचरितमानस की भाषा अवधी है। इसे दोहा-चौपाई शैली में लिखा गया है । इसका एक-एक छंद रस और संगीत से परिपूर्ण है। इसकी रचना को लगभग 500 वर्ष हो चुके हैं। फिर भी आज इसके मधुर पद कंठ से गाए जाते हैं। यही इसकी महिमा और मधुरिमा का प्रमाण है।
17 . दया धर्म का मूल है
दया का अर्थ, धर्म का अर्थ, दया का मार्ग, दया सम्बन्धी विचार, लाभ।
उत्तर – दया का अर्थ- मनुष्य धर्म के मार्ग पर चलकर दया का व्यवहार करता है और अभिमान के मार्ग पर चलकर पाप-कर्म करता है। सभी धर्म करुणा, दया, सेवा, त्याग का पाठ पढ़ाते हैं। करुणा, सेवा, त्याग आदि के मूल में धर्म है।
धर्म का अर्थ है- कर्तव्य । कर्तव्य वही है जो कि सम्पूर्ण मानवता और सम्पूर्ण संसार के लिए शुभ हो। अपने लिए तो सभी जीते हैं। परंतु सारे समाज के लिए जीना महान गुण है। सारे समाज के हित का ध्यान तब तक नहीं हो सकता, जब तक हमारे मन में समाज के प्रति अपनापन न हो। अपनापन ही कर्तव्य है, यही धर्म है।
दया का मार्ग – जिस मनुष्य को सारा समाज अपना लगता है, वह समाज के सुख-दुःख में सुखी- दुःखी होता है। समाज के दुःख में दुःखी होना ही दया कहलाती है, जितने भी महापुरुष या धार्मिक पुरुष हुए, वे इसी करुणा को अपनाकर हुए। यदि महात्मा बुद्ध के मन में जन-जन की पीड़ा का ख्याल नहीं होता, तो वे कभी सत्य प्राप्ति के लिए वन-वन न भटकतें । यदि राम के मन में समाज कल्याण का भाव न होता, तो वे मारीच-ताड़का आदि का वध करने के लिए तत्पर नहीं होते। यदि महात्मा गाँधी में समाज हित की भावना न होती, तो वे दक्षिण अफ्रीका में जाकर आंदोलन न चलाते, भारत में नमक-कानून न तोड़ते और अनेक बार जेल न जाते।
दया सम्बन्धी विचार – दया एक महान भावना है। इसके जगते ही मनुष्य बड़े-बड़े कष्ट सहने को तैयार हो जाता है। सच्चे करुणावान जन-कल्याण के लिए अपनी जान देने को तैयार हो जाते हैं। महाभारत के वन-पर्व में एक गरीब ब्राह्मण की रक्षा के लिए कुंती ने स्वयं अपने बेटे भीम को भेजा था।
लाभ- दया के कारण मनुष्य बड़े से बड़े त्याग करने को तत्पर हो जाता है। दया के कारण ही नेता-नेता में अंतर हो जाता है। दयालु नेता महान हो जाते हैं। वे लुटाते ही लुटाते हैं। वे देवता कहलाते है । गाँधी, शास्त्री, सुभाष आदि ऐसे करुणावान नेता हुए। दूसरी ओर, करुणाहीन नेता शीघ्र ही भ्रष्टाचार के कीचड़ में धँस जाते हैं। वे जनता को दोनों हाथों से लूटते हैं। वे हत्यारे कहलाते है। वास्तव में दया पारस पत्थर के समान है। इसके स्पर्श से कोई भी मनुष्य महान् बन जाता है।
दया और सेवा का सीधा संबंध है । ईसाई धर्म में सेवा को अत्यधिक महत्व दिया गया हैं। सेवा के पीछे उनकी करुणा-भावना है। वास्तव में दयावान प्राणी कभी अधर्म नहीं कर सकता, वह कभी पाप नहीं कर सकता, वह शुद्ध आत्मा होता है। वे सच्चे अर्थों में धर्मात्मा होते हैं ।
18. पुस्तकों का महत्व
विद्वानों के विचार, लाभ, प्रभाव, पुस्तकें किसी देश की अमर निधि होती है, पुस्तकें अस्त्र हैं, मनुष्य का मित्र।
उत्तर – विद्वानों के विचार – लोकमान्य तिलक का कथन है- ‘मैं नरक में भी पुस्तकों का alway स्वागत करुँगा क्योंकि इनमें वह शक्ति है कि जहाँ ये होंगी वहाँ आप ही स्वर्ग बन जाएगा। कार्लाइल का कहना है- “मानव-जाति ने जो कुछ किया, सोचा और पाया है, वह पुस्तकों के जादूभरे पृष्ठों में सुरक्षित है।”
लाभ– पुस्तकों का महत्त्व तथा मूल्य रत्नों से भी अधिक है, क्योंकि रत्न बाहरी चमक-दमक दिखाते हैं, जबकि पुस्तकें हृदय को उज्ज्वल करती हैं। अच्छी पुस्तकें मनुष्य को पशु से देवता बनाती हैं, उसकी सात्त्विक वृत्तियों को जाग्रत हा कर उसे पथभ्रष्ट होने से बचाती हैं । श्रेष्ठ पुस्तकें मनुष्य, समाज तथा राष्ट्र का मार्गदर्शन करती है। पुस्तकों का हमारे मन-मस्तिष्क पर स्थायी प्रभाव पड़ता हैं।
प्रभाव- संसार के इतिहास पर दृष्टिपात करने पर देखते हैं कि जितनी भी महान विभूतियाँ हुई हैं, उन पर किसी-न-किसी अंश में अच्छी पुस्तकों का प्रभाव था । महात्मा गाँधी गीता, टालस्टाय तथा अमेरिका के संत थोरो के साहित्य से अत्यधिक प्रभावित थे । लेनिन में क्रांति की भावना मार्क्स के साहित्य को पढ़कर जगी थी ।
पुस्तकें किसी देश की अमर निधि होती है- किसी जाति के उत्कर्ष अथवा अपकर्ष का पता उसके साहित्य से चलता है। प्राचीन ग्रीक संस्कृति कितनी उच्च और महान थी, इसका पता हमें उसके साहित्य से चलता है। गुप्तकाल भारत का स्वर्णिम युग कहा जाता है क्योंकि उस काल में सर्वोत्कृष्ट पुस्तकों की रचना हुई। कालिदास इस युग के महान साहित्यकार थे। उनकी पुस्तकों में भारत की आत्मा अपने सुंदरतम रूप में प्रकट हुई है।
पुस्तकें अस्त्र हैं- विचारों के युद्ध में पुस्तकें ही अस्त्र हैं । पुस्तकों में लिखे विचार में संपूर्ण समाज की काया पलट देते हैं। आज का संसार विचारों का ही संसार है । समाज में जब कोई परिवर्तन आता है अथवा क्रांति उपस्थित होती है, उसके मूल में कोई विचार-धारा ही होती है। पुस्तकें जहाँ सांप्रदायिकता के विष को फैलाने के लिए जिम्मेदार हैं, भाई-भाई के बीच ईर्ष्या और विद्वेष की अग्नि को भड़काती है, समाज की सुख-शांति को भंग करती हैं, वहाँ श्रेष्ठ पुस्तकें समाज में नवचेतना का संचार करती हैं तथा समाज में जन-जागृति लाने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं।
मनुष्य का मित्र – एक अंग्रेज विद्वान की उक्ति है- “सच्चे मित्रों के चुनाव के पश्चात् सर्वप्रथम एवं प्रधान आवश्यकता है – उत्कृष्ट पुस्तकों का चुनाव।” जो पुस्तकें हमें अधिक विचारने को बाध्य करती हैं, वे ही हमारी सबसे बड़ी सहायक हैं। पुस्तकें मनुष्य के व्यक्तित्व में नवीन निखार उत्पन्न करती है।
वे मनुष्य को सच्चा सुख और शांति प्रदान करती है। थामस ए, केंपिस ने एक बार कहा था- ‘मैंने प्रत्येक स्थान पर विश्राम खोजा, किंतु वह एकांत कोने में बैठकर पुस्तकें पढ़ने के अतिरक्त कहीं प्राप्त न हो सका।’ पुस्तक-प्रेमी सबसे अधिक सुखी होती है। वह अपने जीवन में कभी शून्यता अनुभव नहीं करता। पुस्तकें मनुष्य की सच्ची संगी-साथी हैं। उन पर पूरा भरोसा किया जा सकता है। पुस्तकें ऐसी मार्गदर्शक हैं, जो दंड़ नहीं देतीं, नाराज नहीं होतीं, हमसे कुछ बदले में नहीं लेतीं, अपितु अपना अमृत तत्त्व देकर संतोष कर जाती है।
19. करत-करत अभ्यास के जड़मति हो सुजान
प्रस्तावना, अभ्यास का महत्व, प्रकृति द्वारा प्राप्त शक्तियों का सदुपयोग, सफलता की कुँजी, आवश्यक सावधानियाँ, उपसंहार ।
उत्तर – प्रस्तावना – निरंतर अभ्यास से वस्तुतः जो जड़मति (अबोध) हैं, वे सुजान (विद्वान ) बन जाते हैं, जो सुजान हैं, वे कुशल बन जाते हैं, जो कुशल हैं, वे अपनी कला में पूर्ण बन जाते हैं एवं जो पूर्ण हैं, उनकी पूर्णता स्थिर हो जाती है। इस प्रकार अभ्यास की कोई सीमा नहीं, उसका कोई अंत नहीं। उसकी महिमा अनंत और परिणाम असीम है । यह सफलता – सार्थकता का कारण और रहस्य है।
अभ्यास का महत्व – संसार में जन्म से कोई विद्वान या सब कुछ बन कर नहीं आता। आरंभ में सभी जड़मति अर्थात् अबोध होते हैं, अनजान होते हैं। अभ्यास ही उनको विद्वान, कुशल और महान् बनाता है। क्या एडीसन ने पहले ही दिन बिजली के प्रकाश का आविष्कार कर दिया था ? क्या महाकवि कालिदास जन्म से ही कवि थे ? क्या ध्यानचंद पहले से खेल में ही विश्वविजयी बन बैठे थे ? नहीं ! आज संसार में जो लोग विद्या, बल और प्रतिष्ठा के ऊँचे आसनों पर बैठे हैं, कभी वे सर्वथा अबोध, निर्बल और गुमनाम व्यक्ति थे। इसके लिए उन्हें श्रम करना पड़ा, लगन से लगातार जुटे रहना पड़ा तथा घोर साधना करनी पड़ी। इसी को अभ्यास कहते हैं ।
प्रकृति द्वारा प्राप्त शक्तियों का सदुपयोग – प्रकृति द्वारा दी गयी शक्तियों का सदुपयोग करना ही अभ्यास है। इसी से शक्तियों का विकास होता है। भगवान बुद्धि सबको देता है, जो लोग अभ्यास से उसे बढ़ा लेते हैं, वे बुद्धिमान और विद्वान बन जाते हैं सफलताएँ उनके चरण चूमती हैं। आदमी उन्नति का शिखर छू लेता है। जो बुद्धि से काम नहीं लेते, वे बुद्ध के बुद्धू रह जाते हैं। बेकार पड़े लोहे को भी जंग लग जाता है। इसी प्रकार हम जिस अंग से काम नहीं लेते, वह अंग दुर्बल रह जाता है।
सफलता की कुँजी – अभ्यास ही सफलता की कुंजी है। केवल शिक्षा में ही नहीं, जीवन के किसी भी क्षेत्र में जो सफलता चाहता है, उसके लिए अभ्यास आवश्यक है। काम को बार-बार करने से अभ्यासी व्यक्ति का हाथ सध जाता है। वह वस्तु के सूक्ष्म से सूक्ष्म गुण-दोषों को पहचान सकता है। अभ्यासकर्ता के अनुभव में वृद्धि होती है, उसकी कमियाँ दूर हो जाती हैं और वह शनैः शनैः पूर्णता की ओर का अग्रसर होता है। कल का जड़मति आज अपने कला-कौशल का विशेषज्ञ बन जाता है। फिर संसार की सब विभूतियाँ उसके चरण चूमने लगती हैं। सतत्अभ्यास करते रहने वालों ने ही संसार में कुछ कर दिखाया है।
आवश्यक सावधानियाँ – अभ्यास अच्छा भी होता है, बुरा भी। अच्छा अभ्यास पड़ गया तो जीवन सँवर जाएगा। बुरा अभ्यास पड़ गया, तो जीवन व्यर्थ हो जाएगा। अतः हमें यत्न करना चाहिए कि बुरे अभ्यास से बचें। शीघ्रता, जल्दबाजी या उतावलापन अभ्यास का सबसे बड़ा शत्रु है । आज बीज बोकर कल फसल नहीं काटी जा सकती। मीठा फल पाने के लिए धैर्य की आवश्यकता होती है। अभ्यास 1 करते हुए सहज पके सो मीठा होय के महामंत्र को भुलाना नहीं चाहिए।
उपसंहार- अभ्यास मस्तिष्क को एक सुनियोजित प्रशिक्षण दे देता है। और मानव हर स्थिति में तदनुकूल आचरण करता है। हम सुजान से जड़मति न बनें, अपितु जड़मति से सुजान बनें । निरंतर अभ्यास का यही चरम लक्ष्य है। व्यक्ति समाज और राष्ट्र आदि सभी प्रगति और विकास का यही मूल मंत्र है । अतः विशेष रूप से सावधान रह कर प्रयत्न और अभ्यास की आदत डालनी चाहिए। समय खोना, जीवन को नष्ट करना है।
20. युवा पीढ़ी पर चलचित्रों का प्रभाव
अथवा, चलचित्र का तरुण पीढ़ी पर प्रभाव।
एक प्रभावकारी साधन, शुभ प्रभाव, अशुभ प्रभाव, निष्कर्ष ।
उत्तर – एक प्रभावकारी साधन चलचित्र आज भारत का सर्वाधिक लोकप्रिय मनोरंजन का साधन है। नवयुवक जो चलचित्रों पर जाने देते हैं। मनोरंजन के साथ-साथ मानव-हृदय पर गहरी छाप भी छोड़ता है । चलचित्र में भावनापूर्ण कहानियाँ होती हैं, जो हमारी भावनाओं को उत्तेजित करके अपना असर दिखाती हैं। कोई भी व्यक्ति इनके प्रभाव से अछूता नहीं रह सकता।
शुभ प्रभाव– भारत छुआ-छूत, जाति-पाँति, ऊँच-नीच, दहेज, बाल-विवाह, अनमेल विवाह आदि कई समस्याओं से अब भी जकड़ा हुआ है । चलचित्र इन बुराइयों को दूर करने में बहुत बड़ी भूमिका अदा कर सकते हैं। पहले भी चलचित्रों ने इन बुराइयों को दूर करने में बहुत योगदान दिया है । चलचित्र हमारी मानसिक रूढ़ियों को तोड़ने में बहुत सहायक सिद्ध हुए हैं। पिछले बीस-बीस वर्षों में देश में जितने प्रेम-विवाह और अंतर्जातीय विवाह होने शुरू हुए हैं। इतने पहले कभी नहीं होते थे। उसका कारण है- चलचित्र । चलचित्रों ने मानव को जाति-बंधन से ऊपर उठाने का सफल प्रयास किया है। इसी भाँति सास के दुर्व्यवहार का भंडाफोड़ करने के लिए कई फिल्में बनी हैं। अनेक फिल्मों में दहेज की बुराइयों को दिखाया गया है। झाँसी की रानी, शहीद भगतसिंह आदि चलचित्र देशभक्ति की भावना पैदा करने में सफल सिद्ध हुए हैं ।
अशुभ प्रभाव – चलचित्रों ने जहाँ समाज में एक नवचेतना जाग्रत की है, वहाँ उन्होंने समाज को अत्यधिक हानि भी पहुँचाई है। धन के लोभी फिल्मों के निर्माता ऐसी फिल्मों का निर्माण करते हैं, जिनमें मार-धाड़, हिंसा, यौन-प्रदर्शन तथा अश्लीलता को जान-बूझ कर उभारा जाता है। उन चलचित्रों को देख कर मानव की कुप्रवृतियाँ जाग्रत होने लगती हैं। पाश्चात्य देशों में आज यही कुछ हो रहा है, जिसका स्पष्ट प्रभाव अब भारत वर्ष में भी देखा जा सकता है। अनेक सर्वेक्षणों से पता चलता है कि अपराधों की संख्या बढ़ने से इन्हीं फिल्मों का अधिक हाथ होता है। विश्व-भर में एक लाख से भी अधिक बच्चों के संबंध में किए गए सर्वेक्षणों ने एक मत से स्वीकारा है कि बच्चा चलचित्र के पर्दे पर हिंसा और अपराधों की जितनी कहानियों के लिए पाठशाला के समान हो गए हैं अपराधी वृत्ति के लोग जेब काटने, डाका डालने, चोरी करने, किसी का शील भग करने तथा अन्य बुराइयाँ करने के नित-नये तरीके चलचित्रों के माध्यम से सीखते हैं ।
निष्कर्ष- यह ठीक है कि आज चलचित्रों से मानव-मूल्य नष्ट होने लगे हैं। लोगों का दृष्टिकोण भद्दा होने लगा है तथा जीवन के प्रति उनकी आस्था घटने लगी है। फैशन के कीटाणु भी समाज को गिराने लगे हैं तथा फलस्वरूप अश्लीलता और नग्नता को बढ़ावा मिला है। परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि चलचित्र ऊँचा उठा सकता है। चलचित्र हमारे हाथ में एक महत्वपूर्ण साधन है। हम चाहें जो उससे देवता निर्माण कर लें, चाहें तो दस्यु ।
21. क्रिसी प्रदर्शनी का आँखों देखा वर्णन
अथवा, किसी मेले का आँखों देखा वर्णन
भूमिका, गुब्बारा, द्वार, वापसी ।
उत्तर – भूमिका- किसी प्रदर्शनी या मेले का वर्णन तीन-चार सौ शब्दों में करना बहुत बड़ा करतब है, आसान काम नहीं । प्रदर्शनी की एक-एक वस्तु ढेरों शब्द माँगती है। उसमें इतनी विविधता होती है कि वर्णन को रोकना कठिन हो जाता है। फिर दिल्ली के अंतरराष्ट्रीय व्यापार मेले का क्या कहना।
गुब्बारा– मुझे सन् 2000 में प्रगति मैदान, दिल्ली में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मेला देखने का अवसर मिला। मेले का विज्ञापन करने के लिए आकाश में एक विशाल गैसीय गुब्बारा ताना गया था। जिस पर बड़े-बड़े शब्दों में व्यापार मेला लिखा था । यह गुब्बारा मानो आसपास जा रहे लोगों को अपनी ओर खींच रहा था । द्वार – व्यापार मेले में प्रवेश करने के कई द्वार थे। मैं जिस द्वार से गया, उसके बाहर टिकट लेनेवालों की सर्पाकार लंबी पंक्ति थी । वह पंक्ति बहुत अनुशासित थी । इसलिए शीघ्र ही प्रवेश का मौका मिल गया। मुख्य द्वार और मार्ग को विविध कलात्मक सज्जाओं से सजाया गया था ।
जर्मनी का मंडप– मैं इन रंगीनियों में खोया हुआ था कि अचानक स्वयं को एक मंडप में खड़ा पाया । यह जर्मनी का मंडप था । इसमें विविध आधुनिकतम सज्जाओं के साथ उस देश की प्रति को दर्शाया गया था। मुझे वहाँ की स्टीम प्रेस और बुनाई की मशीन बहुत पसंद आयी । एक सुंदर युवती अपने से भी सुंदर डिजाइन की बुनाई कर करके दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर रही थी। सभी मंडप अनुशासित थे। घड़ियों वाला मंडप- आगे हाल ऑफ नेशन्स के साथ एक छोटा भवन था, जिसमें विश्वभर की घड़ियों की प्रदर्शनी लगी थी। उस भवन में सिनेमाघर की खिड़कियों जैसी भीड़ थी। अंदर जाकर विविध घड़ियों के मंडपों को देखा तो हैरान रह गया। एक-से-एक श्रेष्ठ गुणवत्ता वाले टाइमपीस, क्लॉक तथा कलाई घड़ियों ने मन मोह लिया। मैंने भी एक अलार्म घड़ी खरीदी।
पाकिस्तान का मंडप- नजदीक ही पाकिस्तान का मंडप देखा तो पड़ोसी देश की व्यापारिक उन्नति देखने की जिज्ञासा जाग उठी। परंतु पाकिस्तान की तरक्की देख कर निराशा हुई। उसमें केवल चीनी और पत्थर के फूलदान, सजावट का सामान तथा सूखे मेवों के अतिरिक्त कुछ विशेष नहीं था।
वापसी- रात घिर आयी थी। मैं वापसी के लिए द्वार पर चला। आगे देखाहजारों लोग एक ऊँचे स्थान पर मजमा लगाए खड़े हैं। पता चला कि कोई नाटक-कंपनी नाटक खेल रही हैं वहीं बहुत लंबी पँक्ति देखी जिसमें फैशन-शो देखने के इच्छुक लोग टिकट लेने के लिए खड़े थे। मन हटता ही न था । जैसे-तैसे बाहर पहुँचा तो मुड़ कर फिर से व्यापार मेले की ओर देखा। रोशनी में जगमगाता हुआ मेला दुल्हन की तरह सज कर खड़ा था।
22. नर हो, न निराश करो मन को
प्रस्तावना, नर से वास्तविक तात्पर्य, नर की श्रेष्ठता का कारण, आपदाओं से संघर्ष द्वारा निराश से छुटकारा, उपसंहार
उत्तर – प्रस्तावना – संसार में छोटे-बड़े अनेक प्राणी रहते हैं। उनकी गणना करना तो नितांत असंभव है। फिर भी भारतीय परंपरा में माना जाता है कि 84 लाख योनियाँ भोगने के बाद, अच्छे कर्म करने पर, कहीं जाकर मनुष्य का जन्म मिला करता है। इस मान्यता से लगता है कि संसार में जन्म लेनेवाले प्राणियों की संख्या कम से कम 84 लाख तो है ही। इस प्रकार मनुष्य को सृष्टि का सबसे श्रेष्ठ प्राणी कहा गया है। श्रेष्ठ प्राणी होकर भी यदि किसी कारणवश मनुष्य उदास या निराश हो जाता है, तो इसे उचित और अच्छी बात नहीं माना जा सकता ।
नर से वास्तविक तात्पर्य – ‘नर’ शब्द एक जातिवाचक (पुल्लिंग) संज्ञा है। इसका मुख्य अर्थ तो ‘मनुष्य’ ही लिया जाता है। ऐसा मान कर ही हम कवि के कथन की गहराई तक पहुँच सकते हैं। कवि मनुष्य से कहना चाहता है- भई, मनुष्य हो। इस कारण वीर, साहसी, बुद्धिमान और कर्मशील भी हो। ठीक है, अपना कर्म करने पर भी इस बार तुम्हें सफलता नहीं मिल सकी। साहस करके भी मनचाहा फल नहीं पा सके । वीरता और बुद्धिमानी से काम लेकर भी जो चाहते थे, वह नहीं कर पाए। फिर भी इसमें निराश होने का कोई बात नहीं है ? यदि मनचाहा नहीं हो सका, तो निराश और उदास होकर बैठ जाने से काम नहीं बनने वाला है। निराशा और उदासी त्याग कर ही कुछ कर पाना संभव है।
नर की श्रेष्ठता का कारण – याद रखो कि तुम नर अर्थात् मनुष्य हो। मनुष्य सृष्टि का सबसे श्रेष्ठ प्राणी है । इस श्रेष्ठता का कारण है कि मनुष्य के पास सोचने-विचारने के लिए बुद्धि होती है। भावना, कल्पना और दृढ़ता के लिए मन होता है। सुख-दुःख क्षणिक भावों से ऊपर और आनंद में लीन रहनेवाली जागृत आत्मा रहती है। चलने और दौड़ कर आगे बढ़ने के लिए दो शक्तिशाली पैर होते हैं कार्य करने के लिए दो मजबूत हाथ होते हैं। फिर वह इन सब का उचित ढंग से प्रयोग करना भी जानता है। इन्हीं सब विशेषताओं के कारण ही मनुष्य को सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी कहा गया है।
आपदाओं से संघर्ष द्वारा निराश से छुटकारा – मनुष्य जीवन के साथ तरह-तरह से सुख-दुःख जुड़े होते हैं व हार-जीत लगी रहती है। बीमारियाँ- महामारियाँ आकर भी उसे पीड़ित तथा परेशान करती रहती हैं। प्रकृति के अनेक प्रकोप भी मनुष्य को सहते रहने पड़ते हैं, परंतु इन सबसे निराश होकर बैठ जाना और कर्तव्यों का पालन या कर्म करना त्याग देना कदापि ठीक नहीं है। हिम्मत हार कर, निराश होकर बैठ जाना नरता या मनुष्यता नहीं है, बल्कि इन समस्त आपदाओं से लड़ने या संघर्ष करने में मनुष्यता है। इसी भावना द्वारा जाग कर ही आज तक संसार में बड़े एवं महान कार्य हुए हैं। आज तक मनुष्यता है । इसी भावना द्वारा जाग कर ही आज तक संसार में बड़े एवं महान कार्य हुए हैं । यदि किसी कारणवश तुम सफलता नहीं पा सके, तो चिंता की कोई बात नहीं। अभी भी निराशा छोड़ कर कर्म-पथ पर डट जाओ। तुम्हें सफलता अवश्य मिलेगी।
उपसंहार- मनुष्य के लिए इस संसार में कुछ भी असंभव नहीं है। उसने अपनी बुद्धि और कर्मों से सब कुछ संभव करके दिखाया है। राष्ट्र निर्माण की इस नव-जागरण बेला में तुम्हें भी निराश होकर अपना समय, यौवन और जीवन नष्ट नहीं करना चाहिए । निराशा छोड़ कर, निरंतर परिश्रम करके उसे सार्थक करना है। मनुष्यता के माथे पर निराशा का कलंक नहीं लगने देना चाहिए। ऐसा सोचना तथा ऐसा करना ही नरता है।
23. किसी पर्वतीय प्रदेश की यात्रा
अथवा, पर्वत-यात्रा
भूमिका, यात्रा का प्रस्थान, पर्वतीय दृश्य, कालका से शिमला, शिमला का दृश्य, वापसी, उपसंहार ।
उत्तर – भूमिका – मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । एक स्थान पर रहते-रहते जब उसका मन ऊब जाता है, तो वह इधर-उधर घूम कर अन्य प्रदेशों की सैर करके अपना मन बहलाता है। सैर करने का अपना ही आनंद होता है। भारत प्रकृति की क्रीड़ांगन है, यही एक ऐसा देश है, जिसमें प्रकृति अपने विविध रूपों में उपस्थित है। सुरम्य पर्वतमालाओं की सैर करने का अपना अलग ही आनंद है।
यात्रा का प्रस्थान – इस बार दशहरे की छुट्टियों में मेरी मित्र मंडली ने शिमला चलने का कार्यक्रम बनाया। अपने माता-पिता से परामर्श करके मैंने भी उसमें जाना तय कर लिया । 15 अक्तूबर को हम सबने रेलगाड़ी द्वारा यात्रा शुरू की।
पर्वतीय दृश्य- पर्वतीय प्रदेश जीवनक्रम ही निराला होता है। मैं खिड़की के पास बैठा था और पर्वतीय दृश्यों को देख रहा थ था। रेल के डिब्बे से उनके छोटे-छोटे घर बहुत सुंदर लग रहे थे। मैं उस दृश्य का आनंद ले रहा था। कालका स्टेशन आ गया। यह पर्वतीय प्रदेश एक छोटा-सा जंक्शन है।
कालका से शिमला- थोड़ी देर प्रतीक्षा करनी पड़ी। इसी बीच हमने कुछ fishwan जलपान किया। तभी हमें शिमला के लिए गाड़ी मिली। इन गाड़ी में चार-पाँच ही डिब्बे थे तथा इसके दोनों ओर इंजन जुड़े हुए थे। रास्ता चक्करदार तथा सँकरा था। ठंड से हम
सिकुड़े जा रहे थे। हम शिमला पहुँच गए।
शिमला का दृश्य– शिमला हिमाचल प्रदेश की राजधानी है। आधुनिक ढंग से मकान बने हुए हैं। शहर में कई सिनेमा घर जो आकर्षण और भी बढ़ाते हैं। हम वहाँ तीन दिन रहे। इन तीन दिनों में हमने दूर तक फैली प्रकृति की सुषमा का कित भरपूर आनंद लिया। ऊँची-ऊँची पर्वत-मालाएँ व वृक्ष, धारियाँ, लताएँ, भाँति-भाँति के पुष्पों से लदे वृक्ष देख कर ऐसा लगा कि सारी उम्र यहाँ बिता दें। ये तीन दिन बिड़ी मौज-मस्ती में कटे और तभी वापसी की तैयारियाँ शुरू हो गयी।
वापसी- तीन दिन के बाद हम वहाँ से बस द्वारा चले। बस से हमने ऊँची-नीची पहाड़ियाँ देखीं तथा चक्कर साँपनुपा मोड़ देखे जिनके नीचे गहरे गड्ढे थे। पर्वतों के आस-पास हरियाली, खेत तथा उनमें काम करनेवाले ग्रामीण अपनी सुंदर वेश-भूषा में हमें आकृष्ट कर रहे थे। पर हम धीरे-धीरे इस प्रदेश से दूर होते गए ओर अपने आ गए। आज भी मुझे वह यात्रा याद है।
उपसंहार- पर्वत यात्रा का यह अनोखा एवं अनुभव जीवन भर स्मरण रहेगा। मन में उत्कृष्ट इच्छा है कि प्रतिवर्ष अवकाश के दिनों में किसी-न-किसी पर्वत प्रदेश का भ्रमण किया जाए। वस्तुतः पर्वत प्रकृति की अद्भुत देन है। इनकी यात्रा बहुत ही मर्म-स्पर्शी एवं आनंददायक होती है ।
24. परिश्रम का महत्त्व या देव-देव आलसी पुकारा
प्रस्तावना, भाग्यवाद, प्रकृति परिश्रम का पाठ पढाती है, शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम, भाग्य और पुरुषार्थ, उपसंहार ।
उत्तर – प्रस्तावना – जीवन के उत्थान में परिश्रम का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जीवन में आगे बढ़ने के लिए, ऊँचा उठने के लिए, सुयश प्राप्त करने के लिए श्रम ही आधार है। से कठिन कार्य सम्पन्न किए जा सकते हैं। जो श्रम करता है, उसका भाग्य भी उसका साथ देता है। जो सोता रहता है, उसका भाग्य भी सोता रहता है । श्रम के बल पर उत्तंग, अगम्य पर्वत चोटियों पर अपनी विजय का ध्वज फहरा दिया । श्रम के बल पर मनुष्य चन्द्रमा पर पहुँच गया । श्रम के आधार से ही मानव समुद्र को लाँघ गया तथा उसने खाइयों को पाट दिया। कोयले की खदानों से बहुमूल्य हीरे खोज निकाले । मानव सभ्यता और उन्नति का एकमात्र आधार श्रम ही है। श्रम के सोपानों का अवलम्ब लेकर मनुष्य अपनी मंजिल पर पहुँच जाता है। अतः परिश्रम ही मानव जीवन का सच्चा सौंदर्य है, क्योंकि परिश्रम के द्वारा ही मनुष्य अपने को पूर्ण बना सकता है। परिश्रम ही उसके जीवन में उत्कर्ष और महानता लाने वाला है। वास्तव में परिश्रम ही ईश्वर की सच्ची उपासना है।
भाग्यवाद- जिन लोगों ने परिश्रम का महत्त्व नहीं समझा, वे अभाव, गरीबी और दरिद्रता का दुःख भोगते रहे। जो लोग मात्र भाग्य को ही विकास का सहारा मानते हैं, वे भ्रम में हैं।
मेहनत से जी चुराने वाले दास मलूका के स्वर में स्वर मिलाकर भाग्य की दुहाई के गीत गा सकते हैं, लेकिन वे नहीं सोचते कि जो चलता है, वही आगे बढ़ता है और मंजिल को प्राप्त करता है। अर्थात् परिश्रम से सब कार्य सफल होते हैं, केवल कल्पना के महल बनाने से व्यक्ति अपने मनोरथ को पूर्ण नहीं कर सकता। शक्ति और स्फूर्ति से सम्पन्न सिंह गुफा में सोया हुआ शिकार प्राप्ति के ख्याली पुलाव पकाता रहे तो उसके उदर की अग्नि कभी भी शान्त नहीं हो सकती। सोया पुरुषार्थ फलता नहीं है। अर्थात् संसार में सुख के सकल पदार्थ होते हुए भी कर्महीन लोग उसका उपभोग नहीं कर पाते। जो कर्म करता है, फल उसे ही प्राप्त होता है और जीवन उसी का जगमगाता है। उसके जीवन उद्यान में ही रंग-बिरंगे सफलता के सुमन खिलते हैं व मुस्कराते हैं।
परिश्रम से जी चुराना, आलस्य और प्रमोद में जीवन बिताना, इसके समान कोई बड़ा पाप नहीं है। गाँधी जी का कहना है कि जो अपने हिस्से का काम किए बिना ही भोजन पाते हैं, वे चोर हैं ।
प्रकृति परिश्रम का पाठ पढाती है- प्रकृति के प्रांगण में झाँककर देखें तो चींटियाँ रात-दिन अथक परिश्रम करती हुई नजर आती हैं। पक्षी दाने की खोज में अन्नत आकाश में उड़ते दिखाई देते हैं। हिरन आहार की खोज में वन-उपवन में कुलाचे भरते रहते हैं। समस्त सृष्टि में श्रम का चक्र चलता रहता है। जो लोग श्रम को त्यागकर आलस्य का आश्रय लेते हैं, वे अपने जीवन में असफल होते हैं । भाग्य पर केवल आलसी व्यक्ति ही आश्रित होता है।
शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम- परिश्रम चाहे शारीरिक हो अथवा मानसिक दोनों ही श्रेष्ठ हैं। सत्य तो वह है कि मानसिक श्रम की अपेक्षा शारीरिक श्रम कहीं अधिक श्रेयस्कर है। गाँधी जी की मान्यता है कि स्वस्थ, सुखी और समुन्नत जीवन के लिए शारीरिक श्रम अनिवार्य है। शारीरिक श्रम प्रकृति का नियम है और इसकी अवहेलना निश्चय ही हमारे जीवन के लिए बहुत ही दुखदायी सिद्ध होगी।
भाग्य और पुरुषार्थ– भाग्य और पुरुषार्थ जीवन के दो पहिये हैं। भाग्यवादी बनकर हाथ पर हाथ रखकर बैठना मौत की निशानी है। परिश्रम के बल पर ही मनुष्य अपने बिगड़े भाग्य को बदल सकता है। परिश्रम ने महामरुस्थलों को हरे-भरे उद्यानों में बदल दिया। मुरझाए जीवन में यौवन का वसन्त खिला दिया।
उपसंहार- परिश्रमी व्यक्ति राष्ट्र की बहुमूल्य पूँजी है। श्रम वह महान् गुण है, जिससे व्यक्ति का विकास और राष्ट्र व की उन्नति होती है। संसार में महान् बनने और अमर होने के लिए परिश्रमशीलता अनिवार्य है। श्रम से अपार आनन्द मिलता है। हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने हमें श्रम की पूजा का पाठ पढ़ाया। उन्होंने कहाश्रम से स्वावलम्बी बनने का सौभाग्य मिलता है। हम अपने देश को श्रम और स्वावलम्बन से ही ऊँचा उठा सकते हैं। उन्होंने शिक्षा में श्रम के महत्त्व को समझाया। यदि आजादी की रक्षा करनी है तो प्रत्येक भारतवासी को परिश्रमी और स्वावलम्बी बनना होगा।
25. पर्यटन का महत्व
पर्यटन का अर्थ, विकास का सूत्रधार, पर्यटन- एक उद्योग, पर्यटन के लाभ, पर्यटन- एक शौक ।
उत्तर – पर्यटन का अर्थ- पर्यटन का अर्थ है- चारों ओर घूमना । निरुद्देश्य घूमना। आनंद के लिए घूमना। इसलिए पर्यटन स्वयं में पूर्ण आनंद है। घूमने वाला प्राणी संसार की अनेक चिंताओं से दूर रहता है। वह संग्रह करने के अवगुण से दूर रहता है। त पर्यटन और संग्रह शत्रु हैं। जब तक मनुष्य घुमंतू था, तब तक वह संग्रह से दूर रहता था। इसलिए उसके जीवन में आनंद था, मस्ती थी, निश्चितता थी। उसे खोने का भय नहीं था ।
विकास का सूत्रधार- परम घुमक्कड़ राहुल सांकृत्यायन कहते हैं- आज तक का जितना भी विकास हुआ है, वह घुमक्कड़ों की कृपा से हुआ है। जितने भी धर्म विकसित हुए हैं, घुमक्कड़ों की कृपा से विकसित हुए हैं। कोलंबस और वास्को-डि-गामा ने पर्यटन से ही भारत और अमेरिका की खोज की। आज भी सबसे अधिक धनी व्यक्तियों का कारोबार पूरे विश्व में फैला हुआ है।
पर्यटन एक उद्योग– आज पर्यटन एक उद्योग बन चुका है। भारत में अनेक पर्यटन-स्थल हैं। कश्मीर, कुल्लू-मनाली, मसूरी, नैनीताल, ऊटी जैसी मनोरम पहाड़ियाँ हर वर्ष लाखों पर्यटकों को अपनी ओर खींचती हैं। हरिद्वार, मथुरा, द्वारिका, वैष्णो देवी, अजमेर शरीफ, कन्याकुमारी, कांचीपुरम, इलाहाबाद जैसे धार्मिक स्थलों पर भी लाखों-करोड़ों पर्यटक हर वर्ष घूमने जाते हैं। कश्मीर, हिमाचल और असाम में पर्यटन उद्योग ही वहाँ की आर्थिक व्यवस्था की रीढ़
है ।
पर्यटन के लाभ- पर्यटन से मनुष्य को अनेक लाभ होते हैं। पर्यटक विश्व की अनेक संस्कृतियों के संपर्क में आता है। इससे वह सबकी खूबियों से परिचित होता है। उसकी दृष्टि विशाल बनती है। पर्यटन से विश्व में आपसी भाईचारा ला बनता है। ‘वसुधैवकुटुंबकम्’ का नारा तभी सार्थक होता है, जब विश्व-भर के लोग एक-दूसरे को अपने परिवार का सदस्य मानते हैं। यह केवल पर्यटन से ही संभव है।
पर्यटन – एक शौक- आज पर्यटन मनोरंजन का साधन बनता जा रहा है। आम लोग भी पर्यटन पर अपनी आय का कुछ भाग व्यय करने लगे हैं। पर्यटन सच में मानव को दैनंदिन की चिंताओं से दूर करके मुक्त करता है । यह मानव-मुक्ति का अच्छा साधन है।
26. नारी शिक्षा
भूमिका, विविध मत, भारत में नारी शिक्षा का महत्व, इतिहास, वर्तमान में नारी शिक्षा, उपसंहार ।
उत्तर – प्राचीन भारत के इतिहास पर अवलोकन करने से हमें ज्ञात होता है कि यहाँ नारी को आदरपूर्ण स्थान दिया जाता है। हमारे पूर्वजों का कथन था
“यत्र नार्यस्तु पूज्यते रमन्ते तत्र देवताः”
समय बदलने के साथ लोगों की मानसिकता में बदलाव आया है। सभ्यता और संस्कृति के विकास के लिए नर-नारी का समान महत्त्व है। इस बात को आज सारी दुनिया मान रही है। नारी ने अपनी प्रतिभा और क्षमता को पुरुषों के बराबर सिद्ध कर दिखाया है। नारी शिक्षा आज के समय की सबसे बड़ी जरूरत बन गई है।
नारी शिक्षा के विषय में उनकी सोच इसी प्रकार से प्रभावित होती हैं। पहले पुरुष नारी शिक्षा का प्रबल विरोध करते थे लेकिन अब दबे-छिपे ढंग से नीचा दिखाने का प्रयास करते हैं। जबकि दूसरी ओर समानता की बात करने वाले लोग नारी-शिक्षा के महत्त्व और आवश्यकता की जमकर वकालत करते हैं । वैदिक काल नारी सम्मान की भावना प्रबल थी। गार्गी, मैत्रेयी, अरुंधती आदि महान नारियों का समाज में सम्मानजनक स्थान था।
अंग्रेजों के आने के साथ भारत का शेष दुनिया से सीधा सम्पर्क हुआ । उस समय के महान सुधारक जैसे ईश्वर चंद्र विद्यासागर, राजा राममोहन राय, स्वामी विवेकानन्द आदि ने इस ओर महत्त्वपूर्ण कार्य किया। स्वाधीनता आंदोलन से जुड़े महान नेताओं ने भी इस ओर ध्यान दिया, आज की परिस्थिति में सरकार और समाज दोनों नारी शिक्षा के महत्त्व को समझ रहे हैं। इसी शिक्षा के बल पर अंतरिक्ष विज्ञान तक में नारी ने अपना योगदान दिया है। जीवन के हर क्षेत्र में वह अपनी योग्यता प्रदर्शित कर रही है।
नारी समाज की महत्त्वपूर्ण इकाई, परिवार की निर्माता है। उसके शिक्षित होने पर परिवार संस्कारवान और सुसंस्कृत होता है। यह प्रभाव राष्ट्र के चरित्र पर पड़ता है। शिक्षित नारी में विभिन्न सामाजिक बुराईयों से लड़ने का विश्वास और ताकत होती है। वह राष्ट्र और समाज को उन्नति के पथ पर आगे ले जाती है । स्पष्ट है कि नारी शिक्षा के महत्व और आवश्यकता को हम झुठला नहीं सकते हैं। अगर हम वास्तविक विकास करना चाहते हैं तो इस ओर मजबूती के साथ कदम बढ़ाना होगा।
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