जेरेमी बेंथम | Jeremy Bentham
जेरेमी बेंथम | Jeremy Bentham
जेरेमी बेंथम को उपयोगितावाद का प्रवर्तक माना जाता है। वह व्यक्तिवाद का समर्थक, उच्च कोटि का सुधारवादी विधिवेत्ता के रूप में भी प्रसिद्ध है। बेंथम एक यथार्थवादी विचारक था। उसने सुखवाद का मनोवैज्ञानिक विवेचन करके इसे राज्य के कार्यों में लागू कराने का प्रयास किया। उपयोगितावाद को बेंथम ने एक क्रमबद्ध दर्शन के रूप में प्रस्तुत किया । आधुनिक काल की लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के अंतर्गत सामाजिक सुधार, न्याय व्यवस्था में सुधार, जनसाध रण तथा पिछड़े वर्गों के उत्थान के लिए राजनीतिक, प्रशासनिक, आर्थिक एवं जीवन के अन्य क्षेत्रों में सुधार के लिए बेंथम ने विचार प्रस्तुत किए। उसके बारे में प्रो. डायसी ने कहा है कि वह विधि का प्रथम और महानतम दार्शनिक था। उसके देहान्त के बाद लंदन टाइम्स में प्रकाशित यह तथ्य समीचीन है – “मरणोपरान्त भी उदार निरंकुश की तरह ब्रिटेन की राजनीतिक गतिविधियों को वह प्रभावित करता रहा है। “
जेरेसी बेंथम का जन्म 1748 में लंदन के एक समृद्ध परिवार में हुआ था। उसके पिता जर्मियाह बेंथम एक वकील थे। बेंथम बचपन से ही विचारशील था। छोटी उम्र में ही उसने लैटिन भाषा का ज्ञान प्राप्त किया और धीरे-धीरे ग्रीक तथा फ्रेंच भाषाएं भी सीख लीं। उसके पिता उसे वकील बनाना चाहते थे। प्रारम्भ में बेंथम की शिक्षा वेस्ट मिनिस्टर स्कूल में हुई और फिर क्वीन्स कॉलेज ऑक्सफोर्ड में भेजा गया। वहीं से उसने 15 वर्ष की आयु में बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की।
बेंथम ने 1763 में लिंकन्स इन में कानून का अध्ययन प्रारम्भ किया और 1772 में वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात वकालत करना आरम्भ कर दिया, किन्तु वकालत में उसकी रुचि नहीं थी। अतः बेंथम ने वकालत छोड़कर कानून शास्त्र तथा कानूनी दर्शन की ओर अपना ध्यान लगाया जिससे वह कानूनी पद्धति की त्रुटियों का पता लगाकर उन्हें दूर करने के लिए सुझाव दे सके। 23 वर्ष की अवस्था में बेंथम ने प्रीस्टले के एक ग्रंथ Essay on the Fast Principles of Government को पढ़ा, “किसी सरकार का मूल्यांकन उसके नागरिकों के बहुमत की प्रसन्नता पर ही किया जा सकता है” (The happiness of the majority of its members is the Standard by Which a State Should be Judged) । इस लेख को पढ़कर बेंथम बहुत प्रभावित हुआ । इसी पुस्तक के एक पृष्ठ पर योसन की पुस्तिका System of Moral and Philosophy से लिया गया ‘अधिकतम संख्या का अधिकतम सुख’ (The greatest happiness of the greatest number) का वाक्यांश मिला। बेंथम ने लिखा है कि, “इस पुस्तिका से तथा इस पृष्ठ से मैंने इस वाक्यांश को ग्रहण किया …..इसे देखते ही आंतरिक आनंद से वैसे ही चिल्ला पड़ा, जैसे द्रवस्थिति विज्ञान के मौलिक सिद्धांत का पता लगने पर आर्कीमिडीज ‘योरेका’ (मैंने पा लिया ) कहते हुए चिल्लाया। तभी से उसका विश्वास हो गया कि राज्य का प्रमुख कार्य अधिकतम व्यक्तियों के लिए अधिकतम सुख की व्यवस्था करना है। बेंथम दो सालों तक भारत, मैक्सिको, चिली, अमेरिका, यूरोपीय महाद्वीप देशों का परिभ्रमण करता रहा। इसका उद्देश्य विधि संहिता को बनाना तथा उसका संकलन करना था।
बेंथम की चर्चित किताब Principles a Moral and Legislation का प्रकाशन सन् 1789 में हुआ । इससे वह अलौकिक बुद्धि सम्पन्न विधान निर्माता समझा जाने लगा जिससे देशों में विधान निर्माण और कानून सुधार के लिए उसके विचारों को आमंत्रित किया जाने लगा। विदेशों में फैले उसके प्रभाव का वर्णन करते हुए हैजलिट ने कहा है कि, “उसका नाम इंग्लैंड में बहुत कम व्यक्ति जानते हैं, यूरोप में इसे अधिक व्यक्ति जानते हैं, किन्तु चिली के मैदानों और मैक्सिको की खानों में उसका नाम सबसे अधिक व्यक्ति जानते हैं। ” उसकी कृतियों और सेवाओं से प्रभावित होकर 1792 में फ्रांस की राष्ट्रीय सभा द्वारा उसे ‘फ्रांसीसी नागरिक’ की उपाधि से सम्मानित किया गया। महान अर्थशास्त्री रिकार्डों उसका अनुयायी था और मिल रिकार्डों का आध्यात्मिक पिता था, इस प्रकार रिकार्डों मेरा आध्यात्मिक पौत्र था।
बेंथम का लेखन कार्य से नियमित जुड़ाव रहा। 1788 में उसकी भेंट जेनेवा वासी Miss Dumont से हुई जिसने उसकी रचनाओं का फ्रेंच भाषा में अनुवाद किया। उसे 1821 में बोरिंग नामक युवक का सहयोग मिला, जिसने बेंथम के कुछ ग्रंथों को 11 खण्डों में प्रकाशित किया। फिर भी बेंथम के बहुत से लेखों का संग्रह अभी भी अप्रकाशित ही है। 1827 में उसने लंदन विश्वविद्यालय के मूल में यूनिवर्सिटी कॉलेज की स्थापना इस उद्देश्य से की थी कि वह ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज के दूषित वातावरण से मुक्त रहे। चर्च के प्रभाव को दूर करते हुए ग्रेट ब्रिटेन के अन्य नगरों मानचेस्टर, लीड्स, बरकिंघम, लिवरपूल, रीडिंग, शेफील्ड, ब्रीस्टल तथा स्वानासी में कालेज स्थापित किये, जहां विज्ञान तथा तकनीकी ज्ञान की ओर विशेष ध्यान दिया गया।
जेरेमी बेंथम उपयोगितावाद के अलावा सुधारवाद का भी समर्थक था। उसके विचारों को यूरोप और अन्य देशों में सम्मान मिला। बेंथम सारी जिंदगी अविवाहित रहा। उसका देहान्त 84 साल की उम्र में 6 जून 1832 को हुआ।
बेंथम के राजनीतिक विचार
राज्य तथा उसकी प्रकृति— बेंथम के उपयोगितावाद संबंधी विचारों से राज्य के बारे में उसकी धारणा की जानकारी मिली है। इस आधार पर वह राज्य का लक्ष्य ‘अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम हित’ घोषित करता है। इसका अर्थ है कि राज्य व्यक्ति के सुख का साधन है, स्वयं वह साध्य नहीं है। बेंथम प्लेटो और अरस्तु की तरह इस बात से सहमत नहीं था कि राज्य का उद्देश्य श्रेष्ठ जीवन की स्थापना करना है।
इस बारे में बेंथम ने लिखा है कि, “अधिकतम सुख राज्य के सदस्यों के व्यक्तिगत सुखों का योग मात्र है। इसमें समस्त समाज का सामूहिक हित सम्मिलित नहीं है।” अर्थात बेंथम के लिए व्यक्ति के व्यक्तित्व के अतिरिक्त आदर्शवादियों की तरह राज्य का न तो अपना कोई निजी अस्तित्व है और न व्यक्तित्व । वह व्यक्तिवादी धारणा का प्रतिपादन करते हुए कहता है कि ‘राज्य व्यक्ति के लिए है, व्यक्ति राज्य के लिए नहीं।’
बेंथम ने राजनीतिक समाज को इस प्रकार परिभाषित किया है – “जब कुछ संख्या में व्यक्ति (जिन्हें हम प्रजाजन कह सकते हैं) स्वभावतः किसी जाने हुए तथा निश्चित प्रकार के व्यक्ति अथवा व्यक्ति समूह (जिन्हें हम शासक अथवा शासक वर्ग कह सकते हैं) के आदेशों का पालन करते हैं, तो हम उन सबको (प्रजा या शासक) सामूहिक रूप से राजनीतिक समाज की संज्ञा दे सकते हैं।”
इस प्रकार बेंथम की इस परिभाषा से यह पता चलता है कि मनुष्यों को राजनीतिक समाज के अंतर्गत बांधकर रखने वाला एक मात्र सूत्र शासकों का आदेश है और लोग सामूहिक कल्याण नाम की कोई वस्तु नहीं है, विभिन्न व्यक्तियों के पृथक-पृथक हित के योग का नाम ही सामाजिक हित है। उसने राज्य मे कोई आध्यात्मिक गुण अथवा इसे दैवी संस्था या सामाजिक अवयव मानने से मना कर दिया। इसका विचार था कि विभिन्न लोग अपने आनंदों की प्राप्ति के लिए राज्य के आदेश से इकट्ठे बंध जाते हैं।
राज्य की उत्पत्ति के सामाजिक-समझौता सिद्धांत का खंडन— बेंथम से पूर्व राज्य की उत्पत्ति का सामाजिक समझौता सिद्धांत प्रचलित था। हॉब्स, लॉक और रूसो इसके संस्थापक और प्रबल समर्थक थे। सामाजिक समझौते के अनुसार तत्कालीन लोगों ने अपने बहुत से अधिकार राज्य को प्रदान कर दिये। उस समझौते की शर्तों के अनुसार ही हम राज्य के आदेशों का पालन करते हैं। बेंथम का राज्य के सामाजिक समझौता सिद्धांत में कोई विश्वास नहीं था। उसका मत था कि, “मेरे लिए आज्ञा पालन जरूरी है, इसलिए नहीं कि मेरे प्रपितामह ने जॉर्ज तृतीय के प्रपितामह से कोई समझौता किया था, वरन् इसलिए कि विद्रोह से लाभ की अपेक्षा हानि अधिक है।” इसलिए बेंथम ने कहा कि राज्य की आज्ञा का पालन मनुष्य इसलिए करते हैं कि ऐसा करना उसके लिए लाभदायक और उपयोगी है।
राज्य के उद्देश्य तथा कार्य— बेंथम के समकालीन राजनीतिक दार्शनिकों का यह विचार था कि राज्य का उद्देश्य मनुष्य के प्राकृतिक अधिकारों की रक्षा करना है। फ्रांस की क्रांति के समय मानव अधिकारों की घोषणा में कहा गया था कि, “प्रत्येक राजनीतिक समुदाय का उद्देश्य मनुष्य के प्राकृतिक तथा अलंघनीय अधिकारों का संरक्षण करना है। ये अधिकार हैं- स्वतंत्रता, सम्पत्ति तथा अत्याचार का विरोध करना। ये अधिकार मनुष्य को प्रकृति द्वारा मिले हुए हैं। ” किसी भी सरकार के लिए इस बात पर काफी बल दिया गया कि राज्य का वही उद्देश्य है जो कि मनुष्य के जीवन में सुख अर्थात उपयोगिता को अधिक से अधिक बढ़ाये | बेंथम ने एक स्थान पर लिखा है कि, “दण्ड तथा पुरस्कार के द्वारा समाज के सुख की वृद्धि करना ही सरकार का मुख्य उद्देश्य है । ” बेंथम ने इस बात पर बहुत बल दिया कि जो सरकार लोगों के अधिक से अधिक सुख की वृद्धि नहीं करती, उसे सत्तारूढ़ रहने का कोई अधिकार नहीं है ।
जेरेमी बेंथम ने जनता के जीवन के लिए चार चीजों का अनिवार्य समावेश किया है-आजीविका, प्रचुरता, समानता और सुरक्षा | राज्य को इन्हीं की वृद्धि करनी चाहिए। बेंथम स्वतंत्रता को इनमें सम्मिलित नहीं करता, क्योंकि वह स्वतंत्रता को सुरक्षा की एक शाखां मानता है। उसका मत है कि लोगों को वहीं तक स्वतंत्रता मिलनी चाहिए, जहां तक इससे सुख में वृद्धि हो । लोगों की सुरक्षा खतरे में डालकर उनको स्वतंत्रता प्रदान नहीं की जा सकती है। राज्य का उद्देश्य अधिकतम सुख है न कि अधिकतम स्वतंत्रता ।
राज्य के कार्य के बारे में बेंथम का दृष्टिकोण निषेधात्मक है। इस बारे में उसने कहा है कि राज्य को व्यक्ति के कार्यों में जहां तक भी संभव हो सके, हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। उसके शब्दों में, “हर कानून बुराई है, क्योंकि हर कानून से स्वतंत्रता का अतिक्रमण होता है, इसलिए सरकार को दो बुराइयों में से किसी एक को चुनना होगा। इस प्रकार का चुनाव करते समय कानून बनाने वाले का क्या उद्देश्य होना चाहिए? उसे अपने को दो चीजों के संबंध में संतुष्ट कर लेना चाहिए, प्रथम, वे चीजें जिन्हें वह रोकना चाहता है, हर हालत में बुरी है। दूसरे, ये बुराइयां उन बुराइयों से बड़ी है जिन्हें वह इनके दूर करने के प्रयोग में लाना चाहता है।” बेंथम के अनुसार राज्य को व्यक्ति के आर्थिक क्षेत्र में बिल्कुल हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति अपने हितों को भली-भांति जानता है। इसलिए सभी व्यक्ति अपने साधनों के अनुरूप सुख प्राप्त कर सकते हैं।
कानून- बेंथम के काल में कई दार्शनिक प्राकृतिक कानून की धारणा में भी विश्वास रखते हैं। बेंथम ने इस धारणा का खंडन करते हुए कहा कि प्राकृतिक कानून नाम की कोई वस्तु नहीं है। प्रकृति किसी कानून को नहीं बनाती है। उस समय ईश्वरीय इच्छा प्रत्यक्ष रूप से अपनी इच्छा को प्रकट नहीं करता है इसलिए ईश्वरीय इच्छा का भी हमें ज्ञान नहीं हो सकता। इसलिए कानून साधारण व्यक्ति की इच्छा न होकर विशिष्ट व्यक्ति अथवा व्यक्तियों की इच्छा ही है।
कानून के क्षेत्र में इसे लागू करने की वकालत करते हुए बेंथम ने कहा है कि अधिकतम लोगों का हित ही एक ऐसा सिद्धांत, जिसके अनुसार सही कानूनों का निर्माण किया जा सकता है, क्योंकि मानव प्रकृति के अनुकूल होने के कारण ऐसे कानून ही सार्वभौम और कालातीत हो सकते हैं और किसी भी समय किसी भी देश में उनको उपयोगी ढंग से लागू किया जा सकता है। बेंथम कानून के संदर्भ में परम्पराओं और रीति-रिवाजों को कोई विशेष महत्व नहीं देता। उसका मत था कि कोई वस्तु या कानून इसलिए उपयोगी और अच्छा नहीं माना जा सकता कि वह परम्पराओं पर आधारित है या प्राचीन समय से समाज में मान्य है। कानून के संबंध में अपने इन विचारों के कारण ही उसने इंग्लैंड में कानून सुधार के लिए बहुत बड़े आंदोलन को जन्म दिया, क्योंकि इंग्लैंड में अधिकांश कानून ‘कॉमन लॉ’ पर आध पारित थे, जो कि पूर्णतः परम्पराओं पर आधारित था। बेंथम की उपयोगितावादी मान्यता के अनुसार उसे उचित नहीं समझा जा सकता था।
कानून सुधार – बेंथम के काल में जो कानून प्रचलित थे, उनकी भाषा काफी कठिन थी। सामान्य पढ़े-लिखे व्यक्ति उन कानूनों को नहीं समझा पाते थे। उसके समय में कानून अव्यवस्थित थे। उसका सुझाव था कि पुराने तथा अनावश्यक कानूनों को रद्द कर दिया जाये तथा समस्त कानूनों को संग्रहीत कर उनकी संहिता बना दी जाये। कानून की भाषा सरल हो जिससे साधारण व्यक्ति उसे समझ सके। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उसने स्वयं ही कानूनों की अंतर्राष्ट्रीय, दीवानी फौजदारी और संवैधानिक संहिताएं तैयार कीं और विधि शास्त्र को राजनीति से पृथक करने का कार्य प्रारम्भ किया। कानून सुधार के क्षेत्र में बेंथम द्वारा किये गये सुधारों की ओर संकेत करते हुए हेनरी मेन ने कहा कि, “हम बेंथम से लेकर आज तक होने वाले ऐसे किसी वैज्ञानिक सुधार को नहीं जानते जिस पर प्रभाव न पड़ा हो । “
बेंथम ने कानून के पारंपरिक दृष्टिकोण का उग्र विरोध किया। वह चाहता था कि उनका निर्माण अधिकतम व्यक्तियों के अधिकतम सुख के सिद्धांत के अनुसार किया जाए, क्योंकि उसकी मान्यता थी कि, ‘अधिकतम सुख का सिद्धांत एक कुशल विधायक के हाथों में एक प्रकार का सार्वभौम साधन देता है, जिसके द्वारा वह विवेक तथा विधि के हाथों सुख का वस्त्र’ बना सकता है।
बेधम के अनुसार अच्छे कानून की कसौटी उपयोगिता है, क्योंकि उसके अनुसार कानून का सर्वप्रमुख कार्य, सर्वहित की भावना को इस प्रकार अनुशासित करना है, जिससे वह अपनी इच्छा के विरुद्ध भी अधिकतम सुख प्राप्ति में योग दे सके।’ बेंधम ने कानून की उपयोगिता का मूल्यांकन करते हुए इस प्रकार के मापदंड को प्रस्तुत किया है।
(1) सुरक्षा— पहला मापदंड यह है कि कानून राज्य के प्रत्येक नागरिक सुरक्षा प्रदान करता है या नहीं।
(2) पर्याप्तता— कानून से नागरिक को अपनी आवश्यकताओं की वस्तुएं पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होती हैं या नहीं।
(3) समानता— कानून से प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे के साथ समानता का अनुभव करता है या नहीं।
(4) आजीविका— राज्य के द्वारा आजीविका के लिए परिस्थितियाँ कायम की जा सकती हैं। इसमें जो जिसके पास है उसी के पास रहे, यह अवधारणा शामिल है। अतः आजीविका के संदर्भ में कानून लोगों को श्रम के फलस्वरूप सुरक्षा प्रदान कर सकता है।
बेंथम ने कानून के चार प्रकारों का वर्णन किया है—
1. अंतर्राष्ट्रीय कानून
2. संवैधानिक कानून
3. नागरिक कानून
4. फौजदारी कानून
सम्प्रभुता— बेंथम ने उस व्यक्ति अथवा समूह को संप्रभु के रूप में देखा जिसकी इच्छा का पालन जनता स्वभाव से करती है। इस दृष्टि से बेंथम राज्य को सम्प्रभु मानता है, क्योंकि उसकी इच्छा का सभी व्यक्ति पालन करते हैं, राज्य की सम्प्रभुता को बेंथम असीमित मानता है। लेकिन वह उपयोगिता के आधार पर उस पर प्रतिबंध लगाता है। उसके अनुसार, “विशाल जनमत किसी विधि का विरोध करता है तो सम्प्रभु का कर्तव्य है कि वह उसे कानून का रूप कदापि प्रदान न करे।”
बेंथम ने व्यक्ति को सम्प्रभु की आज्ञा का पालन और कानूनों का अनुसरण उसी सीमा तक करने को कहा है, जहाँ तक उससे उसकी उपयोगिता लक्ष्य सिद्ध
को अर्थात यथेष्ट लाभ प्राप्त हो। इसलिए साधारणतः बेंथम जनता को सम्प्रभु के आदेशों का पालन कर्तव्य के रूप में करने के लिए कहता है परन्तु वह यह भी मानता है कि यदि सम्प्रभु के आदेश की अवज्ञा करना उसके आदेश पालन करने की तुलना में अधिक उपयोगी और आनंददायक हो तो जनता का यह नैतिक कर्तव्य है कि वह सम्प्रभु का विरोध करे। बेंथम के शब्दों, “अवज्ञा की उपयोगिता आज्ञा पालन से अधिक हो तो ऐसे सम्प्रभु की अवज्ञा प्रत्येक नागरिक का नैतिक अधि कार और कर्तव्य है। “
इस प्रकार बेंथम ने उपयोगिता के आधार पर जनता को सम्प्रभु के विरोध का अधिकार दिया है। बेंथम की यह मान्यता है कि राज्य से बड़ी कोई शक्ति नहीं, जो उसे किसी अधिकार को मानने के लिए विवश करे। बेंथम के शब्दों में, “सर्वोच्च प्रशासक की सत्ता, जिसे तब तक अनंत नहीं कहा जा सकता जब तक कि परम्पराओं द्वारा स्पष्ट रूप से सीमित न कर दी गयी हो, मेरे विचार में अवश्य ही अनिश्चित मान ली जानी चाहिए। “
बेंथम ने सम्प्रभु को असीमित तथा अनिश्चित अधिकार देते भी उस पर प्रतियोगिता का प्रतिबंध लगाकर उसे सीमित करने का प्रयत्न किया है।
अधिकार— प्राकृतिक अधिकार के सिद्धांत में बेंथम का विश्वास नहीं था। इसका कारण उसका उपयोगितावादी दृष्टिकोण था । वह उन्हें पूर्णतः मूर्खतापूर्ण तथा अप्राकृतिक उच्चता के आसान पर बैठी अलंकारिक मूर्खता का द्योतक मानता है। बेंथम प्राकृतिक शब्द को एक भ्रामक और उलझन में डालने वाला समझता है। इसलिए वह प्राकृतिक कानून और प्राकृतिक अधिकारों का खण्डन करते हुए कहता है कि इनका समाज और व्यक्तियों के लिए कोई महत्व नहीं है । बेंथम यह मानता है कि अधिकारों का अस्तित्व और उनकी सार्थकता समाज में ही संभव है, क्योंकि समाज ही उनका निर्माता है और उनके निर्माण का उद्देश्य सुखमय जीवन की प्राप्ति है। बेंथम अधिकारों की परिभाषा करते हुए कहता है कि “अधिकार मानव के सुखमय जीवन के नियम हैं, जिन्हें राज्य के कानूनों द्वारा मान्यता प्रदान की जाती है।” उसने सभी अधिकारों को सामाजिक उपयोगिता पर आधारित माना है।
समानता और स्वतंत्रता के प्राकृतिक अधिकारों से बेंथम ने असहमति प्रकट की है। इसका विचार है कि, “पूर्ण स्वतंत्रता पूर्ण रूप से असंभव है। पूर्ण स्वतंत्रता प्रत्येक सरकार की सत्ता की प्रत्यक्ष विरोधी है। क्या सब मनुष्य स्वतंत्र रूप से उत्पन्न होते हैं? क्या वे स्वतंत्र रहते हैं? एक भी आदमी ऐसा नहीं है। इसके विपरीत सब मनुष्य पराधीन पैदा होते हैं। ‘
बेंथम के द्वारा दो प्रकार के अधिकारों का वर्णन किया गया है—
(1) कानूनी अधिकार— कानूनी अधिकारों का सम्बन्ध मनुष्य के वाह्य आचरण से होता है।
(2) नैतिक अधिकार— नैतिक अधिकारों का सम्बन्ध मनुष्य के आंतरिक आचरण से होता है।
बेंथम ने निम्नलिखित अधिकारों का उल्लेख किया है–
(1) सम्पत्ति का अधिकार— सम्पत्ति के अधिकार को बेंथम सुरक्षा के आदर्श से जोड़ता है जिसे बनाये रखना कानून का दायित्व है। उसके अनुसार व्यक्ति का सम्पत्ति का अधिकार एक पवित्र अधिकार है जिसे बिना क्षतिपूर्ति के नहीं छीना जा सकता है।
(2) समानता का अधिकार— बेंथम यह मानता है कि प्रत्येक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के समान इस दृष्टि से है कि प्रत्येक व्यक्ति का महत्व दूसरे व्यक्ति के बराबर होता है।
(3) अवज्ञा का अधिकार— बेंथम प्रत्येक व्यक्ति को राज्य के कानूनों की अवज्ञा का अधिकार उस स्थिति में देता है जबकि वह अवज्ञा को आज्ञापालन से अधिक हितकारी समझे।
इस तरह प्राकृतिक अधिकारों का विरोध करते हुए बेंधम ने अधिकारों के आधार के रूप में उपयोगिता को देखा है। वह अधिकार के मूल में कानून को देखता है न कि प्रकृति को।
शासन प्रणाली— शुरू में बेंथम ने किसी विशिष्ट अधिकार की शासन प्रणाली में किसी प्रकार की रुचि का प्रदर्शन नहीं किया। इस बारे में उसका मानना था कि शासन प्रणाली कैसी भी हो, राज्य का वास्तविक उद्देश्य (अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम हित ) पूरा होना चाहिए, परन्तु बाद में उसने अपना विचार बदल दिया उसने अनुभव किया कि मनुष्य में स्वार्थ की प्रधानता होती है। इस आधार पर उसने निष्कर्ष निकाला कि कभी किसी शासक वर्ग के सदस्य, कोई राजा कोई वंशानुगत अभिजात वर्ग, कोई पादरी वर्ग अथवा न्यायाधीश ऐसा नहीं हुआ जिसके मन में अपनी शक्ति को अधिक से अधिक बढ़ाने के अतिरिक्त और कोई इच्छा रही हो। प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वार्थों को पूरा करने के लिए अधिक से अधि क सार्वजनिक अहित करने से नहीं चूकता, जब तक कि उसे ऐसा करने से रोका न जाये।
बेंथम ने राजतंत्र को अच्छी प्रणाली की शासन व्यवस्था के रूप में नहीं देखा, क्योंकि इसमें शक्ति राजा के हाथ में होती है और वह अपनी शक्ति को किसी अनुचित उद्देश्य के लिए प्रयोग कर सकता है, साथ ही उससे अधिक व्यक्तियों का कल्याण संभव नहीं है। यद्यपि कुलीनतंत्र में सत्ता थोड़े से व्यक्तियों के हाथों में पायी जाती है, परन्तु इसमें गणतंत्र की अपेक्षा ईमानदारी कम पायी जाती है और राजतंत्र की तुलना में शक्ति कम पायी जाती है। बेंथम गणतंत्र के पक्ष में था, क्योंकि इस प्रकार की सरकार कार्य कुशलता बचत और जनता की सम्प्रभुता में सहायक होती है। बेंथम के शब्दों में, “यह दुर्गुणी दुनिया गणतंत्रों में ढाल दिये जाने पर ठीक हो सकती है।” लोकतंत्र को अच्छी सरकार मानने का उसका कारण यह था कि कानून बनाने की शक्ति बहुत अधिक लोगों के हाथों में होती है, इसलिए इसमें अधिकतम व्यक्तियों का हित संभव है। लोकतंत्र के सम्बन्ध में उसके सुझाव थे कि संसद के चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर प्रतिवर्ष कराये जायें, मतदान गुप्त हो और जनता का सरकार पर अधिक नियंत्रण हो । राज्य कर्मचारियों की भर्ती प्रतियोगी परीक्षा के आधार पर हो और उनकी शक्तियों का दुरुपयोग करने से रोका जाये।
न्याय प्रणाली में सुधार— बेंथम अपने काल की न्याय प्रणाली का आलोचक था। उसने उसमें सुधार के कई सुझाव प्रस्तुत किये। उसका विचार था कि न्याय प्रणाली में सुधार हो जिससे न्याय साधारण व्यक्ति तक पहुंच सके। उस समय इंग्लैंड की न्याय व्यवस्था बहुत कठोर थी। 1801 में 12 वर्ष की आयु में एक बच्चे को चम्मच चुराने के अपराध में फांसी पर लटका दिया गया था। उस समय इंग्लैंड में 200 से अधिक अपराधों के लिए प्राणदण्ड की व्यवस्था थी । न्यायालय में लम्बी-लम्बी बहसें होती थीं। कानूनी दांव-पेंच चलते थे। वकील बहुत फीस लेते थे। इसलिए बेंथम ने वकीलों की बहुत आलोचना की।
लेकिन न्याय को व्यावसायिक रूप ग्रहण करते देखकर बेंथम न्यायाध शों और वकीलों का मजाक उड़ाया करता और उन्हें ‘जज एण्ड को.’ (न्यायाध शों और वकीलों की व्यावसायिक कम्पनी) कहा करता था। उसका मत था कि जज उन व्यक्तियों से भी अधिक दुष्ट होते थे, जिन्हें भयंकर अपराधी कहकर मृत्युदंड दे दिया जाता था। बेंथम का मत था कि इंग्लैंड में कानून जजों के लाभ के लिए ही बनाये जाते हैं। जजों के सम्बन्ध में उनका कहना था कि, “ये लोग क्रियाहीन और शक्तिहीन जाति के हैं। जो सब अन्याय के भेद को सह लेते हैं तथा किसी भी बात पर झुक जाते हैं। इनकी बुद्धि न्याय और अन्याय के भेद को समझने में असमर्थ और दोनों के प्रति उदासीन है। ये लोग बुद्धि शून्य, अल्पदृष्टि, दुराग्रही और आलसी हैं। ये झूठे, भय से कांप जाने वाले, विवेक एवं सार्वजनिक उपयोगिता की आवाज के प्रति बहरे, शक्ति के आगे नतमस्तक और साधारण से स्वार्थ के पीछे नैतिकता का परित्याग करने वाले हैं।” वकीलों के संबंध में उनकी धारणा थी कि, “ये आलसी, काम न करने वाले, स्वार्थी तथा अधिकारियों के इशारे पर नाचने वाले होते हैं।”
बेंथम ने न्यायिक क्षेत्र में सुधार के कई सुझाव प्रस्तुत किए। इनमें से कुछ का उल्लेख इस प्रकार किया जा सकता है—
1. कानूनों को सरल, सुबोध तथा स्पष्ट बनाया जाना चाहिए।
2. वकीलों को अपने व्यवसाय तथा व्यवहार में सदाचार का प्रदर्शन करना चाहिए।
3. जूरी प्रथा समाप्त की जानी चाहिए जिससे जज में उत्तरदायित्व की भावना पैदा हो। डेविडसन के शब्दों में, “बेंथम न्यायालयों के सारे पदों पर नया उत्तरदायित्व रखने का समर्थक था और इस विषय में वह ‘ट्रिब्यूनल’ की अपेक्षा एक ही न्यायाधीश रखने के पक्ष में था। उसकी मान्यता थी कि किसी मामले पर तीन न्यायाधीशों का निर्णय करना तीनों के ही उत्तरदायित्व में कमी करना है।”
4. विवाचक द्वारा न्याय प्राप्ति के कार्य को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
5. न्यायालयों में अपनाई जाने वाली प्राविधिक पद्धति का अंत किया जाना चाहिए। प्रो. सेबाइन के शब्दों में, “प्राविधिक पद्धति का अभिप्राय यह है कि विधि के परम्परागत वर्गीकरण और प्राविधिक प्रक्रियाओं, प्रथागत शब्दावली, आदेशों और उपक्रमों को शिरोधार्य किया जाए। “
6. उसने दंड विधान को भेदभाव से परे रखने का परामर्श दिया।
7. दण्ड का लक्ष्य बदले की भावना न होकर अपराध में सुधार लाना होना चाहिए।
8. बेंथम जेल की काल कोठरियों को सुधारगृह में बदलने का सुझाव दिया। वह गोलाकार कारावास जैसी जेलों का समर्थन करता है, जिसके अंतर्गत जेलर अपनी केबिन में बैठकर अपने चारों ओर से बंदियों की कोठरियों में बंदियों की गतिविधियों को देख सकता है तथा उन्हें सुधारने का प्रयास कर सकता है।
सेबाइन ने बेंथम के सुधारों के बारे में लिखा है कि बेंथम का न्यायशास्त्र विषयक कार्य सबसे महान कार्य था। यह 19वीं शताब्दी की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धियों में से था। न्याय शास्त्र को बेंथम की मुख्य देन यह है कि उसने अपने संबंध में उल्लिखित दृष्टिकोण को विधि की समस्त शाखाओं, दीवानी तथा फौजदारी विधि, प्रक्रियागत विधि और न्याय व्यवस्था के संगठन पर लागू किया । “
दंड सुधार – बेंथम के काल में दण्ड व्यवस्था का स्वरूप कठोर था। छोटे-मोटे अपराधों के लिए भी मृत्युदंड दिया जाता था। उसने उपयोगिता के सिद्धांत के अनुसार इस क्षेत्र में भी सुधार का बहुत प्रयत्न किया। उसके शब्दों में, “सभी प्रकार का दण्ड अपने आप में बुराई है। यदि उपयोगिता सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए दंड देना आवश्यक हो तो उसका वहीं तक प्रयोग करना चाहिए, जहां तक कि वह उससे भी बड़ी बुराई को दूर करने में समर्थ हो सके।”
बेंथम ने दंड देने के कुछ सुनिश्चित नियमों को सामने रखा—
1. दंड की मात्रा अपराध से होने अनुसार कम
वाले लाभ अथवा हानि के या अधिक हो ।
2. दंड सम होना चाहिए जिससे इसके द्वारा अनावश्यक दुःख हो।
3. दंड उदाहरण स्वरूप हो जिससे अपराधियों तथा अन्य लोगों को भविष्य के लिए शिक्षा मिले।
4. दंड उसी प्रकार के अपराधों में दिये गये अन्य दंड के समान हो।
5. दंड में कष्ट की मात्रा अनावश्यक न हो, उतना ही कष्ट दिया जाये जितना कि अपराधी को सबक सिखाने तथा भविष्य में अपराध के विषय में हतोत्साहित करने के लिए पर्याप्त हो ।
6. दंड न्यायोचित हो अथवा जनता उसे उचित माने।
7. दंड सदैव ऐसा हो कि भूल का पता लगने पर उसे रद्द किया जा सके तथा घटाया बढ़ाया जा सके। –
8. अपराधी को इस बात के लिए बाध्य किया जाये कि वह हानि पहुंचाने वाले व्यक्ति की हानि की पूर्ति करे।
9. दंड इस प्रकार का हो कि जो अपराधी को भविष्य में अपराध करने के अयोग्य बना दे, आदि।
बेंथम ने बहुत जरूरी दशा में जब समाज की सुक्षा का प्रश्न महत्वपूर्ण हो ने मृत्यु दंड को लागू करने की वकालत की। उसका यह भी सुझाव था कि दंड जहां तक हो सके सार्वजनिक रूप से दिया जाये। इस बारे में उसकी समझ थी कि अपराधी को दंड पाते हुए देखकर लोग भयभीत होंगे तथा अपराध से दूर रहेंगे।
बेंथम ने दंड निर्धारण की प्रक्रिया में कई बातों का ध्यान रखने का निर्देश दिया जैसे-इस बात का ध्यान रखा जाये कि अपराधी छोटा है या बड़ा, उसने किन परिस्थितियों में अपराध किया है, अपराधी का उद्देश्य क्या था तथा पीड़ित व्यक्ति को कितनी हानि पहुंची है। बेंथम के शब्दों में, “सभी प्रकार के दंड स्वयं में एक बुराई है। यदि उपयोगिता के हित में इसको प्रयोग में लाया जाए तो यह तभी लाया जाए जब इसके द्वारा किसी बुराई का निराकरण होता हो ।”
जेल सुधार- बेंथम के समय में जेलों की दशा काफी खराब थी। उनमें अंधेरा रहता था और गंदे तहखाने बने हुए थे। कैदियों के साथ पशुवत व्यवहार किया जाता था। उनको खराब खाना दिया जाता था। छोटे-बड़े, नये – पुराने साधारण और घोर अपराधी बन जाते थे।
बेंथम ने जेलों की इन दु:परिस्थितियों में सुधार की चर्चा की। इसके लिए उसने एक योजना प्रस्तुत की। उसने एक गोलाकार जेल बनाने का सुझाव दिया। जिसे अंग्रेजी में पेन आप्टिकॉन कहा जाता था । Pan अर्थात सर्व और Opticion अर्थात दृष्टा अर्थात सर्वदृष्टा जेल। इसमें एक गोलाकार जेल होती, जिसमें कैदियों के कमरे होते, जिनकी छत शीशे की होती और बीच में एक मीनार होती, जिसमें ऊपर निरीक्षक का शीशे का कमरा होता, जिसमें से बैठा हुआ निरीक्षक सभी जेलियों को शीशे की छत से देखता रहता और जिस कैदी को सुधारने की जैसी उपचार की आवश्यकता होती उसके लिए वैसी व्यवस्था कर दी जाती। अपनी – योजना को क्रियान्वित करने के लिए बेंथम ऐसी किसी जेल का निरीक्षक बनना चाहता था लेकिन वह निरीक्षक नहीं बन पाया।
बेंथम का विश्वास था कि जेल में अधिकारियों को कैदियों के साथ अच्छा व्यवहार करना चाहिए ताकि उनके जीवन में सुधार आ सके। उसका मत था कि कैदियों को कोई काम सिखाया जाये जिससे वे जेल से बाहर आकर अपनी आजीविका कमा सके। बेंथम का यह भी विचार था कि कैदियों को धार्मिक और नैतिक शिक्षा भी जी जाये और उनका चरित्र उन्नत किया जाये। जेल से छूटने के बाद कैदियों को तुरन्त काम दिलाने की व्यवस्था हो जिससे वे पुनः अपराध करना शुरू न कर दे।
शिक्षा सुधार- शिक्षा भी एक अन्य ऐसा क्षेत्र है जिसमें बेंथम ने सुधार की योजना प्रस्तुत की इस बारे मे उसका विचार था कि, “शिक्षा का आरम्भ उस विधा से करो जो उपयोगी हो, जो बालक के भावी जीवन में सहायक हो । ” उसका यह भी मत था कि शिक्षा का प्रारम्भ सरलता से जटिलता की ओर होना चाहिए। वह यह भी चाहता था कि राज्य निर्धन बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था करे। बेंथम का यह भी विचार था कि राज्य को इस प्रकार का प्रत्येक प्रयत्न करना चाहिए जिससे कि निर्धन बालकों का स्तर ऊँचा हो सके और उनको इस प्रकार का जीवन व्यतीत करने के योग्य बनाया जा सके जो व्यक्ति और समाज दोनों के लिए उपयोगी हो । उसने विज्ञान और अन्य उपयोगी विषयों की शिक्षा पर बहुत बल दिया। बेंथम के ये सुधारवादी विचार यद्यपि उस समय के शासकों को अच्छे नहीं लगे, लेकिन बाद में इनके अनुरूप सुधार किये गये।
चर्च- बेंथम ने चर्च की भी आलोचना की । वह चर्च के पादरियों को उन्नति का विरोधी मानता था। उसके शब्दों में, “पादरी उन लोगों का वर्ग है जो स्वभावतः अतीत की प्रशंसा वर्तमान पीढ़ी को दबाने और उत्साहीन बनाने के दृढ़ उद्देश्य से किया करते हैं”
बेंथम लॉर्ड सभा में पादरियों को प्रतिनिधित्व देने का विरोधी था। बेंथम ध र्म का विरोध करते हुए कहता था कि धर्म से समाज को हानि पहुंचती है, क्योंकि यह नास्तिकों और आस्तिकों के बीच घृणा उत्पन्न कर देता है।
इस प्रकार बेंथम ने अपनी सुधार योजनाओं में तत्कालीन इंग्लैंड में व्याप्त अनेक बुराइयों को दूर करने के सुझाव दिये, परन्तु तत्कालीन सरकार ने उन्हें स्वीकार नहीं किया। जेरेमी बेंथम के विचारों के अनुरूप उसके देहांत के बाद इंग्लैंड के अलावा सभी देशों की सरकारों के द्वारा सुधार कार्य किये गये।
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