दिए गए संकेत बिन्दुओं के आधार पर लगभग 250 शब्दों में किसी एक विषय पर निबंध लिखें।

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प्रश्न – दिए गए संकेत बिन्दुओं के आधार पर लगभग 250 शब्दों में किसी एक विषय पर निबंध लिखें।

(क) ‘दुर्गापूजा’
(i) भूमिका
 (ii) पर्व मनाने के पीछे धार्मिक कथाएँ
 (iii) मनाने का समय
(iv) उपसंहार ।
 (ख) ‘छात्र और अनुशासन’
(i) भूमिका
 (ii) अनुशासन का महत्त्व
 (iii) अनुशासन का मार्गदर्शन
(iv) उपसंहार ।
 (ग) ‘मेरा प्रिय कवि
 (i) भूमिका
 (ii) उनकी रचना का आधार
(iii) उनकी रचना
 (iv) उपसंहार ।
उत्तर –
(क) ‘दुर्गापूजा’
(i) भूमिका – भारतीय पर्वों में दुर्गापूजा का अन्यतम स्थान है। यद्यपि यह पूर्वी भारत का प्रमुख उत्सव है तथापि यह विभिन्न रूपों में समूचे भारत में मनाई जाती है।
(ii) पर्व मनाने के पीछे धार्मिक कथाएँ– दुर्गा को शक्ति का प्रतीक माना गया है। वेदों और उपनिषदों में भी शक्ति की अधिष्ठात्री देवी दुर्गा का उल्लेख मिलता है। अर्जुन ने दुर्गा का स्तवन किया था। मार्कण्डेय पुराण और देवी भागवत में महाशक्ति चंडिका का गौरवगान किया गया है। राम ने दुर्गा की आराधना की और उनसे अपरिमित बल एवं शौर्य प्राप्त कर रावण का बध किया। राम की इस विजय की स्मृति में ‘दशहरा’ व ‘विजयदशमी’ का पर्व मनाया जाता है। दुर्गापूजा का पर्व आसुरी प्रवृत्तियों पर दैवी प्रवृत्तियों की विजय का पर्व है।
(iii) मनाने का समय- – यह पर्व लगातार दस दिनों तक मनाया जाता है। आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को कलश स्थापन होता है और उसी दिन से माँ दुर्गा की आराधना शुरू हो जाती है। सप्तमी तिथि को ‘प्राण-प्रतिष्ठा’ की जाती है। उस दिन से नवमी तक माँ दुर्गा की पूजा-अ -अर्चना विधिपूर्वक एवं विशेष सात्विकता के साथ की जाती है।
(iv) उपसंहार – दुर्गापूजा सांस्कृतिक पर्व है। माँ दुर्गा की आस्थापूर्ण आराधना- अर्चना करने से हमारे संस्कार परिशुद्ध एवं सात्त्विक होते हैं। आस्था, भक्ति, पवित्रता, सात्त्विकता, आत्मिक उल्लास एवं आध्यात्मिक उन्नयन के इस पर्व को वैभव-प्रदर्शन से कभी दूषित नहीं करना चाहिए। चिंता का विषय यह है कि इस पर्व से आस्था का रंग उड़ता जा रहा है और आडंबरप्रियता बढ़ती जा रही है। दुर्गा शक्ति की देवी है। हमें उनसे शारीरिक, बौद्धिक, वैचारिक एवं आध्यात्मिक शक्ति की माँग करनी चाहिए ताकि हम समाज और राष्ट्र का कल्याण कर सकें।
(ख) छात्र और अनुशासन
(i) भूमिका – अनुशासन के अभाव में किसी भी क्षेत्र में सफलता की कल्पना नहीं की जा सकती। अनुशासन न हो, तो स्वतंत्रता स्वच्छंदता बन जाती है जो व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र को बरबाद कर देती है। व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र की प्रगति अनुशासन पर ही टिकी है। अनुशासित छात्र अपने उद्देश्य की प्राप्ति में सफल होता है। अनुशासित छात्र अपना हितैषी तो होता ही है, वह अपने समाज और देश का भी हितैषी होता है। जीवन के हर क्षेत्र में अनुशासन आवश्यक है, पर छात्र जीवन में तो इसका महत्त्व और बढ़ जाता है, क्योंकि संपूर्ण जीवन की सकल समृद्धि छात्र जीवन की सफलता पर ही निर्भर है। अतः, यह आवश्यक है कि छात्रों को शुरू से ही अनुशासन के प्रति जागरित किया जाए।
(ii) अनुशासन का महत्त्व- – अनुशासन राष्ट्र की प्राण है। यह परिष्कार की अग्नि है जिससे प्रतिभा योग्यता बन जाती है। महात्मा गाँधी ने अनुशासन की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए कहा “आत्मसंयम, अनुशासन और बलिदान के बिना राहत या मुक्ति की आशा नहीं की जा सकती। अनुशासनहीन बलिदान से भी काम नहीं चलेगा।” यानी त्याग, बलिदान और समर्पण में भी अनुशासन की जरूरत है। अनुशासन सर्वोच्च नैतिकता है। दूसरों पर अनुशासन करने के पूर्व अपने पर अनुशासन रखने की जरूरत पड़ती है। अनुशासन की प्रकृति कठोर दिखाई पड़ती है, पर वास्तविकता यह है कि इसकी कठोरता शिष्ट स्वीकार से करुणा में परिवर्तित हो जाती है। ऐसी करुणा किसी को भी धन्य बना सकती है।
(iii) अनुशासन का मार्गदर्शन – अनुशासन पितातुल्य मार्गदर्शक होता है। यह सफलता और प्रगति का सही मार्ग और दिशा निर्दिष्ट करता है। अनुशासन द्वारा निर्दिष्ट मार्ग पर और आदिष्ट दिशा में चलनेवाले विद्यार्थी कभी विफल नहीं होते। छात्र राष्ट्र के भावी कर्णधार हैं। यदि ये अनुशासित होते हैं, तो राष्ट्र का भविष्य भी समुज्ज्वल होगा।
(iv) उपसंहार : छात्रों के समस्त असन्तोषों का जनक अन्याय है, इसलिए जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से अन्याय को मिटाकर ही देश में सच्ची सुख-शान्ति लायी जा सकती है। छात्र अनुशासनहीनता का मूल भ्रष्ट राजनीति, समाज, परिवार और दूषित शिक्षा प्रणाली में निहित है।
(ग) मेरा प्रिय कवि
(i) भूमिका : हिंदी साहित्य के इतिहास में महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का व्यक्तित्व निराला है, ये मानवतावाद के श्रेष्ठ कवि हैं। इनकी गणना ‘छायावाद’ के प्रवर्तक कवियों में की जाती है।
 (ii) उनकी रचना का आधार इनकी रचना का आधार प्रगतिशीलता और अध्यात्म है। ये निर्बलों, असहायों, शोषितों, उपेक्षितों के पक्षधर कवि हैं। समाज के शोषित वर्ग के साथ इनकी हार्दिक सहानुभूति है। ‘वह तोड़ती पत्थर’, ‘भिक्षुक’, ‘कुकुरमुत्ता’ आदि रचनाओं में पूँजीवादी सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध इनका क्षोभ व्यक्त हुआ है। अध्यात्म इनकी रचनाओं का दूसरा महत्त्वपूर्ण आधार है। ‘गीतिका’, ‘अनामिका’ और ‘परिमल’ की अनेक रचनाओं में इनकी आध्यात्मिक अनुभूति की विशद और हृदयस्पर्शी अभिव्यक्ति हुई है। इनकी सौंदर्य चेतना आध्यात्मिकता के रंग में रँगी हुई है।
(iii) उनकी रचना : इनकी प्रसिद्ध काव्य रचनाएँ हैं— अनामिका, परिमल, गीतिका, तुलसीदास, कुकुरमुत्ता, अणिमा, बेला, नए पत्ते । इनकी कथात्मक कृतियों में चतुरी चमार (कहानी-संग्रह), सुकुल की बीवी (कहानी-संग्रह), अप्सरा, अलका, निरुपमा प्रभावती तथा काले कारनामे (सभी उपन्यास) आते हैं। कुल्ली भाट और बिल्लेसुर बकरिहा इनके रेखाचित्र हैं। चाबुक, प्रबंध- प्रतिमा, प्रबंध-पद्म इनके महत्त्वपूर्ण निबंध हैं।
(iv) उपसंहार : ‘निराला’ में कबीर की अक्खड़ता, तुलसी की विराटता, जायसी की लोक स्पर्शिता एवं रवींद्रनाथ ठाकुर की मनस्विता का रचनात्मक समन्वय है। ‘निराला’ जितने सूर की भावुकता, लोक के कवि हैं, उतने ही लोकातीत के भी। पर, इनकी लोकातीत अभिव्यक्ति कभी लोक के रंग और उसकी सुवास का विस्मरण नहीं करती। इनकी प्रतिभा, इनकी वाणी और इनका व्यक्तित्व इतना प्रगतिशील रहा कि वर्तमान से ये निर्वाह न कर सके।

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