NCERT Solutions Class 10Th Hindi Chapter – 5 क्षितिज (भाग – 2) गद्य-खंड
NCERT Solutions Class 10Th Hindi Chapter – 5 क्षितिज (भाग – 2) गद्य-खंड
गद्य-खंड
निम्नांकित गद्यांशों को पढ़े और पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दें –
स्वयं प्रकाश
नेताजी का चश्मा
1. पूरी बात तो अब पता नहीं, लेकिन लगता है कि देश के अच्छे मूर्तिकारों की जानकारी नहीं होने और अच्छी मूर्ति की लागत अनुमान और उपलब्ध बजट से कहीं बहुत ज्यादा होने के कारण काफी समय ऊहापोह और चिट्ठी-पत्री में बरबाद हुआ होगा और बोर्ड की शासनावधि समाप्त होने की घड़ियों में किसी स्थानीय कलाकार को ही अवसर देने का निर्णय किया गया होगा, और अंत में कस्बे के इकलौते हाई स्कूल के इकलौते ड्राइंग मास्टर मान लीजिए मोतीलाल जी- को ही यह काम सौंप दिया गया होगा, जो महीने भर में मूर्ति बनाकर ‘पटक देने’ का विश्वास दिला रहे थे।
(क) पाठ तथा उसके लेखक का नाम लिखें।
उत्तर – पाठ का नाम- नेताजी का चश्मा
लेखक का नाम- स्वयं प्रकाश
(ख) स्थानीय कलाकार से मूर्ति बनवाने का क्या कारण रहा होगा ?
उत्तर – स्थानीय कलाकार से मूर्ति बनवाने के दो कारण प्रमुख रहे होंगे –
(i) धन और साधनों का अभाव ।
(ii) सोच-विचार और कागजी कार्यवाही में समय बीतने के कारण हड़बड़ी और जल्दबाजी ।
(ग) मूर्ति में क्या कमी रह गई थी ?
उत्तर – नेताजी की मूर्ति में यह कमी रह गई थी की उनकी आँखों पर चश्मा नहीं था।
(घ) मूर्ति में कमी के कारण क्या हो सकते थे ?
उत्तर – मूर्ति पर चश्मा न होने का कारण पूरी तरह से तो किसी को ज्ञात नहीं था फिर भी संभावना यह थी कि
(i) मूर्ति की लागत बढ़ गई हो।
(ii) समय का अभाव रहा हो ।
(iii) बनाते समय चश्मा टूट गया हो।
(ङ) छोटे कस्बों में सार्वजनिक निर्माणों में प्रायः कौन-सी समस्याएँ आती हैं ?
उत्तर – छोटे कस्बों में सार्वजनिक निर्माणों में प्रायः निम्नांकित समस्याएँ आती हैं –
(i) उन्हें योग्य शिल्पकारों और कलाकारों की सही जानकारी नहीं होती।
(ii) उनके पास अच्छे निर्माण के योग्य धन नहीं होता।
(iii) काफी समय विचार-विमर्श और उधेड़बुन में बीत जाता है।
(iv) शासकीय कार्यवाही और चिट्ठी पत्री में काफी समय निकल जाता है।
(v) हड़बड़ी में गलत निर्णय लिए जाते हैं।
(च) स्थानीय कलाकार ने क्या वादा किया होगा? ‘पटक देने का क्या भावार्थ रहा होगा ?
उत्तर – जब स्थानीय कलाकार को मूर्ति बनाने की बात कही गई होगी, तो उसने उत्साह में क आकर इस काम को एक महीने में जैसे-तैसे पूरा करने का निश्चय प्रकट किया होगा। ‘पटक देने’ का भावार्थ यह रहा होगा कि वह जैसे भी हो, जुगाड़ और जल्दबाजी करके मूर्ति बनाकर नगरपालिका को सौंप देगा। परन्तु अगर कोई कमी रह गई तो जिम्मेदारी पालिका की होगी, उसकी नहीं।
2. अब हालदार साहब को कुछ बात समझ में आई। एक चश्मेवाला है जिसका नाम कैप्टन है। उसे नेताजी की बगैर चश्मेवाली मूर्ति बुरी लगती है। बल्कि आहत करती है, मानो चश्मे के बगैर नेताजी को असुविधा हो रही हो। इसलिए वह अपनी छोटी-सी दुकान में उपलब्ध गिने-चुने फ्रेमों में से एक नेताजी की मूर्ति पर फिट कर देता है। लेकिन जब कोई ग्राहक आता है और उसे वैसे ही फ्रेम की दरकार होती है जैसा मूर्ति पर लगा है तो कैप्टन चश्मेवाला मूर्ति पर लगा फ्रेम-संभवतः नेताजी से क्षमा माँगते हुए- लाकर ग्राहक को दे देता है और बाद में नेताजी को दूसरा फ्रेम लौटा देता है। वाह ! भई खूब! क्या आइडिया है।
(क) हालदार साहब को क्या बात समझ आई ?
उत्तर – हालदार साहब को यह बात समझ में आई कि चश्मेवाले का नाम कैप्टन है। वही नेताजी की मूर्ति पर चश्मा लगाता-उतारता रहता है।
(ख) चश्मेवाला मूर्ति पर चश्मा क्यों लगाता है ?
उत्तर – चश्मेवाला नेताजी की मूर्ति पर चश्मा इसलिए लगाता है क्योंकि उसे नेताजी की बगैर चश्मेवाली मूर्ति बुरी लगती है। उसे लगता है कि चश्मे के बिना नेताजी को असुविधा होती है। वह नेताजी के प्रति श्रद्धा रखता है।
(ग) चश्मेवाला मूर्ति का चश्मा क्यों बदल देता है ?
उत्तर – चश्मेवाला एक गरीब आदमी है । वह चश्मा बेचकर अपना गुजारा चलाता है। वही नेताजी की मूर्ति पर चश्मा लगाना है। जब कोई ग्राहक नेताजी वाले फ्रेम की माँग करता है तब वह उस चश्मे के फ्रेम को उतार कर ग्राहक को दे देता है और मूर्ति पर दूसरा फ्रेम लगा देता है।
(घ) हालदार किस बात पर खुश होता है ?
उत्तर – हालदार इस बात पर खुश होता है कि चलो छोटे से कस्बे में देशभक्ति जीवित है। कम-से-कम कोई तो है, जिसे सुभाषचंद्र बोस की परवाह है। उसे चश्मेवाले का चश्मा लगाना अच्छा लगता है। वह मन-ही-मन चश्मेवाले की देशभक्ति को प्रणाम करता है।
(ङ) चश्मेवाला नेताजी से क्षमा क्यों माँगता है ?
उत्तर – चश्मेवाला नेताजी से इसलिए क्षमा माँगता है क्योंकि उसे नेताजी की मूर्ति पर लगे चश्मे को उतारने में दुख का अनुभव होता है पर उसे उतारना उसकी मजबूरी होती है। अतः वह क्षमा माँगते हुए चश्मे का फ्रेम बदल देता है।
(च) हालदार साहब का ज्ञान कितना प्रामाणिक है ? स्पष्ट करें।
उत्तर – हालदार का ज्ञान अनुमान पर आधारित है। वह स्वयं भावुक देशभक्त है। इसलिए वह चश्मेवाले के बारे में भी उसकी देशभक्ति की कल्पना करता है। ‘संभवतः’ शब्द स्वयं बताता है कि हालदार की सारी बातें कल्पना और भावना पर आधारित हैं।
3. हालदार साहब को यह सब कुछ बड़ा विचित्र और कौतुकभरा लग रहा था, इन्हीं ख्यालों में खोए – खोए पान के पैसे चुकाकर, चश्मेवाले की देश भक्ति के समक्ष नतमस्तक होते हुए वह जीप की तरफ चले, फिर रुके, पीछे मुड़े और पानवाले के पास जाकर पूछा, क्या कैप्टन चश्मेवाला नेताजी का साथी है ? या
आजाद हिंद फौज का भूतपूर्व सिपाही ?
पानवाला नया पान खा रहा था। पान पकड़े अपने हाथ को मुँह से डेढ़ इंच दूर रोककर उसने हालदार साहब को ध्यान से देखा, फिर अपनी लाल काली बत्तीसी दिखाई और मुसकराकर बोला- नहीं साब ! वो लँगड़ा क्या जाएगा फौज में पागल है पागल ! वो देखो, वो आ रहा है। आप उसी से बात कर लो। फोटो-वोटो छपवा दो उसका कहीं ।
(क) हालदार साहब को कौन-सी बात विचित्र और कौतुक-भरी लग रही थी ?
उत्तर – हालदार साहब को नेताजी की संगमरमर की मूर्ति के बारे में सारी बातें विचित्र और कौतुक-भरी लग रही थी। मूर्तिकार मास्टर मोतीलाल द्वारा मूर्ति में चश्मा न लगा पाना जितना रोचक था, उससे भी बढ़कर रोचक था कैप्टन द्वारा उस पर बदल-बदलकर चश्मे लगाना । हालदार साहब को लोगों की भावनाओं को समझकर आनंद आ रहा था ।
(ख) हालदार ने पानवाले से क्या पूछा और क्यों ?
उत्तर – हालदार ने पानवाले से पूछा कि यह चश्मेवाला क्या कभी फौजी में रहा है या सुभाषचंद्र बोस का साथी रहा है। उसने यह सवाल इसलिए पूछा क्योंकि उसे इस विचित्र आदमी के बारे में जानने की उत्सुकता थी । वह ऐसे विशेष आदमी के बारे में जानना चाहता था ।
(ग) पानवाला किसलिए हँस पड़ा ?
उत्तर – पानवाला चश्मेवाले की वास्तविकता को जानता था । चश्मेवाला मरियल-सा बूढ़ा लंगड़ा था। इसलिए जब हालदार ने उसके फौजी होने या आजाद हिंद फौज में होने की बात पूछी तो पानवाला व्यंग्य से हँस पड़ा। उसका अर्थ था- लो ! अब यह बूढ़ा भी फौजी हो चला !
(घ) पानवाला चश्मेवाले की फोटो छपवाने की बात क्यों कहता है ?
उत्तर – पानवाला चश्मेवाले को देशभक्त नहीं, एक सनकी अजूबा मानता है। ऐसे पागल लोगों के अखबार में फोटो छपने चाहिए। इस सुझाव में व्यंग्य है, कटाक्ष है।
4. हालदार साहब को पानवाले द्वारा एक देशभक्त का इस तरह मजाक उड़ाया जाना अच्छा नहीं लगा। मुड़कर देखा तो अवाक् रह गए। एक बेहद बूढ़ा भरियल-सा लँगड़ा आदमी सिर पर गाँधी टोपी और आँखों पर काला चश्मा लगाए एक हाथ में एक छोटी-सी संदूकची और दूसरे हाथ में एक बाँस पर टँगे बहुत-से चश्मे लिए अभी-अभी एक गली से निकला था और अब एक बंद दुकान के सहारे अपना बाँस टिका रहा था । तो इस बेचारे की दुकान भी नहीं ! फेरी लगता है ! हालदार साहब चक्कर में पड़ गए। पूछना चाहते थे, इसे कैप्टन क्यों कहते हैं ? क्या यही इसका वास्तविक नाम है ? लेकिन पानवाले ने साफ बता दिया था कि अब वह इस बारे में और बात करने को तैयार नहीं। ड्राइवर भी बेचैन हो रहा था। काम भी था । हालदार साहब जीप में बैठकर चले चल गए ।
(क) चश्मेवाले के व्यवसाय और उसकी दशा का वर्णन करें।
उत्तर – चश्मेवाला बहुत गरीब है। उसके पास दुकान तक नहीं है। मजबूरी में उसे गली-गली घूमकर चश्मे बेचने पड़ते हैं। वह शरीर से भी बहुत बूढ़ा, मरियल-सा और लंगड़ा है।
(ख) चश्मेवाले को देखकर हालदार साहब चक्कर में क्यों पड़ गए ?
उत्तर – चश्मेवाले को देखकर हालदार साहब चक्कर में पड़ गए। उन्होंने सोचा था कि चश्मेवाला अवश्य कोई पुराना फौजी होगा। वह लंबा-तगड़ा देशभक्त जवान होगा। परंतु सामने मरियल-सा बूढ़ा, लंगड़ा देखकर वह हैरान हो गया। वह सोचने लगा कि इसका नाम ‘कैप्टन’ क्यों रखा गया होगा। यह बात उसकी समझ से बिल्कुल परे थी ।
(ग) हालदार साहब चश्मेवाले के बारे में अधिक जानकारी क्यों न जुटा सके ?
उत्तर – हालदार साहब चश्मेवाले को अपनी आँखों से देख चुके थे। वे उसके बारे में और बहुत कुछ जानना चाहते थे। परंतु न तो पानवाले ने उसके बारे में कोई रुचि ली, न उनके ड्राइवर के पास फालतू समय था । ड्राइवर भी जल्दी चलने के लिए उतावला था। इसलिए हालदार साहब मन मारकर वापस जीप में बैठ गए।
(घ) हालदार और चश्मेवाले में क्या समानता है ?
उत्तर – हालदार और चश्मेवाले में एक समानता है। दोनों देशभक्त और भावुक हैं। दोनों को अपने नेता सुभाषचंद्र बोस से प्यार है। इसलिए दोनों उसकी सुंदर मूर्ति में रुचि लेते हैं। चश्मेवाला मूर्ति को चश्मा पहनाकर देशभक्ति प्रकट करता है। हालदार हर बार बदलते चश्में में रुचि लेकर अपनी भावना प्रकट करता है।
(ङ) हालदार क्या देखकर हैरान रह गया ?
उत्तर – हालदार ने कल्पना की थी कि सुभाषचंद्र बोस की मूर्ति पर चश्मा लगाने वाला कैप्टन कोई लंबा-तगड़ा फौजी होगा। उसकी कोई छोटी-मोटी दुकान होगी। परंतु उसने देखा कि कैप्टन नाम का चश्मेवाला शरीर से बिल्कुल मरियल और लंगड़ा था उसके सिर पर गाँधी टोपी और आँख पर काला चश्मा था। उसके एक हाथ में संदूकची थी और दूसरे हाथ में बाँस पर लटके चश्मे थे। उस गरीब बेचारे के पास दुकान भी नहीं थी। वह घूम-घूम कर चश्मे बेचता था। यह देखकर हालदार हैरान रह गया ।
5. बार-बार सोचते, क्या होगा उस कौम का जो अपने देश की खातिर घर-गृहस्थी- जवानी-जिंदगी सब कुछ होम देनेवालों पर भी हँसती है और अपने लिए बिकने के मौके ढूँढ़ती है। दुखी हो गए। पंद्रह दिन बाद फिर उसी कस्बे से गुजरे। कस्बे में घुसने से पहले ही ख्याल आया कि कस्बे की हृदयस्थली में सुभाष की प्रतिमा अवश्य ही प्रतिष्ठापित होगी, लेकिन सुभाष की आँखों पर चश्मा नहीं होगा।… क्योंकि मास्टर बनाना भूल गया।… और कैप्टन मर गया। सोचा, आज वहाँ रुकेंगे नहीं पान भी नहीं खाएँगे, मूर्ति की तरफ देखेंगे भी नहीं, सीधे निकल जाएँगे। ड्राइवर से कह दिया, चौराहे पर रुकना नहीं, आज बहुत काम है, पान आगे कहीं खा लेंगे।
लेकिन आदत से मजबूर आँखें चौराहा आते ही मूर्ति की तरफ उठ गईं। कुछ ऐसा देखा कि चीखे, रोको ! जीप स्पीड में थी, ड्राइवर ने जोर से ब्रेक मारे । रास्ता चलते लोग देखने लगे। जीप रुकते-न-रुकते हालदार साहब जीप से कूदकर तेज-तेज कदमों से मूर्ति की तरफ लपके और उसके ठीक सामने जाकर अटेंशन में खड़े हो गए ।
(क) हालदार साहब क्या सोचते थे ?
उत्तर – हालदार साहब सोच रहे थे कि भला उस कौम का क्या होगा जो देश के लिए अपना सब कुछ त्याग कर देने वालों पर हँसती है, उनका मजाक उड़ाती है। ऐसे लोग फिर से गुलाम बन जाएँगे।
(ख) पंद्रह दिन बाद कस्बे से गुजरते हुए हालदार साहब को क्या ख्याल आया ?
उत्तर – पंद्रह दिन बाद जब हालदार साहब उस कस्बे से गुजरे तो उन्हें ख्याल आया कि चौराहे पर सुभाषचंद्र बोस की प्रतिमा तो अवश्य होगी पर उनकी आँखों पर चश्मा नहीं होगा क्योंकि मूर्तिकार चश्मा बनाना भूल गया और उन पर असली चश्मा फिट करने वाला कैप्टन मर गया । अब भला उन्हें किसने चश्मा लगाया होगा।
(ग) हालदार साहब ने अपने ड्राइवर को क्या आदेश दिया और क्यों ?
उत्तर – हालदार साहब ने अपने ड्राइवर को आदेश दिया कि वह कस्बे के चौराहे पर जीप स न रोके। क्योंकि उन्होंने ड्राइवर को तो यह कहा कि आज बहुत काम है। पान कहीं और खा लेंगे। परन्तु वास्तविक कारण यह था कि वह बिना चश्मे वाली सुभाष की मूर्ति को देखना नहीं चाहते थे ।
(घ) चौराहा आते ही क्या हुआ ?
उत्तर – चौराहे के आते ही हालदार साहब की आँखें आदतन मूर्ति की ओर चली गई। मूर्ति पर कुछ ऐसा विशेष दिखाई दिया कि उन्हें अपनी जीप रुकवानी पड़ी। मूर्ति पर सरकंडे का चश्मा लगा था । वे मूर्ति के सामने जाकर सावधान की स्थिति में खड़े हो गए।
(ङ) सिद्ध करें कि हालदार साहब सच्चे देशभक्त थे।
उत्तर – हालदार साहब सच्चे देशभक्त थे। उनके मन में क्रांतिकारी सुभाषचंद्र बोस के प्रति गहरा सम्मान था । इसलिए सदा सुभाष की मूर्ति के सामने जीप रुकवाते थे और उन्हें कौतुहल से निहारा करते थे। उन्हें यह देखकर भी अच्छा लगता था कि छोटे-से कस्बे में सुभाष की मूर्ति को चश्मा पहनाने वाला कोई देशभक्त नागरिक है। बिना चश्मे वाली मूर्ति देखकर वे उदास हो जाते थे और चश्मे वाली मूर्ति से हो जाते थे। इससे उनकी देशभक्ति का परिचय मिलता है।
रामवृक्ष बेनीपुरी
बालगोबिन भगत
1. बालगोबिन भगत मँझोले कद के गोरे-चिट्टे आदमी थे। साठ से ऊपर के ही होंगे। बाल पक गए थे। लंबी दाढ़ी या जटाजूट तो नहीं रखते थे, किन्तु हमेशा उनका चेहरा सफेद बालों से ही जगमग किए रहता। कपड़े बिल्कुल कम पहनते । कमर में एक लंगोटी-मात्र और सिर में कबीरपंथियों की-सी कनपटी टोपी। जब जाड़ा आता, एक काली कमली ऊपर से ओढ़े रहते। मस्तक पर हमेशा चमकता हुआ रामानंदी चंदन, जो नाक के एक छोर से ही, औरतों के टीके की तरह, शुरू होता। गले में तुलसी की जड़ों की एक बेडौल माला बाँधे रहते।
(क) पाठ तथा उसके लेखक का नाम लिखें ।
उत्तर – पाठ का नाम- बालगोबिन भगत
लेखक का नाम– रामवृक्ष बेनीपुरी
(ख) बालगोबिन की कद-काठी कैसी थी ?
उत्तर – बालगोबिन का कद मंझोला था। वे गोरे-चिट्टे थे। उनकी आयु साठ से अधिक होगी।
(ग) उनका चेहरा कैसा लगता था ?
उत्तर – बालगोबिन के बाल पक गए थे। उनका चेहरा सफेद बालों से जगमगाता रहता था।
(घ) वे कैसे कपड़े पहनते थे ?
उत्तर – बालगोबिन बहुत कम कपड़े पहनते थे। वे कमर में केवल लंगोटी बाँधते थे। उनके सिर पर कबीरपंथियों की-सी कनपटी होती थी । जाड़े में वे अपने ऊपर काला कंबल ओढ़ लेते थे ।
(ङ) वे किस प्रकार का टीका लगाते और माला पहनते थे ?
उत्तर – वे मस्तक पर रामानंदी चंदन लगाते थे और औरतों की तरह टीका लगाते थे । वे गले में तुलसी की जड़ों की एक बेडौल माला बाँधे रहते थे।
2. किन्तु, खेतीबारी करते, परिवार रखते भी, बालगोबिन भगत साधु थे – साधु की सब परिभाषाओं में खरे उतरनेवाले। कबीर को ‘साहब’ मानते थे, उन्हीं के गीतों को गाते, उन्हीं के आदेशों पर चलते । कभी झूठ नहीं बोलते, खरा व्यवहार रखते। किसी से भी दो-टूक बात करने में संकोच नहीं करते, न किसी से खामखाह झगड़ा मोल लेते । किसी की चीज नहीं छूते, न बिना पूछे व्यवहार में लाते। इस नियम को कभी-कभी इतनी बारीकी तक ले जाते कि लोगों को कुतूहल होता ! कभी वह दूसरे के खेत में शौच के लिए भी नहीं बैठते ! वह गृहस्थ थे; लेकिन उनकी सब चीज ‘साहब’ की थी । जो कुछ खेत में पैदा होता, सिर पर लादकर पहले उसे साहब के दरबार में ले जाते- जो उनके घर से चार कोस दूरी पर थाएक कबीरपंथी मठ से मतलब ! वह दरबार में ‘भेंट’ रूप रख लिया जाकर ‘प्रसाद’ रूप में जो उन्हें मिलता, उसे घर लाते और उसी से गुजर चलाते !
(क) बालगोबिन कैसे व्यक्ति थे ?
उत्तर – बालगोबिन अपनी वेशभूषा, रूप-आकार एवं स्वभाव के साधु प्रतीत होते थे, पर वे एक गृहस्थ`भी थे। उनका एक बेटा और पुत्रवधू भी थी ।
(ख) बालगोबिन क्या करते थे ?
उत्तर – बालगोबिन खेती-बाड़ी का काम करते थे। वे एक साफ-सुथरे मकान में रहते थे।
(ग) बालगोबिन के चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ क्या थीं ?
उत्तर – बालगोबिन के चरित्र की विशेषताएँ ये थीं- वे संत कबीर अनुयायी थे। उन्हीं के गीत गाते थे तथा उन्हीं के आदेशों पर चलते थे। वे कभी झूठ नहीं बोलते थे तथा व्यवहार खरा रखते थे। वे स्पष्ट बात करने में विश्वास करते थे। वे बिना पूछे किसी की चीज छूते तक नहीं थे।
(घ) बालगोबिन खेत की पैदावार को कहाँ ले जाते थे और क्यों ?
उत्तर – बालगोबिन के खेत में जो भी चीज पैदा होती, उसे वे सबसे पहले साहब के दरबार में ले जाते थे। यह साहब का दरबार घर से चार कोस दूर कबीरपंथी मठ था। वहाँ अपनी ऊपज को भेंट स्वरूप देते और वहाँ से जो प्रसाद रूप में मिलता, उसे लेकर घर लौटते और उसी से गुजर चलाते थे।
(ङ) मठ भगत जी की फसलों का क्या करता था ?
उत्तर – कबीरपंथी मठ भगत जी की फसलों को चढ़ावा समझकर उसमें से कुछ अंश स्वीकार किया करता था । वह शेष फसलों को प्रसाद-रूप में भगत जी को लौटा देता था।
(च) बालगोबिन को गृहस्थ होते हुए भी भगत साधु क्यों कहा गया ?
उत्तर – बालगोबिन भगत गृहस्थ थे। परंतु उनका समूचा व्यवहार वैरागियों, भक्तों और साधुओं जैसा था। वे भक्तों की तरह अपने साहब पर असीम श्रद्धा रखते थे। इसलिए उन्हें ‘भगत’ कहना बिल्कुल सही है। वे वैरागी साधुओं की तरह किसी की कोई चीज छूते नहीं थे। सबसे सच्चा और खरा व्यवहार करते थे। उनके मन में लोभ और अहंकार नाममात्र को भी नहीं था । यहाँ तक कि वे अपनी फसलें भी पहले साहब को अर्पित करते थे। इसलिए उन्हें भगत साधु कहना बिल्कुल सही है।
3. आषाढ़ की रिमझिम है। समूचा गाँव खेतों में उतर पड़ा है। कहीं हल चल रहे हैं; कहीं रोपनी हो रही है। धान के पानी भरे खेतों में बच्चे उछल रहे हैं। औरतें कलेवा लेकर मेंड़ पर बैठी हैं। आसमान बादल से घिरा; धूप का नाम नहीं । ठंडी पुरवाई चल रही। ऐसे ही समय आपके कानों में एक स्वर-तरंग झंकार – सी कर उठी। यह क्या है – यह कौन है। यह पूछना न पड़ेगा। बालगोबिन भगत समूचा शरीर कीचड़ में लिथड़े, अपने खेत में रोपनी कर रहे हैं। उनकी अँगुली एक-एक धान के पौधे को पंक्तिबद्ध, खेत में बिठा रही है। उनका कंठ एक-एक शब्द को संगीत के जीने पर चढ़ाकर कुछ को ऊपर, स्वर्ग की ओर भेज रहा है और कुछ को इस पृथ्वी की मिट्टी पर खड़े लोगों के कानों की ओर ! बच्चे खेलते हुए झूम उठते हैं; मेंड़ पर खड़ी औरतों के होंठ काँप उठते हैं, वे गुनगुनाते लगती हैं; हलवाहों के पैर ताल से उठने लगते हैं; रोपनी करनेवालों की अँगुलियाँ एक अजीब क्रम से चलने लगती हैं! बालगोबिन भगत का यह संगीत है या जादू!
(क) इस गद्यांश में किस ऋतु का वर्णन है ? खेतों में क्या दृश्य दिखाई देता है ?
उत्तर – इस गद्यांश में वर्षा ऋतु का वर्णन है। वर्षा ऋतु के आषाढ़ मास में रिमझिम वर्षा हो रही है। सारा गाँव खेतों में आ गया है। कहीं हल चल रहे हैं तो कहीं रोपनी का काम हो रहा है। धान के खेतों में बच्चे उछल रहे हैं। औरतें कलेवा लेकर the e मेड़ों पर बैठी हैं l
(ख) गद्यांश के आधार पर प्राकृतिक वातावरण का वर्णन अपने शब्दों में करें।
उत्तर – वर्षा हो रही है, आसमान बादलों से घिरा है, धूप का नाम नहीं है, ठंडी पुरवाई चल रही है। खेतों में खूब हलचल दिखाई दे रही है l
(ग) खेतों में बच्चे और महिलाएँ क्या कर रहे थे ?
उत्तर – खेतों में बच्चे उछल-कूद और मौसम का आनंद ले रहे थे। वे गीली मिट्टी में लिथड़कर प्रसन्न हो रहे थे। औरतें किसानों के लिए नाश्ता-भोजन लेकर खेत की मेड़ पर बैठी थीं ।
(घ) बालगोबिन के संगीत के बारे में बताएँ ।
उत्तर – बालगोबिन भगत के कंठ का मधुर संगीत सभी को मुग्ध कर रहा है। बच्चे झूमते, औरतें गुनगुनाती दिखाई देती हैं। बालगोबिन के संगीत का जादू सबसे सिर चढ़कर बोलता है ।
(ङ) भगत जी के संगीत को जादू क्यों कहा गया है ?
उत्तर – बालगोबिन का संगीत – स्वर जादू-भरा था। उनके गले से निकला एक-एक शब्द मानो ऊँचाई की सीढ़ी पर चढ़ कर स्वर्ग की ओर जा रहा था । वह स्वर मिट्टी पर खड़े लोगों के कानों में जाकर उन्हें मदहोश भी कर रहा था ।
(च) आषाढ़ में खेतों में क्या चल रहा था ?
उत्तर – आषाढ़ में खेतों में धान की रोपाई चल रही थी। किसान पूरे जोर-शोर से पानी और कीचड़ में लथपथ होकर धान रोप रहे थे। बच्चे उछल-कूद कर खुशी मना रहे थे। स्त्रियाँ नाश्ता लेकर खेतों की मेड़ पर बैठी थीं।
4. कातिक आया नहीं बालगोबिन भगत की प्रभातियाँ शुरू हुई, जो फागुन तक चला करती। इन दिनों वह सबेरे ही उठते । न जाने किस वक्त जगकर वह नदी – स्नान को जाते-गाँव से दो मील दूर ! वहाँ से नहा-धोकर लौटते और गाँव के बाहर ही पोखरे के ऊँचे भिंडे पर अपनी खँजड़ी लेकर जा बैठते और अपने गाने टेरने लगते। मैं शुरू से ही देर तक सोनेवाला हूँ, किन्तु, एक दिन, माघ की उस दाँत-किटकिटानेवाली भोर में भी उनका संगीत मुझे पोखरे पर ले गया था। अभी आसमान के तारों की दीपक बुझे नहीं थे। हाँ, पूरब में लोही लग गई थी, जिसकी लालिमा को शुक्र तारा और बढ़ा रहा था। खेत, बगीचा, घर-सब पर कुहासा छा रहा था। सारा वातावरण अजीब रहस्य से आवृत्त मालूम पड़ता था। उस रहस्यमय वातावरण में एक कुश की चटाई पर पूरब मुँह, काली कमली ओढ़े, बालगोबिन भगत अपनी खँजड़ी लिए बैठे थे। उनके मुँह से शब्दों का ताँता लगा था, उनकी अँगुलियाँ खँजड़ी पर लगातार चल रही थीं। गाते-गाते इतने मस्त हो जाते, इतने सुरूर में आते, उत्तेजित हो उठते कि मालूम होता, अब खड़े हो जाएँगे। कमली तो बार-बार सिर से नीचे सरक जाती। मैं जाड़े से कँपकँपा रहा था, किन्तु, तारे की छाँव में भी उनके मस्तक के श्रमबिन्दु, जब-तब, चमक ही पड़ते।
(क) कार्तिक मास आते ही बालगोबिन भगत का क्या कार्यक्रम शुरू हो जाता है ?
उत्तर – कार्तिक मास के आते ही बालगोबिन भगत की प्रभात फेरियाँ शुरू हो जाती है जो फागुन मास तक चलती हैं अर्थात् पूरी सर्दियों में प्रभात फेरियाँ चलती है।
(ख) नदी-स्नान के बाद वे क्या करते हैं ?
उत्तर – वे बहुत सवेरे नदी-स्नान को जाते थे— गाँव से दो मील दूर। वहाँ से नहा-धोकर लौटकर गाँव के बाहर पोखरे के ऊँचे भिंडे पर अपनी खँजड़ी ले जाकर बैठ जाते और गाने लगते थे ।
(ग) खँजड़ी बजाते समय बालगोबिन की क्या हालत हो जाती है ?
उत्तर – खँजड़ी बजाते समय बालगोबिन भगत गाते भी थे और गाते-गाते वे इतना मस्त हो जाते थे कि कई बार वे इतने उत्तेजित हो जाते थे कि लगता था कि वे खड़े हो जाएँगे। उनकी कमली बार-बार सरक जाती थी ।
(घ) भोरकाल का वर्णन अपने शब्दों में करें ।
उत्तर – कार्तिक मास के भोर काल में आसमान में तारे झिलमिला रहे होते हैं। वे अभी बुझे नहीं होते। उधर पूर्व दिशा में सूरज की लाली अपने आने की सूचना देने लगती है। शुक्रतारा खिला होता है। धरती पर कुहरा-सा छाया रहता है। सारा वातावरण रहस्य – सा प्रतीत होता है ।
(ङ) भगत जी के गायन का कौन-सा गुण आपको प्रभावित करता है ?
उत्तर – भगत जी का गायन मस्ती और तल्लीनता में डूबा हुआ था। वे गाते-गाते स्वयं को भूल जाते थे। उन्हें ठंड और कुहरे की भी याद नहीं रहती थी। वे स्वयं गीत बन जाते थे। वे गाते-गाते इतने उत्तेजित हो जाते थे मानो अभी उठ खड़े होंगे। उस भीषण सर्दी में भी उनके माथे से पसीने झलकने लगते थे।
(च) वातावरण को रहस्य से आच्छादित क्यों कहा गया है ?
उत्तर – चारों ओर कुहरा-सा छा गया था। कुछ स्पष्ट नहीं दिखाई पड़ रहा था। कुहरे की ओट में क्या है- इस बारे में एक रहस्य-सा बना हुआ था। इसलिए वातावरण को रहस्यमय कहा गया है।
5. बालगोबिन भगत की संगीत-साधना का चरम उत्कर्ष उस दिन देखा गया, जिस और और बोदा-सा था, दिन उनका बेटा मरा । इकलौता बेटा था वह ! कुछ सुस्त ब किन्तु इसी कारण बालगोबिन भगत उसे और भी मानते। उनकी समझ में ऐसे आदमियों पर ही ज्यादा नजर रखनी चाहिए या प्यार करना चाहिए, क्योंकि ये निगरानी और मुहब्बत के ज्यादा हकदार होते हैं। बड़ी साध से उसकी शादी कराई थी, पतोहू बड़ी ही सुभग और सुशील मिली थी। घर की पूरी प्रबंधिका बनकर भगत को बहुत कुछ दुनियादारी से निवृत्त कर दिया था उसने। उनका बेटा बीमार है, इसकी खबर रखने की लोगों को कहाँ फुरसत ! किन्तु मौत तो अपनी ओर सबका ध्यान खींचकर ही रहती है।
(क) बालगोबिन भगत की संगीत-साधना का चरमउत्कर्ष कब देखा गया ?
उत्तर – बालगोबिन भगत की संगीत-साधना का चरमउत्कर्ष तब देखा गया, जब उनका इकलौता बेटा मरा।
(ख) भगत जी अपने बेटे से अधिक प्यार क्यों करते थे ?
उत्तर – भगत जी कहते थे कि ऐसे सुस्त और बोदे और बोटे बच्चे हमारे प्यार, स्नेह और निगरानी के अधिक हकदार होते हैं। इन पर हमें अधिक ध्यान देना चाहिए।
(ग) भगत जी की बहू कैसी थी ? उसका व्यवहार कैसा था ?
उत्तर – भगत जी की पतोहू बहुत सुंदर और सुशील थी। उसने अपनी कुशलता से सारे 1क घर का प्रबंध स्वयं सँभाल लिया था उसने भगत जी को सांसारिक कामों से बिल्कुल ही बेफिक्र कर दिया था ।
6. हमने सूना, बालगोबिन भगत का बेटा मर गया । कुतूहलवश उनके घर गया। देखकर दंग रह गया। बेटे को आँगन में एक चटाई पर लिटाकर एक सफेद कपड़े से ढाँक रखा है। वह कुछ फूल तो हमेशा ही रोपते रहते, उन फूलों में से कुछ तोड़कर उस पर बिखरा दिए हैं; फूल और तुलसीदल भी । सिरहाने एक चिराग जला रखा है। और उसके सामने जमीन पर ही आसन जमाए गीत गाए चले जा रहे हैं ! वही पुराना स्वर, वही पुरानी तल्लीनता । घर में पतोहू रो रही है, जिसे गाँव की स्त्रियाँ चुप कराने की कोशिश कर रही हैं। किन्तु, बालगोबिन भगत गाए जा रहे हैं! हाँ, गाते-गाते कभी-कभी पतोहू के नजदीक भी जाते और उसे रोने के बदले उत्सव मनाने को कहते । आत्मा परमात्मा के पास चली गई, विरहिनी अपने प्रेमी से जा मिली, भला इससे बढ़कर आनंद की कौन बात ?
(क) लेखक ने बालगोबिन भगत के घर जाकर क्या दृश्य देखा ?
उत्तर – जब बालगोबिन भगत का बेटा मरा तब लेखक ने उनके घर जाकर देखा बेटे का शव चटाई पर लिटाया गया है, उसे सफेद कपड़े से ढँक रखा है। वहाँ कुछ फूल बिखरे हुए हैं। तथा सिराहने एक दीपक जल रहा है। भगत गीत गाए जा रहे हैं । और पतोहू रो रही है।
(ख) बेटे की मृत्यु पर बालगोबिन भगत क्या कर रहे थे ?
उत्तर – बेटे की मौत पर बालगोबिन भगत प्रभु-भक्ति के गीत गा रहे थे। वे उस समय परमात्मा को याद करके उनकी आराधना कर रहे थे ।
(ग) बालगोबिन भगत अपनी पतोहू को उत्सव मनाने को क्यों कह रहे थे ?
उत्तर – बालगोबिन भगत अपनी पतोहू को बेटे की मृत्यु पर उत्सव मनाने को इसलिए कह रहे थे कि उनकी पतोहू अपने पति की मृत्यु पर रोए जा रही थी। भगत जी उसे यह समझा रहे थे कि रोओ मत। यह उत्सव का दिन है। आत्मा परमात्मा में मिल गई है।
7. बेटे के क्रिया-कर्म में तूल नहीं किया; पतोहू से ही आग दिलाई उसकी । किन्तु ज्योंही श्राद्ध की अवधि पूरी हो गई, पतोहू के भाई को बुलाकर उसके साथ कर दिया, यह आदेश देते हुए कि इसकी दूसरी शादी कर देना। इधर पतोहू रो-रोकर कहती- मैं चली जाऊँगी तो बूढ़ापे में कौन आपके लिए भोजन बनाएगा, बीमार पड़े, तो कौन एक चुल्लू पानी भी देगा ? मैं पैर पड़ती हूँ, मुझे अपने चरणों से अलग नहीं कीजिए। लेकिन भगत का निर्णय अटल था । तू जा, नहीं तो, मैं ही इस घर को छोड़कर चल दूंगा- यह थी उनकी आखिरी दलील और इस दलील के आगे बेचारी की क्या चलती ?
(क) बालगोबिन ने समाज के प्रचलित नियम के विरुद्ध क्या काम किया ?
उत्तर – समाज में स्त्री द्वारा मृतक को आग देने का नियम नहीं था, पर बालगोबिन ने पुत्र – के क्रिया कर्म के समय पतोहू द्वारा आग दिलाई। यह उस नियम के विरुद्ध था।
(ख) भगत जी सामाजिक मार्यादाओं को चुनौती देने की हिम्मत रखते थे- सिद्ध करें।
उत्तर – भगत जी सामाजिक मार्यादाओं को चुनौती देने की हिम्मत रखते थे। उन्हें पता था कि समाज पत्नी को पति की चिता में आग देने की अनुमति कदापि नहीं देता। फिर भी उन्होंने अपनी पतोहू से अपने बेटे की चिता में आग दिलवाई। इससे पता चलता है कि वे समाज की मर्यादाओं को चुनौती देने की हिम्मत रखते थे।
(ग) पतोहू ने रो-रोकर क्या कहा ?
उत्तर – पतोहू ने रो-रोकर कहा कि मैं आपकी सेवा में अपने विधवापन के दिनों को गुजार दूँगी । बुढ़ापे में आपकी देखभाल करने वाला कोई होगा। आपके लिए भोजन कौन बनाएगा तथा बीमार पड़ने पर कौन पानी पिलाएगा ?
(घ) बालगोबिन ने क्या धमकी दी ?
उत्तर – बालगोबिन ने यह धमकी दी कि यदि वह नहीं जाएगी तो वे इस घर को छोड़कर चले जाएँगे। इसके आगे पतोहू की कुछ न चल पाई।
(ङ) भगत जी ने अपनी पतोहू को उसके भाइयों के साथ वापस क्यों भेज दिया ?
उत्तर – भगत जी को लगता था कि उसकी पतोहू अभी युवती है। उसकी उम्र ऐसी नहीं है कि वह मन में उठी वासनाओं को दबाए । मन मस्त हाथी की तरह मदहोश होता है। अतः अच्छा यही है कि उसे जीवन को भोगने का अवसर दिया जाए. उसे विधवा बनाकर उसकी इच्छाएँ मारी न जाएँ ।
(च) बालगोबिन भगत नर-नारी के अंतर को नहीं मानते थे। सिद्ध करें।
उत्तर – बालगोबिन भगत नर-नारी के अंतर को महत्व नहीं देते थे। हमारे समाज में ऐसा माना जाता है कि मृतक को आग देने का अधिकार पुत्र या किसी नर को है, नारी को नहीं। नारी को तो श्मशान में भी जाने की अनुमति नहीं है। परंतु बालगोबिन ने इन मान्यताओं को न मानते हुए अपनी पतोहू से चिता की आग दिलवाई। इससे पता चलता है कि उनके मन में नर-नारी का भेद महत्व नहीं रखता।
(छ) पतोहू की चारित्रिक विशेषताएँ बताएँ ।
उत्तर – पतोहू चारित्रवान, सेवामयी और सुशील नारी थी। वह जवानी में ही विधवा हो गई थी। फिर भी उसके मन में अपना नया घर बसाने की कोई इच्छा नहीं थी। वह सती विधवा की तरह अपने ससुर की सेवा में दिन बिताना चाहती थी। उसने मानो अपने ससुर की सेवा को अपना धर्म मान लिया था। इसलिए वह कहती रही- मैं चली जाऊँगी तो बुढ़ापे में इन्हें भोजन कौन देगा, बीमारी में चुल्लू-भर पानी कौन
देगा ?
यशपाल
लखनवी अंदाज
1. गाड़ी छूट रही थी । सेकंड क्लास के एक छोटे डिब्बे को खाली समझकर, जरा दौड़कर उसमें चढ़ गए। अनुमान के प्रतिकूल डिब्बा निर्जन नहीं था। एक बर्थ क पर लखनऊ की नवाबी नस्ल के एक सफेदपोश सज्जन बहुत सुविधा से पालथी मारे बैठे थे। सामने दो ताजे-चिकने खीरे तौलिए पर रखे थे। डिब्बे में हमारे सहसा कूद जाने से सज्जन की आँखों में एकांत चिंतन में विघ्न का असंतोष दिखाई दिया। सोचा, हो सकता है, यह भी कहानी के लिए सूझ की चिंता में हो या खीरे-जैसी अपदार्थ वस्तु का शौक करते देखे जाने के संकोच में हों।
नवाब साहब ने संगति के लिए उत्साह नहीं दिखाया । हमने भी उनके सामने की बर्थ पर बैठकर आत्मसम्मान में आँखें चुरा लीं।
(क) पाठ तथा उसके लेखक का नाम लिखें।
उत्तर – पाठ का नाम- लखनवी अंदाज
लेखक का नाम- यशपाल
(ख) लेखक के आने से पहले बैठे सज्जन की क्या प्रतिक्रिया हुई ?
उत्तर – जैसे ही लेखक सेकंड क्लास के डिब्बे में चढ़ा, लखनवी नवाब-से सज्जन असुविधा महसूस करने लगे। ऐसे लगा मानो उनके एकांत में बाधा पड़ गई हो। वे मानो खीरे खाने के संकोच में पड़ गए। उन्होंने लेखक के साथ संगति करने का उत्साह नहीं दिखाया ।
(ग) लेखक के लिए कौन-सी स्थिति आशा के अनुकूल नहीं थी और क्यों ?
उत्तर – लेखक ने आशा की थी कि रेल के सेकंड क्लास में कोई यात्री नहीं होगा। परन्तु उसकी इस आशा के विरुद्ध उसमें एक नवाबी स्वभाव वाले सफेदपोश सज्जन सवार थे। लेखक ने सोचा था कि वह अकेले में आराम से नई कविता के बारे में सोचेंगे। परन्तु उसकी यह सोच धरी की धरी रह गई।
(घ) लेखक का डिब्बे के बारे में क्या अनुमान था और वह कैसा निकला ?
उत्तर – लेखक का अनुमान था कि सेकंड क्लास का वह छोटा-सा डिब्बा खाली होगा। पर उसका अनुमान गलत निकला। डिब्बा निर्जन नहीं था। वहाँ एक आदमी था।
(ङ) डिब्बे में कौन बैठे थे ? उनका भाव कैसा था ?
उत्तर – डिब्बे में लखनऊ की नवाबी नस्ल का एक सफेदपोश सज्जन पालथी मारे बैठे थे। लेखक के अचानक आ जाने से उस सज्जन की आँखों ने असंतोष का भाव दिखाई दिया।
2. नवाब साहब ने बहुत करीने से खीरे की फाँकों पर जीरा-मिला नमक और लाल मिर्च की सुर्खी बुरक दी। उनकी प्रत्येक भाव-भंगिमा और जबड़ों के स्फुरण से स्पष्ट था कि उस प्रक्रिया में उनका मुख खीरे के रसास्वादन की कल्पना से प्लावित हो रहा था ।
हम कनखियों से देखकर सोच रहे थे, मियाँ रईस बनते हैं, लेकिन लोगों की नजरों से बच सकने के ख्याल में अपनी असलियत पर उतर आए हैं। नवाब साहब ने फिर एक बार हमारी ओर देख लिया, ‘वल्लाह, शौक कीजिए, लखनऊ का बालम खीरा है।
नमक-मिर्च छिड़क दिए जाने से ताजे खीरे की पनियाती फाँकें देखकर पानी मुँह में जरूर आ रहा था, लेकिन इनकार कर चुके थे। आत्मसम्मान निबाहना ही उचित समझा, उत्तर दिया, ‘शुक्रिया, इस वक्त तलब महसूस नहीं हो रही, मेदा भी जरा कमजोर है, किबला शौक फरमाएँ ।
(क) लेखक नवाब साहब की किस बात को उनकी असलियत मान रहा था ?
उत्तर – लेखक मान रहा था कि ये नवाब साहब ऊपर से अपने आपको रईस मानते हैं, किन्तु खाते हैं खीरे। वे खीरे, जो बिल्कुल साधारण लोग खाते हैं। इसी से पता चलता है कि ये असल अमीर और विशेष नहीं हैं। इनका चुपके-चुपके सेकंड क्लास में सफर करना भी उनकी असलियत को प्रकट करता है।
(ख) लेखक ने क्या कहकर खीरा खाने से मना किया ?
उत्तर – लेखक ने नवाब को कहा कि इस समय उसे खीरा खाने की इच्छा नहीं है। वैसे भी उसका हाजमा कमजोर है। वह खीरे को आसानी से पचा नहीं पाएगा।
(ग) क्या नवाब साहब के व्यवहार से रईसी के व्यंग्य की बू आ रही थी ?
उत्तर – नवाब साहब के व्यवहार से रईसी तो छलक रही थी किन्तु उसमें ऐसी कोई कचोटने वाली बात नहीं थी कि मन में व्यंग्य पैदा हो । वास्तव में लेखक के मन में नवाब की नवाबी शान की ग्रंथि बैठी थी, इसलिए उसे उसकी हर चीज में रईसी का व्यंग्य नजर आ रहा था ।
(घ) खीरे पर जीरा और नमक बुरकते हुए नवाब साहब को कैसा लग रहा था ?
उत्तर – खीरे की फाँकों पर जीरे और लाल मिर्च की सुर्खी बुरकते हुए नवाब साहब मन-ही-मन खीरे का स्वाद ले रहे थे। उनकी भाव-भंगिमा और जबड़े की स्थिति स्पष्ट बता रही थी कि उन्होंने मन-ही-मन खीरा का पूरा स्वाद ले लिया था । इस कारण उनके मुँह में पानी भर आया था।
(ङ) लेखक और नवाब साहब में से किसका व्यवहार अधिक भला और सामाजिक है ?
उत्तर – लेखक और नवाब दोनों में नवाब का व्यवहार अधिक भला और सामाजिक है। वह अच्छे सहयात्री की भाँति लेखक से बातचीज शुरू करता है। उसे खीरा खाने का निमंत्रण देता है। एक बार मना करने पर फिर से निमंत्रण दोहराता है। लेखक केवल मन में गाँठ रखने के कारण उस निमंत्रण को ठुकराता है। दूसरी बार निमंत्रण इसलिए ठुकराता है क्योंकि वह पहले ठुकरा चुका था । वह अंत तक अपनी जिद पर अड़ा रहता है ।
3. नवाब साहब ने सतृष्ण आँखों से नमक-मिर्च के संयोग से चमकती खीरे की फाँकों की ओर देखा। खिड़की के बाहर देखकर दीर्घ निश्वास लिया। खीरे की एक फाँक उठाकर होठों तक ले गए। फाँक को सूँघा । स्वाद के आनंद में पलकें मुँद प गई। मुँह में भर आए पानी का घूँट गले से उतर गया। तब नवाब साहब ने फाँक को खिड़की से बाहर छोड़ दिया। नवाब साहब खीरे की फाँकों को नाक के पास ले जाकर, वासना से रसास्वादन कर खिड़की के बाहर फेंकते गए। नवाब साहब ने खीरे की सब फाँकों को खिड़की के बाहर फेंककर तौलिए से हाथ और होंठ पोंछ लिए और गर्व से गुलाबी आँखों से हमारी ओर लिया ।
(क) नवाब साहब ने खीरे की फाँकों को कैसे देखा ?
उत्तर – नवाब साहब ने खीरे की फाँकों को सतृष्णा आँखों से देखा। उस समय खीरे की फाँकें नमक-मिर्च के संयोग से चमक रही थी ।
(ख) खीरे की फाँक उठाकर उन्होंने क्या किया ?
उत्तर – नवाब साहब ने खीरे की फाँक उठाई और उसे होठों तक ले गए, फाँक को सूँघा और उसके स्वाद से उनकी पलके मुँद गईं । मुँह में आया पानी का घूँट गले से उतर गया । फिर खीरे की फाँकों को खिड़की से बाहर गिरा दिया ।
(ग) नवाब साहब ने खीरे की फाँकों को फेंककर क्या किया ?
उत्तर – नवाब साहब ने खीरे की सब फाँकों को खिड़की से बाहर फेंककर तौलिए से हाथ और होंठ पोंछ लिए। इसके बाद गर्व से अपनी गुलाबी आँखों से लेखक की ओर देखा ।
(घ) नवाब साहब किस कारण गर्व अनुभव कर रहे थे ?
उत्तर – नवाब साहब इस बात पर गर्व अनुभव कर रहे थे कि वे खीरे की गंध और हैं। स्वाद-कल्पना से ही संतुष्ट हो जाते हैं । अतः वे आम इनसान नहीं वे कचर-कचर खाने वालों से ऊँचे हैं। उनकी जीवन शैली बहुत ऊँची है।
(ङ) नवाब साहब की गुलाबी आँखें लेखक को क्या कह रह थीं ?
उत्तर – नवाब साहब की गुलाबी आँखें लेखक को अपने खानदानी शौक और रईसी जीवन-शैली का अहसास करा रही थीं। वे बताना चाह रही थीं कि उनकी बात ही कुछ और है। वे सामान्य किस्म के आदमी नहीं हैं।
(च) नवाब साहब के हाव-भावों का वर्णन करें।
उत्तर – नवाब साहब चमकीती खीरे की फाँकों को उठाकर मुँह तक ले जाते थे और सूँघते थे। स्वाद के आनंद में उनकी पलकें मुँद जाती थीं। मुँह में आया पानी गले में उतर रहा था ।
(छ) नवाब साहब ने खीरे का स्वाद किस प्रकार लिया ?
उत्तर – नवाब साहब ने खीरे की कटी फाँकों पर नमक-मिर्च बुरक कर उन्हें प्यासी नजरों से देखा। उसके स्वाद और गंध की कल्पना में ‘वाह’ कह उठे। फिर उसे होठों तक ले गए। उन्होंने एक-एक फाँक को सूँघा । स्वाद के कारण उनकी पलकें मुँद गई। मुँह में पानी भर आया। वे उस पानी को गटक गए। खीरे को खिड़की से बाहर फेंक दिया।
(ज) इसमें किस पर क्या व्यंग्य है ?
उत्तर – एब्स्ट्रैक्ट’ का अर्थ है- अशरीरी; जिसका भौतिक स्वरूप न हो, केवल सूक्ष्म अस्तित्व हो। इस शब्द के माध्यम से लेखक ने नवाबों की काल्पनिक जीवन-शैली तथा नई कहानी के लेखकों की अति सूक्ष्म धारणाओं व्यंग्य किया है।
4. हम गौर कर रहे थे, खीरा इस्तेमाल करने के इस तरीके को खीरे की सुगंध और स्वाद की कल्पना से संतुष्ट होने का सूक्ष्म, नफीस या एब्स्ट्रैक्ट तरीका जरूर कहा जा सकता है परंतु क्या ऐसे तरीके से उदर की तृप्ति भी हो सकती है ? नवाब साहब की ओर से भरे पेट के ऊँचे डकार का शब्द सुनाई दिया और नवाब साहब ने हमारी ओर देखकर कह दिया, ‘खीरा लजीज होता है लेकिन होता है सकील, नामुराद मेदे पर बोझ डाल देता है।’
ज्ञान-चक्षु खुल गए। पहचाना- ये हैं नयी कहानी के लेखक ।
(क) नवाब की जीवन-शैली देखकर लेखक के मन में क्या प्रश्न उठा ?
उत्तर – नवाब की जीवन शैली देखकर लेखक के मन में यह प्रश्न उठा कि केवल स्वाद और सुगंध की कल्पना मात्र से इन नवाबों का पेट कैसे भरता होगा ? जब उन्होंने खीरा सूँघकर फेंक ही दिया तो उनकी भूख कैसे शांत हुई होगी ?
(ख) नवाब साहब ने डकार लेकर क्या व्यक्त किया ?
उत्तर – नवाब साहब ने डकार लेकर यह व्यक्त किया कि उनका पेट सुगंध और स्वाद की कल्पना से ही भर गया है। शायद नवाब यह कहना चाहते हैं कि हम बहुत ऊँचे, श्रेष्ठ, सूक्ष्म और स्वाद प्रिय व्यक्ति हैं। हम गधों की तरह नहीं खाते।
(ग) लेखक ने किन्हें नयी कहानी का लेखक कहा है ?
उत्तर – लेखक ने लखनवी नवाब जैसों को नयी कहानी के लेखक कहा हैं क्योंकि नयी कहानी के लेखक भी एब्स्ट्रैक्ट यानि सूक्ष्म कहानी लिखने की वकालत करते हैं। (यहाँ व्यंग्य है)
(घ) लेखक के ज्ञान-चक्षु कैसे खुले ?
उत्तर – लेखक के ज्ञान-चक्षु इस प्रकार खुले कि जब बिना खीरा खाए पेट भरा जा सकता है तो बिना पात्र, घटना के कहानी भी लिखी जा सकती होगी। उन लेखकों के संतुष्टि भी नवाब की तरह काल्पनिक एवं बनावटी होती होगी।
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
मानवीय करुणा की दिव्य चमक
1. फादर को जहरबाद से नहीं मरना चाहिए था। जिसकी रगों में दूसरों के लिए मिठास भरे अमृत के अतिरिक्त और कुछ नहीं था उसके लिए इस जहर का विधान क्यों हो ? यह सवाल किस ईश्वर से पूछें ? प्रभु की आस्था ही जिसका अस्तित्व था । वह देह की इस यातना की परीक्षा की उम्र की आखिरी देहरी पर क्यों दें ? एक लंबी, पादरी के सफेद चोगे से ढकी आकृति सामने हैं- गोरा रंग, सफेद झाँईं मारती भूरी दाढ़ी, नीली आँखे-बाँहे खोल गले लगाने को आतुर । इतनी ममता, इतना अपनत्व । इस साधु में अपने हर एक प्रियजन के लिए उमड़ता रहता था। मैं पैंतीस साल से इसका साक्षी था। तब भी जब वह इलाहाबाद में थे और तब भी जब वह दिल्ली आते थे। आज उन बाँहों का दबाव मैं अपनी छाती पर महसूस करता हूँ।
(क) पाठ तथा उसके लेखक का नाम लिखें।
उत्तर – पाठ का नाम – मानवीय करुणा की दिव्य चमक
लेखक का नाम- सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ।
(ख) फादर की मृत्यु किससे हुई थी ? लेखक को यह बुरा क्यों लगा ?
उत्तर – फादर की मृत्यु जहरबाद अर्थात् ग्रैंग्रीन नामक रोग से हुई। उनका एक फोड़ा पक गया था और जहर शरीर में फैल गया था। इसी से उनकी मृत्यु हो गई | लेखक को यह बुरा इसलिए लगा क्योंकि फादर जीवन भर दूसरों के लिए मिठास भरा अमृत बाँटते रहे थे और भगवान ने उन्हीं के लिए जहर का विधान कर दिया ।
(ग) फादर की व्यक्तित्व के बारे में क्या बताया गया है ?
उत्तर – फादर के व्यक्तित्व के बारे में बताया गया है कि वे लंबे कद के थे। उनका शरीर सफेद चोगे में ढका रहता था। उनका रंग गोरा था और उनकी दाढ़ी सफेद झाईं मारती भूरी थी। उनकी आँखें नीली थीं। उनका व्यक्तित्व आकर्षक था ।
(घ) अपने प्रियजनों के लिए फादर के मन में क्या भाव रहता था ?
उत्तर – अपने प्रियजनों के लिए फादर के मन में ममता और अपनत्व के भाव रहते थे। वे साधु जैसे होते हुए भी अपने लोगों के लिए प्रेमभाव रखते थे।
(ङ) लेखक के साथ फादर का व्यवहार कैसा रहता था ?
उत्तर – लेखक के साथ फादर का व्यवहार अत्यंत आत्मीयता से भरा था। फादर जब भी दिल्ली आते, लेखक से मिलने अवश्य आते थे। वे उनसे आलिंगनबद्ध होकर मिलते थे। लेखक अपनी छाती पर उनका दबाव अनुभव करते थे ।
(च) जहरबाद किस रोग को कहते है ?
उत्तर – जहरबाद गैंग्रीन नामक रोग को कहते हैं। इसमे शरीर में जहरीला फोड़ा हो जाता है जिससे असहय दर्द होने लगता है।
(छ) लेखक क्यों कहते हैं कि फादर को जहरबाद से नहीं मरना चाहिए था ?
उत्तर – फादर बुल्के का पूरा जीवन दूसरों को प्यार, अपनत्व और ममता का अमृत बाँटते-बाँटते बीता। ऐसे मधुर एवं त्यागी व्यक्ति के शरीर में जहरीला फोड़ा होना उनके साथ अन्याय का ही सूचक है।
2. फादर को याद करना एक उदास शांत संगीत को सुनने जैसा है। उनको देखना करुणा के निर्मल जल में स्नान करने जैसा था और उनसे बात करना कर्म के संकल्प से भरना था। मुझे ‘परिमल’ के वे दिन याद आते हैं जब हम सब एक पारिवारिक रिश्ते में बँधे जैसे थे। जिसके बड़े फादर बुल्के थे। हमारे हँसी-मजाक में वह निर्लिप्त शामिल रहते, हमारी गोष्ठियों में वह गंभीर बहस करते, हमारी रचनाओं पर बेबाक राय और सुझाव देते और हमारे घरों के किसी भी उत्सव और संस्कार कार में बड़े भाई और पुरोहित जैसे खड़े हो हमें अपने आशीषों से भर देते। मुझे अपना बच्चा और फादर का उसके मुख में पहली बार अन्न डालना याद आता है और नीली आँखों की चमक में तैरता वात्सल्य भीजैसे किसी ऊँचाई पर देवदारु की छाया में खड़े हों।
(क) फादर को याद करना कैसा है और क्यों ?
उत्तर – फादर बुल्के को याद करना एक उदास शांत संगीत को सुनने जैसा है। उनकी Stay याद आते ही उदासी घिर आती है, पर वे संगीत की तरह झंकृत करने वाले थे। वे करुणा के सागर थे ।
(ख) ‘परिमल’ क्या है ? उसके याद करने का क्या कारण है ?
उत्तर – ‘परिमल’ एक साहित्यिक संस्था है जिसकी स्थापना 10 दिसंबर, 1944 को प्रयोग विश्वविद्यालय के साहित्यिक अभिरुचि रखने वाले उत्साही युवकों ने की । लेखक को ‘परिमल’ के दिन इसलिए याद आते हैं क्योंकि तब सभी लोग एक प्रकार के पारिवारिक रिश्तों में बँधे रहते थे।
(ग) फादर किस प्रकार आत्मीयता दर्शाते थे ?
उत्तर – फादर बुल्के अपने परिचितों के घरों में होने वाले उत्सवों और संस्कारों में बड़े भाई पुरोहित की तरह शामिल होकर आत्मीयता दर्शाते थे ।
(घ) लेखक को क्या घटना याद आती है ?
उत्तर – लेखक को वह घटना याद आती है जब फादर बुल्के ने लेखक के बच्चे के मुख में पहली अन्न डाला था । अर्थात् अन्नाप्राश किया था। तब उनकी नीली आँखों में वात्सल्य तैर रहा था ।
(ङ) लेखक के जीवन में फादर का स्थान सर्वोपरि था । सिद्ध करें।
उत्तर – लेखक फादर को अपने जीवन में सर्वोच्च स्थान देता था। उसने अपने पुत्र के मुख में पहली बार अन्न डालने का पवित्र संस्कार फादर के हाथों से कराया । यह कार्य सदा किसी पूज्य पुरोहित से कराया जाता है। लेखक ने फादर को यह सम्मान दिया। इससे पता चलता है कि लेखक के जवीन में फादर का स्थान सर्वोच्च था।
(च) लेखक फादर को देवदारु की छाया-सा क्यों कहता है?
उत्तर – लेखक फादर को देवदारु की छाया-सा कहता है। कारण यह कि फादर ने सदा परिमल के सभी सदस्यों को अपना स्नेह और आशीर्वाद दिया। उन्होंने सभी के सुख-दुख में साथ निभाया। उनका जीवन करुणा, स्नेह और ममता से परिपूर्ण रहा।
(छ) परिमल’ में क्या होता था ?
उत्तर – परिमल में साहित्यिक चर्चाएँ हुआ करती थीं। हिन्दी की कविताओं, कहानियों, उपन्यासों और नाटकों पर खुली बहसें हुआ करती थीं। विभिन्न साहित्यिक रचनाओं पर गंभीर बहसें तथा बेबाक राय दी जाती थी।
3. फादर बुल्के संकल्प से सन्यासी थे। कभी-कभी लगता है वह मन में सन्यासी नहीं थे। रिश्ता बनाते थे तो तोड़ते नहीं थे। दसियों साल बाद मिलने के बाद भी उसकी गंध महसूस होती थी। वह जब भी दिल्ली आते जरूर मिलते-खोजकर, समय निकालकर, गर्मी, सर्दी, बरसात झेलकर मिलते, चाहे दो मिनट के लिए ही सही। यह कौन सन्यासी करता है ? उनकी चिंता हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखने की चिंता थी। हर मंच में इसकी तकलीफ बयान करते, इसके लिए अकाट्य तर्क देते। बस इसी एक सवाल पर उन्हें झुंझलाते देखा है और हिन्दी वालों द्वारा ही हिंदी की उपेक्षा पर दुख करते उन्हें पाया है। घर-परिवार के बारे में, निजी दुख-तकलीफ के बारे में पूछना उनका स्वभाव था और बड़े से बड़े दुख में उनके मुख से सांत्वना के जादू भरे दो शब्द सुनना एक ऐसी रोशनी से भर देता था जो किसी गहरी तपस्या से जनमती है। ‘हर मौत दिखाती है जीवन को नयी राह ।’ मुझे अपनी पत्नी और पुत्र की मृत्यु याद आ रही है और फादर के शब्दों से झरती विरल शांति भी ।
(क) ‘फादर बुल्के सन्यासी थे भी और नहीं भी ‘ – क्यों ?
उत्तर – फादर बुल्के संकल्प से तो सन्यासी थे, पर कभी-कभी लगता था कि वे मन से सन्यासी नहीं थे। वे रिश्ते में विश्वास रखते थे, तोड़ते नहीं थे। वे गर्मी, सर्दी और बरसात झेलकर भी लोगों से मिलने जाते थे, चाहे दो मिनट के लिए ही सही। यह काम प्रायः सन्यासी नहीं करते। इसी मायने में वे सन्यासी नहीं थे।
(ख) हिन्दी के लिए फादर के मन में क्या भाव था ?
उत्तर – हिन्दी के लिए फादर बुल्के के मन में बहुत उच्च भाव था । वे उसे राष्ट्रभाषा के रूप में देखना चाहते थे। वे हिन्दी के पक्ष में अकाट्य तर्क देते थे । हिन्दी की उपेक्षा कर वे दुःखी हो जाते थे।
(ग) फादर बुल्के पारिवारिक बंधु जैसे थे- सिद्ध करें ।
उत्तर – फादर बुल्के सन्यासी कम, पारिवारिक बंधु अधिक थे। वे लेखक के साथ गहरा पारिवारिक लगाव रखते थे। वे जब भी दिल्ली आते थे, उन्हें खोज – ढूँढ़कर उनसे मिलने अवश्य आते थे। मिलने पर उनके व्यक्तिगत सुख-दुख की हर बात करते इथे। बड़े-से-बड़े दुख में उनके मुख से निकले सांत्वना के शब्द बहुत शांतिदायी होते थे ।
(घ) फादर के शब्दों से विरल शान्ति झरती थी कैसे ?
उत्तर – जब कोई व्यक्ति दुःखी होता तब फादर के शब्दों में विरल शान्ति झरती प्रतीत होती थी। लेखक की पत्नी और पुत्र की मृत्यु पर उन्होंने सांत्वना भरे शब्दों से लेखक को धैर्य बँधाया था। उनसे उन्हें असीम शान्ति का अनुभव हुआ था।
(ङ) फादर बुल्के किस बात के लिए दुख प्रकट करते थे और किसके लिए सहानुभूति ?
उत्तर – फादर बुल्के हिंदी की उपेक्षा करने वाले हिंदीभाषियों के प्रति दुख प्रकट करते थे। वे किसी भी आत्मीय का दुख देखकर सांत्वना प्रकट किया करते थे। उन्होंने लेखक की पत्नी और पुत्र की मृत्यु के अवसर पर गहरी सहानुभूति प्रकट की।
(च) फादर बुल्के और लेखक के बीच कैसे सम्बन्ध थे ?
उत्तर – फादर बुल्के और लेखक के बीच गहरे आत्मीय सम्बन्ध थे। फादर लेखक से ग्र गहरा लगाव रखते थे। वे जब भी दिल्ली आते थे, लेखक को ढूंढकर उससे मिलते अवश्य थे। मिलने पर वे लेखक के घर-परिवार और व्यक्तिगत सुख-दुख के बारे में अवश्य पूछते थे। दुख के क्षणों में उनके मुख से निकला एक-एक शब्द गहरी शांति देता था। वास्तव में उनका व्यक्तित्व छायादार था । अतः वे लेखक को अपनी छाया का सुख प्रदान किया करते थे। लेखक सालों बाद मिलने पर भी उनकी गंध को महसूस करता था।
4. मैं नहीं जानता इस सन्यासी ने कभी सोचा था या नहीं कि उसकी मृत्यु पर कोई रोएगा। लेकिन उस क्षण रोने वालों की कमी नहीं थी। (नम आँखों को गिनना स्याही फैलाना है।)
इस तरह हमारे बीच से वह चला गया जो हममें से सबसे अधिक छायादार फल-फूल गंध से भरा और सबसे अलग, सबका होकर, सबसे ऊँचाई पर, मानवीय करुणा की दिव्य चमक में लहलहाता खड़ा था। जिसकी स्मृति हम सबके मन में जो उनके निकट थे किसी यज्ञ की पवित्र आग की आँच की तरह आजीवन बनी रहेगी। मैं उस पवित्र ज्योति की याद में श्रद्धानत हूँ।
(क) किसे सबसे अधिक छायादार, फल-फूल भरा कहा गया है और क्यों ?
उत्तर – फादर कामिल बुल्के को सबसे अधिक छायादार और फल-फूल-भरा कहा गया है 1 उन्होंने अपने सभी परिचितों को स्नेह, करुणा, वात्सल्य और सांत्वना दी थी, इसलिए उन्हें छायादार पेड़ के समान कहा गया है। उन्हें फल-फूल भरा इसलिए कहा गया है क्योंकि वे स्वयं बहुत अच्छे साहित्यकार, विद्यार्थी और कोशकार विद्वान थे। उन्होंने हिन्दी साहित्य को बहुत कुछ दिया।
(ख) फादर को सबसे अलग सबसे ऊँचा और सबका अपने क्यों कहा गया है ?
उत्तर – फादर को सबसे ऊँचा इसलिए कहा गया है क्योंकि वे औरों से महान थे। वे सबको अपनी छाया और करुणा प्रदान किया करते थे। फादर सबसे अलग इसलिए थे क्योंकि वे ईसाई पादरी अर्थात् सन्यासी होने के कारण अपने सब संसारी साथियों से अलग थे । वे सन्यासी के रूप में भी अन्य सन्यासियों से
अलग थे। उनका मन प्रेम के रिश्ते बनाना और निभाना जानता था। वे सबके अपने थे। इसलिए थे क्योंकि वे सबको अपनत्व देते थे। बदले में लोग उनसे प्रेम करते थे।
(ग) यज्ञ की पवित्र आग की तरह’ कहने का क्या आशय है ?
उत्तर – ‘यज्ञ की पवित्र आग की तरह’ कहने का आशय है- फादर कामिल बुल्के का जीवन बहुत प पवित्र था। वे कभी काम-क्रोध आदि वासनाओं के लिए नहीं जिए। वे मानव-प्रेम और करुणा के लिए जिए । उनका जीवन तपस्यापूर्ण था।
(घ) लेखक क्या बात नहीं जानता ?
उत्तर – लेखक यह बात नहीं जानता कि इस सन्यासी अर्थात् फादर बुल्के ने कभी सोचा भी न होगा कि उनकी मृत्यु पर कोई रोने वाला भी भी होगा। लेकिन आशा के विपरीत उनकी मृत्यु पर रोने वालों की कमी न थी ।
(ङ) फादर कामिल बुल्के ने सबका मन जीत लिया था – सिद्ध करें।
उत्तर – फादर कामिल बुल्के ने अपने सभी परिचितों का मन मोह लिया था। उनके सभी साथी-परिचित उनसे गहरा प्रेम करते थे। यही कारण है कि उनकी मृत्यु पर बहुत लोग रोए ।
(च) मानवीय करुणा की दिव्य चमक लहलहाने वाला किसे कहा गया है और क्यों ?
उत्तर – फादर कामिल बुल्के को मानवीय करुणा की दिव्य चमक लहलहाने वाला कहा गया है। क्योंकि फादर के व्यक्तित्व में मानव के दुख को समझने और उसे सांत्वना देने की दिव्य शक्ति थी। यह शक्ति उनके चेहरे पर भी विराजती थी । उनका सारा व्यवहार इसी मानवीय करुणा के कारण गरिमाशाली थी ।
मन्नू भंडारी
एक कहानी यह भी
1. जन्मी तो मध्यप्रदेश के भानपुरा गाँव में थी, लेकिन मेरी यादों का सिलसिला शुरू होता है अजमेर के ब्रह्मपुरी मोहल्ले के उस दो मंजिला मकान से, जिसकी ऊपरी मंजिल में पिताजी का साम्राज्य था, जहाँ वे निहायत अव्यवस्थित ढंग से फैली-बिखरी पुस्तकें-पत्रिकाओं और अखबारों के बीच या तो कुछ पढ़ते रहते थे या फिर ‘डिक्टेशन’ देते रहते थे। नीचे हम सब भाई-बहिनों के साथ रहती थीं हमारी बेपढ़ी-लिखी व्यक्तित्वविहीन माँ… सवेरे से शाम तक हम सबकी इच्छाओं और पिताजी की आज्ञाओं का पालन करने के लिए सदैव तत्पर । अजमेर से पहले पिताजी इंदौर में थे, जहाँ उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी, सम्मान था, नाम था । कांग्रेस के साथ-साथ वे समाज-सुधार के कामों से भी जुड़े हुए थे। शिक्षा के वे केवल उपदेश ही नहीं देते थे, बल्कि उन दिनों आठ-आठ, दस-दस विद्यार्थियों को अपने घर रख कर पढ़ाया है, जिनमें से कई तो बाद में ऊँचे-ऊँचे ओहदों पर पहुँचे। ये उनकी खुशहाली के दिन थे और उन दिनों उनकी दरिया- दिली के चर्चे भी कम नहीं थे। एक ओर बेहद कोमल और संवेदनशील व्यक्ति थे तो दूसरी और बेहद क्रोधी और अहंवादी ।
(क) पाठ तथा उसके लेखक का नाम लिखें।
उत्तर – पाठ का नाम- एक कहानी यह भी
लेखिका का नाम – मन्नू भंडारी ।
(ख) लेखिका का जन्म कहाँ हुआ ? यादों का सिलसिला कहाँ से शुरू होता है ?
उत्तर – लेखिका का जन्म मध्यप्रदेश के एक गाँव भानपुरा में हुआ लेकिन उसकी यादों का सिलसिला अजमेर के ब्रह्मपुरी मुहल्ले के दो मंजिला मकान से शुरू होता है। वहीं लेखिका का बचपन बीता।
(ग) पिताजी क्या काम करते थे ?
उत्तर – पिताजी मकान की ऊपरी मंजिल पर रहते थे। वहीं उनकी पुस्तकें, पत्रिकाएँ बेतरतीब ढंग से बिखरी पड़ी रहती थी। वे हर समय या तो कुछ पढ़ते रहते थे या डिक्टेशन देते रहते थे।
(घ) इस गद्यांश में माँ के बारे में क्या बताया गया है ?
उत्तर – इस गद्यांश में लेखिका ने बताया है कि माँ अनपढ़ थीं । वे व्यक्तित्वविहीन थीं अर्थात् उनका अपना कोई व्यक्तित्व नहीं था । वे सवेरे से शाम तक या तो बच्चों की इच्छाओं की पूर्ति करती रहती थीं या पिताजी की आज्ञाओं के पालन में लगी रहती थीं।
(ङ) पिताजी के किन-किन गुणों का उल्लेख इस गद्यांश में हुआ है ?
उत्तर – लेखिका ने पिताजी के गुणों का उल्लेख करते हुए बताया है कि अजमेर आने से पहले पिताजी इंदौर में थे। वहाँ समाज में उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। वे कांग्रेस के साथ-साथ समाज-सुधार के कार्यों से जुड़े थे। वे गरीब छात्रों को अपने घर रखकर पढ़ाई करवाते थे। उनकी पढ़ाई का खर्चा उठाते थे। वे एक दरियादिल व्यक्ति थे। वे बेहद कोमल और संवेदनशील व्यक्ति होते हुए भी कभी-कभी क्रोध और अहंवादी रूप ले लेते थे ।
2. पर यह सब तो मैंने केवल सुना। देखा, तब तो इन गुणों के भग्नावशेषों को ढोते पिता थे। एक बहुत बड़े आर्थिक झटके के कारण वे इंदौर से अजमेर आ गए थे, जहाँ उन्होंने अपने अकेले के बल बूते और हौसले से अंग्रेजी-हिन्दी शब्दकोश (विषयवार) के अधूरे काम को आगे बढ़ाना शुरू किया जो अपनी तरह का पहला और अकेला शब्दकोश था। इसने उन्हें यश और प्रतिष्ठा तो बहुत Sos दी, पर अर्थ नहीं और शायद गिरती आर्थिक स्थिति ने ही उनके व्यक्तित्व के Pa सारे सकारात्मक पहलुओं को निचोड़ना शुरू कर दिया। सिकुड़ती आर्थिक स्थिति के कारण और अधिक विस्फारित उनका अहं उन्हें इस बात तक की अनुमति नहीं देता था कि वे कम-से-कम अपने बच्चों को तो अपनी आर्थिक विवशताओं का भागीदार बनाएँ। नवाबी आदतें, अधूरी महत्वाकांक्षाएँ, हमेशा शीर्ष पर रहने के बाद हाशिए पर सरकते चले जाने की यातना क्रोध बनकर हमेशा माँ को कँपाती-थरथराती रहती थी। अपनों के हाथों विश्वासघात क जाने कैसी गहरी चोटें होंगी वे जिन्होंने आँख मूँदकर सबका विश्वास करने वाले पिता को बाद के दिनों में इतना शक्की बना दिया था कि जब-तब हम लोग भी उसकी चपेट में आते ही रहते।
(क) अजमेर में आकर पिताजी ने क्या काम किया ?
उत्तर – अजमेर में आकर उन्होंने आर्थिक कष्ट झेलकर भी अकेले अपने बलबूते पर अंग्रेजी-हिन्दी शब्द-कोश (विषयवार) तैयार किया। इससे उन्हें यश और प्रतिष्ठा तो काफी मिली, पर धन नहीं मिल सका।
(ख) पिताजी के परिवर्तित व्यक्तित्व का लेखिका और उसकी माँ पर क्या प्रभाव था ?
उत्तर – पिताजी के परिवर्तित व्यक्तित्व को लेखिका कभी अपना आदर्श नहीं बना स सकी। पिताजी शीर्ष पर रहने के बाद हाशिए पर सरकने की यातना को क्रोध को रूप में माँ पर निकालते थे। इसी कारण माँ हर समय काँपती-थरथराती रहती थीं।
(ग) लेखिका की माँ किस कारण डरी-डरी रहती थी ?
उत्तर – लेखिका की माता स्वभाव से ही दब्बू थीं। वे मानो पिता की आज्ञाकारिणी सेविका थीं। परंतु जब लेखिका के पिता आर्थिक संकट में Hae में थे। उन । उनका अहंकार अधिक नुकीला हो गया था। पैसे न होने पर भी आदतें नवाबी थीं। महत्त्वकांक्षाएँ पूरी न हो पाई थीं। हमेशा प्रधान पद पर रहने के बावजूद आज उनका स्थान कम होता रहा था। इस कारण वे हमेशा क्रोध में रहने लगे थे। अतः माँ स्वाभाविक रूप से काँपती-थरथराती रहती थी ।
(घ) ‘भग्नावशेषों को ढोते पिता’ का आशय स्पष्ट करें।
उत्तर – इसका अर्थ है— अपने पुराने वैभव के बचे-खुचे अंशों को उनकी यादों के सहारे जीते हुए पिता। इससे पता चलता है कि इस समय वे जिंदगी को जैसे-तैसे काट रहे थे। उनकी वर्तमान दशा जर्जर थी | मन में पुराने वैभव के नष्ट होने का दुख था ।
(ङ) पिता अपनी आर्थिक दुरवस्था के बारे में किसी को कुछ बताते क्यों न थे ?
उत्तर – पिता वैसे ही अहंकारी थे। उन्हें अपने धन-वैभव का अहंकार था। अब उनकी आर्थिक स्थिति डाँवाडोल हो गई थी। इससे उनका अहंकार और अधिक कुंठित और नुकीला हो गया था। इस कारण वे किसी बच्चे के सामने अपनी बदहाली का रोना रोकर छोटे नहीं होना चाहते थे।
3. पिता जी के जिस शक्की स्वभाव पर मैं कभी भन्ना-भन्ना जाती थी, आज एकाएक अपने खंडित विश्वासों की व्यथा के नीचे मुझे उनके शक्की स्वभाव की झलक ही दिखाई देती है ……. बहुत ‘अपनों’ के हाथों विश्वासघात की गहरी व्यथा से उपजा शक । होश सँभालने के बाद से ही जिन पिता जी से किसी-न-किसी बात पर हमेशा मेरी टक्कर ही चलती रही, वे तो न जाने कितने । रूपों में मुझमें हैं कहीं कुंठाओं के रूप में, कही प्रतिक्रिया के रूप में तो कही प्रतिच्छाया के रूप में केवल बाहरी भिन्नता के आधार पर अपनी परम्परा और पीढ़ियों को नकारने वालों को क्या सचमुच इस बात का बिल्कुल अहसास नहीं होता कि उनका आसन्न अतीत किस कदर उनके भीतर जड़ जमाए बैठा रहता है! समय का प्रवाह भले ही हमें दूसरी दिशाओं में बहाकर ले जाए ……. स्थितियों का दबाव भले ही हमारा रूप बदल दे, हमें पूरी तरह उससे मुक्त तो नहीं ही कर सकता !
(क) हमारा अतीत किस-किस रूप में अभिव्यक्त होता रहता है ?
उत्तर – हमारा अतीत कभी प्रतिक्रिया के रूप में व्यक्त होता है। कभी वह हमारी कुंठाओं के रूप में प्रकट होता है ओर कभी प्रतिबिंब के रूप आशय यह है कि कभी हम पिछले संस्कारों के कारण वर्तमान पर झुंझलाते हैं, कभी उसे अपनाते हैं और कभी उस पर अपना असंतोष प्रकट करते हैं ।
(ख) लेखिका का विश्वास खंडित क्यों हुआ ?
उत्तर – लेखिका को भी पिता के समान उनके ‘बहुत अपनों’ ने चोट पहुँचाई। वह जिन अखंड विश्वास करती थी, उन्हीं ने उन्हें धोखा दिया। इस कारण उसके विश्वास खंडित हो गए ।
(ग) लेखिका ने शक्की स्वभाव पिता से पाया- कैसे ?
उत्तर – लेखिका के पिता अपने सभी परिवारजनों पर शक करने लगे थे। कारण यह था कि उन्हें उन्हीं के अपनों ने धोखा दिया था। लेखिका पिता के शक्की स्वभाव का विरोध करती थी। परंतु हुआ उलटा । समय के साथ पिता का यह अवगुण उसके स्वभाव में भी चला आया।
(घ) लेखिका और पिता के सम्बन्धों पर प्रकाश डालें।
उत्तर – लेखिका के विचार पिता से भिन्न थे। इसलिए वह प्रायः अपने पिता से टकराती रहती थी । वे संघर्ष आज भी भिन्न-भिन्न रूप धारण करके उसके स्वभाव में सभा गए हैं।
(ङ) लेखिका का पैतृक संघर्ष किस प्रकार उसके जीवन को प्रभावित करता रहा ?
उत्तर – लेखिका अपने पिता से कई बातों पर टकराती रही । वह उनके शक्की स्वभाव पर काखीजती रही। परंतु उसने देखा कि पिता का यह शक्की स्वभाव उसके अपनी स्वभाव में भी आ गया। जब उसे अपने ‘अपनों’ ने गहरी पीड़ा पहुँचाई तो वह भी शक्की हो गई। इसके अतिरिक्त उसका जिन-जिन बातों के कारण पिता से संघर्ष रहता था, वे सभी बातें आज भी उसके जीवन में विद्यमान हैं।
4. यों खेलने को हमने भाइयों के साथ गिल्ली-डंडा भी खेला और पतंग उड़ाने, काँच पीसकर माँजा सूतने का काम भी किया, लेकिन उनकी गतिविधियों का दायरा घर के बाहर ही अधिक रहता था और हमारी सीमा थी घर । हाँ, इतना जरूर था कि उस जमाने में घर की दीवारें घर तक ही समाप्त नहीं हो जाती थीं बल्कि पूरे मोहल्ले तक फैली रहती थीं इसलिए मोहल्ले के किसी भी घर में जाने पर कोई पाबंदी नहीं थी, बल्कि कुछ घर तो परिवार का हिस्सा ही थे। आज तो मुझे बड़ी शिद्दत के साथ यह महसूस होता है कि अपनी जिंदगी खुद जीने के इस आधुनिक दबाव ने महानगरों के फ्लैट में रहने वालों को हमारे इस परंपरागत ‘पड़ोस-कल्चर’ से विच्छिन्न करके हमें कितना संकुचित, असहाय और असुरक्षित बना दिया है। मेरी कम-से-कम एक दर्जन आरंभिक कहानियों के पात्र इसी मोहल्ले के हैं जहाँ मैंने अपनी किशोरावस्था गुजार अपनी युवावस्था का आरंभ किया था ।
(क) लेखिका के बचपन में ‘घर’ का क्या आशय होता था ?
उत्तर – लेखिका बचपन में जिसे ‘घर’ मानती थी, वह केवल अपना घर नहीं होता था। ॐउस समय अपना पड़ोस और मोहल्ला अपना-ही प्रतीत होता था। कुछ घर तो इतने अपने-से लगते थे कि उनमें आना-जाना घर-जैसा ही जाना पड़ता था। तब मोहल्ले के किसी भी घर में जाने में कोई पाबंदी नहीं होती थी ।
(ख) आज के महानगरीय जीवन और लेखिका के बचपन में क्या अंतर होता था ?
उत्तर – लेखिका का बचपन बड़े आत्मीय वातावरण में बीता। तब पूरा पास-पड़ोस और मोहल्ला घर जैसा आत्मीय प्रतीत होता था। परंतु महानगरीय जीवन में ऐसा खुलापन नहीं है। यहाँ सभी लोग अपने-अपने फ्लैटों में दुबके रहते हैं। सभी अपनी तुच्छ सीमाओं में घिरे हुए हैं।
(ग) ‘पड़ोस-कल्चर’ का आशय स्पष्ट करते हुए उसके लाभ बताएँ ।
उत्तर – ‘पड़ोस-कल्चर’ का आशय है- अपने आस-पड़ोस को अपना आत्मीय समझकर उसके साथ समरस होकर जीता उसी में खेलना-कूदना, सुख-दुख में भागीदार होना। अपने पड़ोसियों को अपना समझकर उन्हें अपनापन देना तथा उनके घर को भी अपना समझना। इस पड़ोस कल्चर से मनुष्य स्वयं को अधिक प्रसन्न, उदार, विस्तृत, खुला और सुरक्षित अनुभव करता था ।
(घ) लेखिका को उसके पड़ोस ने किस प्रकार प्रभावित किया ?
उत्तर – लेखिका को उसके पड़ोस ने बहुत गहराई से प्रभावित किया। इसका प्रमाण यह है कि उसने जब भी कहानियाँ लिखीं, उन-उन पात्रों को लेकर लिखीं जो उसके पड़ोसी-संगी थे।
(ङ) पुराने समय में बच्चे कौन-से खेल खेलते थे जो आज गायब हो गए हैं ?
उत्तर – पुराने समय में लोग अपने मोहल्ले में गिल्ली-डंडा खेलते थे। पतंग उड़ाया करते थे। काँच पीसकर डोर सूतने का काम अपने हाथों से किया करते थे। आज महानगरों के लोग इन खेलों से वंचित हो गए हैं ।
5. यश कामना बल्कि कहूँ कि यश-लिप्सा, पिता जी की सबसे बड़ी दुर्बलता थी और उनके जीवन की धुरी था यह सिद्धांत कि व्यक्ति को कुछ विशिष्ट वन कर जीना चाहिए…. कुछ ऐसे काम करने चाहिए कि समाज में उसका नाम हो, सम्मान हो, प्रतिष्ठा हो, वर्चस्व हो । इसके चलते ही मैं दो- एक बार उनके कोप से बच गई थी। एक बार कॉलिज से प्रिंसिपिल का पत्र आया कि पिता जी आकर मिलें और बताएँ कि मेरी गतिविधियों के कारण मेरे खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाइ क्यों न की जाए ? पत्र पढ़ते ही पिता जी आग-बबूला। “यह लड़की मुझे कहीं मुँह दिखाने लायक नहीं रखेगी…. पता नहीं क्या-क्या सुनना पड़ेगा वहाँ जाकर ! चार बच्चे पहले भी पढ़े, किसी ने ये दिन नहीं दिखाया ।” गुस्से से भन्नाते हुए ही वे गए थे। लौटकर क्या कहर बरसा होगा, इसका अनुमान था, सो मैं पड़ोस की एक मित्र के यहाँ जाकर बैठ गई। माँ को कह दिया कि लौटकर बहुत कुछ गुबार निकल जाए, तब बुलाना । लेकिन जब माँ ने आकर कहा कि वे तो खुश ही हैं, चली चल, तो विश्वास नहीं हुआ।
(क) पिताजी की सबसे बड़ी दुर्बलता क्या थी ?
उत्तर – लेखिका के पिताजी की सबसे बड़ी दुर्बलता यह थी कि वे विशिष्ट व्यक्ति बनकर जीना चाहते थे। वे चाहते थे कि समाज में उनका नाम हो, प्रतिष्ठा हो तथा वर्चस्व कायम हो।
(ख) एक बार क्या घटना घटी ?
उत्तर – एक बार लेखिका के कॉलेज से एक पत्र पिताजी के नाम आया कि वे आकर मिलें। इस पत्र में लेखिका के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई की चे चेतावनी दी गई थी।
(ग) पिताजी क्या सोचकर आग-बबूला हो उठे ?
उत्तर – पत्र को पढ़ते ही पिताजी आग-बबूला हो उठे। उन्हें लगा उनकी यह बेटी (लेखिका) उन्हें कहीं मुँह दिखाने के लायक नहीं छोड़ेगी। पता नहीं वहाँ (कॉलेज में) जाकर क्या-क्या सुनना पड़ेगा।
(घ) लेखिका कहाँ बैठ गई और क्यों ?
उत्तर – लेखिका पिताजी के क्रोध का अनुमान करके अपने पड़ोस की एक मित्र के यहाँ जाकर बैठ गई ताकि उसे एकदम पिताजी के गुस्से का शिकार न बनना पड़े।
(ङ) लेखिका को किस बात पर विश्वास नहीं हुआ और क्यों ?
उत्तर – लेखिका को जब उसकी माँ ने यह बताया कि पिताजी गुस्सा होने की जगह खुश हैं, तब उसे सहसा इस बात पर विश्वास नहीं हुआ। असल कॉलेज ज जाकर उन्हें अपनी बेटी पर गर्व हुआ था ।
6. “सारे कॉलेज की लड़कियों पर इतना रौब है तेरा…. सारा कॉलेज तुम तीन लड़कियों के इशारे पर चल रहा है ? प्रिंसिपल बहुत परेशान थी और बार-बार आग्रह कर रही थी कि मैं तुझे घर बिठा लूँ, क्योंकि वे लोग किसी तरह डरा-धमकाकर, डाँट-डपटकर लड़कियों को क्लासों में भेजते हैं और २ अगर तुम लोग एक इशारा कर दो कि क्लास छोड़कर बाहर आ जाओ तो सारी लड़कियाँ निकलकर मैदान में जमा होकर नारे लगाने लगती हैं। तुम लोगों के मारे कॉलेज चलाना मुश्किल हो गया है उन लोगों के लिए।” कहाँ तो जाते समय पिता जी मुँह दिखाने से घबरा रहे थे और कहाँ बड़े गर्व से कहकर आए कि यह तो पूरे देश की पुकार है….. इस पर कोई कैसे रोक लगा सकता है भला ? बेहद गद्गद स्वर में पिता जी यह सब सुनाते रहे और मैं अवाक् । मुझे न अपनी आँखों पर विश्वास हो रहा था, न अपने कानों पर । पर यह हकीकत थी ।
(क) प्रिंसिपल ने लेखिका के पिता को क्या अनुरोध किया ?
उत्तर – कॉलेज की प्रिंसिपल ने लेखिका के पिता को अनुरोध किया कि वे अपनी लड़की को कॉलेज से निकाल लें।
(ख) पिताजी कॉलेज जाने से पहले क्यों घबरा रहे थे ?
उत्तर – पिताजी को प्रिंसिपल का नोटिस मिला कि वे अपनी लड़की के सिलसिले में आकर उनसे मिलें। उन्हें लगा कि उनकी लड़की स्वभाव से विद्रोही है। वह पिता की बात भी कम मानती है। इसलिए उसने कॉलेज में जाकर जरूर अनुशासनहीनता की होगी। जरूर कसूर इसी का रहा होगा। अतः वे अपमान के भय से घबरा रहे थे।
(ग) लेखिका के पिता ने प्रिंसिपल को क्या उत्तर दिया ?
उत्तर – लेखिका के पिता ने कॉलेज जाकर सारी स्थिति समझी। उन्हें यह जानकर गर्व हुआ कि उनकी लड़की सब लड़कियों की नेत्री है। उसके कहने पर सब लड़कियाँ हड़ताल कर देती हैं। इसलिए उन्होंने प्रिंसिपल को कहा- ‘यह तो पूरे देश की पुकार है इस पर कोई कैसे रोक लगा सकता है।
(घ) लेखिका कॉलेज को किस प्रकार प्रभावित करती थी ?
उत्तर – लेखिका और उसकी दो सहेलियों ने कॉलेज का नेतृत्व अपने हाथों में ले लिया था। वे जब भी चाहती थीं, शेष लड़कियाँ उनके पीछे कक्षाएँ छोड़ देती थीं तथा नारे लगाने लगती थीं। इस प्रकार सब लड़कियाँ प्राचार्य के नियंत्रण में न होकर लेखिका के नियंत्रण में हो गई थीं।
(ङ) कॉलेज की प्रिंसिपल लेखिका से किसलिए परेशान थीं ?
उत्तर – कॉलेज की प्रिंसिपल लेखिका से परेशान थी। कारण यह था कि लड़कियाँ प्रिंसिपल का कहना न मानकर लेखिका का कहना मानती थीं। इसलिए प्रिंसिपल के लिए कॉलेज चलाना कठिन हो रहा था। प्रिंसिपल लड़कियों को समझा-बुझाकर कक्षाओं में भेजती थी; किन्तु लेखिका का इशारा मिलते ही वे फिर से बाहर आकर नारे लगाने लगती थीं। इस कारण प्रिंसिपल लेखिका से परेशान हो गई थी।
7. आज पीछे मुड़कर देखती हूँ तो इतना तो समझ में आता ही है क्या तो उस समय मेरी उम्र थी और क्या मेरा भाषण रहा होगा ! यह तो डॉक्टर साहब का स्नेह था जो उनके मुँह से प्रशंसा बनकर बह रहा था या यह भी हो सकता है कि आज से पचास साल पहले अजमेर जैसे शहर में चारों ओर से उमड़ती भीड़ के बीच एक लड़की का बिना किसी संकोच और झिझक के यों धुआँधार बोलते चले जाना ही इसके मूल में रहा हो । पर पिताजी ! कितनी तरह के अंतर्विरोधों के बीच जीते थे वे! एक ओर ‘विशिष्ट’ बनने और बनाने की प्रबल लालसा तो दूसरी ओर अपनी सामाजिक छवि के प्रति भी उतनी ही सजगता। पर क्या यह संभव है ? क्या पिताजी को इस बात का बिलकुल भी अहसास नहीं था कि इन दोनों का तो रास्ता ही टकराहट का है ?
(क) पिताजी के व्यक्तित्व का अंतर्विरोध क्या था ?
उत्तर – पिताजी के व्यक्तित्व का अंतर्विरोध यह था कि वे विशिष्ट बनने का मान-सम्मान भी चाहते थे और सामाजिक छवि पर जरा-सी आँच भी नहीं आने देना चाहते थे। अर्थात् वे बिना कोई कीमत दिए यश लूटना चाहते थे।
(ख) यहाँ किस डॉक्टर साहब की चर्चा है ? उनकी भूमिका स्पष्ट करें।
उत्तर – यहाँ अजमेर के एक प्रतिष्ठित डॉक्टर अंबालाल की चर्चा की गई है। उन्होंने दो महत्त्वपूर्ण काम किए। पहला, उन्होंने लेखिका के धुँआधार भाषण के लिए उसे बधाई दी। उसकी जमकर प्रशंसा की। इससे लेखिका का उत्साह बढ़ा। दूसरे, उन्होंने लेखिका के पिता का मन बदला। लेखिका के पिता अपनी पुत्री को सरेबाजार भाषण, हड़ताल आदि में भाग लेता देखकर शर्मसार थे। अंबालाल ने लेखिका की प्रशंसा करके उनका मान-सम्मान और गर्व बढ़ा दिया।
(ग) लेखिका ने स्वतंत्रता आंदोलन में किस प्रकार योगदान किया ?
उत्तर – लेखिका ने स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़-चढ़कर भाग लिया था। उसने कॉलेज की छात्राओं को राष्ट्रीय आंदोलन में झोंका था। उसने हड़ताल, नारेबाजी, प्रभात फेरी, जलसे, जुलूस आदि में आगे आकर आम विद्यार्थियों को प्रेरित किया था।
(घ) डॉक्टर साहब ने लेखिका की प्रशंसा क्यों की होगी ?
उत्तर – डॉक्टर साहब ने लेखिका का उत्साह, जोश और साहस देखकर उसकी प्रशंसा की होगी। उन्होंने लेखिका की देशभक्ति देखी होगी। वे उसकी पवित्र भावनाओं पर मुग्ध हो गए होंगे। लेखिका सोचती है कि शायद डॉक्टर साहब उमड़ती भीड़ के बीच एक लड़की को बेझिझक बोलते देखकर प्रभावित हो गए होंगे।
महावीर प्रसाद द्विवेदी
स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन
1. पुराने जमाने में स्त्रियों के लिए कोई विश्वविद्यालय न था। फिर नियमबद्ध प्रणाली का उल्लेख आदि पुराणों में न मिले तो क्या आश्चर्य। और, उल्लेख उसका कहीं रहा हो, पर नष्ट हो गया हो तो ? पुराने जमाने में विमान उड़ते थे। बताइए उनके बनाने की विद्या सिखाने वाला कोई शास्त्र ! बड़े-बड़े जहाजों पर सवार होकर लोग द्वीपांतरों को जाते थे। दिखाइए, जहाज बनाने की नियमबद्ध प्रणाली के दर्शक ग्रंथ ! पुराणादि में विमानों और जहाजों द्वारा की गई यात्राओं के हवाले देखकर उनका अस्तित्व तो हम बड़े गर्व से स्वीकार करते हैं, परंतु पुराने ग्रंथों में अनेक प्रगल्भ पंडिताओं के नामोल्लेख देखकर भी कुछ लोग भारत की तत्कालीन स्त्रियों को मूर्ख, अपढ़ और गँवार बताते हैं ! इस तर्कशास्त्रज्ञता और इस न्यायशीलता की बलिहारी ! वेदों को प्रायः सभी हिन्दू ईश्वर-कृत मानते हैं । सो ईश्वर तो वेद मंत्रों की रचना अथवा उनका दर्शन विश्ववरा आदि स्त्रियों से करावे और हम उन्हें ककहरा पढ़ाना भी पाप समझें।
(क) पाठ तथा उसके लेखक का नाम लिखें।
उत्तर – पाठ का नाम- स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन
लेखक का नाम – महावीरप्रसाद द्विवेदी ।
(ख) विमान और स्त्री शिक्षा के बारे में हमारे भिन्न-भिन्न मत क्यों हैं ?
उत्तर – विमान-विद्या और स्त्री शिक्षा दोनों के साथ यह बात है कि इनके प्रमाण हमारे पास उपलब्ध नहीं हैं। इनकी नियमबद्ध प्रणालियों के दर्शक ग्रंथ हमारे पास नहीं हैं। परन्तु हम विमानों के होने पर तो गर्व करते हैं किन्तु स्त्री शिक्षा का विरोध करते हैं ।
(ग) वेदों में स्त्री शिक्षा का प्रमाण किस रूप में मिलता है ?
उत्तर – वेदों में स्त्री-शिक्षा का सबसे पुष्ट प्रमाण उपलब्ध होता है। कितने ही वेदों की रचना स्त्रियों ने की है। जिनमें से एक देवी हैं विश्ववरा ।
(घ) लेखक किन पर, क्यों बलिहारी जाता है ?
उत्तर – लेखक उनकी तर्कशीलता और न्यायशीलता पर बलिहारी जाता है जो अनेक विदुषी स्त्रियों के नामोल्लेख को देखकर भी उन्हें मूर्ख, अनपढ़ और गँवार बताते हैं ।
(ङ) हमारे पुराणों में स्त्री-शिक्षा के बारे में हमारे भिन्न-भिन्न मत क्यों है ?
उत्तर – हमारे पुराणों में स्त्री शिक्षा का उल्लेख दो कारणों से नहीं मिलता –
(i) पुराने समय में स्त्रियों के लिए अलग विश्वविद्यालय नहीं थे।
(ii) हो सकता है, स्त्री-शिक्षा के प्रमाण नष्ट हो गए हों।
(च) स्त्रियों को ककहरा पढ़ाने का क्या आशय है ? कौन इसे पाप समझता है ?
उत्तर – स्त्रियों को ककहरा पढ़ाने का आशय है- स्त्रियों को अक्षर ज्ञान देना। जो लोग स्त्री-शिक्षा के विरोधी हैं वे ही इसे पाप मानते हैं l
2. अत्रि की पत्नी पत्नी-धर्म पर व्याख्यान देते समय घंटों पांडित्य प्रकट करे, गार्गी बड़े-बड़े ब्रह्मवादियों को हरा दे, मंडन मिश्र की सहधर्मचारिणी शंकराचार्य के छक्के छुड़ा दे! गजब ! इससे अधिक भयंकर बात और क्या हो सकेगी ! यह सब पापी पढ़ने का अपराध है। न वे पढ़तीं, न वे पूजनीय पुरुषों का मुकाबला करती। यह सारा दुराचार स्त्रियों को पढ़ाने ही का कुफल है। समझे। स्त्रियों के लिए पढ़ना कालकूट और पुरुषों के लिए पीयूष का घूँट ! ऐसी ही दलीलों और दृष्टांतों के आधार पर कुछ लोग स्त्रियों को अपढ़ रखकर भारतवर्ष का गौरव बढ़ाना चाहते हैं ।
(क) लेखक ने किसे ‘भयंकर बात’ और पापी पढ़ने का अपराध’ कहा है और क्यों ?
उत्तर – लेखक ने व्यंग्य में स्त्रियों द्वारा पूजनीय पुरुषों को हराने को ‘भयंकर बात’ कहा है। उसने इसे ‘पापी पढ़ने का अपराध’ कहकर उन पुरुषों पर चोट की है जो स्त्रियों की शिक्षा के विरोधी हैं। वे स्त्रियों के बढ़ते प्रभाव और शक्ति को देखकर उसे सहन नहीं कर सकते ।
(ख) ‘यह सारा दुराचार स्त्रियों को पढ़ाने का ही कुफल है’ का व्यंग्य स्पष्ट करें।
उत्तर – लेखक की दृष्टि में वे पुरुष अन्यायी हैं जो स्त्रियों को शिक्षा के क्षेत्र में आगे नहीं बढ़ने देना चाहते । यदि कोई स्त्री तर्क में पुरुष को हरा देती है तो वे इसे स्त्री-शिक्षा का दुराचार मानते हैं। वास्तव में यह वाक्य अहंकारी पुरुष पर व्यंग्य है ।
(ग) लेखक उच्च शिक्षित लोगों पर क्या व्यंग्य करता है ?
उत्तर – लेखक उच्च शिक्षित लोगों पर व्यंग्य करते हुए कहता है कि ये लोग पढ़कर भी अपनी स्त्रियों पर हंटर फटकारते हैं और डंडों से उनकी खबर लेते हैं। क्या यह सदाचार है ? क्या यह उनकी पढ़ाई का सुफल है ?
(घ) वे लोग स्त्रियों और पुरुषों की पढ़ाई में क्या अंतर करते हैं ?
उत्तर – उन लोगों के अनुसार स्त्रियों के लिए पढ़ना कालकूट (विष) है और पुरुषों के लिए पीयूष (अमृत) का घूँट । उनकी ये दलीलें स्त्रियों को अनपढ़ रखकर भारत का गौरव नहीं बढ़ा सकते।
(ङ) भारतवर्ष का गौरव बढ़ाने पर क्या व्यंग्य है ?
उत्तर – इसमें व्यंग्य है कि स्त्री-शिक्षा का विरोध करके भारतवर्ष का गौरव नहीं बढ़ाया जा सकता। स्त्री-शिक्षा के विरोध में कुतर्क देना और उदाहरण देना भारतवर्ष को कलंकित करने के समान है।
3. स्त्रियों का किया हुआ अनर्थ यदि पढ़ाने ही का परिणाम है तो पुरुषों का किया हुआ अनर्थ भी उनकी विद्या और शिक्षा ही का परिणाम समझना चाहिए। बम के गोले फेंकना, नरहत्या करना, डाके डालना, चोरियाँ करना, घूस लेना- ये सब यदि पढ़ने-लिखने ही का परिणाम हो तो सारे कॉलिज, स्कूल और पाठशालाएँ बंद हो जानी चाहिए। परंतु विक्षिप्तों, बातव्यथितों और ग्रहग्रस्तों के सिवा ऐसी दलीलें पेश करने वाले बहुत ही कम मिलेंगे। शकुंतला ने दुष्यंत को कटु वाक्य कहकर कौन-सी अस्वाभाविकता दिखाई ? क्या वह यह कहती कि “आर्य पुत्र, शाबाश! बड़ा अच्छा काम किया जो मेरे साथ गांधर्व- विवाह करके मुकर गए। नीति, न्याय, सदाचार और धर्म की आप प्रत्यक्ष मूर्ति हैं! ” पत्नी पर घोर से घोर अत्याचार करके जो उससे ऐसी आशा रखते हैं वे आशा रखते हैं वे मनुष्य-स्वभाव का किंचित् भी ज्ञान नहीं रखते।
(क) स्त्री-शिक्षा का विरोध करने वालों को क्या कहा गया है ?
उत्तर – लेखक ने स्त्री – शिक्षा का विरोध करने वालों को पागल, बात-व्यथित और ग्रहग्रस्त कहा है। आशय यह है कि जिनकी बुद्धि कम है, जो किसी कारण व्यथित हैं या जिन पर किसी दुष्ट ग्रह का कोप है, केवल वही स्त्री शिक्षा का विरोध कर सकते हैं ।
(ख) शकुंतला से शालीनता की आशा क्यों नहीं जा सकती थी ?
उत्तर – शकुंतला अपने पति द्वारा न पहचाने जाने से व्यथित थी । ऐसी स्त्री का छटपटाना और शोक में कुवचन कहना स्वाभाविक था। इस अवसर पर उससे शालीनता, नरमी और मधुर वचनों की अपेक्षा नहीं की जा सकती थी ।
(ग) किस कारण कहा गया है कि सारी शिक्षण संस्थाएँ बंद हो जानी चाहिए ?
उत्तर – लेखक का कहना है कि आज के पढ़े-लिखे लोग ही हत्या, डकैती, बमबारी, चोरी, रिश्वत और व्यभिचार में लगे हुए हैं। यदि इन बुराइयों को उनकी पढ़ाई का परिणाम माना जाए तो फिर सारी शिक्षण संस्थाएँ बंद हो जानी चाहिए ।
(घ) कौन लोग स्त्री – मनोविज्ञान से शून्य है ?
उत्तर – जो लोग स्त्री को ठुकरा कर भी उससे कोमल और मधुर व्यवहार की अपेक्षा करते हैं, वे स्त्री-मनोविज्ञान से शून्य हैं। उन्हें नहीं पता कि कोई स्त्री अपने पति से उपेक्षा पाकर प्रसन्न नहीं रह सकती।
(ङ) लेखक ने पुरुषों के किस व्यवहार पर चिंता प्रकट की है ?
उत्तर – लेखक ने सुशिक्षित लोगों के हिंसक और भ्रष्ट व्यवहार पर चिंता प्रकट की है। वे लोग भी नरहत्या करते हैं। बम के गोले फेंकते हैं, डाके डालते हैं, चोरी करते हैं, रिश्वत लेते हैं और व्यभिचार करते हैं।
4. पढ़ने-लिखने में स्वयं कोई बात ऐसी नहीं जिससे अनर्थ हो सके। अनर्थ का बीज उसमें हरगिज नहीं। अनर्थ पुरुषों से भी होते हैं। अपढ़ों और पढ़े-लिखों, दोनों से। अनर्थ, दुराचार र और पापाचार के कारण और ही होते हैं और वे व्यक्ति-विशेष का चाल देखकर जाने भी जा सकते हैं। अतएव स्त्रियों को अवश्य पढ़ाना चाहिए।
जो लोग यह कहते हैं कि पुराने जमाने में यहाँ स्त्रियाँ न पढ़ती थीं अथवा उन्हें पढ़ने की मुमानियत थी वे या तो इतिहास से अभिज्ञता नहीं रखते या जान-बूझकर लोगों को धोखा देते हैं। समाज की दृष्टि में ऐसे लोग दंडनीय हैं। क्योंकि स्त्रियों को निरक्षर रखने का उपदेश देना समाज का अपकार और अपराध करना है- समाज की उन्नति में बाधा डालना है।
(क) किस बात में अनर्थ बताया गया है ?
उत्तर – पढ़ने-लिखने से कभी कोई अनर्थ नहीं होता। अनर्थ केवल स्त्रियों से ही नहीं, ht पुरुषों से भी होते हैं- भले ही वे पढ़े हों अथवा अनपढ़ हों। अनर्थ तो दुराचार और पापाचार के कारण होते हैं ।
(ख) इतिहास से अभिज्ञ व्यक्ति क्या कहते हैं ?
उत्तर – इतिहास से अभिज्ञ व्यक्ति यह कहते हैं कि पुराने जमाने में स्त्रियों को पढ़ाया नहीं जाता था। उनको पढ़ने की मनाही थी। ऐसे लोग दूसरों को जान-बूझकर धोखा देते हैं ।
(ग) कौन लोग दंडनीय हैं और क्यों ?
उत्तर – वे लोग दंडनीय हैं जो स्त्रियों को निरक्षर रखने का उपदेश देते हैं। ऐसा करके वे समाज का अपकार करते हैं। उनका काम समाज की उन्नति में बाधा डालता है।
(घ) ‘अनर्थ का बीज उसमें नहीं – स्पष्ट करें ।
उत्तर – इसका आशय है- शिक्षा में अनर्थ का कोई कारण नहीं छिपा है । अनर्थ के कारण और होते हैं। अनर्थ सुशिक्षित भी करते हैं अशिक्षित भी । अतः अनर्थ को पढ़ाई के साथ नहीं जोड़ना चाहिए ।
(ङ) कौन लोग समाज की उन्नति में बाधा डालते हैं और क्यों ?
उत्तर – स्त्रियों को शिक्षा से वंचित रखने की वकालत करने वाले लोग समाज की उन्नति में बाधा डालते हैं ।
(च) पढ़ाई-लिखाई के बारे में लेखक का क्या मत है ?
उत्तर – पढ़ाई-लिखाई के बारे में लेखक का स्पष्ट मत है कि वह कभी अनर्थकारी नहीं हो सकती । शिक्षा पुरुषों के साथ-साथ स्त्रियों को भी मिलनी चाहिए। जो लोग स्त्री शिक्षा के विरोधी हैं, वे समाज की उन्नति में बाधक हैं। अतः वे अपराधी हैं।
(छ) इस गद्यांश का मूल भाव क्या है ?
उत्तर – इस गद्यांश का मूल भाव यह है कि शिक्षा किसी प्रकार भी दुराचार और अनर्थ को बढ़ावा नहीं देती। अतः स्त्रियों को भी समान रूप से शिक्षित करना चाहिए। जो लोग स्त्री-शिक्षा के विराधी हैं, वे समाज की उन्नति में बाधक हैं।
5. “शिक्षा’ बहुत व्यापक शब्द है उसमें सीखने योग्य अनेक विषयों का समावेश हो सकता है। पढ़ना-लिखना भी उसी के अंतर्गत है। इस देश की व वर्तमान शिक्षा-प्रणाली अच्छी नहीं। इस कारण यदि कोई स्त्रियों को पढ़ाना अनर्थकारी समझे तो उसे उस प्रणाली का संशोधन करना या कराना चाहिए, खुद पढ़ने-लिखने को दोष न देना चाहिए। लड़कों ही की शिक्षा प्रणाली कौन-सी बड़ी अच्छी है। प्रणाली बुरी होने के कारण क्या किसी ने यह राय दी है कि सारे स्कूल और कॉलेज बंद कर दिए जाएँ ? आप खुशी से लड़कियों और स्त्रियों की शिक्षा प्रणाली का संशोधन करें। उन्हें क्या पढ़ाना चाहिए, कितना पढ़ाना चाहिए, किस तरह की शिक्षा देनी चाहिए और कहाँ पर देना चाहिएह घर में या स्कूल में । इन सब बातों पर बहस करें, विचार करें, जी में आवे सो करें; पर परमेश्वर के लिए यह न कहिए कि स्वयं पढ़ने-लिखने में कोई दोष हैवह अनर्थकर है, वह अभिमान का उत्पादक है, वह गृह-सुख का नाश करने वाला है। ऐसा कहना सोलहों आने मिथ्या है ।
(क) शिक्षा की व्यापकता से क्या आशय है ?
उत्तर – शिक्षा की व्यापकता का आशय है- शिक्षा केवल पढ़ाई-लिखाई तक ही सीमित नहीं है। इसमें चित्रकला, पाककला, बुनाई-कढ़ाई, संस्कार आदि अनेक विषय आते हैं। पढ़ाई-लिखाई तो शिक्षा का एक अंग है।
(ख) किस बात को झूठ कहा गया है ?
उत्तर – लेखक के अनुसार, पढ़ाई-लिखाई को अनर्थकारी मानना, अभिमान पैदा करने को है।
दोषी मानना, घर की शांति को भंग करने वाला मानना पूरी तरह झूठ है l
(ग) वर्तमान शिक्षा प्रणाली में संशोधन करने का अवसर आपको मिले तो आप क्या करना चाहेंगे ?
उत्तर – यदि मानव ने संस्कृति का कल्याणकारी भावना से संबंध विच्छेद किया तो निश्चित रूप से अनर्थ होगा । हमारा वैज्ञानिक विकास कल्याणकारी भावना को लेकर हो। हम अपनी उपलब्धियों का स्वार्थ से ऊपर उठकर सदुपयोग करें ।
(घ) पढ़ाई-लिखाई में संशोधन किसलिए आवश्यक माना गया है ?
उत्तर – लेखक के अनुसार, यदि किसी को लगता है कि शिक्षा प्रणाली में कोई दोष है तो उसमें संशोधन होना चाहिए। उसे स्त्रियों के अनुकूल बनाने के लिए उसमें सुधार होने चाहिए।
(ङ) लेखक ने पाठकों से क्या निवेदन किया है ?
उत्तर – लेखक ने पाठकों से निवेदन किया है कि वे शिक्षा में जो चाहे संशोधन करें किंतु उसे अनर्थकारी न कहें। वे शिक्षा को अभिमान-वर्द्धक या सुखनाशी न मानें।
(च) इस गद्यांश का मूल आशय क्या है ?
उत्तर – इस गद्यांश का मूल आशय है कि शिक्षा कभी भी अनर्थकारी नहीं होती। वह स्त्री-पुरुष दोनों के लिए लाभकारी होती है। यदि हमारा समाज उसमें किसी प्रकार का संशोधन करना चाहता है तो करे किंतु उससे किसी को वंचित न करे। शिक्षा स्त्रियों को भी दी जानी चाहिए।
यतींद्र मिश्र
नौबतखाने में इबादत
1. अमीरुद्दीन का जन्म डुमराँव, बिहार के एक संगीत प्रेमी परिवार में हुआ है। 5-6 वर्ष डुमराँव में बिताकर वह नाना के घर, ननिहाल काशी में आ गया है। डुमराँव का इतिहास में कोई स्थान बनता हो, ऐसा नहीं लगा कभी भी। पर यह जरूर है कि शहनाई और डुमराँव एक-दूसरे के लिए उपयोगी हैं। शहनाई बजाने के लिए रीड का प्रयोग होता है। रीड अंदर से पोली होती है जिसके सहारे शहनाई को फूँका जाता है। रीड, नरकट (एक प्रकार की घास) से बनाई जाती है जो डुमराँव में मुख्यतः सोन नदी के किनारों पर पाई जाती है। इतनी ही महत्ता है इस समय डुमराँव की जिसके कारण शहनाई जैसा वाद्य बजता है। फिर अमीरुद्दीन जो हम सबके प्रिय हैं, अपने उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ साहब है। उनका जन्म स्थान भी डुमराँव ही है। इनके परदादा उस्ताद सलार हुसैन खाँ डुमराँव निवासी थे। बिस्मिल्ला खाँ उस्ताद पैगंबरबख्श खाँ और मिट्ठन के छोटे साहबजादे हैं ।
(क) पाठ का नाम और लेखक का नाम लिखें ।
उत्तर – पाठ का नाम- नौबतखाने में इबादत ।
लेखक का नाम- यतींद्र मिश्र |
(ख) अमीरुद्दीन किसका नाम था ? उनका जन्म कहाँ हुआ ?
उत्तर – अमीरुद्दीन उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ के बचपन का नाम था । उनका जन्म बिहार के डुमराँव नामक गाँव में हुआ था ।
(ग) डुमराँव गाँव किसके लिए उपयोगी है ?
उत्तर – डुमराँव गाँव शहनाई के लिए उपयोगी है। यहाँ वह वस्तु मिलती है जिससे शहनाई बजती है ।
(घ) रीड क्या होती है ? इसकी क्या उपयोगिता है ?
उत्तर – रीड, नरकट (एक प्रकार की घास) से बनाई जाती है। यह डुमराँव में सोन नदी के किनारे पाई जाती है। रीड अंदर से पोली होती है। इसी के सहारे से शहनाई को फूंका जाता है।
(ङ) उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ के पिता एवं परदादा के नाम लिखें।
उत्तर – बिस्मिल्ला खाँ उस्ताद पैगंबर बख्श खाँ और मिट्ठन के छोटे साहबजादे थे। इनके परदादा का नाम उस्ताद सलार हुसैन खाँ था ।
2. शहनाई के इसी मंगलध्वनि के नायक बिस्मिल्ला खाँ साहब अस्सी बरस से सुर माँग रहे हैं। सच्चे सुर के नेमत। अस्सी बरस की पाँचों वक्तों की नमाज इसी सुर को पाने की प्रार्थना में खर्च हो जाती है। लाखों सजदे, इसी एक सच्चे सुर की इबादत में खुदा के आगे झुकते हैं। वे नमाज के बाद सजदे में गिड़गिड़ाते हैं- ‘मेरे मालिक एक सुर बख्श दे । सुर में वह तासीर पैदा कर कि आँखों से सच्चे मोती की तरह आँसू निकल आएँ ।’ उनको यकीन है, कभी खुदा यूँ ही उन पर मेहरबान होगा। अपनी झोली से सुर का फल निकालकर उनकी ओर उछालेगा, फिर कहेगा, ले जा अमीरुद्दीन इसको खा ले और कर ले अपनी मुराद पुरी ।
(क) बिस्मिल्ला खाँ किस चीज के नायक थे ? वे अस्सी बरस से क्या माँग कर रहे थे ?
उत्तर – बिस्मिल्ला खाँ शहनाई से निकलने वाली मंगलध्वनि के नायक थे। वे अस्सी बरस से ईश्वरीय देन के रूप में सच्चे सुर की माँग कर रहे थे।
(ख) बिस्मिल्ला का नमाज और सजदे का क्या उद्देश्य रहता था ?
उत्तर – बिस्मिल्ला खाँ की नमाज और सजदे का उद्देश्य यह रहता था कि वे खुदा से सच्चे सुर की माँग कर सकें। उन्होंने 80 बरस तक पाँचों वक्त की नमाज अदा की। वे सच्चे सुर की इबादत में ही खुदा के आगे झुकते थे l
(ग) वे खुदा से क्या माँगते थे ?
उत्तर – नमाज के बाद बिस्मिल्ला खाँ खुदा से सच्चा सुर माँगते थे। वे एक ऐसा सच्चा सुर चाहते थे जो लोगों की आँखों से सच्चे मोती की तरह आँसू निकल सके।
(घ) बिस्मिल्ला खाँ को किस बात का विश्वास था ?
उत्तर – बिस्मिल्ला खाँ को इस बात का विश्वास था कि खुदा कभी न कभी उन पर अवश्य मेहरबान होगा और वह अपनी झोली से सुर का फल निकालकर उसकी ओर उछालकर कहेगा ले जा अमीरुद्दीन इसको खा ले और अपनी मुराद परी कर ले ।
(ङ) बिस्मिल्ला खाँ किस सुर की तलाश में हैं ?
उत्तर – बिस्मिल्ला खाँ ऐसा सच्चा सुर चाहते हैं जिसमें जबरदस्त प्रभाव हो । जिसे सुनकर लोगों की आँखों से सच्चे मोती की तरह आँसू निकल आए। जिसमें हृदय को झंकृत करने की अद्भुत शक्ति हो ।
(च) बिस्मिल्ला खाँ प्रभु के सच्चे भक्त हैं- सिद्ध करें।
उत्तर – बिस्मिल्ला खुदा में पूरा विश्वास रखते हैं। इसलिए वे सच्ची भावना और श्रद्धा से उसके द्वार पर माथा झुकाते हैं। उसके दरबार में सजदे करते हैं। उससे प्रार्थना करते हैं कि वह उसे सच्चा सुर बख्शे। उसे विश्वास है कि एक-न-एक दिन खुदा उसकी झोली में सच्चा सुर अवश्य देगा ।
3. इसी बालसुलभ हँसी में कई यादें बंद हैं। जब उनका जिक्र करते हैं तब फिर उसी नैसर्गिक आनंद में आँखें चमक उठती हैं। अमीरूद्दीन तब सिर्फ चार साल का रहा होगा। छुपकर नाना को शहनाई बजाते हुए सुनता था, रियाज के बाद जब अपनी जगह से उठकर चले जाएँ तब जाकर ढेरों छोटी-बड़ी शहनाइयों की भीड़ से अपने नाना वाली शहनाई ढूँढ़ता और एक-एक शहनाई को फेंक कर खारिज करता जाता, सोचता- ‘लगता है मीठी वाली शहनाई दादा कहीं और रखते हैं।’ जब मामू अलीबख्श खाँ (जो उस्ताद भी थे) शहनाई बजाते हुए सम पर आएँ, तब धड़ से एक पत्थर जमीन पर मारता था। सम पर घर आने की तमीज उन्हें बचपन में ही आ गई थी, मगर बच्चे को यह नहीं मालूम था कि दाद वाह करके दी जाती है, सिर हिलाकर दी जाती है, पत्थर पटक कर नहीं।
(क) अमीरूद्दीन सब शहनाइयों को खारिज क्यों कर डालता था ?
उत्तर – अमीरूद्दीन सब शहनाइयों को बार-बार बजाकर देखता था । किसी में से भी वैसा मीठा स्वर सुनाई नहीं पड़ता था जैसा कि उसके नाना द्वारा बजाई गई शहनाई में थी। इस कारण वह वह एक-एक का क सब शहनाइयों को खारिज कर डालता था।
(ख) बालसुलभ हँसी का क्या आशय है ? उनकी यह हँसी कब प्रकट होती थी ?
उत्तर – ‘बालसुलभ हँसी’ का आशय है- बच्चों जैसी भोली और निश्छल हँसी। बिस्मिल्ला खाँ के चेहरे पर यह हँसी तब प्रकट होती थी, जब वे अपने बचपन या जवानी शाच की मीठी-मीठी यादों को याद करते थे।
(ग) चार वर्षीय अमीरुद्दीन शहनाइयों में से किस शहनाई को खोजता था और क्यों ?
उत्तर – चार वर्षीय अमीरुद्दीन अपने नाना के नौबतखाने में रखी अनेक शहनाईयों में से उस ॥ शहनाई को खोजना चाहता था, जो उसके नाना बजाया करते थे। उसके नाना बहुत मीठी शहनाई बजाते थे। इसलिए वह उन्हीं की शहनाई की तलाश करता था ।
(घ) बिस्मिल्ला खाँ की आँखें किस बात पर चमक उठती थी ?
उत्तर – बिस्मिल्ला खाँ जब अपनी यादों का जिक्र करते थे तब नैसर्गिक आनंद में उनकी आँखें चमक उठती थी ।
(ङ) अमीरूद्दीन अपने नाना के शहनाई को क्यों ढूँढ़ता था ?
उत्तर – अमीरुद्दीन के नाना रियाज करने के बाद अपनी शहनाई को रखकर चले जाते थे। तब अमीरूद्दीन शहनाइयों की भीड़ में अपने नाना की शहनाई को ढूँढ़ता था ।
4. काशी संस्कृति की पाठशाला है। शास्त्रों में आनंदकानन के नाम से प्रतिष्ठित । काशी में कलाधर हनुमान व नृत्य – विश्वनाथ हैं। काशी में बिस्मिल्ला खाँ हैं काशी में हजारों सालों का इतिहास है जिसमें पंडित कंठे महाराज हैं, विद्याधरी हैं, बड़े रामदास जी हैं, मौजुद्दीन खाँ हैं व इन रसिकों से उपकृत होने वाला अपार जन-समूह है। यह एक अलग काशी है जिसकी अलग तहजीब है, अपनी बोली और अपने विशिष्ट लोग हैं। इनके अपने उत्सव हैं, अपना गम अपना सेहरा – बन्ना और अपना नौहा। आप यहाँ संगीत को भक्ति से, भक्ति को किसी भी धर्म कलाकर से, कजरी को चैती से, विश्वनाथ को विशालाक्षी से, बिस्मिल्ला खाँ को गंगाद्वार से अलग करके नहीं देख सकते ।
(क) काशी को संस्कृति की पाठशाला क्यों कहा गया है ?
उत्तर – काशी संस्कृति की पाठशाला है यहाँ भारतीय शास्त्रों का ज्ञान है, कलाशिरोमणि यहाँ रहते हैं, यह हनुमान और विश्वनाथ की नगरी है, यहाँ का इतिहास बहुत पुराना है, यहाँ प्रकांड ज्ञाता, धर्मगुरु और कलाप्रेमियों का निवास है।
(ख) ‘यह एक अलग काशी है’ – लेखक ने ऐसा क्यों कहा है ?
उत्तर – काशी अलग है क्योंकि काशी की तहजीब, बोली, उत्सव, सुख-दुख और सेहरा – बन्ना तो अलग हैं ही साथ ही यहाँ के अपने विशिष्ट लोग भी हैं ।
(ग) काशी में सब कुछ एकाकार कैसे हो गया है ?
उत्तर – काशी में संगीत भक्ति से, भक्ति कलाकार से, कजरी चैती से, विश्वनाथ विशालाक्षी से और बिस्मिल्ला खाँ गंगाद्वार से मिलकर एक हो गए हैं, इन्हें अलग-अलग करके देखना संभव नहीं है ।
5. अकसर समारोहों एवं उत्सवों में दुनिया कहती है ये बिस्मिल्ला खाँ हैं। बिस्मिल्ला खाँ का मतलब बिस्मिल्ला खाँ की शहनाई। शहनाई का तात्पर्य बिस्मिल्ला खाँ का हाथ | हाथ से आशय इतना भर कि बिस्मिल्ला खाँ की फूँक और शहनाई की जादुई आवाज का असर हमारे सिर चढ़कर बोलने लगता है। शहनाई में सरगम भरा है। खाँ साहब को ताल मालूम है, राग मालूम है। ऐसा नहीं कि बेताले जाएँगे। शहनाई में सात सुर लेकर निकल पड़े। शहनाई में परवरदिगार, गंगा मइया, उस्ताद की नसीहत लेकर उतर पड़े। दुनिया कहती- सुबहान अल्लाह, तिस पर बिस्मिल्ला खाँ कहते हैं- अलहमदुलिल्लाह । छोटी-छोटी उपज से मिलकर एक बड़ा आकार बनता है। शहनाई का करतब शुरू होने लगता है। बिस्मिल्ला खाँ का संसार सुरीला होना शुरू हुआ। फूँक में अजान की तासीर उतरती चली आई।
(क) बिस्मिल्ला खाँ सुरों के सिद्धहस्त कलाकार थे- सिद्ध करें।
उत्तर – बिस्मिल्ला खाँ बेसुरे या बेताले नहीं थे। उनकी शहनाई में सरगम था, ताल था, राग था, संगीत के सातों सुर थे। वे अपने उस्ताद की सीख पर शहनाई बजाते थे।
(ख) दुनिया बिस्मिल्ला खाँ को किस तरह पहचानती थी ?
उत्तर – दुनिया बिस्मिल्ला खाँ को उनकी शहनाई के कारण पहचानती थी। जब लोग कहीं शहनाई बजते सुनते तब वे छूटते ही कहते- ये हैं बिस्मिल्ला खाँ । उनकी शहनाई के जादुई स्वर लोगों को सम्मोहित कर देते थे।
(ग) बिस्मिल्ला खाँ की शहनाई में किसका असर था ?
उत्तर – बिस्मिल्ला खाँ की शहनाई में जहाँ संगीत का सरगम, लय, ताल, राग था और संगीत के सातों सुर थे वहीं वे अपने उस्ताद की सीख पर शहनाई बजाते थे । इन सभी का उन पर असर था ।
(घ) बिस्मिल्ला खाँ अपनी शहनाई की प्रशंसा सुनकर क्या कहते थे ?
उत्तर – बिस्मिल्ला खाँ अपनी शहनाई की प्रशंसा सुनकर कहा करते थे- अलहम दुलिल्लाह अर्थात् तमाम तारीफ ईश्वर के लिए है। वे अपनी सारी प्रशंसा खुदा को समर्पित कर देते थे। इससे उनकी विनम्रता झलकती थी ।
(ङ) ‘फूँक में अजान की तासीर उतरने का आशय स्पष्ट करें।
उत्तर – फूँक में अजान की तासीर उतरने का आशय है- बिस्मिल्ला खाँ की फूँकी शहनाई में बुलंदियाँ उतर आई। जिस प्रकार मुल्ला मस्जिद की छत पर चढ़कर अजान देता है। वैसे ही शहनाई का स्वर ऊँचा होता चला गया ।
6. किसी दिन एक शिष्या ने डरते-डरते खाँ साहब को टोका, “बाबा! आप यह क्या करते हैं, इतनी प्रतिष्ठा है आपकी। अब तो आपको भारतरत्न भी मिल चुका है, यह फटी तहमद न पहना करें। अच्छा नहीं लगता, जब भी कोई आता है आप इसी फटी तहमद में सबसे मिलते हैं। खाँ साहब मुसकराए। लाड़ से भरकर बोले, “धत् ! पगली ई भारतरत्न हमको शहनईया पे मिला है, लुंगिया पे नाहीं। तुम लोगों की तरह बनाव सिंगार देखते रहते, तो उमर ही बीत जाती, हो चुकती शहनाई।” तब क्या खाक रियाज हो पाता। ठीक है बिटिया, आगे से नहीं पहनेंगे, मगर इतना बताए देते कि मालिक से यही दुआ है, “फटा सुर न बख्शें । लुंगिया का क्या है, आज फटी है, तो कल सी जाएगी।”
(क) शिष्या को किस बात का डर था ?
उत्तर – शिष्या को डर था कि अब्दुल्ला खाँ अपनी फटी तहमद पर टिप्पणी सुनकर कहीं नाराज न हो जाएँ। वह उनका दिल दुखाना नहीं चाहती थी, न ही स्वयं क्रोध का शिकार बनना चाहती थी ।
(ख) शिष्या ने खाँ साहब को किस बात के लिए रोका और क्यों ?
उत्तर – शिष्या ने अपने गुरु बिस्मिल्ला खाँ को लोगों के सामने फटी तहमद न पहनने के लिए टोका। क्योंकि वह इसे बिस्मिल्ला खाँ जैसे महान श शहनाईवादक का अपमान मानती थी । वह उन्हें गरिमाशाली वस्त्रों में देखना चाहती थी।
(ग) खाँ साहब शिष्या की बात पर क्यों मुसकराए ?
उत्तर – खाँ साहब अपनी शिष्या की बात पर मुसकरा पड़े। उन्हें इसमें अपनी शिष्या की नादानी और सद्भावना दिखाई दी। एक ओर वे शिष्या की सद्भावना पाकर प्रसन्न थे। वहीं दूसरी ओर यह सोचकर चकित थे कि यह शिष्या उनके फटे कपड़ों की ओर क्यों ध्यान दे रही है ।
(घ) खाँ साहब ने शिष्या की बात का क्या उत्तर दिया ?
उत्तर – खाँ साहब ने शिष्या की बात का उत्तर बड़े लाड़ से दिया । उन्होंने कहा- पगली, मुझे भारतरत्न शहनाई पर मिला है, लुंगिया पर नहीं । अतः तुम मेरी शहनाई के सुर देखो, लुंगी नहीं।
(ङ) खाँ साहब भगवान से क्या प्रार्थना करते थे ?
उत्तर – खाँ साहब भगवान से प्रार्थना करते थे कि वह उन्हें कभी फटा सुर न दे, लुंगिया चाहे फटी दे दे।
7. सचमुच हैरान करती है काशी-पक्का महाल से जैसे मलाई बरफ गया, संगीत, साहित्य और अदब की बहुत सारी परंपराएँ लुप्त हो गईं। एक सच्चे सुर साधक और सामाजिक की भाँति बिस्मिल्ला खाँ साहब को इन सबकी कमी खलती है। काशी में जिस तरह बाबा विश्वनाथ और बिस्मिल्ला खाँ एक-दूसरे के पूरक रहे हैं, उसी तरह मुहर्रम ताजिया और होली- अबीर, गुलाल की गंगा-जमुनी संस्कृति भी एक दूसरे के पूरक रहे हैं। अभी जल्दी ही बहुत कुछ इतिहास बन चुका है। अभी आगे बहुत कुछ इतिहास बन जाएगा। फिर भी कुछ बचा है जो सिर्फ काशी में है। काशी आज भी संगीत के स्वर पर जगती और उसी थापों पर सोती है। काशी में मरण भी मंगल माना गया है। काशी आनंदकानन है। सबसे बड़ी बात है कि काशी के पास उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ जैसा लय और सुर की तमीज सिखाने वाला नायाब हीरा रहा है जो हमेशा से दो कौमों को एक होने व आपस में भाईचारे के साथ रहने की प्रेरणा देता रहा।
(क) गंगा-जमुनी संस्कृति किसे कहा गया है ?
उत्तर – हिंदुओं और मुसलमानों की मिली-जुली संस्कृति को गंगा-जमुनी संस्कृति कहा गया है। इस संस्कृति में मुहर्रम और होली समान भाव से मनाए जाते हैं।
(ख) ‘काशी में मरण भी मंगल माना गया है ‘ आशय स्पष्ट करें।
उत्तर – ऐसी मान्यता है कि काशी में मरने वाला प्राणी स्वर्ग में जाता है। इसलिए लोग काशी में मरना पसंद करते हैं ।
(ग) काशी में क्या-क्या एक-दूसरे के पूरक रहे हैं ?
उत्तर – काशी में बाबा विश्वनाथ और बिस्मिल्ला खाँ एक-दूसरे के पूरक रहे हैं। वहाँ मुहर्रम-ताजिया और होली- अबीर गुलाल की गंगा-जमुनी संस्कृति भी एक-दूसरे के पूरक रहे हैं।
(घ) काशी में अभी भी क्या कुछ बचा है।
उत्तर – काशी में अभी भी बहुत कुछ बचा है। काशी आज भी संगीत के स्वर पर जागती है और उसी की थापों पर सोती है। काशी में मरण भी मंगल माना जाता है। काशी आनंद कानन है।
(ङ) बिस्मिल्ला खाँ को क्या चीज हैरान और परेशान करती है ?
उत्तर – बिस्मिल्ला खाँ यह देखकर हैरान और परेशान हैं कि काशी में न अब मलाई बरफ वाले रहे, न संगीत, साहित्य और अदब के प्रेमी ।
(च) काशी के जीवन की किस विशेषता पर प्रकाश डाला गया है ?
उत्तर – काशी के जीवन की यह विशेषता रही है कि यहाँ बाबा विश्वनाथ और शहनाईवादक बिस्मिल्ला खाँ एक-दूसरे के पूरक हैं। शहनाई के बिना बाबा विश्वनाथ की पूजा अधूरी जान पड़ती है। यहाँ मुहर्रम और होली के त्योहार भी एक-दूसरे के पूरक हैं। दोनों त्योहारों को सभी लोग प्रेमपूर्वक मनाते हैं।
भदंत आनंद कौसल्यायन
संस्कृति
1. एक संस्कृत व्यक्ति किसी नयी चीज की खोज करता है; किन्तु उसकी संतान को वह अपने पूर्वज से अनायास ही प्राप्त हो जाती है। जिस व्यक्ति की बुद्धि ने अथवा उसके विवेक ने किसी भी नए तथ्य का दर्शन किया, वह व्यक्ति ही वास्तविक संस्कृत व्यक्ति है और उसकी संतान जिसे अपने पूर्वज से वह वस्तु अनायास ही प्राप्त हो गई है, वह अपने पूर्वज की भाँति सभ्य भले ही बन जाए, संस्कृत नहीं कहला सकता। एक आधुनिक उदाहरण लें। न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त का आविष्कार किया। वह संस्कृत मानव था । आज के युग का भौतिक विज्ञान का विद्यार्थी न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण से तो परिचित है ही; लेकिन उसके साथ उसे और भी अनेक बातों का ज्ञान प्राप्त है जिनसे शायद न्यूटन अपरिचित ही रहा। ऐसा होने पर भी हम आज के भौतिक विज्ञान के विद्यार्थी को न्यूटन की अपेक्षा अधिक सभ्य भले ही कह सके; पर न्यूटन जितना संस्कृत नहीं कह सकते।
(क) पाठ तथा लेखक का नाम लिखें |
उत्तर – पाठ का नाम- संस्कृति ।
लेखक का नाम- भदंत आनंद कौसल्यायन ।
(ख) संस्कृत विद्यार्थी होने के लिए क्या आवश्यक है ?
उत्तर – संस्कृत विद्यार्थी बनने के लिए आवश्यक है कि विद्यार्थी नए-नए आविष्कार करे । उसमें नई-नई खोज करने की क्षमता, प्रवृत्ति और प्रेरणा हो तथा वह किसी आविष्कार तक पहुँच सके। बिना सफलता के भी वह संस्कृत नहीं कहला सकता ।
(ग) कौन व्यक्ति वास्तविक संस्कृत व्यक्ति है ?
उत्तर – वह व्यक्ति वास्तविक संस्कृत व्यक्ति है जो व्यक्ति अपनी बुद्धि अथवा विवेक से किसी नए तथ्य का दर्शन या खोज करता है। ऐसा व्यक्ति ही वास्तविक संस्कृत कहलाने का अधिकारी है।
(घ) कौन व्यक्ति संस्कृत नहीं कहला सकता ?
उत्तर – जिस व्यक्ति को अपने पूर्वज से कोई वस्तु अनायास ही प्राप्त हो जाए, वह अपने पूर्वज की भाँति सभ्य भले ही बन जाए, पर संस्कृत नहीं कहला सकता।
(ङ) न्यूटन का उदाहरण क्यों दिया गया है ?
उत्तर – न्यूटन गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत का आविष्कारक था। उसका उदाहरण संस्कृत मानव का स्वरूप समझाने के लिए दिया गया है। उसने नया आविष्कार किया था, अतः वह संस्कृत व्यक्ति था ।
(च) किसे हम न्यूटन की अपेक्षा स तो कह सकते है, पर न्यूटन जितना संस्कृत नहीं ? क्यों ?
उत्तर – भौतिक विज्ञान का विद्यार्थी न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत से परिचित होने के अतिरिक्त और भी बातों को जानता हो, तो भी हम उसको अधिक सभ्य तो कह सकते हैं, पर न्यूटन जितना संस्कृत नहीं कह सकते ।
2. पेट भरने और तन ढकने की इच्छा मनुष्य की संस्कृति की जननी नहीं है। पेट भरा और तन ढँका होने पर भी ऐसा मानव जो वास्तव में संस्कृत है, निठल्ला नहीं बैठ सकता। हमारी सभ्यता का एक बड़ा अंश हमें ऐसे संस्कृत आदमियों से ही मिला है, जिनकी चेतना पर स्थूल भौतिक कारणों का प्रभाव प्रधान रहा है, किन्तु उसका कुछ हिस्सा हमें मनीषियों से भी मिला है, जिन्होंने तथ्य-विशेष को किसी भौतिक प्रेरणा के वशीभूत होकर नहीं, बल्कि उनके अपने अंदर की सहज संस्कृति के ही कारण प्राप्त किया है। रात के तारों को देखकर न सो सकने वाला मनीषी हमारे आज के ज्ञान का ऐसा ही प्रथम पुरस्कर्ता था |
(क) पेट भरने और तन ढकने की इच्छा मनुष्य की संस्कृति की जननी क्यों नहीं है?
उत्तर – पेट भरने और तन ढकने पर भी मनुष्य इच्छाएँ शांत नहीं हीं होती। वह निठल्ला न बैठकर कुछ न कुछ खोज करता ही रहता है।
(ख) हमें अपनी सभ्यता का अंश कैसे आदमियों से मिलता है ?
उत्तर – जो व्यक्ति निठल्ले न बैठकर कुछ न कुछ करते ही रहते हैं ऐसे व्यक्ति सभ्यता को आगे बढ़ाते हैं। वे सभ्यता का अंश होते हैं और संस्कृति के वाहक भी ।
(ग) मनीषियों से मिलने वाला ज्ञान किसका परिचायक है ?
उत्तर – मनीषियों से मिलने वाला ज्ञान उनकी सहज संस्कृति के कारण ही हमें प्राप्त होता है। मनीषी सदैव ज्ञान की खोज में लगे रहते हैं। वे कभी भी संतुष्ट होकर नहीं बैठते ।
(घ) मनीषी किन्हें कहा गया है ?
उत्तर – मनीषी ऐसे संस्कृत आविष्कारकों को कहा गया है जो भौतिक आवश्यकताओं के लिए नहीं, अपितु मन की जिज्ञासा को तृप्त करने के लिए प्रकृति के रहस्यों को जानना चाहते हैं। सूक्ष्म और अज्ञात रहस्यों को जानना जिनका स्वभावगत गुण रहा है।
(ङ) आज के ज्ञान का क्या आशय है ?
उत्तर – ‘आज के ज्ञान’ का यहाँ आशय है – आज का समूचा आध्यात्मिक और सौरमंडलीय ज्ञान। आज ग्रहों-उपग्रहों और सूक्ष्म किरणों की जो वैज्ञानिक जानकारी हमें उपलब्ध है, वह सब मनीषियों द्वारा प्राप्त हुई है।
3. भौतिक प्रेरणा, ज्ञानेप्सा- क्या ये दो ही मानव संस्कृति के माता-पिता हैं ? दूसरे के मुँह में कौर डालने के लिए जो अपने मुँह का कौर छोड़ देता है, उसको यह बात क्यों और कैसे सुझती है ? रोगी बच्चे को सारी रात गोद में लिए जो माता बैठी रहती है, वह आखिर ऐसा क्यों करती है ? सुनते हैं कि रूस का भाग्यविधाता लेनिन अपने डैस्क में रखे हुए डबल रोटी के सूखे टुकड़े स्वयं न खाकर दूसरों को खिला दिया करता था। वह आखिर ऐसा क्यों करता था ? संसार के मजदूरों को सुखी देखने का स्वप्न देखते हुए कार्ल मार्क्स ने अपना सारा जीवन दुख में बिता दिया । और इन सबसे बढ़कर आज नहीं, आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व सिद्धार्थ ने अपना घर केवल इसलिए त्याग दिया कि किसी तरह तृष्णा के वशीभूत लड़ती-कटती मानवता सुख से रह सके।
(क) मानव-संस्कृति के जनक के कौन-कौन से भाव हैं ?
उत्तर – मानव संस्कृति के निम्नांकित जनक हैं
(i) भौतिक प्रेरणा आग या सुई-धागे का आविष्कार,
(ii) ज्ञानेप्सा तारों के संसार को जानने की इच्छा
(iii) त्याग अन्य मानवों लिए किया गया त्याग ।
(ख) करुणा और त्याग के कोई दो उदाहरण दें।
उत्तर – (i) किसी भूखे को भोजन कराने के लिए अपना भोजन उसे दे देना,
(ii) रोगी बच्चे की सेवा में माँ का रात-भर जागते रहना।
(ग) लेनिन और कार्लमार्क्स ने कौन-सा महान काम किया ?
उत्तर – लेनिन ने अपने डैस्क में रखे हुए डबल रोटी के सूखे टुकड़ों को खुद न खाकर उन्हें दूसरों को खिला दिया। मार्क्स ने मजदूरों को सुखी देखने के लिए जीवन-भर अध्ययन किया।
(घ) सिद्धार्थ कौन था ? उसने कौन-सा महत्त्वपूर्ण कार्य किया ?
उत्तर – सिद्धार्थ गौतम बुद्ध का दूसरा नाम है। उन्होंने तृष्णा से व्याकुल संघर्षशील की खोज की। मानवता के सुख के लिए का त्याग कर घर का कर दिया और सत्य की खोज की ।
4. और सभ्यता ? सभ्यता है संस्कृति का परिणाम । हमारे खाने-पीने के तरीके, हमारे ओढ़ने पहनने के तरीके, हमारे गमनागमन के साधन, हमारे परस्पर कट मरने के तरीके; सब हमारी सभ्यता हैं। मानव की जो योग्यता उससे आत्म-विनाश के साधनों का आविष्कार कराती है, हम उसे उसकी संस्कृति कहें या असंस्कृति ? और जिन साधनों के बल पर वह दिन-रात आत्म-विनाश में जुटा हुआ है, उन्हें हम उसकी सभ्यता समझें या असभ्यता ? संस्कृति का यदि कल्याण की भावना से नाता टूट जाएगा तो वह असंस्कृति होकर ही रहेगी और ऐसी संस्कृति का अवश्यंभावी परिणाम असभ्यता के अतिरिक्त दूसरा क्या होगा ?
(क) सभ्यता का परिचय दें ।
उत्तर – लेखक के अनुसार, संस्कृति का परिणाम है- सभ्यता । हमारे खान-पान, वेशभूषा, आने-जाने और युद्ध- संघर्ष के तरीके सभ्यता के अंतर्गत आते हैं। आशय यह है कि मानव की भौतिक संपत्ति और साधनों को सभ्यता कह सकते हैं ।
(ख) आत्मविनाश के साधनों का क्या आशय है ? उन्हें क्या नाम दिया गया है ?
उत्तर – आत्मविनाश के साधनों का आशय है – मनुष्यता का संहार करने वाले हथियार, बम, परमाणु बम, रासायनिक हथियार आदि । मनुष्यता का किसी भी प्रकार विनाश करने की योजना आत्मविनाश के अंतर्गत आती है। इसमें भ्रूण-हत्या, नशाखोरी, जुआ आदि दूषित प्रवृत्तियाँ भी आ जाती हैं। इन साधनों को असंस्कृति की संज्ञा दी गई है।
(ग) संस्कृति और असंस्कृति में क्या अन्तर है ?
उत्तर – संस्कृति मानव के विकास, ज्ञान और कल्याण के लिए निर्मित होती है। असंस्कृति मानवता के हास, विनाश और अकल्याण के लिए ध्वंस के साधन खोजती है।
(घ) आज मानव ने आत्म-विनाश के कौन-कौन से साधन जुटा लिए हैं ?
उत्तर – तरह-तरह के हथियार, अस्त्र-शस्त्र, परमाणु बम।
वैज्ञानिक उपलब्धियों का दुरुपयोग करके मानव ने आत्मविनाश के साधन जुटा लिए हैं। इस प्रकार उसने प्रकृति से नाता तोड़ लिया है।
(ङ) असंस्कृति किसे कहा गया है और क्यों ?
उत्तर – मानव की जो प्रेरणा, प्रवृत्ति और योग्यता आत्म-विनाश के साधनों को खोजती है, उसे हम संस्कृति नहीं असंस्कृति कहते हैं ।
(च) लेखक किस बात से भयभीत है ? आप उसके भय को दूर करने के लिए क्या सुझाव देंगे ?
उत्तर – यदि मानव ने संस्कृति का कल्याणकारी भावना से सम्बन्ध विच्छेद किया तो निश्चित रूप से अनर्थ होगा। हमारा वैज्ञानिक विकास कल्याणकारी भावना को लेकर हो। हम अपनी उपलब्धियों का स्वार्थ से ऊपर उठकर सदुपयोग करें।
5. संस्कृति के नाम से जिस कूड़े-करकट के ढेर का बोध होता है, वह न संस्कृति है न रक्षणीय वस्तु । क्षण-क्षण परिवर्तन होने वाले संसार में किसी भी चीज को पकड़कर बैठा नहीं जा सकता । मानव ने जब-जब प्रज्ञा और मैत्री भाव से किसी नए तथ्य का दर्शन किया है तो उसने कोई वस्तु नहीं देखी है, जिसकी रक्षा के लिए दलबंदियों की जरूरत है।
मानव संस्कृति एक अविभाज्य वस्तु है और उसमें जितना अंश कल्याण का है, वह अकल्याणकर की अपेक्षा श्रेष्ठ ही नहीं अस्थायी भी है।
(क) लेखक के अनुसार दलबंदियों की जरूरत क्यों नहीं है ?
उत्तर – लेखक के अनुसार, कोई भी प्रज्ञावान मनीषी जब किसी नई वस्तु का दर्शन करता है, तो वह किसी ऐसी वस्तु का निर्माण नहीं करता है जिसकी रक्षा की जानी चाहिए। न ही ऐसी रक्षा के लिए किसी दलबंदी की आवश्यकता है ।
(ख) ‘क्षण-क्षण परिवर्तन’ द्वारा लेखक क्या कहना चाहता है ?
उत्तर – ‘क्षण-क्षण परिवर्तन’ द्वारा लेखक कहना चाहता है कि मानव-जीवन नित्य बदलता रहता है। धारणाएँ बदलती रहती हैं। विचार और व्यवस्थाएँ बदलती रहती हैं। इसलिए प्राचीनतम परंपराओं को ढोते रहना ठीक नहीं है। हमें नवीन परिस्थितियों के अनुसार समाज-व्यवस्था और संस्कृति में परिवर्तन कर लेने चाहिए।
(ग) संस्कृति के नाम पर कूड़े-करकट का ढेर किसे कहा गया है ?
उत्तर – संस्कृति के नाम पर पुरानी अतार्किक रूढ़ियों को ढोना; वर्ण-व्यवस्था के नाम पर समाज में भेदभाव को बनाए रखना कूड़े-करकट का ढेर है । लेखक के अनुसार, ऐसी गली-सड़ी परंपराएँ निबाहने योग्य नहीं हैं ।
(घ) मानव-संस्कृति में कौन-सी चीज स्थायी है और क्यों ?
उत्तर – मानव-संस्कृति में कल्याणकारी निर्माण भी हैं और अकल्याणकारी भी । लेखक के अनुसार, कल्याणकारी निर्माण स्थायी होते हैं। क्योंकि अकल्याणकारी अर्थात् विनाशकारी बातें समय के साथ अनुपयोगी सिद्ध हो जाती है। अतः वे नष्ट हो जाती हैं। परन्तु कल्याणकारी वस्तुएँ अपनी उपयोगिता के कारण लंबे समय तक जीवित रहती हैं।
(ङ) लेखक किसे रक्षणीय वस्तु नहीं मानता ?
उत्तर – लेखक पुरानी हिंदू संस्कृति के नाम पर वर्ण-व्यवस्था को रक्षणीय वस्तु नहीं मानता। उसके अनुसार, मानव-मानव में भेद खड़ा करने वाली संस्कृति नष्ट हो जानी चाहिए।
लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर
नेताजी का चश्मा
1. सेनानी न होते हुए भी चश्मेवाले को लोग कैप्टन क्यों कहते थे ?
उत्तर – लोग चश्मेवाले को कैप्टन चश्मेवाला कहकर पुकारते थे। वह एक देशभक्त था। उसे नेताजी नजीकच चहेरा बिना चश्मे के अच्छा नहीं लगता था अतः वह उस पर चश्मा लगा देता था। यद्यपि वह सेनानी नहीं था, पर फिर भी लोग उसे कैप्टन कहते थे। वह ऐसा मजाक उड़ाने की दृष्टि से कहते थे। वैसे यह बात रहस्य ही wa बनी रही कि लोग उसे कैप्टन क्यों कहते थे। पानवाला भी इसके बारे में कोई बात करने को तैयार न था।
2. आशय स्पष्ट करें –
“बार-बार सोचते, क्या होगा उस कौम का जो अपने देश की खतिर घर-गृहस्थी-जवानी- जिंदगी सब कुछ होम देनेवालों पर भी हँसती है और अपने लिए बिकने के मौके ढूँढ़ती है।
उत्तर – कथन का आशय यह है कि जो कौम अपने बलिदानियों का सम्मान करना नहीं जानती उसका भविष्य उज्ज्वल नहीं हो सकता। जिन लोगों ने देश के लिए अपना सर्वथा बलिदान कर दिया, वे लोग समाज के सम्मान के पात्र हैं, हँसी के नहीं। ऐसी कौम लालची होती है।
3. पानवाले का एक रेखाचित्र करें ।
उत्तर – पानवाला साक्षात् पान-भंडार था। उसकी दुकान पर ही नहीं, मुँह में भी पान ठुसा था। पान के कारण वह बात तक नहीं कर सकता था । यदि उससे कोई कुछ पूछ “ले तो पहले उसे पीछे मुड़कर थूकना पड़ता था। हाँ, स्वभाव से वह बहुत ही रसिया, हँसौड़ और मजाकिया था। वह शरीर से मोटा था। उसकी तोंद निकली रहती थी। अतः वह जब भी हँसता था तो उसकी तोंद थिरकने लगती थी। हँसने पर उसके पानवाले लाल-काले दाँत खिल उठते थे। वह बातें बनाने में उस्ताद था। उसकी बोली में हँसी और व्यंग्य का पुट बना रहता था ।
4. “वो लँगड़ा क्या जाएगा फौज में पागल है पागल !
कैप्टन के प्रति पानवाले की इस टिप्पणी पर अपनी प्रतिक्रिया लिखें।
उत्तर – पानवाले की यह टिप्पणी बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है। उसे चाहिए था कि वह चश्मेवाले कैप्टन की भावनाओं का सम्मान करता। उसे पता था कि कैप्टन ही सुभाषचंद्र बोस की आँखों पर अपनी ओर से चश्मा लगाए रहता है। वह भी केवल इसलिए कि नेताजी की मूर्ति अधूरी न लगे । उसकी इस भावना से देशभक्ति प्रकट होती है। अतः ऐसे व्यक्ति की कमियाँ या कुरूपता नहीं देखनी चाहिए। न ही ऐसे व्यक्ति को पागल कहना चाहिए । अतः पानवाले की यह टिप्पणी गैरजिम्मेदाराना है।
5. ‘नेताजी का चश्मा’ पाठ पढ़कर आपके मन में क्या विचार आता है ?
उत्तर – ‘नेताजी का चश्मा’ पाठ पढ़कर हमारे मन में नेताजी के बारे में विचार आता है कि उन्होंने हमारे देश के लिए कितनी बड़ी कुर्बानी दी। इसके साथ-साथ अन्य देशभक्तों का भी स्मरण हो आता है। हमें उन सभी का सम्मान करना चाहिए । किसी भी कारण से उनका मजाक नहीं उड़ाया जाना चाहिए ।
6. कैप्टन चश्मेवाला के साथ कैसा व्यवहार किया जाना अपेक्षित था ?
उत्तर – कैप्टन चश्मेवाला के साथ सहानुभूतिपूर्ण एवं सहयोगपूर्ण व्यवहार किया जाना चाहिए। वह एक अपंग व्यक्ति था फिर भी किसी से कुछ माँगता नहीं था, बल्कि नेताजी के सम्मान की रक्षा में अपना योगदान कर रहा था। लोगों का उसी उपेक्षा करना निंदनीय है। वह समाज से सम्मान पाने का पूरा हकदार था।
7. जब तक हालदार साहब ने कैप्टन को साक्षात् देखा नहीं था तब तक उनके मानस पटल पर उनका कौन-सा चित्र रहा होगा, अपनी कल्पना से लिखें।
उत्तर – हालदार साहब ने जब तक कैप्टन को साक्षात् नहीं देखा था तब तक उनके मन में कैप्टन की मूर्ति एक भारी भरकम, मजबूत शरीर वाले रौबदार व्यक्ति की रही होगी। कैप्टन शब्द इसी प्रकार की छवि उभारा है। वे सोचते होंगे कि कैप्टन एक गठीले बदन का होगा । वह फौजी वेशभूषा में रहता होगा। उसकी बड़ी-बड़ी मूँछें होंगी और आवाज भी रौबदार होगी।
8. सीमा पर तैनात फौजी ही देश-प्रेम का परिचय नहीं देते। हम सभी अपने दैनिक कार्यों में किसी न किसी रूप में देश-प्रेम प्रकट करते हैं, जैसे सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान न पहुँचाना पर्यावरण संरक्षण आदि। अपने जीवन-जगत से जुड़े ऐसे और कार्यों का उल्लेख करें।
उत्तर – हमारे जीवन जगत से जुड़े अनेक ऐसे कार्य हैं जिनसे हम देश-प्रेम का परिचय दे सकते हैं –
(क) बिजली पानी को बर्बाद होने से बचाकर। उन्हें व्यर्थ नहीं करना चाहिए ।
(ख) पार्कों को साफ-सुथरा रखकर।
(ग) वृक्षारोपण करके और वृक्षों के कटान को रोककर ।
(घ) शिक्षा का प्रसार करके सर्वशिक्षा अभियान चलाकर l
(ङ) गैरकानूनी कार्य में संलिप्त न होकर l
(च) अपने महापुरुषों और देशभक्तों का उचित सम्मान करके।
9 चौराहे पर मूर्ति लगाने का क्या उद्देश्य हो सकता है ? मूर्ति के प्रति लोगों का क्या कर्तव्य होना चाहिए ?
उत्तर – चौराहे पर मूर्ति लगाने का यह उद्देश्य हो सकता है कि लोग उस व्यक्ति को याद रखें। किसी महापुरुष की स्मृति को जीवित रखने के लिए चौराहे पर मूर्ति लगाई जाती है। यह एक प्रकार से उस महापुरुष के प्रति लोगों की विनम्र श्रद्धांजलि होती है। मूर्ति के प्रति लोगों का यह कर्तव्य बन जाता है कि वे उसका सम्मान बनाए रखें। मूर्ति का साफ-सफाई एवं रख-रखाव की ओर भी पूरा ध्यान दिया जाना चाहिए ।
10. ‘नेताजी का चश्मा’ नामक पाठ का प्रतिपाद्य स्पष्ट करें।
उत्तर – ‘नेताजी का चश्मा’ एक रोचक कहानी है। इसमें लेखक कहना चाहता है कि देशभक्ति का सम्बन्ध मन की भावना से है। देशभक्ति प्रकट करने के लिए न फौजी होना जरूरी है, न शरीर से शक्तिशाली होना। कोई भी मनुष्य, चाहे वह बच्चा हो या बूढ़ा, देशप्रेमी हो सकता है। यदि कोई मनुष्य अपने महापुरुषों के सम्मान के लिए छोटा-सा त्याग करता है, तो वह देशभक्त है। इस कहानी में यह भी दिखाया गया है कि देशभक्ति की भावना छोटे-से-छोटे कस्बे में भी दिखाई देती है।
11. हालदार कैप्टन के बार-बार चश्मा बदलने पर व्यंग्य क्यों नहीं करता ?
उत्तर – हालदार स्वयं देशभक्त और सकारात्मक मनुष्य है। इसलिए वह अच्छी बातों का आदर करना जानता है, उनकी कमियाँ निकालना नहीं। यही कारण है कि कैप्टन द्वारा बार-बार नेताजी का चश्मा बदलने पर वह उसकी प्रशंसा ही करता है। और लंगड़ा कहने वाला पानवाला उसकी मृ मृत्यु पर दुखी क्यों
12. कैप्टन को पागल था ?
उत्तर – जब तक कैप्टन जीवित रहा, पानवाला उसे सनकी अजूबा मानता रहा। वह उसकी देशभक्ति का भी मजाक उड़ाता रहा। वह उसके लिए हँसी का पात्र था । परंतु उसकी मृत्यु पर उसे अनुभव हुआ कि केवल वही सुभाष की मूर्ति की चिंता करता था। कस्बे में और किसी के पास इतना समय और भाव नहीं है कि मूर्ति का ध्यान रखे। तभी उसने उसकी मृत्यु पर दुख प्रकट किया।
बालगोबिन भगत
1. खेतीबारी से जुड़े गृहस्थ बालगोबिन भगत अपनी किन चारित्रिक विशेषताओं के कारण साधु कहलाते थे ?
उत्तर – बालगोबिन भगत गृहस्थ थे। वे साधु तो थे पर वैसे साधु नहीं, जैसा सामान्यतः माना जाता है। वे साधुओं जैसे कपड़े न पहनते थे तथा वैसे धार्मिक अनुष्ठान नहीं करते थे ।
बालगोबिन अपनी निम्नांकित चारित्रिक विशेषताओं के कारण साधु कहलाते थे –
(क) बालगोबिन कबीर को मानते थे, उन्हीं के गीत गाते थे, उन्हीं के आदेशों पर चलते थे।
(ख) वे कभी झूठ नहीं बोलते थे और खरा व्यवहार रखते थे।
(ग) वे स्पष्टवादी थे और किसी से खामखाह झगड़ा मोल नहीं लेते थे।
(घ) वे दूसरों की किसी चीज या स्थान को अपने व्यवहार में नहीं लाते थे।
(ङ) वे अपने खेत में उत्पन्न वस्तु को पहले कबीरपंथी मठ में ले जाते थे। वहाँ से प्रसाद स्वरूप जो मिलता उसे घर लाकर अपनी गुजर चलाते थे।
(च) वे सुख-दुख की भावना से ऊपर थे ।
2. भगत की पुत्रवधू उन्हें अकेले क्यों नहीं छोड़ना चाहती थी ?
उत्तर – जब भगत के बेटे की आकस्मिक मृत्यु हो गई तब बालगोबिन भगत ने अपनी पुत्रवधू को उसके भाई के साथ भिजवा दिया और उसकी दूसरी शादी करने का आदेश दिया। पर उनकी पुत्रवधू भगत को अकेले छोड़कर नहीं जाना चाहती थी । इसका कारण यह था कि उसके जाने के बाद उनके लिए बुढ़ापे में भोजन बनानेवाला कोई नहीं था। उनके बीमार पड़ने पर उन्हें चुल्लू भर पानी भी देनेवाला कोई नहीं था । वह उन्हीं के चरणों में रहकर अपना वैधव्य काट देने को तैयार थी ।
3. भगत ने अपने बेटे की मृत्यु पर अपनी भावनाएँ किस तरह व्यक्त की ?
उत्तर – भगत ने अपने बेटे की मृत्यु पर दिखावे के लिए कुछ विशेष नहीं किया । पुत्र के शरीर को एक चटाई पर लिटाकर एक सफेद चादर से ढक दिया । कुछ फूल उस पर बिखेर दिए और एक दीपक जला दिया। वे उसके सामने जमीन पर आसन जमाकर गीत गाने लगे। उनके स्वर में पहले जैसी तल्लीनता थी । वे पूरी तरह संयत बने रहे। वे गाते-गाते पतोहू के पास जाकर और उसे रोने के बदले उत्सव मनाने को कहते थे। उनका कहना था कि आत्मा का परमात्मा में मिल जाना तो आनंद की बात है। उस समय उनमें अटल विश्वास का भाव झलक रहा था। इसी प्रकार उन्होंने अपनी भावनाएँ व्यक्त की ।
4. भगत के व्यक्तित्व और उनकी वेशभूषा का अपने शब्दों में चित्र प्रस्तुत करें।
उत्तर – भगत का व्यक्तित्व एक साधु के अनुरूप था। वे एक गोरे-चिट्टे और मझोले कद के व्यक्ति थे। उम्र उनकी साठ वर्ष से ऊपर की थी। उनके बाल पक गए थे । उनका चेहरा सफेद बालों से जगमग करता रहता था। वे कपड़े बहुत कम पहनते थे। उनकी कमर में केवल लँगोटी रहती थी और सिर पर कबीरपंथियों वाली कनफटी टोपी । जाड़ा आने पर काली कमली ओढ़ लेते थे। उनके मस्तक पर रामानंदी चंदन चमकता रहता था जो नाक के एक छोर से शुरू होकर ऊपर की ओर चला जाता था। वे गले में तुलसी की जड़ों की एक बेडौल माला बाँधे रहते थे। इस वेशभूषा में उनका व्यक्तित्व एक साधु की तरह प्रतीत होता था ।
5. बालगोबिन भगत की दिनचर्या लोगों के अचरज का कारण क्यों थी ?
उत्तर – बालगोबिन भगत की दिनचर्या लोगों को हैरान कर देती थी। वे भगत जी की सरलता, सादगी और निस्वार्थता पर हैरान होते थे। भगत जी भूलकर भी किसी से कुछ नहीं लेते थे। वे बिना पूछे किसी की चीज छूते भी नहीं थे। यहाँ तक कि किसी दूसरे के खेत में शौच भी नहीं करते थे। लोग उनके इस खरे व्यवहार पर मुग्ध थे।
लोग भगत जी पर तब और भी आश्चर्य करते थे जब वे भोरकाल में उठकर दो मील दूर स्थित नदी में स्नान कर आते थे। वापसी पर वे गाँव के बाहर स्थित पोखर के किनारे प्रभु-भक्ति के गीत टेरा करते थे। उनके इन प्रभाती गानों को सुनकर लोग सचमुच हैरान रह जाते थे।
6. पाठ के आधार पर बालगोबिन भगत के मधुर गायन की विशेषताएँ लिखें।
उत्तर – बालगोबिन भगत प्रभु-भक्ति के मस्ती – भरे गीत गाया करते थे। उनके गानों में सच्ची टेर होती थी। उनका स्वर इतना मोहक, ऊँचा और आरोही होता था कि सुनने वाले मंत्रमुग्ध हो जाते थे। औरतें उस गीत को गुनगुनाने लगती थीं। खेतों में काम करने वाले किसानों के हाथ और पाँव एक विशेष लय में चलने लगते थे। उनके संगीत में जादुई प्रभाव था । वह मनमोहक प्रभाव सारे वातावरण पर छा जाता था। यहाँ तक कि घनघोर सर्दी और गर्मियों की उमस भी उन्हें डिगा नहीं पाती थी ।
7. कुछ मार्मिक प्रसंगों के आधार पर यह दिखाई देता है कि बालगोबिन भगत प्रचलित सामाजिक मान्यताओं को नहीं मानते थे। पाठ के आधार पर उन प्रसंगों का उल्लेख करें ।
उत्तर – यह सही है कि बालगोबिन भगत प्रचलित सामाजिक मान्यताओं को नहीं मानते थे। पाठ से प्रसंग प्रस्तुत है –
(क) जब बालगोबिन भगत के इकलौते पुत्र की अकाल मृत्यु हुई तब वे विचलित न होकर उसके शव के पास बैठकर गीत गाते रहे ।
(ख) उन्होंने पुत्रवधू को न रोने का परामर्श दिया और उत्सव मनाने को कहा क्योंकि उसके पति की आत्मा परमात्मा के पास चली गई थी। यह तो आनंद की बात थी ।
(ग) उन्होंने मान्य सामाजिक मान्यता के विपरीत अपने पुत्र की चिता को अग्नि अपनी पतोहू से दिलाई।
(घ) उन्होंने समाज की परवाह न करके पतोहू की दूसरी शादी का हुक्म दिया।
(ङ) उनका हर वर्ष गंगा स्नान के लिए जाना धार्मिक आस्था के कारण न होकर संत – समागम और लोकदर्शन के लिए था |
8. धान की रोपाई के समय समूचे माहौल को भगत की स्वर लहरियाँ किस तरह चमत्कृत कर देती थीं ? उन माहौल का शब्द चित्र प्रस्तुत करें।
उत्तर – आषाढ़ का महीना है। रिमझिम बारिश हो रही है। कहीं हल चल रहे है तो कहीं धान की रोपाई चल रही है। धान के पानी भरे खेतों में बच्चे उछल-कूद कर रहे हैं, औरतें कलेवा लेकर खेत की मेंड पर बैठी हैं। आसमान बादलों से घिरा है, ठंडी पुरवाई चल रही है। ऐसे मोहक माहौल ने बालगोबिन भगत की स्वर लहरियाँ कानों को झंकृत कर देती हैं। उनके कंठ का एक-एक शब्द संगीत की सीढ़ी पर चढ़ाकर ऊपर स्वर्ग की ओर ले जाया प्रतीत होता है। ये स्वर लहरियाँ इतना चमत्कृत कर देती हैं कि बच्चे झूम उठते हैं, औरतों के होंठ गुनगुनाने लगते हैं, हलवाहों के पैर ताल से उठने लगते हैं। सभी पर बालगोबिन भगत के संगीत का जादू छा जाता है।
9. पाठ के आधार पर बताएँ कि बालगोबिन भगत की कबीर पर श्रद्धा किन-किन रूपों में प्रकट हुई है ?
उत्तर – बालगोबिन की कबीर पर श्रद्धा निम्नांकित रूपों में प्रकट हुई है –
(क) बालगोबिन सिर पर कबीरपंथियों की सी कनपटी पहनते थे।
(ख) भगत कबीर को ‘साहब’ मानते थे।
(ग) वे कबीर के गीत गाते थे और उन्हीं के आदेशों पर चलते थे ।
(घ) उनके खेत में जो कुछ भी पैदा होता, उसे सिर पर लादकर उसे चार कोस दूर कबीरपंथी मठ में ले जाते थे। वह कबीर दरबार में पहुँच कर भेंट हो जाता और जो उन्हें प्रसाद रूप में मिलता, उसे घर ले आते और उसी से गुजर चलाते थे ।
10 .आप की दृष्टि में भगत की कबीर पर अगाध श्रद्धा के क्या कारण रहे होंगे ?
उत्तर – हमारी दृष्टि में भगत की कबीर पर श्रद्धा के निम्नांकित कारण रहे होंगे –
(क) बालगोबिन भगत की तत्कालीन समाज में समझी जाने वाली निम्न जाति से संबंधित थे- कबीर जुलाहे और भगत तेली ।
(ख) भगत को कबीर का गृहस्थी साधु वाला रूप भाया होगा। भगत भी इसी प्रकार के थे ।
(ग) कबीर की विचारधारा भगत की विचारधारा के अनुरूप थी। दोनों में काफी समानता थी ।
(घ) दोनों ‘सादा जीवन उच्च विचार’ में विश्वास रखते थे।
(ङ) भगत को कबीर के गीत पसंद थे।
11. गाँव का सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश आषाढ़ चढ़ते ही उल्लास से क्यों भर जाता है ?
उत्तर – गाँव का जीवन कृषि पर आधारित होता है और कृषि वर्षा पर आधारित है। वर्षा का प्रारंभ आषाढ़ मास से होता है । आषाढ़ मास में जब आसमान में काले-काले बादल घिर आते हैं और रिमझिम फुहारें पड़ने लगती है तब गाँव का सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन उल्लास से भर जाता है। लोगों में खुशी की लहर दौड़ जाती है। लोगों की आँखों में लहलहाती फसल के सपने तैरने लगते हैं। गाँव के सभी लोग (पुरुष- स्त्रियाँ) सुनहरे भविष्य की कल्पना में डूब जाते हैं।
12. मोह और प्रेम में अंतर होता है। भगत के जीवन की किस घटना के आधार पर इस कथन का सच सिद्ध करेंगे ?
उत्तर – मोह में अंधता होती है, वह भला-बुरा न देखकर केवल स्वार्थ पर आधारित होता है। प्रेम एक सात्त्विक भाव है। इसमें निर्मलता एवं स्वार्थहीनता होती है।
भगत का पुत्र के प्रति प्रेम था, पर मोह न था । यही कारण है कि उन्होंने की पुत्र मृत्यु को सहज रूप में लिया । वे इसे पुत्र की आत्मा का परमात्मा से मिलन मानकर आनंद की बात बता रहे थे ।
13. इस रेखाचित्र के माध्यम से लेखक ने क्या कहने का प्रयास किया है ?
उत्तर – बालगोबिन भगत रेखाचित्र के माध्यम से लेखक ने एक ऐसे विलक्षण चरित्र का उद्घाटन किया है जो मनुष्यता, लोक संस्कृति और सामूहिक चेतना का प्रतीक है। वेश-भूषा या बाह्य अनुष्ठानों से कोई सन्यासी नहीं होता, सन्यास का आधार जीवन के मानवीय सरोकार होते हैं। बालगोबिन भगत इसी आधार पर लेखक को सन्यासी लगते हैं। यह पाठ वर्ण-व्यवस्था की अमानवीयता और सामाजिक रूढ़ियों पर भी प्रहार करता है। इस रेखाचित्र की एक विशेषता यह है कि बालगोबिन भगत के माध्यम से ग्रामीण जीवन की सजीव झाँकी देखने को मिलती
है ।
14. बालगोबिन भगत का रेखाचित्र प्रस्तुत करें।
उत्तर – नाम बालगोबिन भगत, गृहस्थ होते हुए भी संयासी, उम्र साठ के ऊपर, मंझोले के गोरे-चिटठे व्यक्ति थे । बाल सफेद एवं नूरानी, चेहरा चमकदार, कमर में सिर्फ एक लंगोटी और सिर पर कबीरपंथी कनफटी टोपी यही थी उनकी वेश-भूषा| हाथ में खँजड़ी, तल्लीन होकर प्रभु भजन का गायन करना यही उनकी दिनचर्या थी।
15. बालगोबिन गंगा स्नान की लंबी यात्रा के दौरान अपना गुजारा कैसे करते थे ?
उत्तर – बालगोबिन भगत गंगा स्नान की चार-पाँच दिन की यात्रा में पानी पीकर गुजारा करते थे। वे घर से भोजन करके चलते थे। रास्ते में न किसी से माँगते थे, न खाते थे। जहाँ प्यास लगती थी, पानी पी लेते थे। इस प्रकार वे चार-पाँच दिन काट देते थे और वापस आकर ही भोजन करते थे ।
लखनवी अंदाज
1. लेखक को नवाब साहब के किन हाव-भावों से महसूस हुआ कि वे उनसे बातचीत करने के लिए तनिक भी उत्सुक नहीं हैं ?
उत्तर – जब लेखक नवाब साहब के डिब्बे में सहसा कूद कर घुस गया तब उन्होंने देखा कि लखनऊ की नवाबी नस्ल का एक सफेदपोश सज्जन पालथी मारे बैठा है । लेखक के आने से उसके हाव-भावों से ऐसा लगा कि उस सज्जन के एकांत में बाधा आ गई है। उस सज्जन की आँखों में एकांत चिंतन का भाव था। खीरे जैसे अपदार्थ वस्तु को खाते देखे जाने पर शायद नवाब साहब को संकोच हो रहा था । नवाब साहब ने लेखक की संगति के लिए तनिक भी उत्साह नहीं दिखाया ।
2. नवाब साहब ने बहुत ही यत्न से खीरा काटा, नमक-मिर्च बुरका, नमक-मिर्च अंततः सूँघकर ही खिड़की से बाहर फेंक दिया। उन्होंने ऐसा क्यों किया होगा ? उनका ऐसा करना उनके कैसे स्वभाव को इंगित करता है ?
उत्तर – नवाबों के मन में अपनी नवाबी की धाक जमाने की बात रहती है। इसलिए वे सामान्य समाज के तरीकों को ठुकराते हैं तथा नए-नए सूक्ष्म तरीके खोजते हैं, जिससे उनकी अमीरी प्रकट हो । नवाब साहब अकेले में बैठे-बैठे खीरे खाने की तैयारी कर रहे थे। परंतु लेखक को सामने देखकर उन्हें अपनी नवाबी दिखाने का अवसर मिल गया । उन्होंने दुनिया की रीत से हटकर खीरे सूँघे और बाहर फेंक दिए। इस प्रकार उन्होंने लेखक के मन पर अपनी अमीरी की धाक जमा दी।
3. बिना विचार, घटना और पात्रों के भी क्या कहानी लिखी जा सकती है। यशपाल के इस विचार से आप कहाँ तक सहमत हैं ?
उत्तर – हमारे मत में बिना विचार, घटना और पात्रों के बिना कहानी नहीं लिखी जा सकती। ये तीनों बातें कहानी के आवश्यक तत्व होते हैं। जब तक कोई विचार नहीं आएगा, तब तक कहानी बन ही नहीं सकती। घटना कहानी की कथावस्तु को आगे बढ़ाती है और पात्रों के माध्यम से कहानी कही जाती है। यशपाल का कथन तो ‘नई कहानी’ पर व्यंग्य है अर्थात् नई कहानी में विचार, घटना और पात्रों का अभाव रहता है तभी वह रोचक एवं उद्देश्यपूर्ण नहीं होती।
4. नवाब साहब द्वारा खीरा खाने की तैयारी करने का एक रेखाचित्र प्रस्तुत किया गया है। इस पूरी प्रक्रिया को अपने शब्दों में प्रस्तुत करें।
उत्तर – नवाब साहब ने लखनऊ के बालम खीरे खरीदे। वे खीरे तौलिए पर रखे हुए थे। फिर उन्होंने खीरों को लोटे के पानी से खिड़की के बाहर करके धोया और फिर तौलिए से पोंछ लिया। इसके बाद जेब से चाकू निकाला और दोनों खीरों के सिर काट डाले। फिर उन्हें गोंदकर झाग निकाला ताकि उनका कड़वापन चला जाए। इसके बाद उन खीरों को बहुत सावधानी से छीला और काटकर फाँकें तैयार की। इसके बाद बहुत करीने से खीरे की फाँकों पर जीरा मिला नमक और लाल मिर्च की सुर्खी बुरक दी। अब खीरे खाने को तैयार थे पर नवाब साहब ने उन्हें केवल सूँघा और खिड़की से बाहर फेंक दिया ।
5. खीरे के सम्बन्ध में नवाब साहब के व्यवहार को उनकी सनक कहा जा सकता है ? क्या सनक का कोई सकारात्मक रूप हो सकता है ?
उत्तर – खीरे के सम्बन्ध में नवाब साहब के व्यवहार की उनकी सनक ही कहा जा सकता है। उन्होंने बहुत यत्न के साथ खीरों को खाने के लायक तैयार किया और फिर अपनी सनक के कारण खिड़की से बाहर फेंक दिया। इसमें उनकी झूठी नवाबी शान की सनक थी ।
हाँ, सनक का सकारात्मक रूप भी हो सकता है। जितने भी समाज-सुधार या देशभक्ति के काम हुए है, वे सभी सनक के कारण ही सम्भव हुए हैं। सनकी व्यक्ति ही इन कामों को अंजाम तक पहुँचाते हैं।
6. ‘लखनवी अंदाज’ नामक व्यंग्य का क्या संदेश है ?
उत्तर – ‘लखनवी अंदाज’ नामक व्यंग्य में लेखक कहना चाहता है कि जीवन में स्थूल और सूक्ष्म दोनों का महत्व है। केवल गंध और स्वाद के सहारे पेट नहीं भर सकता। जो लोग इस तरह पेट भरने और संतुष्ट होने का दिखावा करते हैं, वे ढोंगी हैं, अवास्तविक हैं। इस व्यंग्य का दूसरा संदेश यह है कि कहानी के लिए कोई-न-कोई घटना, पात्र और विचार अवश्य चाहिए। बिना घटना और पात्र के कहानी लिखना निरर्थक है।
7. ‘नवाब साहब खीरे की तैयारी और इस्तेमाल से थककर लेट गए।’ इस पंक्ति में छिपे व्यंग्य स्पष्ट करें।
उत्तर – इस पंक्ति में गहरा व्यंग्य छिपा है । लेखक कहना चाहता है कि लखनवी नवाबों की सारी जिंदगी छोटी-छोटी बातों में नजाकत दिखाने में बीत जाती है। वे सुबह उठने से लेकर रात सोने तक अपनी नवाबी शान को लिए-लिए फिरते हैं। वे अपने नखरे-भरे अंदाजों में ही जीवन गर्क कर लेते हैं। वे जीवन-भर ठोस कुछ भी नहीं करते। वे केवल कपोल कल्पनाओं में जीना चाहते हैं।
8. आप इस निबंध को क्या नाम देना चाहेंगे ?
उत्तर – हम इस निबंध को नाम देना चाहेंगे- दिखावे की जिंदगी ।
9. लेखक नवाब साहब को देखते ही उसके प्रति व्यंग्य से क्यों भर जाता है ?
उत्तर – लेखक के मन में लखनवी नवाबों के प्रति पूर्वधारणा है कि वे अपनी आन-बान-शान को बहुत महत्व देते हैं। वे हर चीज से नजाकत दिखाते हैं तथा स्वयं को औरों से अधिक शिष्ट, शालीन और कुलीन सिद्ध करना चाहते हैं। इस धारणा के कारण उसे नवाब के हर कार्य में नवाबी शान दिखाई दी। उसे नहीं पता कि नवाब साहब सेकंड क्लास में यात्रा क्यों कर रहे हैं, फिर भी वह उसमें खोट देखता है। उसका नवाब को ‘लखनऊ की नवाबी नस्ल का सफेदपोश सज्जन’ कहना ही उसकी पूर्वधारणा का प्रमाण है।
10. ‘नई कहानी’ और ‘लखनवी अंदाज’ में आपको क्या समानता दिखाई देती है ?
उत्तर – नई कहानी और लखनवी अंदाज दोनों अशरीरी, सूक्ष्म और काल्पनिक हैं। दोनों ठोस को नहीं, गंध को महत्व देते हैं। नवाब साहब बिना खीरा खाए पेट भरना चाहते हैं तो नए कहानीकार बिना घटना, पात्र और उद्देश्य के कहानी लिखना चाहते हैं। दोनों ही जीवन की वास्तविकता और यथार्थ की उपेक्षा करते हैं और सूक्ष्म की आराधना करते हैं।
मानवीय करुणा की दिव्य चमक
1. फादर की उपस्थिति देवदार की छाया जैसी क्यों लगती थी ?
उत्तर – फादर बुल्के का व्यक्तित्व देवदार के वृक्ष के समान विशाल था। वे सभी पर अपना वात्सल्य लुटाते थे। उनकी कृपा की छाया उनकी शरण में आने वाले हर व्यक्ति पर छायी रहती थी। वे अपने आशीषों से लोगों को भर देते थे। वे पारिवारिक उत्सवों एवं साहित्यिक गोष्ठियों में शामिल होकर पुरोहित जैसे प्रतीत होते थे। उनकी छाया सुखद एवं शीतल प्रतीत होती थी। यही कारण है कि उनकी उपस्थिति देवदार की छाया जैसी लगती थी।
2. फादर बुल्के भारतीय संस्कृति के एक अभिन्न अंग हैं, किस आधार पर ऐसा कहा गया है ?
उत्तर – फादर बुल्के भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग रहे हैं। वे भारतीय संस्कृति में गहरी रुचि लेते थे। भारतीय संस्कृति से प्रभावित होकर ही वे भारत में बसने चले आए थे। यहीं उन्होंने कोलकाता और इलाहाबाद में रहकर पढ़ाई की। वे भारतीय संस्कृति के प्रतीक श्री रामचंद्र एवं तुलसीदास के अनन्य भक्त थे। उनका जीवन भारतीय संस्कृति के मूल्यों के अनुरूप था। उन्हें हिंदी से बेहद लगाव था। उन्हें भारतीय संस्कृति की सभी बातें प्रिय थीं ।
3. पाठ में आए उन प्रसंगों का उल्लेख करें जिनसे फादर बुल्के का हिंदी प्रेम प्रकट होता है ?
उत्तर – निम्नांकित प्रसंगों से फादर बुल्के का हिंदी – प्रेम प्रकट होता है
(क) फादर बुल्के ने हिंदी में एम०ए० किया ।
(ख) प्रयाग विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में रहकर 1950 में अपना शोध प्रबंध हिंदी में पूरा किया । विषय था- “रामकथा: उत्पत्ति और विकास”
(ग) ब्लू बर्ड का हिंदी रूपांतर ‘नीलपंछी’ नाम से किया ।
(घ) अंग्रेजी – हिंदी शब्द कोश तैयार किया |
(ङ) बाइबिल का हिंदी अनुवाद किया ।
(च) हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए जोरदार पैरवी की।
4. इस पाठ के आधार पर फादर कामिल बुल्के की जो छवि (व्यक्तित्व) उभरती है उसे अपने शब्दों में लिखें ।
उत्तर – फादर कामिल बुल्के एक आत्मीय सन्यासी थे। वे ईसाई पादरी थे। इसलिए हमेशा एक सफेद चोगा धारण करते थे। उनका रंग गोरा था । चेहरे पर सफेद झलक देती हुई भूरी दाढ़ी थी । आँखें नीली थीं। बाँहें हमेशा गले लगाने को आतुर दिखती थीं। उनके मन में अपने प्रियजनों और परिचितों के प्रति असीम स्नेह था । वे सबको स्नेह, सांत्वना, सहारा और करुणा देने में समर्थ थे ।
5. लेखक ने फादर बुल्के को मानवीय करुणा की दिव्य चमक’ क्यों कहा है ?
उत्तर – लेखक ने फादर कामिल बुल्के को मानवीय करुणा की दिव्य चमक कहा है। फादर के मन में सब परिचितों के प्रति सद्भावना और ममता थी । वे सबके प्रति वात्सल्य भाव रखते थे। वे तरल-हृदय थे । वे कभी किसी से कुछ चाहते नहीं थे, बल्कि देते ही देते थे। वे हर दुख में साथी प्रतीत होते थे और सुख में बड़े-बुजुर्ग की भाँति वात्सल्य देते थे। उन्होंने लेखक के पुत्र के मुँह में पहला अन्न भी डाला और उसकी मृत्यु पर सांत्वना भी दी । वास्तव में उनका हृदय सदा दूसरों के स्नेह में पिघला रहता था। उस तरलता की चमक उनके चेहरे पर साफ दिखाई देती थी ।
6. फादर बुल्के ने सन्यासी की परंपरागत छवि से अलग एक नई छवि प्रस्तुत की है, कैसे ?
उत्तर – फादर बुल्के सच्चे अर्थों में एक भारतीय सन्यासी थे। पर वे परंपरागत सन्यासी से कुछ अलग हटकर थे। उनकी छवि एक भिन्न प्रकार के सन्यासी की थी। परंपरागत सन्यासी भगवे वस्त्र धारण करता है जबकि फादर सफेद चोगा पहनते थे ।
परंपरागत सन्यासी सक्रिय जीवन को त्यागकर केवल ज्ञानार्जन एवं ज्ञान देने का काम करता है जबकि फादर जीवन-शैली में सन्यासी थे फिर भी समाज के तथा लोगों के पारिवारिक जीवन के कार्यक्रमों में भाग लेते रहते थे। उन्होंने विश्वविद्यालय में पढ़ाने का काम भी किया ।
एक सच्चे सन्यासी की तरह उनमें मानवीय गुणों का समावेश था। वे परोपकारी थे। उनके हृदय में दूसरों के लिए करुणा एवं वात्सल्य का भाव था। वे क्रोध नहीं करते थे। उनके व्यक्तित्व में मानवीय करुणा की दिव्य चमक थी। फादर बुल्के अंतिम क्षण तक कर्म करते रहे।
7. “नम आँखों को गिनना स्याही फैलाना है।” आशय स्पष्ट करें।
उत्तर – फादर बुल्के की मृत्यु पर रोने वालों की कोई कमी नहीं थी। उनके जाने पर अनेक लोगों की आँखों में आँसू थे। उन लोगों की गिनती करना उचित न होगा क्योंकि इससे दुःख और भी बढ़ जाएगा।
8. ‘फादर को याद करना एक उदास शांत संगीत को सुनने जैसा है।” आशय स्पष्ट करें।
उत्तर – फादर बुल्के के मृत्यु के बाद याद करना एक ऐसा ही अनुभव है मानो हम उदास शांत संगीत सुन रहे हों। उनका स्मरण हमें उदास कर जाता है। इस उदासी भी उनकी याद शांत संगीत की तरह गूंजती रहती है।
9. आपके विचार में बुल्के ने भारत आने का मन क्यों बनाया होगा ?
उत्तर – फादर बुल्के अपनी इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष की पढ़ाई छोड़कर सन्यासी बनने के लिए अपने धर्मगुरु के पास गए और उनके सामने सन्यास लेने के साथ भारत जाने की इच्छा प्रकट की।
यद्यपि उन्होंने इस बात का कोई स्पष्ट उत्तर नहीं दिया कि उनके मन में भारत जाने की इच्छा क्यों उठी ? पर हमारे विचार से फादर बुल्के के मन में भारत और हिंदी के बारे में अगाध प्रेम रहा होगा। वे भारत में रहकर भारत की संस्कृति और साहित्य का अध्ययन करना चाहते होंगे। यह बात उनके बाद के व्यवहार और लेखन से सिद्ध भी होकर रही ।
10. बहुत सुंदर है मेरी जन्मभूमि- ‘रेम्सचैपल’ – इस पंक्ति में फादर बुल्के की अपनी जन्मभूमि के प्रति कौन-सी भावनाएँ अभिव्यक्त होती हैं ? आप अपनी जन्मभूमि के बारे में क्या सोचते हैं ?
उत्तर – इस पंक्ति में फादर बुल्के की अपनी जन्मभूमि के प्रति असीम लगाव की भावना अभिव्यक्त होती है। उन्हें अपनी जन्मभूमि की बहुत याद आती थी । वे अपनी जन्मभूमि को बहुत सुंदर मानते थे ।
हम भी अपनी जन्मभूमि को महान समझते है। इसे हम माता अर्थात् जन्मभूमि माँ के समान मानते हैं। इसे हम स्वर्ग से भी बढ़कर मानते हैं एवं पूजते हैं।
11. ‘मानवीय करुणा की दिव्य चमक’ पाठ से हमें क्या प्रेरणा मिलती है ?
उत्तर – इस पाठ से हमें यह प्रेरणा मिलती है कि हमें मानवतावादी दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। विश्व में सभी मनुष्य बराबर हैं। सभी के साथ करुणापूर्ण व्यवहार करो । अपनी भाषा पर गर्व करना सीखो। दूसरों के सुख-दुःख के साथी बनो। मानवीय करुणा सर्वोपरि है।
12. ‘परिमल’ के बारे में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर – ‘परिमल’ एक साहित्यिक संस्था है। इसकी शुरुआत इलाहाबाद से हुई। आरंभ में इलाहाबाद के साहित्यिक मित्र इसके सदस्य थे। ये आपस में मिलकर हिंदी कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक आदि पर साहित्यिक गोष्ठियाँ किया करते थे। धीरे-धीरे ये गोष्ठियाँ अखिल भारतीय स्तर की होती चली गईं। संस्था भी आसपास के क्षेत्रों में फैलने लगी । बाद में मुंबई, जौनपुर, मथुरा, पटना तथा कटनी में भी ‘परिमल’ की स्थापना हुई । इलाहाबाद में लेखक सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, डॉ० रघुवंश, फादर कामिल बुल्के और अन्य बड़े साहित्यकार इसमें भाग लिया करते थे। डॉ० बुल्के ने ‘रामकथा’ : उत्पत्ति और विकास’ के कुछ अध्याय परिमल में पढ़े थे।
13. फादर कामिल बुल्के का जीवन किसलिए अनुकरणीय माना जा सकता है ?
उत्तर – फादर कामिल बुल्के का जीवन अनुकरणीय था। वे सच्चे इनसान थे। उनमें निर्दोष, निर्विकार आत्मा थी । वे बड़े करुणापूर्ण, स्नेही, सहयोगी और आत्मीय थे। वे अपने संपर्क में आने वाले को जल्दी अपना बना लेते थे। उनमें अपने-पराए का छोटा मनोभाव नहीं था । वे ऊँचे छायादार पेड़ थे। उनके शब्दों में शांति झरती थी । वे सबके दिल जीतना जानते थे ।
एक कहानी यह भी
1. लेखिका के व्यक्तित्व पर किन-किन व्यक्तियों का किस रूप में प्रभाव पड़ा ?
उत्तर – लेखिका के व्यक्तित्व पर निम्नांकित व्यक्तियों का प्रभाव पड़ा –
पिताजी का प्रभाव – लेखिका के व्यक्तित्व पर पिताजी के स्वभाव एवं आदतों का अप्रत्यक्ष रूप से गहरा प्रभाव पड़ा । पिताजी के गोरे रंग के प्रति लगाव ने लेखिका के अंदर हीन-भाव की ग्रंथि पैदा कर दी क्योंकि वह काली है। इसी हीन ग्रंथि के कारण लेखिका कभी भी अपनी उपलब्धि पर भरोसा नहीं कर पाती। पिताजी के शक्की स्वभाव का भी लेखिका के व्यक्तित्व पर प्रभाव पड़ा है। उसके अपने स्वभाव में भी शक की झलक दिखाई देती है।
प्राध्यापिका शीला अग्रवाल का प्रभाव – जब लेखिका दसवीं पास कर फर्स्ट इयर में आई तब उसका परिचय हिंदी प्राध्यापिका शीला अग्रवाल से हुआ। उन्होंने लेखिका को बाकायदा साहित्य की दुनिया में प्रवेश कराया । साहित्य में रुचि उत्पन्न करने तथा लेखन की ओर प्रेरित करने में शीला अग्रवाल का बहुत योगदान था । लेखिका उनके साथ लंबी-लंबी बहसें करती थीं और काफी कुछ समझने का प्रयास करती थीं। शीला अग्रवाल ने लेखिका का साहित्यिक-दायरा तो बढ़ाया ही साथ ही देश की स्थितियों में सक्रिय भागीदारी करने को भी प्रेरित किया।
2. इस आत्मकथ्य में लेखिका के पिता ने रसोई को ‘भटियारखाना’ कहकर क्यों संबोधित किया है ?
उत्तर – लेखिका के पिता का आग्रह रहता था कि वह रसोई से दूर रहे। वे रसोई को ‘भटियारखाना’ कहते थे। उनका कहना था कि रसोई के इस भटियारखाने में रहने से व्यक्ति की प्रतिभा और क्षमता भट्ठी में चली जाती है अर्थात् नष्ट हो जाती है। वे इसे समय की बर्बादी मानते थे।
3. वह कौन-सी घटना थी जिसके बारे में सुनने पर लेखिका को न अपनी आँखों पर विश्वास हो पाया और न अपने कानों पर ?
उत्तर – लेखिका कॉलेज में हड़ताल करवाने में सबसे आगे रहती थी। एक बार कॉलेज के प्रिंसिपल का पत्र पिताजी के नाम आया कि वे आकर मिलें और बताएँ कि उनकी बेटी मन्नू की गतिविधियों के कारण उसके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई क्यों न की जाए? इस पत्र को पढ़कर वे आग बबूला हो गए। उन्हें लगा कि कॉलेज में जाकर उन्हें काफी बातें सुननी पड़ेंगी। उनके कहर का अनुमान करके लेखिका अपनी सहेली के घर में छिपकर बैठ गई। कॉलेज जाकर पिताजी को प्रिंसिपल का यह कहना सुनने को मिला कि वह अपनी लड़की को घर पर बिठा लें क्योंकि उसके इशारे पर अन्य लड़कियाँ मैदान में जमा होकर नारे लगाने लगती हैं। यह सुनकर पिताजी को अपने बेटी पर गर्व हुआ और वे प्रिंसिपल से यह कहकर आए कि यह तो पूरे देश की पुकार है, इसे कोई कैसे रोक सकता है। वे खुश होकर घर लौटे। जब लेखिका की माँ ने पिताजी के खुश होने के बारे में बताया तब लेखिका को इस पर सहज विश्वास नहीं हुआ।
4. लेखिका की अपने पिता से वैचारिक टकराहट को अपने शब्दों में लिखें।
उत्तर – लेखिका और उसके पिता के विचार आपस में टकराते थे। पिता लेखिका को देश-समाज के प्रति जागरूक बनाना चाहते थे किन्तु उसे घर तक ही सीमित रखना चाहते थे। वे उसके मन में विद्रोह और जागरण के स्वर भरना चाहते थे किन्तु उसे सक्रिय नहीं होने देना चाहते थे। लेखिका चाहती थी कि वह अपनी भावनाओं को प्रकट भी करे । वह देश की स्वतंत्रता में सक्रिय होकर भाग ले । यहीं आकर दोनों की टक्कर होती थी। विवाह के मामले में भी दोनों के विचार टकराए। पिता नहीं चाहते थे कि लेखिका अपनी मनमर्जी से राजेंद्र यादव से शादी करे । परन्तु लेखिका ने उनकी परवाह नहीं की।
5. इस आत्मकथ्य के आधार पर स्वाधीनता आंदोलन के परिदृश्य का चित्रण करते हुए उसमें मन्नू जी की भूमिका को रेखांकित करें।
उत्तर – सन् 1942 से लेकर 1947 तक का समय स्वतंत्रता आंदोलन का समय था । इन दिनों पूरे देश में देशभक्ति का ज्वार पूरे यौवन पर था। हर नगर में हड़तालें हो रही थीं। प्रभात-फेरियाँ हो रही थीं। जलसे हो रहे थे। जुलूस निकाले जा रहे थे । युवक-युवतियाँ सड़कों पर घूम-घूमकर नारे लगा रहे थे। सारी मर्यादाएँ टूट रही थीं। घर के बंधन, स्कूल-कॉलेज के नियम सबका धज्जियाँ उड़ ड़ रही थीं l लड़कियाँ भी लड़कों के साथ खुलकर सामने आ रही थीं।
ऐसे वातावरण में लेखिका मन्नू भंडारी ने अपूर्व उत्साह दिखाया। उसने पिता की इच्छा के विरुद्ध सड़कों पर घूम-घूमकर नारेबाजी की, भाषण दिए, हड़तालें कीं, जलसे-जुलूस किए। उसके के इशारे पर पूरा कॉलेज कक्षाएँ छोड़कर आंदोलन में साथ हो लेता था । हम कह सकते हैं कि वे स्वतंत्रता सेनानी थीं।
6. लेखिका ने बचपन में अपने भाइयों के साथ गिल्ली डंडा तथा पतंग उड़ाने जैसे खेल भी खेले किन्तु लड़की होने के कारण उनका दायरा घर की चारदीवारी तक सीमित था । क्या आज भी लड़कियों के लिए स्थितियाँ ऐसी ही हैं या बदल गई हैं, अपने परिवेश के आधार पर लिखें।
उत्तर – लेखिका ने बचपन में अपने भाइयों के साथ गिल्ली-डंडा तथा पतंग उड़ाने जैसे खेल खेले। उसने काँच पीसकर मांजा सूतने का काम भी किया, लेकिन उनकी गतिविधियों का दायरा घर की चारदीवारी तक सीमित रहता था ।
आज लड़कियों के लिए स्थितियों में बदलाव आया है और आ रहा है। अब लड़कियाँ घर से निकलकर बाहर जाती हैं। वे पढ़ने जाती हैं, नौकरी करने जाती हैं तथा समाज की अन्य गतिविधियों में बढ़-चढ़कर भाग लेती हैं। खेल जगत में भी वे अच्छा प्रदर्शन कर रही हैं। अब लड़की को लड़के के समान ही समझा जाता है। यह दौर परिवर्तन का है। ग्रामीण क्षेत्र में अभी और परिवर्तन लाने की आवश्यकता है।
7. मनुष्य के जीवन में आस-पड़ोस का बहुत महत्व होता है। परन्तु महानगरों में रहने वाले लोग प्रायः ‘पड़ोस कल्चर’ से वंचित रह जाते हैं। इस बारे में अपने विचार लिखें ।
उत्तर – यह सही है कि मनुष्य के जीवन में आस-पड़ोस का बहुत महत्व है। बड़े शहरों में रहने वाले लोग प्रायः ‘पड़ोस कल्चर’ से वंचित रह जाते हैं। वे अकेलेपन की पीड़ा झेलते हैं। उनके दुख-दर्द में साथ देने वाला कोई नहीं होता। सब अपने में सिमटे रहते हैं ।
हमारा अनुभव भी इसी प्रकार का है। हमारे पड़ोस में रात्रि के समय एक व्यक्ति की मृत्यु हो गई। रातभर उनके पास दुख बाँटने के लिए कोई नहीं आया । प्रातः होने पर दिखावा करने के लिए कुछ लोग सहानुभूति प्रकट करके अपने-अपने काम पर चले गए। कहीं दस- ग्यारह बजे तक कुछ रिश्तेदार आ पाए, तब जाकर मृतक को क्रियाकर्म के लिए श्मशान ले जाया जा सका।
8. इस पाठ के माध्यम से लेखिका क्या बताना चाह रही है ?
उत्तर – यह पाठ आत्मकथात्मक शैली में रचित है। इसमें लेखिका ने अपने बचपन, किशोरावस्था एवं यौवनावस्था घर और अपने आस-पास के वातावरण का चित्रण करना चाह रहा है। वह तत्कालीन स्वतंत्रता आंदोलन की गतिविधियों की झलक भी प्रस्तुत करना चाहती है। लेखिका अपने व्यक्तित्व पर पड़ने वाले प्रभावों का भी विश्लेषण करती जान पड़ती है।
9. गरीबी का जीवन पर क्या कुप्रभाव पड़ता है – स्पष्ट करें।
उत्तर – गरीबी से मनुष्य की प्रसन्नता, उदारता और सदाशयता नष्ट होती है। जो मनुष्य वैभव के दिनों में बहुत उदार और जिंदादिल होता है, वही गरीबी के कारण संकुचित, कंजूस और शक्की हो जाता है। उसकी सद्भावनाएँ नष्ट हो जाती हैं। वह कुंठित हो जाता है। उसका जीवन क्रोध और भय जैसे नकारात्मक भावों से भर जाता है। लेखिका के पिता के साथ ठीक यही होता है।
10. एक कहानी यह भी आपको क्या प्रेरणा / संदेश देती है ?
उत्तर – ‘एक कहानी यह भी’ नामक आत्मकथा हमें अनेक संदेश देती है। पहला संदेश यह है कि स्वतंत्रता और जन-आंदोलन पर केवल पुरुषों का ही अधिकार नहीं है। स्त्रियाँ भी इसमें बराबर की भागीदार होनी चाहिए। इसे पढ़कर लड़कियों और स्त्रियों को भी संघर्ष करने की प्रेरणा मिलती है।
दूसरा संदेश यह है कि सत्य और स्वतंत्रता के मार्ग में हमारे बड़े-बुजुर्ग और प्रियजन भी बाधा बन सकते हैं। हमें उनसे संघर्ष को टालते हुए स्वतंत्रता की राह नहीं छोड़नी चाहिए।
तीसरा संदेश यह है कि हम चाहकर भी अपनी परम्पराओं, पूर्वजों और अतीत से नहीं कट सकते। वे किसी-न-किसी प्रकार हमारे व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं।
स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन
1. कुछ पुरातनपंथी लोग स्त्रियों की शिक्षा के विरोधी थे। द्विवेदी जी ने क्या-क्या तर्क देकर स्त्री-शिक्षा का समर्थन किया ?
उत्तर – कुछ पुरातनपंथी लोग स्त्रियों की शिक्षा के विरोधी थे। वे स्त्रियों को पढ़ाना गृह-सुख के नाश का कारण समझते थे। इनमें से कई तो स्वयं उच्च शिक्षित थे। वे यह कहकर स्त्री-शिक्षा का विरोध करते थे कि संस्कृत नाटकों में स्त्रियाँ संस्कृत में बात न करके प्राकृत में बात करती हैं, जो उनके अपढ़ होने का प्रमाण है।
लेखक निम्नांकित तर्क देकर स्त्री-शिक्षा का समर्थन करता है –
(क) संस्कृत नाटकों में प्राकृत बोलना स्त्रियों के अपढ़ होने का प्रमाण नहीं है क्योंकि उस समय बोलचाल की भाषा प्राकृत ही थी ।
(ख) पुराने समय में भी अनेक स्त्रियाँ विदुषी थीं जिन्होंने बड़े-बड़े विद्वानों एवं ब्रह्मवादियों के छक्के छुड़ाए थे।
(ग) पहले स्त्रियों की शिक्षा की जरूरत समझी या नहीं, पर अब उनकी शिक्षा की आवश्यकता है। अतः उन्हें पढ़ाना चाहिए ।
(घ) हमें पुराने नियमों, आदर्शों और प्रणालियों को तोड़कर स्त्रियों को पढ़ाना चाहिए।
2. ‘स्त्रियों को पढ़ाने से अनर्थ होते हैं’ कुतर्कवादियों की इस दलील का खंडन द्विवेदी जी ने कैसे किया है ? अपने शब्दों में लिखें।
उत्तर – कुतर्कवादियों का कहना है कि स्त्रियों को पढ़ाने से अनर्थ होते हैं अतः उन्हें पढ़ाना नहीं चाहिए। उनके अनुसार उन्हें पढ़ाने से घर के सुख का नाश होता है। लेखक उनकी दलील का खंडन करते हुए कहता है स्त्रियों को पढ़ाने से अनर्थ होते हैं तो उन पुरुषों को पढ़ाने से कौन-सा सुफल होता है जो एम० ए० बी० ए० शास्त्री और आचार्य होकर भी स्त्रियों पर हंटर फटकारते और डंडों से उनकी B खबर लेते हैं ? यदि स्त्रियों का किया हुआ अनर्थ उनको पढ़ाने का परिणाम है ? तो पुरुषों का किया हुआ अनर्थ भी उनकी शिक्षा का ही परिणाम मानना चाहिए।
3. द्विवेदी जी ने स्त्री शिक्षा विरोधी कुतकों का खंडन करने के लिए व्यंग्य का सहारा लिया है – जैसे- ‘यह सब पापी पढ़ने का अपराध है। न वे पढ़तीं, न वे पूजनीय पुरुषों का मुकाबला करतीं।’ आप ऐसे अन्य अंशों को निबंध में से छाँटकर समझें और लिखें।
उत्तर – निबंध से छाँटे गए ऐसे अंश, जिनमें व्यंग्य का सहारा लिया गया है- आजकल भी ऐसे लोग विद्यमान हैं जो स्त्रियों को पढ़ाना उनके और गृह-सुख के नाश का कारण समझते हैं। और, लोग भी ऐसे-वैसे नहीं, सुशिक्षित लोग- ऐसे लोग जिन्होंने बड़े-बड़े स्कूलों और शायद कॉलेजों में भी शिक्षा पाई है, जो धर्म-शास्त्र और संस्कृत के ग्रंथ साहित्य से परिचय रखते हैं, और जिनका पेशा कुशिक्षितों को सुशिक्षित करना, कुमार्गगामियों को सुमार्गगामी बनाना और अधार्मिकों को धर्मतत्व समझाना है।
(क) पुराने ग्रंथों में अनेक प्रगल्भ पंडिताओं के नामोल्लेख देखकर कुछ लोग भारत की तत्कालीन स्त्रियों को मूर्ख, अपढ़ और गँवार बताते हैं ।
(ख) स्त्रियों के लिए पढ़ना कालकूट और पुरुषों के लिए पीयूष का घूँट । ऐसी दलीलों और दृष्टांतों के आधार पर कुछ लोग स्त्रियों को अपढ़ रखकर भारतवर्ष का गौरव बढ़ाना चाहते हैं ।
4. पुराने समय में स्त्रियों द्वारा प्राकृत भाषा में बोलना क्या उनके अपढ़ होने का सबूत है- पाठ के आधार पर स्पष्ट करें।
उत्तर – पुराने समय में स्त्रियों द्वारा प्राकृत भाषा में बोलना उनके अनपढ़ होने का सबूत नहीं है। उस जमाने में प्राकृत ही सर्वसाधारण की भाषा थी। पंडितों ने अनेक ग्रंथ प्राकृत भाषा में रचे। भगवान शाक्य मुनि और उनके चेले प्राकृत में ही धर्मोपदेश देते थे। बौद्धों का धर्मग्रंथ ‘त्रिपिटक’ भी प्राकृत में रचा गया।
अतः पुराने समय में स्त्रियों द्वारा प्राकृत बोलना उनकी अनपढ़ता का चिह्न नहीं है। उस समय संस्कृत कुछ गिने-चुने लोग ही बोलते थे। दूसरे लोगों एवं स्त्रियों की भाषा प्राकृत रखने का नियम था।
5. परंपरा के उन्हीं पक्षों को स्वीकार किया जाना चाहिए जो स्त्री-पुरुष समानता को बढ़ाते हों- तर्क सहित उत्तर दें ।
उत्तर – परंपरा में कई बातें चली आ रही हैं। हो सकता है उस समय की परिस्थितियों को देखते हुए वे परंपराएँ उचित हों, पर अब परंपरा के उन्हीं पक्षों को स्वीकार किया जाना चाहिए जो स्त्री-पुरुष की समानता को बढ़ाते हों । स्त्री-पुरुष एक समान हैं। वे दोनों समाज के अभिन्न अंग हैं। एक अंग के कमजोर रह जाने से समाज की गाड़ी सुचारु रूप से नहीं चल पाएगी। परंपरा की उन बातों को त्याग देना हमारे लिए हितकर है जो भेदभाव को बढ़ावा देती हों। स्त्रियाँ भी समाज की उन्नति में उतनी ही सहभागी हैं जितने पुरुष ।
6. तब की शिक्षा प्रणाली और अब की शिक्षा प्रणाली में क्या अंतर है ? स्पष्ट करें।
उत्तर – तब की शिक्षा प्रणाली में पुस्तकों में दी गई सामग्री को रटने पर बल दिया जाता था। उस समय संस्कृत के श्लोकों को रटवाया जाता था। स्त्रियों के लिए शिक्षा उतनी सहज एवं सुलभ नहीं थी जितनी आज है। आज की शिक्षा प्रणाली में विद्यार्थी के स्वाभाविक विकास पर बल दिया जाता है। आज स्त्रियों की शिक्षा के महत्व को भी स्वीकारा गया है।
7. महावीरप्रसाद द्विवेदी का निबंध उनकी दूरगामी और खुली सोच का परिचायक है, कैसे ?
उत्तर – महावीर प्रसाद द्विवेदी खुली सोच वाले निबंधकार थे। उनके युग में स्त्रियों की दशा बहुत शोचनीय थी। उन्हें पढ़ाई-लिखाई से दूर रखा जाता था। पुरुष वर्ग उन पर मनमाने अत्याचार करता था। द्विवेदी जी इस अत्याचार के विरुद्ध थे। वे लिंग-भेद के कारण स्त्रियों को हीन समझने के विरुद्ध थे। इसलिए उन्होंने अपने निबंधों में उनकी स्वतंत्रता की वकालत की। उन्होंने पुरातनपंथियों की एक-एक बात को सशक्त तर्क से काटा । जहाँ व्यंग्य करने की जरूरत पड़ी, उन पर व्यंग्य किया। वे चाहते थे कि भविष्य में नारी-शिक्षा का युग शुरू हो । उनकी यह सोच दूरगामी थी। वे युग को बदलने की क्षमता रखते थे। उनके प्रयास रंग लाए । आज नारियाँ पुरुषों से भी अधिक बढ़-चढ़ गई हैं। वे शिक्षा के हर क्षेत्र में पुरुषों पर हावी हैं ।
8. महावीरप्रसाद द्विवेदी जी की भाषा-शैली पर एक अनुच्छेद लिखें।
उत्तर – महावीरप्रसाद द्विवेदी के काल को हिंदी साहित्य में ‘द्विवेदी युग’ के नाम से जाना जाता है। भाषा की दृष्टि से द्विवेदी युग संक्रमण का काल था । द्विवेदी जी से पूर्व गद्य-पद्य दोनों क्षेत्रों में ब्रजभाषा का वर्चस्व था । महावीरप्रसाद द्विवेदी जी ने गद्य में खड़ी बोली को प्रतिष्ठित किया। उन्होंने ‘सरस्वती’ पत्रिका के माध्यम से खड़ी बोली को गद्य की भाषा बनाया तथा इसके व्याकरणिक नियम स्थिर किए । द्विवेदी जी की भाषा खड़ी बोली है । यह सरल है। इसमें तत्सम शब्दों का प्रयोग भी है; जैसे- नियमबद्ध, कटु, द्वीपांतर, तर्कशास्त्रता, ईश्वर-कृत आदि। लेखक की शैली तर्कपूर्ण है। इसमें हास्य-व्यंग्य के छींटे भी हैं।
9. ‘ स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन’ नामक निबंध का उद्देश्य स्पष्ट करें। अथवा, इस निबंध में लेखक क्या कहना चाहता है ?
उत्तर – इस निबंध में लेखक ने स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का जोरदार खंडन किया है। उन्होंने बलपूर्वक कहा है कि प्राचीन भारत में भी स्त्री शिक्षा थी। गार्गी, अत्रि-पत्नी, विश्ववरा, मंडन मिश्र की पत्नी आदि अनेक विदुषी स्त्रियाँ हुईं। आज के युग में स्त्री – शिक्षा की बहुत आवश्यकता है। शिक्षा कभी अनर्थ नहीं करती। यदि स्त्री-शिक्षा के लिए कुछ संशोधनों की जरूरत पड़े तो कर लेने चाहिए, किन्तु उसका विरोध हरगिज नहीं करना चाहिए ।
10. महावीर प्रसाद द्विवेदी की दृष्टि आधुनिक है, सिद्ध करें।
उत्तर – महावीर प्रसाद द्विवेदी आधुनिक चेतना के लेखक रहे हैं। उन्हें सुधारवादी लेखक कहा जाता है। उन्होंने परंपराओं को भी सँवारने और बदलने की वकालत की। वे स्पष्ट कहते हैं –
मान लें कि पुराने जमाने में भारत की एक भी स्त्री पढ़ी-लिखी न थी। न सही। उस समय स्त्रियों को पढ़ाने की जरूरत न समझी गई होगी। पर अब तो है 1 अतएव पढ़ाना चाहिए। हमने सैकड़ों पुराने नियमों, आदेशों और प्रणालियों को तोड़ दिया है या नहीं ? तो, चलिए, स्त्रियों को अपढ़ रखने की इस पुरानी चाल को भी तोड़ दें ।
11. द्विवेदी जी ने किन्हें विक्षिप्त और ग्रहग्रस्त कहा है ?
उत्तर – द्विवेदी जी ने स्त्री शिक्षा के अकारण विरोधियों और पुरातनपंथियों को विक्षिप्त तथा ग्रहग्रस्त कहा है। ऐसे लोग आधुनिक युग में रहकर भी दकियानूसी बातों से चिपके हुए हैं। वे नारी को पढ़ाने-लिखाने के विरोधी हैं। इस प्रकार वे उन पर मनमाना हुक्म चलाना चाहते हैं।
नौबतखाने में इबादत
1. शहनाई की दुनिया में डुमराँव को क्यों याद किया जाता है ?
उत्तर – शहनाई की दुनिया में डुमराँव को निम्नांकित कारणों से याद किया जाता है –
(क) डुमराँव विश्व प्रसिद्ध शहनाई वादक बिस्मिल्ला खाँ की जन्मभूमि है।
(ख) शहनाई बजाने में जिस ‘रीड’ का प्रयोग होता है, वह मुख्यतः डुमराँव में सोन नदी के किनारे पाई जाती है। यह रीड, नरकट एक प्रकार की घास से बनाई जाती है।
(ग) इस समय डुमराँव के कारण ही शहनाई जैसा वाद्य बजता है।
इस प्रकार दोनों में गहरा रिश्ता है ।
2. बिस्मिल्ला खाँ को शहनाई की मंगलध्वनि का नायक क्यों कहा गया है ?
उत्तर – शहनाई मंगलध्वनि का वाद्य है। भारत में जितने भी शहनाईवादक हुए हैं, उनमें बिस्मिल्ला खाँ का नाम सबसे ऊपर है। उनसे बढ़कर सुरीला शहनाईवादक और कोई नहीं हुआ। इसलिए उन्हें शहनाई की मंगलध्वनि का नायक कहा गया है।
3. सुषिर-वाद्यों से क्या अभिप्राय है ? शहनाई को सुषिर वाद्यों में शाह’ की उपाधि क्यों दी गई होगी ?
उत्तर – सुषिर-वाद्यों का अभिप्राय है- सुराख वाले वाद्य, जिन्हें फूंक मारकर बजाया जाता है। ऐसे सभी छिद्र वाले वाद्यों में शहनाई सबसे अधिक मोहक और सुरीली होती है। इसलिए उसे ‘शाहे-नय’ अर्थात् ‘ऐसे सुषिर वाद्यों का शाह’ कहा गया ।
4. ‘फटा सुर न बख्शें । लुंगिया का क्या है, आज फटी है, तो कल सी जाएगी।’ आशय स्पष्ट करें।
उत्तर – जब एक शिष्या ने उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ को फटी लुंगी (तहमद) पहनकर लोगों से मिलने पर टोका तब बिस्मिल्ला खाँ ने कपड़ों को महत्व न देते हुए सुर की महत्ता दर्शाई । वे खुदा से यही माँगते थे कि उन्हें फटा सुर न दें। उनका सुर ठीक होना चाहिए था। लुंगी आदि के फटे होने की उन्हें कोई विशेष चिंता न थी। फटा कपड़ा तो सिल सकता है, पर फटा सुर नहीं सिला जा सकता ।
5. ‘मेरे मालिक सुर बख्श दे। सुर में वह तासीर पैदा कर कि आँखों से सच्चे मोती की तरह अनगढ़ आँसू निकल आएँ ।’ आशय स्पष्ट करें।
उत्तर – बिस्मिल्ला खाँ नमाज के बाद सजदे में खुदा से एक ऐसे सुर की माँग करते थे जिसमें इतना असर हों कि वह आँखों से अनगढ़ आँसू निकाल लाने में कामयाब हो सके। ये आँसू सच्चे मोती की तरह होते हैं। इनके निकल आने पर सुर की परीक्षा हो जाती है। बिस्मिल्ला खाँ सुर को खुदा की नेमत मानते थे।
6. काशी में हो रहे कौन-से परिवर्तन बिस्मिल्ला खाँ को व्यथित करते थे ?
उत्तर – काशी में समय के साथ अनेक परिवर्तन आ गए। इनमें से कुछ प परिवर्तन बिस्मिल्ला खाँ को व्यथित करते थे। इनमें से प्रमुख परिवर्तन निम्नांकित हैं—
(क) पक्का महाल ( काशी विश्वविद्यालय से लगा इलाका) से मलाई बरफ बेचने वालों का वहाँ से चले जाना ।
(ख) अब न तो वह देशी घी मिलता है और न उससे बनी कचौड़ी जलेबी। ये दोनों चीजें उन्हें बहुत अच्छी लगती थीं ।
(ग) संगतियों के लिए गायकों के मन में आदर भाव का न रहना।
(घ) रियाज को न पूछना।
(ङ) कजली, चैती, अदब का जमाना चला जाना।
7. पाठ में आए किन प्रसंगों के आधार पर आप कह सकते हैं कि बिस्मिल्ला खाँ मिली-जुली संस्कृति के प्रतीक थे।
उत्तर – बिस्मिल्ला खाँ हिंदु-मुस्लिम एकता के पर्याय थे। वे मिली-जुली संस्कृति के प्रतीक थे। वे काशी के संकटमोचन मंदिर में हनुमान जयंती के अवसर पर आयोजित संगीत सभा में अवश्य सम्मिलित होते थे। वे बालाजी के मंदिर के नौबतखाने में शहनाई का रियाज नियमित रूप से करते थे। वे जीवन भर विश्वनाथ मंदिर में शहनाई बजाते रहे ।
इसी प्रकार वे मुहर्रम के अवसर पर आठवीं तिथि को शहनाई खड़े होकर बजाते थे। वे दोनों में कोई अंतर नहीं करते थे।
8. पाठ में आए किन प्रसंगों के आधार पर आप कह सकते हैं कि वे वास्तविक अर्थों में एक सच्चे इंसान थे।
उत्तर – बिस्मिल्ला खाँ वास्तविक अर्थों में एक सच्चे इंसान थे। उन्होंने कभी धार्मिक कट्टरता तथा शुद्रता को बढ़ावा नहीं दिया। उन्होंने मुसलमान होते हुए भी कट्टरता को स्वीकार नहीं किया। वे हिंदु-मुसलमान दोनों को समान दृष्टि से देखते थे। वे जिस श्रद्धा व आदर के साथ मंदिर में शहनाई बजाते थे उसी आदर भावना के साथ मुहर्रम में नौहा बजाते थे।
वे मिलीजुली संस्कृति के प्रतीक थे। उन्होंने खुदा से कभी अपने लिए सुख-समृद्धि की माँग नहीं की। वे तो सच्चे सुर की माँग करते थे।
9. बिस्मिल्ला खाँ के जीवन से जुड़ी उन घटनाओं और व्यक्तियों का उल्लेख करें जिन्होंने उनकी संगीत साधना को समृद्ध किया।
उत्तर – बिस्मिल्ला खाँ की संगीत-साधना को समृद्ध करने वाले व्यक्तिरसूलनबाई, बतूलनबाई गायिकाएँ,
कुलसुम हलवाइन- संगीतमय कचौड़ी,
मामूजान अलीबख्श खाँ तथा नाना- शहनाईवादक,
सिने अभिनेत्री सुलोचना ।
घटनाएँ –
(क) विश्वनाथ मंदिर जाते समय रास्ते की गली में रसूलनबाई और ब बतूलन बाई के गायन से बिस्मिल्ला खाँ को संगीत की प्रेरणा मिलती थी । वे कभी ठुमरी, कभी टुघे, कभी दादरा गाती थीं और बिस्मिल्ला खाँ उनकी मार्फत ड्योढ़ी तक पहुँचते थे।
(ख) कुलसुम हलवाइन जब कलकलाते घी में तलने के लिए कचौड़ी डालती थी तब उस छन्न से उठने वाली आवाज में उन्हें सारे आरोह-अवरोह दिखाई दे जाते थे। वह संगीतमयी कचौड़ी प्रतीक होती थी।
(ग) जब मामू अलीबख्श खाँ शहनाई बजाते हुए सम पर आ जाते थे तब बिस्मिल्ला खाँ धड़ से एक पत्थर जमीन पर मारते थे । तब उसे सम पर आने की तमीज आ गई ।
10 बिस्मिल्ला खाँ के व्यक्तित्व की कौन-कौन सी विशेषताओं ने आपको प्रभावित किया ?
उत्तर – बिस्मिल्ला खाँ की निम्नांकित विशेषताओं ने हमें प्रभावित किया –
(क) सांप्रदायिक सौहार्द्ध- बिस्मिल्ला खाँ एक सच्चे इंसान थे। वे पक्के नमाजी थे, पाँचों वक्त की नमाज पढ़ते थे, मुहर्रम पूरी गरिमा के साथ मनाते थे । इसके बावजूद वे काशी विश्वनाथ मंदिर, संकटमोचन मंदिर, गंगा आदि पर पूरी श्रद्धा रखते थे। वे नित्य गंगा नदी में डुबकी लगाते थे।
(ख) सच्चे संगीत साधक- उन्होंने संगीत को अर्थउपार्जन का माध्यम नहीं बनाया । वे खुदा से सच्चे सुर की माँग करते थे, धन की नहीं। उन्होंने धन पाने के लिए शहनाई कभी नहीं बजाई |
(ग) सरलता एवं सादगी- बिस्मिल्ला खाँ को भारत का सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ प्रदान किया गया था। इसके बावजूद वे सीधी-सरल जीवन जीते रहे। उनकी लुंगी का फटा होना उनकी सरलता की चरम सीमा का परिचायक है।
(घ) विनम्रता- बिस्मिल्ला खाँ के व्यक्तित्व में विनम्रता कूट-कूट कर भरी थी। शहनाई के चरम पर पहुँचकर भी वे कहा करते थे- ‘मुझे अब तक सुरों को बरतने की तमीज नहीं आई।’
11. मुहर्रम से बिस्मिल्ला खाँ के जुड़ाव को अपने शब्दों में लिखें।
उत्तर – बिस्मिल्ला ख़ाँ को मुहर्रम के उत्सव से गहरा लगाव था। मुहर्रम के दस दिनों में वे किसी प्रकार का मंगलवाद्य नहीं बजाते थे। न ही कोई राग-रागिनी बजाते थे। आठवें दिन दालमंडी से चलने वाले मुहर्रम के जुलूस में पूरे उत्साह के साथ आठ किलोमीटर रोते हुए नौहा बजाते चलते थे।
12. बिस्मिल्ला खाँ कला के अनन्य उपासक थे, तर्क सहित उत्तर दें।
उत्तर – बिस्मिल्ला खाँ कला के अनन्य उपासक थे। उन्होंने 80 वर्षों तक लगातार * शहनाई बजाई । उनसे बढ़कर शहनाई बजाने वाला भारत भर में अन्य कोई नहीं हुआ। फिर भी वे अंत तक खुदा से सच्चे सुर की माँग माँग करते रहे। उन्हें अंत तक लगा रहा कि शायद अब भी खुदा उन्हें कोई सच्चा सुर देगा जिसे पाकर वे श्रोताओं की आँखों में आँसू ला देंगे। उन्होंने अपने को कभी पूर्ण नहीं माना। वे अपने पर झल्लाते भी थे कि क्यों उन्हें अब तक शहनाई को सही ढंग से बजाना नहीं आया। इससे पता चलता है कि वे सच्चे कला-उपासक थे। वे दो-चार राग गाकर उस्ताद नहीं हो गए। उन्होंने जीवन-भर अभ्यास-साधना जारी रखी।
13. ‘नौबतखाने में इबादत’ पाठ से हमें क्या संदेश मिलता है ?
उत्तर – ‘नौबतखाने में इबादत’ पाठ से हमें यह प्रेरणा मिलती है कि धार्मिक सद्भाव सबसे बड़ी चीज है।
(क) हमें अपनी बड़ी-बड़ी उपलब्धि पर भी गर्व नहीं करना चाहिए।
(ख) कला के प्रति सच्ची लगन होनी चाहिए । कला समर्पण भावना से आती है ।
(ग) अपनी कला को कभी अंतिम न मानें। इसके विकास की सम्भावनाएँ तलाशनी चाहिए।
(घ) हमें सादगी एवं सरलता की जीवन जीना चाहिए।
14. पुराने जमाने में हिंदू मंदिर जाति-भेद से परे थे- सिद्ध करें।
उत्तर – काशी का विश्वनाथ मंदिर और बालाजी मंदिर हिंदुओं के प्रसिद्ध मंदिर हैं। आज से सौ वर्ष पहले भी वहाँ मुसलमान शहनाईवादक शहनाई बजाया करते थे। इससे पता चलता है कि भारतीय मंदिरों में जाति-पाति की संकीर्णता नहीं थी |
15. बिस्मिल्ला खाँ खुदा से विश्वासपूर्वक क्या माँगते हैं और क्यों ?
उत्तर – बिस्मिल्ला खाँ खुदा से विश्वासपूर्वक सच्चा सुर माँगते हैं। क्योंकि वे अपनी कला में और अधिक प्रभाव चाहते थे। वे चाहते थे कि वे शहनाई के सुरों से श्रोताओं की आँखों में आँसू ला दें ।
16. बिस्मिल्ला खाँ के मन में संगतकारों के प्रति कैसा भाव है ?
उत्तर – बिस्मिल्ला खाँ के मन में संगतकारों के प्रति पूरी सहानुभूति है। वे घंटों-घंटों रियाज करते हैं किंतु फिर भी गायक कलाकार उन्हें पूरा सम्मान नहीं देते। इस बात को लेकर उनका मन दुखी है।
संस्कृति
1. लेखक की दृष्टि में ‘सभ्यता’ और ‘संस्कृति’ की सही समझ अब तक क्यों नहीं बन पाई है ?
उत्तर – लेखक की दृष्टि में सभ्यता और संस्कृति की सही समझ अब तक इसलिए नहीं बन पाई है क्योंकि प्रायः दोनों को एक ही समझ लिया जाता है। जबकि सच्चाई यह है कि संस्कृति व्यक्ति से मानव के लिए मंगलकारी आविष्कार कराती है तथा सर्वस्व त्याग कराती है। और इस संस्कृति का परिणाम सभ्यता में देखा जाता है। हम दोनों के मूलभूत अन्तर को अभी तक चिन्हित नहीं कर पाए हैं।
2. आग की खोज एक बहुत बड़ी खोज क्यों मानी जाती है ? इस खोज के पीछे रही प्रेरणा के मुख्य स्रोत क्या रहे होंगे ?
उत्तर – आग की खोज एक बहुत बड़ी खोज इसलिए मानी जाती है क्योंकि इससे मनुष्य के पेट की ज्वाला शांत होती थी। आग की खोज से पहले मानव समाज का क अग्नि देवता से साक्षात नहीं हुआ था। आग की खोज के पीछे प्रेरणा का मुख्य स्रोत मनुष्य की भूख रही होगी। आग के द्वारा उसने भोजन को पकाना सीखा। इस खोज के पीछे भौतिक कारणों का प्रभाव तो ही है, पर इसका कुछ व तो रहा ही हिस्सा हमें मनीषियों से भी मिला है ।
3. वास्तविक अर्थों में ‘संस्कृत व्यक्ति’ किसे कहा जा सकता है ?
उत्तर – वास्तविक अर्थों में संस्कृत व्यक्ति उसे कहा जा सकता है जो किसी नई चीज की खोज करता है। किसी चीज का आविष्कर्ता ही संस्कृत व्यक्ति होता है। जिस व्यक्ति की बुद्धि ने अथवा उसके विवेक ने किसी नए तथ्य का दर्शन किया, वह व्यक्ति ही वास्तविक संस्कृत व्यक्ति है। जिसे कोई वस्तु पूर्वज से अनायास ही प्राप्त हो जाती है वह व्यक्ति संस्कृत नहीं कहला सकता।
4. न्यूटन को संस्कृत मानव कहने के पीछे कौन से तर्क दिए गए हैं ? न्यूटन द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों एवं ज्ञान की कई दूसरी बारीकियों को जानने वाले लोग भी न्यूटन की तरह संस्कृत नहीं कहला सकते, क्यों ?
उत्तर – न्यूटन को संस्कृत मानव कहने के पीछे ये तर्क दिए गए हैं –
न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत का आवष्किार किया अतः वह संस्कृत मानव था । उसने अपनी बुद्धि एवं विवेक से एक नए तथ्य का दर्शन कर उसका आविष्कार किया। नई चीज का आविष्कार करने वाला व्यक्ति ही संस्कृत मानव कहलाता है ।
दूसरे लोग न्यूटन के सिद्धांत की बारीकियों को भले ही ज्यादा जानते हों, पर वे सभ्य तो कहे जा सकते हैं, संस्कृत मानव नहीं कहला सकते। उन्हें न्यूटन जितना संस्कृत नहीं कह सकते।
5. आशय स्पष्ट करें-
मानव की जो योग्यता उससे आत्म-विनाश के साधनों का आविष्कार कराती है, हम उसे उसकी संस्कृति कहें या असंस्कृति ?
उत्तर – लेखक प्रश्न करता है- मानव की जो योग्यता, भावना, प्रेरणा और प्रवृत्ति उससे विनाशकारी हथियारों का निर्माण करवाती है, उसे हम संस्कृति कैसे कहें ? वह तो आत्म-विनाश कराती है। लेखक है- ऐसी भावना और योग्यता को असंस्कृति कहना चाहिए ।
6. “मानव संस्कृति एक अविभाज्य वस्तु है।” किन्हीं दो प्रसंगों का उल्लेख करें जब (क) मानव संस्कृति को विभाजित करने की चेष्टाएँ की गई। (ख) जब मानव संस्कृति ने अपने एक होने का प्रमाण दिया ।
उत्तर – (क) जब मानव-संस्कृति को धर्म-संप्रदाय के आधार पर बाँटने की चेष्टाएँ की गईं अर्थात् हिन्दू-संस्कृति और मुस्लिम संस्कृति कहकर उनसे एक-दूसरे को खतरा बताया गया। ताजिए निकालने के लिए यदि पीपल का तना कट गया हो तो हिन्दू संस्कृति खतरे में पड़ जाती है और मस्जिद के सामने बाजा बजने पर मुस्लिम संस्कृति खतरे में पड़ गई बताई गई। इन बातों से मानव-संस्कृति विभाजित होती है।
(ख) मानवव-संस्कृति एक अविभाज्य वस्तु है। इसे बाँटा नहीं जा सकता क्योंकि इसमें मानव-कल्याण का भाव निहित होता है।
उदाहरण –
(i) कार्ल मार्क्स ने संसार के सभी मजदूरों को सुखी देखने के लिए अपना सारा जीवन दुःखों एवं अभावों में बिता दिया ।
(ii) सिद्धार्थ (महात्मा बुद्ध) ने अपना घर इसलिए त्याग दिया कि किसी तरह तृष्णा के वशीभूत लड़ती-कटती मानवता सुख से रह सके।
7. किन महत्त्वपूर्ण आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सुई-धागे का आविष्कार हुआ होगा ?
उत्तर – अपने तन को ढँकने के लिए, स्वयं को गर्मी, सर्दी और नंगेपन से बचाने के लिए सुई-धागे का आविष्कार हुआ होगा। सुई-धागे की खोज से पहले मनुष्य नंगा रहता था। वह जैसे-तैसे वृक्ष की खाल या पत्तों से तन को ढँकता था । किन्तु उससे शरीर की ठीक से रक्षा नहीं हो पाती थी । अतः जब उसने सुई-धागे की खोज कर ली तो उसके हाथ बहुत बड़ी तकनीक लग गई। यह तकनीक इतनी कारगर थी कि आज भी हम लोग इसका भरपूर उपयोग करते हैं ।
8. लेखक ने अपने दृष्टिकोण से सभ्यता और संस्कृति की एक परिभाषा दी है। आप सभ्यता और संस्कृति के बारे में क्या सोचते हैं लिखें ।
उत्तर – लेखक ने अपने दृष्टिकोण से सभ्यता और संस्कृति की परिभाषा दी हैसंस्कृति मानव से किसी नई वस्तु का आविष्कार कराती है तथा मानव में सर्वस्व त्याग का भाव उत्पन्न कराती है। सभ्यता इसी संस्कृति का परिणाम है।
हम सभ्यता और संस्कृति के बारे में यह सोचते हैं कि संस्कृति मन के भावों का परिष्कृत रूप है। इसमें परोपकार, सहिष्णुता तथा धैर्य का समावेश होता है। सभ्यता के द्वारा हमारे रहन-सहन, खान-पान एवं वेशभूषा का परिचय मिलता है। संस्कृति आंतरिक वस्तु है जबकि सभ्यता बाहरी ।
9. ‘मानव संस्कृति अविभाज्य है स्पष्ट करें।
उत्तर – संसार के सभी मानव एक समान हैं। उनकी संस्कृति को मानव-संस्कृति कहा जाता है। यह मानव-संस्कृति अविभाज्य है। इसे बाँटा नहीं जा सकता। धर्म के नाम पर संस्कृति का बँटवारा करना अनुचित है। हिंदू संस्कृति या मुस्लिम संस्कृति जैसे विभाजन कृत्रिम हैं। फिर एक संस्कृति में कई अन्य आधारों पर विभाजन देखने को मिलते हैं। प्राचीन संस्कृति’ और ‘नवीन संस्कृति का बँटवारा भी मौजूद है। वर्णव्यवस्था के नाम पर समाज के एक बड़े क कर्मठ हिस्से को पददलित रखना उचित नहीं है। ऐसे लोग संस्कृति का वास्तविक स्वरूप समझते ही नहीं हैं। उनके द्वारा प्रतिपादित संस्कृति के नाम से जिस कूड़े-करकट के ढेर का बोध होता है, वह संस्कृति है ही नहीं। संस्कृति एक ही मानव संस्कृति और यह अविभाज्य है।
10. ‘संस्कृति’ पाठ का प्रतिपाद्य क्या है ?
उत्तर – संस्कृति निबंध हमें सभ्यता और संस्कृति से जुड़े अनेक जटिल प्रश्नों से टकराने की प्रेरणा देता है। इस निबंध में भदंत आनंद कौसल्यायन जी ने अनेक उदाहरण देकर यह व्याख्यायित करने का प्रयास किया है कि सभ्यता और संस्कृति किसे कहते हैं, दोनों एक ही वस्तु है अथवा अलग-अलग। वे सभ्यता को संस्कृति का परिणाम मानते हुए कहते हैं कि मानव संस्कृति अविभाज्य वस्तु है। उन्हें संस्कृति का बँटवारा करने वाले लोगों पर आश्चर्य होता है और दुख भी। उनकी दृष्टि में जो मनुष्य के लिए कल्याणकारी नहीं है, वह न सभ्यता है और न संस्कृति ।
11. लेखक ने किसे कूड़ाकरकट कहा है और क्यों ?
उत्तर – लेखक ने हिंदू संस्कृति को कूड़े करकट का ढेर कहा है। वह हिंदुओं की वर्ण-व्यवस्था का विरोधी है जिसमें परिश्रमी लोगों को पददलित किया जाता था ।
12. लेखक ने ‘हिंदू-संस्कृति’ और ‘मुसलिम-संस्कृति को बला क्यों कहा है ?
उत्तर – लेखक के अनुसार, मानव-संस्कृति अखंड है। ‘हिंदू संस्कृति’ और ‘मुसलिम-संस्कृति’ की अलग से कोई पहचान नहीं होती। इन्हें अलग कहना एक बला है, मुसीबत है। इससे हिंदुओं और मुसलमानों में अलगाव पैदा होता है। दोनों अपने-अपने अवदानों पर गर्व करते हैं, दंभ भरते हैं, एक-दूसरे को नीचा दिखाते हैं और द्वेष को जन्म देते हैं। इनसे सांप्रदायिक झगड़े पैदा होते हैं ।
13. विनाश की संस्कृति के बारे में लेखक की क्या राय है ?
उत्तर – लेखक विनाश की संस्कृति को संस्कृति नहीं, असंस्कृति कहता है। उसके अनुसार, जिस खोज की प्रेरणा कल्याण की भावना नहीं होती, वह असंस्कृति है।
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