झारखण्ड की पुरातात्विक धरोहरों का संक्षिप्त परिचय

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झारखण्ड की पुरातात्विक धरोहरों का संक्षिप्त परिचय

भारत में उपलब्ध पुरातात्विक महत्व के स्थलों में झारखण्ड की सीमा में आने वाले प्राचीन उल्लेखनीय स्थलों की भूमिका महत्वपूर्ण है. पाषाण युग, ताम्र युग एवं कांस्य युग की प्रतिमाओं के साथ-साथ मानव के उपयोग में लाई जाने वाली अनेक वस्तुओं, जो खासकर पुरातात्विक महत्व की हैं, से संदर्भित भरपूर सामग्री उपलब्ध है.
झारखण्ड के जिलों को जहाँ प्रकृति ने जंगल, जीव-जन्तुओं खनिज सम्पदा के रूप में अपार सम्पत्ति प्रदान की है वहीं इन जिलों में बिखरे पड़े सांस्कृतिक धरोहरों का भी अपना महत्व है. पुरातत्ववेत्ताओं द्वारा इन जिलों का पुरातात्विक अन्वेषण किया गया जिसके फलस्वरूप पूर्व, मध्य एवं उत्तर पाषाणकालीन एवं नव पाषाणकालीन प्रस्तर के औजार काफी बड़ी संख्या में प्रकाश में आये हैं. प्राच्य पाषाणकालीन प्रस्तर आयुध इस तथ्य को प्रकट करते हैं कि आदि मानव इन जिलों के विभिन्न क्षेत्रों में निवास करते थे.
> हजारीबाग
हजारीबाग जिलान्तर्गत गोला, कुसुमगढ़, बाँसगढ़, माँडू, देसगार, बड़कागाँव, करसो, पुण्ड्र, बोंगा, पाराडीह, मेहोपदाड़, बरागुण्डा, चपंवा, पारसनाथ की पहाड़ी, इस्को, रजरप्पा आदि का पुरातात्विक अन्वेषण के फलस्वरूप इन स्थलों से पाषाण कालीन, मानवों द्वारा निर्मित प्रस्तर के औजार प्रकाश में आये हैं. ये प्रस्तर के उपकरण पूर्व पाषाणकाल, मध्य पाषाणकाल एवं उत्तर पाषाणकाल हैं. इन उपकरणों में प्रस्तर की कुल्हाड़ी, खुरचनी, बेंधक, बंधनी, फलक, विदरणी, तक्षणी आदि प्रमुख हैं. प्राहून प्रस्तर के उपकरणों के आधार पर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि आदि मानव उपर्युक्त वर्णित स्थलों पर निवास करते होंगे.
सन् 1991 ई. में हजारीबाग जिलान्तर्गत इस्को, सतपहाड़, सरैया, रहम देहाँगी आदि स्थलों का पुरातात्विक अन्वेषण किया गया. अन्वेषण के फलस्वरूप ग्राम इस्को में दो प्राकृतिक गुफाओं का पता चला है. इस्को में ही एक समतल शिलाखण्ड पर प्रागैतिहासिक मानव द्वारा चित्रकारी की गयी है.
उपर्युक्त पाषाणकाल के पुरातत्व स्थलों के अतिरिक्त हजारीबाग जिले में ऐतिहासिक काल के कई महत्वपूर्ण स्थल हैं. इन स्थलों का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित है
> दूधपानी
दूधपानी नामक पुरातत्व स्थल दुमदुमा के निकट स्थित है. यह स्थल बराकर नदी के दूसरी ओर पहाड़ी के निकट है. किलहार्न ने 1894 में दूधपानी से प्राप्त आदिसिंह के अभिलेख को प्रकाशित किया था. लिपि के आधार पर इस अभिलेख का काल 8वीं शताब्दी निर्धारित किया गया है.
> दुमदुमा
पुरातात्विक दृष्टि से दुमदुमा महत्वपूर्ण स्थल है. यहाँ उत्तर गुहाकालीन मंदिर के भग्नावशेष हैं. स्थल पर पालकालीन सूर्य, दुर्गा, विष्णु, गणेश की कई मूर्तियाँ बिखरी पड़ी हैं. इन मूर्तियों के अतिरिक्त प्राचीन प्रस्तर के अवशेष और शिवलिंग भी हैं. उत्खनन , से पता चलता है कि यह स्थल पाल काल ( 8वीं से 12वीं शताब्दी ) का एक महत्वपूर्ण स्थल रहा होगा.
> ईतखोरी
ईतखोरी नामक पुरातत्व स्थल चौपाखा से 16 किमी दक्षिणपश्चिम में मोहनी नदी के तट पर स्थित है. यहाँ तीन प्राचीन मंदिरों के अवशेष हैं. इनमें से एक मंदिर को नया बना दिया गया है. इस स्थल पर बड़ी संख्या में हिन्दू एवं बौद्ध देवी-देवताओं की मूर्तियाँ मिली हैं. प्रत्येक वर्ष बड़ी संख्या में पर्यटक इस स्थल को देखने के लिए आते हैं.
> सतगाँव
इस स्थल पर एक दर्जन से अधिक उत्तर गुहाकालीन मंदिरों के भग्नावशेष ‘सकरी नदी के तट पर विद्यमान हैं. स्थल पर प्राचीन मंदिरों के प्रस्तर के चौखट, स्तंभ एवं हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियाँ हैं. गुहा काल में यह मंदिरों की नगरी रही होगी.
> बखरी .
हजारीबाग से बड़का गाँव जाने वाले मार्ग पर बखरी नामक स्थल है. यहाँ प्राचीन काल में शव गाड़कर प्रस्तर के स्मृति चिन्ह लगाये गये हैं.
> बरकट्टा
हजारीबाग से करीब 30 किमी दक्षिण-पश्चिम में बरकट्ट नामक पुरातत्व स्थल में प्राचीन मंदिर के अवशेष विद्यमान हैं.
> महौपी पहाड़ी
हजारीबाग से लगभग 50 किमी दक्षिण-पश्चिम में महौपी पहाड़ी में चट्टान को काटकर चार छोटे-छोटे मंदिरों को बनाया गया है. इन मंदिरों में शिवलिंग की आकृति के साथ-साथ अन्य देवी-देवताओं को भी अंकित किया गया है। मंदिर की छत एवं द्वार पर नक्काशी की गई है. अभिलेख के आधार पर इन मंदिरों के निर्माण की तिथि 17वीं शताब्दी निर्धारित की गई है.
> पारसनाथ
पारसनाथ की पहाड़ी एवं मधुवन जैन धर्मावलम्बियों की प्रसिद्ध तीर्थ स्थली है. जैन मतावलम्बियों के अनुसार जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ का निर्वाण इस स्थल पर ही हुआ था. पहाड़ी की चोटी एवं तलहट्टी मधुवन कई जैन मंदिर हैं जिनका निर्माण 18वीं-19वीं शताब्दी में किया गया.
> कोलेश्वरी पहाड़
कोलेश्वरी पहाड़ का कोलुआ पहाड़ हंटरगज से 10 किमी दक्षिण-पश्चिम में स्थित है. कोलुआ पहाड़ के शिखर पर जैन, बौद्ध एवं हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियाँ बिखरी पड़ी हैं. इन मूर्तियों के अतिरिक्त पहाड़ी की चोटी पर पत्थरों को काटकर जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ बनायी गयी हैं. जिन्हें स्थानीय जनता दसावतार कहती है. इनमें पाँच मूर्तियाँ खड़ी एवं पाँच बैठी हैं. इन मूर्तियों से थोड़ा अलग हटकर दस जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ पदमानस की उत्कीर्ण की गई हैं. इन मूर्तियों के ऊपर एक प्रस्तर को काटकर उस पर पदचिन्ह उत्कीर्ण किये गये हैं. इन पुरावशेषों के अतिरिक्त यहाँ मध्यकालीन दुर्ग की चहारदीवारी भी विद्यमान है. दुर्ग की लम्बाई एवं चौड़ाई क्रमशः 600 मीटर × 450 मीटर है. दीवारों की मोटाई 5 मीटर एवं चौड़ाई 3 मीटर है. किले के दो द्वार हैं. जैनियों के अनुसार दसवें तीर्थंकर का जन्म इस स्थल पर ही हुआ था. विद्वानों ने इस स्थल के अवशेष को प्राचीन मदलपुरा नगर का अवशेष कहा है.
> कुंपा
प्रतापपुर प्रखण्ड से 12 किमी दक्षिण में कुंपा का किला है. इसकी लम्बाई एवं चौड़ाई क्रमशः 69 मीटर x 55 मीटर है. चहारदीवारी की ऊँचाई 8 मीटर है. पश्चिम में किलें का द्वार है. इस किले का निर्माण मुगलकाल में किया गया था.
> पलामू
पलामू डाल्टेनगंज से 24 किमी दक्षिण-पूर्व में औरंगा नदी के तट पर बसा है. देवपाल के नालंदा ताम्रपत्र ( 9वीं शताब्दी) में ‘पालामक’ का उल्लेख है. प्राचीनकाल में यह गया (बिहार) के अन्तर्गत था. ग्राम पलामू को विद्वानों ने नालंदा ताम्रपत्र में उल्लिखित ‘पालामक’ से किया है. पलामू में हुए उत्खनन से दो किलों के अवशेष प्राप्त हुये हैं, जिनमें एक नया किला तथा पुराना किला महत्वपूर्ण है. नये किले की लम्बाई एवं चौड़ाई लगभग 250 मीटर x 100 मीटर है. प्रस्तर प्राचीर की चौड़ाई लगभग 5 मीटर है. प्राचीर पर सैनिकों के चलने के लिए 4.50 मीटर चौड़ा मार्ग है. इसके दोनों ओर सुरक्षा प्राचीर हैं. इस रास्ते के नीचे सैनिकों के रहने के कई कमरे बने हैं. इन कमरों में कुछ दो मंजिल भी हैं. इन कमरों में बाणों को छोड़ने के लिए छिद्र की भी व्यवस्था है. पुराने किलों से 12वीं शताब्दी की बुद्ध की भूमि स्पर्श मुद्रा में एक मूर्ति, साथ में दो स्तम्भों के मिलने का उल्लेख प्रकाशित ग्रंथों में मिलता है.
पलामू के प्राचीन निवासी चेर थे. 17वीं शताब्दी से चेरों वंश के राजाओं का राज पलामू में था. इस वंश के प्रथम शासक भागवत राय थे. उनका शासन 1613 ई. में प्रारम्भ हुआ. इस वंश के सबसे प्रतापी राजा मेदनी राय थे. सन् 1772 में ब्रिटिश शासकों ने पलामू को ब्रिटिश राज में मिला लिया.
बजना, अब तक पलामू जिले के पुरातात्विक अन्वेषण के परिणामस्वरूप शाहपुर, अमानतपुल, दुर्गावती पुल, रंकाकलाँ, वीरबंध, मैलापुल, चंदरपुल, झाबर, जोरकोट, भखना, जीजोआपुल, छोटी झोली, नाकगढ़ पहाड़ी, राँची मार्ग के हाथीगारा, भालूबारा आदि के आसपास के क्षेत्रों से पाषाण काल ( पूर्व, मध्य एवं उत्तर) तथा नव पाषाणकाल के पत्थर के औजार प्राप्त हुए हैं. इन औजारों में पत्थर की कुल्हाड़ी, स्क्रेपर, ब्लेड, वोरर, ब्यूरिम आद प्रमुख पुरातात्विक दृष्टि से पलामू के निम्नलिखित स्थल महत्वपूर्ण हैं
> अलीनगर
हुसैनाबाद से 8 किमी पूरब में अलीनगर का किला स्थित है. इस किले को स्थानीय जनता रोहिल्ला किला कहती है किला आयताकार है. किले की भीतर से लम्बाई एवं चौड़ाई क्रमशः 15 मीटर x 13 मीटर है.
> विश्रामपुर
गढ़वा से 16 किमी उत्तर-पूरब में विश्रामपुर स्थित है, यहाँ पलामू के राजा जयकिशन राय के भाई नरपत राय द्वारा सन् 1750 ई. में निर्मित एक गढ़ है. वर्तमान में गढ़ की स्थिति काफी जीर्ण है.
> शाहपुर
डाल्टेनगंज शहर के ठीक सामने शाहपुर स्थित है. 18वीं शताब्दी में पलामू के राजा गोपाल राय ने इस स्थल पर एक किले का निर्माण कार्य प्रारम्भ किया, परन्तु यह किला अधूरा है.
> देवगन
पलामू जिले के उत्तर-पूरब में देवगन गढ़ स्थित है. इसका निर्माण पलामू के राजा के वंशजों द्वारा किया गया था.
> महुआटाँड
डाल्टेनगंज से 106 किमी दक्षिण में स्थित महुआटाँड ‘फादर डेहोन’ द्वारा निर्मित सेंट जोसेफ चर्च के लिए प्रसिद्ध है. चर्च की के लम्बाई चौड़ाई एवं ऊँचाई क्रमशः 100 मीटर x 45 मीटर x 90 मीटर है.
> नगर उटारी
ग्राम नगर उटारी का किला डालटेनगंज से दक्षिण-पश्चिम में स्थित है. यहाँ भैया साहब द्वारा 17वीं शताब्दी में निर्मित गढ़ एवं उनकी पत्नी शिवमुनि कुंवर द्वारा निर्मित मंदिर है. इस मंदिर में वंशीधर की लगभग 21 क्विंटल की अष्टधातु की मूर्ति है. रानी की यह मूर्ति ग्राम मनौली से लायी गई है.
> छेछौरी
पाटन प्रखण्ड से 9 किमी दूरी पर छेछौरी ग्राम में प्राचीन मंदिर विद्यमान है. इस मंदिर को स्थानीय जनता ‘साधु मनर’ कहती है.
> भवनाथपुर
भवनाथपुर में दुर्लभ प्रागैतिहासिक शैल चित्र मिले हैं. कई प्राकृतिक गुफा भी प्रकाश में आये हैं, जिनके अन्दर, गेरूवे चित्रकारी की गई है. इनमें आखेट के चित्र भी हैं. पशुओं के चित्रों में हिरण, भैंसा आदि प्रमुख हैं.
> सिंहभूम
सिंहभूम जिलान्तर्गत रौम डिग्री, बड़ा पहाड़, राजा, गारा नदी बाँध, स्वासपुर, राजघेघा, चकुरिया, सरेंगा, तेरगा, मुसाबनी, मौभण्डार, बेनियासोल, उलपाह, बिछारी-युगरी, किटादी-टूगरी, फूलडूंगरी, चटकमर, पटखेरा, महेशपुर, कलिकापुर, कमलपुर, हाटगम्हरिया, ससघाटी, तातीबे, धुनरिया, करजुरी, चक्रधरपुर, बेबो, ईसाडीह, जोजोडीह, बारूडीह, कद्रा, पूर्णपानी, बामनी, डुगडुंगी, खरकासीपुल, हूँजी, डोरा आदि स्थलों का पुरातात्विक अन्वेषण पुरातत्ववेत्ताओं द्वारा किया गया. पुरातात्विक अन्वेषण के फलस्वरूप पूर्व पाषाणकाल, मध्य पाषाणकाल, उत्तर पाषाणकाल एवं नव पाषाणकाल के पुरावशेष उपर्युक्त स्थलों से प्राप्त हुए हैं. इन प्रस्तरों आयुधों में क्रोड़, कुल्हाड़ी, शल्क, खंडक, दोहारी खंडक, विदारयी, खुरंचनी, बेधक, वेहानी, फलक, अर्धचन्द्रकार, तक्षणी आदि प्रमुख हैं. पूर्व, मध्य एवं उत्तर पाषाणकालीन मानव सिंहभूम जिले के उपर्युक्त स्थलों पर निवास करते थे.
सिंहभूम जिलान्तर्गत लोटा पहाड़ नामक पुरातत्व स्थल का उत्खनन पुरातत्व निदेशालय द्वारा कराया गया. उत्खनन के फलस्वरूप पूर्व मध्य पाषाणकालीन खुरचनी, बेफनी, बेधक प्राप्त हुए हैं.
उपर्युक्त पूर्व, मध्य एवं उत्तर पाषाणकालीन पुरातत्व स्थलों के अतिरिक्त निम्नलिखित पुरातत्व स्थल नव पाषाण काल के पुरावशेष अन्वेषण एवं उत्खनन के फलस्वरूप प्रकाश में आये हैं.
> बारूडीह
सिंहभूम जिलान्तर्गत संजय एवं सोन नाला के संगम स्थल पर बारूडीह नामक पुरातत्व स्थल विद्यमान है. इस स्थल के पुरातात्विक उत्खनन के फलस्वरूप नव पाषाण कालीन, मृद् भाण्डों के टुकड़े, प्रस्तर की कुल्हाड़ी, पकी मिट्टी के मटके, प्रस्तर की हथौड़ी, विरचक, यश्री नव पाषाणकाल के प्राप्त हुए हैं. नव पाषाणकाल की तिथि ईसा से एक हजार वर्ष पूर्व निर्धारित की गयी है.
> डुगनी
बारूडीह से एक से तीन किलोमीटर पूरब में डुगनी नामक पुरातत्व स्थल है. स्थल के पुरातात्विक उत्खनन के परिणामस्वरूप नव पाषाणकालीन कुल्हाड़ी एवं मृद् भाण्डों के टुकड़े प्राप्त हुए हैं.
> नीमडीह
चांडिल के निकट नीमडीह के पुरातात्विक अन्वेषण के परिणामस्वरूप नव पाषाणकाल की प्रस्तर की कुल्हाड़ी, वलय प्रस्तर एवं हस्त निर्मित मृद् भाण्डों के टुकड़े प्राप्त हुए हैं.
> चक्रधरपुर
चक्रधरपुर के निकट से पुरातात्विक अन्वेषण के क्रम में नव पाषाणकाल की प्रस्तर कुल्हाड़ी एवं मृद् भाण्डों के टुकड़े प्राप्त हुए हैं.
> बोनगरा
नीमडीह रेलवे स्टेशन से 5 किमी पूरब में बोनगारा स्थित है. स्थल के अन्वेषण के दौरान नव पाषाणकालीन प्रस्तर की कुल्हाड़ी, वलय प्रस्तर, प्रस्तर के मनके एवं मृद् भाण्डों के टुकड़े प्राप्त हुए हैं.
> बानघाट
बोनगारा के निकट ही बानघाट है. इस स्थल से नव पाषाणकाल के पाँच प्रस्तर की कुल्हाड़ी, चार वलय प्रस्तर, एक प्रस्तर की थापी (Dabber) तथा पकी मिट्टी की थापी तथा काले रंग मृद् भाण्डों के टुकड़े मिले हैं.
> डोरा
हुगनी के निकट ही डोरा नामक पुरातत्व स्थल विद्यमान है. इस स्थल से अन्वेषण के दौरान नव पाषाणकालीन प्रस्तर की कुल्हाड़ी, सूक्षाष्म उपकरण, लौहमल, लाल एवं भूरे रंग के मृद् भाण्डों के टुकड़े प्राप्त हुए हैं.
इन नव पाषाणकालीन पुरातत्व स्थलों के अतिरिक्त ऐतिहासिक काल की सांस्कृतिक धरोहर भी सिंहभूम जिले में निम्नलिखित स्थलों में पाई गई है
> चाण्डिल
चाण्डिल के आसपास के क्षेत्रों के पुरातात्विक अन्वेषण के परिणामस्वरूप ही तीर्थंकरों की मूर्तियों एवं नरसिंह की मूर्ति प्रकाश. में आयी है. तीर्थंकरों की मूर्तियों में एक आदिनाथ की है. चाण्डिल पुल के निकट कई हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियाँ एवं शिलाखण्ड बिखरे पड़े हैं. इनमें शिव-पार्वती की मूर्ति एवं शिवलिंग प्रमुख हैं.
> ईचागढ़
ईचागढ़ स्वर्ण रेखा एवं खरखई नदी के बीच में स्थित है. यहाँ एक प्राचीन मंदिर का भग्नावशेष भी विद्यमान है. मंदिर के भीतर चतुर्मुखी शिवलिंग भी है.
> तुलसी
यह स्वर्ण रेखा नदी के तट पर बसा है. यहाँ एक प्राचीन मंदिर का भग्नावशेष विद्यमान है. इसके अतिरिक्त इस क्षेत्र में पुरावशेष भी बिखरे पड़े थे जिन्हें चाण्डिल बाँध के निकट शीशमहल में रखा गया है. इसके अतिरिक्त तुलसी में प्राचीन तालाब भी हैं.
> देवलटाँड़
देवलटाँड में जैन तीर्थंकरों की प्राचीन मूर्तियाँ अधिक मात्रा में हैं. देवलटाँड खरखई नदी के तट पर बसा है. यहाँ एक प्राचीन मंदिर का भग्नावशेष भी है जिसके ऊपर नवीन मंदिर का निर्माण कर दिया गया है.
> बेलुसागर 
सिंहभूम जिले के दक्षिण में बेलुसागर विद्यमान है. यहाँ एक • प्राचीन तालाब है. तालाब के किनारे हिन्दू एवं जैन देवी-देवताओं की मूर्तियाँ बिखरी पड़ी हैं. इन मूर्तियों में चामुण्डा, गणेश, महिषासुर मर्दनी दुर्गा, शिव-पार्वती, विष्णु की मूर्तियाँ प्रमुख हैं. दो जैन तीर्थंकरों की भी मूर्तियाँ हैं. मूर्तियों का काल लगभग 7-8वीं शताब्दी है. तालाब के दक्षिण-पूर्व कोने पर 300 मीटर x 150 मीटर गढ़ के भग्नावशेष भी विद्यमान हैं.
> श्यामसुन्दर
यह स्थल स्वर्ण रेखा नदी के तट पर बसा है. यहाँ एक मंदिर है जिसके प्रवेश द्वार की दीवार में कृष्ण लीला के दृश्य पकी मिट्टी की ईंटों में उत्कीर्ण कर लगाए गए हैं. इस मंदिर में लगभग एक सौ वर्ष से अधिक प्राचीन कृष्ण की धातु की मूर्तियाँ रखी हैं.
> गुहिया पाल
सिंहभूम जिले के बहरागाँव प्रखण्ड में गुहिया पाल स्वर्ण रेखा नदी के तट पर बसा है. इस ग्राम में कई मूर्तियाँ हैं, जिनका काल 10वीं-11वीं शताब्दी है. इनमें शिवलिंग, शिव-पार्वती तथा रेवती की मूर्तियाँ प्रमुख हैं. यहाँ प्राचीन काल में लोहा गलाया जाता था.
> रौम
सिंहभूम जिलान्तर्गत पालभूम प्रखण्ड स्थित महुलियाँ ग्राम से 3 किमी दक्षिण-पश्चिम में रौम ग्राम है. यहाँ राजा द्वारा निर्मित एक गढ़ का भग्नावशेष विद्यमान है. यहाँ प्राचीनकाल में धातु गलाने का कार्य किया जाता था.
> सारण्डा गढ़
मनोहरपुर रेलवे स्टेशन से करीब 32 किमी दक्षिण-पूर्व में पोंगा एवं कोयना नदी के संगम पर सारण्डा गढ़ बसा है. यहाँ एक प्राचीन गढ़ का भग्नावशेष विद्यमान है.
> सफरन
टुलमी से 16 किमी दक्षिण-पूर्व में सुफरन नामक पुरातत्व स्थल है. यहाँ एक प्राचीन दुर्ग का भग्नावशेष है.
> सुईषा
टुलमी से 22 किमी उत्तर पश्चिम में सुईषा नामक पुरातत्व स्थल है. यहाँ जैन तीर्थंकरों, दुर्गा, विष्णु की मूर्तियों के अतिरिक्त शिवलिंग भी हैं.
> पटामदा
जमशेदपुर से 25 किमी पूर्व में ग्राम एवं प्रखण्ड पटामदा स्थित है. यह एक महत्वपूर्ण पुरातात्त्विक स्थल है. इसके आस-पास के क्षेत्रों में प्राचीन मंदिरों के भग्नावशेष भी विद्यमान हैं. यहाँ जैन तीर्थंकरों एवं हिन्दू देवी-देवताओं की पाल कालीन मूर्तियाँ हैं. इन मूर्तियों के अतिरिक्त बड़ी संख्या में प्रस्तर के वस्तु खण्ड भी हैं जिनसे यह पता चलता है कि इस स्थल के आसपास प्राचीन मंदिर रहा होगा.
> धनबाद
झारखण्ड के कोयलांचल क्षेत्र में धनबाद का महत्वपूर्ण स्थान है. आज का धनबाद कभी पुराने मानभूम जिला में पारसनाथ की पहाड़ियों के गोद में स्थित ‘धनबाइद’ नामक एक छोटा सा सुरम्य, शांत एवं खुशमिजाज गाँव हुआ करता था जहाँ उनके अल्हड़ आदिवासियों के गीतों के स्वर हमेशा गूंजते रहते थे. धनबाद से धनबाद तक की कथा यात्रा भी काफी रोचक है. इस सम्बन्ध में लोगों के अपने-अपने विचार हैं, अलग-अलग जनश्रुतियाँ हैं.
कभी धनबाद क्षेत्र में काफी वर्षा होती थी तथा धान की काफी उपज होती थी.
धनबाद 1956 तक पुराने जिले मानभूम का भाग हुआ करता था जिसका मुख्यालय पुरूलिया था.
धनबाद जिला झारखण्ड राज्य पूर्वी भाग में स्थित है. इसके उत्तर और उत्तर-पूर्व में बराकर नदी है, जो इसे हजारीबाग, संथालपरगना एवं वर्दमान (पश्चिम बंगाल) जिलों से अलग करती है.
सभ्यता एवं संस्कृति से सम्बद्ध इस जिले के कला के अध्ययन की दृष्टि से एक अन्य महत्वपूर्ण स्थल तेलकुपी है, जो धनबाद से लगभग 25 किमी दूर राजगंज-बरवा अड्डा मार्ग पर स्थित है. यहाँ भी मंदिरों के ध्वंसावशेष व हिन्दू (शैव एवं वैष्णव) देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ मौजूद हैं जिनमें शिव, गणेश, विष्णु, गज-लक्ष्मी, सूर्य आदि प्रमुख हैं. इसी तरह नवसृजित बोकारो जिले में स्थित चन्दनकियारी, जहाँ से कांस्य प्रतिमाएँ उपलब्ध हुई हैं, वहाँ भी बहुत-सी अन्य प्रतिमाएँ बिना किसी समुचित रख-रखाव के पड़ी हुई हैं. इनके अतिरिक्त नगरकियारी, मैथन, चिरकुण्डा, पंचेत, पाण्ड्रा, बड़वा, कालीबथान, बराकर, टुण्डी, गणेशपुर, गोरमारा, नारो, जीतपुर, पारसवाणी, मछरदाहा, पिपराडीह, तेलमुचु, अमियाबाद, पहाड़पुर, कंचनपुर, उदयपुर, कुरमिडि, सूर्ययदी, दूधिया, सालपत्रा, धरबार, कालीपुर, पतकोल, रामपुर, दलदली, बारा, भालपाड़ा, गोपीनाथपुर, काली पहाड़ी, बन्द्राबाद, बेनगरिया, रघुनाथपुर, बोरम, बलरामपुर, छर्रा, पारा, पकबीरा, मानबाजार, बड़ा बाजार आदि अनेक स्थलों में कुछ ऐसे पुरातात्विक साक्ष्य मिलने की सम्भावना है, जिनसे इस क्षेत्र हुए सभ्यता एवं संस्कृति के क्रमिक विकास के सम्बन्ध में काफी महत्वपूर्ण तथ्य सामने आ सकते हैं.
कला-कृतियों की दृष्टि से धनबाद जिला काफी समृद्ध होने का साक्ष्य प्रस्तुत करता है. कला-कृतियों में भी विशेषकर मूर्तिकला एवं स्थापत्य कला की दृष्टि से उल्लेखनीय जान पड़ता है. प्राचीन काल में यहाँ से होकर गुजरे मार्गों के किनारे अवस्थित जैन, बौद्ध व हिन्दू मंदिर अथवा उनके ध्वंशावशेष एक तरह उस समय गुजरने वाले व्यापारियों के दानशीलता की कहानी कहते हैं, तो दूसरी ओर इनसे समृद्ध कलाकारों द्वारा निर्मित मूर्तियों एवं यत्र-तत्र बिखरे चट्टानों में अभिव्यक्त धार्मिक एवं लोक जीवन के विभिन्न पक्षों को भी उजागर करते हैं. आज इस जिले में व्यापक सर्वेक्षण, गहन अन्वेषण एवं विशद् उत्खनन की आवश्यकता है, ताकि समृद्ध सांस्कृतिक परम्पराओं तथा अगाध पुरातात्विक सम्भावनाओं से भरे इस जिले का मुखरित रूप सामने आ सके.
> राँची
राँची जिले से पुरापाषाणकाल के औजार प्राप्त हुए हैं जो निम्नलिखित स्थलों से विभिन्न विद्वानों को प्राप्त हुए हैं –
परसधिकयहाँ से उच्च पुरापाषाणकालीन उपकरण तथा मध्य पाषाणकालीन ‘लघु पाषाण उपकरण’ प्राप्त हुए हैं.
कोनोलको–पुरातात्विक दृष्टि से इस स्थल का महत्वपूर्ण स्थान है. यहाँ से ‘लघु पाषाण उपकरण’ मिले हैं.
भल्ला ऊंगरी – इस स्थल से भी ‘लघु पाषाण उपकरण’ मिले हैं.
जिलिन बरा पहाड़ – यहाँ से ‘लघु पाषाण उपकरण’ मिले हैं.
अजमेरा – इस स्थल से ‘उच्च पुरापाषाण उपकरण’ तथा ‘लघु पाषाण उपकरण’ मिले हैं.
जोजड़ा – इस स्थल से भी ‘उच्च पुरापाषाण उपकरण’ तथा ‘लघु पाषाण उपकरण’ मिले हैं.
हाड़दगा – यहाँ से ‘उच्च पुरापाषाण उपकरण’ एवं ‘लघु पाषाण उपकरण’ मिले हैं.
सरदकेल – इस स्थल से ‘लघु पाषाण उपकरण’ मिले हैं.
बज्रा – यहाँ से ‘उच्च पुरापाषाण उपकरण तथा लघु पाषाण उपकरण’ मिले हैं.
चर्मा – इस स्थल से भी उच्च पुरापाषाण उपकरण’ एवं ‘लघु पाषाण उपकरण’ मिले हैं.
कम रे- यहाँ से ‘उच्च पाषाण उपकरण’ मिले हैं.
चिपड़ी – यह स्थल नेतरहाट की ओर विष्णुपुर से करीब 2-3 किमी पर स्थित है. यहाँ से ‘उच्च पुरापाषाण उपकरण’ मिले हैं.
बिन्दा – यह एक प्रागैतिहासिक स्थल है. श्री एस. सी. राय को यहाँ से पत्थर की रूखानी एवं कुल्हाड़ी मिली थी.
बुरहाड़ी – यह एक प्रागैतिहासिक स्थल है. यहाँ से पत्थर की कुल्हाड़ी मिली है.
बुरजा – यहाँ से पॉलिशदार पत्थर की रूखानी मिली है.
बुरहातु – यह एक प्रागैतिहासिक स्थल है. यहाँ से पत्थर की रूखानी मिली है.
चाचोनावा टोली – यह एक प्रागैतिहासिक स्थल है. यहाँ से पत्थर की पॉलिशदार कुल्हाड़ी मिली है.
चेनाग्रेट – यहाँ से भी पत्थर की रूखानी मिली है.
चेनेगुटू – यह एक प्रांगैतिहासिक स्थल है. यहाँ से पत्थर की रूखानी मिली है.
इन्द्रपीरी – यह स्थल राँची से चाइबासा जाने वाली सड़क पर राँची से लगभग 55 किमी की दूरी पर है. यहाँ से पत्थर की रूखानी मिली है.
इते- यह खूँटी से लगभग 100 किमी दक्षिण-पश्चिम में स्थित एक गाँव है. श्री एस. सी. राय को यहाँ से पत्थर की कुल्हाड़ी मिली है.
जानुमपीड़ी-यह एक प्रागैतिहासिक स्थल है. यहाँ से पत्थर की कुल्हाड़ी मिली है.
जुरदाग- यहाँ से पुरापाषाणकालीन पत्थर के औजार मिले हैं.
कक्रा – यह एक प्रागैतिहासिक स्थल है. यहाँ से पत्थर की कुल्हाड़ी तथा रूखानी मिली है.
पंगुरा – इस स्थल से 1916 ई. में श्री एस. सी. राय को पत्थर की रूखानी मिली थी.
सल्गी – इस स्थल से पत्थर की एक रूखानी मिली है जो पटना संग्रहालय में रखी है.
सेनवुआ – इस स्थल से पत्थर की एक रूखानी मिली है.
सेनेगुटू – इस स्थल से भी पत्थर की एक कुल्हाड़ी मिली है जो अब पटना संग्रहालय में है.
सोदाग – यहाँ से पत्थर की एक रूखानी मिली है.
सोपारण – इस स्थल का उत्खनन 1916 ई. में श्री एस. सी. राय के नेतृत्व में किया गया था. यहाँ से पत्थर की कुल्हाड़ी एवं रूखानी मिली है.
तोरंगखेल- यहाँ से एक पत्थर की कुल्हाड़ी मिली है, जो वर्तमान में पटना संग्रहालय में सुरक्षित है.
> असुर स्थल
भारतीय पुरातत्व में ‘असुर’ शब्द झारखण्ड के राँची, गुमला एवं लोहरदगा जिलों के ऐसे विभिन्न प्राचीन स्थलों के लिए प्रयुक्त होता है, जहाँ से ईंटों से निर्मित प्राचीन भवन, अस्थि कलश, प्राचीन पोखर इत्यादि प्रकाश में आये हैं. लोहरदग्गा, घाघरा, चैनपुर, महोदार्ण इत्यादि जगहों में अभी भी ‘असुर’ नामक जनजाति रहती है. इनमें से अधिक लोग लोहा गलाने वाली असुर जाति के हैं.
> लोहरदगा
1920 ई. में हुए उत्खनन के दौरान इस स्थल से एक प्राचीन कांसे का प्याला मिला है. इसे ‘असुर’ से सम्बद्ध बताया जाता है.
> लुपंगड़ी
1915 में श्री एस. सी. राय को यहाँ से प्राचीन कब्रगाह के प्रमाण मिले थे. कब्रगाह के पत्थर के नीचे मिट्टी के बड़े-बड़े बर्तन मिले हैं जिसमें हड्डी, ताँबे के कुछ आभूषण, पत्थर के मनके इत्यादि प्राप्त हुए थे.
> मुरद
यहाँ से ताँबे की सिकड़ी कांसे की अंगूठी तथा पत्थर की लम्बी कुल्हाड़ी मिली है.
> नामकुम
यहाँ से ताँबे के कंगन, पत्थर की कुल्हाड़ी, लोहे के औजार तथा बाण फलक मिले हैं.
> पाण्डु
1915 ई. में एस. सी. राय ने इस स्थल का निरीक्षण किया था. स्थानीय लोग इसे ‘असुर’ स्थल कहते हैं तथा ‘ईटा दौरा’ के रूप में जानते हैं. समय-समय पर स्थानीय लोग इसे खोदते रहे हैं. यहाँ से ईंटों की दीवार, हड्डी तथा ताँबे के औजार सहित मिट्टी के कलश प्राप्त हुए हैं. खुदाई के क्रम में लगभग 4 फीट की गहराई में पत्थर की एक पटिका प्राप्त हुई है जिसे विद्वान् ‘असुर’ के कब्रिस्तान से सम्बद्ध बताते हैं. यहाँ से एक चतुष्पाद प्रस्तर की चौकी प्राप्त हुई है जो पटना संग्रहालय में रखी है.
> सरिड़ खेल
यह स्थल खूंटी गाँव (राँची के समीप) से 10 किमी पूर्व में स्थित है. इस प्राचीन स्थल के नजदीक से रंजन नदी प्रवाहित होती है. श्री एस. सी. राय ने इस स्थल का सर्वप्रथम 1915 ई. में निरीक्षण किया था. यहाँ से प्राचीन ईंटों के काफी टुकड़े प्राप्त हुए हैं. इसके अलावा यहाँ से सोने के कंगन तथा पत्थर के मनके भी प्राप्त हुए हैं.
1944 ई. में श्री ए. घोष ने इस स्थल का निरीक्षण किया और पाया कि यह एक विस्तृत ‘असुर’ स्थल है.
उपर्युक्त वर्णित स्थल के अतिरिक्त राँची-गुमला जिलों में कुछ ऐसे भी पुरास्थल हैं, जो ऐतिहासिक दृष्टिकोण से काफी महत्व के हैं, जैसे
> मभगाँव
यह गुमला जिले का काफी महत्वपूर्ण स्थल है. यह गुमला करीब 90 किमी पश्चिम में स्थित है. सर्वप्रथम श्री चुन्नीलाल ने यहाँ के टांगीनाथ पहाड़ी पर प्राचीन मंदिर के अवशेष एवं मूर्तियों को देखा था. यहाँ छोटे-छोटे मंदिर के भग्नावशेष हैं. इनमें से प्रस्तर से निर्मित मंदिर काफी महत्वपूर्ण हैं.
> चुरिया
यह स्थल राँची शहर के पूर्वी बाइयांचल पर स्थित है. यहाँ एक प्राचीन मंदिर है. यह एक चहारदीवारी से घिरा है. इसकी उत्तरी दीवार पर विक्रम संवत् 1784 (1727 ई.) का एक अभिलेख है.
> जगन्नाथपुर
जगन्नाथपुर राँची से लगभग 10 किमी दक्षिण-पश्चिम में स्थित है. एक ऊँची पहाड़ी पर जगन्नाथपुर मंदिर है। यह उड़ीसा के पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर के सदृश है. यह संवत् 1749 (1692 ई.) में छोटानागपुर के नागवंशी राजा ‘ठाकुर ऐनीशाह’ द्वारा बनवाया गया था.

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