पूर्व बाल्यावस्था में सामाजिक विकास की विवेचना करें।

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प्रश्न – पूर्व बाल्यावस्था में सामाजिक विकास की विवेचना करें।
उत्तर – पूर्व बाल्यावस्था दो वर्ष से छः वर्ष तक की अवस्था है। इससे पूर्व की अवस्था में बालक सामाजिक अधिगम मुख्यतः घर में रहकर करता है परन्तु इस अवस्था में वह सामाजिक अधिगम घर से बाहर पड़ोस और स्कूल में अधिक करता है। एक अध्ययन (W. Enmmerich, 1966) में यह देखा गया कि इस अवधि में बालकों में जो सामाजिक अभिवृत्तियाँ निर्मित होती हैं अथवा वह जो सामाजिक व्यवहार सीखता है वही आगे तक बना रहता है, उसमें बहुत थोड़ा परिवर्तन होता है। एक अन्य अध्ययन (J.B. Raph, et al.. 1968) में यह देखा गया कि जो बच्चे इस अवधि में स्कूल जाना प्रारम्भ कर देते हैं, उनमें सामाजिक विकास अन्य बच्चों की अपेक्षा अधिक और तीव्र गति से होता है। क्योंकि स्कूल में बच्चों को सामाजिक अनुभवों को प्राप्त करने के अधिक अवसर प्राप्त होते हैं। जब बालब लगभग दो वर्ष का होता है तब वह स्वतन्त्र रूप से खेलना (Parallel Play) पसन्द करता है। इस अवस्था में चाहे अन्य बच्चे भी कमरे में क्यों न खेल रहे हों, उनमें अन्तः क्रिया बहुत थोड़ी होती है। इस अवस्था में अधिकांशतः वे एक-दूसरे को देखते हैं और एक-दूसरे के खिलौने लेने का प्रयास कर सकते हैं। लगभग तीन-चार वर्ष की अवस्था में बालकों में सामूहिक खेल प्रारम्भ हो जाते हैं। इस अवस्था में वे खेल के समय साथ-साथ खेलते हैं तथा बातचीत भी करते हैं। इस अवस्था के बाद बालकों की आयु जैसे-जैसे आगे बढ़ती जाती है उनमें मित्रता के व्यवहार बढ़ते जाते हैं, छीना-झपटी और मारपीट के सम्बन्ध कम होते चले जाते है। दो वर्ष के बाद बच्चों की आयु जैसे-जैसे बढ़ती जाती है, वयस्क व्यक्तियों के साथ उनके सम्बन्ध उतने ही कम होते जाते हैं। वह उनके साथ कम और अपनी आयु के बच्चों के साथ अधिक रहना पसन्द करते हैं। इस अवस्था में उनमें वयस्कों से स्वतन्त्र होने की इच्छा होती है। इस अवस्था में उनमें वयस्कों के प्रति अवरोधी विचार उत्पन्न होने लगते हैं। एक अध्ययन (H. W. Stevenson, 1967) में यह देखा गया है कि इस अवधि में बच्चों में माता-पिता की अपेक्षा बाह्य व्यक्तियों का अधिक प्रभाव होता है।
पूर्व बाल्यावस्था में सामाजिक व्यवहार के कुछ प्रकार (Some Common forms of Social Behaviour in Early Childhood)
( 1 ) आक्रामकता (Aggressiveness) — पूर्व बाल्यवस्था में लगभग सभी बच्चों का व्यवहार कुछ-न-कुछ मात्रा में आक्रामक होता है। लगभग पाँच वर्ष की अवस्था तक आक्रामकता का व्यवहार चरम सीमा तक पहुँच जाता है। इसके बाद इस व्यवहार की तीव्रता और आवृत्ति, दोनों कम होने लगती हैं। आक्रामक व्यवहार बच्चों में अनेक कारणों से उत्पन्न होता है (i) माता-पिता का तिरस्कारपूर्ण व्यवहार, (ii) अधिक ध्यान आकर्षित करने की इच्छा, (iii) ईर्ष्या, (iv) बालक या बड़े बच्चे के आक्रामक व्यवहार से तादात्मीकरण (Identification), (v) बालक की गलतियों के लिए उसे मार-पीटकर दण्डित किया जाना, (vi) पारिवारिक तनाव के कारण बालक में उत्पन्न संवेगात्मक तनाव, (vii) अपनी उच्चता (Superiority) प्रदर्शित करने की इच्छा, (viii) उसके आवश्यक लक्ष्य में व्यवधान। इस आयु का बालक जब आक्रामकता का व्यवहार अपनाता है तब वह हाथ-पैर पटक सकता है। जिस व्यक्ति के प्रति आक्रामक व्यवहार अपनाता है उसे मार-पीट सकता है। लगभग पाँच वर्ष की अवस्था से उसका आक्रामकता सम्बन्धी व्यवहार प्रत्यक्ष की अपेक्षा अप्रत्यक्ष होता जाता है। अध्ययनों में यह देखा गया है कि बालक आक्रामक व्यवहार बहुधा परिचित बच्चों के प्रति ही अधिक प्रदर्शित करता है ।
( 2 ) झगड़ा (Quarreling) – यद्यपि यह आक्रामकता से ही उत्पन्न होता है परन्तु यह आक्रामकता से भिन्न है क्योंकि झगड़े में दो या अधिक बच्चों की आवश्यकता होती है जबकि आक्रामकता पूर्णत: वैयक्तिक क्रिया (Individual Act) है। दूसरा अन्तर यह है कि झगड़े में एक बच्चा सुरक्षात्मक प्रवृत्ति अपनाता है जबकि आक्रामकता में एक ही प्रकार की अनुक्रिया होती है। लगभग तीन-चार वर्ष की आयु तक यह अपनी चरमसीमा तक पहुँच जाता है। इस अवस्था के बाद जैसे-जैसे बालक का सामाजिक समायोजन बढ़ता जाता है, उसमें झगड़े की प्रवृत्ति कम होती जाती है। बच्चों में झगड़ा बहुधा उस समय प्रारम्भ होता है जब तक बच्चा दूसरे बच्चे के खिलौने छीनने, नोंचने, काटने, गन्दे शब्द बोलने धक्का देने तथा चिल्लाने, आदि जैसे व्यवहार देखे जा सकते हैं। इस अवस्था में उस समय झगड़ा कम होता है जब बच्चे अलग-अलग खेलते हैं अथवा कोई बौद्धिक कार्य या खेलते हैं। लड़कियों की अपेक्षा लड़के अधिक झगड़ा करते हैं।
( 3 ) चिढ़ाना (Teasing)– चिढ़ाना एक प्रकार का मौखिक आक्रमण है जिसके द्वारा बालक दूसरे बालक को क्रोधित करता है और उस बच्चे के लक्ष्य को केवल मौखिक आक्रमण से ही प्राप्त करना चाहता है। बहुधा बच्चे अपने से कमजोर या छोटे बच्चों को चिढ़ाते हैं। अध्ययनों में यह देखा गया है कि लड़के लड़कियों की अपेक्षा यह व्यवहार अधिक अपनाते हैं तथा चिढ़ाने का व्यवहार हीनता और असुरक्षा की भावना वाले बच्चे उच्च समायोजन वाले बच्चे की अपेक्षा अधिक करते हैं।
(4) निषेधात्मक व्यवहार (Negative Behaviour)—यह आज्ञा के विपरीत कार्य या व्यवहार करने की प्रवृत्ति है। निषेधात्मक व्यवहार का आरम्भ लगभग 18 माह की आयु में होता है तथा पाँच-छ: वर्ष की अवस्था तक यह व्यवहार चरमसीमा पर पहुँच जाता है। छः वर्ष की अवस्था के बाद इस प्रकार का व्यवहार कम होने लगता है लेकिन पुन: एक बार फिर इस प्रकार का व्यवहार दस-ग्यारह वर्ष की अवस्था में चरमसीमा पर पहुँचता है। अध्ययनों में देखा गया है कि समायोजित बच्चे अप्रत्यक्ष निषेधात्मक व्यवहार अपनाते हैं और समायोजित बच्चे प्रत्यक्ष निषेधात्मक व्यवहार अपनाते हैं। तीन वर्ष का बालक निषेधात्मक व्यवहार में बड़ों की आज्ञा को नहीं सुनता है, न ही समझता है, बुलाने पर छुप जाता है। जिन बच्चों में यह व्यवहार बहुत अधिक मात्रा में होता है, बुलाने पर छुप जाता है। जिन बच्चों में यह व्यवहार बहुत अधिक मात्रा में होता है उन्हें कितना भी कहिये, समझाइये, वह बात नहीं सुनते हैं। लगभग पाँच-छ: वर्ष की अवस्था में बालक निषेधात्मक व्यवहार में शारीरिक क्रियाएँ कम तथा मौखिक व्यवहार अधिक अपनाता है। अक्सर वह नहीं चुप हो जाता है।
(5 ) सहयोग (Co-operation)– समान उद्देश्य की पूर्ति के लिए सम्मिलित रूप से दो या अधिक बालकों का प्रयास सहयोग कहलाता है। दो-तीन वर्ष का बालक झगड़ालू होता है अतः उसमें सहयोग नहीं होता है। अतः तीसरे-चौथे वर्ष में बालक में सहयोग दिखाई देता है। सहयोग के प्रथम लक्षण बच्चों के सामूहिक खेल में दृष्टिगोचर होते हैं। यह देखा गया है कि एक बच्चा दूसरे बच्चों के साथ जितना ही अधिक रहता है, उसमें सहयोग के लक्षण उतनी ही जल्दी उत्पन्न हो जाते हैं। लगभग छः-सात वर्ष का बच्चा सहयोग का थोड़ा-थोड़ा अर्थ समझने लगता है। जहाँ बच्चों के लालन-पालन में प्रभुत्वशाली विधियाँ अपनाई जाती हैं वहाँ बच्चे अक्सर निषेधात्मक व्यवहार अपना लेते हैं और वे असहयोगी व्यवहार वाले हो जाते हैं। सहयोग करना बहुधा बच्चे अपने सामूहिक खेल और घर से सीखते हैं और यहीं से वे सहयोग का उपयोग घर से बाहर भी करने लग जाते हैं।
( 6 ) ईर्ष्या (Rivalry) – चार वर्ष की आयु के बच्चों में बहुधा ईर्ष्या के लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं। तीन वर्ष के बच्चों में भी ईर्ष्या के लक्षण कभी-कभी हो सकते हैं। तीन से छः वर्ष की आयु के बच्चे बहुधा ईर्ष्या में अपने आप को दूसरों से उच्च सिद्ध करते हैं अथवा यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि उनके पास जो चीजें या खिलौने हैं, वे किसी अन्य बच्चे के पास नहीं है। एक अध्ययन (R.E. Vogler, 1970) से यह स्पष्ट हुआ है कि लगभग वर्ष के बालक में प्रतियोगिता (Competition) की भावना बहुत अच्छी विकसित हो जाती है। उच्च सामाजिक-आर्थिक स्तर वाले बच्चों की अपेक्षा निम्न सामाजिक-आर्थिक स्तर वाले बच्चों में प्रतियोगिता की भावना अधिक पाई जाती है। बहुधा जब दो बच्चों के बीच तीसरा कोई वयस्क व्यक्ति होता है तो ईर्ष्या में झगड़ा अवश्य प्रारम्भ हो जाता है। ईर्ष्या – खेलने, दौड़ने, लिखने, पढ़ने, खिलौने रखने तथा वस्त्र आदि किसी के भी सम्बन्ध में हो सकती है।
(7 ) उदारता (Generosity) — बहुधा देखा गया है कि छोटा बच्चा आत्म-केन्द्रित (Ego-centric) प्रकार का होता है। यदि वह कोई चीज माँगता ह और चीज उसे नहीं दी जाती है तो वह चीखने-चिल्लाने लग जाता है, क्रोधित हो जाता है। बच्चा स्वार्थी (Selfish) होता है। लगभग चार से छः वर्ष की अवस्था तक उसका यह स्वार्थीपन चरमसीमा पर पहुँच जाता है। इसके बाद कुछ ही समय में वह यह समझने लगता है कि स्वार्थीपन (Selfishness) से सामाजिक स्वीकृति (Acceptance) नहीं मिलती है। इस अवस्था से वह परिस्थितियों के साथ ठीक प्रकार से समायोजन करना प्रारम्भ कर दता है और यहीं से वह दूसरों के समान व्यवहारों को अपनाने लगता है। (M.B. Harris, 1970; J.H. Bryan & N.H. Walbek, 1970)। बालक का स्वार्थीपन जैसे-जैसे घटता जाता है उसमें उदारता के लक्षणों का विकास होता जाता है। जितने ही अमीर घरों के बच्चे होते हैं उतने ही अधिक स्वार्थी हुआ करते हैं। अधिक उदार बच्चे बहुधा मध्यवर्गीय, परिवारों से होते हैं। इन परिवारों में माता-पिता उनको अच्छे समायोजन और उदारता के गुण समय-समय पर सिखते रहते हैं। अधिक बड़े परिवारों के बच्चे भी काफी उदार होते हैं परन्तु बहुत छोटे परिवारों के बच्चे उतने उदार नहीं होते हैं। कुछ अध्ययनों (M.B. Shure, 1968; E. Staub & L. Sherk, 1970) में यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया कि उदारता और स्वार्थीपन का गुण परिवार के आकार की अपेक्षा प्रशिक्षण पर अधिक आधारित है। एक अध्ययन (J. H. Bryan & N. H. Walbek, 1970; M. B. Harris, 1970) में यह सिद्ध किया गया कि बालक उदारता किसी-न-किसी मॉडल से सीखते हैं। इस मॉडल का अनुकरण करके व उदारता तब सीखते हैं जब उन्हें मॉडल का सफल से सीखते हैं। इस मॉडल का अनुकरण करके व उदारता तक सीखते हैं जब उन्हें मॉडल का सफल अनुकरण करने पर अनुमोदन (Approval) मिल जाए। कई बार बच्चे उदारता उस समय भी सीख जाते हैं जब उन्हें उदारता के लक्षणों को अपनाने का पुरस्कार मिलता दिखाई देता है।
( 8 ) सामाजिक अनुमोदन की इच्छा (Desire for Social Approval) – सम्भवतः जब बच्चा बोलना भी नहीं जानता है तभी वह यह समझने लग जाता है कि वह प्रशंसा और ध्यान का केन्द्र है। बालक को सामाजिक अनुमोदन जैसे-जैसे प्राप्त होता जाता है, उसे प्रसन्नता और आनन्द प्राप्त होता जाता है। बहुधा छोटा बच्चा यद्यपि अनजान व्यक्तियों से शर्माता है परन्तु कुछ बड़ा बच्चा इन अनजान व्यक्तियों अपने माता-पिता की अपेक्षा अधिक अनुमोदन प्राप्त करना चाहता है। जिस बच्चे में सामाजिक अनुमोदन की जितनी ही अधिक इच्छा होती है वह सामाजिक समायोजन उतनी ही जल्दी कर लेता है। वह शीघ्र ही समाज की प्रत्याशाओं के अनुसार व्यवहार अपना लेता है।
( 9 ) आश्रितता (Dependency)– बहुधा देखा गया है कि बच्चा जिन चीजों को नहीं कर सकता है अथवा जिन चीजों के लिए विश्वास करता है कि वह इनको नहीं कर पाएगा, उनके लिए वह दूसरों पर आश्रित हो जाता है। वह दूसरों पर अपनी Ego की सपोर्ट के लिए, दूसरों का प्यार प्राप्त करने के लिए, दूसरों का ध्यान प्राप्त करने के लिए आश्रित हो सकता है। प्रारम्भ में बच्चा अपने माता-पिता का आश्रित होता है, फिर भाई-बहिनों, परिवार के सदस्यों और अन्त में मित्रों पर आश्रित होता है। लगभग 3 से 4 वर्ष का बालक अपने साथी समूह पर आश्रित होने लग जाता है। आश्रितता की आदत बालक घर से सीखता है परन्तु वह कुछ ही दिनों में इसे अन्यत्र उपयोग करने लगता है। जब बालक में असुरक्षा की भावना होती है तब उनमें अति-आश्रितता (Over-dependency) की भावना उत्पन्न हो जाती है। एक अध्ययन (H.L.Koch, 1960) में देखा गया कि जब बच्चे अधिक बीमार रहते हैं तब उनमें अति-आश्रितता के लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं अथवा जब नया भाई या बहिन उत्पन्न होने वाली होती है तो भी अति-आश्रितता के लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं।
( 10 ) बालकों में मित्रता (Friendship) – छोटे बच्चे दूसरे बच्चों और वयस्क दोनों के प्रति मित्रवत् होते हैं। बहुधा प्रारम्भ में अपने भाई-बहिनों, चाहे वह छोटे हों या बड़े, को ही मित्र बनाता है, लगभग पाँच वर्ष की अवस्था में उसके कुछ पड़ोस के मित्र भी हो जाते हैं और सात वर्ष की अवस्था तक कुछ मित्र विद्यालय के भी हो जाते हैं। बहुधा यह वे मित्र होते हैं जो बालक के पड़ोस के ही रहने वाले होते हैं। अध्ययनों में देखा गया है कि लड़कियाँ लड़कों की अपेक्षा अधिक मित्रवत् व्यवहार करती हैं। उनकी मित्रता में स्नेह अधिक होता है। इस अवस्था की मित्रता में उनमें अक्सर झगड़े भी होते हैं परन्तु यह झगड़े बहुत छोटे समय के लिए होते है । बालकों में मित्रता, स्वभाव, सामाजिकता, सहानुभूति, रुचियों में समानता, सहयोग, यौन में समानता, पड़ोस, सच्चाई, ईमानदारी, प्रलोभन, नैतिकता, नेतृत्व और प्रभुत्व की भावना (Leadership and Dominance), शारीरिक सुन्दरता आदि। छोटे और बड़े बालकों की मित्रता के कारण भिन्न-भिन्न होते हैं।
(11) सहानुभूति (Sympathy) – सहानुभूति में एक बालक दूसरे बालक के साथ.. समान संवेगों को प्रदर्शन करता है। सहानुभूति बालक तभी प्रदर्शित करना सीखता है जब वह अपने को दूसरे की पोजीशन में होने की कल्पना कर सकता है। लगभग चार वर्ष की अवस्था के अन्त तक बालकों में सहानुभूति के लक्षण कभी-कभी देखे जा सकते हैं। यह छोटे बच्चे दूसरे बच्चों की सुरक्षा करके तथा दूसरे बच्चों की सहायता करके सहानुभूति प्रदर्शित कर सकते हैं। कुछ अधिक बड़े बच्चे भाषा के द्वारा सहानुभूति व्यक्त करने लग जाते हैं।
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