बालक के पालन-पोषण की विभिन्न विधियों की विवेचना करें।
प्रश्न – बालक के पालन-पोषण की विभिन्न विधियों की विवेचना करें।
उत्तर- बालक के पालन-पोषण की विधियाँ वास्तव में उनके साथ माता-पिता द्वारा किए जाने वाले व्यवहारों का समूह हैं जो विभिन्न परिस्थितियों में किए जाते हैं। पालन-पोषण की विभिन्न विधियों के अध्ययन हेतु माता-पिता के व्यवहारों को देखकर Diana Baumrind ने बहुत सी जानकारियाँ एकत्र की (Baumrind, 1971; Baumrind & Black, 1967) और बताया कि प्रभावशाली पितृत्व ( authoritative parenthood), कम प्रभावशाली पितृत्व एवं उन्मुक्त पितृत्व से भिन्न होता है। उन्होंने इस आधार पर भिन्नता बताई हैं : –
(1) बच्चे को स्वीकार कर उनके जीवन में सांवेगिक सम्बन्ध स्थापित करने हेतु अपनी भूमिका बनाए रखना।
(2) बच्चों में परिपक्व व्यवहार को बढ़ाने में नियंत्रण
(3) प्रभावकारी पितृत्व बच्चों में self-reliance लाने में मददगार है।
इन तीनों तथ्यों के आधार पर बच्चों के पालन-पोषण के विभिन्न तरीके बताए गए हैं:
1. औथोरिटेटिव प्रभावशाली पितृत्व (Authoritative Child Rearing) बच्चों के पालन-पोषण का यह तरीका सबसे सफल माना जाता है । ऐसे माता-पिता या अभिभावक में स्वीकार्यता एवं भागीदारी, प्रेम देखा जाता है। वे बच्चों के प्रति काफी सावधान, उनकी हर जरूरत के प्रति काफी संवेदनशील होते हैं। अपने बच्चों के प्रति काफी आपसी सम्बन्ध काफी प्रेमपूर्ण, सांवेगिक एवं आत्मिक होते हैं और व्यवहारों में सौहार्दपूर्ण, अपनी प्रत्येक बात को आसानी से व्यक्त करने की प्रवृत्ति होती है। उनके एवं बच्चों के बीच अन्त:क्रिया भी काफी खुली होती है। किंतु इस तरह के माता-पिता बच्चों के व्यवहारों को नियंत्रित करने की विधि भी अच्छी तरह जानते हैं। परिपक्वता को देखते हुए वे बच्चों की तर्कसम्मत जरूरतों को पूरा करते हैं तथा इनकार करने पर उसका कारण भी स्पष्ट कर दते हैं। अपने बच्चों से भी उनकी अपेक्षाएँ होती है, उसे स्पष्ट कर बच्चों में स्वयं ही नियंत्रित व्यवहार करने की आदत विकसित करने में सहायता देते हैं। इस पोषण-विधि की सबसे बड़ी खासियत है कि वे बच्चों को स्वयं निर्णय लेने की स्वतंत्रता देते हैं। बच्चे अपने विचार एवं इच्छाओं को व्यक्त करने के लिए स्वतंत्र होते हैं। यदि ऐसी कोई स्थिति आती है जिसमें माता-पिता एवं बच्चे एकमत नहीं होते तो वे सब मिलकर निर्णय लेते हैं और जहाँ तक सम्भव हो, एक निष्कर्ष पर पहुँचने की कोशिश करते हैं। पूरी बाल्यावस्था एवं किशोरावस्था के दौरान इस तरह की पोषण विधि काफी हद तक सफल रहती है। इससे आत्म-नियंत्रण, सहयोग तथा पूर्व विद्यालयी अवस्था में सबके साथ सहमति, नैतिक एवं सामाजिक परिपक्वता, कुछ कर पाने की प्रेरणा तथा विद्यालयों में अच्छी सफलता के आसार होते हैं (Baumrind & Black, 1967; Steinberg, Darling & Fletcher, 1995; stattin & Nurmi, 2000; Luster & McAdoo, 1966)।
2. औथोरिटेरियन पितृत्व ( Authoritarian Child Rearing)
वैसे माता-पिता जो अधिक प्रभुत्व सम्बन्धी विचार रखते हैं, उनमें बच्चों से सहमति नहीं बन पाती। उनके बच्चों से किए गए व्यवहार में ठंढापन, नकारात्मकता, उपेक्षा रहती है और छोटी-छोटी बातों में भी वे बच्चों का अपमान कर देते हैं और उसपर मजाक उड़ाते हैं। बच्चों पर अत्यधिक नियंत्रण, आदेशात्मक व्यवहार एवं आलोचना करते हैं। “ऐसा करो इसलिए कि मैने ऐसा कहा या ऐसा चाहता हूँ”। इस प्रकार के माता-पिता की अभिवृत्ति होती है। यदि बच्चा उनकी आज्ञा की अवेहलना करता है, तो माता-पिता उसके साथ जर्बदस्ती करते हैं तथा उसे दंडित भी कतरे हैं। ऐसे में बच्चों को स्वच्छंदता मिलने की कोई सम्भावना ही नहीं होती। अपने बच्चों के लिए वे ही कोई भी निर्णय स्वयं ही लेते हैं और बच्चों से ये अपेक्षा करते हैं कि बिना किसी सवाल किए ही उनकी बात मान लें। ऐसे में बच्चों को आत्माभिव्यक्ति और स्वतंत्र होने का अवसर नहीं मिलता।
विभिन्न अध्ययनों द्वारा पता चला है कि इस प्रकार के प्रभुत्व वाले माता-पिता के संरक्षण वाले बच्चों में नाखुशी एवं चिंता के संवेग दिखाई देते हैं। विशेषकर लड़कियों में निर्भरता एवं प्रतियोगितापूर्ण कार्यों में कम भागीदारी दिखती है। दोस्तों के साथ खेल के दौरान निराशा होने पर दुश्मनी का भाव भी परिलक्षित होता है। माता-पिता के समान ही अपनी अनुरूप कार्य न होने पर जर्बदस्ती अपनी इच्छा पूरी करवाने का प्रयास करते हैं। लड़कों में बहुत ज्यादा गुस्सा, आक्रामकता देखी जाती है। किशोरावस्था एवं युवावस्था में ऐसे बच्चों को किसी से सामंजस्य करने में कठिनाई होती है। किंतु इस तरह की पोषण विधि का सकारात्मक पहलू यह है कि ऐसे बच्चे स्कूल की पढ़ाई में अच्छा करते हैं और जल्दी असमाजिक तत्त्वों से मिल नहीं पाते क्योंकि माता-पिता का उनपर बहुत ध्यान होता है। (Baumrind, 1991; Kurdek & Fine, 1994; Lamborh, 1991)।
3. परिमिसिव पितृत्व (Permissive Child Rearing)
बच्चों के पालन की यह पद्धति सबसे ज्यादा ग्राह्य तथा सौहार्दपूर्ण होती है। इस तरह के अभिभावक बहुत असावधान एवं आवश्यकता से अधिक मामलों में अनावश्यक हस्तक्षेप करते रहते हैं। अपने बच्चों के व्यवहार पर उनका बहुत कम नियंत्रण रहता है। बच्चों की सीमा कहाँ तक है, इसका निर्धारण नहीं करते। उनपर नियंत्रण करने की बजाय ऐसे अभिभावक बच्चों को ऐसे निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र छोड़ देते हैं जो उनकी वर्तमान उम्र के अनुकूल नहीं होता। उन्हें घर का कार्य करना नहीं सिखाया जाता। वे अपनी मर्जी से जब खाएँ, सोएँ या कितने भी समय तक टी.वी. देखें, इन सबकी कोई नियमबद्धता नहीं होती। यद्यपि कुछ अभिभावक इस विधि को सही मानते हैं जबकि अन्य बच्चों को नियंत्रित रखने में स्वयं को असक्षम मानते हैं। इस तरह के माता-पिता के बच्चे विद्रोही एवं अनाज्ञाकारी होते हैं और जब भी उन्हें किसी कार्य के लिए कहा जाता है, उसकी अवहेलना कर देते हैं। इनकी अपेक्षाएँ माता-पिता से बहुत ज्यादा होती हैं एवं माता-पिता पर ही निर्भर रहते हैं। लड़कों के साथ permissiveness एवं निर्भरता की घटनाएँ ज्यादा देखने को मिलती हैं।
किशोरावस्था में माता-पिता का प्रभाव और भी कम हो जाता है। ऐसे में बच्चे पढ़ाई में अच्छा नहीं करते तथा असामाजिक कार्यों में लिप्त हो जाते हैं।
4. अनइन्बौल्ड पितृत्व (Uninvolved Child Rearing)
इस पद्धति में कम स्वीकार्यता, बहुत कम नियंत्रण एवं प्रभुत्व के मामलों में माता-पिता की कोई भूमिका न के बराबर ही होती है। ऐसे माता-पिता बच्चे को खिलाने-पिलाने या कपड़े पहनाने से ज्यादा कुछ नहीं करते। प्रायः ऐसे माता पिता बच्चों के लिए समय और ऊर्जा नहीं होती। वैसी मांगे जो आसानी से उपलब्ध हो जाएँ, उनकी पूर्त्ति तो कर देते है किंतु वैसे लक्ष्य या मांग जिनकी प्राप्ति में काफी समय लगे यथा गृह-कार्य तथा सामाजिक व्यवहारों के लिए निश्चित प्रतिमान स्थापित करना या इसके लिए प्रेरित करना, बच्चे के विचार सुनना, उनकी किसी कार्य की पूत्ति हेतु निर्देशन देना, आदि से वे दूर ही रहना या उसमें पड़ना पसंद नहीं करते ।
इस तरह की पोषण विधि की अधिकता को हम बच्चे के साथ दुर्व्यवहार (child maltreatment) या तिरस्कार या उपेक्षा (neglect ) कह सकते हैं। माता-पिता जिनके आपसी सम्बन्ध अच्छे नहीं हैं, अवसादग्रस्त हैं, गरीबी, बहुत कम सामाजिक एवं पारिवारिक सहायता हो आदि ही इस तरह का व्यवहार अपने बच्चों से करते हैं। विशेष रूप से जब इस तरह के व्यवहार की शुरूआत होती है तो हर तरह का विकास, जैसे-लगाव, बौद्धिक विकास, खेल, सांबेगिक विकास एवं सामाजिक कौशल, सब कुछ बिगड़ जाता है। यदि माता-पिता की व्यस्तता कम हो तो भी असामान्जस्य उत्पन्न हो जाता है। किशोर बच्चे जिनके माता-पिता से बहुत कम अंतरगता एवं अतः क्रिया होती है, विद्यालय की पढ़ाई में रुचि नहीं लेते। अपनी सांवेगिक क्रियाओं पर अनियंत्रण व आत्मसम्मान का भाव रहता है तथा आगे चलकर ये व्यवहार असामाजिक हो जाते हैं।
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