NCERT Solutions Class 9Th Hindi Chapter – 2 निबंध-लेखन
NCERT Solutions Class 9Th Hindi Chapter – 2 निबंध-लेखन
निबंध – लेखन
1. परिश्रम का महत्त्व
प्रस्तावना, भाग्यवाद, प्रकृति परिश्रम का पाठ पढाती है, शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम, भाग्य और पुरुषार्थ, उपसंहार ।
उत्तर– प्रस्तावना– जीवन के उत्थान में परिश्रम का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जीवन में आगे बढ़ने के लिए, ऊँचा उठने के लिए सुयश प्राप्त करने के लिए श्रम ही आधार है। श्रम से कठिन कार्य सम्पन्न किए जा सकते हैं। जो श्रम करता है, उसका भाग्य भी उसका साथ देता है। जो सोता रहता है, उसका भाग्य भी सोता रहता है। श्रम के बल पर उत्तंग, अगम्य पर्वत चोटियों पर अपनी विजय का ध्वज फहरा दिया। श्रम के बल पर मनुष्य चन्द्रमा पर पहुँच गया। श्रम के आधार से ही मानव समुद्र को लाँघ गया तथा उसने खाइयों को पाट दिया। कोयले की खदानों से बहुमूल्य हीरे खोज निकाले । मानव सभ्यता और उन्नति का एकमात्र आधार श्रम ही है। श्रम के सोपानों का अवलम्ब लेकर मनुष्य अपनी मंजिल पर पहुँच जाता है। अतः परिश्रम ही मानव जीवन का सच्चा सौंदर्य है, क्योंकि परिश्रम के द्वारा ही मनुष्य अपने को पूर्ण बना सकता है। परिश्रम ही उसके जीवन में उत्कर्ष और महानता लाने वाला है। वास्तव में परिश्रम ही ईश्वर की सच्ची उपासना है। भाग्यवाद – जिन लोगों ने परिश्रम का महत्त्व नहीं समझा, वे अभाव, गरीबी और दरिद्रता का दुःख भोगते रहे। जो लोग मात्र भाग्य को ही विकास का सहारा मानते हैं, वे भ्रम में हैं ।
मेहनत से जी चुराने वाले दास मलूका के स्वर में स्वर मिलाकर भाग्य की दुहाई के गीत गा सकते हैं, लेकिन वे नहीं सोचते कि जो चलता है, वही आगे बढ़ता है और मंजिल को प्राप्त करता है। अर्थात् परिश्रम से सब कार्य सफल होते हैं, केवल कल्पना के महल बनाने से व्यक्ति अपने मनोरथ को पूर्ण नहीं कर सकता। शक्ति और स्फूर्ति से सम्पन्न सिंह गुफा में सोया हुआ शिकार प्राप्ति के ख्याली पुलाव पकाता रहे तो उसके उदर की अग्नि कभी भी शान्त नहीं हो सकती । सोया पुरूषार्थ फलता नहीं है। अर्थात् संसार में सुख के सकल पदार्थ होते हुए भी कर्महीन लोग उसका उपभोग नहीं कर पाते। जो कर्म करता है, फल उसे ही प्राप्त होता है और जीवन उसी का जगमगाता है। उसके जीवन उद्यान में ही रंग-बिरंगे सफलता के सुमन खिलते हैं व मुस्कराते हैं ।
परिश्रम से जी चुराना, आलस्य और प्रमोद जीवन बिताना, इसके समान कोई बड़ा पाप नहीं है। गाँधी जी का कहना है कि जो अपने हिस्से का काम किए बिना ही भोजन पाते हैं, वे चोर हैं ।
प्रकृति परिश्रम का पाठ पढाती है- प्रकृति के प्रांगण में झाँककर देखें तो चींटियाँ रात-दिन अथक् परिश्रम करती हुई नजर आती हैं। पक्षी दाने की खोज में अन्नत आकाश में उड़ते दिखाई देते हैं । हिरन आहार की खोज में वन-उपवन में कुलाचे भरते रहते हैं। समस्त सृष्टि में श्रम का चक्र चलता रहता है। जो लोग श्रम को त्यागकर आलस्य का आश्रय लेते हैं, वे अपने जीवन में असफल होते हैं। भाग्य पर केवल आलसी व्यक्ति ही आश्रित होता है।
शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम – परिश्रम चाहे शारीरिक हो अथवा मानसिक दोनों ही श्रेष्ठ हैं। सत्य तो वह है कि मानसिक श्रम की अपेक्षा शारीरिक श्रम कहीं अधिक श्रेयस्कर है। गाँधी जी की मान्यता है कि स्वस्थ, सुखी और समुन्नत जीवन के लिए शरीरिक श्रम अनिवार्य है। शारीरिक श्रम प्रकृति का नियम है और इसकी अवहेलना निश्चय ही हमारे जीवन के लिए बहुत ही दुखदायी सिद्ध होगी।
भाग्य और पुरूषार्थ- भाग्य और पुरुषार्थ जीवन के दो पहिये हैं। भाग्यवादी बनकर हाथ पर हाथ रखकर बैठना मौत की निशानी है। परिश्रम के बल पर ही मनुष्य अपने बिगड़े भाग्य को बदल सकता है। परिश्रम ने महा मरूस्थलों को हरे-भरे उद्यानों में बदल दिया। मुरझाए जीवन में यौवन का वसन्त खिला दिया । उपसंहार- परिश्रमी व्यक्ति राष्ट्र की बहुमूल्य पूँजी है। श्रम वह महान् गुण है, जिससे व्यक्ति का विकास और राष्ट्र की उन्नति होती है। संसार में महान् बनने और अमर होने के लिए परिश्रमशीलता अनिवार्य है। श्रम से अपार आनन्द मिलता है। हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने हमें श्रम की पूजा का पाठ पढ़ाया। उन्होंने कहा- श्रम से स्वावलम्बी बनने का सौभाग्य मिलता है। हम अपने देश को श्रम और स्वावलम्बन से ही ऊँचा उठा सकते हैं। उन्होंने शिक्षा में श्रम के महत्त्व को समझाया। यदि आजादी की रक्षा करनी है तो प्रत्येक भारतवासी को परिश्रमी और स्वावलम्बी बनना होगा।
2. पर्यावरण प्रदूषण: एक गंभीर समस्या
भूमिका, प्रदूषण का अर्थ, प्रदूषण के प्रकार, कारण, दुष्परिणाम, प्रदूषण रोकने के उपाय।
उत्तर– भूमिका – विज्ञान के इस युग में मानव को जहाँ कुछ वरदान मिले हैं, वहाँ कुछ अभिशाप भी मिले हैं। प्रदूषण भी एक ऐसा अभिशाप है जो विज्ञान की कोख में से जन्मा है और जिसे सहने के लिए अधिकांश जनता मजबूर है। प्रदूषण का अर्थ- प्रदूषण का अर्थ है- प्राकृतिक संतुलन में दोष पैदा होना। न शुद्ध वायु मिलना, न शुद्ध जल मिलना, न शुद्ध खाद्य मिलना, न शांत वातावरण मिलना । प्रदूषण कई प्रकार का होता है। प्रमुख प्रदूषण हैं- वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण और ध्वनि प्रदूषण |
प्रदुषण के प्रकार –
वायु प्रदूषण – महानगरों में यह प्रदूषण अधिक फैला हुआ है। वहाँ चौबीसों घंटे कल-कारखानों का धुआँ, मोटर वाहनों का काला धुआँ इस तरह फैल गया है कि स्वस्थ वायु में साँस लेना दूभर हो गया है। मुबंई की महिलाएँ धोए हुए वस्त्र छत से उतारने जाती हैं तो उन पर काले-काले कण जमे हुए पाती हैं। ये कण साँस के साथ मनुष्य के फेफड़ों में चले जाते हैं और असाध्य रोगों को जन्म देते हैं। यह समस्या वहाँ अधिक होती है जहाँ सघन आबादी होती है, वृक्षों का अभाव होता है और वातावरण तंग होता है ।
जल-प्रदूषण- कल-कारखानों को दूषित जल नदी-नालों में मिलकर भयंकर जल-प्रदूषण पैदा करता है। बाढ़ के समय तो कारखानों का दुर्गंधित जल सब नदी-नालों में घुल-मिल जाता है। इससे अनेक बीमारियाँ पैदा होती हैं।
ध्वनि प्रदूषण – मनुष्य को रहने के लिए शांत वातावरण चाहिए। परंतु आजकल कल-कारखानों का शोर, यातायात का शोर, मोटर गाड़ियों की चिल्ल-पों, लाउडस्पीकरों की कर्णभेदी ध्वनि ने बहरेपन और तनाव को जन्म दिया हैं।
प्रदूषण के कारण- प्रदूषण को बढ़ाने में कल-कारखाने, वैज्ञानिक साधनों का अधिकाधिक उपयोग, फ्रिज, कूलर, वातानुकूलन, ऊर्जा संयंत्र आदि दोषी हैं । प्राकृतिक संतुलन का बिगड़ना भी मुख्य कारण है। वृक्षों को अंधाधुंध काटने से मौसम का चक्र बिगड़ा है
घनी आबादी वाले क्षेत्रों में हरियाली न होने से भी प्रदूषण बढ़ा है।
प्रदूषणों के दुष्परिणाम- उपर्युक्त प्रदूषणों के कारण मानव के स्वस्थ जीवन को खतरा पैदा हो गया है। खुली हवा में लंबी साँस लेने तक को तरस गया है आदमी। गंदे जल के कारण कई बीमारियाँ फसलों में चली जाती हैं जो मनुष्य के शरीर में पहुँचकर घातक बीमारियाँ पैदा करती हैं। भोपाल गैस कारखाने से रिसी गैस के कारण हजारों लोग मर गए, कितने ही अपंग हो गए। पर्यावरण-प्रदूषण के कारण न समय पर वर्षा आती है, न सर्दी- गर्मी का चक्र ठीक चलता है। सूखा, बाढ़, ओला आदि प्राकृतिक प्रकोपों का कारण भी प्रदूषण है।
प्रदूषण रोकने के उपाय – विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों से बचने के लिए हमें अधिक-से-अधिक वृक्ष लगाना चाहिए ताकि हरियाली की मात्रा अधिक हो। सड़कों के किनारे घने वृक्ष हों । आबादी वाले क्षेत्र खुले हों, हवादार हों, हरियाली से ओतप्रोत हों। कल-कारखाने को आबादी से दूर रखना चाहिए और उनसे निकले प्रदूषित मल को नष्ट करने के उपाय सोचने चाहिए।
3. पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं
स्वाधीनता, पराधीनता एक अभिशाप है, हानियाँ, पराधीनता के प्रकार, स्वाधीनता की जरूरत।
उत्तर– स्वाधीनता- स्वाभाविक इच्छा- तुलसीदास की यह काव्य-पंक्ति बहुत गहरा अर्थ रखती है। इसका अर्थ है कि पराधीन व्यक्ति स्वप्न में भी सुख प्राप्त नहीं कर सकता। मानव जन्म से लेकर मृत्यु तक स्वतंत्र रहना चाहता है। वह स्वयं को सभी प्रकार की दासताओं से मुक्त करने के लिए बड़े-से-बड़े बलिदान करने को तैयार रहता है। वह किसी भी मूल्य पर अपनी स्वाधीनता बेचना नहीं चाहता। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने इसीलिए कहा था कि ‘स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।’ पराधीनता : एक अभिशाप – हितोपदेश में लिखा है- ‘पराधीन को यदि जीवित कहें तो मृत कौन है । पराधीनता जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है। क्या सोने के पिंजरे में पड़ा पक्षी सच्चे सुख और आनंद की अनुभूति कर सकता है ? नहीं। एक सूक्ति है— ‘स्वर्ग में दास बनकर रहने की अपेक्षा नरक में स्वाधीन शासन करना अधिक अच्छा है।’
हानियाँ- पराधीन व्यक्ति कभी चैन की साँस नहीं ले सकता। उसके माथे पर सदा अपने मालिक की तलवार लटकी रहती है। उसे मालिक की इच्छा का दास बने रहना पड़ता है। स्वामी के अत्याचारों को गूँगे बनकर सहना पड़ता है। अधीन रहते-रहते उसकी आत्मा तक गुलाम हो जाती है। उसे तलवे चाटने की आदत पड़ जाती है जो मानवीय गरिमा के विपरीत है। ऐसा व्यक्ति स्वयं को तुच्छ, हीन और कलंकित मानने लगता है। उसके व्यक्तित्व का विकास रूक जाता है। उसके जीवन का आनंद मारा जाता है। उसकी हँसी और मुस्कान गायब हो जाती है उसमें और पूँछ हिलाने वाले पशु में कोई अंतर नहीं रहता।
पराधीनता के प्रकार – पराधीनता केवल राजनीतिक ही नहीं होती, वह मानसिक, बौद्धिक, आर्थिक या अन्य प्रकार की भी हो सकती है। यदि कोई व्यक्ति दूसरे के विचारों से इतना अधिक प्रभावित है कि अपना मौलिक विचार ही नहीं कर सकता तो उसे हम बौद्धिक रूप से गुलाम कहेंगे । यदि कोई जाति दूसरी जाति को श्रेष्ठ मानकर उसका अंधानुकरण करती है तो हम उसे मानसिक गुलाम कहेंगे। जैसे भारतीय मानसिकता अभी भी अंग्रेजी की गुलाम है। यदि कोई व्यक्ति आर्थिक दृष्टि से दूसरे पर निर्भर है और इस कारण आजाद होकर नहीं जी सकता तो वह भी एक प्रकार का पराधीन है।
स्वाधीनता की जरूरत – पराधीनता चाहे किसी प्रकार की हो, वह मानव को सच्चे आनंद से वंचित कर देती है। पराधीन व्यक्ति अथवा देश सम्मानपूर्वक नहीं जी सकता । पराधीनता से बचने का एक ही उपाय है- संघर्ष और बलिदान । आजादी मिलती नहीं, छीनी जाती है। उसके लिए सिर हथेली में लिए हुए युवक चाहिए । अतः जिसे स्वतंत्रता से जीना हो, उसे बलिदान के लिए तैयार रहना चाहिए ।
4. खेलकूद का महत्त्व
भूमिका, खेलों के विविध रूप, जीवन में खेलकूद का महत्त्व, उपसंहार।
उत्तर– भूमिका- स्वामी विवेकानंद के अनुसार, ‘स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का निवास होता है।’ शारीरिक और मानसिक बल में सुंदर और उपयुक्त संतुलन बनाए रखने का एकमात्र साधन है- ‘खेल’ । खेल हमारे जीवन के सर्वांगीण विकास के साधन हैं। खेल मनुष्य के शारीरिक विकास के तो सर्वस्वीकृत तथा सर्वमान्य साधन हैं; साथ ही खेल के मैदान में हम अनुशासन, संगठन, आज्ञा-पालन, साहस, आत्मविश्वास तथा एकाग्रचित्तता जैसे गुणों को भी प्राप्त करते हैं। जो व्यक्ति अपने में इन गुणों का विकास कर लेता है वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विजय प्राप्त कर लेता है ।
अच्छे स्वास्थ्य के अनेक साधन हैं, जैसे- व्यायाम, खेलकूद, जिम्नास्टिक आदि । व्यायाम तथा जिम्नास्टिक से शरीर स्वस्थ तो अवश्य रहता है परंतु इनसे मनोरंजन नहीं होता। ये दोनों साधन नीरस हैं। इसके विपरीत खेलों से व्यायाम के साथ-साथ मनोरंजन भी होता है। यही कारण है कि विद्यार्थियों की रूची व्यायाम की अपेक्षा खेलकूद में अधिक होती है। वे खेलकूद में भाग लेकर अपना स्वास्थ्य ठीक रखते हैं ।
खेलकूद के विविध रूप- खेलकूद और व्यायाम का क्षेत्र बहुत व्यापक है तथा इसके अनेकानेक रूप है। रस्साकशी, कबड्डी, खो-खो, ऊँची कूद, लम्बी कूद, तैराकी, हॉकी, फुटबॉल, क्रिकेट, बैडमिन्टन, टेनिस, स्कैटिंग आदि खेलकूद के विविध रूप हैं। इनसे शरीर में रक्त का तीव्र संचार होता है और अधिक ऑक्सीजन के कारण प्राण-शक्ति बढ़ती है, इसलिए ये शरीर को पुष्ट बनाने के लिए कुछ नियमित व्यायाम करते हैं; जैसे- प्रातः काल खुली वायु में घूमना या दौड़ना, रस्सी कूदना, दण्ड और बैठकें लगाना, मुगदर घुमाना अथवा योगासनों द्वारा शरीर-साधना करना।
खेलकूद का महत्त्व – मानसिक विकास की दृष्टि से खेलकूद बहुत महत्त्वपूर्ण है। खेलकूद से पुष्ट और स्फूर्तिमय शरीर ही मन को स्वस्थ बनाता है। खेलकूद हमारे मन को प्रफुल्लित और उत्साहित बनाए रखते हैं। खेलों से नियम पालन का स्वभाव विकसित होता है और मन एकाग्र होता है। शिक्षा प्राप्ति में ये सभी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
खेलकूद चारित्रिक विकास में भी योग देते हैं । खेलकूद में सहिष्णुता, धैर्य और साहस का विकास होता है तथा सामूहिक सद्भाव और भाईचारे की भावना पनपती है। इन चारित्रिक गुणों से एक मनुष्य ही सही अर्थों में शिक्षित और श्रेष्ठ नागरिक बनता है। शिक्षा प्राप्ति के मार्ग में आने वाली कठिनाइयों को भी हम खेल में आने वाले अवरोधों की भाँति हँसते-हँसते पार कर लेते हैं और सफलता की मंजिल तक पहुँच जाते हैं। इस प्रकार जीवन की अनेक घटनाओं को हम खिलाड़ी की भावना से ग्रहण करने के अभ्यस्त हो जाते हैं ।
उपसंहार – आज देश-विदेश में अनेक स्तरों पर खेलों का आयोजन किया जाता है। राष्ट्रीय, एशियाई और ओलंपिक खेलों का नियमित आयोजन होता है। आज भारत के युवाओं को अपनी रूचि के खेलों में भाग लेना चाहिए । इनसे वे स्वास्थ्य प्राप्ति के साथ-साथ अपने देश का नाम भी उज्ज्वल कर सकते हैं। एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीतने वाले सतपाल तथा पी० टी० उषा आदि को बहुत ही मान-सम्मान हुआ। ओलंपिक में लिएंडर पेस, कर्णम मल्लेश्वरी तथा राज्यवर्द्धन राठौर द्वारा पदक जीतने पर भी देश में खुशी की लहर दौड़ गई। प्रत्येक भारतीय का कर्तव्य है कि वह अपने जीवन में किसी न किसी खेलकूद में श्रेष्ठता लाने का प्रयास करे ।
5. मेरे जीवन का लक्ष्य
भूमिका, मेरा लक्ष्य, लक्ष्य क्यों, तैयारी ।
उत्तर– भूमिका – प्रत्येक मानव का कोई-न-कोई लक्ष्य होना चाहिए। बिना लक्ष्य के मानव उस नौका के समान है जिसका कोई खेवनहार नहीं है। ऐसी नौका कभी भी भँवर में डूब सकती है और कहीं भी चट्टान से टकराकर चकनाचूर हो सकती है। लक्ष्य बनाने से जीवन में रस आ जाता है ।
मेरा लक्ष्य- मैंने यह तय किया है कि मैं पत्रकार बनूँगा | आजकल सबसे प्रभावशाली स्थान है— प्रचार-माध्यमों का । समाचार पत्र, रेडियों, दूरदर्शन आदि चाहें तो देश में आमूल-चूल बदलाव ला सकते हैं। मैं भी ऐसे महत्त्वपूर्ण स्थान पर पहुँचना चाहता हूँ जहाँ से मैं देशहित के लिए बहुत कुछ कर सकूँ । पत्रकार बनकर मैं देश को तोड़ने वाली ताकतों के विरूद्ध संघर्ष करूँगा, समाज को खोखला बनाने वाली कुरीतियों के खिलाफ जंग छेडूंगा और भ्रष्टाचार का भण्डाफोड़ करूँगा।
लक्ष्य क्यों – मेरे पड़ोस में एक पत्रकार रहते हैं- श्री प्रभात मिश्र । वे इंडियन एक्सप्रेस के संवाददाता तथा भ्रष्टाचार विरोधी विभाग के प्रमुख पत्रकार हैं। उन्होंने पिछले वर्ष गैस एजेन्सी की धाँधली को अपने लेखों द्वारा बंद कराया था। उन्हीं के लेखों के कारण हमारे शहर में कई दीन-दुखी लोगों को न्याय मिला है । उन्होंने बहू को जिन्दा जलाने वाले दोषियों को जेल में भिजवाया, नकली दवाई बेचने वाले का लाइसेंस रद्द करवाया, प्राइवेट बस वालों की मनमानी को रोका तथा बस-सुविधा को सुचारू बनाने में योगदान दिया। इन कारणों से मैं उनका बहुत आदर करता हूँ। मेरा भी दिल करता है कि मैं उनकी तरह श्रेष्ठ पत्रकार बनूँ और नित्य बढ़ती समस्याओं का मुकाबला करूँ।
मुझे पता है कि पत्रकार बनने में खतरे हैं तथा पैसा भी बहुत नहीं है। परन्तु मैं पैसा के लिए या धन्धे के लिए पत्रकार नहीं बनूँगा। मेरे जीवन का लक्ष्य होगा- समाज की कुरीतियों और भ्रष्टाचार को समाप्त करना । यदि मैं थोड़ी-सी बुराइयों को भी हटा सका तो मुझे बहुत संतोष मिलेगा। मैं हर दुखी को देखकर दुखी होता हूँ, हर बुराई को देखकर उसे मिटा देना चाहता हूँ। मैं स्वस्थ समाज देखना चाहता हूँ । इसके लिए पत्रकार बनकर हर दुख-दर्द को मिटा देना मैं अपना धर्म समझता हूँ । तैयारी – केवल सोचने भर से लक्ष्य नहीं मिलता है। मैंने इस लक्ष्य को पाने के लिए कुछ तैयारियाँ भी शुरू कर दी हैं। मैं दैनिक समाचार-पत्र पढ़ता हूँ, रेडियो- दूरदर्शन के समाचार तथा अन्य सामाजिक विषयों को ध्यान से सुनता हूँ । मैंने हिन्दीं तथा अंग्रेजी भाषा का गहरा अध्ययन करने की कोशिशें भी शुरू कर दी हैं ताकि लेख लिख सकूँ । वह दिन दूर नहीं, जब मैं पत्रकार बनकर समाज की सेवा करने का सौभाग्य पा सकूँगा ।
6. बेकारी की समस्या
भूमिका, अर्थ, कारण, दूष्परिणाम, समाधान।
उत्तर– भूमिका- आज भारत के सामने अनेक समस्याएँ चट्टान बनकर प्रगति का रास्ता रोके खड़ी हैं। उनमें से एक प्रमुख समस्या है – बेरोजगारी । महात्मा गाँधी ने इसे ‘समस्याओं की समस्या’ कहा था ।
बेरोजगारी का अर्थ- बेरोजगारी का अर्थ है- योग्यता के अनुसार काम का न होना। भारत में मुख्यतया तीन प्रकार के बेरोजगार हैं। एक वे, जिनके पास आजीवका का कोई साधन नहीं है। वे पूरी तरह खाली दूसरे जिनके पास कुछ समय काम होता, परन्तु मौसम या काम का समय समाप्त होते ही वे बेकार हो जाते हैं। ये आंशिक बेरोजगार कहलाते हैं। तीसरे वे, जिन्हें योग्यता के अनुसार काम नहीं मिला। जैसे कोई एम० ए० करके रिक्शा चला रहा है या बी० ए० करके पकौड़े बेच रहा है।
कारण- बेरोजगारी का सबसे बड़ा कारण है- जनसंख्या विस्फोट | इस देश में रोजगार देने की जितनी योजनाएँ बनती हैं, वे सब अत्यधिक जनसंख्या बढ़ने के कारण बेकार हो जाती हैं। एक अनार सौ बीमार वाली कहावत यहाँ पूरी तरह चरितार्थ होती है। बेराजगारी का दूसरा कारण है – युवकों में बाबूगिरी की होड़ नवयुवक हाथ का काम करने में अपना अपमान समझते हैं। विशेषकर पढ़-लिखे युवक दफ्तरी जिंदगी पसंद करते हैं। इस कारण वे रोजगार कार्यालय की धूल फाँकते रहते हैं। बेकारी का तीसरा बड़ा कारण है – दूषित शिक्षा-प्रणाली। हमारी शिक्षा-प्रणाली नित नए बेरोजगार पैदा करती जा रही है। व्यावसायिक प्रशिक्षण का हमारी शिक्षा में अभाव है। चौथा कारण है- गलत योजनाएँ । सरकार को चाहिए कि वह लघु उद्योगों को प्रोत्साहन दे। मशीनीकरण को उस सीमा तक बढ़ाया जाना चाहिए जिससे कि रोजगार के अवसर कम न हों। इसीलिए गाँधी जी ने मशीनों का विरोध किया था, क्योंकि एक मशीन कई कारीगरों के हाथों को बेकार बना डालती है। सोचिए, अगर साबुन बनाने का लाइसेंस बड़े उद्योगों को न दिया जाए तो उससे हजारों-लाखों युवक यह धंधा अपनाकर अपनी आजीवका कमा सकते हैं।
दुष्परिणाम– बेरोजगारी के दुष्परिणाम अतीव भयंकर हैं। खाली दिमाग शैतान का घर। बेरोजगार युवक कुछ भी गलत-शलत करने पर उतारू हो जाता है। वही शांति को भंग करने में सबसे आगे होता है। शिक्षा का माहौल भी वही बिगाड़ते हैं जिन्हें अपना भविष्य अंधकारमय लगता है।
समाधान- बेकारी का समाधान तभी हो सकता है, जब जनसंख्या पर रोक लगाई जाए। युवक हाथ का काम करें। सरकार लघु उद्योगों को प्रोत्साहन दे । शिक्षा व्यवसाय से जुड़े तथा रोजगार के अधिकाधिक अवसर जुटाए जाएँ ।
7. भूकंप
भूकंप क्या है, जान-माल की हानि, भारत में भूकंप, समाधान।
उत्तर– भूकंप क्या है ? – भूकंप का अर्थ है- पृथ्वी का हिलना । पृथ्वी एक सघन गोला है जिसकी सतह पर हम रहते हैं। परंतु उसके गर्भ में नित्य हलचल होती रहती है। इसी हलचल के कारण पृथ्वी की भीतरी चट्टानें हिलती रहती हैं। कभी-कभी यह कंपन इतना जबरदस्त होता है कि पृथ्वी की सतह में बहुत बड़ा परिवर्तन हो जाता है। चट्टानें खिसक जाती हैं। पृथ्वी की सतह में दरारें आ जाती हैं । कहीं-कहीं नए जल-स्रोत निकल आते हैं तो कहीं पुराने स्रोत बंद हो जाते हैं। जान-माल की हानि – प्रकृति का यह परिवर्तन यदि जड़ प्रकृति तक ही सीमित होता, तो इसका भयानक रूप सामने न आता। परंतु भूकंप के कारण मानव जीवन तहस-नहस हो जाता है। कई बार तो पूरे के पूरे गाँव और नगर भूमि में समा जाते हैं। उनका नामोनिशान मिट जाता है ।
भारत में भूकंप – भारत के इतिहास में सबसे बड़ा भूकंप 11 अक्टूबर, 1737 को बंगाल में आया था। उसमें लगभग तीन लाख लोग धरती में समा गए थे। गाँव के गाँव मिट्टी के दूहों में बदल गए थे। महाराष्ट्र के लातूर में आया भूकंप भी रौंगटे खड़े करने वाला था। तीसरी सहस्त्राब्दी में कदम रखते ही 26 जनवरी, 2001 को गुजरात के भुज क्षेत्र में जो विनाशकारी भूकंप आया था, इसकी याद करके आज भी रोमांच हो उठता है। सुबह-सुबह लोग उठे भी न थे कि बड़ी-बड़ी बहुमंजिलें इमारतें ताश के महल की भाँति भरभरा कर गिर पड़ीं। इससे पहले कि लोग घरों से बाहर निकलते, पूरा भुज क्षेत्र ध्वंस के ढेर में समा चुका था।
भूगोलविद् बताते हैं कि उत्तर भारत का क्षेत्र अब भी भूकंप की आशंकाओं से ग्रस्त है। हरियाणा के जींद क्षेत्र के नित्य हल्के-हल्के झटके महसूस किए जाते हैं। विज्ञान में इतनी क्षमता नहीं है कि वह प्रकृति के इस कोप को रोक सके। परंतु यत्न करके इसके विनाश से बचने के उपाय सोचे जा सकते हैं ।
समाधान– जापान जैसे भूकंपीय क्षेत्र में लोगों के घर लकड़ी से बने होते हैं। इससे मानवीय हानि अपेक्षाकृत कम होती है। मैदानी क्षेत्रों में भूकंपरोधी भवन-निर्माण तकनीक को अपनाया जाना चाहिए। सरकार को चाहिए कि वह जन-सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए भवन निर्माण में भूकंप सुरक्षा के उपाय भी करे। इससे कुछ सीमा तक विनाश से बचा जा सकता है।
8. कम्प्यूटर का महत्त्व
भूमिका, आधुनिक उपकरण कम्प्यूटर, निर्दोष-गणक, संचार व्यवस्था, उपसंहार।
उत्तर– भूमिका – वर्तमान युग कम्प्यूटर-युग है। यदि भारतवर्ष पर नजर दौड़ाकर देखें तो हम पाएँगे कि आज जीवन के लगभग सभी क्षेत्रों में कम्प्यूटर का प्रवेश हो गया है। बैंक, रेलवे स्टेशन, हवाई अड्डे, डाकखाने, बड़े-बड़े उद्योग, कारखाने, व्यवसाय, हिसाब-किताब, रुपए गिनने की मशीनें तक कम्प्यूटरीकृत हो गई हैं। अब भी यह कम्प्यूटर का प्रारंभिक प्रयोग है। आने वाला समय इसके विस्तृत फैलाव का संकेत दे रहा है।
आधुनिक उपकरण कम्प्यूटर- इस ‘पागल गति’ को सुव्यवस्था देने की समस्या आज की प्रमुख समस्या है। कहते हैं, आवश्यकता आविष्कार की जननी है। इस आवश्यकता ने अपनी अव्यवस्था को व्यवस्था में बदल सकता है। हड़बड़ी में होने वाली मानवीय भूलों के लिए कम्प्यूटर रामबाण औषधि है। क्रिकेट के मैदान में अम्पायर की निर्णायक भूमिका हो, या लाखों-करोड़ों-अरबों की लम्बी-लम्बी गणनाएँ, कम्प्यूटर पलक झपकते ही आपकी समस्या हल कर सकता है। पहले इन कामों के करने वाले कर्मचारी हड़बडाकर काम करते थे; एक भूल से घबडाकर और अधिक गड़बड़ी करते थे। परिणामस्वरूप काम कम तनाव अधिक होता था। अब कम्प्यूटर की सहायता से काफी सुविधा हो गई है।
निर्दोष-गणक- कम्प्यूटर ने फाइलों की आवश्यकता कम कर दी है। कार्यालय की सारी गतिविधियाँ फ्लॉपी में बंद हो जाती है। इसलिए फाइलों के स्टोरों की जरूरत अब नहीं रही। अब समाचार पत्र भी इन्टरनेट के माध्यम से पढ़ने की व्यवस्था हो गई है। विश्व के किसी कोने में छपी पुस्तक, फिल्म, घटना की जानकारी इंटरनेट पर ही उपलब्ध है। एक समय था, जब कहते थे कि विज्ञान ने संसार को कुटुम्ब बना दिया है। कम्प्यूटर ने तो मानो उस कुटुम्ब को अपने कमरे में उपलब्ध करा दिया है। संभव है, कम्प्यूटर की सहायता से आप मनचाहे सवाल का जवाब दूरदर्शन या इंटरनेट से ले पाएँ । शारीरिक रूप से न सही, काल्पनिक रूप से जिस मौसम का, जिस प्रदेश का आनंद उठाना चाहें, उठा सकें । संचार व्यवस्था – आज टेलीफोन, रेल, फ्रिज, वाशिंग मशीन आदि उपकरणों के बिना नागरिक जीवन जीना कठिन हो गया है। इन सबके निर्माण या क्रियान्वयन में कम्प्यूटर का योगदान महत्त्वपूर्ण है। रक्षा-उपकरणों, हजारों मील की दूरी पर सटीक निशाना बाँधने, सूक्ष्म-से-सूक्ष्म वस्तुओं को खोजने में कम्प्यूटर का अपना महत्त्व है।
उपसंहार- आज कम्प्यूटर ने मानव जीवन को सुविधा, सरलता, सुव्यवस्था और सटीकता प्रदान की है। अतः इसका महत्त्व बहुत अधिक है।
9. वर्षा ऋतु
परिचय, दृश्य, लाभ, हानियाँ, उपसंहार ।
उत्तर– परिचय – वर्षभर में अनेक तरह का मौसम रहता है। कभी गर्मी पड़ती है, तो कभी जाड़ा। कभी वर्षा होती है, तो कभी समशीतोष्ण मौसम रहता है। इस तरह वर्षभर के मौसम में विविधता पाई जाती है। भारत में छः ऋतुएँ बारी-बारी से आती हैं। हर ऋतु की अपनी अलग-अलग विशेषताएँ हैं । हमलोगों की पसंद भी अलग-अलग होती है। कोई जाड़े को पसंद करता है, तो कोई गर्मी या बरसात को। मुझे वर्षा ऋतु सबसे अच्छी लगती है । इस ऋतु का आगमन जुलाई- अगस्त महीने में होता है।
दृश्य – मई-जून में खूब गर्मी पड़ती है। सारी धरती तवे की तरह जलने लगती है । हवा गर्म और लू भरी चलती है। गर्मी की अधिकता से पशु-पक्षी, पेड़-पौधे और लू मनुष्य सभी आतंकित हो जाते हैं। जून के अंत में आकाश में काले-काले बादल घूमने लगते हैं। देखते-देखते ही वर्षा की बौछार शुरू हो जाती है । भट्टी की तरह जलती धरती को राहत मिलती है । ताप का प्रभाव घट जाता है। आकाश में बादल उमड़ते-घुमड़ते रहते हैं। ठंढी हवा चलने लगती है। सभी जीव-जंतुओं को राहत मिलती है। कभी बादल गरजते हैं, तो कभी बिजली चमकती है। कभी वर्षा जोरों से होती है और कभी फुहार पड़ती है। वर्षा के बाद कभी-कभी इन्द्रधनुष दीखता है। उसमें सात रंग होते हैं। सतरंगे इन्द्रधनुष हमारा मन मोह लेते हैं। बच्चे बरसात में बहुत प्रसन्न होते हैं। उन्हें वर्षा के पानी में भींगना खूब भाता है। लाभ- भारत एक कृषि प्रधान देश है। किसान खेती करते हैं। पौधों के लिए जल ही जीवन है। बिना पानी के कोई फसल नहीं हो सकती है। भारत में सिंचाई के उचित साधनों का अभाव है। यहाँ की कृषि वर्षा पर ही निर्भर है । वर्षा समय पर और पर्याप्त होती है, तो अच्छी फसल लगती है। वर्षा नहीं होने पर सारी फसल मारी जाती है। अन्न का अभाव हो जाता है। लोग भूखों मरने लगते हैं। इस तरह देश की खुशहाली के लिए वर्षा आवश्यक है। वर्षा के होने से नदी और तालाब में जल भर जाते हैं । इस जल का उपयोग अनेक कार्यों में किया जाता है। जलती धरती की आत्मा को वर्षा से शान्ति मिलती है। चारों ओर हरियाली छा जाती है । मुरझाए पेड़-पौधे हरे-भरे हो जाते हैं। वृक्षों में नए पत्ते लगने लगते हैं। धरती पर अनेक प्रकार के घास-फूसों के अंकुर फूटने लगते हैं। नदियाँ खेतों में नई मिट्टी डालकर उसे उपजाऊ बनाती हैं ।
हानियाँ- कभी-कभी अत्यधिक वर्षा होती है। इससे गाँव और शहर में वर्षा का जल फैल जाता है। बहुत से घर गिर जाते हैं। इसके अलावे अधिक वर्षा होने से नदियों का जल बढ़ जाता है। नदियाँ किनारों और बाँधों को तोड़ देती हैं। चारों ओर बाढ़ आ जाती है। इससे जानमाल की बहुत हानि होती है। इसके अलावे आवागमन बन्द हो जाता है। कच्ची सड़कों और रास्तों पर कीचड़ फैल जाते हैं । चलने-फिरने में दिक्कत होने लगती है ।
उपसंहार- गुण और दोष तो हर चीज में होते हैं। जहाँ तक वर्षा ऋतु का सवाल है, यह भारत जैसे देश के लिए बहुत उपयोगी है। खासकर भारत की कृषि तो पूर्णरूपेण वर्षा पर ही आधारित है। इसके अलावे गाँव और नगर की सफाई वर्षा से हो जाती है। अगर कहीं पानी जम जाता है, तो इसके लिए हम स्वयं जवाबदेह हैं। हमें गढ़ा आदि नहीं खोदना चाहिए। बाढ़ से बचाव का इंतजाम भी किया जाना चाहिए।
10. मेरी प्रिय पुस्तक
भूमिका, विषय वस्तु, उपयोगिता, उपसंहार ।
उत्तर– भूमिका- मुझे श्रेष्ठ पुस्तकों से अत्याधिक प्रेम है । पुस्तकें मेरे जीवन की सच्ची संगिनी है। यों मुझे अनेक पुस्तकें पसंद हैं, लेकिन जिसने मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया, वह है तुलसीदास की ‘रामचरितमानस’। यह वह पुस्तक है, जिसकी छाप मेरे जीवन के प्रत्येक व्यवहार पर अंकित है।
विषय वस्तु– ‘रामचरितमानस’ में दशरथ – पुत्र राम की जीवन-कथा का वर्णन है। इसमें राम के जन्म, शिक्षण, विवाह, वनवास, सीता हरण, रावण-संहार और राजतिलक का अत्यंत सजीव, स्वाभाविक और सुंदर वर्णन हुआ है। श्रीराम के जीवन की प्रत्येक लीला मन को भाने वाली है। उन्होंने किशोर अवस्था में ही राक्षसों का वध और यज्ञ-रक्षा का कार्य जिस कुशलता से किया है, वह मेरे लिए अत्यंत प्रेरणादायक है। उनकी वीरता और कोमलता के सामने मेरा हृदय श्रद्धा से झुक जाता है। सीता स्वयंवर के दृश्य में रावण, अन्य राजागण तथा परशुराम का व्यवहार अत्यंत रोचक है ।
रामचरितमानस में मार्मिक स्थलों का वर्णन तल्लीनता से हुआ है। राम वनवास, दशरथ-मरण, सीता-हरण, लक्ष्मण-मूर्छा, भरत-मिलन आदि के प्रसंग दिल को छूने वाले हैं। इन अवसरों पर मेरे नयनों में आँसुओं की धार उमड़ आती है। विशेष रूप से राम और भरत का मिलन हृदय को छूने वाला है।
उपयोगिता – इस पुस्तक में तुलसीदास ने मानव के आदर्श व्यवहार को अपने पात्रों के जीवन में साकार होते दिखाया है। राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। वे आदर्श राजा, आदर्श पुत्र, आदर्श पति और आदर्श भाई हैं। भरत और लक्ष्मण आदर्श भाई हैं। उनमें एक-दूसरे के लिए सर्वस्व त्याग की भावना प्रबल है । सीता आदर्श पत्नी है। हनुमान आदर्श सेवक है । पारिवारिक जीवन की मधुरता का जैसा सरस वर्णन इस पुस्तक में है, वैसा अन्यत्र कहीं नहीं मिलता।
उपसंहार – यह पुस्तक केवल धार्मिक महत्त्व की नहीं है। इसमें मानव को प्रेरणा देने की असीम शक्ति है। इसमें राजा, स्वामी, दास, मित्र, पति, नारी, स्त्री, पुरूष सभी को अपना जीवन उज्ज्वल बनाने की शिक्षा दी गई है। राजा के बारे में उनका वचन है
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी । सो नृप अवस नरक अधिकारी ।
इसी भाँति श्रेष्ठ मित्र के गुणों का वर्णन करते हुए वे कहते हैं
निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख-रज मेरू समाना।
जे न मित्र दुख होहिं दुखारी । तिन्हहिं विलोकत पातक भारी ।।
तुलसीदास ने प्रायः जीवन के सभी पक्षों पर सूक्तियाँ लिखी हैं। उनके इन अनमोल वचनों के कारण यह पुस्तक अमरता को प्राप्त हो गई है। रामचरितमानस की भाषा अवधी है। इसे दोहा-चौपाई शैली में लिखा गया है। इसका एक-एक छंद रस और संगीत से परिपूर्ण है। इसकी रचना को लगभग 500 वर्ष हो चुके हैं। फिर भी आज इसके मधुर पद कंठ से गाए जाते हैं। यही इसकी महिमा और मधुरिमा का प्रमाण है।
11. करत करत अभ्यास के जड़मति हो सुजान
प्रस्तावना, अभ्यास का महत्व, प्रकृति द्वारा प्राप्त शक्तियों का सदुपयोग, सफलता की कुँजी, आवश्यक सावधानियाँ, उपसंहार ।
उत्तर– प्रस्तावना- निरंतर अभ्यास से वस्तुतः जो जड़मति ( बुद्धिजीव) हैं, वे सुजान (विद्वान) बन जाते हैं, जो सुजान हैं, वे कुशल बन जाते हैं, जो कुशल हैं, वे अपनी कला में पूर्ण बन जाते हैं एवं जो पूर्ण हैं, उनकी पूर्णता स्थिर हो जाती है। इस प्रकार अभ्यास की कोई सीमा नहीं, उसका कोई अंत नहीं। उसकी महिमा अनंत और परिणाम असीम है। यह सफलता-सार्थकता का कारण और रहस्य है ।
अभ्यास का महत्व – संसार के जन्म से कोई विद्वान या सब-कुछ बन कर नहीं आता । आरंभ में सभी जड़मति अर्थात् अबोध होते हैं, अनजान होते हैं। अभ्यास ही उनका विद्वान, कुशल और महान् बनाता है। क्या एडीसन ने पहले ही दिन बिजली के प्रकाश का आविष्कार कर दिया था ? क्या महाकवि कालिदास जन्म से ही कवि थे ? क्या ध्यानचंद पहले खेल में ही विश्वविजयी बन बैठे थे ? नहीं ! आज संसार में जो लोग विद्या, बल और प्रतिष्ठा के ऊँचे आसनों पर बैठे हैं, कभी वे सर्वथा अबोध, निर्बल और गुनाम व्यक्ति थे। इसके लिए उन्हें श्रम करना पड़ा, लगन से लगातार जुटे रहना पड़ा तथा घोर साधना करनी पड़ी। इसी को अभ्यास कहते हैं।
प्रकृति द्वारा प्राप्त शक्तियों का सदुपयोग- प्रकृति द्वारा दी गयी शक्तियों का सदुपयोग करना ही अभ्यास है। इसी से शक्तियों का विकास होता है। भगवान बुद्धि सबको देता है, जो लोग अभ्यास से उसे बढ़ा लेते हैं, वे बुद्धिमान और विद्वान बन जाते हैं सफलताएँ उनके चरण चूमती हैं। आदमी उन्नति का शिखर छू लेता है। जो बुद्धि से काम नहीं लेते, वे बुद्धू के बुद्धू रह जाते हैं। बेकार पड़े लोहे को भी जंग लग जाता है। इसी प्रकार हम जिस अंग से काम नहीं लेते, वह अंग दुर्बल रह जाता है।
सफलता की कुँजी- अभ्यास ही सफलता की कुंजी है। केवल शिक्षा में ही नहीं, जीवन के किसी भी क्षेत्र में जो सफलता चाहता है, उसके लिए अभ्यास आवश्यक है। काम को बार-बार करने अभ्यासी व्यक्ति का हाथ सध जाता है । वह वस्तु के सूक्ष्म से सूक्ष्म गुण-दोषों को पहचान सकता है । अभ्यासकर्ता के अनुभव में वृद्धि होती है, उसकी कमियाँ दूर हो जाती हैं और वह शनैः शनैः पूर्णता की ओर अग्रसर होता है। कल का जड़मति आज अपने कला-कौशल का विशेषज्ञ बन जाता है। फिर संसार की सब विभूतियाँ उसके चरण चूमने लगती हैं। सतत् अभ्यास करते रहने वालों ने ही संसार में कुछ कर दिखाया है।
आवश्यक सावधानियाँ – अभ्यास अच्छा भी होता है, बुरा भी। अच्छा अभ्यास पड़ गया तो जीवन सँवर जाएगा। बुरा अभ्यास पड़ गया, तो जीवन व्यर्थ हो जाएगा। अतः हमें यत्न करना चाहिए कि बुरे अभ्यास से बचें। शीघ्रता, जल्दबाजी या उतावलापन अभ्यास का सबसे बड़ा शत्रु है । आज बीज बोकर कल फसल नहीं काटी जा सकती। मीठा फल पाने के लिए धैर्य की आवश्यकता होती है । अभ्यास करते हुए सहज पके सो मीठा होय के महामंत्र को भुलाना नहीं चाहिए ।
उपसंहार- अभ्यास मस्तिष्क को एक सुनियोजित प्रशिक्षण दे देता है। और मानव हर स्थिति में तदनुकूल आचरण करता है। हम सुजान से जड़मति न बनें, अपितु जड़मति से सुजान बनें । निरंतर अभ्यास का यही चरम लक्ष्य है। व्यक्ति समाज और राष्ट्र आदि सभी प्रगति और विकास का यही मूल मंत्र है । अतः विशेष रूप से सावधान रह कर प्रयत्न और अभ्यास की आदत डालनी चाहिए। समय खोना, जीवन को नष्ट करना है ।
12. हमारा प्यारा भारतवर्ष
प्रस्तावना, प्राकृतिक बनावट व सम्पदा, गौरवपूर्ण अतीत, धार्मिक सहिष्णुता और सौहार्द, उपसंहार ।
उत्तर– प्रस्तावना – हमारा देश भारत है। हम इसकी संतान हैं। इस देश का नाम भारत क्यों पड़ा ? इसके लिए अलग-अलग मान्यताएँ हैं। ब्राह्मण पुराण के अनुसार प्रजा का भरण-पोषण करने के कारण मनु भरत कहलाए और मनु द्वारा पालित पोषित होने के कारण यह देश भारत कहलाया । यह भी प्रचलित है कि दुष्यन्त के प्रतापी पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा ।
प्राकृतिक बनावट व सम्पदा – भारत की प्राकृतिक बनावट व सम्पदा अद्भुत है। लगता है कि प्रकृति देवी ने स्वयं इसकी रचना की है। उत्तर में बर्फ से ढकी हिमालय की पर्वत-श्रेणियाँ हैं जो इस देश का मुकुट बनी हुई हैं । दक्षिण में हिन्द महासागर हिलोरें लेता है। ऐसा लगता है जैसे वह इस देश के चरणों को धो रहा है। हिमालय से निकलने वाली नदियाँ – गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र, रावी, झेलम आदि सदैव जलराशि से पूर्ण रहती हैं और देश की धरती को शस्य श्यामल बनाती हैं । गंगा, यमुना और सतलुज के उपजाऊ मैदान दुनिया में दूसरे नहीं हैं। विभिन्न ऋतुएँ इसकी प्राकृतिक छटा को निखारती रहती है। ऐसा लगता है कि भारत देवी हमेशा अपना परिधान बदलती है और नित्य नये सुगन्धित आवरण से अपनी सज्जा करती रहती है। यह हमारा सौभाग्य है कि प्रकृति की इस क्रीड़ास्थली में हमारा जन्म हुआ है।
गौरवपूर्ण अतीत- हमारे देश का अतीत बहुत गौरवपूर्ण रहा है। इस देश में बड़े-बड़े ज्ञानी-ध्यानी, ऋषि-मुनि और महात्मा हुए हैं जिन्होंने दुनिया को ज्ञान सूर्य का दर्शन कराया। संसार में सभ्यता और संस्कृति का प्रवर्तन हमारे यहाँ से हुआ। हमारे देश में महावीर, गौतम बुद्ध, मर्यादा पुरूषोत्तम राम, गीतायोगी कृष्ण जैसे महापुरूष हुए। यह बड़े-बड़े कवियों- तुलसी, सूरदास, कबीर, रहीम, रसखान, बिहारी, भूषण, जयशंकर प्रसाद, मैथिलीशरण गुप्त, निराला और पंत की जन्मभूमि रहा है। हमारे देश के प्रचुर धन-धान्य से देश-विदेश सभी लाभान्वित होते रहे हैं।
धार्मिक सहिष्णुता और सौहार्द – यहाँ कई जातियाँ आईं और इसकी धरती पर हिलमिल गई । हमारे देश में विभिन्न जाति, वर्ण व संप्रदाय के लोग मिलकर रहते हैं। कहीं मन्दिरों के घण्टे-घड़ियाल बज रहे हैं, तो कहीं मस्जिदों में अजान दी जा रही है। यह विविध धर्मों का देश है । धार्मिक सहिष्णुता और सौहार्द का जैसा संगम यहाँ देखने की मिलता है, वैसा अन्यत्र मिलना दुर्लभ है। संसार के इतिहास में कई सभ्यताएँ पनपीं और अस्त हो गई, लेकिन भारत की सभ्यता अभी तक मुखर है ।
उपसंहार- ऐसे गौरवपूर्ण देश के वासी होने के नाते हमारा कर्तव्य हो जाता है कि हम इसकी उन्नति के लिए सतत सजग रहें। आपसी फूट और वैमनस्य की जड़ें उखाड़ कर फेंक दें । भाषा और संस्कृति के झगड़े इस देश की विरासत नहीं हैं। विदेशियों ने अपनी कूटनीति के कारण देश को खंड-खंड करना चाहा है, हमें एकता का बिगुल बजाकर भारत को संसार का शिरोमणि बनाना है।
13. आदर्श विद्यार्थी
उत्तर– विद्यार्थी का अर्थ, जिज्ञासा और श्रद्धा, तपस्वी, अनुशासित और नियमित जीवन, सादा जीवन, पाठ्येत्तर गतिविधियों में रुचि, निष्कर्ष ।
विद्यार्थी का अर्थ- विद्यार्थी का अर्थ है- विद्या पाने वाला । आदर्श विद्यार्थी वही है जो सीखने की इच्छा से ओतप्रोत हो, जिसमें ज्ञान पाने की गहरी ललक हो । विद्यार्थी अपने जीवन में सर्वाधिक महत्त्व विद्या को देता है । यहाँ विद्या को पाने का अर्थ यह नहीं कि कक्षा में सिखाए गए प्रश्नों को परीक्षा के लिए तैयार किया जाए। सच्चा विद्यार्थी शिक्षा को अपने जीवन में उतारता है।
जिज्ञासा और श्रद्धा – विद्यार्थी का सबसे पहला गुण है- जिज्ञासा । वह नए-नए विषयों के बारे में नित नई जानकारी चाहता है। वह केवल पुस्तकों और अध्यापकों के भरोसे ही नहीं रहता, अपितु स्वयं मेहनत करके ज्ञान प्राप्त करता है। सच्चा छात्र श्रद्धावान होता है। कहावत भी है- ‘श्रद्धावान् लभते ज्ञानम् । श्रद्धावान भी ज्ञान पा सकता है। जो छात्र शिक्षा प्राप्ति को मजाक या बोझ समझता है और अपने गुरुजनों पर श्रद्धा नहीं रखता, वह कभी सफलता नहीं पा सकता । तपस्वी – सच्चा छात्र सांसारिक सुख और आराम का कायल नहीं होता। वह कठोर जीवन जीकर तपस्या का आनन्द प्राप्त करता है। संस्कृत में एक सूक्ति भी है –
‘सुखार्थिनः कुतो विद्या, विद्यार्थिनः कुतो सुखम्
आदर्श विद्यार्थी परिश्रम, लगन और तपस्या की आँच में पिघलकर स्वयं को सोना बनाता है। जो छात्र सुख-सुविधा और आराम के चक्कर में पड़े रहते हैं, वे अपने जीवन की नींव को ही कमजोर बना लेते हैं ।
अनुशासित और नियमित जीवन- आदर्श छात्र अपनी निश्चित दिनचर्या बनाता है और उसका कठोरता से पालन करता है। वह अपनी पढ़ाई, खेल-कूद, व्यायाम, मनोरंजन तथा अन्य गतिविधियों में तालमेल बैठाता है। उसके अध्ययन के घण्टे निश्चित होते हैं जिनके साथ वह कभी समझौता नहीं करता । वह खेल-कूद और व्यायाम के लिए भी निश्चित समय रखता है। जो छात्र अपने जीवन में कोई संतुलन नहीं बना पाते, उनका जीवन व्यर्थ चला जाता है।
सादा जीवन– आदर्श छात्र फैशन और ग्लैमर की दुनिया से दूर रहता है। वह सादा जीवन जीता है और उच्च विचार मन में धारण करता है। जो छात्र बनाव-शृंगार, व्यसन और सैर-सपाटा, चस्केबाजी आदि में आनन्द लेते हैं, वे विद्या के लक्ष्य से भटक जाते हैं। फैशन और शृंगार की एक-एक चसक विद्या रूपी काष्ठ के लिए दीमक का काम करती है ।
पाठ्येतर गतिविधियों में रुचि – सच्चा छात्र केवल पाठ्यक्रम तक ही सीमित नहीं रहता। वह विद्यालय में होने वाली अन्य गतिविधियों में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेता है। गाना, अभिनय, एन० सी० सी०, स्काउट, खेलकूद, भाषण आदि में से किसी-न-किसी में वह अवश्य भाग लेता है।
निष्कर्ष– विद्यार्थी-काल सुगन्ध-संचय का काल है। उस समय मधुमक्खी बनकर उसे हर जंगल से ज्ञान का रस इकट्ठा करना चाहिए ताकि आगामी जीवन-यात्रा रसमयी हो सके ।
14. मन के हारे हार है, मन के जीते जीत
मन की शक्ति, दृढ़ संकल्प, संघर्ष की क्षमता, सत्य और न्याय का आदर्श आवश्यक, विजय के लिए धैर्य की आवश्यकता।
उत्तर– मन की शक्ति – मन बहुत बलवान है। शरीर की सब क्रियाएँ मन पर ही निर्भर करती हैं। यदि मन में शक्ति, उत्साह और उमंग हो तो शरीर भी तेजी से कार्य करता है। अतः व्यक्ति की हार-जीत उसके मन की दुर्बलता-सबलता पर निर्भर है।
दृढ़ – संकल्प- यदि मन में दृढ़ संकल्प हो, तो दुनिया का कोई संकट व्यक्ति को रोक नहीं सकता। एक कहावत है- ‘जाने वाले को किसने रोका है’ ? अर्थात् जिसके मन में जाने का संकल्प हो तो कोई भी परिस्थिति उसे जाने से रोक नहीं सकती। विषम परिस्थितियों में से भी संकल्पवान व्यक्ति रास्ता निकाल लेता है ।
संघर्ष की क्षमता – किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए व्यक्ति का दृढ़-संकल्प होना जरूरी है। गुलामी और आतंक के वातावरण में क्रांतिकारी किस प्रकार विद्रोह का बिगुल बजा लेते हैं ? सूखी रोटियाँ खाकर और कठोर धरती का शय्या बनाकर भी देश को आजाद कराने का कार्य कैसे कर पाए महाराणा प्रताप ? वह कौन-सा बल था, जिसके आधार पर मुट्ठीभर हड्डियों वाले महात्मा गाँधी विश्व-विजयी अंग्रेजों को देश से बाहर कर सके। निश्चय ही यह थी – मन की सबलता।
सत्य और न्याय का आदर्श आवश्यक- मन की सबलता के लिए सत्य, न्याय और कल्याण के भाव का होना जरूरी है। जिसके मन में सत्य की शक्ति नहीं है, जो न्याय के पक्ष में नहीं है, उसके मन में तेज नहीं आ पाता । अनुचित कार्य करने वाला व्यक्ति का आधा मन यूँ ही हार बैठता है। उसके मन में एक छिपा हुआ चोर होता है, जो उसे कभी सफल नहीं होने देता।
विजय के लिए धैर्य की आवश्यकता – मन की स्थिरता, दृढ़ता और धैर्य ऐसे गुण, हैं जो व्यक्ति को विजय की ओर अग्रसर करते हैं। संकटों की बाढ़ में जो बह जाते हैं, रोने-चिल्लाने लगते हैं, वे कायरों-सा जीवन जीते हुए नष्ट हो जाते हैं। संकटों की उत्ताल तरंगों को सहर्ष झेलकर जो युवक कर्तव्य मार्ग पर चलते रहते हैं, वे ही विजयी होते हैं ।
कार्य करने से पूर्व ही यदि व्यक्ति का मन स्थिर न हो तो फिर विजय प्राप्त हो ही नहीं सकती। बीमार और पराजित मन को हर बाधा अपना शिकार बनाती है। अतः यह बात पूरी तरह सच है कि जीत या हार मन की स्थिति पर निर्भर है।
15. दुर्गापूजा (दशहरा)
परिचय, इतिहास, उत्सव, उपसंहार ।
उत्तर– परिचय– दुर्गापूजा हिन्दुओं का सर्वप्रमुख त्योहार है। दुर्गापूजा को ‘दशहरा’ ‘विजयादशमी’ और ‘नवरात्र पूजा’ भी कहते हैं। यह पर्व उत्तरी भारत में खूब धूम-धाम से मनाया जाता है। इस अवसर पर लोग माता दुर्गा की पूजा-अर्चना करते हैं। यह पर्व दस दिन तक मनाया जाता है। आश्विन के शुक्ल पक्ष के आरंभ से यह पूजा शुरू होती है। विभिन्न स्थानों पर भक्तजन कलश स्थापित कर दुर्गा माता की पूजा प्रारंभ करते हैं। रोज दुर्गासप्तशती का पाठ किया जाता है।
इतिहास- इस पर्व के साथ कई प्राचीन कहानियाँ जुड़ी हुई हैं। ‘दशहरा’ शब्द का शाब्दिक अर्थ ‘दश’ ‘हारा’ होता है। दुर्गामाता की अर्चना करने के बाद राम ने उसी दिन दस सिर वाले रावण को मारा था । इसी खुशी में यह पर्व मनाया जाता है। कुछ लोग कहते हैं कि यह पर्व बुराई पर अच्छाई की विजय के रूप में मनाया जाता है। प्राचीन काल में महिषासुर से संसार की रक्षा के लिए दुर्गा माता अवतरित हुई। दुर्गा माता ने महिषासुर और उसकी सम्पूर्ण राक्षसी सेना का संहार कर दिया। तभी से इसी खुशी में यह पर्व मनाया जाता है। दुर्गा सप्तशती’ में वही कथा वर्णित है। इस दिन देवताओं की विजय और राक्षसी की हार हुई थी ।
उत्सव – दुर्गापूजा दस दिनों तक होती है। सप्तमी, अष्टमी, और नवमी को विशेष अनुष्ठान होते हैं। कुछ स्थानों पर ‘कलश स्थापित कर दुर्गामाता की पूजा की जाती है। गाँवों एवं शहरों में जगह-जगह दुर्गा की प्रतिमाओं को आकर्षक ढंग से सजाया जाता है। उपर्युक्त तीन दिनों तक काफी भीड़ रहती है। लोग प्रतिमा के दर्शन एवं पूजन-अर्चन करते हैं। कुछ लोग प्रसाद भी चढ़ाते हैं। बच्चे इस अवसर पर बहुत खुश रहते हैं। वे नए-नए रंग बिरंगे कपड़े पहनकर मेला घूमने जाते हैं। विजयादशमी के दिन कलश’ और ‘मूर्त्ति’ का विसर्जन होता है। इस दिन भीड़ काफी बढ़ जाती है। दूर-दूर के लोग भी देवीमाता के दर्शन करने जुटते हैं। सभी नए – नए कपड़ों में सज्जे होते हैं। मेले में तरह-तरह के खेल-तमाशे दिखाए जाते हैं। अन्त में शाम के समय मूर्ति पास के तालाब या नदी में बिसर्जित कर दी जाती है। इस तरह दुर्गापूजा पर्व का समापन हो जाता है।
उपसंहार- दुर्गापूजा भारतीय जीवन के लिए सुख, शान्ति और उन्नति का संदेश लेकर आती है। यह पूजा गूढ़ अर्थों से पूर्ण है। यह हमें बुराई पर अच्छाई की विजय का स्मरण कराती है। यह हमें अपने अंदर की आसुरी प्रवृत्तियों एवं बुराइयों को मार भगाने के लिए उत्साहित करती हैं ।
इस प्रकार की सद्वृत्ति हममें तभी आ सकती है, जब हम अच्छे गुणों को अपनाने का सतत् अभ्यास करें। अतः इस पर्व को हमें मिल-जुलकर सद्भावनापूर्ण वातावरण में मनाना चाहिए।
16. शहरी जीवन में बढ़ता प्रदूषण अथवा, शहरी जीवन
शहरों का निरंतर विस्तार बढ़ती जनसंख्या, शहरों में बढ़ते विविध प्रकार के प्रदूषण, प्रदूषण की रोकथाम के उपाय ।
उत्तर– शहरों का निरंतर विस्तार- आजकल धीरे-धीरे गाँवों के लोग शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। जिसे भी अवसर मिलता है, शहरों में बस जाता है। इस कारण पिछले वर्षों में कई कस्बे नगर बन गए हैं और नगर महानगर । महानगर भी समुद्र की भाँति फैलते चले जा रहे हैं। इस बढ़ते घनत्व के कारण महानगरों में हर प्रकार का प्रदूषण बढ़ रहा है।
बढ़ती जनसंख्या- भारत की बढ़ती जनसंख्या भी प्रदूषण के लिए खाज का काम कर रही है। आजादी के समय भारत की जनसंख्या 33 करोड़ थी। 50 वर्षों में यह तिगुनी हो गई। वही धरती, वही आकाश, वही नदियाँ, वही पहाड़ लेकिन जनसंख्या तिगुनी। साधन भी वही, उपभोक्ता तीन गुने । इसका सीधा प्रभाव बढ़ते प्रदूषण पर पड़ा ।
शहरों में बढ़ते विविध प्रकार के प्रदूषण- शहरों में अनेक प्रकार से प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। सबसे प्रत्यक्ष है- वायु प्रदूषण । महानगरों के लोग स्वस्थ वायु में साँस नहीं ले पाते। सड़कों पर चलते वाहनों का काला धुँआ पीना पड़ता है। अत्यधिक जनसंख्या के कारण जगह-जगह गंदगी के ढेर लगे रहते हैं। फैक्टरियों का धुँआ वातावरण को विषैला बना देता है। परिणामस्वरूप आदमी निर्मल वायु के लिए भी तरस जाता है।
जल-प्रदूषण महानगरों की बड़ी समस्या बन चुकी है। दिल्ली में बहने वाली यमुना में इतने नाले मिलते हैं कि यमुना के जल का रंग काला हो गया है। फैक्टरियों के दूषित जल के कारण भूमि का जल भी लाल-काला हो गया है।
ध्वनि-प्रदूषण की स्थिति यह है कि महानगरों के लोगों में बहरापन और तनाव आम बीमारियाँ हो गई हैं। शांति का स्थान शोर ने ले लिया है। इसके लिए वैज्ञानिक साधनों के साथ-साथ आम लोग भी बराबर के दोषी हैं।
प्रदूषण की रोकथाम के उपाय- प्रदूषण की रोकथाम का पहला उपाय है- सचेत होना। दूसरा उपाय है- प्रदूषण के कारणों और उससे बचने के तरीकों को
जानना। जो उपाय आम जनता के हाथों में हैं, उनका व्यापक प्रचार-प्रसार करना ताकि लोग सजग हो सकें। जो उपाय सरकार के हाथों में हैं, उन पर सख्त कानून बनाए जाने चाहिए तथा उनका कठोरता से पालन करना चाहिए । सरकार तथा जनता के सम्मिलित सहयोग से ही प्रदूषण मुक्त वातावरण तैयार हो सकता है।
17. भारतीय कृषक
सरल जीवन, परिश्रमी, अभाव, दुरवस्था के कारण, निष्कर्ष ।
उत्तर– गाँधी जी ने कहा था- ‘भारत का हृदय गाँवों में बसता है।’ गाँवों में ही सेवा और परिश्रम के अवतार किसान बसते हैं। ये किसान ही नगरवासियों के अन्नदाता हैं, सृष्टि पालक हैं”।
सरल जीवन – भारत के किसान का जीवन बड़ा सहज तथा सरल होता है। उसमें किसी प्रकार की कृत्रिमता नहीं होती । वह अपने जीवन की आवश्यकताओं को सीमित रखता है। रूखा-सूखा भोजन करके भी वह स्वर्गीय सुख का अनुभव करता है। माँ प्रकृति की गोद में उसे बड़ा संतोष मिलता है। प्रकृति से निकट का संबंध होने के कारण भारतीय किसान हृष्ट-पुष्ट तथा स्वस्थ्य रहता है। वह स्नेहशील, दयालु तथा दूसरों के सुख-दुःख में हाथ बँटाता है। वह सात्विक जीवन जीता है।
परिश्रमी – भारत का किसान बड़ा परिश्रमी है। वह गर्मी-सर्दी तथा वर्षा की परवाह किए बिना अपने कार्य में जुटा रहता है । जेठ की दोपहरी, वर्षा ऋतु की उमड़ती-घुमड़ती काली मेघ-मालाएँ तथा शीत ऋतु की हाड़ कँपा देने वाली वायु भी उसे अपने कर्तव्य से रोक नहीं पाती। भारतीय किसान का जीवन कड़ा तथा कष्टपूर्ण है। ।
अभाव – भारतीय कृषक का जीवन अभावमय है । दिन-रात कठोर परिश्रम करने पर भी वह जीवन की आवश्कताएँ नहीं जुटा पाता। न उसे पेट भर भोजन मिलता है और न शरीर ढँकने के लिए पर्याप्त वस्त्र | अभाव और विवशता के बीच ही वह जन्मता है तथा इसी दशा में मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।
दुरवस्था के कारण – निरक्षरता भारतीय कृषक की पतनावस्था का मूल कारण है । शिक्षा के अभाव के का रण वह अनेक कुरीतियों से घिरा है। अंधविश्वास और रूढ़ियाँ उसके जीवन के अभिन्न अंग बन गए हैं। आज भी वह शोषण का शिकार है। वह धरती की छाती को फाड़ कर, हल चला कर अन्न उपजाता है, किंतु उसके परिश्रम का फल व्यापारी लूट ले जाता है। उसकी मेहनत दूसरों को सुख-समृद्धि प्रदान करती है ।
निष्कर्ष – देश की उन्नति किसान के जीवन में सुधार से जुड़ी है। किसान ही इस देश की आत्मा है। अतः उसके उत्थान के लिए हमें हर संभव प्रयत्न करना चाहिए। किसान के महत्व को जानते हुए ही लालबहादुर शास्त्री ने नारा दिया था – ‘जय जवान जय किसान । जवान देश की सीमाओं को सुरक्षित करता है, तो किसान उस सीमा के भीतर बस रहे जन-जन समृद्धि प्रदान करता है ।
18. समय अमूल्य धन है अथवा, का वर्षा जब कृषि सुखाने
समय का महत्व, समय का सदुपयोग आवश्यक समय की अगवानी आवश्यक, उचित समय पर उचित कार्य ।
उत्तर– समय का महत्व- फ्रैंकलिन का कथन है- ‘तुम्हे अपने जीवन से प्रेम है, तो समय को व्यर्थ मत गँवाओं क्योंकि जीवन इसी से बना है।’ समय ही तो जीवन है। ईश एक बार एक ही क्षण देता है और दूसरा क्षण देने से पहले उसको छीन लेता है। समय ही एक ऐसी वस्तु है जिसे खोकर पुनः प्राप्त नहीं किया जा सकता है। समय का कोई मोल नहीं हो सकता । श्रीमन्नारायण ने लिखा है- ‘समय धन से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है। हम रुपया-पैसा तो कमाते ही हैं और जितना अधिक परिश्रम करें उतना ही अधिक धन कमा सकते हैं। परंतु क्या हजार परिश्रम करने पर भी चौबीस घंटों में एक भी मिनट बढ़ा सकते है ? इनती मूल्यवान वस्तु का धन से फिर क्या मुकाबला !’ इससे समय की महत्ता पर स्पष्ट प्रकाश पड़ता है।
समय का सदुपयोग आवश्यक – समय के सदुपयोग का अर्थ है- उचित कार्य पूरा कर लेना। जो लोग आज का काम कल पर और कल का काम परसों पर टालते हैं, वे एक प्रकार से अपने लिए जंजाल खड़ा करते चले जाते हैं। मरण को टालते-टालते एक दिन सचमुच मरण आ ही जाता है। जो व्यक्ति उपयुक्त समय पर कार्य नहीं करता, वह समय को नष्ट करता हैं । एक दिन ऐसा आता है, जबकि समय उसको नष्ट कर देता है। जो छात्र पढ़ने के समय नहीं पढ़ते, वे परिणाम आने पर रोते हैं ।
समय की अगवानी आवश्यक- समय रुकता नहीं है। उसे तैयार होकर उसके आने की अग्रिम इंतजार करनी चाहिए। जो समय के निकल जाने पर उसके पीछे दौड़ते हैं, वे जिंदगी में सदा घिसटते-पिटते रहते हैं। समय सम्मान माँगता है। इसलिए कबीर ने कहा है।
उचित समय पर उचित कार्य –
काल करै सो आज कर आज करै सो अब ।
पल में प्रलय होयेगा बहुरी करेगा कब ।।
जो जाति समय का सम्मान करना जानती है, वह अपनी शक्ति को कई गुना बढ़ा लेती है। यदि सभी गाड़ियाँ अपने निश्चित समय से चलने लगें तो देश में कितनी कार्यकुशलता बढ़ जाएगी। यदि कार्यालय के कार्य ठीक समय पर संपन्न हो जाएँ, कर्मचारी समय के पाबंद हों तो सब कार्य सुविधा से हो सकेंगे। यदि रोगी को ठीक समय पर दवाई न मिले तो उसकी मौत भी हो सकती है। अतः हमें समय की गंभीरता को समझना चाहिए । गाँधी जी एक मिनट देरी से आने वाले व्यक्ति को क्षमा नहीं करते थे । आप ही सोचिए, सृष्टि का यह चक्र कितना नियमित है, कितना समय का पाबंद है ? यदि एक भी दिन धरती अपनी धुरी पर घूर्णन में देरी कर जाए तो परिणाम क्या होगा ? विनाश और महाविनाश अतः हमें समय की महत्ता को समझना चाहिए ।
19. दीपावली अथवा, मेरा प्रिय पर्व
भूमिका, दीपावली का त्योहार क्यों मनाया जाता है, त्योहार के विविध कार्यक्रम, उपसंहार ।
उत्तर– भूमिका – दीपावली दो शब्दों के मेल से बना है ‘दीप + आवली’ जिसका शाब्दिक अर्थ होता है ‘दीपों की पंक्ति’ । इस दिन रात्रि में लोग घरों को दीपों की पंक्ति बनाकर सुसज्जित करते हैं। यह परम्परा आज बिजली के बल्बों द्वारा सजाने में परिवर्तित हो गयी है। दीपावली का त्योहार प्रतिवर्ष कार्तिक मास की आमावस्या के दिन मनाया जाता है ।
दीपावली का त्योहार क्यों मनाया जाता है – दीपावली पर्व की रात्रि को लोग लक्ष्मीजी की पूजा करते हैं। इस दिन लक्ष्मी पूजा करने से धन की वृद्धि होती है। व्यापारी लोग इसी दिन से अपने ‘बही-खाते प्रारंभ करते हैं। पूजा के संबंध में एक पौराणित कथा है कि इसी दिन देव और दानवों द्वारा समुद्र मंथन से चौदह रत्नों का जन्म हुआ। उसी दिन समुद्र में से लक्ष्मीजी का जन्म हुआ । इसलिए इस दिन लक्ष्मी पूजा करने की मान्यता है।
इस संबंध में एक अन्य प्राचीन मान्यता है कि इस दिन भगवान राम चौदह वर्ष का वनवास काटकर और रावण का वधकर अयोध्या लौटे थे। उस दिन अमावस्या की रात्रि थी। इसलिए अयोध्या के लोगों ने राम के स्वागत में दीप जलाकर अपने-अपने घरों को सुसज्जित कर दिया था। तब से दीपावली का पर्व ज्योति-पर्व के रूप में मनाया जाता है ।
त्योहार के विविध कार्यक्रम – दीपावली एक ज्योति पर्व है। इस दिन के लिए लोग अपने घरों की कई दिन पहले से ही सफाई करना प्रारंभ कर देते हैं । विभिन्न तरीकों से घरों को सजाते हैं। दीपावली के दिन सायंकाल दीपकों की पंक्तियाँ कर देते हैं। विभिन्न तरीकों से घरों को सजाते हैं। दीपावली के दिन सायंकाल दीपकों की पंक्तियाँ सजाकर प्रकाश से सारे घर को जगमग कर देते हैं। चारों ओर प्रकाश-ही- प्रकाश दिखाई पड़ता है। मानो उस दिन प्रकाश अंधकार पर विजय प्राप्त कर उसको लज्जित कर रहा है। बच्चे आतिशबाजी और पटाखे भी छोड़ते हैं ।
उपसंहार – आधुनिक युग में इस पर्व की यथार्थता से हटकर इसमें अनेक विकार पैदा हो गए हैं। लोग लक्ष्मीपूजा के नाम पर जुआ खेलते हैं। जुआ खेलने से कई घर उजड़ जाते हैं। यह एक सामाजिक बुराई है। पटाखों का उपयोग करने पर, कई स्थानों पर आग लग जाती है। दीपावली का पर्व हमें ज्ञान प्राप्ति का संदेश देता है। यह भाईचारे और प्रेम का पर्व है। हमें दीपावली का पर्व प्राचीन तौर-तरीकों से ही मनाना चाहिए। हमें प्राचीन परम्पराओं को समाज से लुप्त होने से बचाना चाहिए।
20. पुस्तकालय
भूमिका, अर्थ, उपयोगिता, प्रकार, उपसंहार ।
उत्तर– भूमिका- हमारे जीवन में पुस्तकों का विशेष महत्त्व है । पुस्तकें ज्ञान की भंडार होती हैं। पुस्तकों से हम अनेक प्रकार के ज्ञान करते हैं। पुस्तकों से मनुष्य में ज्ञान का प्रकाश फैलता है। इनसे मनुष्य की अज्ञानता मिटती है । पुस्तकों को पढ़कर हम अपने अधिकारों एवं कर्त्तव्यों के विषय में जानकारी प्राप्त करते हैं। पुस्तकालय से पुस्तकें पढ़ने के लिए दी जाती हैं, जिन्हें पढ़कर हम विद्वान बनते हैं।
अर्थ- ‘पुस्तकालय’ शब्द दो शब्द – खण्डों से मिलकर बना है- पुस्तक + आलय । पुस्तक का अर्थ है ‘किताब’ और ‘आलय’ शब्द का अर्थ ‘घर’ होता है। इस तरह पुस्तकालय का शाब्दिक अर्थ ‘पुस्तकों को घर’ होता है। अब हम कह सकते हैं कि जहाँ सामूहिक एवं व्यवस्थित ढंग से पढ़ने के लिए किताबें रखी जाती हैं उस स्थान को पुस्तकालय कहते हैं। लेकिन गंदी, रद्दी और भद्दी पुस्तकों के संग्रह को पुस्तकालय नहीं कहा जा सकता है। जहाँ अच्छी, लाभदायक और ज्ञानवर्द्धक पुस्तकों का संग्रह हो, उसे सच्चे अर्थों में पुस्तकालय कहा जाएगा।
उपयोगिता- पुस्तकालय का जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान है। विद्यार्थियों के लिए पुस्तकालय एक तीर्थ की तरह है। एक आदमी के लिए संभव नहीं कि वह हर तरह की पुस्तकों को खरीदकर पढ़ सके । सबों के पास न तो इतना अधिक धन होता है और न सभी प्रकार की पुस्तकें एक स्थान पर मिल सकती हैं। पुस्तकालय एक ऐसा स्थान है जहाँ पर सभी प्रकार की पुस्तकें उपलब्ध रहती हैं। हम पुस्तकालय से इच्छानुसार पुस्तकें प्राप्त कर उससे ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। एक किताब को पढ़ने के बाद लौटा दिया जाता है। दूसरे लोग उस पुस्तक को पढ़ते हैं। इस तरह पुस्तकालय के रहने से एक ही पुस्तक से अनेक लोग ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं । ज्ञान प्राप्ति के साथ-ही-साथ पुस्तकों से मनुष्य का मनोरंजन भी होता है। इससे समाज में एकता का भाव बढ़ता है और हम एक दूसरे की सहायता करना सीखते हैं बहुत-सी ऐसी किताबें हैं, जो जब नहीं छपती हैं। इस प्रकार की दुर्लभ पुस्तक हमें पुस्तकालय से पढ़ने के लिए मिल सकती है। पुस्तकालय में पुस्तकों के अलावे पत्र-पत्रिकाएँ भी रहती हैं। इन पत्र-पत्रिकाओं को पढ़कर हम संसार की सामयिक घटनाओं से परिचित होते हैं। इस तरह पुस्तकालय ज्ञान के केन्द्र हैं ।
प्रकार – पुस्तकालय कई प्रकार के होते हैं। कुछ धनी और विद्वान लोग पुस्तकों का संग्रह करके अपना पुस्तकालय बनाते हैं। इसे ‘व्यक्तिगत पुस्तकालय’ कहते हैं। शिक्षकों और छात्रों के लिए विद्यालय और महाविद्यालय में भी पुस्तकालय होते हैं। तीसरे प्रकार का पुस्तकालय ‘सार्वजनिक पुस्तकालय’ होता है। इस पुस्तकालय से सभी लोग लाभ उठा सकते हैं। कुछ स्थानों पर राज्य सरकार पुस्तकालय खोलती है। इस तरह के सरकारी पुस्तकालय’ का दरवाजा भी सबों के लिए खुला रहता है।
उपसंहार- हमारा देश गाँवों को देश है। हमारे गाँवों में पुस्तकालय की कमी है। सरकार और स्वयंसेवी संस्थाओं को इस ओर ध्यान देना चाहिए । गाँव-गाँव में पुस्तकालय खोलकर जनता को ज्ञान बढ़ाने में सहायता करनी चाहिए ।
21. दहेज प्रथा
भूमिका, बुराई, दुष्परिणाम, रोकने के उपाय
उत्तर– भूमिका – विवाह के अवसर पर कन्या पक्ष द्वारा वर पक्ष को उपहार के रूप में जो भेंट दी जाती है, उसे ‘दहेज’ कहते हैं । यह प्रथा अत्यंत प्राचीनकाल से चली आ रही है। आज यह प्रथा बुराई का रूप धारण कर चुकी है, परंतु मूल रूप में यह बुराई नहीं है।
प्रश्न उठता है कि दहेज को बुराई क्यों कहा जाता है ? विवाह के समय प्रेम का उपहार देना बुरा कैसे है ? क्या एक पिता अपनी कन्या को खाली हाथ विदा कर दे ? नहीं । अपनी प्यारी बिटिया के लिए धन, सामान, वस्त्र आदि देना प्रेम का प्रतीक है। परंतु यह भेंट प्रेमवश दी जानी चाहिए, मजबूरी में नहीं दूसरे, दहेज अपनी शक्ति के अनुसार दिया जाना चाहिए, धाक जमाने के लिए नहीं। तीसरे, दहेज दिया जाना ठीक है, माँगा जाना ठीक नहीं । दहेज को बुराई वहाँ कहा जाता है, जहाँ माँग होती है। दहेज प्रेम का उपहार है, जबरदस्ती खींच ली जाने वाली संपत्ति नहीं । दुर्भाग्य से आजकल दहेज की जबरदस्ती माँग की जाती है। दूल्हों के भाव लगते हैं। बुराई की हद यहाँ तक बढ़ गई है कि जो जितना शिक्षित है, समझदार है, उसका भाव उतना ही तेज है। आज डॉक्टर, इंजीनियर का भाव दस-पंद्रह लाख, आई० ए० एस० का चालीस-पचास लाख, प्रोफेसर का आठ-दस लाख, ऐसे अनपढ़ व्यापारी, जो खुद कौड़ी के तीन बिकते हैं, उनका भी भाव कई बार लाखों तक जा पहुँचता है। ऐसे में कन्या का पिता कहाँ मरे ? वह दहेज की मंडी में से योग्यतम वर खरीदने के लिए धन कहाँ से लाए ? बस यहीं से बुराई शुरू हो जाती है ।
दुष्परिणाम- दहेज-प्रथा के दुष्परिणाम अनेक हैं। या तो कन्या के पिता को लाखों का दहेज देने के लिए घूस, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, काला-बाजार आदि का सहारा लेना पड़ता है, या उसकी कन्याएँ अयोग्य वरों के मत्थे मढ़ दी जाती हैं । मुंशी प्रेमचंद की ‘निर्मला’ दहेज के अभाव में बूढे तोताराम के साथ ब्याह दी गई। परिणाम क्या हुआ ? तोताराम की हरी-भरी जिंदगी श्मशान में बदल गई। स्वयं निर्मला भी तनावग्रस्त होकर चल बसी । हम रोज समाचार पत्रों में पढ़ते हैं कि अमुक शहर में कोई युवती रेल के नीचे कट मरी, किसी बहू को ससुराल वालों ने जलाकर मार डाला, किसी ने छत से कूदकर आत्महत्या कर ली। ये सब घिनौने परिणाम दहेज रूपी दैत्य के ही है ।
रोकने के उपाय – हालाँकि दहेज को रोकने के लिए समाज में संस्थाएँ बनी हैं, युवकों से प्रतिज्ञा-पत्रों पर हस्ताक्षर भी लिए गए हैं, कानून भी बने हैं, परंतु समस्या ज्यों की त्यों है। सरकार ने ‘दहेज निषेध अधिनियम के अंतर्गत दहेज के दोषी को कड़ा दंड देने का विधान रखा है। परंतु वास्तव में आवश्यकता है – जन-जागृति की । जब तक युवक दहेज का बहिष्कार नहीं करेंगे और युवतियाँ दहेज लोभी युवकों का तिरस्कार नहीं करेंगी, तब तक यह कोढ़ चलता रहेगा। हमारे साहित्यकारों और कलाकारों को चाहिए कि वे युवकों के हृदयों में दहेज के प्रति तिरस्कार जगाएँ । प्रेम-विवाह को प्रोत्साहन देने से भी यह समस्या दूर हो सकती है।
22. विद्यार्थी और अनुशासन
अनुशासन से अभिप्राय, अनुशासन का महत्त्व, अनुशासनहीनता का कारण, उपसंहार ।
उत्तर– अनुशासन से अभिप्राय- अनुशासन जीवन की नियंत्रित व्यवस्था है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में और हर मनुष्य में अनुशासन का होना वांछित है। विद्यार्थियों में अनुशासन की अनिवार्यता है । इसके अभाव में भाव-प्रवण, अपरिपक्व विद्यार्थी अपने श्रेय पथ से भटक सकते हैं ।
अनुशासन का महत्त्व – विद्यार्थी जीवन जीवन का ऊषाकाल है। यहाँ से ज्ञान की रश्मियाँ फूट कर सम्पूर्ण जीवन को अलोकित करती हैं। जीवन के निर्माण-काल में अगर अनुशासनहीनता हो तो भावी जीवन के रंगीन सपने पूरे नहीं हो पाते हैं । जीवन के इस काल में विद्यार्थियों के जो संस्कार बनेंगे वे स्थायी हो जाएगे । अतः सावधानी की अत्यन्त आवश्यकता है। स्पष्ट है कि भावी जीवन की आधारशिला दृढ़ हो ।
अनुशासनहीनता का कारण – आज विद्यार्थी जीवन की जो दशा है उसके लिए समाज का कलुषित वातावरण उत्तरदायी है। विद्यार्थी जन्मना उच्छृंखल और अनुशासनहीन नहीं होते। वे अपने परिवेश की उपज हैं। आज की शिक्षा प्रणाली कम दूषित नहीं है। यह प्रणाली चरित्र-निर्माण, उच्च संस्कार और उच्चतर जीवन मूल्यों की स्थापना के लिए प्रयास नहीं करती है। अध्यापकों के आचरण में जीवन के महान गुण दिखाई नहीं पड़ती हैं। फिर विद्यार्थियों पर किनके गुणों का प्रभाव पड़े ? विद्यार्थियों के सम्मुख त्याग, तपस्या, सदाचार और उच्च जीवन मूल्यों का कोई निदर्शन नहीं मिल पाता है। उनके गुरू आदर्श जीवन के उदाहरण प्रस्तुत कर नहीं पाते हैं। इस तरह हम कह सकते हैं कि त्रुटिपूर्ण शिक्षा प्रणाली, पश्चिमी सभ्यता की चकाचौंध, दूरदर्शन एवं चलचित्र सब विद्यार्थियों में अनुशासनहीनता के कारक तत्त्व हैं। दूरदर्शन के चलते सांस्कृतिक प्रदूषण एवं चलचित्रों के कारण अपराधीकरण को बल मिल रहा है। इस कारणों से नवयुवकों में रूचि – विकृति पैदा हो रही है। हमारे देश की दलगत राजनीति ने भी नवयुवकों को गुमराह किया है हर दल अपने स्वार्थ की पूर्ति में युवा समाज का अनुचित दोहन कर रहा है। दलों के युवक-मंचों का गठन विद्यार्थियों को अंतर्मुक्ता करके किया जाता है। छात्र समाज भी अलग-अलग राजनीतिक दलों के प्रति निष्ठा के कारण विभक्त हैं। इन कारणों से पहले की तुलना में अनुशासनहीनता बढ़ी है।
उपसंहार – विद्यार्थियों में बढ़ती अनुशासनहीनता देश के भविष्य के लिए गंभीर खतरा है। इससे सामजिक शांति भंग होगी और अपराधमूलक घटनाओं में वृद्धि होगी। दिशाहीन युवा-समाज अराजकता पर उतर आएगा। अतः उन्हें अनुशासित करने के लिए गंभीर कदम उठाने होंगे। बहुमुखी प्रयास होने पर ही विद्यार्थियों में अनुशासन बना रहेगा। स्वयं विद्यार्थियों को भी अनुशासन की आवश्यकता समझते हुए आवश्यक कदम उठाने होंगे। जिस पीढ़ी पर देश के भविष्य का दारोमदार निर्भर है उसे स्वस्थ एवं संयत बनाना ही होगा ।
23. भ्रष्टाचार
उत्तर– प्रस्तावना, भ्रष्टाचार का अर्थ, भ्रष्टाचार की पृष्ठभूमि, भ्रष्टाचार के कारण, भ्रष्टाचार दूर करने के उपाय, उपसंहार ।
प्रस्तावना – स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमारे देश में भ्रष्टाचार का बोलबाला हो गया है। भाई-भतीजावाद, गुटबन्दी, बेईमानी, मिलावट, रिश्वतखोरी, चार सौ बीसी आदि अंगरक्षकों के साथ भ्रष्टाचार महोदय संपूर्ण राष्ट्र में निर्बाध विचरण कर रहे हैं। इस भ्रष्टाचार रूपी दानव ने संपूर्ण भारत को जकड़ लिया है। इस दानव से कैसे छुटकारा मिले ? यह एक भयंकर समस्या हो गई है।
भ्रष्टाचार का अर्थ- भ्रष्टाचार का अर्थ है- भ्रष्ट आचरण । भ्रष्टाचार संसार में जघन्यतम (भयंकर से भयंकर ) काम कर सकता है। किसी की हत्या, मारकाट, लूटपाट, हेरा-फेरी इसके अनगिनत रूप हैं। अपने देश, जाति और समाज को इसने अवनति के गर्त में ढकेल दिया है ।
भ्रष्टाचार की पृष्ठभूमि – भ्रष्टाचार ने कब और कहाँ आँखे खोलीं, यह बात इतिहास के गर्भ में छिपी है। वैसे स्वार्थ-लिप्सा इसकी जननी तथा भौतिक ऐश्वर्य की चाह इसका पिता है। पुरातन युग में दक्षिणा, मध्य काल में भेंट आदि तथा आधुनिक काल में उपहार सब भ्रष्टाचार के ही रूप हैं।
भ्रष्टाचार के कारण- पाश्चात्य उन्नति और वैज्ञानिक प्रगति सबका लक्ष्य मनुष्य के लिए सांसारिक सुख-भोग के साधनों की वृद्धि करना रहा है। जब एक सामान्य धर्म-भीरु इंसान यह देखता है कि उच्च पदों पर आसीन व्यक्ति हर उपाय से पैसा बटोरकर चरम सीमा तक विलासिता का जीवन जी रहा है, पूँजीपति गरीबों का शोषण कर मखमली गद्दों पर सोते हैं और सोने के थालों में नाना प्रकार के व्यंजन खाते हैं, धनी युवतियाँ तितली बनी फिरती हैं और युवक छैला बने घूमते हैं तो उसका मन भी डाँवाडोल होने लगता है। कई बार नीचे का व्यक्ति भ्रष्टाचार से दूर रहना चाहता है, किन्तु ऊपर का अफसर उससे माहवारी चाहता है, जिसके बिना उसे प्रताड़ित और बाँधित करता है। ऐसी परिस्थितियों में विवश होकर वह भी भ्रष्टाचार में संलग्न हो जाता है। इसके साथ दूरदर्शन, सिनेमा आदि साधन लोगों की वासनाओं को उत्तेजित कर सुख-भोग की ओर प्रेरित करते हैं । अतः महँगी जीवन पद्धति टी०वी०, फ्रीज, वी०सी०डी० आदि को पाने की सब कोशिश करते हैं ।
भ्रष्टाचार दूर करने के उपाय- भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए निम्नांकित उपाय अपनाए जाने चाहिए –
(क) भारतीय संस्कृति की ओर ध्यान आकृष्ट करना – संस्कृत और देशी भाषाओं का शिक्षण अनिवार्य करना आवश्यक है। इससे जीवन के मूल्य दृढ़ और पोषक बनेंगे। लोग धर्मभीरु बनेंगे और दुराचार से घृणा करेंगे ।
(ख) देशभक्ति की भावना भरना – हर नागरिक देश को महान समझे और उसके गौरव को बनाए रखने के लिए तत्पर रहे।
(ग) स्वदेशी चिन्तन अपनाना – भारत में बनी हुई चीजों को क्रय करने की भावना प्रत्येक व्यक्ति में जागृत की जानी चाहिए। इससे देश का पैसा देश में रहेगा और देश की समृद्धि बढ़गी।
(घ) कठोर कानून बनाना- कानून को इतना कठोर बना दिया जाए कि हर अपराधी को उसके अपराध की सजा मिल सके।
(ङ) सामाजिक बहिष्कार – भ्रष्ट व्यक्ति का समाज से बहिष्कार किया जाए, उनके साथ रोटी-रोजी आदि किसी प्रकार का व्यवहार न किया जाए ।
उपसंहार – सदाचार रामबाण औषधि और परम धन है। आज हमारे देश से भ्रष्टाचार मिटाना है तो सदाचारी, सरल, सादगी-प्रिय लोगों का सादर अभिनन्दन किया जाना चाहिए। इससे दुराचार मिटेगा और सदाचार की पुनः प्रतिष्ठा हो सकेगी।
24. दूरदर्शन
भूमिका, लाभ, हानियाँ, निष्कर्ष ।
उत्तर– भूमिका – आधुनिक वैज्ञानिक आविष्कारों में सबसे अधिक आकर्षक यंत्र हैदूरदर्शन। इसके माध्यम से दूर स्थान से प्रसारित ध्वनि चित्र सहित दर्शकों के पास पहुँच जाती है। दूरदर्शन का प्रभाव रेडियो से अधिक स्थायी है। पिछले दो दशकों में दूरदर्शन ने भारत में बहुत लोकप्रियता प्राप्त की है।
लाभ- भारत जैसे विशाल देश में दूरदर्शन की महत्ता असंदिग्ध है। आज हमारे देश के सामने अनेकानेक समस्याएँ मुँह बाए खड़ी हैं। दूरदर्शन के माध्यम से उन समस्याओं की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट कर उनके समाधान की दिशा में प्रयत्न किया जा सकता है। ज्ञान-विज्ञान, समाज-शिक्षा तथा खेती-बाड़ी संबंधी विषयों के संबंध में जानकारी द्वारा लोगों का ज्ञानवर्धन किया जा सकता है। देश में मद्यपान के कुप्रभावों, परिवार नियोजन की आवश्यकता, भारतीय जीवन में विविधता होते हुए भी एकता इत्यादि विषयों पर विभिन्न कार्यक्रम दिखाकर लोगों को अधिक जागरूक बनाया जा सकता है। इस दिशा में हमारा दूरदर्शन अब रूचि लेने लगा है, यह प्रसन्नता का विषय है ।
दूरदर्शन के द्वारा जनसामान्य को शिक्षित बनाया जा सकता है तथा अपेक्षित कार्यक्रमों के द्वारा जहाँ लोगों को मनोरंजन किया जा सकता है, वहाँ उनके दृष्टिकोण को वैज्ञानिक तथा स्वस्थ बनाया जा सकता है।
हानियाँ- दूरदर्शन की हानियाँ जितनी पाश्चात्य देशों में प्रकट होकर सामने आई हैं, उतनी अभी भारत में नहीं आई हैं। वहाँ दूरदर्शन के कारण सामाजिक जीवन जड़ हो गया है। लोग दूरदर्शन के कार्यक्रमों के बारे में तो जानते हैं, परंतु अपने पड़ोसी के बारे में नहीं जानते। वहाँ आत्म-सीमितता और अकेलेपन का दोष बढ़ता जा रहा है।
दूरदर्शन से एक हानि यह भी है कि यह देखने वाले व्यक्ति को पंगु-सा बना देता है। सब कुछ चलचित्रों के माध्यम से उसके पास घर में ही पहुँच जाता है और वह चुपचाप कुर्सी पर बैठा अथवा बिस्तर पर लेटा उसका दर्शक मात्र रह जाता है। घटनाएँ उस तक पहुँच जाती हैं परंतु स्वयं वह उन्हें देखने का वास्तविक अनुभव प्राप्त नहीं कर सकता । वह देखता है कि किन्हीं दूर देशों में युद्ध में बम-वर्षा हो रही है अथवा गोलियाँ चल रही हैं या दो देशों के खिलाड़ी खेल रहे हैं, रन या गोल बन रहे हैं, मैदान में उपस्थित दर्शक तालियाँ बजा रहे हैं, परंतु इस प्रक्रिया को वह मात्र देख सकता है, स्वयं उसमें भागीदार नहीं बन सकता ।
निष्कर्ष- दूरदर्शन से आत्मसीमितता, जड़ता, पंगुता, अकेलापन आदि दोष बढ़े हैं। कई देशों में दूरदर्शन के कारण अपराध भी बढ़े हैं। परंतु इसमें दोष दूरदर्शन का नहीं, कार्यक्रम प्रसारण समिति का है । दूरदर्शन तो हमारे हाथ में एक ऐसा सशक्त साधन है, जिसके समुचित उपयोग से हम जीवन को और अधिक सुखद, स्वस्थ और सुंदर बना सकते हैं ।
25. व्यायाम
अर्थ, व्यायाम और खेल, शारीरिक लाभ, मानसिक लाभ, अनुशासन-लाभ
उत्तर– अर्थ – व्यायाम शब्द का सन्धिविच्छेद है- वि + आयाम । आयाम का अर्थ हैविस्तार । अर्थात् (शरीर को) विस्तार देने की विशेष क्रियाएँ व्यायाम कहलाती हैं | व्यायाम शब्द के भीतर ही उसके लाभों की व्याख्या छिपी हुई है।
व्यायाम और खेल- व्यायाम सोद्देश्य क्रिया है। अपने शरीर को सुगठित करने के लिए, जो अपने नाड़ी – तंत्र को मजबूत बनाने के लिए तथा भीतरी शक्तियों तेज करने के लिए जो भी क्रियाएँ की जाती हैं, वे निश्चित रूप से शरीर को लाभ पहुँचाती हैं। कुछ लोगों का कहना है कि सभी प्रकार के खेल व्यायाम के अंतर्गत आ जाते हैं। दूसरी ओर, कुछ विद्वान खेलों, पहलवानी आदि थका देने वाली क्रियाओं को छोड़कर शेष क्रियाओं को व्यायाम कहते हैं ।
शारीरिक खेल- व्यायाम करने से मनुष्य का शरीर सुगठित स्वस्थ, सुन्दर तथा सुडौल बनता है। हजारों की भीड़ में से कसरती बदन वाला व्यक्ति सहज ही पहचान लिया जाता है । कसरती व्यक्ति का शरीर तंत्र स्वस्थ बना रहता है। उसकी पाचन शक्ति तेज बनी रहती है। रक्त का प्रवाह तीव्र होता है। शरीर के मल उचित निकास पाते हैं। परिणामस्वरूप देह में शुद्धता आती है। भूख बढ़ती है। खाया-पिया शीघ्रता से पचता है। रक्त-माँस उचित मात्रा में बनते हैं। शरीर स्वस्थ और चुस्त बनता है। आलस्य दूर भागता है। दिन भर स्फूर्ति और उत्साह बना रहता है। माँसपेशियाँ लचीली हो जाती हैं, जिससे उनकी क्रिया – शक्ति बढ़ जाती हैं छाती व पुट्ठों के विकास से शरीर में अनोखा आकर्षण आ जाता है। व्यायाम से शरीर में वीर्य का कोष भर जाता है जिससे तन दमक उठता है। मस्तक पर तेज छा जाता है।
मानसिक लाभ- व्यायाम का प्रभाव मन पर भी पड़ता है। जैसा तन, वैसा मन। शरीर जर्जर और बीमार हो तो मन भी शिथिल हो जाता है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन और आत्मा का निवास होता है। व्यायाम के पश्चात् मन मे तेज आ जाता है। उत्साह और उमंग से व्यक्ति जिस भी काम को हाथ लगाता है, वह पूरा हो जाता है। मन में संघर्ष करने की इच्छा बलवती होती है। निराशा दूर भागती है। आशा का संचार होता है ।
अनुशासन-लाभ- व्यायाम से अनुशासन का सीधा संबंध है । कसरती व्यक्ति के मन में संयम का स्वयमेव संचार होने लगता है। स्वयं के शरीर पर संतुलन, मन पर नियंत्रण आदि गुण व्यायाम करने से स्वयं आते चले जाते हैं । अतः प्रत्येक व्यक्ति को व्यायाम करना चाहिए ।
26. यदि मैं शिक्षा मंत्री होता
भूमिका, किताबों का बोझ कम करना, प्राइवेट ट्यूशनें रोकना, व्यावसायिक शिक्षा, मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति, बहुमुखी विकास, उपसंहार ।
उत्तर– भूमिका – मनुष्य जब-जब अपने जीवन से असंतुष्ट होता है, वह असंतुष्टि के कारणों को दूर करने की इच्छा करता है । इस इच्छा में ही मानव की उन्नति का भेद छुपा हुआ है। विद्यार्थी होने के कारण मेरी अधिकांश इच्छाएँ शिक्षा के साथ संबंधित हैं, इसलिए मैं प्रायः शिक्षा व्यवस्था में ऐसे परिवर्तन लाने की सोचा करता हूँ जो हमारी शिक्षा को सही अर्थों में उपयोगी बना देंगे। शिक्षा मंत्री बने बिना मैं अपनी योजनाओं को क्रियान्वित नहीं कर सकता, अतएव सोचता हूँ काश ! मैं शिक्षा मंत्री होता ।
किताबों का बोझ कम करना – यदि मैं शिक्षा मंत्री होता तो सबसे पहले आज्ञा जारी करता कि पाठ्यक्रमों में किताबों का बोझ कम कर दिया जाए आजकल एक-एक विषय की चार-चार पुस्तकें पाठ्यक्रम में लगाई जाती हैं और छात्र ऐसा घबरा जाता है कि उसके पल्ले कुछ नहीं पड़ता ।
प्राइवेट ट्यूशनें रोकना – शिक्षा मंत्री का पद ग्रहण करते ही मैं सरकारी अध्यापकों को प्राइवेट ट्यूशन करने से मना कर दूँगा। ट्यूशन करने वाले अध्यापक कक्षाओं में तो कुछ पढ़ाते नहीं, स्कूल का समय समाप्त होते ही उनके घरों में विधिवत् स्कूल खुल जाते हैं। प्रायः जो छात्र प्राइवेट ट्यूशन के लिए तैयार नहीं होते, उन्हें दंडित और अपमानित किया जाता है ।
व्यावसायिक शिक्षा – शिक्षा को व्यावसायिक बनाना भी जरूरी है। वर्तमान शिक्षा प्रणाली हमें किताबें कीड़े बनाती है और उसके बाद हमें बेकार नौजवानों की लंबी पंक्ति में खड़ा कर देती है। यह व्यवस्था बदलने के लिए साहस और परिश्रम की आवश्यकता है, किन्तु मुझे विश्वास है कि मैंने जो दिल में ठानी है, पूरी करके ही दम लूँगा।
मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति – शिक्षा की ओर हम बहुत कम ध्यान देते हैं। हमारे स्कूलों में कहीं अध्यापक हैं तो छात्र नहीं होते, जहाँ छात्र होते हैं वहाँ योग्य अध्यापकों की कमी होती है। कहीं विद्यालयों का भवन ही नहीं होता और खेल के मैदान तो बड़े-बड़े कॉलेजों के साथ भी कठिनाई दिखाई देते हैं। शिक्षा मंत्री बन कर मैं छात्रों की मूलभूत आवश्यकताओं की ओर ध्यान दूँगा । मैं स्कूल-कॉलेजों को राजनीति से साफ रखूँगा। मैं योग्य छात्रों के लिए छात्रवृत्तियों की व्यवस्था करूँगा।
बहुमुखी विकास – शिक्षा का अर्थ केवल पुस्तकीय ज्ञान ही हैं। छात्रों के बहुमुखी विकास के लिए खेल-कूद, भ्रमण एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों का विशेष हाथ रहता है। गाँधी जी ने शिक्षा दी थी कि गर्मी की छुट्टियों में छात्रों को चाहिए कि गाँवों में जा कर ग्राम सुधार का काम करे, अनपढ़ों को पढ़ाए, किसानों को कृषि के नये ढंग सिखाए, ग्रामीण बालकों को स्वास्थ्य के नियम बताए, सफाई का महत्त्व समझाए । छात्रों के बहुमुखी विकास हेतु मैं आवश्यक कदम उठाऊँगा ।
उपसंहार – शिक्षा व्यवस्था परिवर्तन से देश की हालत बदली जा सकती है । जापान, जर्मनी और रूस जैसे देश अपनी उद्देश्यपूर्ण शिक्षा व्यवस्था के कारण ही अल्पकाल में आश्चर्यजनक उन्नति कर पाये हैं। मैं भी संसार को सिखा देता कि भारत के छात्र और युवक अपने देश के निर्माण में कैसी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। मगर अभी तो आह भर कर यही दोहराना पड़ता है काश ! मैं शिक्षा मंत्री होता।
27. आदर्श नागरिक
परिभाषा, शिक्षित होना, देश-प्रेमी, लोकहित, कानून का पालक ।
उत्तर– परिभाषा – किसी देश के सामान्य सदस्य को उस देश का नागरिक कहा जाता है। ‘आदर्श’ नागरिक वह होता है जो किसी देश मे रहकर अपनी तथा अपने देश की सर्वांगीण उन्नति के लिए प्रयत्नशील होता है ।
शिक्षित होना- आदर्श नागरिक जहाँ अपने अधिकारों के प्रति सचेत रहता है, वहाँ वह अपने कर्त्तव्यों का निर्वाह करना अपना परम धर्म समझता है । आदर्श नागरिक के लिए शिक्षित होना अनिवार्य है क्योंकि बिना शिक्षा के व्यक्तित्व का विकास संभव नहीं होता । शिक्षा प्राप्त करने पर ही व्यक्ति उचित-अनुचित का निर्णय कर सही मार्ग का अनुसरण कर सकता है। आदर्श नागरिक सही शिक्षा प्राप्त कर स्वयं को सामाजिक रूढ़ियों तथा अन्ध-विश्वासों से दूर रखता है तथा स्वस्थ समाज के निर्माण में अपना पूरा सहयोग देता है ।
देश-प्रेमी- आदर्श व्यक्ति अपने देश के प्रति निष्ठावान होता है। देश के प्रति निष्ठावान होने का तात्पर्य है कि वह तन-मन-धन से अपने देशवासियों की सेवा करता है। जिस धरती पर उसने जन्म लिया है, जिसके अन्न-जल से उसका शरीर हष्ट-पुष्ट बना है, जिस धरती पर खेल-कूदकर वह बड़ा हुआ है, उस देश के प्रति वह अपना सर्वस्त्र न्यौछावर करने के लिए सदैव तत्पर रहता है। वह सभी द्वेशवासियों को अपना भाई समझकर उनके सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख समझता है। देश की शान को वह अपनी शान समझता है तथा उस पर आँच न आने देने के लिए वह जीवन बलिदान कर देना अपना अहोभाग्य समझता है ।
लोकहित – आदर्श नागरिक परिवार तथा राष्ट्र के हितों के बीच टकराव होने पर परिवार के हितों को तिलांजलि दे देता है। यदि राष्ट्र तथा मानव जाति के हितों के बीच मेल न बैठता हो तो वह राष्ट्रीय हितों को न्यौछावर कर देता है। आदर्श नागरिक की दृष्टि सदा लोकहित की ओर लगी रहती है। वह परिवार के लिए स्वयं की, देश के लिए परिवार की तथा लोकहित के लिए राष्ट्र की बलि देने के लिए तैयार रहता है ।
आदर्श नागरिक अपने माता-पिता के प्रति भी अपने कर्त्तव्यों का पालन करता है। जिस गली-मुहल्ले, ग्राम, नगर, प्रदेश अथवा क्षेत्र में वह रहता है, वहाँ वह लोगों की सेवा कर उनके बीच सद्भावना जाग्रत करता है। एक आदर्श नागरिक आत्मसंयम का पालन करते हुए स्वयं को सामाजिक बुराइयों से दूर रखता है तथा ईर्ष्या, घृणा, क्रोध, अहंकार इत्यादि मानवीय अवगुणों से दूर रहता है।
कानून का पालक- आदर्श नागरिक जहाँ एक ओर अपने नैतिक कर्त्तव्यों का पालन करता है, वहीं दूसरी ओर राज्य के कानूनों का भी ईमानदारी से पालन करता है। वह समय पर करों का भुगतान करता है तथा करों की चोरी करना नैतिक दृष्टि से अपराध समझता है । वह कठोर परिश्रम कर स्वावलम्बन का जीवन व्यतीत करता है तथा आर्थिक दृष्टि से किसी पर निर्भर नहीं रहता।
आदर्श नागरिक ही आदर्श परिवार, आदर्श समाज तथा राष्ट्र का निर्माण करते हैं। वे सदैव अपने कर्त्तव्यों के प्रति सचेत रहते हैं। उनकी सदैव यही इच्छा बनी रहती है कि संसार के सभी प्राणी सुखी हों, सभी का कल्याण हो तथा कोई भी दुःख का भागी न बने ।
28. विद्यालय का वार्षिकोत्सव
वार्षिकोत्सव का अर्थ, वार्षिकोत्सव की तैयारी, मुख्य अतिथि की स्वीकृति, वार्षिकोत्सव का दिन, विभिन्न कार्यक्रम समापन ।
उत्तर– वार्षिकोत्सव का अर्थ- वार्षिकोत्सव का अर्थ है- सलाना जलसा । विद्यालय का यह सबसे बड़ा उत्सव होता है। हमारे विद्यालय का वार्षिकोत्सव प्रति वर्ष बैशाखी के दिन मनाया जाता है।
वार्षिकोत्सव की तैयारी – बैशाखी से पंद्रह दिन पहले ही हमने बड़े उत्साह के साथ तैयारी आरंभ कर दी। हमारे ड्राइंग अध्यापक जी सर्वसम्मति से उत्सव के इंचार्ज बनाए गए। वे संगीत में बहुत कुशल हैं। नाटक का अभिनय कराना भी इन्हें खूब आता है। इन्होंने विद्यार्थियों को अलग-अलग कविताएँ कंठस्थ करने के लिए कहा। एक विद्यार्थी को देश भक्ति का मधुरगीत स्मरण करने की आज्ञा दी। छः विद्यार्थियों को लेकर एक एकांकी नाटक की तैयारी शुरू करवा दी। इसके अलावा इन्होंने विद्यालयों के कमरों को चित्रों तथा आदर्श वाक्यों से सजाना शुरु करवा दिया ।
मुख्य अतिथि की स्वीकृति – दिल्ली के उपराज्यपाल महोदय ने हमारे विद्यालय के प्रधानाचार्य की प्रार्थना पर उत्सव का अध्यक्ष बनना स्वीकार कर लिया ।
वार्षिकोत्सव का दिन – बैशाखी के दिन प्रातःकाल ही विद्यार्थी सफेद कमीज और खाकी निकर पहने दल-के-दल स्कूल की ओर चल पड़े। स्कूल की ओर जाती हुई सड़क पर विद्यार्थी ही दिखाई देते थे। स्कूल में खूब सफाई की गई थी। फूलों के गमलों से मार्गों को सजाया गया था। स्कूल के मुख्य द्वार पर बैण्ड बजने लगा। पी०टी०आई० छात्रों की कतारें बनवाने लगे। आचार्य महोदय ने अध्यापकों में अलग-अलग काम बाँट दिया । ठीक आठ बजे अध्यक्ष महोदय की कार आ पहुँची। आचार्य जी ने अध्यापकों सहित आगे बढ़कर उनका स्वागत किया। उन्हें फूल-माला पहनाई। इसी समय स्कूल का बैण्ड बज उठा।
विभिन्न कार्यक्रम, समापन- सबसे पहले पी०टी० व्यायाम का प्रदर्शन हुआ। इसमें सभी विद्यार्थी शामिल थे। सभी को एक साथ काम करते देखकर अध्यक्ष जी बहुत प्रसन्न हुए। आचार्य जी ने अध्यक्ष महोदय का परिचय कराया । फिर उन्हें फूल-माला पहनाई।
सब विद्यार्थियों ने मिलकर ईश्वर भक्ति की कविता बोली। इसके बाद नाटक का प्रारंभ हुआ। नाटक के बाद एक गीत हुआ। इसके बाद प्रधानाचार्य महोदय ने विद्यार्थियों ने स्कूल के परीक्षा परिणामों का वर्णन किया और अपने स्कूल की विशेषताएँ बताईं। इसके बाद अध्यक्ष महोदय ने विद्यार्थियों को पुरस्कार दिए । स्वच्छता, उपस्थिति, पढ़ाई और खेलों में उत्तम छात्रों को पुरस्कार दिए गए।
समापन – अध्यक्ष महोदय ने स्कूल के प्रबंध की सराहना की। उन्होंने विद्या का महत्त्व बतलाया । तदनंतर उपप्रधानाचार्य जी ने अध्यक्ष का धन्यवाद किया और समारोह समाप्त किया ।
29. जहाँ चाह, वहाँ राह
कहावत का भाव, चाह से तात्पर्य, सफलता के लिए कर्म के प्रति रुचि और समर्पण, कठिनाइयों के बीच मार्ग निर्माण, निष्कर्ष |
उत्तर– कहावत का भाव, चाह से तात्पर्य – ‘जहाँ चाह, वहाँ राह’ कहावत का भाव यह है कि जहाँ कुछ पाने की चाहत होती है वहाँ कोई न कोई रास्ता अवश्य निकल आता है। कहा गया है कि संसार में कुछ भी असंभव नहीं है । ‘असंभव’ शब्द मूर्खों के शब्दकोश में होता है ।
सफलता के लिए कर्म के प्रति रुचि और समर्पण- लेकिन कुछ पाने के लिए केवल कल्पना कर लेने मात्र से कुछ नहीं होता। इसके लिए कर्म करने की आवश्यकता होती है। सफलता पाने के लिए कर्म के प्रति रुचि और समर्पण का होना आवश्यक है। ऐसे व्यक्ति को ही कर्मवीर कहा जाता है। कर्मवीर भाग्यवादी न होकर कर्म करने में विश्वास करते हैं ।
कठिनाइयों के बीच मार्ग निर्माण – कर्मवीर व्यक्ति कठिनाइयों के मध्य अपने मार्ग का निर्धारण कर लेते हैं। उन्हें अपने हाथों की शक्ति पर भरोसा होता है। ऐसे व्यक्ति कहीं भी असफल नहीं होते। अन्य लोगों को जो काम असंभव प्रतीत होता है, कर्मवीर उसे करने की कोई न कोई युक्ति निकाल ही लेते हैं। अकर्मण्य व्यक्ति ही भाग्य के भरोसे बैठता है। जीवन में सफलता केवल पुरुषार्थ के बल पर पाई जा सकती है। परिश्रम से सभी कुछ संभव है।
विश्व का इतिहास इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि विश्व के सभी महानतम कार्यों की सफलता के मूल में परिश्रम की भावना निहित थी । विश्व में अब तक जितने भी ऐश्वर्यवान, महत्त्वकांक्षी तथा यशस्वी सम्राट हुए हैं उन सभी ने अपने जीवन में परिश्रम को अत्यधिक महत्त्व दिया था। मौर्य वंश के प्रतापी सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य ने कठोर परिश्रम के आधार पर ही विशाल मौर्य साम्राज्य की स्थापना की थी । हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी, लोकमान्य तिलक, पंडित जवाहरलाल नेहरू, डॉ० राजेंद्र प्रसाद, अब्राहम लिंकन, कार्ल मार्क्स इत्यादि का जीवन परिश्रम का ही प्रतीक था।
इस प्रकार स्पष्ट है कि व्यक्ति के जीवन निर्माण में परिश्रम की महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है। ऐसे व्यक्ति जो जीवन में परिश्रम करते हैं, अन्य व्यक्तियों की तुलना में सबल होते हैं तथा ऐसे व्यक्तियों की सहायता स्वयं ईश्वर करता है। ऐसे व्यक्ति जो परिश्रमी होते हैं, “वीर भोग्या वसुंधरा” की उक्ति को भी चरितार्थ करते हैं। निष्कर्ष- निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि मन में चाह उत्पन्न करने और उसके अनुरूप परिश्रम करने से इच्छित वस्तु को पाने की कोई न काई राह अवश्य निकल आती है। अतः हमें असफलता में निराश होने की आवश्यकता नहीं है। पूरे तन-मन से परिश्रम करने से कार्य सिद्ध हो जाता है।
30. किसी मेले का आँखों देखा वर्णन
भूमिका, गुब्बारा, द्वार, वापसी ।
उत्तर– भूमिका- किसी प्रदर्शनी या मेले का वर्णन तीन-चार सौ शब्दों में करना बहुत बड़ा करतब है, आसान काम नहीं । प्रदर्शनी की एक-एक वस्तु ढेरों शब्द माँगती है उसमें इतनी विविधता होती है कि वर्णन को रोकना कठिन हो जाता है। फिर दिल्ली के अंतरराष्ट्रीय व्यापार मेले का क्या कहना ।
गुब्बारा – मुझे सन् 2000 में प्रगति मैदान, दिल्ली में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मेला देखने का अवसर मिला । मेले का विज्ञापन करने के लिए आकाश में एक विशाल गैसीय गुब्बारा ताना गया था। जिस पर बड़े-बड़े शब्दों में व्यापार मेला लिखा था। यह गुब्बारा मानो आसपास जा रहे लोगों को अपनी ओर खींच रहा था।
द्वार – व्यापार मेले में प्रवेश करने के कई द्वार थे। मैं जिस द्वार से गया, उसके बाहर टिकट लेनेवालों की सर्पाकार लंबी पंक्ति थी । वह पंक्ति बहुत अनुशासित थी। इसलिए शीघ्र ही प्रवेश का मौका मिल गया। मुख्य द्वार और मार्ग को विविध कलात्मक सज्जाओं से सजाया गया था ।
जर्मनी का मंडप- मैं इन रंगीनियों में खोया हुआ था कि अचानक स्वयं को एक मंडप में खड़ा पाया। यह जर्मनी का मंडप था। इसमें विविध आधुनिकत सज्जाओं के साथ उस देश की प्रति को दर्शाया गया था। मुझे वहाँ की स्टीम प्रेस और बुनाई की मशीन बहुत पसंद आयी । एक सुंदर युवती अपने से भी सुंदर डिजाइन की बुनाई कर करके दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर रही थी। सभी मंडप अनुशासित थे।
घड़ियों वाला मंडप- आगे हाल ऑफ नेशन्स के साथ एक छोटा भवन था, जिसमें विश्वभर की घड़ियों की प्रदर्शनी लगी थी। उस भवन में सिनेमाघर की खिड़कियों जैसी भीड़ी थी । अंदर जाकर विविध घड़ियों के मंडपों को देखा तो हैरान रह गया। एक-से-एक श्रेष्ठ गुणवत्त वाले टाइमपीस, क्लॉक तथा कलाई घड़ियों ने मन मोह लिया। मैंने भी एक अलार्म घड़ी खरीदी ।
पाकिस्तान का मंडप- नजदीक ही पाकिस्तान का मंडप देखा तो पड़ोसी देश की व्यापारिक उन्नति देखने की जिज्ञासा जाग उठी। परंतु पाकिस्तान की तरक्की देख कर निराशा हुई। उसमें केवल चीनी और पत्थर के फूलदान, सजावट का सामान तथा सूखे मेवों के अतिरिक्त कुछ विशेष नहीं था ।
वापसी – रात घिर आयी थी। मैं वापसी के लिए द्वार पर चला। आगे देखाहजारों लोग एक ऊँचे स्थान पर मजमा लगाए खड़े हैं। पता चला कि कोई नाटक-कंपनी नाटक खेल रही हैं वहीं बहुत लंबी पँक्ति देखी जिसमें फैशन शो देखने के इच्छुक लोग टिकट लेने के लिए खड़े थे। मन हटता ही न था । जैसे-तैसे बाहर पहुँचा तो मुड़ कर फिर से व्यापार मेले की ओर देखा । रोशनी में जगमगाता हुआ मेला दुल्हन की तरह सज कर खड़ा था ।
31. एक रोमांचक यात्रा अथवा, पर्वत-यात्रा
भूमिका, यात्रा का प्रस्थान, पर्वतीय दृश्य, कालका से शिमला, शिमला का दृश्य, वापसी, उपसंहार ।
उत्तर– भूमिका- मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। एक स्थान पर रहते-रहते जब उसका मन ऊब जाता है, तो वह इधर-उधर घूम कर अन्य प्रदेशों की सैर करके अपना मन बहलाता है। सैर करने का अपना ही आनंद होता है। भारत प्रकृति की क्रीड़ांगन है, यही एक ऐसा देश है, जिसमें प्रकृति अपने विविध रूपों में उपस्थित है। सुरम्भ पर्वतमालाओं की सैर करने का अपना अलग ही आनंद है।
यात्रा का प्रस्थान – इस बार दशहरे की छुट्टियों में मेरी मित्र-मंडली ने शिमला चलने का कार्यक्रम बनाया। अपने माता-पिता से परामर्श करके मैंने भी उसमें जाना तय कर लिया। 15 अक्तूबर को हम सबने रेलगाड़ी द्वारा यात्रा शुरू की।
पर्वतीय दृश्य- पर्वतीय प्रदेश का जीवनक्रम ही निराला होता है। मैं खिड़की के पास बैठा था और पर्वतीय दृश्यों को देख रहा था । रेल के डिब्बे से उनके छोटे-छोटे घर बहुत सुंदर लग रहे थे। मैं उस दृश्य का अनंद ले रहा था । कालका स्टेशन आ गया। यह पर्वतीय प्रदेश एक छोटा-सा जंक्शन है।
कालका से शिमला- थोड़ी देर प्रतीक्षा करनी पड़ी। इसी बीच हमने कुछ जलपान किया। तभी हमें शिमला के लिए गाड़ी मिली। इन गाड़ी में चार-पाँच ही डिब्बे थे तथा इसके दोनों ओर इंजन जुड़े हुए थे। रास्ता चक्करदार तथा सँकरा था। ठंड से हम सिकुड़े जा रहे थे । हम शिमला पहुँच गए।
शिमला का दृश्य – शिमला हिमाचल प्रदेश की राजधानी है। आधुनिक ढंग से मकान बने हुए हैं। शहर में कई सिनेमा घर जो आकर्षण और भी बढ़ाते हैं। हम वहाँ तीन दिन रहे। इन तीन दिनों में हमने दूर तक फैली प्रकृति की सुषमा का भरपूर आनंद लिया। ऊँची-ऊँची पर्वत-मालाएँ व वृक्ष, धारियाँ, लताएँ, भांति-भांति के पुष्पों से लदे वृक्ष देख कर ऐसा लगा कि सारी उम्र यहाँ बिता दें । ये तीन दिन बड़ी मौज-मस्ती में कटे और तभी वापसी की तैयारियाँ शुरू हो गयी ।
वापसी – तीन दिन के बाद हम वहाँ से बस द्वारा चले । बस से हमने ऊँची-नीची पहाड़ियाँ देखीं तथा चक्कर साँपनुपा मोड़ देखे जिनके नीचे गहरे गड्ढे थे। पर्वतों के आस-पास हरियाली, खेत तथा उनमें काम करनेवाले ग्रामीण अपनी सुंदर वेश-भूषा में हमें आकृष्ट कर रहे थे। पर हम धीरे-धीरे इस प्रदेश से दूर होते गए ओर अपने आ गए। आज भी मुझे वह यात्रा याद है ।
उपसंहार– पर्वत यात्रा का यह अनोखा एवं अनुभव जीवन भर स्मरण रहेगा। मन में उत्कृष्ट इच्छा है कि प्रतिवर्ष अवकाश के दिनों में किसी-न-किसी पर्वत प्रदेश का भ्रमण किया जाए। वस्तुतः पर्वत प्रकृति की अद्भुत देन है। इनकी यात्रा बहुत ही मर्म-स्पूर्ण एवं आनंददायक होती है।
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