जनजातीय समस्याएँ एवं सांस्कृतिक परिवर्तन

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जनजातीय समस्याएँ एवं सांस्कृतिक परिवर्तन

‘जनजातीय समस्याएँ एवं सांस्कृतिक परिवर्तन’ अध्याय में लेखकद्वय ने जनजातियों की उन समस्याओं की चर्चा की है जिससे झारखण्ड की जनजातियाँ सर्वाधिक आक्रान्त हैं. ये समस्याएँ इस प्रदेश की जनजातियों के विकास की सबसे बड़ी बाधक हैं. झारखण्ड की सरकार के लिए भी जनजातियों की समस्या प्रदेश के विकास में बाधक हैं. इन जनजातियों के समस्या के कारक एवं प्रभाव को इस अध्याय में दर्शाया गया है. अध्याय के अन्त में इस समस्या के निदान हेतु राज्य एवं केन्द्र सरकार द्वारा किये गये प्रयासों की चर्चा है.
जनजातीय समस्याएँ एवं सांस्कृतिक परिवर्तन
जनजातीय समाज आज अनेक समस्याओं से दो-चार हो रहे हैं. ये जनजातीय समस्या मानवकृत हैं और जिसमें इन जनजातियों का योगदान कम तथा बाह्य समाज का ज्यादा है. कुछ की समस्या तो आधुनिक विकास का प्रतिफल है. मुख्य जनजातीय समस्याएँ जिससे आदिम समाज आक्रान्त है. इस प्रकार हैं

(1) ऋणग्रस्तता एवं साहूकारों एवं महाजनों का शोषण

ऋणग्रस्तता जनजातियों की एक वैश्विक समस्या है. झारखण्ड की जनजातियाँ भी इसका अपवाद नहीं है, जिसके कारण जनजातियाँ साहूकारी के शोषण का शिकार होता है. ऋणग्रस्तता का कारण, निर्धनता, भुखमरी तथा दुर्बल आर्थिक व्यवस्था है. बाह्य हस्तक्षेप से पूर्व ये लोग आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर थे. वन सम्पदा पर इनका अधिकार था, परन्तु जब आर्थिक विकास की योजना आई तो इन सीधे एवं सहज लोगों की दुर्गति प्रारम्भ हो गई. बाहरी लोगों ने इनके भूमि एवं वनों पर स्वामित्व जमा लिया तथा ये अपने कुछ सामाजिक एवं सांस्कृतिक पहलू के कारण ऋणग्रस्तता के शिकार होने लगे. ये जनजातियाँ समस्त प्रणाली में प्रसन्नता या शान्तिपूर्ण जीवन की आशा छोड़ चुकी हैं. ऋणग्रस्तता का दुष्परिणाम ऋण बन्धक होने पर विवश होना है और अधिकतर जनजातियों में ऋण बन्धक होना इनके जीवन का अभिन्न अंग बन चुका है. इन जनजातियों की ऋणग्रस्तता के कुछ प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-
1. भूमि तथा वनों पर जनजातीय स्वामित्व का हनन.
2. कृषि का पुरातन एवं निम्न उत्पादक तकनीक.
3. सांस्कृतिक क्रियाकलापों पर जरूरत से ज्यादा खर्च करने की प्रवृत्ति.
4. अन्धविश्वास एवं भाग्यवादी प्रवृत्ति.
5. सामाजिक दबाव के कारण जुर्माने के सम्बन्ध में पंचायत के आदेशों का पालन.
6. अशिक्षा.
उपर्युक्त स्थितियों के कारण झारखण्ड की जनजातियों पर सदैव पैसे की तंगी रहती है, अतः ये सहजता से साहूकारों के शोषण के शिकार हो जाते हैं. इन जनजातियों द्वारा लिये गये ऋण पर ब्याज
दर द्रुतगति से बढ़ती है जो इन्हें अपने जाल में फाँस लेती हैं और इसे ये पीढ़ी-दर-पीढ़ी ढोते हैं. पीढ़ी-दर-पीढ़ी ऋणग्रस्तता ढ़ोने की मजबूरी ही ऋणबन्धक में परिवर्तित हो जाती है. झारखण्ड में ऋणबन्धक की प्रचलित प्रथा का नाम कामिका या कतिया है जो कोरवा एवं भुइया जनजातियों में प्रचलित है. ऋणग्रस्तता एवं ऋण बन्धन के अनेक दुष्परिणाम दृष्टिगोचर होते हैं, जिनमें निम्नलिखित मुख्य हैं
1. व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की समाप्ति तथा श्रम का निःशुल्क प्रयोग
2. व्यवसाय में परिवर्तन तथा आय की समाप्ति
3. लेनदारों द्वारा भूमि का हस्तान्तरण एवं अधिग्रहण
4. घर की स्त्रियों द्वारा वेश्यावृत्ति करवाने की प्रवृत्ति, तथा
5. चिरकालिक यौन रोग.
> सरकारी नियम तथा मुक्ति के प्रयास
भारतीय संविधान की पाँचवीं अनुसूची में राज्य के राज्यपाल को जनजातीय क्षेत्रों में साहूकारों और ऋणदाताओं के व्यवसाय को नियमित करने का विशेषाधिकार दिया गया. इस प्रावधान के तहत् बिहार महाजन ( लेनदेन का नियम) अधिनियम 1939 लागू है. इस अधिनियम की उपस्थिति होने के बावजूद जनजातियों का शोषण जारी है.
राज्य सरकार जिन सहकारी ऋण समितियों की स्थापना की है वह जनजातीय निवास से दूर है तथा ऋण प्रदान करने की प्रक्रिया साहूकारों के विपरीत जटिल है.

 (2) भूमि हस्तान्तरण

झारखण्ड की जनजातीय आबादी की 88 प्रतिशत आबादी कृषक है और इनका अपने जमीन से भावनात्मक लगाव रहता है. पूर्व में इनमें अस्थायी कृषि की प्रथा का प्रचलन था, किन्तु अब ये झूम कृषि के बदले स्थायी कृषि करने लगे हैं. आबादी में वृद्धि एवं भूमि की कमी तथा भारतीयों का भूमि के प्रति लगाव ने भूमि हस्तान्तरण को बढ़ावा दिया है. भूमि हस्तान्तरण का मूल कारण –
1. जनजातियों के पास धन की कमी.
2. कम कृषि उत्पादकता एवं दुर्बल कृषि व्यवस्था.
3. ऋणग्रस्तता.
4. राज्य सहकारी समितियों की गलत ऋण नीति.
इन कारकों ने भूमि हस्तान्तरण की प्रक्रिया को तीव्र कर दिया है.

(3) अस्थायी खेती

जनजातियों में अस्थायी खेती का प्रचलन काफी पुरातन है. इस प्रकार की खेती में कृषक स्थायी तौर पर वास नहीं करते एवं जमीन के एक टुकड़े पर खेती कर उसे छोड़ आगे बढ़ जाते हैं तथा दूसरे खेत के टुकड़े पर खेती करते हैं. इस प्रकार की खेती को झूम कृषि या स्थानान्तरित खेती भी कहते हैं. ऐसी खेती में कृषि उत्पादकता काफी कम होती है. अस्थायी खेती पूरी तौर पर प्रकृति के भरोसे रहती है. फसल के तौर पर मोटे अनाज, बाजरा, जौ तथा दलहन होता है. अस्थायी खेती जनजातियों के मध्य प्रचलन का कारण इनका अंधविश्वास एवं कमजोर आर्थिक स्थिति है.
झारखण्ड के जनजातियों में अस्थायी खेती एक भीषण समस्या है. वन विभाग के दृष्टिकोण से यह एक ऐसी बुराई है जिससे वनों को काफी नुकसान होता है. इसे मृदा कटाव का कारण माना जाता है, किन्तु एक वन क्षेत्र के विद्वान के अनुसार अस्थायी खेती के काल में वृद्धि कर देने से मृदा क्षरण का खतरा कम हो जाता है. अस्थायी कृषि पर्यावरण के साथ-साथ आर्थिक दृष्टि से भी हानिकारक है.
अस्थायी खेती की हानियों के बावजूद इसे पूर्णतया ता एकबारगी समाप्त नहीं किया जा सकता, क्योंकि इस कृषि पद्धति से झारखण्ड की जनजातियों की धार्मिक एवं सांस्कृतिक भावना जुड़ी हुई है.
अस्थायी खेती समाप्त करने के उपाय
झारखण्ड की जनजातियों के मध्य प्रचलित अस्थायी खेती को समाप्त करने के लिए निम्नलिखित उपाय करने होंगे –
(1) इस समस्या के निदान हेतु सरकार द्वारा एकाएक उठाया गया कदम जनजातीय लोगों की सोच में परिवर्तन लाएगा. अतः सरकार को इस समस्या के निदान हेतु एक उत्तम वैकल्पिक व्यवस्था करनी होगी.
(2) जिन अस्थायी खेती के जिन क्षेत्रों में सीढ़ीदार खेती की सम्भावना है वहाँ अस्थायी खेती को समाप्त कर सीढ़ीनुमा खेती को बढ़ावा दिया जा सकता है.
भूमि हस्तांतरण के लिए बाहरी लोग एवं दबंग किस्म के आदमी न्यायालय का साहारा लेते हैं. ये लोग जनजातियों को अपने विरुद्ध ही गवाही दिलवाकर उनकी भूमि हड़प लेते हैं. भूमि हस्तान्तरण का एक अन्य तरीका ‘बाजदाव’ का है. इसके तहत् ऋण लेने वाला न्यायालय द्वारा जारी की गई डिग्री को मानने के लिए राजी कर लिया जाता है. न्यायालय में जनजातियों की कमजोर स्थिति का कारण उनका सीधापन है. एक अन्य कारण पेचीदी कानून व्यवस्था है, जिसे जनजाति समझ नहीं पाते हैं.
भूमि हस्तान्तरण पर रोक के उपाय
1. सभी राज्यों तथा केन्द्रशासित प्रदेशों में जनजातीय भूमि के गैर जनजातीय लोगों के पक्ष में हो रहे हस्तान्तरण पर कुछ समय लिए रोक लगनी चाहिए.
2. जनजातीय लोगों की सम्पत्ति का गैरजनजातीय लोगों के पक्ष में हस्तान्तरण बिना उपयुक्त या कलेक्टर की अनुमति के मान्य नहीं होनी चाहिए.
3. जनजातीय लोगों को कानूनी संरक्षण देना आवश्यक है.
4. ऋणग्रस्तता से मुक्त करने हेतु सरकार द्वारा कोई कारगर उपाय करना चाहिए.
5. इनमें शिक्षा का विकास करना अनिवार्य है जिससे कि ये सहूकारों के चंगुल में नहीं फँसे.
6. इनकी आर्थिक स्थिति मज़बूत करने के लिए राज्य सरकार को प्रयास करना चाहिए.
उपर्युक्त उपाय कर जनजातीय भूमि हस्तान्तरण पर रोक लगायी जा सकती है.
(3) अस्थायी कृषि का एक कारण इस खेती को करने वाले जनजातियों में स्थायी वास का अभाव रहता है. अतः इस प्रकार की खेती से मुक्ति हेतु इन जनजातियों में स्थायी निवास बनाना अनिवार्य है.
(4) अस्थायी कृषि सम्बन्धी समस्या के निदान हेतु मानव-शास्त्रियों का सहयोग अनिवार्य है.
(5) जनजातियों के मध्य विकसित कृषि यन्त्रों, अच्छी खादों तथा बीजों का वितरण किया जाए.
(6) जनजातियों को ब्याज रहित ऋण सुविधा उपलब्ध कराई जाए.

(4) बेरोजगारी

जनजातीय क्षेत्र में जब तक आधुनिक सभ्यता की लौ नहीं पहुँची थी तब तक जनजातीय जीवन खुश था, उनके सामने रोजगार एवं बेरोजगार जैसी कोई अवधारणा नहीं थी. उनकी जंगल पर आधारित अर्थव्यवस्था थी. जब यूरोपीय लोगों ने जनजातीय क्षेत्र में प्रवेश किया तो ये विदेशी जन ने इनकी अर्थव्यवस्था को अव्यवस्थित कर दिया ये जनजातियाँ पेट पालन के लिए तत्कालीन ब्रिटिश चाय बागानों में काम करने असम गये. झारखण्ड की जनजातियों में मुण्डा, उराँव एवं संथाल ने इन चाय बागानों में काम करने गये. आज भी इन लोगों के संतति वहाँ कार्यरत हैं.
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद झारखण्ड की जनजातियों के मध्य एक नया आर्थिक परिदृश्य उभरा. औद्योगिकीकरण की तीव्रता ने यहाँ की जनजातियों को अपनी भूमि से वंचित किया, उन्हें विस्थापित किया. बदले में स्थापित कारखानों में रोजगार मिला. जनजातीय जनसंख्या की औद्योगीकरण की प्रथम पीढ़ी को विस्थापन एवं बेरोजगार से दोचार होना पड़ा. एक आँकड़े के अनुसार चाय बागानों में कार्यरत् जनसंख्या का 80 प्रतिशत श्रमिक झारखण्ड से थे. ये जनजातीय श्रमिक, गरीबी एवं विस्थापन का शिकार होकर रोजगार की तलाश में इन चाय बागानों में काम करने गये. आज इन चाय बागान के श्रमिकों की संतति बेरोजगारी की मार को झेल रहे हैं.
वर्तमान झारखण्ड में जनजातीय आबादी पंजाब, हरियाणा, मुम्बई, दिल्ली, उत्तर प्रदेश तथा उत्तरी बिहार रोजगार की तलाश में जा रहे हैं. बेरोजगारी ने आदिवासी महिलाओं एवं बच्चों के शोषण का एक मौका दे दिया है. बेरोजगारी के कारण बाल श्रम, जनजातीय महिलाओं में वेश्यावृत्ति की प्रवृत्ति एवं इसके कारण यौन सम्बन्धी रोग में वृद्धि हुई.

(5) गरीबी

जनजातियों में गरीबी सार्वभौमिक है. अतः झारखण्डी जनजातियाँ भी गरीब होती हैं. गरीबी अपने आप में समस्या तो है ही यह अनेक समस्याओं की जननी भी है. जनजातियों की अर्थव्यवस्था सरल थी. जो वन पर आधारित थी. धन संग्रह की प्रवृत्ति नहीं होने के कारण जनजातियों में धनोपार्जन की लालसा कभी नहीं रही. प्रारम्भ में ये खाद्य संग्रहक एवं आखेटक का जीवन बिताते थे. आज भी वीरजिया जैसी जनजाति वनोत्पाद एवं शिकार पर आधारित हैं. झारखण्ड की कुछ जनजातियाँ स्थानान्तरित कृषि करती हैं. इस प्रकार की कृषि में उत्पादकता काफी कम होती है. अतः स्वाभाविक है कि इस कृषि पर आधारित जनजातियों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होगी.
> झारखण्ड की जनजातियों की गरीबी के कारण निम्नलिखित –
1. कमजोर अर्थव्यवस्था
2. पुराने तरीके पर आधारित कृषि व्यवस्था
3. रोजगार का अभाव
4. विस्थापन एवं भूमिहीनता
5. ऋणग्रस्तता के कारण भूमि हस्तांतरण
6. नशाखोरी की प्रवृत्ति
7. सामाजिक अन्धविश्वास पर अतिरेक खर्च
कहते हैं गरीबी सभी समस्याओं की जड़ है. झारखण्ड की जनजातियों में गरीबी के दुष्परिणाम इस प्रकार हैं
1. बाल श्रम को प्रोत्साहन
2. वेश्यावृत्ति का प्रचलन
3. ऋणग्रस्तता एवं बँधुआ मजदूरी
4. जनजातियों में स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्या

(6) बुरा स्वास्थ्य

यहाँ की जनजातियों में स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्या ने घातक रूप ले लिया है. इनके खराब स्वास्थ्य का मुख्य कारण पेयजल की उत्तम व्यवस्था का अभाव, पर्यावरण प्रदूषण, चिकित्सा एवं अस्पतालों की कमी आदि है. विरहोर जनजातियाँ स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं की कमी के कारण विलुप्तता के कगार पर हैं.
जनजातियाँ जब प्रकृति आधारित जीवन जीती थीं तब स्वस्थ थीं, परन्तु लगातार संक्रमण से उनको अकसर बीमारियों का सामना करना पड़ता है. झारखण्ड की जनजातियाँ अनेक बीमारियों से ग्रस्त रहती हैं, परन्तु सबसे अधिक मात्रा में जल संक्रामक रोग पाये जाते हैं. जल संक्रामक रोग का कारण पीने की पानी की उपलब्धता में कमी है. जनजातीय क्षेत्रों में औद्योगीकरण की प्रक्रिया ने जल को और प्रदूषित किया है. दूषित जल के कारण झारखण्ड की जनजातियाँ पेट, आंत तथा चर्म रोगों की शिकार हो जाते हैं.
झारखण्ड की जनजातियों में आवश्यक खनिजों तथा पोषक तत्वों के कमी के कारण भी अनेक रोग होते हैं. यहाँ की जनजातियों में खुजली, चर्म रोग, चेचक तथा रक्ताल्पता (इनेमिया) जैसे रोग काफी पाये जाते हैं.
सरकार इनके बुरे स्वास्थ्य के प्रति चिन्तित है और इस दिशा में प्रयासरत् भी है, किन्तु सरकार को बेहतर परिणाम नहीं मिलने का कारण
– जनजातियों में चिकित्सा सम्बन्धी सही दृष्टिकोण का अभाव है.
– सरकारी योजनाओं को जनजातियों के मध्य समर्पित कार्यकर्ताओं तथा कर्मचारियों की कमी है.
– अपर्याप्त संचार व्यवस्था.
जनजातियाँ अभी भी अपनी चिकित्सा पद्धति पर ज्यादा विश्वास करती हैं, अतः ये सरकारी चिकित्सालयों की ओर कम जाती हैं. सुदूरस्थ क्षेत्रों में रहने वाली जनजातियों में यह मान्यता है कि बीमारियाँ दैवी शक्तियों, भूत प्रेतों के प्रकोप या किसी परम्परा या नियम के उल्लंघन के कारण होती हैं. इस प्रकार के रोगों का निदान भी ओझा या जादूगर के द्वारा ही सम्भव है.
सरकारी चिकित्सालयों एवं चिकित्सकों को जनजातियों के मध्य काम करने के लिए अनुसूचित क्षेत्र एवं अनुसूचित जनजाति आयोग की रिपोर्ट को ध्यान में रखना होगा कि “सफल चिकित्सक वह है जो स्वास्थ्य सम्बन्धी मान्यताओं में रुचि रखता हो तथा जनजातियों के स्वप्नों का स्वास्थ्य पर प्रभाव जैसी मान्यताओं तथा जनजातीय चिकित्सा पद्धति को सम्मान देता हो.” इसके अतिरिक्त जनजातीय क्षेत्रों में काम करने वाले स्वास्थ्य कर्मचारियों एवं नर्सों को इन जनजातीय संस्कृति से अवगत कराना आवश्यक है.
जनजातियों के मध्य स्वास्थ्य उपचार सम्बन्धी अन्य कठिनाई संचार एवं परिवहन सुविधा की कमी है नशापान है.

(7) मदिरापान

जनजातियों में हड़िया, माड़ी जैसे निज घर में बने पेय पदार्थों का आम प्रचलन है. इस प्रकार के पेय पदार्थ का सेवन जनजातीय स्त्री एवं पुरुष दोनों करते हैं. मदिरापान झारखण्ड की जनजातियों की सामाजिक परम्पराओं का एक भाग है ये जनजातियाँ स्वयं मदिरा बनाती हैं जिसका सेवन ये शक्तिवर्द्धक के रूप में करते हैं. ब्रिटिश शासन के दौरान इन जनजातियों के मदिरापान को बढ़ावा मिला जिससे कि सरकार को अधिक राजस्व की प्राप्ति हो. प्रारम्भ में जनजातियों के मध्य मदिरा का निर्माण घरेलू स्तर पर किया जाता था. स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद बाहरी लोगों द्वारा मदिरापान का निर्माण किया जाने लगा है, जो जनजातीय क्षेत्र में शोषक का कारण बना.
लाइसेंस युक्त मदिरा विक्रय की वर्तमान प्रणाली जनजातीय आर्थिक व्यवस्था हेतु अत्यधिक हानिकारक है. मदिरा विक्रेता जनजातीय शोषण का कारक है. मदिरापान की लत ने इन्हें ऋण के जाल में फाँस लिया है. मदिरापान, बुरे स्वास्थ्य, ऋणग्रस्तता एवं भूमि हस्तान्तरण जैसे अनेक समस्याओं का कारण बन गया है.

(8) शिक्षा का अभाव

1991 की जनगणना के अनुसार झारखण्ड की जनजातियों की साक्षरता दर 26-78 प्रतिशत थी, जबकि स्त्री एवं पुरुषों में क्रमशः 14-75 प्रतिशत एवं 38.4 प्रतिशत थी. शिक्षा के अभाव के कारण बुरा स्वास्थ्य, मदिरापान, भूमि हस्तान्तरण,, ऋणग्रस्तता जैसी समस्याएँ पनपती हैं.

(9) विस्थापन

विभिन्न औद्योगिक इकाइयों, नदी घाटी परियोजनाओं का तथा खनन क्रियाओं से जनजातियों की विशाल आबादी अपनी जमीन से विस्थापित हो गये हैं. आज भी यह समस्या बरकरार है. विस्थापितों को आश्वासन ज्यादा लाभ कम मिला है.

(10) निर्जनीकरण

इस समस्या से सबसे ज्यादा बिरहोर प्रभावित हुए हैं. झारखण्ड में 1950 के दशक में जनजातीय आबादी कुल आबादी का लगभग 50 प्रतिशत था जो अब (1991) भाग 34-03 प्रतिशत रह गया है.

(11) प्रवसन

गरीबी एवं शोषण ने यहाँ की जनजातियों को असम, बंगाल, उत्तरी बिहार एवं पूर्वी यू. पी. में प्रवर्जित होने के लिए विवश किया है जहाँ उनका शोषण, महिलाओं के साथ यौनाचार होता है. यौनाचार के कारण इनकी गम्भीर यौन रोग से ग्रस्त हो जाते हैं. हरित क्रान्ति के बाद यहाँ की जनजातियों का पंजाब एवं हरियाणा की ओर प्रवहन होने लगा है.
जनजातियों की समस्याओं ने निन्दानार्थ केन्द्र एवं राज्य सरकार (बिहार) ने कुछेक प्रयास भी किये हैं, जो इस प्रकार हैं –
1. बिहार महाजन (लेन-देन का नियमन) एक्ट, 1939.
2. बन्धुआ मजदूरी से संविधान के अनुच्छेद 23 एवं अनुसूची द्वारा रोकने का प्रयास.
3. मध्य भारत अनुसूचित जनजाति (भूमि आवंटन एवं हस्तांतरण (विनियम-क 1954).
4. भारत सरकार द्वारा घोषित विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं द्वारा घोषित गरीबी-निवारण कार्यक्रम; जैसे- डी. आर. वाई, ट्राइसेम आदि.
5. बेरोजगारी निवारण कार्यक्रम.
6. बिहार अनुसूचित क्षेत्र विनिमय, 1969.
7. संविधान के अनुच्छेद पत्र द्वारा मद्यपान पर निषेध, राज्य सरकार द्वारा करने का निर्देश.
8. विस्थापितों हेतु समय-समय पर प्रयास किये गये.
9. छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम, 1908.
10. संथाल परगना काश्तकारों का ( सम्पूरक प्रावधान) एक्ट, 1949.
11. सिविल अधिकार संरक्षण एक्ट-1955.
12. अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (क्रूरता निवारक) एक्ट, 1989.

मुख्य बातें

> समस्या मुक्त जनजातीय समाज आज अनेक समस्याओं से ग्रसित है.
> समस्या से ग्रसित जनजातीय समाज कुंठाग्रस्त है.
> झारखण्ड की जनजातियों की समस्याएँ तथाकथित दिकुओं एवं ॐ आधुनिक समाज की देन है.
> यहाँ की जनजातियाँ ऋणग्रस्तता का शिकार इसलिए नहीं हैं क्योंकि ये गरीब हैं. इनकी ऋणग्रस्तता का मुख्य कारण इनका अशिक्षित होना, कुछ सामाजिक एवं धार्मिक मान्यताएँ तथा सरकारी ऋण सुविधा का अभाव है.
> महाजनों एवं साहूकारों द्वारा ऋण के बहाने जनजातीय जीवनचर्या में काफी हस्तक्षेप किया है.
> ऋणग्रस्तता का ही दुष्परिणाम है कि यहाँ की जनजातियों को इन साहूकारों के नाम भूमि का हस्तान्तरण करना पड़ा.
> भूमि हस्तान्तरण हेतु इन महाजनों एवं साहूकारों ने कागज-पत्र में काफी हेर-फेर किया है.
> झारखण्ड की जनजातियों की गरीबी का एक कारण इनकी अस्थायी खेती पद्धति भी है.
> अस्थायी खेती के अन्तर्गत कृषक एक जगह स्थिर रहकर खेती नहीं करते हैं और ऐसी खेती पद्धति (झूम कृषि) में वनों का विनाश, मृदा क्षरण, पर्यावरण प्रदूषण तथा उत्पादकता कम होती है.
> झारखण्ड की जनजातियों की अर्थव्यवस्था के मूलरूप में दैनिकोपार्जन की परम्परा भी संग्रह करने पर ध्यान नहीं दिया जाता था, आधुनिक अर्थव्यवस्था ने इनके रहन-सहन एवं मानसिकता में परिवर्तन किया तथा बेरोजगारी जैसी समस्या से जनजातीय समाज अवगत हुआ.
> जनजातीय समाज में गरीबी एक सार्वभौमिक समस्या है. झारखण्ड की जनजातियों की गरीबी का कारण ऋणग्रस्तता, बेरोजगारी, निम्न उत्पादकता वाली कृषि पद्धति आदि है.
> झारखण्ड की जनजातियों के बुरे स्वास्थ्य का कारण पर्यावरण प्रदूषण, स्वच्छ पेयजल का अभाव, आधुनिक चिकित्सा पद्धति का अभाव एवं कम विश्वास, सरकारी शिथिलता एवं मदिरापान है.
> झारखण्ड की जनजातियों द्वारा सदैव से अपने घर में बनाए पेय पदार्थ का सेवन किया जाता है, किन्तु अब देशी शराब की प्रचलन की तीव्रता ने इन जनजातियों को अनेक समस्याओं का शिकार बना दिया
> मदिरापान, ऋणग्रस्तता, बुरा स्वास्थ्य, भूमि हस्तांतरण एवं महिलाओं में वेश्यावृत्ति की प्रवृत्ति बढ़ी है.
> झारखण्ड की जनजातियों में साक्षरता दर काफी कम होने के कारणविशेषकर महिलाओं में – जनजातीय समस्या अनेक प्रकार के सरकारी प्रयास से अछूता है एवं अनेक समस्याओं से ग्रसित है.
> उपर्युक्त समस्याओं का दुष्परिणाम जनजातीय आबादी की घटना है. इस जनजातीय बहुल राज्य की मात्र एक-तिहाई आबादी ही आदिवासी है.
>  गरीबी एवं बेरोजगारी के कारण यहाँ की जनजातियों ने राज्य से बाहर काम करने हेतु प्रवजन किये हैं और मदिरापान, शोषण तथा वेश्यावृत्ति का शिकार बने हैं.
> जनजातियों की समस्याओं के निदान हेतु राज्य एवं केन्द्र सरकार ने अनेक अधिनियम विधेयक एवं कार्यक्रम बनाए हैं, किन्तु इन सभी की वांछनीयता तभी है जब इसका लाभ सही लोगों को मिले.
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