पाठ्यक्रम संदर्शिका पर प्रकाश डालें ।

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प्रश्न – पाठ्यक्रम संदर्शिका पर प्रकाश डालें ।
उत्तर – पाठ्यक्रम- संदर्शिका, पाठ्यचर्या (Course of Study) का ही आधुनिक एवं विस्तृत रूप है। सामान्यतया पाठ्यचर्या अध्ययन अध्यापन विषयों एवं प्रकरणों तथा सामान्य उद्देश्यों की एक सूची मात्र बनकर रह जाता है तथा इससे अध्ययन अध्यापन के सम्बन्ध में कोई विशेष सुझाव नहीं मिल पाता है। इस प्रकार शिक्षक-शिक्षार्थी क्रियाओं, शिक्षण – सहायक सामग्री तथा उपयुक्त अधिगम- अनुभवों आदि के बारे में पाठ्यचर्या कोई सुझाव नहीं प्रस्तुत करता है। पाठ्यक्रम-संदर्शिका इन्हीं कमियों को दूर करने का प्रयास करती है । इसमें सूचनात्मक ज्ञान के साथ-साथ शिक्षकों के लिए आवश्यक विस्तृत निर्देश भी सम्मिलित किये जाते हैं । इसीलिए पाठ्यक्रम – संदर्शिका, पाठ्यचर्या एवं शिक्षक संदर्शिका (Teacher’s Guide) का मिला-जुला रूप होती है । पाठयक्रम संदर्शिका में सामान्यतया निम्नांकित पाँच बातें सम्मिलित की जाती हैं।
(i) विषय का महत्त्व एवं दृष्टिकोण,
(ii) विषय – शिक्षण के स्पष्ट उद्देश्य,
(iii) विषय का क्षेत्र तथा क्रमबद्ध रूप,
(iv) स्तर विशेष के लिए उपयुक्त इकाइयाँ एवं प्रकरण,
(v) उपयुक्त शिक्षण – सामग्री एवं क्रियाएँ ।
शिक्षकों के अतिरिक्त पाठ्यक्रम आयोजकों के लिए भी यह बहुत उपयोगी होती है, क्योंकि इससे पाठ्यक्रम संशोधन एवं उन्नयन कार्य हेतु उचित दिशा
-निर्देश प्राप्त होते हैं ।
पाठ्यक्रम – संदर्शिकाओं का महत्त्व (Importances of Curriculum Guides ) – पाठ्यक्रम – संदर्शिकाओं को निम्नलिखित कारणों से महत्त्व प्रदान किया जाता है –
1. इनसे सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आवश्यक विशिष्ट व्यवस्था का निर्देश प्राप्त होता है – अनेक महत्त्वपूर्ण सामान्य उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए शिक्षक विषय-वस्तु, शिक्षण विधि, शिक्षण – सहायक सामग्री आदि के बारे में उचित निर्णय लेने में दुविधा अथवा असमंजस की स्थिति में रहता है । अतः इसके लिए उसे विशेष निर्देश की आवश्यकता होती है। पाठ्यक्रम-संदर्शिका इस आवश्यकता की पूर्ति में सहायक होती है। उदाहरणार्थ, यदि उद्देश्य राष्ट्रीय एकता की भावना का विकास करना है, तो इसका दायित्व केवल सामान्य शिक्षा पर छोड़ देना ठीक नहीं है । इसके लिए मात्र यह कह देना पर्याप्त नहीं होगा कि राष्ट्रीय एकता की भावना को विद्यालयी कार्यक्रम के विभिन्न अंगों के माध्यम से भिन्न-भिन्न उपागमों के द्वारा विकसित किया जा सकता है ? इसके लिए तो कहीं न कहीं इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया जाना आवश्यक होता है कि वे उपागम क्या होंगे तथा उन्हें कब और किस प्रकार प्रयुक्त किया जायेगा । इस कार्य को सामाजिक अध्ययन, भाषा, कला, विज्ञान तथा अन्य विषयों की पाठ्यक्रम संदर्शिकाओं में उपयुक्त पाठ्य-सामग्री एवं क्रियाओं का समावेश करके तथा शिक्षकों को इसे विकसित करने के लिए उत्तरदायी बनाकर सम्पन्न किया जा सकता है।
2. रचनात्मक नेतृत्व के विकास का माध्यम- पाठ्यक्रमक्षेत्र- संदर्शिकाएँ पाठ्यक्रम में रचनात्मक नेतृत्व विकसित करने का माध्यम बनती है । वास्तव में पाठ्यक्रम-संदर्शिकाओं के निर्माण का कार्य तकनीकी प्रकृति का है। इनमें स्थूल बातों के स्थान पर विद्यालयी कार्यक्रम के विभिन्न पक्षों के सम्बन्ध में निश्चित एवं स्पष्ट व्यवस्थाएँ करनी पड़ती है इसलिए इनका निर्माण करने के लिए विशिष्ट ज्ञान एवं कौशल की आवश्यकता होती है। इस प्रकार ये पाठ्यक्रम विशेषज्ञ तैयार करने का माध्यम होती है ।
3. सन्दर्भ इकाइयों के निर्माण में सहायक – आधुनिक समय में शिक्षण कार्य नियोजित ढंग से करने पर विशेष बल दिया जा रहा है । इसके लिए शिक्षक, शिक्षण – इकाइयों का निर्माण करता है | इस कार्य हेतु शिक्षक को निर्देश एवं मार्ग-दर्शन की आवश्यकता होती है । सन्दर्भ इकाइयों का निर्माण इसी उद्देश्य से किया जाता है । पाठ्यक्रम-संदर्शिकाओं का निर्माण प्रारम्भ होने से पहले सन्दर्भ इकाइयों के निर्माण में बहुत कठिनाई होती थी । पाठ्यक्रम-संदर्शिकाओं के निर्माण में इस कार्य का एक बड़ा अंश सम्पन्न हो चुका होता है । अतः सन्दर्भ इकाइयों का निर्माण बहुत सरल हो जाता है ।
4. शिक्षकों के लिए सहायक – पाठ्यक्रम संगठन के अनेक नवीन प्रतिमान विकसित हो जाने के कारण, उचित निर्देशन के अभाव में शिक्षकों को अपना कार्य सम्पन्न करना बहुत कठिन होता जा रहा है । अनेक बार तो उसे कार्य प्रारम्भ करने में भी असुविधा होती है । पाठ्यक्रम-संदर्शिका उसे पाठ्यक्रम प्रतिमान को समझने तथा उसके अनुरूप कार्य करने में सहायक सिद्ध होती है ।
पाठ्यक्रम- संदर्शिकाओं का निर्माण (Preparation of Curriculum Guides)-पाठ्यक्रम-संदर्शिका के निर्माण में जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है । सामान्यत: पाँच बातों को सम्मिलित किया जाता है
1. विषय का महत्त्व एवं दृष्टिकोण (View and Importances of Subject)-इसके अन्तर्गत यह स्पष्ट करने का प्रयास किया जाता है कि अमुक विषय अथवा प्रकरण को क्यों पढ़ाया जाना चाहिए । विद्यार्थियों के लिए इसकी क्या उपयोगिता है तथा इसके अध्ययन अध्यापन की दिशा क्या होगी । अनेक विषयों का अध्ययन अध्यापन अनेक दृष्टियों से किया जा सकता है। उदाहरणार्थ – इतिहास के अध्ययन अध्यापन को कालक्रम के अनुसार घटनाओं की जानकारी तक ही सीमित रखा जा सकता है। यह प्राचीन गौरव का आभास कराने की दिशा भी ले सकता है तथा वर्तमान जीवन को पूर्व ज्ञान एवं अनुभव से लाभ उठाने की दृष्टि से भी अभिप्रेरित हो सकता है । अतः पाठ्यक्रम-संदर्शिकाओं में इस सम्बद्ध में स्पष्ट दिशा-निर्देश दिया जाना उपयुक्त होता है, जिससे शिक्षकों एवं विद्यार्थियों को स्पष्ट दृष्टि प्राप्त हो सके ।
2. विषय – शिक्षण के उद्देश्यों का स्पष्टीकरण (Specification of Objectives of Subject-Teaching)- शिक्षण एक सोद्देश्य प्रक्रिया है । उद्देश्यों का स्पष्ट कथन अध्ययन-अध्यापन को शिक्षक एवं छात्रों के लिए सार्थक एवं रुचिकर बनाता है, उसे निर्देशित करके समय एवं शक्ति के अपव्यय को रोकता है तथा अधिगम की गति को तीव्रता प्रदान करता है। इससे मूल्यांकन कार्य में भी सुविधा होती है । इसलिए पाठ्यक्रम-संदर्शिका में विषय के शिक्षण उद्देश्यों का स्पष्ट उल्लेख किया जाता है ।
3. विषय का क्षेत्र विस्तार एवं क्रमबद्ध स्वरूप (Scope ssand ordereds form of the Subject)-पाठ्यक्रम का क्षेत्र निर्धारण विभिन्न विषयों, उप-विषयों एवं प्रकरणों के सामाजिक एवं शैक्षिक मूल्य को ध्यान में रखकर किया जाता है अर्थात् किसी प्रकरण को विषय के अन्तर्गत सम्मिलित करना या न करना, क्षेत्र निर्धारण का प्रश्न होता है। पाठ्यक्रम का क्रमबद्ध स्वरूप अध्ययन अध्यापन की व्यावहारिक सुविधा की दृष्टि से निर्धारित किया जाता है । इसके अन्तर्गत पाठ्यक्रम की अन्तर्वस्तु को विभिन्न प्रकरणों एवं इकाइयों में विभाजित करके क्रमबद्ध ढंग से व्यवस्थित किया जाता है । अतः इस कार्य के लिए कोई-न-कोई आधार निश्चित करना होता है । इसके लिए विद्यार्थियों के आयु वर्ग के अनुसार उनकी योग्यताएँ, क्षमताएँ, आवश्यकताएँ एवं अभिरुचियाँ तथा विद्यालय की परिस्थितियाँ एवं उपलब्ध साधन-सुविधाएँ सर्वोत्तम आधार हो सकती है। संक्षेप में विषय का क्षेत्र एवं क्रमबद्ध स्वरूप इसके ‘क्या’ और ‘कब’ है ? उदाहरणार्थ, पर्यावरण शिक्षा को सामान्य विज्ञान के अन्तर्गत रखा जाये या सामाजिक विज्ञान के यह विषय का क्षेत्र सम्बन्धी प्रश्न है । किन्तु इसे किस कक्षा-स्तर पर पढ़ाया जाये यह क्रमबद्धता के अन्तर्गत आयेगा । अतः पाठ्यक्रम-संदर्शिका में इसका उल्लेख होना चाहिए । पाठ्यक्रम में क्रमबद्धता के तीन प्रमुख लाभ अग्रांकित प्रकार से हैं –
(i) इससे विभिन्न कक्षा-स्तरों पर विभिन्न प्रकरणों की पुनरावृत्ति से बचा जा सकता है ।
(ii) इससे महत्त्वपूर्ण एवं उपयोगी प्रकरणों की उपेक्षा होने की सम्भावना नहीं रहती है ।
(iii) इससे विभिन्न विद्यालयों एवं कक्षाओं में शिक्षा-स्तर में एकरूपता बनी रहती है ।
4. स्तर विशेष के लिए उपयुक्त इकाई अथवा प्रकरण-विभाजन (Division of Suitable Unit of Topics for Specific Standard) – अध्ययन-अध्यापन की सुविधा की दृष्टि से पाठ्यक्रम को सदैव से ही विभिन्न प्रकरणों में विभाजित किया जाता रहा है। वर्तमान समय में इस पर और अधिक बल दिया जा रहा है तथा प्रकरणों के स्थान पर इकाई विभाजन को महत्त्व प्रदान किया गया है । ऐतिहासिक दृष्टि से इकाई विभाजन का संप्रत्यय सर्वप्रथम 1920 ई. में प्रकाश में आया । तब से इकाई, विषय-वस्तु इकाई, कार्य इकाई, अनुभव-इकाई, प्रक्रिया – इकाई, बाल केन्द्रित इकाई, शिक्षण इकाई, सन्दर्भइकाई आदि अनेक नाम सुनने में आये हैं। इनमें से अधिकांश नाम पाठ्यक्रम संगठन के विभिन्न उपागमों पर आधारित है । शिक्षण – इकाई कक्षा में बास्तविक शिक्षण कार्य में सहायतार्थ निर्मित की जाती है, जबकि सन्दर्भ इकाई, शिक्षक को शिक्षण इकाई निर्मित करने में सहायतो प्रदान करने के उद्देश्य से निर्मित की जाती है, सन्दर्भ – इकाई एवं शिक्षण – इकाई के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा आगे की गई है। –
सामान्यतः इकाई निर्माण अथवा इकाई विभाजन के तीन प्रमुख आधार होते हैं – (i) अन्तर्वस्तु की समानता, (ii) प्रक्रिया की समानता, (iii) अधिगम- अनुभव की समानता ।
इनमें किस आधार को अपनाया जाये, यह अपेक्षित उद्देश्यों एवं प्रस्तुत स्थितियों पर निर्भर करता है ।
इसके सम्बन्ध में टामलिन्सन (Lorens R. Tomlinson) ने ठीक ही मत व्यक्त किया है कि किसी इकाई की वास्तविक प्रकृति का स्पष्ट ज्ञान परिभाषाओं एवं व्याख्याओं की अपेक्षा कार्यात्मक स्तर पर ही हो सकता है, क्योंकि शिक्षण योजना बनाते समय शिक्षक अधिग़म- अनुभवों के बारे में अनेक प्रकार के निर्णय लेता है। स्पष्ट है कि ये सब निर्णय किसी स्थिति विशेष के अनुसार ही लिये जाते हैं । अतः परिभाषाएँ, व्याख्याएँ आदि शिक्षक के लिए केवल दिशा-निर्देश ही कर सकते हैं । पाठ्यक्रम-संदर्शिका में इकाई विभाजन करने का उद्देश्य यह दिशा-निर्देश करना ही होता है । इकाई विभाजन के प्रमुख लाभ इस प्रकार हैं –
(i) इससे अन्तर्वस्तु एवं कौशल पक्ष की समृद्ध करने में सहायता मिलती है ।
(ii) इससे अधिगम को स्थायी बनाने में सहायता मिलती है ।
(iii) इससे विद्यार्थियों एवं शिक्षकों को समस्या समाधान एवं चिन्तन के अवसर प्राप्त होते हैं ।
(iv) इससे व्यक्तिगत भिन्नताओं के अनुसार पृथक्-पृथक् अधिगम- अनुभव उपलब्ध कराने में सुविधा होती है ।
5. उपयोगी शिक्षण सामग्री एवं क्रियाओं सम्बन्धी सुझाव ( Suggestions for suitable Teaching-material and Activities) – पाठ्यक्रम- संदर्शिका का यह बिन्दु शिक्षकों के लिए बहुत ही उपयोगी होता है । ज्ञान के विस्फोट के कारण पाठ्यक्रम में निरन्तर नये ज्ञान का समावेश होता जा रहा है तथा मनोविज्ञान एवं बाल मनोविज्ञान के प्रयोगों एवं अनुसन्धानों से नई-नई शिक्षण विधियाँ भी प्रकाश में आ रही हैं। इसके अतिरिक्त अनेक हैं । इस स्थिति अभिकरण विभिन्न प्रकार की शिक्षण सामग्री भी निर्मित करने में लगे हुए में शिक्षक द्वारा नवीन विधियों को अपनाने तथा प्रभावशाली शिक्षण कार्य करने से अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। अतः इस कार्य में उसको सहायता की आवश्यकता होती है। पाठ्यक्रम-संदर्शिका में विभिन्न विषयों के नवीनतम ज्ञान, इसके लिए उपलब्ध शिक्षण सामग्री एवं उसकी प्रयोग विधि तथा विभिन्न क्रियाओं के आयोजन सम्बन्धी विस्तृत सुझाव सम्मिलित करके शिक्षकों को आवश्यक सहायता प्रदान की जा सकती है ।
पाठ्यक्रम-संदर्शिका निर्माण सम्बन्धी कुछ महत्त्वपूर्ण सुझाव (Some important suggestions for preparation of curriculum guide)-(i) पाठ्यक्रम-संदर्शिका निर्माण हेतु विचार एवं निर्णय के स्तर पर अधिक-से-अधिक लोगों की सहभागिता ली जानी चाहिए। किन्तु लेखन कार्य कुछे चुने हुए व्यक्तियों द्वारा सावधानीपूर्वक की जानी चाहिए।
(ii) पाठ्यक्रम-संदर्शिकाओं के सामान्य रूप से दो तरह के उपयोग होते हैं। एक-ये सम्पूर्ण पाठ्यक्रम तथा पाठ्यक्रम सम्बन्धी नीतियों के लिए सन्दर्भ का कार्य करती है तथा दो-ये शिक्षकों को शिक्षण कार्य के आयोजन में मार्गदर्शन प्रदान करती है। चूँकि इन दोनों कार्यों के लिए निर्मित की जाने वाली संदर्शिक में अन्तर होता है। अतः निर्माताओं को इसका ध्यान रखना चाहिए ।
(iii) संदर्शिका में व्यक्त विचारों एवं दृष्टिकोण में तार्किकता एवं स्पष्टता होनी चाहिए, जिससे इसका प्रयोग करने वाले को किसी प्रकार का भ्रम एवं असुविधा न हो ।
(iv) अलग-अलग परिस्थितियों में कार्यरत विभिन्न प्रकृति के शिक्षकों की सुविधो हेतु संदर्शिका में विभिन्न सम्भावित स्थितियों, प्रवृत्तियों एवं शिक्षण सामग्री का विस्तृत उल्लेख किया जाना चाहिए ।
(v) संदर्शिका में प्रस्तुतीकरण की स्पष्टता पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए तथा विभिन्न बिन्दुओं को इस प्रकार व्यवस्थित किया जाना चाहिए कि इसके प्रयोग में कोई कठिनाई उत्पन्न न हो ।
(vi) पाठ्यक्रम-संदर्शिका में अन्य उपयोगी सामग्री की सन्दर्भ सूची अवश्य सम्मिलित की जानी चाहिए ।
पाठ्यक्रम-संदर्शिकाओं के मूल्यांकन का मानदण्ड (Criteria for Evaluation of Curriculum Guides) – पाठ्यक्रम-संदर्शिकाओं के सम्बन्ध में इनकी निर्माताओं को इस बात की निरन्तर जानकारी करते रहना चाहिए कि वे कितनी उपयोगी रही है, जिससे उनमें आवश्यक संशोधन एवं परिवर्धन किया जा सके । अतः इनके मूल्यांकने के मानदण्ड स्वरूप निम्नलिखित प्रश्नों का उपयोग किया जा सकता है
(i) क्या पाठ्यक्रम-संदर्शिका विषय-वस्तु एवं सामाजिक सन्दर्भ में विद्यालय के दायित्वों के मध्य सम्बन्ध स्पष्ट करने में सफल रही है ?
(ii) क्या यह सम्पूर्ण विद्यालय कार्यक्रम में विषय विशेष के योगदान को स्पष्ट रूप से निर्देशित कर सकी है ?
(iii) क्या यह सुस्पष्ट एवं विस्तृत शिक्षण सामग्री तैयार करने में शिक्षकों का उचित मार्ग-दर्शन कर सकी है ?
(iv) क्या यह वास्तविक शिक्षण कार्य की दृष्टि से व्यावहारिक सिद्ध हुई है ?
पाठ्यक्रम-संदर्शिका एवं शिक्षक – पाठ्यक्रम- संदर्शिका में सम्मिलित की गई सामग्री सुझाव मात्र होती है। शिक्षक के लिए इनको अक्षरशः पालन करने में कोई बाध्यता नहीं होती है । इसका महत्त्व तो इसलिए है कि शिक्षक इसका अध्ययन करें तथा अपने शिक्षण को प्रभावी बनाने में इससे जितनी सहायता लेना उपयुक्त समझे, ले। अत: टोमलिन्सन द्वारा
इकाई विभाजन के सम्बन्ध में की गई टिप्पणी को यहाँ पर भी दुहराना संगत प्रतीत होता है कि इन सुझावों का उद्देश्ये शिक्षक का मार्ग निश्चित करना नहीं बल्कि उसके कार्य में किसी- न – किसी प्रकार की सहायता ही मिलती है ।
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