जैन एवं बौद्ध धर्म

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जैन एवं बौद्ध धर्म

जैन धर्म
जैन धर्म और परम्परा में 24 तीर्थंकरों का उल्लेख मिलता है, जिन्होंने समय-समय पर जैन धर्म के प्रचार- प्रसार के लिए कार्य किया. इस धर्म के संस्थापक- ऋषभदेव प्रथम तीर्थंकर थे, जिनका चिह्न बैल था.
ज्ञातव्य है कि ऋषभदेव का उल्लेख ऋग्वेद में भी मिलता है, तो विष्णु एवं भागवत पुराण में इन्हें नारायण के अवतार के रूप में विहित किया गया है.
तीर्थंकर का शाब्दिक अर्थ – “संसार सागर से पार होने के लिए तीर्थ या घाट का निर्माण करने वाला “.
22वें तीर्थंकर अरिष्टनेमि को कृष्ण का समकालीन माना गया है तथा ‘उत्तराध्ययनं सूत्र में दोनों को सौरियपुर का राजकुमार’ बताया गया है.
23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ को ऐतिहासिक रूप से सत्य माना गया है, जो काशी के राजा अश्वसेन व माता वामा के पुत्र थे, इनका जन्म महावीर से 250 वर्ष पूर्व हुआ था.
धार्मिक आन्दोलनों के उदय के कारण
छठी शताब्दी ई. पू. में परिस्थितियाँ विभिन्न धर्मों के उदय के लिए अनुकूल थीं. इनके उदय एवं विकास के लिए उत्तरदायी निम्नलिखित कारण थे-
⇒ वैदिक धर्म अपनी पवित्रता खो चुका था और उसमें कर्मकाण्डों का प्रादुर्भाव हो चुका था. साधारण जनता में इन कर्मकाण्डों के प्रति घृणा व्याप्त थी.
⇒ यज्ञों का स्वरूप बिगड़ गया था वे अपव्यय का साधन बन गए थे.
⇒ जाति प्रथा कठोर हो गई थी एवं जाति परिवर्तन असम्भव हो गया था. निम्न जातियाँ यातनामय जीवन व्यतीत करती थीं.
⇒ वैदिक मन्त्र जनसामान्य की समझ से परे थे. अतः साधारण जनता सदैव भ्रम में बनी रहती थी.
⇒ धार्मिक यज्ञों के नाम पर बड़ी संख्या में पशुओं की बलि हो रही थी और पशुधन का ह्रास हो रहा था.
⇒ पुजारी वर्ग भ्रष्ट हो गया था और अन्य वर्गों का शोषण कर रहा था.
पार्श्वनाथ ने 30 वर्ष की आयु में गृह त्यागकर 82 दिन की कठोर तपस्या के बाद वास्तविक ज्ञान की प्राप्ति की और उनके अनुयायियों को निग्रंथ कहा गया.
पार्श्वनाथ ने अहिंसा, सत्य, अस्तेय और उपरिगृह चार सिद्धान्तों का प्रणयन किया, जिसमें महावीर ने पाँचवाँ ब्रह्मचर्य जोड़ा.
जैन धर्म के प्रचार-प्रसार की दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान महावीर का है, जो 24वें तथा अन्तिम तीर्थंकर थे.
जैन शब्द ‘जिन’ से बना है, जिसका अर्थ-“विजेता अर्थात् जिसने अपनी इन्द्रियों को जीत लिया हो”- होता है
महावीर
महावीर का जन्म 599 B.C. (परिशिष्टपर्वन 544 B.C.) में ज्ञातृक कुल में कुण्डीय ग्राम नामक स्थान जिला मुजफ्फरपुर बिहार में हुआ था.
पिता – सिद्धार्थ (ज्ञातृक कुल के प्रधान).
माता – त्रिशला (वैशाली के लिच्छवि शासक चेतक की बहिन).
जैन ग्रन्थों में महावीर की उत्पत्ति सम्बन्धी यह कथानक विहित है कि महावीर का जन्म ऋषभदत्त की पत्नी ‘देवनंदा’ के गर्भ से होने वाला था. लेकिन यह देवताओं को अभिप्त न था कि तीर्थंकर ब्राह्मण के यहाँ जन्म ले. परिणामतः इन्द्र के द्वारा उन्हें त्रिशला के गर्भ में स्थानान्तरित कर दिया. कथा की सत्यता महत्वपूर्ण नहीं, परन्तु ब्राह्मण और क्षत्रियों के मध्य तत्कालीन प्रतिद्वन्द्विता अभिव्यक्त है.
श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार महावीर का विवाह यशोदा नामक राजकुमारी से हुआ, जिससे उनके प्रियदर्शनी नामक पुत्री उत्पन्न हुई.
कालान्तर में प्रियदर्शनी का विवाह महावीर की अपनी ही बहन सुदर्शना के पुत्र जामालि के साथ हुआ, जबकि दिगम्बर परम्परा के अनुसार उन्होंने विवाह नहीं किया था.
30 वर्ष की आयु में उन्होंने बड़े भाई नन्दिवर्धन की  आज्ञा लेकर गृहत्याग किया. 42 वर्ष की आयु में ऋजुपालिका नदी के तट पर जाम्भिय ग्राम में वास्तविक ज्ञान की प्राप्ति हुई और वे वर्धमान से महावीर कहलाए.
कैवल्य ज्ञान – निर्मल एवं पूर्ण ज्ञान जिसकी प्राप्ति के साथ ही मोक्ष का मार्ग प्रशस्त हो जाता है.
महावीर की उपाधियाँ–केवली, जिन, अर्हत.
निर्वाण – 72 वर्ष की आयु में पावा नामक स्थान पर.
प्रमुख भिक्षुणियाँ – चेदना, चेलण्णा.
शाखाएँ–(1) दिगम्बर, (2) श्वेताम्बर.
जैन धर्म में यह विभाजन चौथी शताब्दी B. C. में चन्द्रगुप्त मौर्य के समय हुआ, जब 12 वर्ष के दुर्भिक्ष से संतृप्त होकर भद्रबाहु के नेतृत्व में चन्द्रगुप्त मौर्य सहित विभिन्न जैन भिक्षु दक्षिण भारत चले गये और पीछे से आचार्य स्थूलभद्र ने अपने अनुयायियों को नियम में दी, जिन्हें बाद में भद्रबाहु ने स्वीकार नहीं किया और जैन धर्म में विभाजन हो गया.
स्थूलभद्र – श्वेताम्बर.
भद्रबाहु – दिगम्बर.
प्रमुख अन्तर
दिगम्बर
1. निर्वस्त्र रहते हैं.
2. महावीर को अविवाहित स्वीकार करते हैं.
3. स्त्री रूप में मोक्ष सम्भव नहीं
4. कठोर मार्ग स्वीकार.
श्वेताम्बर
1. श्वेत वस्त्र धारण करते हैं.
2. विवाहित स्वीकार करते हैं.
3. स्त्रियों को मोक्ष की अधि कारिणी मानते हैं.
4. अपेक्षाकृत शिथिल मार्ग.
उल्लेखनीय है कि सैद्धान्तिक दृष्टि से दोनों में विशेष मतभेद नहीं है.
विभिन्न जैन संगीतियाँ
प्रथम संगीति का आयोजन महावीर के निर्वाण के 160 वर्ष बाद (468B.C.) में आचार्य स्थूलभद्र के नेतृत्व में पाटलिपुत्र में, जिसमें 12 अंगों को संकलित किया गया.
दूसरी जैन संगीति का आयोजन खारवेल द्वारा सुपर्वत विजय चक्र पर निर्मित सभागार में आयोजित किया गया, जहाँ 12 अंगों पर पुनर्विचार कर संकलित किया.
तृतीय जैन संगीति का आयोजन आंध्र प्रदेश में वेण नदी के किनारे स्थित वेणाकतरीपुर नामक स्थान पर ‘आचार्य अरहदवली’ के नेतृत्व में किया गया.
चतुर्थ जैन संगीति का आयोजन समानान्तर रूप से 300-313 ई. के मध्य स्कन्दिल की अध्यक्षता में मथुरा में और नागार्जुन सूरि की अध्यक्षता में ‘बल्लभी’ में आयोजित की गई, जिसमें मथुरा संगीति में जैन शिक्षाओं को ‘कालिय सुत्त’ नाम से संकलित किया, दो संगीतियों के कारण जैन सिद्धान्तों को लेकर पाठ भेद हो गया.
पाँचवीं और अन्तिम महत्वपूर्ण जैन संगीति 513-526 A.D. में ‘देवार्धिगणि’ की अध्यक्षता में बल्लभी (गुजरात) में की गई, जिसमें जैन ‘आगम’ साहित्य को अन्तिम रूप दिया गया.
जैन धर्म के अभ्युदय और विकास का ज्ञान प्राप्त करने की दृष्टि से ‘कल्पसूत्र’ उल्लेखनीय ग्रन्थ है, जिसका संकलन ‘भद्रबाहु’ द्वारा किया गया था.
महावीर और अन्य तीर्थंकरों की जीवनगाथाओं, कार्यों आदि के विषय में ज्ञान प्राप्त करने की दृष्टि से ‘भगवती सूत्र’ उल्लेखनीय ग्रन्थ है.
प्रमुख जैन गुहाएँ
(1) उड़ीसा – उदयगिरि, खण्डगिरि.
(2) महाराष्ट्र – एलोरा.
प्रमुख पर्वत जिन पर जैन तीर्थ स्थित हैं
(1) सम्मेद शिखर,
(2) गिरनार,
(3) शत्रुभंजय (बिहार).
प्रमुख जैन मन्दिर
( 1 ) श्रवणबेलगोला—– कर्नाटक.
(2) पालिताणा- गुजरात.
(3) रणकपुर – दिलवाड़ा (आबू), (पालि, राजस्थान).
(4) पावा – बिहार.
जैन धर्म के सिद्धों को अवरोही क्रम में पाँच श्रेणियों में विभक्त किया गया है-
( 1 ) तीर्थंकर – जो मोक्ष प्राप्त कर चुके हों.
(2) अर्हत—जो निर्वाण पाने के निकट हों.
( 3 ) आचार्य – संन्यासी समूह का प्रमुख.
(4) उपाध्याय – अध्यापक या सन्त.
(5) साधु – वह वर्ग जिसमें शेष सभी आ जाते हैं.
जैन धर्म की दार्शनिक एवं धार्मिक अवधारणाएँ
1. निवृत्तिमार्गी परम्परा को महत्त्व प्रदान किया गया था, जिसमें जीवन के वास्तविक लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति हेतु संसार त्याग एवं तपस्या के आदर्श को स्वीकार किया गया है.
2. वेदों की प्रामाणिकता का खण्डन करने के कारण जैन धर्म की गणना नास्तिक परम्परा में की गई है.
3. जैन धर्म ईश्वर को सृष्टि के रचयिता के रूप में स्वीकार नहीं करता, लेकिन कर्म और पुनर्जन्म के सिद्धान्त में विश्वास करता है.
जैन धर्म के अनुसार कर्म के आठ प्रकार
1. ज्ञानावरणीय– ज्ञान पर आवरण डालने वाले.
2. दर्शनावरणीय – सम्यक् दर्शन को रोकने वाले.
3. बेदनीय—पीड़ा (सुख-दुःख ) के सही स्वरूप को समझने में बाधक.
4. मोहनीय – जीव को मोह में डालने वाले.
5. आयुकर्म – प्राणी की आयु निश्चित करने वाले.
6. नामकर्म – नाम को निश्चित करने वाले.
7. गौत्रकर्म–व्यक्ति के गौत्र के निश्चायक.
8. अन्तरायकर्म–सत्कर्मों के मार्ग में बाधक.
जैन धर्म के अनुसार ज्ञान के पाँच सांधन
1. मतिजन्य – मन सहित इन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त होने वाला प्रत्यक्ष ज्ञान.
2. श्रुतिजन्य – धर्म ग्रन्थों से प्राप्त होने वाला ज्ञान.
3. अवधिजन्य – सूक्ष्मदर्शी प्रत्यक्ष ज्ञान.
4. मनः प्रज्ञान – दूर संवेदी ज्ञान.
5. कैवल्यजन्य ज्ञान – सांसारिक ज्ञान या सर्वज्ञता.
जैन धर्म में बन्धन एवं मोक्ष की प्रक्रिया को सात तत्वों के माध्यम से व्यक्त किया है.
(1) जीव- जीव का अर्थ आत्मा तथा इसका गुण चेतनता. प्रत्येक प्राणी की अलग-अलग आत्मा है, जो अनन्त ज्ञान, अनन्त शक्ति, अनन्त प्रकाश, अनन्त आनन्द से युक्त है.
जीव के दो प्रकार हैं – (i) सिद्ध – बन्धन मुक्त
(ii) बध – बन्धन युक्त
( 2 ) आजीव-जो चेतना रहित होता है अर्थात् जड़ तत्व ही आजीव है. जैनों के अनुसार इसके 5 भेद हैं
(i) पुद्गल, (ii) धर्म, (iii) अधर्म, (iv) आकाश, (v) काल.
(3) आश्रव – कर्म पुद्गल के जीव की ओर प्रवाह को आश्रव कहते हैं.
(4) बन्ध – कर्मों के निरन्तर प्रवाह के कारण जीव- अजीव के साथ संयुक्त हो जाता है और यही स्थिति बन्धन कहलाती है.
(5) संबर – आने वाले कर्मों के प्रवाह को रोकना ही संवर है.
( 6 ) निर्जरा – पहले से एकत्रित कर्मों के प्रभाव को समाप्त (त्याग, तपस्या द्वारा) करना ही  निर्जरा है.
(7) मोक्ष – कर्मों के क्षय के बाद जीव का अजीव से मुक्त होकर अपनी वास्तविक स्थिति में ही मोक्ष है.
 त्रिरत्न
मोक्ष मार्ग हेतु जैन धर्म में निर्देशित मार्ग को त्रिरत्न का सिद्धान्त कहा है.
(1) सम्यक् दर्शन – यथार्थ ज्ञान के प्रति श्रद्धा या तीर्थंकरों में विश्वास ही सम्यक् दर्शन है.
(2) सम्यक् ज्ञान – वस्तु के वास्तविक स्वरूप को जानना ही सम्यक् ज्ञान है. यह 5 प्रकार का होता है-
(i) मति, (ii) श्रुति, (iii) अवधि, (iv) मनः पर्याय, (v) कैवल्य ज्ञान.
(3) सम्यक् चरित्र — गेय सिद्धान्तों के अनुरूप आचरण को ही सम्यक् चरित्र कहते हैं.
पंच महाव्रत
जैन धर्म में आचरण के विविध सिद्धान्तों को पंच महाव्रत के रूप में विहित किया गया है—
1. अहिंसा–मन, वचन, कर्म से किसी को, किसी प्रकार का कष्ट न पहुँचाना ही अहिंसा है.
2. सत्य.
3. अस्तेय.
4. अपरिग्रह वस्तु संग्रह का त्याग.
5. ब्रह्मचर्य – इन्द्रिय संयम.
तीन गुणव्रत
पंच अणुव्रतों के साथ-साथ गृहस्थ या श्रावकों के लिए तीन गुणव्रतों का पालन करना भी आवश्यक था. ये तीन गुणव्रत थे-
1. दिग्विरति — किसी निश्चित स्थान पर रहना और किसी निश्चित दिशा में आगे न जाने का प्रण लेना.
2. अनर्थ दण्ड विरति- निरर्थक अनर्थकारी कार्य न करना.
3. उपभोग- परिभोग परिमाणव्रत- भौतिक वस्तुओं एवं भोजन आदि का निश्चित परिमाण में उपभोग करना.
‘जैन धर्म’ में जन सामान्य के लिए निर्देशित मार्ग को अणुव्रत कहा गया है.
जैन धर्म के अनुसार विहित काषाय जिनसे व्यक्ति संत्रस्त है, जो मुक्ति के मार्ग में बाधक है— क्रोध, मान, माया, लोभ.
जैन धर्म के अनुसार व्यक्ति या साधारण व्यक्ति 18 दोषों से आवृत है.
चार शिक्षाव्रत
आध्यात्मिक उन्नति के लिए गृहस्थ को निम्नलिखित चार शिक्षाव्रतों का अनुसरण करना आवश्यक था-
1. देशाविरति – देश की सीमा से आगे न जाने का व्रत.
2. सामयिक व्रत – दिन में तीन बार सांसारिक चिन्ताओं से मुक्त होकर ध्यान लगाना.
3. पौषधोपसास व्रत – अष्टमी और चतुर्दशी के दिन एकान्त में ध्यान लगाना.
4. अतिथि संविभाग व्रत – अतिथियों का सम्मान एवं स्वागत करना.
अनेकान्तवाद या स्याद्वाद
जहाँ अनेकान्तवाद वस्तु के स्वरूप से सम्बन्धित है. स्यावाद उस स्वरूप को अभिव्यक्त करने की कथन पद्धति का नाम है. जैन धर्म के अनुसार वस्तु में अनेक गुण और धर्म होते हैं, क्योंकि उसका निर्माण विभिन्न अणुओं से मिलकर बना होता है. प्रत्येक अणु का अपना स्वरूप एवं पक्ष होता है, अतः किसी भी वस्तु को विभिन्न दृष्टिकोण से जाना जा सकता है, लेकिन सांसारिक बन्धन में बँधे मनुष्य एक समय में वस्तु के समग्र स्वरूप को अभिव्यक्त नहीं कर सकते, क्योंकि उनका ज्ञान सीमित एवं सापेक्ष होता है. अतः अभिव्यक्ति के लिए स्याद् शब्द का प्रयोग करना चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि जिस अपेक्षा से कहा जा रहा है उसी अपेक्षा से कथन सत्य है, अन्य से नहीं. जैन धर्म में किसी वस्तु के बारे में निम्नलिखित सात प्रकार से कथन किया जा सकता है –
कथन पद्धति – (i) स्यात् अस्ति, (ii) स्यात् नास्ति, (iii) स्यात् अस्ति च नास्ति, (iv) स्यात् अत्यक्तम्, (v) स्यात्अ स्ति च अत्यक्तम्, (vi) स्यात् नास्ति च अव्यक्तम्, (vii) स्यात् आस्ति च नास्ति च अव्यक्तम्.
वसदि — 5वीं सदी में कर्नाटक में स्थित जैन मठ ‘वसदि’ कहलाते थे जिन्हें भरण-पोषण हेतु राजाओं से भूमि मिलती थी.
बौद्ध धर्म
संस्थापक महात्मा बुद्ध जिनके जन्म के विषय में निम्नलिखित तिथियाँ मिलती हैं-
(i) श्रीलंका की परम्परा के अनुसार- 563 B.C.
(ii) चीन केण्टन नगर स्थित Dotted Record के अनुसार इसमें कुल 975 dott हैं, जो एक वर्ष बाद से प्रारम्भ हुए (976 Yrs.).
यह परम्परा 489 ईस्वी तक चली. अतः बुद्ध के निर्वाण की तिथि 976–489 = 487 B.C.
बुद्ध 80 वर्ष तक जीवित रहे 487+ 80 = 567B.C.
(निर्वाण) (जन्म) उचित है.
(iii) भारतीय परम्परा के अनुसार-624 B. C. उल्लेख नीय है कि भारत में 25 सौवाँ निर्वाण महोत्सव 1956 में इसी तिथि के आधार पर मनाया गया था.
बुद्ध का जन्म लुम्बिनी नामक स्थान में हुआ था, जहाँ आज भी अशोक का रुम्मिनदेई स्तम्भ स्थित है, जिसमें बुद्ध के जन्म की घटना का उल्लेख मिलता है.
स्वयं का नाम – सिद्धार्थ, पिता – शुद्धोधन, माता–महामाया.
आचार्य ‘धर्मानन्द कौशाम्बी’ ने बुद्ध के गृहत्याग का कारण राजनीतिक माना है. उनकी मान्यता है कि शाक्यों एवं कोलियों के मध्य रोहिणी नदी के जल बँटवारे को लेकर अपने आपको युद्ध से बचाने एवं जनसामान्य में अपनी प्रतिष्ठा बनाये रखने के लिए उन्होंने संन्यास ग्रहण किया था.
वे पाँच भिक्षु जिनके साथ सिद्धार्थ ने उरुवेला के वन में कठोर तपस्या की थी.
महावग्ग के अनुसार बुद्ध ने अपना पहला उपदेश (तपुस्स, मल्लिक) – वणिक पुत्रों को दिया.
बुद्ध ने अपना पहला उपदेश सारनाथ के मृग उद्यान में उन पाँच भिक्षुओं को दिया, जिन्होंने उरुवेला में उनके साथ वन में तपस्या की थी और यही घटना ‘धर्म चक्र प्रवर्तन’ कहलाती है.
बौद्ध धर्म में आत्मा, ब्रह्म, सृष्टि का निर्माण जैसे अत्याकृत अर्थात् निरर्थक प्रश्न बताया है.
चार आर्य सत्य – (1) दुःख, (2) दुःख समुदाय, (3) दुःख निरोध, (4) दुःख निरोध के उपाय.
अष्टांगिक मार्ग –(i) सम्यक् वाक्, (ii) सम्यक् कर्म, (iii) सम्यक् दृष्टि, (iv) सम्यक् संकल्प, (v) सम्यक्आ जीविका, (vi) सम्यक् व्यायाम, (vii) सम्यक् स्मृति, (viii) सम्यक् समाधि.
मध्यम मार्ग – दो अतियों के बीच का सिद्धान्त अर्थात् न तो कठोर त्याग तपस्या और ना ही शिथिल मार्ग का अवलम्ब, इसे ही मध्यम मार्ग कहा गया है. दार्शनिक दृष्टि से शाश्वतवाद और उच्छेदवाद के बीच की मान्यता को स्वीकार करने के कारण भी इसे ‘मध्यम मार्ग’ कहा गया है.
प्रतीत्यसमुत्पाद – शाब्दिक दृष्टि से प्रतीत्य समुत्पाद का अर्थ है— “इसके होने से यह उत्पन्न होता है.”
इसका अन्य अर्थ है – इसके निरुद्ध होने पर इसका निरोध होता है, इसी को कारण कार्य सिद्धान्त भी कहा गया है. अर्थात् प्रत्येक कार्य का कोई-न-कोई कारण अवश्य है. यदि कारण समाप्त हो जाता है, तो वह कार्य भी समाप्त हो जाता है. इसके अन्तर्गत बौद्ध धर्म द्वादश निदान के माध्यम से दुःखों के कारण और उनसे विमुक्ति की प्रक्रिया को विस्तार से समझाया गया है.
द्वादस निदान
(i) अविद्या – अज्ञान.
(ii) संस्कार – बचे हुए कर्मों का शेष.
(iii) विज्ञान – मन या चेतना.
(iv) नाम रूप – शरीर.
(v) षड़ायतन – छः इन्द्रियाँ.
(vi) स्पर्श – इन्द्रियों का विषय से सम्पर्क.
(vii) वेदना – अनुभूति
(viii) तृष्णा–सांसारिक वस्तुओं को प्राप्त करने की इच्छा.
(ix) उपादान – सांसारिक वस्तुओं के प्रति लिप्त रहने का भाव :
(x) भव – जन्म लेने की इच्छा.
(xi ) जाति – जन्म.
(xii ) जरामरण – वृद्धावस्था और मृत्यु.
अनात्मवाद
बौद्ध धर्म के अनुसार शरीर पाँच स्कन्धों रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान से मिलकर बना है. मृत्यु के साथ यह पाँचों स्कन्ध अपने-अपने स्कन्ध में मिल जाते हैं और ऐसा कोई नित्य तत्व शेष नहीं बचता, जिसे आत्मा के रूप में स्वीकार किया जा सके. इसलिए बौद्ध परम्परा को अनात्मवादी कहा है.
निर्वाण
निर्वाण का शाब्दिक अर्थ है – “बुझ जाना या ठण्डा पड़ जाना. “
अर्थात् वह स्थिति जब चित्त की सारी मलिनता समाप्त हो जाती है और तृष्णाओं का अन्त हो जाता है. बौद्ध धर्म यद्यपि नित्य एवं शाश्वत् आत्मा के अस्तित्व में विश्वास नहीं करता, लेकिन कर्म और पुनर्जन्म का सिद्धान्त स्वीकार करता है तथा यह जन्म संस्कारों का होता है.
कर्म के रूप (बौद्ध धर्म के अनुसार) :
(1) कायिक–हिंसा, चोरी, व्यभिचार.
( 2 ) वाचिक – मिथ्या भाषण, चुगली, कटुवाणी.
(3) मानसिक– लोभ, प्रतिहिंसा.
बौद्ध धर्म के त्रिरत्न
(1) बुद्ध, (2) धम्म (3) संघ.
इनका उल्लेख भाब्रू अभिलेख में मिलता है.
दस शील : आचरण के सिद्धान्त
अहिंसा, सत्य, अचौर्य, आवश्यकता से अधिक परिग्रह न करना.
ब्रह्मचर्य कंचन कामिनी का त्याग.
कोमल शैया का त्याग.
सुगन्धित पदार्थों का त्याग.
मृत्यु और गान का निषेध.
असमय भोजन न करना.
 बौद्ध संघ में प्रवेश सम्बन्धी नियम
वैसे तो बौद्ध संघ में जाति, धर्म, भाषा, लिंग के भेदभाव के बिना सभी के लिए प्रवेश स्वीकृत था, इन स्थितियों को छोड़कर
1. 15 वर्ष की आयु से पूर्व.
2. असाध्य रोग से ग्रसित.
3. विशेष अपराध में दण्डित.
4. अनाचार में लिप्त.
 उपोसथ
वह निश्चित दिवस जब एक ग्राम क्षेत्र के सभी भिक्षु एकत्रित होकर पाक्षिक शुद्धि के रूप में (पातिमोक्ख) (प्रायश्चित) का पाठ करते हैं.
प्रवारणा – वर्षावास के अन्त में की जाने वाली वार्षिक शुद्धि ही प्रवारणा कहलाती है.
जन्य, ज्ञान और निर्वाण की घटनाएँ बुद्ध के जीवन की वैशाख पूर्णिमा से है.
बुद्ध के जीवन से सम्बन्धित अष्ट महास्थान —
(1) लुम्बिनी–जन्म.
(2) बौद्धगया – ज्ञान.
(3) सारनाथ–धर्म चक्र प्रवर्तन.
(4) कुशीनगर – निर्वाण.
(5) वैशाली– वज्जियों के आग्रह द्वारा महाप्रदर्शन.
(6) संकिषा – तुक्षिता स्वर्ग में अपनी माता महामाया को उपदेश देने के बाद बुद्ध द्वारा प्रथम बार संकिषा में अवतरण किया.
(7) राजगृह – नालाहस्ति दमन.
(8) श्रावस्ती – अनाथ पिण्डक द्वारा जेतवन विहार का निर्माण.
पिटक
पिटक बौद्ध साहित्य के प्रमुख ग्रन्थ हैं, जो संख्या में तीन हैं—
(1) विनय पिटक – इसमें बौद्ध भिक्षु एवं भिक्षुणियों के लिए आचरण सम्बन्धी नियमों का उल्लेख है. इसके तीन खण्ड हैं—(1) सुत्त विभंग, (2) खंधक, (3) परिवार.
(2) सुत्त पिटक – यह भगवान बुद्ध के प्रवचनों का संकलन है. यह पाँच निकायों दीघनिकाय, मज्झिम निकाय, अंगुत्तर निकाय, संयुक्त निकाय और खुद्दक निकाय में विभाजित है. खुद्दक निकाय बौद्ध दर्शन से सम्बन्धित 15 ग्रन्थों का संकलन है, जिनमें धम्मपद, थेरीगाथा और जातक सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं.
(3) अभिधम्म पिटक – इसमें बुद्ध की शिक्षाओं का आध्यात्मिक विवेचन है. इससे सात ग्रन्थ सम्बद्ध हैं, जिनमें कथावत्थु सर्वाधिक महत्वपूर्ण है. मोग्गलिपुत्ततिस्स ने इसकी रचना की थी.
बौद्ध संगीतियाँ
प्रथम बौद्ध संगीति
बुद्ध के महापरिनिर्वाण के पश्चात् ही राजगृह के निकट सप्तपर्णी नामक स्थान पर किया गया जिसकी अध्यक्षता ‘महाकश्यकप’ ने उस समय की, जब मगध का शासक अजातशत्रु था.
चुल्वग्ग नामक बौद्ध ग्रन्थ में उल्लेख मिलता है कि सुभद्र के व्यवहार को लेकर संघ भेद की आशंका से बौद्ध सिद्धान्तों का संकलन करने के लिए इस संगीति का आयोजन किया गया. इस संगीति में – ( 1 ) उपालि ने विनयपिटक तथा (2) आनन्द ने सुत्तपिटक का वाचन किया और विनयपिटक तथा सुत्तपिटक का संकलन किया गया.
द्वितीय बौद्ध संगीति
महापरिनिर्वाण के 100 वर्ष बाद वैशाली में ‘सब्बाकामी’ के नेतृत्व में किया गया. इस समय मगध का शासक कालाशोक था.
संगीति के आयोजन का मुख्य कारण दस सिद्धान्तों के प्रश्नों को लेकर वैशाली के भिक्षुओं और पश्चिम के भिक्षुओं को लेकर विवाद को समाप्त करना था, लेकिन बौद्ध धर्म का यह सैद्धान्तिक विवाद समाप्त नहीं हुआ और बौद्ध धर्म – (1) स्थाविरवाद (थेरवाद) व (2) महासांघिक दो सम्प्र- दायों में विभाजित हो गया.
तृतीय बौद्ध संगीति
इसका आयोजन परिनिर्वाण के 236 वर्ष पश्चात्पा टलिपुत्र में ‘मोगलिपुत्ततिस्स’ की अध्यक्षता में किया गया. इस समय मगध पर अशोक का शासन था.
बौद्ध संघ में व्याप्त शिथिलता एवं विघटन को समाप्त कर विभिन्न सम्प्रदायों में एकता हेतु इसका आयोजन किया गया. इसी समय अभिधम्मपिटक और उसके महत्वपूर्ण ग्रन्थ ‘कथावत्थु’ का संकलन किया गया. इस संगीति का उल्लेख दीपवंश, महावंश एवं सामंतपासादिका’ में मिलता है.
चतुर्थ बौद्ध संगीति
इसका आयोजन कनिष्क के शासन काल में ‘वसुमित्र’ की अध्यक्षता व अश्वघोष की उपाध्यक्षता में कश्मीर के कुण्डलवन में किया गया. इसी समय ‘महाविभाष’ नामक ग्रन्थ का संकलन किया गया.
इस संगीति में बौद्ध धर्म का विभाजन हीनयान और महायान शाखाओं में हुआ..
हीनयान और महायान में अन्तर
शाब्दिक दृष्टि से हीनयान – निम्न मार्ग, महायान —उच्च मार्ग.
सुविख्यात बौद्ध विद्वान् एवं दार्शनिक
अश्वघोष – अश्वघोष कनिष्क के समकालीन सुविख्यात बौद्ध विद्वान् थे. आपने बुद्धचरित नामक महाकाव्य की रचना की, जिसमें भगवान बुद्ध का जीवन चरित्र उल्लिखित है.
नागार्जुन – नागार्जुन यज्ञश्री और गौतमीपुत्र शातकर्णी के मित्र थे. इन्होंने बौद्ध दर्शन में ‘शून्यवाद’ के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया.
असंग और वसुबन्धु – दोनों बौद्ध भिक्षु भाई थे. मैत्रेयनाथ असंग के गुरु थे उन्होंने ही विज्ञानवाद या योगाचार सम्प्रदाय की स्थापना की थी. असंग योगाचार के महत्वपूर्ण आचार्य थे. अभिधम्मकोश वसुबन्धु की महानतम् कृति है, जिसे Encylopaedia of Buddhism कहा जाता है.
बुद्धघोष – पाँचवीं सदी के बौद्ध साहित्य के महानतम् विद्वान थे.
बुद्धपालित – शून्यवाद के पाँचवीं सदी के भाष्यकार थे.
दिग्नाग–पाँचवीं सदी में आपने तर्कशास्त्र पर लगभग 100 ग्रन्थ लिखे थे.
धर्मकीर्ति – धर्मकीर्ति सातवीं सदी के महान् बौद्ध नैयायिक थे.
हीनयान में अहं के आदर्श को स्वीकार किया गया है, जबकि महायान में बोधिसत्व की अवधारणा को बोधिसत्व भासी बुद्ध है. ये तब तक निर्वाण प्राप्त नहीं करते जब तक कि अन्य व्यक्तियों को भी इस लक्ष्य की ओर अनुप्रेरित नहीं कर देते, जबकि अर्हत का लक्ष्य केवल स्वयं की निर्वाण की प्राप्ति है.
हीनयान में निर्वाण प्रज्ञा या ज्ञान द्वारा सम्भव है, जबकि महायान में करुणा और भक्ति को महत्त्व दिया गया है.
हीनयान में बुद्ध एक महान् व्यक्तित्व के रूप में ज्ञात हैं, जबकि महायान में ईश्वर के रूप में प्रतिष्ठित हैं. हीनयान में ज्ञान प्राप्ति निर्वाण हेतु संन्यास अपरिहार्य है, जबकि महायान में गृहस्थ के रूप में भी इस लक्ष्य की प्राप्ति सम्भव है. हीनयान परम्परागत बौद्ध धर्म का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि महायान समय के अनुसार हुए परिवर्तन का प्रतीक है.
जैन धर्म एवं बौद्ध धर्म में तुलना
समानता
दोनों ही धर्मों ने वेदों की प्रामाणिकता का खण्डन किया है. अतः दोनों की गणना नास्तिक परम्परा में की गई है.
दोनों ही यज्ञवाद, कर्मकाण्ड और जाति प्रथा का विरोध करते हैं.
दोनों ईश्वर को सृष्टि के रचयिता के रूप स्वीकार नहीं करते हैं.
दोनों में कर्म और पुनर्जन्म का सिद्धान्त स्वीकार किया गया है.
दोनों ही निवृत्तिमार्गी परम्परा का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसमें संसार एवं सांसारिक वस्तुओं के प्रति त्याग का आदर्श विद्यमान है.
दोनों में ही आचरण के सामान्य सिद्धान्तों को महत्त्व दिया गया है.
दोनों में ही जीवन के अन्तिम लक्ष्य के रूप में मोक्ष या निर्वाण परिकल्पित है.
अन्तर
जैन धर्म आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करता है, जो अनन्त ज्ञान, शक्ति, प्रकाश से युक्त है, जबकि बौद्ध धर्म अनात्मवादी है.
जैन धर्म में कठोर त्याग तपस्या का महत्त्व है, जबकि बौद्ध धर्म मध्यममार्गी है, जिसमें अतिभोग एवं अतिक्लेश दोनों का ही त्याग है.
जैन धर्म में मोक्ष देह समाप्ति के बाद ही सम्भव है, जबकि बौद्ध धर्म के अनुसार ज्ञान प्राप्ति के साथ ही लक्ष्य की प्राप्ति सम्भव है.
जैन धर्म में कर्म के पौद्गलिक स्वरूप को माना गया है, जबकि बौद्ध धर्म में ‘चैतसिक’ रूप को.
जैन धर्म एवं बौद्ध धर्म का भारतीय संस्कृति के प्रति योगदान
जैन धर्म एवं बौद्ध धर्म का अभ्युदय और विकास भारतीय इतिहास की उल्लेखनीय घटना है. इनके द्वारा विहित सिद्धान्त, आदर्श और परम्पराएँ आज भी भारतीय संस्कृति की अमूल्य विरासत हैं.
बौद्ध एवं जैन दोनों ही धर्म निवृत्तिमार्गी हैं, जिनमें सांसारिक वस्तुओं के प्रति आसक्ति की अपेक्षा त्याग को महत्त्व दिया गया है. यद्यपि उपनिषदों में भी इस प्रवृत्ति का प्राधान्य है फिर भी भारतीय संस्कृति में इसकी विशद्अ भिव्यक्ति की दृष्टि से इन दोनों परम्पराओं का उल्लेखनीय योगदान है.
जैन एवं बौद्ध परम्पराओं का इस दृष्टि से भी विशेष योगदान है कि इन्होंने ‘स्वतन्त्र एवं तार्किक चिन्तन’ को महत्त्व देकर बौद्धिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया. इस विश्वास को पुष्ट किया गया कि व्यक्ति अपने प्रयासों से ज्ञान प्राप्त कर सकता है तथा सत्य को जान सकता है. बुद्ध ने अपने धर्म के लिए ‘एहिपैसिक’ शब्द प्रयुक्त किया है। जिसका अर्थ- आओ और देखो’ है. अर्थात् किसी बात को इसलिए स्वीकार नहीं करना चाहिए कि परम्परा में ऐसा कहा गया है, बल्कि स्वयं विवेक से सत्य की परख करके उसे स्वीकार करना चाहिए. ‘कर्म का सिद्धान्त’ भी भारतीय संस्कृति को इन दोनों का मुख्य योगदान है. दोनों में कर्म के माध्यम से सक्रिय जीवन का आदर्श प्रस्तुत किया गया है.
जैन और बौद्ध परम्पराओं में नैतिक आचरण और सिद्धान्तों पर विशेष बल दिया गया है. जैन धर्म एवं ‘सम्यक् चरित्र’ एवं ‘पंचमहाव्रत’ की अवधारणा और बौद्ध धर्म के ‘दसशील’ इसी से सम्बन्धित हैं. भारतीय मस्तिष्क और विचारधारा का अभिन्न अंग अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरि- ग्रह, ब्रह्मचर्य आदि मुख्यतः इन्हीं की देन हैं.
जैन धर्म का ‘अनेकान्तवाद’ और ‘स्याद्वाद’ का सिद्धान्त धार्मिक एवं वैचारिक सहिष्णुता का प्रतीक है. सामाजिक समानता के आदर्श की प्रतिस्थापना का भी भारतीय संस्कृति के प्रति अन्य योगदान ज्ञात होता है.
अन्य महत्वपूर्ण पक्ष जिसमें जैन धर्म एवं बौद्ध धर्म की महत्वपूर्ण भूमिका रही है वह है- साहित्य सृजन में योगदान’ प्रारम्भ में इन्होंने पालि एवं प्राकृत जैसी क्षेत्रीय भाषाओं में विभिन्न ग्रन्थों की रचना कर इसे साहित्यिक भाषा के रूप में प्रतिष्ठापित किया, वही बाद में संस्कृत में भी विभिन्न ग्रन्थों की रचना की गई. जैन ग्रन्थों में आगम के अतिरिक्त ‘त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरितम्:’, ‘कुवलयमाला’ उल्लेखनीय हैं तो बौद्ध धर्म की दृष्टि से ‘त्रिपिटक’, ‘मिलिन्दपन्हो’, ‘अभिधम्मकोष’, ‘विशुद्धिमग्ग’ महत्वपूर्ण हैं.
कला के क्षेत्र में भी दोनों धर्मों का योगदान अतुलनीय  है. जैन मन्दिरों का कलाशिल्प दिलवाड़ा, रणकपुर, पालिताना, एवं पावा के मन्दिरों से सुस्पष्ट है, तो बौद्ध धर्म से सम्बन्धित स्तूप, विहार और सारनाथ एवं मथुरा से प्राप्त बुद्ध की मूर्तियाँ विकास की जीवन्त प्रतिरूप हैं.
इस प्रकार बौद्ध एवं जैन धर्म दोनों का भारतीय संस्कृति के विभिन्न पक्षों में उल्लेखनीय योगदान रहा है. चाहे बौद्ध धर्म अपनी ही जन्मभूमि से विलुप्त हो गया हो और जैन धर्म सीमित रूप में प्रचलित हो.
बौद्ध धर्म की अपनी ही जन्मभूमि से विलुप्त होने एवं जैन धर्म के अस्तित्व में रहने के कारण
सामान्यतः बौद्ध धर्म के पतन के सम्बन्ध में इतिहासकारों द्वारा विभिन्न कारणों की ओर ध्यान आकृष्ट किया गया है, जिन्होंने इन परिस्थितियों का निर्माण किया जिससे इस धर्म की जीवन्तता समाप्त हो गई और यह धर्म अपनी ही जन्मभूमि से विलुप्त हो गया.
भिक्षु संघ जिसकी बौद्ध धर्म के प्रसार में उल्लेखनीय भूमिका थी, समय के साथ विलासिता और अनाचार के केन्द्र हो गये. भिक्षु और भिक्षुणियाँ सात्विक जीवन की अपेक्षा भोग-विलास की ओर प्रवृत्त हो गये, जिससे जन सामान्य की उनके प्रति श्रद्धा समाप्त गई.
इसी प्रकार बौद्ध धर्म में समय के विकास के साथ महायान के बाद तांत्रिक अवस्था का आविर्भाव हुआ, जिससे यह धर्म न केवल अनुष्ठानात्मक हो गया, बल्कि सुरा, स्त्री-संसर्ग जैसे कई तत्वों का प्रवेश हुआ जो बुद्ध की मूल ‘देशना’ से बिल्कुल विरुद्ध थे.
हिन्दू धर्म में प्रारम्भ तत्त्वों एवं विचारधाराओं को आत्मसात् करने की विलक्षण शक्ति रही है. इसी प्रवृत्ति ने बुद्ध को विष्णु के अवतार के रूप में प्रतिष्ठित कर उसकी हिन्दू धर्म से पृथकता समाप्त करने का कार्य किया, तो दूसरी ओर स्वयं बौद्ध धर्म में ऐसी क्रियाओं को स्वीकार कर लिया गया जो हिन्दू धर्म से प्रभावित थी. साथ ही जैन धर्म की अपेक्षा लोकप्रिय होने के कारण शंकराचार्य एवं कुमारिल जैसे हिन्दू दार्शनिकों ने बौद्ध धर्म पर तीव्र प्रहार किये जिससे उसकी नींवें खोखली हो गईं और इन परिस्थितियों में उसे सम्बल देने वाला न तो बुद्ध जैसा प्रभावशाली व्यक्तित्व था और न ही कनिष्क, अशोक, हर्ष जैसा शासक.
लेकिन मुख्य और मौलिक कारण यह है कि जैन परम्परा में जहाँ भिक्षुक व भिक्षुणियों का उपासक व उपासिकाओं से निकट का सम्बन्ध बना रहा जिसके कारण ये कभी भी जनसामान्य से दूर नहीं हो पाया, वहीं बौद्ध धर्म में भिक्षुओं व उपासकों के मध्य घनिष्ठ सम्बन्ध परिकल्पित नहीं था. फलतः धीरे-धीरे बौद्ध धर्म मठों एवं विहारों तक केन्द्रित होकर रह गया.
अतः जब तुर्क आक्रमणकारियों ने बौद्ध मठों एवं विहारों को ध्वस्त कर दिया, भिक्षुओं को मौत के घाट उतार दिया, बचे हुए भिक्षु पड़ोसी देशों में गमन कर गये, इसी के साथ ही यह धर्म अपनी जन्मभूमि से विलुप्त हो गया.
यदि जनसामान्य में इसकी जड़ें गहरी होतीं तो मठों एवं भिक्षुओं के विनाश के बाद भी इसका अस्तित्व सम्भव था. इस विशेष तथ्य की ओर डॉ. जी. सी. पाण्डेय ने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास में इस ओर ध्यान आकृष्ट किया है.’
जैन धर्म एवं बौद्ध धर्म के अभ्युदय एवं विकास की उत्तरदायी परिस्थितियाँ 
सामान्यतया यह स्वीकार किया जाता है कि जैन एवं बौद्ध नवीन चिन्तन परम्पराएँ या धर्म नहीं थे, बल्कि वैदिक धर्मों में व्याप्त बुराइयों के निराकरण का प्रयास मात्र था, लेकिन दोनों परम्पराओं में दिये गये निवृत्ति मार्ग के महत्त्व एवं उनके सैद्धान्तिक विवेचन के परिप्रेक्ष्य में यह मत उपयुक्त प्रतीत नहीं है.
वैसे प्रारम्भ से ही धार्मिक दृष्टि से प्रवृत्ति एवं निवृत्ति दोनों परम्पराओं का अस्तित्व ज्ञात होता है. जहाँ वैदिक परम्परा में प्रवृत्ति को महत्त्व दिया गया है, वहीं निवृत्ति मार्ग के प्रति अपेक्षा का भाव दृष्टिगत होता है, लेकिन धीरे-धीरे यही परम्परा उपनिषदों में दिखाई देती है तथा छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व में जैन एवं बौद्ध धर्मों के रूप में पुष्पित एवं पल्लवित हुई. लेकिन इस समय की विभिन्न परिस्थितियों ने इसके इस विकास में अनुकूल पृष्ठभूमि का निर्माण किया.
धार्मिक दृष्टि से वैदिक परम्परा के अन्तर्गत दो मुख्य पक्ष ज्ञातव्य हैं—
प्रथम – जिसमें विभिन्न कर्मकाण्ड, अनुष्ठान एवं जटिल यज्ञीय क्रियाएँ थीं जो खर्चीली होने के कारण जनसामान्य के अनुकूल नहीं थीं, तो दूसरी उपनिषदों में विवेचित अद्वैतवाद की अवधारणा जो बोधगम्य और सहज नहीं थी, इसके विपरीत जब जैन एवं बौद्ध धर्मों ने आचरण के सामान्य सिद्धान्तों की चर्चा की तो लोग उस ओर आकृष्ट हुए.
द्वितीय – सामाजिक संरचना के रूप में वर्ण व्यवस्था सुविज्ञ है, जिसका आधार गुण एवं कर्म था. योग्यता एवं विशिष्टता पर आधारित होने के कारण यह सामाजिक उन्नयन के सोपान के रूप में दिखाई देती है, लेकिन समय के साथ इसका स्थान जन्म पर आधारित जाति व्यवस्था ने ले लिया, जो विषमता एवं विभिन्नता पर आधारित थी. राजनीतिक दृष्टि से क्षत्रिय तथा आर्थिक दृष्टि से वैश्य वर्ग महत्त्वपूर्ण था, लेकिन तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में इनकी स्थिति ब्राह्मणों से हेय थी. फलस्वरूप जब जैन एवं बौद्ध परम्पराओं ने जन्म पर आधारित इस जाति व्यवस्था का विरोध किया, सामाजिक समानता के आदर्श की चर्चा की तो इन दोनों वर्णों ने इन परम्पराओं का समर्थन एवं सहयोग किया. बौद्ध परम्परा में तो ब्राह्मणों की अपेक्षा क्षत्रियों को सर्वोच्च स्थान पर प्रतिष्ठित किया गया, तो जैन परम्परा में महावीर की उत्पत्ति सम्बन्धी कथानक ने भी इसकी पुष्टि की है. आर्थिक दृष्टि से विभिन्न शिल्पों का विकास, नगरीकरण, व्यापार एवं व्यापारिक मार्गों का विकास, मुद्रा का प्रचलन आदि दिखाई देते हैं, जिससे समृद्धिशाली एवं आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न लोगों एवं श्रेष्ठि वर्ग का आविर्भाव हुआ जिनकी इन दोनों धर्मों के प्रचार-प्रसार में अहम् भूमिका रही थी.
राजनीतिक दृष्टिकोण से इस समय महाजनपदों का आविर्भाव हुआ तो साथ ही शक्तिशाली शासकों का भी. इस समय के शासकों ने बौद्ध या जैन परम्पराओं के प्रति अभिरुचि प्रकट की, जिसका स्वाभाविक रूप से जनसामान्य पर प्रभाव पड़ा.
निष्कर्ष रूप में जैन एवं बौद्ध धर्मों की उत्पत्ति का आधार तो निवृत्तिमार्गी परम्परा ही है, जो पहले से प्रचलित थी, लेकिन छठी सदी ईस्वी पूर्व की परिस्थितियों एवं परिवर्तनों ने इनके अभ्युदय और विकास हेतु अनुकूल पृष्ठभूमि का निर्माण किया.
आरम्भ से कुषाण युग तक बौद्ध धर्म का विकास
छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व में भारत में कई महत्वपूर्ण धार्मिक परम्पराओं एवं सम्प्रदायों का आविर्भाव दृष्टिगत होता है, जिनमें बौद्ध धर्म सर्वाधिक उल्लेखनीय है जिसके प्रणेता महात्मा बुद्ध थे. सारनाथ में दिये गये अपने प्रथम उपदेश के साथ ही बौद्ध धर्म का प्रचार एवं प्रसार होने लगा. कई श्रेष्ठ, राजा, महाराजा एवं ब्राह्मण तथा जनसामान्य बौद्ध धर्म के अनुयायी बन गये.
कुशीनगर में बुद्ध के परिनिर्वाण के समय तक बौद्ध धर्म पर्याप्त लोकप्रिय हो चुका था. साथ ही इसमें विघटन और विखण्डन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो चुकी थी. मुख्यतः सुभद्र द्वारा मनमाने ढंग से आचरण करने की स्वतन्त्रता को लेकर बौद्ध धर्म के कुषाण युग तक विकास में चार बौद्ध संगीतियों की अहम् भूमिका रही तो साथ ही एकता के प्रयासों के बावजूद विभिन्न सम्प्रदायों एवं उपसम्प्रदायों का प्रादुर्भाव भी हुआ.
प्रथम बौद्ध संगीति का आयोजन महाकश्यप की अध्यक्षता में अजातशत्रु के शासन काल में राजगृह के निकट सप्तपर्णी गुफा में हुआ. जहाँ बौद्ध धर्म की शिक्षाओं एवं संघ से सम्बन्धित व्यवस्थाओं को विनय एवं सुत्त दो पिटकों में संकलित किया गया.
बौद्ध सिद्धान्तों और भिक्षु जीवन से सम्बन्धित व्यवस्थाओं के निर्धारण के बावजूद बौद्ध धर्म में विभेद की प्रक्रिया चलती रही. मुख्यतः वैशाली के भिक्षुओं ने विनय सम्बन्धी कुछ ऐसे नियमों को, जिनकी संख्या 10 बताई है, अपना लिया, जिन्हें अवन्ति एवं पश्चिम के भिक्षुओं ने त्याज्य समझा था. अतः बौद्ध धर्म में व्याप्त इन मतभेदों को समाप्त करने के लिए बुद्ध के परिनिर्वाण के 100 वर्ष पश्चात् वैशाली में द्वितीय बौद्ध संगीति का आयोजन किया गया, लेकिन विभेद समाप्त नहीं हुआ और बौद्ध धर्म स्थिविरवाद (थेरवाद) व महासंघिक दो भागों में विभक्त हो गया.
बौद्ध धर्म के विकास के साथ यह विभेद और बढ़ता गया और अशोक के शासनकाल तक आते-आते बौद्ध धर्म 18 उपसम्प्रदायों में विभक्त हो गया.
इसी समय मोगलिपुत्ततिस्स की अध्यक्षता में तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन पाटलिपुत्र में किया गया. इसमें बुद्ध की शिक्षाओं और विखण्डन की प्रक्रिया पर विचार किया गय तथा अभिधम्म व इससे सम्बन्धित महत्वपूर्ण ग्रन्थ ‘कथावत्थु’ का संकलन किया गया, लेकिन फिर भी विभिन्न विचारों में ऐक्य सम्भव नहीं हुआ.
कनिष्क के शासनकाल में वसुमित्र की अध्यक्षता और अश्वघोष की उपाध्यक्षता में कश्मीर के कुण्डल वन में चतुर्थ बौद्ध संगीति का आयोजन किया गया, लेकिन बौद्ध धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों में एकता स्थापित करने का प्रयास सफल नहीं हो सका, बल्कि बौद्ध धर्म दो मुख्य सम्प्रदायों हीनयान तथा महायान में विभक्त हो गया. हीनयान भी सौतांत्रिक व वैभाषिक तथा महायान में शून्यवाद एवं विज्ञानवाद जैसे उप-सम्प्रदाय बन गये.
इस प्रकार कुषाण युग तक आते-आते बौद्ध धर्म के विकास की प्रक्रिया के साथ-साथ विभिन्न उपसम्प्रदायों एवं दार्शनिक परम्पराओं का आविर्भाव इसमें दृष्टिगत होता है.

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